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Saturday 26 May, 2007

संघ का सच


-संजीव कुमार सिन्हा

हिन्दी ब्लॉग पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ काफी दिनों से चर्चा के केन्द्र में है। संघ के बारे में तरह-तरह के विचार प्रस्तुत किए गए है लेकिन अधिकांश पूर्वाग्रह से प्रेरित कहे जा सकते है। आखिर कोई यह समझने का प्रयास क्यों नहीं करता कि क्या कारण है कि संघ विचार परिवार तमाम अवरोधों के बावजूद बढता ही जा रहा है। संघ ने विचार की धरातल पर जहां सभी वादों- समाजवाद, साम्यवाद, नक्सलवाद को पटखनी दी हैं वहीं राजनीतिक क्षेत्र में भी कांग्रेस के वर्चस्व को तोड़ा है। पहले भारतीय राजनीति गैर कांग्रेसवाद के आधार पर चलती थी अब यह गैर भाजपावाद हो गया है। संघ के सभी आनुषांगिक संगठन आज अपने-अपने क्षेत्र के क्रमांक एक पर है। भारतीय मजदूर संघ, विद्यार्थी परिषद्, विद्या भारती, स्वदेशी जागरण मंच, भाजपा, विश्व हिन्दू परिषद् आदि...सेवा के क्षेत्र में वनवासी कल्याण आश्रम, सेवा भारती की सक्रियता प्रशंसनीय है। इस पर बहस होनी चाहिए कि कांग्रेस और वामपंथ का आधार क्यों सिकुड़ रहा है और संघ भाजपा के प्रति जन-समर्थन क्यों बढ़ रहा हैं। पिछले पंजाब और उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में माकपा-भाकपा और माले का खाता क्यों नहीं खुल पाया। कांग्रेस पिछले कई चुनावों से लगातार पराजय का मुंह क्यों देख रही है। देश की जनता अब समझदार हो गई है। वह देखती है कि कौन उसके लिए ईमानदारीपूर्वक काम कर रहा है और कौन केवल एयरकंडीशन कमरों में बैठकर महज जुगाली कर रहा है। समाजसेवा के नाम पर कांग्रेस-वामपंथियों की क्या उपलब्धि है। इस बात में दम है कि 'अंधेरे की शिकायत करते रहने से कहीं बेहतर है एक दिया जलाना'।

हम देखते हैं कि 1885 में स्थापित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस जहां आंतरिक कलह और परिवारवाद के कारण दिन-प्रतिदिन सिकुड़ती जा रही है, वहीं 1925 में दुनिया को लाल झंडे तले लाने के सपने के साथ शुरू हुआ भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन आज दर्जनों गुटों में बंट कर अंतिम सांसें ले रहा है। इनके विपरीत 1925 में ही स्थापित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ दिनोंदिन आगे बढ़ रहा है।

आज यदि गांधी के विचार-स्वदेशी, ग्राम-पुनर्रचना, रामराज्य-को कोई कार्यान्वित कर रहा है तो वह संघ ही है। महात्मा गांधी का संघ के बारे में कहना था- 'आपके शिविर में अनुशासन, अस्पृश्यता का पूर्ण रूप से अभाव और कठोर, सादगीपूर्ण जीवन देखकर काफी प्रभावित हुआ' (16.09.1947, भंगी कॉलोनी, दिल्ली)।

आज विभिन्न क्षेत्रों में संघ से प्रेरित 35 अखिल भारतीय संगठन कार्यरत हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, वैकल्पिक रोजगार के क्षेत्र में लगभग 30 हजार सेवा कार्य चल रहे हैं। राष्ट्र के सम्मुख जब भी संकट या प्राकृतिक विपदाएं आई हैं, संघ के स्वयंसेवकों ने सबसे पहले घटना-स्थल पर पहुंच कर अपनी सेवाएं प्रस्तुत की हैं।

संघ में बौध्दिक और प्रत्यक्ष समाज कार्य दोनों समान हैं। संघ का कार्य वातानुकूलित कक्षों में महज सेमिनार आयोजित करने या मुट्ठियां भींचकर अनर्गल मुर्दाबाद-जिंदाबाद के नारों से नहीं चलता है। राष्ट्र की सेवा के लिए अपना सर्वस्व होम कर देने की प्रेरणा से आज हजारों की संख्या में युवक पंचतारा सुविधाओं की बजाय गांवों में जाकर कार्य कर रहे हैं। संघ के पास बरगलाने के लिए कोई प्रतीक नहीं है और न कोई काल्पनिक राष्ट्र है। संघ के स्वयंसेवक इन पंक्तियों में विश्वास करते हैं-'एक भूमि, एक संस्कृति, एक हृदय, एक राष्ट्र और क्या चाहिए वतन के लिए?'

संघ धर्म और जाति के आधार पर भेदभाव नहीं करता। इसके तीसरे सरसंघचालक बाला साहब देवरस ने उद्धोष किया कि 'अस्पृश्यता यदि पाप नहीं है तो कुछ भी पाप नहीं है।' बाबा साहब भीमराव आंबेडकर का कहना था- 'अपने पास के स्वयंसेवकों की जाति को जानने की उत्सुकता तक नहीं रखकर, परिपूर्ण समानता और भ्रातृत्व के साथ यहां व्यवहार करने वाले स्वयंसेवकों को देखकर मुझे आश्चर्य होता है' (मई, 1939, संघ शिविर, पुणे)।

संघ की दिनोंदिन बढ़ती ताकत और सर्वस्वीकार्यता देखकर उसके विरोधी मनगढ़ंत आरोप लगाकर संघ की छवि को विकृत करने का प्रयास कर रहे हैं, लेकिन हमें स्वामी विवेकानंद का वचन अच्छी तरह याद है: 'हर एक बड़े काम को चार अवस्थाओं से गुजरना पड़ता है: उपेक्षा, उपहास, विरोध और अंत में विजय।' इसी विजय को अपनी नियति मानकर संघ समाज-कार्य में जुटा हुआ है।

Thursday 24 May, 2007

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मायने: अरूण जेटली


वडोदरा में एमएस विश्वविद्यालय में लगी एक विवादास्पद कला प्रदर्शनी से कई सवाल खड़े हो गए है और कला की स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति को लेकर बहस जोरों पर है। हमने अपने पिछले 'पोस्ट' में श्री अम्बा चरण वशिष्ठ के लेख से इस मुद्दे पर बहस की शुरुआत की थी, जिसे काफी लोगों ने नोट किया है। और अब इसे आगे बढाते हुए भारत सरकार के पूर्व कानून मंत्री और भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव व सांसद श्री अरुण जेटली का लेख प्रस्तुत कर रहे हैं। अपनी ख्याति और स्वभाव के अनुरुप उन्होंने बिल्कुल नए तर्कों और नीर क्षीर विवेक के साथ छद्म सेकुलरिस्टों को बेनकाब कर दिया है। यह लेख गत 19 मई को 'इंडियन एक्सप्रैस' में प्रकाशित हुआ था। बौध्दिक जगत में इस पर काफी विचार-विमर्श हुए है। 'जनसत्ता' में श्री प्रभाष जोशी ने इस पर टिप्पणी की है, जिसे हिन्दी ब्लॉग पर भी प्रस्तुत किया गया था। पेश है श्री जेटली के लेख का हिन्दी अनुवाद:

वडोदरा में एमएस विश्वविद्यालय में एक कला प्रदर्शनी लगी, जिसका विरोध कुछ प्रदर्शनकारियों ने किया और यह बढ़ते-बढ़ते एक राजनैतिक विवाद में बदल गई। प्रदर्शनकारियों का निश्चित मानना था कि इस प्रदर्शनी में दिखाए गए कुछ कला-चित्र एक विशेष धार्मिक सम्प्रदाय के लोगों की धार्मिक भावना को आहत करने के उद्देश्य से रखी गई हैं। इसको लेकर कलाकारों ने कडा रूख अपनाया और जिसका समर्थन कुछ राजनैतिक दलों ने भी किया एवं मीडिया के एक वर्ग ने इसकी प्रशंसा भी की कि जिन दो कलाकृतियों का विरोध किया जा रहा है, वह तो एक प्रकार से नैतिक-नियंत्रण रखने जैसा है और यह कला की स्वतंत्रता का दमन करना है। यह बहस तब तक चलती रही जब तक कि इन चित्रों को बनाने वाले युवा कलाकारों को जमानत पर रिहा नहीं कर दिया गया।

