- हरेन्द्र प्रताप
श्री हरेन्द्र प्रताप प्रखर राष्ट्रवादी कार्यकर्ता है। वे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के राष्ट्रीय महामंत्री और राष्ट्रीय सह संगठन मंत्री पदों को सुशोभित कर चुके है। सम्प्रति वे भारतीय जनता पार्टी के पूर्णकालिक कार्यकर्ता है। श्री प्रताप संगठन शास्त्र में माहिर, वक्तृत्व कला में पारंगत व अध्ययन-वृति के धनी है। आपने नक्सलवाद और मार्क्सवाद का गहरा अध्ययन किया है। कम्युनिस्टों के प्रपंचों पर केन्द्रित श्री हरेन्द्र प्रताप का यह लेख हमारी आंखें खोलता है।
1962 ई. में भारत-चीन युध्द के समय बिहार के बक्सर जिला स्थित मेरे गांव से कुछ कम्युनिस्ट गिरफ्तार हुए थे। 12 वर्ष की आयु में उनकी गिरफ्तारी पर मुझे बहुत आक्रोश आया था। मैंने पिताजी से पूछा कि इन लोगों को क्यों गिरफ्तार किया गया है तो पिता जी ने उत्तार दिया कि चीन ने भारत पर आक्रमण किया है उसकी ये खुशी मना रहे थे। तभी से कम्युनिस्टों के बारे में मेरे मानस पटल पर यह बात बैठ गई कि इन्हें भारत पसंद नहीं है।
भारत में जन्म लेने के बाद कोई व्यक्ति भारत का अहित क्यों सोचता है, इसके मूल में वह व्यक्ति कम उस व्यक्ति की शिक्षा और संस्कार को दोषी मानना चाहिए। बाल्यकाल से जिसके मन मस्तिष्क पर भारत के बारे में भारत की एक नकारात्मक छवि प्रस्तुत की जाये तो स्वाभाविक है कि वह भारत विरोधी हो जायेगा। भारत विरोध के काम में सक्रिय इस्लामिक मौलवी, विदेशी पादरी एवं वामपंथी लेखक ही इस भारत विरोध की जड़ में बैठे हुए हैं।
''पटना से दिल्ली तक की यात्रा में एक मार्क्सवादी कार्यकर्ता के साथ कई विषयों पर जब मैं चर्चा कर रहा था तो वह बार-बार हमें यह समझाने की कोशिश कर रहा था कि मार्क्सवादी ही भारत की सत्य बातों को समाज के सामने लाते हैं। अत: उसने कहा कि आपको सीपीएम दफ्तर में जाकर सीपीएम द्वारा प्रकाशित और प्रचारित साहित्य को पढ़ना चाहिए और मैं दिल्ली स्थित सीपीएम कार्यालय गया और कुछ पुस्तकों को खरीद लिया। खरीदे गए पुस्तकों में से तीन पुस्तकों को मैं पढ़ चुका हूं- पहला, ''आरएसएस और उसकी विचारधारा'', दूसरा ''गोलवलकर या भगत सिंह'' एवं तीसरा, ''घृणा की राजनीति।''
''मदन दास देवी के अपने सहजादे का नाम भी कुख्यात पेट्रोल पम्प घोटाले में शामिल रहा है''- यह अपने आप में इतना बड़ा झूठ और चरित्रहनन की कोशिश थी जिसने मुझे कम्युनिस्टों को बेनकाब करने को प्रेरित किया क्योंकि मदन दास जी को पिछले 32 वर्षों से मैं जानता हूं। मदन दास जी अविवाहित हैं। ''गोलवलकर या भगत सिंह'' नामक पुस्तक के पृष्ठ-41 पर संघ के लोगों की चरित्र हत्या करते समय ''गोलवलकर या भगत सिंह'' के सम्पादक राजेन्द्र शर्मा के ऊपर न केवल गुस्सा आता है बल्कि ऐसे लेखकों के प्रति मन में घृणा का भाव भी उत्पन्न होता है।
