बंगाल में दो करोड़ लोगों को राशन तक नहीं दे पाने वाले कम्युनिस्ट दिल्ली में कर रहे दादागिरी
बुश या मुशर्रफ से दूरी रखने के मुद्दों पर भारतीय कामरेड दिल्ली दरबार में आंखें तरेरते हुए दादागिरी कर रहे हैं लेकिन उनके अपने राज में क्या हो रहा है? पश्चिम बंगाल में 5 करोड़ 71 लाख लोग सफेद राशन कार्डधारी हैं और गरीबी रेखा से नीचे की श्रेणी में 2 करोड़ लोग हरे राशन कार्डधारी हैं। गरीबी रेखा से नीचे का मतलब है महीने में मात्र 350 रुपए आमदनी वाले लोग यानी प्रतिदिन 12 रुपए से भी कम कमा सकने वाले गरीब। हालत यह है कि सफेद कार्ड वालों के साथ हरे कार्ड वाले गरीबों तक को राशन की दुकान से 6 रुपए 15 पैसे की दर से एक किलो चावल, 8 रुपए 65 पैसे की दर से एक किलो गेहूं तथा 13 रुपए 50 पैसे किलो की दर से 250 ग्राम चीनी तक नहीं मिल पा रही है। भूखे नंगे लोग ही नहीं, राशन की दुकान चलाने वाले तक आत्महत्या कर रहे है। कामरेड मस्ती में हैं, चीन की जयकार कर रहे हैं। अपने कंधों पर बैठी मनमोहन सरकार को कोस रही है। बंगाल और केरल में वोटों के समीकरण से वर्षों से सत्ता सुख भोगने वाले कम्युनिस्ट पिछले साढे तीन वर्षों के दौरान अचानक राष्ट्रीय नेता बन बैठे हैं। राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय राजनीति करने वाले इन कम्युनिस्टों में से कितने तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ, पंजाब या जम्मू-कश्मीर में वोटों के बल पर चुनकर आ सकते हैं? भाजपाइयों के मुखौटे तो कब के उखड़ गए और कांग्रेसियों की खद्दर टोपी में लगे दाग भी दिखते रहे है। लेकिन क्रांतिकारी कम्युनिस्टों की शोषक और अत्याचारी तस्वीर अब अधिक सामने आ रही है। जो कम्युनिस्ट नेता चीन को सबसे नजदीक मित्र मानते हैं, उनके राज में पश्चिम बंगाल में राशन की सार्वजनिक वितरण प्रणाली पूरी तरह ध्वस्त हो चुकी है। कामरेड प्रकाश कारत और बुध्ददेव भट्टाचार्य एक तरफ दिल्ली दरबार में बैठकर उदार अर्थव्यवस्था तथा अमेरिका से दोस्ती का विरोध करते हैं, तो दूसरी तरफ निक्सन के साथ भारत विरोधी अभियान चलाने वाले खलनायक हेनरी कीसिंजर से गले मिलने में कोई संकोच नहीं करते। यूपीए के साथ बैठकों में आदर्श झाड़ते हैं लेकिन लाखों टन अनाज तस्करी से बांग्लादेश पहुंच जाने से रोकने के लिए अपनी भ्रष्ट पुलिस मशीनरी का इस्तेमाल नहीं करते।
भाजपा के साथ गठजोड़ करने वाली तृणमूल कांग्रेस या अमेरिका से दोस्ती के लिए बेताब कांग्रेस पार्टी के नेताओं की गलत नीतियों पर आपत्ति उठाए जाने पर किसी को शिकायत नहीं हो सकती लेकिन विकल्प में कामरेड कौन सा 'आदर्श' पेश कर रहे हैं। बंगाल में 30 वर्षों के दौरान अन्य राजनीतिक पार्टियों की कमजोरियों का लाभ उठाकर कम्युनिस्टों ने एक प्रतिबध्द कैडर और गरीब अशिक्षित दिशाहीन मतदाताओं की आंखों पर लाल पट्टी बांध रखी है। नतीजा यह है कि पश्चिम बंगाल में ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी का अनुपात 28 प्रतिशत से अधिक हो चुका है। बिहार में गरीबी के कारण नाम दर्ज होने के बावजूद स्कूल छोड़ने वाले बच्चों की संख्या करीब 6 लाख 96 हजार हैं, वहीं बंगाल में यह संख्या 9 लाख 61 हजार से अधिक हो चुकी है। हर साल गरीबी और भुखमरी से मरने वालों की संख्या हजारों में पहुंच रही है। जिन अल्पसंख्यकों के नाम पर वे राजनीतिक दुकान चलाते हैं, उन्हें रोजगार देने में बंगाल सबसे पीछे है। पश्चिम बंगाल की आबादी में 25.2 प्रतिशत मुस्लिम हैं जबकि राज्य सरकार की नौकरियों में केवल 2.1 प्रतिशत को अवसर मिले है। नंदीग्राम में हो रहे आंदोलन और पुलिस जुल्म को राजनीतिक मान लिया जाए तो अन्य क्षेत्रों में बिगड़ी स्थिति, पुलिस भ्रष्टाचार को क्या कहा जाए?