सामान्य रूप से मैं कला प्रदर्शनियों पर सेंसर लगाने और उनमें व्यवधान पैदा करने के खिलाफ हूं। इस विवाद की जड़ में पैदा हुए वास्तविक मुद्दे का अध्ययन करने और विश्लेषण करने के उद्देश्य से मैंने जानने की कोशिश की कि आखिर इन संदिग्ध कलाकृतियों में ऐसा क्या था जिससे विवाद पैदा हुआ। मेरी उत्सुकता इस बात से और भी बढ़ गई कि इन मीडिया संगठनों ने जिस कला की अभिव्यक्ति का राग छेडा था उन्होंने इस मुद्दे को मात्र कल्पनात्मक रूप से रख दिया और दर्शकों एवं पाठकों को यह बताने की जहमत नहीं उठाई कि आखिर कला की अभिव्यक्ति है क्या चीज? मुझे अपने प्रयासों से पता चला कि यह विरोध उन दो चित्रों के बारे में था जिनके विषय में मीडिया के कुछ जिम्मेदार वर्गों ने सेंसर कर दिया था। मैं नहीं जानता कि यह बात जानबूझ कर हुई या फिर जिम्मेदार जर्नलिज्म के कारण हुई ताकि लोगों को इस प्रकार की बेहुदा कलाकृतियों से देखने से रोका जा सके।

मेरी उत्सुकता से मुझे यह भी पता चला कि पहली कलाकृति एक 'क्रास' पर चित्रित थी जिस पर 'ईसा मसीह' को लटका कर सूली पर चढ़ाया गया था। उक्त 'क्रास' के नीचे इंग्लिश-स्टाइल डब्लू सी बनाई गई थी। इस कलाकृति में 'लिंग' दिखाया गया था, जिसमें से इस डब्ल्यू सी में कुछ द्रव्य के कतरे गिर रहे थे। दूसरे चित्र में, जो स्पष्ट ही हिन्दू देवी 'दूर्गा' का था, उन्हें नग्न रूप में दिखाया गया था, जिनकी योनि से एक पूर्ण विकसित शिशु निकल रहा था। स्पष्ट है कि युवा कलाकार ने अपनी कलात्मक स्वच्छन्दता से 'सेक्स' रूप में एक धार्मिक आकृति बनाकर उसे चित्र का रूप दे दिया। मुझे इसमें जरा भी सन्देह नहीं है कि कलाकार का इरादा कला की स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति प्रस्तुत करने का नहीं था। क्योंकि इस प्रकार की भद्दी विद्रुपता किसी भी कलात्मक अभिव्यक्ति का साधन बन ही नहीं सकती है। मुझे लगता है कि युवा कलाकार को रातों-रात अपनी राष्ट्रीय पहचान बनाने में सबसे सफल होने का यही साधन आसान लगा।

आज भारतीय समाज के सामने प्रमुख प्रश्न यही है कि क्या किसी व्यक्ति के पास, जिसमें कलाकार भी शामिल है ऐसी कोई स्वतंत्रता प्राप्त है जिसमें उसे देवी देवताओं की निंदा का अधिकार मिल जाए? संविधान 19 (1) (ए) के अन्तर्गत प्रत्येक नागरिक को यही सर्वाधिक मूल अधिकार की गारण्टी है कि उसे भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्राप्त है, परन्तु यह अधिकार कुछ प्रतिबंधों के अधीन रहता है, जिसमें अन्य बातों के अलावा सरकार जनहित, शालीनता अथवा नैतिकता के हित में इस अधिकार पर प्रतिबंध लगा सकती है। यह विषय शालीनता और नैतिकता का है, परन्तु, चलिए, थोड़ी देर के लिए हम इसे भूल जाते हैं। जनहित में व्यवस्था कायम रखने की जिम्मेदारी किसी भी व्यक्ति को इस बात से निषेध करती है कि वह ऐसी कोई गतिविधि न करे जिसे सार्वजनिक व्यवस्था पर आंच आती हो। डेनिश कार्टून विवाद से यह बात एकदम स्पष्ट है कि कार्टून मात्र हास्यास्पद ढंग से अभिव्यक्ति का साधन मात्र नहीं है जिसके कारण किसी प्रकार की अव्यवस्था फैल जाए। हालांकि कार्टून में कोई सैक्स सम्बन्धी सामग्री नहीं थी, फिर भी विश्व भर में उसके कारण गड़बड़ी फैली। धार्मिक संवेदनाओं की उपेक्षा हुई। वर्तमान मामले में तो यह भारतीय समाज की सहिष्णुता का गहरा प्रतीक है कि यहां केवल इस कला प्रदर्शनी में मात्र नारेबाजी तक ही सीमित रही। आपत्ति की बात इतनी ही नहीं है कि युवा कलाकार गलत ढंग से रोमानी बन गया, बल्कि समाज के इस वर्ग ने जिद ठान ली कि हमारी कला की स्वतंत्रता को तो देवी-देवताओं की निंदा करने का अधिकार प्राप्त है। हमने देखा है कि सिरसा में मात्र एक सिख गुरू की नकल उतारना ही सार्वजनिक अव्यवस्था फैलने का कारण बन गया है। क्या यह बात समझ में नहीं आ सकती है कि ईसा मसीह या देवी दुर्गा की ऐसी सेक्स-अभिव्यक्त चित्रों से समाज पर कोई बुरा असर नहीं पड़ेगा?

भारत के दण्डविधान में यब बात बहुत स्पष्ट है। भारतीय दण्ड संहिता की धारा 153ए में ऐसे किसी भी व्यक्ति को दण्ड मिल सकता है जो अन्य बातों के अलावा किसी भी दृश्य-प्रस्तुति के माध्यम से धार्मिक असद्भावना, वैमनस्य अथवा घृणा की भावना को फैलाता हो। आईपीसी की धारा 295 में ऐसे किसी व्यक्ति को दण्ड का भागी बनना पड़ेगा, जो किसी भी व्यक्ति द्वारा पवित्र मानी जाने वाली किसी भी मूर्ति को विध्वंस, क्षतिग्रस्त या खराब करने का इस उद्देश्य से कार्य करता है कि ऐसा करने से किसी धर्म का अपमान हो। यदि इस प्रकार के दृश्य सिनेमाओं में दिखाए जाएं तो क्या सेंसर बोर्ड उन्हें कभी पास करता? इंग्लैण्ड में इसी टेस्ट के आधार पर सेंसर बोर्ड ने 'विजन आफ एक्सटेसी' नाम की वीडियो फिल्म पास नहीं की थी क्योंकि उसमें कहा था कि ''प्रश्न यह नहीं है कि अभिव्यक्त विषय क्या था, बल्कि देखना यह होगा कि उसे किस ढंग, किस लहजे, स्टाइल और भावना में पेश किया गया है। आपने जो वीडियो फिल्म पेश की है, उसमें धार्मिक उन्माद और सेक्स भावना का मिला-जुला रूप है, जो एक ऐसा विषय है जो भले ही कलाकार की वैध चिंता का विषय हो, परन्तु यह उस समय देवी-देवताओं की निंदा की कानून में आ जाता है, जब वह इस ढंग से पेश किया जाए, जिससे एक पावन विषय को लोग स्वीकार न कर उनकी नाराजगी का कारण बन जाए। क्योंकि सूली पर चढ़े ईसा के जख्मी शरीर को उस रूप में पेश किया गया है, जिसमें दर्शकों को भ्रम पैदा हो सकता है, इसलिए बोर्ड तथा इसके कानूनी सलाहकारों का विचार है कि इससे देवी-देवताओं की निंदा के कानून का उल्लंघन होता है।''

सेंसर बोर्ड को चुनौती दी गई और यह चुनौती 'यूरोपियन कोर्ट आफ ह्यूमेन राइट्स' तक गई, जहां निर्णय किया कि 'हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि इस फिल्म में देवी-देवताओं की निंदा सम्बन्धी विषय है और यह नहीं कहा जा सकता है कि अथारिटीज ने इसमें कोई गलत कदम उठाया है।''

यह अलग बात है कि इंग्लैण्ड में ईश-नंदा का कानून केवल क्रिश्चियनिटी के प्रति अतिक्रमण और अपमान जैसी गतिविधियों में होता है। जब एक मजिस्ट्रेट ने सलमान रूश्दी और 'द सेटेनिक वर्सेज' के प्रकाशक के खिलाफ देवी-देवताओं की निंदा पर सम्मन जारी करने से इंकार किया तो लार्ड वाटकिंस का कहना था- ''इसमें कोई शक नहीं कि जो कानून इस समय है वह केवल क्रिश्चियनिटी के अलावा और किसी धर्म के लिए नहीं है।'' इंग्लैण्ड में इस कानून में संशोधन करने तथा क्रिश्चियनिटी के साथ अन्य धर्मों को एक जैसा बनाने का प्रयास सफल नहीं हुआ है।''