कम्युनिस्टों ने अपने प्रत्येक लेख में यह लिखकर साबित करने की कोशिश की कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आजादी की लड़ाई में भाग नहीं लिया बल्कि उसने अंग्रेजों का साथ दिया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बारे में लिखते समय इन तीनों पुस्तकों में कम्युनिस्टों ने अमेरिकी शोधकर्ता जे.ए. करान जूनियर के शोधग्रंथ ''मिलिटेन्ट हिन्दुज्म इन इंडियन पॉलिटिक्स स्टडी आफ द आरएसएस'' पुस्तक का बार-बार उल्लेख किया है। हंसी तब आती है जब सीताराम येचुरी के नाम से प्रकाशित घृणा की राजनीति पृष्ठ-17 पर प्रकाशित इस पुस्तक का वर्ष 1979 लिखा गया है जबकि आरएसएस और उसकी विचारधारा नामक पुस्तक जिसे अरूण माहेश्वरी ने लिखा है। इसमें इस पुस्तक का प्रकाशन वर्ष 1951 दिखाया गया है। अब यह पाठकों को तय करना है कि जिस अमेरिका को कम्युनिस्ट दिन-रात गाली देते रहते हैं उसी अमेरिका के एक संस्था द्वारा कराये गये एक शोध को ये वामपंथी अपना बाइबल मानकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को गाली देने का काम कर रहे हैं।
'गोलवलकर या भगत सिंह' सम्पादक राजेन्द्र शर्मा के पुस्तक में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरूजी द्वारा लिखित पुस्तक ''हम अथवा हमारे राष्ट्रीयत्व की परिभाषा'' (ये हिन्दी में अनुवादित) नामक पुस्तक को इन लोगों ने प्रकाशित किया है। वामपंथियों ने स्वयं स्वीकार किया है कि आरएसएस ने इस पुस्तक को बाद में वापस ले लिया था फिर भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का विचार अंग्रेजों के बारे में क्या था इनके अनुवादित पुस्तक से ही कुछ उदाहरण नीचे दिये जा रहे हैं:-
पृष्ठ-76- इसे भी अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए कि गोरे मनुष्य की श्रेष्ठता ग्रंथी उनकी दृष्टि को धुंधली कर देती है..... उनमें न तो ऐसी उदारता और न सत्य के लिए ऐसा प्रेम। अभी कल ही की तो बात है जब वे अपनी नंगी देह पर विचित्र गोद ने गुदवाये और रंग पोते जंगलों में आदिम अवस्था में भटकते फिरते थे।
पृष्ठ-79- लेकिन, इससे पहले की इस जीत के फल एकत्र किये जा सकते, इससे पहले की राष्ट्र को शक्ति अर्जित करने के लिए सांस लेने की मोहलत मिल पाती ताकि वह राज्य को संगठित कर पाता, एक पूरी तरह से अप्रत्याशित दिशा से एक नया शत्रु चोरी छिपे विश्वासघाती रूप से देश में घुस आया और मुसलमानों की मदद से तथा जयचन्द, राठौर, सुमेर सिंह जैसे विश्वासघाती शासकों के कबीले के जो लोग अब भी बने हुए थे उनकी मदद से उन्होंने तिकड़मबाजी की और भूमि पर कब्जा करना शुरू कर दिया.... उल्टे कमजोरी के बावजूद वह 1857 में एक बार फिर दुश्मन को खदेड़ने के लिए उठ खड़ा हुआ था।
पृष्ठ-80- बेशक हिन्दू राष्ट्र को जीता नहीं जा सका है वह लड़ाई जारी रखे हुए है.....लेकिन लड़ाई जारी है और अब तक उसका निर्णय नहीं हुआ है......शेर मरा नहीं था सिर्फ सो रहा था वह एक बार फिर जाग रहा है और दुनिया पुनर्जाग्रत हिन्दू राष्ट्र की शक्ति देखेगी वह अपने बलिष्ठ बाजू से कैसे शत्रु के शेखियों को ध्वस्त करता है।