कामरेड दिल्ली दरबार में अंतर्राष्ट्रीय राजनीति पर उबलते रहते हैं लेकिन भुखमरी के कारण स्वयं जेल जाने वाजे गरीबों को लेकर कोई वाकआउट, आंदोलन और सरकार गिराने की धमकी नहीं देते। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के न्यायमूर्ति आर.एस. सोढ़ी और न्यायमूर्ति बी.एन. चतुर्वेदी ने पिछले दिनों एक रिपोर्ट में बताया है कि बड़ी संख्या में गरीब और भीख मांगने वाले जेलों में बंद हैं क्योंकि उन्हें बाहर दो मुट्ठी अनाज नहीं मिल पाता। इस मुद्दे पर किसी कामरेड ने कोई टी.वी इंटरव्यू नहीं दिया। वैसे भी पश्चिम का विरोध करने वाले कामरेड जनता की भाषा हिंदी में ठीक से लिख-बोलने तक की क्षमता नहीं जुटा पाए हैं। इसे हिन्दी प्रदेशों का सौभाग्य ही कहा जाएगा कि माक्र्सवादियों को राज्य सरकारों में आने का अवसर नहीं मिला है, वरना बंगाल की तरह पुलिस और पार्टी की छत्रछाया में पलने वाले असामाजिक तत्वों के गोला-बारूद से गरीब लोगों के मारे जाने के खतरे बढ जाते। माक्र्सवादी देवियां ममता की पारिवारिक कलह पर व्यंग बाण छोड़ने में पीछे नहीं हैं लेकिन क्या वे माक्र्सवादी नेताओं के निजी रिश्तों की सार्वजनिक चर्चा के लिए तैयार होंगी।
टब थोड़ी सी बात - कामरेड के प्रेरणादायक चीन की। चीन के हमले, षडयंत्रों, पाकिस्तान-प्रेम आदि की बात छोड़ भी दी जाए, केवल आर्थिक क्रांति पर ही नजर डाली जाए तो पता चलेगा कि पिछले 10 वर्षों में उदार अर्थव्यवस्था के कारण गरीबी-अमीरी की खाई बढने के साथ गांवों की स्थितियां बदतर होने के तथ्यों को समझने के लिए वे आंखों से पट्टी हटाएं। भारत के विशेष आर्थिक क्षेत्र पर तो बवाल है लेकिन चीन में 15 बड़े आर्थिक क्षेत्र, 47 प्रादेशिक जोन, 53 उच्च टेक्नोलॉजी आर्थिक क्षेत्र बनने और 1,800 विशाल डिपार्टमेंटल स्टोर्स की श्रृंखलाएं फैलने से छोटे दुकानदारों की हालत खस्ता हो रही है। हमारे कॉमरेड क्या इस तथ्य को नहीं जानते कि चीन के लगभग 10 करोड़ लोगों को एक डॉलर से भी कम दिहाड़ी मिल पा रही है और भ्रष्टाचार कई गुना बढ़ता जा रहा है। इसलिए सीमा पर सुख-शांति और काम धंधे के लिए तो 'हिन्दी-चीनी भाई-भाई' का नारा ठीक है लेकिन उसकी व्यवस्था को आदर्श बताने की गलती न करें तो अच्छा है। (19 नवंबर, 2007 के आउटलुक साप्ताहिक से साभार)
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