उदार विचार रखने वाले लोगों का तर्क है कलाकारों को स्वतंत्रता रहनी चाहिए कि वे अपनी अभिव्यक्ति को प्रस्तुत कर सके चाहे उसमें देवी-देवताओं की निंदा हो या किसी धर्म पर हमला हो। धर्म में आस्था रखने वाले लोग इससे सहमत नहीं होते हैं। सामान्यतया ऐसा ही होता भी है। थोड़े-बहुत विरोध के सिवाय भारत में वैसा कुछ देखने में नहीं आया जैसा हमने डेनिश कार्टून मामले में देखा है। यदि कोई भी नागरिक विरोध करता है तो उसे कानून को अपने हाथ में लेने की जरूरत नहीं है। साथ ही सेक्युलरिज्म की परिभाषा में जिस तरह की विकृति दिखाई पड़ती है, जो कि बहुसंख्यक लोगों पर प्रहार का पर्याय बन चुकी है, उसे भी समाप्त किया जाना चाहिए। यह विकृति वडोदरा घटना में दिखाई पड़ी। रणनीति यह रही कि लोगों को इस बात का पता ही न चले कि उन दो चित्रों का विषय क्या था? पूरी तरह से बहस को कला की स्वतंत्रता के नाम से चलाया जाए और नैतिक-नियंत्रण की पूरी अवधारणा की आलोचना की जाए। समाज को किसी नैतिकता पर नियंत्रण रखने वाले किसी पुलिसकर्मी की जरूरत नहीं है। जो लोग कला की स्वतंत्रता के नाम पर देवी-देवताओं की निंदा करने में लगे रहते हैं, वे समझ लें कि नैतिक-नियंत्रण समाज में फिर भी बना रह सकता है।

Wednesday 23 May, 2007

चुनौती हुसैन, अरूंधति, नंदिता, चन्द्रमोहन को

- अम्बा चरण वशिष्ठ

अपने उदारवादी, मानवाधिकार संरक्षक तथा बुध्दिजीवियों को समझ पाना कोई आसान काम नहीं। कई महानुभाव तो इतने सतर्क और उग्र हैं कि उन्हें किसी भी प्रदर्शन में सहज पाया जा सकता है, जहां उनके अनुसार व्यक्तिगत स्वतंत्रता तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता उन्हें खतरे में लगती है।

अभी हाल ही में गुजरात में एक गुमनाम चित्रकार चन्द्रमोहन ने हिन्दू देवी-देवताओं और भगवान यीशु के अश्लील, नंगे, भौडे चित्र बनाकर चित्रकार मुहम्मद फिदा हुसैन के दिखाये रास्ते पर चलकर विवाद का केन्द्र बन कर नाम कमाना चाहा। किसी शायर ने ठीक ही कहा है कि बदनाम होंगे तो क्या नाम न होगा? सच भी यही है। आज लोग बदनाम होकर ही तो नाम कमा रहे हैं। वस्तुत: आजकल बदनाम होने और नाम कमाने में अंतर ही समाप्त होता जा रहा है। विवाद में पड़कर चर्चा में आने को नाम कमाने और शोहरत अर्जित करने की संज्ञा दी जा रही है। यदि शिल्पा शेट्टी ने सरेआम गेरे को चुम्बन करने दिया और इसको अनुचित नहीं बताया, यही तो कारण है कि आज हर तीसरे दिन हर तीसरे अखबार या समाचार चैनल में किसी न किसी बहाने उनके चित्र के छपने के कारण उनकी नेकनामी को चार चांद लग रहा है। उदारवादी इसे उनकी अपना निजी और व्यक्तिगत मामला बताकर इसकी पैरवी कर रहे हैं। पर पता नहीं कल को इसी निजी और व्यक्तिगत मामले का संरक्षण प्राप्त करते हुए किसी दम्पत्ति या व्यस्क महिला पुरूष ने किसी शहर के चौराहे पर दिन-दहाड़े सबके सामने वह सब कुछ करना शुरू कर दिया जो वह अपने शयन कक्ष में दरवाजे बंद और रोशनी बुझा कर करते हैं तो पता नहीं ये उदारवादी उनकी भी स्वतंत्रता की उतनी ही पैरवी करेंगे जितनी कि शिल्पा शेट्टी की। वैसे देखा जाये तो किसी भी व्यस्क को इस स्वतंत्र देश में सब कुछ करने की स्वतंत्रता है जो उसका मन करे, चाहे किसी को अच्छा लगे या बुरा। सरकार को, न्यायालय को उससे क्या लेना देना?

और वह दम्पत्ति या जोड़ा एकाएक दुनिया भर में मशहूर हो जायेगा। समाचार पत्रों के प्रथम पृष्ठों पर फोटो सहित छा जायेगा। समाचार चैनलों की 'ब्रेकिंग न्यूज' बनेगा। उन पर विशेष लेख छपेंगे। उनके पक्ष व विरोध में प्रदर्शन होंगे। तो व्यक्ति के जीवन में और चाहिए भी क्या?

लाखों-करोड़ों लोग नाम कमाने के लिए दिन-रात मेहनत करते हैं, पर हाथ कुछ नहीं आता। देखा जाये तो आजकल नेकनामी और बदनामी में अंतर ही समाप्त होता जा रहा है। आज मशहूर हैं तो मात्र शिल्पा शेट्टी, राखी सावंत, चन्द्रमोहन, एम.एफ. हुसैन सरीखे बड़े लोग और नहीं।

पर हैरानी की बात यह है कि जो महानुभाव चन्द्रमोहन, एम.एफ. हुसैन और शिल्पा शेट्टी की व्यक्तिगत और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा के लिये सड़कों पर छाती पीट रहे थे, वही महानुभाव अदृश्य हो गये थे, उनकी जुबान बन्द हो गई थी, वह बहरे हो गये थे जब विदेश में ही नहीं भारत में डेनमार्क के कार्टूनिस्ट के विरूध्द देश के विभिन्न भागों में हिंसक प्रदर्शन हो रहे थे। जब भारत के पत्रकार आलोक तोमर को जेल भेज दिया गया था क्योंकि उसने अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सहायता लेकर उन व्यंग चित्रों को छाप दिया था।

आज तक किसी उदारवादी बुध्दिजीवी चिंतक, विचारक ने हुसैन से यह पूछने की हिम्मत नहीं की कि आपने आज तक अपने धर्म की पवित्र हस्तियों के ऐसे ही चित्र बनाने में अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सहारा क्यों नहीं लिया? वह तो शायद इसका उत्तर न दे पर वास्तविकता यही है कि दूसरे की बीवी या मां से तो छेड़छाड़ अच्छी लगती है पर अपनी बीवी और मां से यदि यही व्यवहार हो तो शायद खून खराबा हो जाये।

चन्द्रमोहन तो कला में कल के छोकरे हैं, पर हुसैन तो एक विश्वविख्यात पेन्टर हैं। मेरा अपना ज्ञान क्षुद्र हो सकता है। मुझे आज तक ज्ञात नहीं कि कोई इतना महान भी कलाकार निकला है जिसने अपनी मां की नंगी तस्वीर बनाई हो। इन महान कलाकारों को तो शायद इतना पता अवश्य होगा कि भगवान यीशु मसीह करोड़ों-अरबों ईसाइयों के पिता हैं और हिन्दु देवियां भी भारतीयों की मां।

अरूंधति राय, नन्दिता दास, तैयब आदि अनेक जानी-मानी हस्तियां पिछले दिनों इस कलाकार की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा के पक्ष में सड़कों पर उतरे थे। अगली बार इस प्रकार प्रदर्शन में भाग लेने से पूर्व सार्वजनिक रूप से उन्हें घोषणा करनी होगी कि कल को कोई कलाकार उनकी अपनी या उनकी मां की नंगी तस्वीर बनायेगा तो वे उसकी व्यक्तिगत तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए उसी प्रकार प्रखर होंगी जितनी कि हुसैन और चन्द्रमोहन के मामले में हुईं। अन्यथा उनका यह प्रदर्शन उनकी आस्था नहीं, मात्र ढोंग बनकर रह जायेगा।

Thursday 10 May, 2007

1857 की क्रांति और सावरकर की किताब


-लालकृष्ण आडवाणी
वरिष्ठ भाजपा नेता व भारत के पूर्व उप प्रधानमंत्री श्री लालकृष्ण आडवाणी एक प्रभावशाली नेता और राष्ट्रवादी विचारक के तौर पर जाने जाते हैं। वे पत्रकार रहे हैं। लिखना -पढना उनकी रूचि हैं। १८५७ की क्रांति के १५० वर्ष पूरे हो रहे हैं। इस क्रांति पर केंद्रित प्रखर क्रांतिकारी वीर सावरकर की बहुचर्चित पुस्तक '१८५७ स्वतंत्रता संग्राम' को याद करते हुए श्री आडवाणी ने बहुत ही विचारोत्तेजक लेख लिखा हैं। यह लेख आज के जनसत्ता, इंडियन एक्सप्रैस और दैनिक जागरण में प्रकाशित हुआ है।

हमारी
मातृभूमि के सुदीर्घ इतिहास में आज का दिन एक पवित्र दिवस है। कोई भी दिवस तब पवित्र बनता है जब राष्ट्र के लिए समर्पित कोई असाधारण ऐतिहासिक व्यक्तित्व-एक नायक या शहीद अथवा कोई संत या कोई समाज सुधारक उससे जुड़ा हो। यह पवित्रता उस समय और कई गुना बढ़ जाती है जब समूचे राष्ट्र द्वारा विदेशी शासन से स्वतंत्र होने के लिए एकजुट होकर किए गए संघर्ष का नायकत्व और त्याग की भावना उसमें जुड़ जाए। भारत के हजारों वर्ष के इतिहास में दस मई एक ऐसा ही पुण्य पवित्र दिवस है, जिस दिन 150 वर्ष पूर्व भारत की स्वतंत्रता के पहले व्यापक युद्ध की शुरुआत मानी जाती है। मंगल पांडे, बहादुर शाह जफर, लक्ष्मी बाई, नानासाहब पेशवा, उनके खास सहयोगी अजीमुल्ला खान, तात्या टोपे, राजा कुंवर सिंह और मौलवी अहमद शाह सहित और भी बहुत से नाम ऐसे नायकों में शामिल है। इस अवसर पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि 1857 से पहले भी देशभक्तों द्वारा भारत के विभिन्न स्थानों पर स्वतंत्रता संघर्ष की ज्वाला प्रज्ज्वलित की गई।

ब्रिटिश शासन के विरुद्ध भारत के इस पहले राष्ट्रीय उभार से मेरा पहला परिचय संयोग से युवावस्था में हुआ-वह भी एक ऐसे क्रांतिकारी लेखक की क्रांतिकारी पुस्तक के माध्यम से जो 1857 की गाथा के अभिवाज्य अंग हैं। उस समय मैं 14 वर्ष का स्कूली विद्यार्थी था और सिंध के कराची में रहता था। सिंध में चल रहे स्वतंत्रता संघर्ष की हवाओं के झोंकों से मैं पहले ही जुड़ा था। मुझे विनायक दामोदर सावरकर की पुस्तक '1857 द वार ऑफ इंडिपेंडेंस' के बारे में पता चला। मैं सावरकर से सिर्फ एक बार-नवंबर 1947 में मिला। अपनी पहली बंबई यात्रा में मैं जिस व्यक्ति के साथ रुका था उन्होंने मुझसे पूछा कि मैं कौन से आकर्षक स्थल देखना चाहूंगा? मैंने कहा ''मुझे वीर सावरकर के घर ले चलिए।'' शिवाजी पार्क स्थित सावरकर के निवास पर उनकी चुंबकीय उपस्थिति में मैं बैठा था और उन्होंने मुझ से सिंध की स्थिति तथा विभाजन के बाद हिंदुओं की स्थिति के बारे में पूछा। सावरकर ने यह पुस्तक लंदन में लिखी, जहां वह कानून की पढ़ाई करने गए थे, लेकिन शीघ्र ही वह क्रांतिकारी गतिविधियों में लिप्त हो गए। उनकी उम्र केवल 25 वर्ष थी। 1857 की पचासवीं वर्षगांठ के उपलक्ष्य में मराठी में पुस्तक का मूल पाठ 1907 में तैयार हो गया था। इसे गुपचुप तरीके से भारत भेजा गया, लेकिन भारत में यह प्रकाशित नहीं हो सकती थी, क्योंकि ब्रिटिश सरकार को इसका पता चल गया और उसने इसका मुद्रण करने वाली प्रिंटिंग प्रेस पर छापे मारे। चमत्कारिक ढंग से यह पांडुलिपि सुरक्षित बच गई और इसे सावरकर के पास पेरिस में भेजा गया। उनके सहयोगी क्रांतिकारियों ने इसे अंग्रेजी में अनुदित किया, मगर इंग्लैंड और फ्रांस में कोई भी प्रकाशक इसे प्रकाशित करने को तैयार नहीं था। अंतत: 1909 में यह पुस्तक हालैंड में प्रकाशित हुई और इसकी प्रतियां भारत में गुपचुप तरीके से लाई गई। लेखक को 1910 में लंदन में देशद्रोह के आरोपों में गिरफ्तार कर भारत लाया गया, जहां उन्हे दो जन्मों के आजन्म कारावास की सजा सुनाई गई और अंडमान और निकोबार द्वीप की भयावह सेलुलर जेल-'काला पानी' में भेज दिया गया।

सावरकर ने 11 वर्ष अंधेरी काल कोठरी में बिताए, जहां से फांसी में काम आने वाले फंदों को साफ देखा जा सकता था। इस प्रतिबंधित पुस्तक के अनेक संस्करण प्रकाशित हुए। मैडम कामा ने यूरोप में इसका दूसरा संस्करण निकाला। क्रांतिकारी गदर पार्टी के नेता लाला हरदयाल ने अमेरिका में इसका संस्करण निकाला। भारत में पहली बार 1928 में भगत सिंह और उनके साथियों ने इसका प्रकाशन किया। सुभाषचंद्र बोस और रासबिहारी बोस ने इसे 1944 में जापान में प्रकाशित किया और यह पुस्तक आजाद हिंद फौज के सिपाहियों के लिए लगभग एक पाठ्य पुस्तक के रूप में प्रचलित हो गई। 1947 में पुस्तक पर से प्रतिबंध हटने से पूर्व ही सावरकर की पुस्तक अनेक भारतीय भाषाओं में भूमिगत ठिकानों पर उपलब्ध होने लगी थी। यह एक ऐसे क्रांतिकारी द्वारा शब्दबद्ध रचना थी जिसे अपनी गतिविधियों के लिए अकल्पनीय यातनाएं सहनी पड़ीं और उसके बदले उसने अनेक असंख्य क्रांतिकारियों को भारत आजाद कराने के एकमात्र लक्ष्य के लिए प्रेरित किया। सावरकर की पुस्तक अपने उत्प्रेरक और विश्लेषणात्मक कथ्य में उल्लेखनीय है। इस उभार के ऐतिहासिक और सामाजिक कारणों को विश्लेषित करते हुए उन्होंने ब्रिटिश इतिहासकारों द्वारा प्रचारित की गई धारणाओं का खंडन किया। आश्चर्यजनक रूप से इनमें से कुछ अभी भी बताई जाती है और प्रकाशित की जा रही है। वह पूछते हैं, ''पेशावर से कलकत्ता तक जो आंधी चली उसका उद्देश्य इसके सिवाय और क्या हो सकता है कि उसे अपनी साम‌र्थ्य भर कुछ खास चीजों को नष्ट कर देना है।'' उन्होंने उन कारणों की खोज की जिनसे फौजी और सामान्य जन, राजा और रंक, हिंदू और मुसलमान-सभी की भावना जागृत हो गई थी। इसे उन्होंने दो शब्दों में वर्णित किया-स्वधर्म और स्वराज्य।

सावरकर के अनुसार स्वराज्य स्वधर्म के बिना तुच्छ है और स्वराज्य के बिना स्वधर्म बलहीन है। उन्होंने मध्यकालीन इतिहास में वर्णित हिंदू-मुसलिम कटु संबंधों के लंबे अध्याय को नजरअंदाज नहीं किया, बल्कि 1857 में दोनों समुदायों द्वारा मिलकर राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए कंधे से कंधे मिलाकर लड़े गए अध्याय को सुंदर ढंग से वर्णित किया है। उन्होंने वर्णन किया है कि कैसे दोनों समुदायों के नेता महसूस करते थे कि अब हिंदुओं और मुसलमानों के बीच के मतभेद अतीत की बात बननी चाहिए, क्योंकि उनका वर्तमान संबंध शासक और शासित का न होकर सामान्य रूप से बंधुओं का है। सावरकर की पुस्तक जहां देशभक्तों की वीरता का उल्लेख करती है वहीं स्वतंत्रता के इस युद्ध के असफल होने के कारणों की भी जांच-पड़ताल करती है। उनके अनुसार इसके प्रमुख कारण थे-कमजोर केंद्रीय नेतृत्व, संगठन का अभाव और नाजुक मौकों पर गद्दारों द्वारा विश्वासघात। वह लिखते है, ''क्रांति की असफलता के लिए दोषी वे है जिन्होंने अपने आलस्य और प्रमाद के लिए इस पर मर्मांतक प्रहार किया। उन वीरों को इसकी असफलता के लिए दोषी सिद्ध करने का दुस्साहस किसी को नहीं करना चाहिए जिन्होंने अपना ही उष्ण रक्त प्रवाहित करने वाली तलवारों को उठाकर क्रांति के अग्निमय रंगमंच में प्रवेश किया और जो प्रत्यक्ष मृत्यु का भी आलिंगन कर आनंद से झूम उठते थे। वस्तुत: उन्हीं की पावन प्रेरणा से भारत माता की गहन निद्रा भंग हुई थी और पराधीनता की श्रृंखलाओं को तार-तार कर देने के लिए संपूर्ण हिंदुस्तान जाग्रत हो उठा था।''

सावरकर के 546 पृष्ठों के इस महान ग्रंथ की उल्लेखनीय बात यह है कि इसमें कहीं भी लेश मात्र सांप्रदायिक पूर्वाग्रह या पक्षपात नहीं है। जहां उन्होंने मुसलिमों की गद्दारी का वर्णन किया है वहीं हिंदुओं की गद्दारी को भी नहीं बख्शा। ऐसे कारणों से ही अन्य भारतीयों के साथ मैं भी दंग रह गया और मुझे पीड़ा हुई जब दो वर्ष पूर्व कांग्रेस व कम्युनिस्टों ने सावरकर के विरुद्ध आपराधिक अभियान चलाया। उन्हें बदनाम करने से पहले उनके विरोधियों को 1857 पर उनकी पुस्तक पढ़नी चाहिए और देशभक्ति से परिपूर्ण उन गीतों को सुनना चाहिए जो उन्होंने दीवारों पर अंकित किए। तब उन्हे स्वयं से पूछना चाहिए कि 1857 की 150 वीं वर्षगांठ के समारोहों में सावरकर को उनके योगदान के अनुरूप महत्व न देने के मामले में क्या हम सही है?

Tuesday 8 May, 2007

1857 स्वाधीनता-संग्राम की 150वीं वर्षगांठ पर विशेष


आजादी की पहली लड़ाई

-संजीव कुमार सिन्हा

सन् 1857 का स्वतंत्रता-संग्राम अंग्रेजी हुकूमत पर वह पहला करारा प्रहार था, जिसकी परिणति 90 साल बाद 15 अगस्त 1947 को देश की आजादी के रूप में हुई। वास्तव में, यह स्वतंत्रता संग्राम कई मायनों में भारतीय इतिहास का सुनहरा अध्याय है। इसे आजादी की पहली लड़ाई माना जाता है। ऐसा नहीं है कि इससे पहले अंग्रेजों की गुलामी के विरुध्द बगावत के स्वर नहीं उठे, निश्चित रुप से फिरंगियों को भारतवासियों की ओर से छिटपुट प्रतिरोध तो अवश्य झेलना पड़ता था, लेकिन पहली बार, 1857 में गुलामी की जंजीर को तोड़ फेंकने के लिए पूरा समाज एकजुट हो गया। इस विद्रोह के प्रमुख कर्णधार झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, कुंवर सिंह, नाना साहब, अमर सिंह, तात्या टोपे, बहादुरशाह जफर, मौलवी अहमद शाह, राव तुलाराम, आदि थे। एक तरफ, आधुनिक शस्त्रों से लैस अंग्रेजों की सेना, सब तरह की सुविधाएं, उनकी 'फूट डालो-राज करो' की नीति। दूसरी तरफ, आम आदमी अपने ही बलबूते आधुनिक हथियारों के अभाव में भी, भाला, तीर-धनुष, लाठी और देशी बन्दूक लेकर अंग्रेजों के विरूध्द रणक्षेत्र में। भारतीयों ने उस महाशक्ति से लोहा लिया, जिसकी विश्व भर में तूती बोलती थी और उस समय ऐसा माना जाता था कि अंग्रेजी साम्राज्यवाद से टकराना, तबाही को आमंत्रण देने के बराबर था। इस संघर्ष में दिल्ली, झांसी, कानपुर, लखनऊ, अवधा आदि स्थानों में अंग्रेजों से खुले मुठभेड़ हुए, जिसमें भारतीयों ने अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए। प्रमुख रुप से उत्तर भारत- उत्तर प्रदेश, दिल्ली, बिहार, मधय प्रदेश, पंजाब, राजस्थान में यह संग्राम फैला, जबकि दक्षिण भारत के आंध्र प्रदेश में लोग बगावत के लिए मैदान में आए। इस क्रांति के परिप्रेक्ष्य में यह बात बहुत महत्वपूर्ण है कि आर्थिक साधनों के घोर अभाव के बावजूद लोगों ने अंग्रेजों से जमकर लोहा लिया।

क्रांति की चिनगारी
अंग्रेजों ने इस बात को समझ लिया था कि जब तक भारतीय अपने धर्म से जुड़े रहेंगे, तब तक भारत पर पूर्णरुपेण आधिपत्य नहीं जमाया जा सकता, क्योंकि भारतीय समाज की एकता का मुख्य आधार राजनीतिक न होकर धर्म और संस्कृति हैं, इसीलिए उन्होंने अपनी परम्परागत ''फूट डालो और राज करो'' नीति के तहत सभी भारतवासियों को ईसाई बनाने की कुटिल चाल चली और हिन्दू और मुसलमानों को लड़ाने की कोशिश की।

कलकत्ता में अंग्रेजी शासकों ने 1 जनवरी, 1857 को सेना में 'एनफील्ड राइफल्स' इस्तेमाल करने का आदेश दिया। इस बन्दूक में प्रयोग होने वाले कारतूस की छर्रे गाय या सूअर की चर्बी से लिपटे रहते थे। बन्दूक में कारतूस भरने के पूर्व इसके छर्रों को मुंह से काटना होता था। इसको लेकर हिन्दू और मुसलमान दोनों समुदायों में असंतोष के स्वर उभरने लगे। लेकिन लॉर्ड कैनिंग ने इसकी अवहेलना करने वाले सैनिक को कोर्ट मार्शल करने का निर्देश दिया। अवहेलना करने वाले कई सैनिकों से वर्दी और हथियार वापस लेकर उन्हें अपमानित किया गया।

बरहामपुर के 19 एन.आई. के सैनिकों ने चर्बीयुक्त कारतूसों का प्रयोग करने से मना कर दिया। इसके फलस्वरुप अनुशासनहीनता के आरोप में पूरी कम्पनी को भंग कर दिया गया। इसे लेकर सैनिकों के बीच अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का वातावरण बनने लगा। इनमें से ही मंगल पांडे नामक एक सैनिक ने इस तुगलकी फैसले के खिलाफ खुलकर विरोधा किया और अंग्रेजों को सबक सिखाने का ठान लिया। 29 मार्च, 1857 ई को पांडे ने अपनी कम्पनी के दो अंग्रेज अधिकारियों पर गोली चला दी। इसके बाद कई अंग्रेज सैनिक उसे गिरफ्तार करने के लिए आगे बढ़े, उन पर भी उसने गोली चला दी। उन्होंने जमकर अंग्रेजी फौज का मुकाबला किया लेकिन अन्तत: वे पकड़ लिए गए और 8 अप्रैल, 1857 को उसे फांसी पर लटका दिया गया। साथ ही 34वीं कम्पनी भी भंग कर दी गयी। इस कम्पनी के सैनिक मंगल पांडे की बहादुरी और शहादत के बारे में अपने क्षेत्रों की जनता के बीच चर्चा करने लगे। इसी तरह की घटना लखनऊ में भी घटी। 2 मई को 7वीं अवधा रेजीमेंट के सैनिकों ने भी ऐसे कारतूसों का प्रयोग करने से मना कर दिया। इस आरोप में कम्पनी भंग कर दी गई। मंगल पांडे ने अपना सर्वस्व न्योछावर कर देशधार्म की रक्षा की। उनकी शहादत रंग लाई। इससे प्रेरणा पाकर सैनिकों ने अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष छेड़ दिया। उसकी प्रतिधवनि तुरन्त मेरठ में गूंजी।

6 मई, 1857 को मेरठ की सैनिक छावनी में 3 एल.सी. (घुड़सवार सैनिक टुकड़ी) की परेड में 90 भारतीय घुड़सवारों को चर्बीयुक्त कारतूसों के प्रयोग का आदेश हुआ। 5 को छोड़कर 85 ने दांत से कारतूसों को काटने से इनकार कर दिया। आदेश का स्पष्ट उल्लंघन था पर धार्म का उतना ही पालन। आदेश के उल्लंघन में इन 85 सवारों को कोर्ट मार्शल द्वारा 10 वर्ष की सश्रम कारावास की सजा हुई। जेल भेजने से पूर्व 9 मई को परेड ग्राउण्ड पर शेष सैनिकों को चेतावनी देने के लिए बुलाया गया। उनके समक्ष उन देश-धार्मभक्तों को पूरे अपमान के साथ हथकड़ियां पहनाकर जेल भेजा गया। 9 मई की ही रात में 10 मई के लिए कार्यक्रम तैयार कर लिया गया। 3 एल.सी. के कमांडर लेटी, गफ को यह भनक मिल गई कि 10 मई को रविवार है, ईसाइयों का गिररिजाघरों में प्रार्थना का दिन। विद्रोह पैदल सैनिकों द्वारा प्रारंभ होगा फिर घुड़सवार सैनिक उनसे मिल जायेंगे। 10 मई, 1857 को मेरठ में सचमुच क्रांति का सूत्रपात हो गया। बंदी सैनिकों को मुक्त करा लिया गया। हथियार लूट लिए गए। मेरठ में अंग्रेज सेना थोड़ी थी। मेरठ आजाद हो गया।

आग की लपटों की तरह फैल गई क्रांति
मेरठ के विप्लवियों के दिल्ली प्रवेश के साथ यहां के सैनिक नागरिक भी उनसे मिल गए। 82 वर्षीय बहादुरशाह जफर को हिन्दुस्तान का सम्राट घोषित किया गया और उसके नाम पर अंग्रेजों से घमासान शुरू हो गया। पहले दौर में क्रांतिकारियों का दिल्ली पर अधिकार हो गया परन्तु अंग्रेज दिल्ली को वापस लेने पर कटिबध्द हो गए। सितम्बर, 1857 में दिल्ली पर अंग्रेजों का फिर से अधिकार हो गया।

आगरा नगर में ऊपरी शांति रही पर उससे सटे क्षेत्रों से विप्लवी लपटें पश्चिमी संयुक्त प्रांत के रूहेलखण्ड इलाके में, अलीगढ़, इटावा, मैनपुरी आदि जनपदों को छूने लगी। इन इलाकों की मुक्ति होती जा रही थी, लखनऊ में 3 मई को क्रांति का धामाका हुआ फिर वहीं से वह मई के अंत में अवधा रियासत को अपने प्रभाव में ले लेती है। नवाब वाजिदअली शाह के कलकत्ता निर्वाचन के बावजूद अवधा के सभी वर्ग के लोगों ने क्रांति में भाग लिया- जनक्रांति का नजारा था।

प्रशासक जान लारेंस की पक्की पहरेदारी के बावजूद पंजाब में विप्लव की घुसपैठ हो गई, विशेष रूप से उन छावनियों में जहां सिक्ख सैनिकों की संख्या कम थी या जहां पुरविया पलटने थीं यथा पेशावर, फिरोजपुर, रमदान, जालंधार, अजनाला आदि।
पंजाब की तुलना में आज के हरियाणा के ग्रामीण अंचल के किसानों ने क्रांति में बढ़चढ़ कर भाग लिया। इनमें रिबाड़ी के जमींदार राव तुलाराम व राव कृष्ण गोपाल ,मेवाती सरदार अली हसन, समद खां, झझर के नवाब अब्दुर्रहमान, वल्लभगढ़ के नाहर सिंह, फरूखनगर के नवाब फौजदार खां ने छिटपुट विद्रोह किया।

क्रांति की अग्निशिखा दक्षिण भारत में निजाम के हैदराबाद रियासत तक पहुंची, इधार के बड़े नवाब और राजा बाहरी तौर पर सरकार के प्रति वफादार रहे पर अंदर से भी उनमें साहस की कमी थी। फिर भी देशी पलटन और जनता ने युध्द में भाग लिया। हैदराबाद के जोतपुर, कोल्हापुर, सतारा, नागपुर, धार, जबलपुर, खानदेश, पूना, बाम्बे आदि में स्वाधीनता युध्द ने अपनी हाजिरी दर्ज कराई।

इस क्रांति की मशाल बिहार में भी जली। यहां संघर्ष को नेतृत्व दिया जगदीशपुर रियासत के कुंवरसिंह और उनके भाई अमर सिंह ने। संघर्ष में जनता की भागीदारी ने हुकूमत को परेशानी में डाल दिया था। स्मरणीय है कि युध्द के दौरान अनेक क्षेत्रों रियासतों में ब्रिटिश राज का शामियाना उखड़ गया था। एक बार तो दिल्ली से बनारस तक ग्रेडट्रंक रोड़ आजाद था।
झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने सितम्बर-अक्टूबर 1857 में झांसी पर अपना पूरा कब्जा कर लिया। लेकिन उनका कब्जा महज छह महिने तक रहा। आखिरी विद्रोह 20 जून 1858 को ग्वालियर इलाके में दबा दिया। 8 जुलाई 1858 को एक शांति संधि हुई और यह विद्रोह अंतिम रुप से खत्म हो गया।

क्रांति की उपलब्धियां
कुछ ब्रिटीश और वामपंथी इतिहासकार 1857 के स्वतंत्रता संग्राम को मात्र 'सिपाही विद्रोह' कहकर इसकी आलोचना करते है, जो किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है। यह सही है कि सैनिकों ने इस लड़ाई का बिगुल बजाया लेकिन इसके साथ-साथ किसान, मजदूर, आदिवासी भी संगठित होकर रणभूमि में कूद पड़े थे। 1857 का युध्द राष्ट्रीय था। इसका राष्ट्रीयता की दृष्टि से सबसे सुखद परिणाम सामने आया कि हिन्दू और मुसलमान दोनों ने मिलकर अंग्रेजी हुकूमत से लोहा लिया। मराठों ने बहादुरशाह को सम्राट और मुसलमानों ने नानासाहब को पेशवा की मान्यता दी।

सन् 1908 ई. में प्रख्यात क्रांतिकारी व राष्ट्रवादी चिंतक विनायक दामोदर सावरकर ने 1857 की शौर्य-गाथा को 'वार ऑफ इंडिपेंडेंस' नामक ग्रंथ में लिखकर इसे स्वाधीनता युध्द की 50वीं वर्षगांठ के अवसर पर प्रस्तुत किया। उनका भी मानना था, '1857 ई. का विद्रोह केवल सैनिकों का बलवा नहीं था, अपितु यह भारतीय स्वतंत्रता के संघर्ष का प्रथम प्रयास था।' सावरकर की इस पुस्तक ने क्रांतिकारियों को राष्ट्र की खातिर अपना सर्वस्व न्योछावर करने की प्रेरणा दी।

Thursday 3 May, 2007

बहुमुखी प्रतिभा के धनी : प्रमोद महाजन

-संजीव कुमार सिन्हा
प्रमोद महाजन। यह नाम ही कई गुणों का समुच्चय है। भारतीय राजनीति में आधुनिकता और परंपरा के अद्भुत समन्वयकर्ता। राष्ट्रवादी विचारधारा के प्रबल आग्रही। प्रभावी वक्ता। कुशल संगठनकर्ता। चुनावी प्रबंधन में महारत। प्रयोगधर्मी। गंठबंधन की राजनीति के आधारस्तंभ और सबसे बढ़कर एक बड़ा मन वाला व्यक्ति। यदि हम यह कहे कि उन्होंने भारतीय राजनीति को एक नई दिशा दी तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी।

ऐसे गुणों के धनी प्रमोद जी को काल के क्रूर हाथों ने हमसे असमय ही छीन लिया। गत वर्ष 22 अप्रैल को उन्हें गोली लगी थी। देशभर में जैसे ही यह शोक समाचार फैला कि लोग स्तब्ध रह गए। जगह-जगह उनके शीघ्र स्वास्थ्य लाभ के लिए लोग पूजा-अर्चना करने लगे। मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारा, गिरिजाघर सभी में 'प्रमोद जी जल्द स्वस्थ हों' की प्रार्थना होने लगी। लोगों ने उपवास रखे। लगभग दो हफ्तों तक अप्रतिम साहस और जीवट के धनी प्रमोद जी अस्पताल में जिंदगी और मौत से संघर्ष करते रहे। लेकिन, नियति के आगे किसी का वश नहीं चलता। 3 मई 2006 को प्रमोद जी हम सबसे बिछुड़ गए। अब एक वर्ष बीत गया है। उन्होंने मात्र 58 वर्ष जीवन जीया। लेकिन, इन वर्षों में ही उन्होंने जिन ऊंचाइयों को छूआ वह असाधारण बात है। वे किसी खास परिवार से नहीं थे। राजनीति उन्हें विरासत में नहीं मिली थी, न ही वे धनाढय परिवार में जन्मे थे। एक निम्न मधयमवर्गीय परिवार से निकलकर उन्होंने देश के सर्वोच्च पंक्ति में अपना विशिष्ट स्थान बनाया। उनका पूरा जीवन संघर्ष-यात्रा है। अपनी मेहनत और सूझबूझ से वे सीढ़ी दर सीढ़ी सफलता के सोपान को छूते रहे। वे निरंतर आगे बढ़ते रहे, कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।

30 अक्टूबर, 1949 को महबूबनगर में प्रमोदजी का जन्म हुआ। उन्होंने एमए (राजनीति शास्त्र) की शिक्षा प्राप्त की। वे बचपन में ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सम्पर्क में आए। संघ में उन्होंने अनेक दायित्वों का कुशलतापूर्वक निर्वहन किया। उनके मन पर संघ का काफी प्रभाव पड़ा। शाखा में सहज ही ग्रहण किए गए राष्ट्रप्रेम, संस्कार और अनुशासन का निष्ठापूर्वक जीवनभर पालन किया। इसके पश्चात् वे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के सदस्य बने। राजनीति में उनका पदार्पण भारतीय जनसंघ के माध्यम से हुआ। अपने प्रभावी व्यक्तित्व और संघर्षशील छवि के कारण बहुत ही जल्द वे जनसंघ में लोकप्रिय हो गए। जनसंघ में उन्होंने पूर्णकालिक कार्यकर्ता के नाते कुशलतापूर्वक कार्य किया। बाद में जब जनसंघ का जनता पार्टी में विलय हुआ तो वे जनता पार्टी, महाराष्ट्र प्रदेश के महासचिव बनाए गए। सन् 1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के आदेश पर जब देश के ऊपर आपातकाल थोपा गया और भारतीय लोकतंत्र पर आंच आने लगी तो प्रमोद जी ने आपातकाल के विरोध में हुए आंदोलन में बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया।

बाद में दोहरी सदस्यता के सवाल पर जब जनता पार्टी में जनसंघ नेताओं पर दबाव बनाया गया कि वे पार्टी में रहते राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से संबंध नहीं रख सकते तो जनसंघ नेताओं ने साफतौर पर कहा कि हम रा.स्व.संघ से अपना नाता नहीं तोड़ सकते और उन्होंने जनता पार्टी से अलग होकर सन् 1980 में भारतीय जनता पार्टी का गठन किया।

भाजपा में उन्होंने अनेक महत्वपूर्ण पदों पर कार्य करते हुए संगठन को मजबूत बनाया। वे भाजपा के राष्ट्रीय सचिव बनाए गए। भाजयुमो के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे और लगभग 10 वर्षों तक भाजपा के अखिल भारतीय महामंत्री के रूप में पार्टी को सर्वव्यापी बनाने में अथक परिश्रम किया। संगठन के विभिन्न पदों पर रहते हुए उन्होंने समाज के सभी वर्गों को पार्टी से जोड़ा। कटक से अटक तक और कश्मीर से कन्याकुमारी तक अथक प्रवास करते हुए भाजपा को एक अखिल भारतीय पार्टी के रूप में पहचान बनाने में प्रमुख योगदान दिया। वे कार्यकर्ताओं के दुख-सुख में समान रूप से साथ होते थे। देशभर में आयोजित पार्टी की बैठकों, अभ्यास वर्गों, सम्मेलनों में जाकर वे कार्यकर्ताओ का उत्साह बढ़ाते थे, उनका मार्गदर्शन करते थे, उन्हें आगे बढ़ने के गुर सिखाते थे, चुनौतियों का मुकाबला करने की प्रेरणा देते थे। नई-नई योजना बनाना और फिर उसे अमली-जामा पहनाना, इस नाते वे देशभर में जाने जाते थे।

प्रमोद जी ने कुशल जन-प्रतिनिधि और प्रशासक के तौर पर भी काफी यश अर्जित किया। वे 1986, 1992, 1998, 2004 में राज्यसभा सांसद चुने गए। उनकी काबिलियत का यह स्पष्ट उदाहरण है कि सन् 1996 में जब भाजपा की सरकार बनी तो उन्हें केन्द्रीय रक्षा मंत्री का दायित्व सौंपा गया। 11वीं लोकसभा में सांसद निर्वाचित हुए। अटलजी ने प्रमोद जी को कई मंत्रालयों का दायित्व सौंपा। वे केन्द्र में सूचना प्रसारण मंत्री, संसदीय कार्यमंत्री, सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री और संचार मंत्री बनाये गए। उन्होंने देश में संचार क्रांति का सूत्रपात किया। उनके नेतृत्व में विश्वभर में तकनीकी रूप से भारत एक ताकत के रूप में उभरा।
प्रमोद जी मीडिया जगत के पंसदीदा व्यक्तित्व थे। किसी घटना पर उनकी बाइट लेने के लिए पत्रकारों में होड़ मची रहती थी। इसका कारण था उनकी सटीक और सार्थक टिप्पणी। वे तरूण भारत में उपसंपादक भी रहे। समय-समय पर अखबारों में लेख लिखते थे। प्रमोद जी को गोली लगने और अस्पताल में जीवन-मौत के बीच संघर्ष करने के दौरान जिस तरह से देश के सभी समाचार-पत्रों और स्तंभकारों ने उनको याद किया, उनके व्यक्तित्व के बारे में लिखा ऐसा सदियों में किसी के साथ होता है। उनको मीडिया जगत का अपार स्नेह मिला।

प्रमोद जी की जो दूसरी सबसे बड़ी विशेषता थी वह थी कुशल चुनाव प्रबंधक। वे अनेक राज्यों के चुनाव प्रभारी बनाए गए। जिस भी राज्य के वे प्रभारी बनाए जाते थे वहां के विरोधी दलों के नेताओं को पसीने छूट जाते थे। राज्यों के विभिन्न आंकड़े तो मानो प्रमोद जी की अंगुलियों पर नाचते थे। पिछले सालों में किस पार्टी को कितनी सीटें मिली है, कितने मत प्रतिशत मिले, उम्मीदवारों का बैकग्राउंड क्या है, क्या समीकरण बनाने से फायदा होगा ? किन मुद्दों को प्रमुखता देने से हमारे पक्ष में माहौल होगा ? विरोधियों को कैसे घेरा जाए ? आदि तमाम बातों पर उनकी रणनीति फिट बैठती थी। प्रमोद जी को व्यवस्था का पर्याय माना जाता था।

सन् 1998 में जब श्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में राजग की सरकार बनी तो अनेक दलों से मधुर संबंध बनाने में प्रमोद जी की भूमिका उल्लेखनीय रही। सभी दलों के अंदर प्रमोद जी की विशेष पहचान थी। भाजपा के तो वे अनुपम और सर्वमान्य नेता है ही लेकिन, अन्य दलों में भी उनके शुभचिंतक और प्रशंसक नेताओं की लम्बी कतार है। उन्हें संकट मोचक कहा जाता था। पार्टी को जब भी जरूरत होती थी प्रमोद जी नई तरकीबें लेकर सामने आते थे, और सभी लोग उसे सहज स्वीकार भी कर लेते थे।

पता नहीं, क्यों भगवान प्रतिभाशाली लोगों को जल्दी अपने पास बुला लेते है। प्रमोद जी ने ''भारत और भाजपा'' को बहुत कुछ दिया। नई सोच दी। युवाओं को प्रेरणा दी। देश को प्रगति के पथ पर दौड़ाया। आज उनकी कमी खल रही है। सबको ऐसा विश्वास है कि वे काया से भले ही हमारे बीच न हो लेकिन, उनकी छाया सदैव हमारे साथ रहेगी। उनका जीवन हमें प्रेरणा देता रहेगा। उनके प्रति यही सच्ची श्रध्दांजलि होगी कि भाजपा को हम और सर्वव्यापी बनाए। गांव-गांव में पार्टी का जनाधार मजबूत करें क्योंकि मजबूत भाजपा ही सशक्त भारत की नियति है।
सब 'सभ्य' - हम, हमारा समाज और मीडिया

- अम्बा चरण वशिष्ठ

ठीक ही तो कहते हैं कि किसी सभ्य समाज में फांसी की सज़ा उस समाज के नाम पर एक कलंक है। पर साथ ही यह कोई नहीं कहता कि यदि वह समाज सभ्य है तो उस में हत्या केलिये भी कोई स्थान नहीं है। जब हत्या नहीं होगी तो फांसी की सज़ा का तो सवाल ही पैदा नहीं होता।

प्रत्येक हत्या के पीछे होता है एक उत्प्रेरक कारण जिसके निराकरण का प्रावधान सभ्य समाज की न्याय व्यवस्था में उपलब्ध होता है। फिर भी इस 'सभ्य' समाज के व्यक्ति न्याय व्यवस्था का सहारा न लेकर कानून अपने हाथ में ले लेते हैं और जिस व्यक्ति से उन्हें मतभेद, द्वेष या गुस्सा होता है उसे वह न्याय व्यवस्था के अधीन दण्ड दिलाने की बजाय न्याय का डण्डा स्वयं अपने हाथ में उठा कर उसे अपने हाथों से दण्डित करते हैं । यह दण्ड मारपीट, हाथ-पांव तोड़ने तक ही सीमित नहीं रहता। कई बार तो यह हत्या तक का अमानुषिक दण्ड बन कर रह जाता है हालांकि उसका अपराध इतना घोर नहीं होता कि उसे न्याय व्यवस्था के अधीन उसके अपराध केलिये उसे फांसी ही मिलती। अपराधी इसे 'आदर्श' न्याय और सज़ा की संज्ञा दे देते हैं।

इसी प्रकार किसी सभ्य समाज में न आतंकवाद केलिये कोई स्थान होना चाहिये और न आतंकावादी हिंसा का व हत्याओं केलिये। आतंकवादी एक दम्भी व्यक्ति होता है जो स्वयं को सही और बाकी सब को गलत मानता है जो उससे सहमत नहीं होते। उसका सामाजिक व न्याय व्यवस्था में कोई विश्वास नहीं होता। जनतन्त्र व बहुमत में उसकी आस्था नहीं होती। वह बात मानता है तो बस अपनी। कानून मानता है तो अपना। न्याय मानता है तो उसे जिसे वह दूसरों को देता है। तर्क के आधार पर नहीं, वह अपनी बात आतंक के बल पर सैकड़ों-हज़ारों से मनवाना चाहता है। जो उससे सहमत नहीं वह सब उसे मूर्ख, समाज व देश के दुश्मन और उसके अपने शत्रु दिखते हैं। चुनाव व्यवस्था में उसका विश्वास नहीं होता क्योंकि वह इतना अवश्य जानता है कि बहुमत उसके साथ नहीं है।

आतंकवादी अपने आतंक द्वारा दूसरों के मानवाधिकारों को बड़ी बेरहमी से कुचलता है। आग-फूंक करना और निर्दोष जनता और कानून की रक्षा कर रहे रक्षाकर्मियों की हत्या कर देना वह अपना अधिकार और इसे अपनी न्याय व्यवस्था का अभिन्न अंग समझता है। पिछले 17 वर्षों में लगभग एक लाख निर्दोष आतंकवाद की बलि चढ़ चुके हैं जिस में से लगभग 75,000 अकेले जम्मू-कश्मीर से हैं। यह संख्या पाकिस्तान से कारगिल समेत चार युध्दों और चीन के साथ 1962 के युध्द में शहीद हुये लोगों से चार गुणा से अधिक हैं। देश द्वारा इतनी कुर्बानी दे देने के बाद भी आतंकवाद के दानव की हिंसा की पिपासा बढ़ती ही जा रही है।

उधर जब दस-पचास निर्दोष आतंकी हिंसा का शिकार हो जाते हैं तो दो दिन तो मीडिया अवश्य समाचार देता है पर बाद में इस समाचार को आया-गया बना दिया जाता है। कोई नहीं पूछता कि जो बच्चे अनाथ हो गये, जो महिलायें विधवा हो गईं, जिन बूढ़ों की इस उम्र में सहारे की लाठी छीन ली गई, उनका क्या बना। आतंकी हिंसा तो आज इतनी साधारण बात हो गई है कि कई बार तो समाचारपत्र इस खबर को विशेष महत्व ही नहीं देते और कहीं कोने में छोटी से खबर लगा देते हैं । इलैक्ट्रानिक मीडिया की भी यही हालत है । घटना के बाद बेचारे निरीह सन्तप्त परिवार की कोई सुध नहीं लेता।

वास्तविकता तो यह है कि अव्वल तो कोई आतंकबादी पकड़ा ही नहीं जाता। यदि पकड़ा भी जाये तो उसे सज़ा नहीं होती क्योंकि कोई गवाही देने आगे नहीं आता क्योंकि सब को अपनी और अपने परिवार के जीवन से प्यार है। गल्ती से अगर कभी-कभार कोई आतंकवादी पकड़ा जाये तो उसके अपराध से पहले उसकी रक्षा का कवच बन जाते हैं उसके मानवाधिकार। वह व्यक्ति मानवाधिकारों का सुपात्र बन जाता है जिसने अनगिनत हत्यायें की हैं और सैंकडों के मानवाधिकारों को अपने पांव तले रोंदा है। हमारी मानवाधिकार संस्थाओं केलिये उन व्यक्तियों के मानवाधिकार बहुत पावन हैं जो दूसरों के मानवाधिकारों की हत्या करते हैं। ऐसा प्रतीत होता है मानों इन संस्थाओं के दृष्टि में मानवाधिकर केवल अपराधियों और आतंकवादियों के ही होते हैं जिनकी रक्षा करना उनका धर्म है। बेचारे निर्दोष व्यक्तियों के तो कोई मानवाधिकार होते ही नहीं और न ही उनकी रक्षा करना मानवाधिकारों की रक्षा में लगी लोग व संस्थायें अपना कर्तव्य व धर्म ही मानते है। ऐसा लगता है कि मानवाधिकार संस्थाआें की दृष्टि में वह तो मानव नहीं गली के कीड़े-मकोड़े हैं जो तो बस मरने केलिये ही पैदा हुये हैं और आतंकवादी तो उनका नरसंहार कर उन्हें इस नरकीय जीवन से मुक्ति दिला कर पुण्य ही कमाते हैं। यदि ऐसा न होता तो मानवाधिकार संस्थायें आम जनता के मानवाधिकारों के प्रति भी उतनी ही चिन्तित नज़र आतीें जितनी कि वह अपराधियों और आतंकवादियों के प्रति दिखती हैं। यही बात बहुत हद तक हमारे मीडिया के बारे भी सच है। कई बार तो ऐसा लगता है कि पावन मानवाधिकार अर्जित करने केलिये तो व्यक्ति विशेष केलिये अपराध करने और आतंकवादी बनने की तपस्या करना अनिवार्य योग्यता है।

हमारे मीडिया की पैनी नज़र व कलम इस खोज खबर के पीछे कभी नहीं दौड़ती कि हमारे आतंकवादियों को शरण प्रदान करने वाले कौन हैं, उन्हें आर्थिक सहायता कौन प्रदान करते हैं, उनके छुपने के ठिकाने कहां हैं, किस प्रकार आतंकवाद से निपटा जा सकता है और अपराधियों को पकड़ा जा सकता है ताकि निर्दोष हत्यायें न हों। अपने राष्ट्रीय कर्तव्यपालन में डटे किसी सुरक्षाकर्मी की यदि कोई आतंकवादी निमर्म हत्या कर देता है तो हमारी मानवाधिकार संस्थाओं के कान पर जूं नहीं रेंगती। पर यदि मुठभेड़ में कोई आतंकवादी अपनी जान गंवा बैठता है तो इनके कान खड़े हो जाते हैं और इसमें फर्जी मुठभेड़ की बू आने लगती है। तब वह इस मुठभेड़ को फर्जी साबित करने केलिये दिन-रात लगा देते हैं। ऐसा आभास मिलता है कि उनकी दृष्टि में आतंकवादी द्वारा किसी सुरक्षाकर्मी की हत्या उसका एक पावन अधिकार है और जवाब में अपनी सुरक्षा करते-करते सुरक्षाकर्मी के हाथों किसी आतंकवादी का मारा जाना घोर दण्डनीय अपराध। तब सारे मीडिया और मानवाधिकार संस्थाओं में कोहराम मच जाता है।

ज्यों ही किसी आतंकवादी के पुलिस हिरासत में प्रताड़ना या मौत की सूंघ उन तक पहुंचती है तो मीडिया विद्युत गति से हरकत में आ जाता है और अपनी खोज-खबर की दक्षता के प्रमाण देने में एक दूसरे के साथ होड़ में आ जाता है। मोटी-मोटी सुर्खियां लगती हैं, ब्रेकिंग न्यूज़ बनती है। सारा-सारा दिन समाचार चलते रहते हैं। दुर्दान्त अपराधियों और आतंकवादियों के पिछले सारे काले कारनामें धुल जाते हैं और वह जनता के सामने उभर आते हैं सच्ची-सुच्ची पीड़ित-प्रताड़ित आत्मायें जिनके साथ इस 'सभ्य' समाज में बड़ा अन्याय हुआ है। वह महान बन जाते हैं, शूरवीर शहीद।

इसमें कोई दो राय नहीं कि सभ्य समाज में किसी भी दोषी को बिना मुकद्दमा चलाये सज़ा नही दी जा सकती । पर क्या आतंकवादियों को निर्दोष महिलाओं, वच्चों और बूढ़ों को - और कई बार धर्म के आधार पर - मौत के घाट उतार देने का मानवीय अधिकार है? यदि नहीं, तो हमारी मानवाधिकार संस्थाओं ने इसे रोकने और अपराधियों को दण्ड दिलाने में क्या योगदान दिया है? इनका पावन कर्तव्य क्या केवल असमाजिक व आपराधिक तत्वों के मानवाधिकारों की ही रक्षा करना है और उन्हें अपने पापों की सज़ा दिलाना नहीं?

आजकल तो हमारा समाज इतना 'सभ्य' बन चुका है कि हमारी पुस्तकों में सुभाष चन्द्र बोस, सरदार भगत सिंह, सुखदेव व राजगुरू सरीखे महान् स्वतन्त्रता सेनानी व शहीद तो आतंकवादी बन चुके हैं और अफज़ल गुरू सरीखे आतंकवादी जिसने संसद पर हमला बोला उसे निर्दोष ंऔर शहीद बनाने की क्वायद की जा रही है। देश के प्रति अपना कर्तव्य निभा रहे आठ सुरक्षाकर्मी जिन्होंने अपना जीवन बलिदान कर दिया वह मानो गाजर-मूलीं थे और यह आतंकवादी उनसे महान् हो गया। उच्चतम् न्यायालय ने जिसे अपने कुकर्म केलिये मृत्युदण्ड दिया उसे जीवनदान देने के प्रयास हो रहे हैं। न्यायालय के निर्णय पर प्रश्न उठाये जा रहे हैं। यदि उसे भारत की न्याय व्यवस्था में न्याय नहीं मिला तो किसी अन्य देश में मिलेगा?
यह है भारत के 'सभ्य' समाज का यथार्थ!