अंग्रेजों के शासन में अंग्रेजों को असभ्य, शत्रु, विश्वासघाती शब्दों के माध्यम से इस देश को जगाने वाला गुरू जी का यह लेख (यदि सचमुच उनका ही लेख है) तो अपने आप में न केवल प्रशंसनीय है बल्कि इस बात को प्रमाणित करता है कि गुरू जी के मन में अंग्रेजों के प्रति यह जो आक्रोश था वह आक्रोश संघ की शाखाओं में तैयार होने वाले स्वयंसेवकों के मन में कितना असर करता होगा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कितना देशभक्त है इसका सर्टिफिकेट कम्युनिस्ट नहीं दे सकते। क्योंकि कम्युनिस्टों ने 1942 से लेकर आज तक देश के साथ गद्दारी ही की है।
कम्युनिस्टों के तथाकथित इन पुस्तकों में चरित्र हनन का भी पुरजोर प्रयास किया गया है। गोलवलकर या भगत सिंह नामक पुस्तक के पृष्ठ-42 और 43 पर संघ प्रचारक और भाजपा के बारे में जो चरित्र हत्या की गई है उसकी जितनी भी निन्दा की जाये वह कम है।
''किसी को चरित्र की शिक्षा कम्युनिस्टों से लेने की आवश्यकता नहीं है। चरित्र हनन करना यह हम लोगों का संस्कार नहीं है फिर भी मार्क्स-पुत्रों को इशारे में यह बता देना आवश्यक है कि माउत्सेतुंग (जिसने न केवल 5 शादियां की बल्कि प्रत्येक बुधवार को नाचघर में उसके लिए लड़कियां बुलाई जाती थी....) मन में घृणा के साथ-साथ आक्रोश भी पैदा करता है। चरित्र के धरातल पर ऐसे पतीत लोग ही मार्क्सवादियों के मसीहा बने हुए हैं।
मार्क्सवादी किताबों में भारत के प्रति इनकी भक्ति कैसी है उसके कुछ उदाहरण निम्न हैं तथा ये झूठ को कैसे सत्य साबित करते हैं इसके उदाहरणार्थ इनकी पुस्तकों को देखें:-
''एटम बम बनाने के नाम पर केसरिया पलटन जो घोर अंधराष्ट्रवादी रूख करती रही है''- घृणा की राजनीति, लेखक सीताराम येचुरी, पृष्ठ- 24
''उधर भाजपा सांसद मदन लाल खुराना बांग्लादेशी घुसपैठियों की राजधानी में मौजूदगी की अतिरंजि त तस्वीरों के जरिये मुस्लिम विरोधी उन्माद भड़काने में लगे हुए हैं'' घृणा की राजनीति, लेखक सीताराम येचुरी, पृष्ठ- 42
''1938 में ही सावरकर ने खुलेआम यह ऐलान किया था कि भारत में दो राष्ट्र, हिन्दू और मुसलमान बसते हैं। मुस्लिम लीग ने इस सिध्दांत को 1947 में अपनाया था''- घृणा की राजनीति, लेखक सीताराम येचुरी, पृष्ठ- 34
''सन् 1923 में नागपुर की पहली जीत के बाद से ही संघ की गतिविधियां उसी साम्प्रदायिकता भड़काने और मुसलमानों पर हमला करने की षडयंत्र का भी गतिविधियों के अलावा कुछ नहीं थी। तब से आज तक देशभर में संधियों के नियंत्रण की अनेक व्यायामशालाएं दंगाइयों के अड्डे के रूप में काम करते देखी जा सकती है''- आरएसएस और उसकी विचारधारा, पृष्ठ- 65
उपरोक्त वामपंथी शब्द इस बात को प्रमाणित करते हैं कि जब अमेरिका, चीन, सोवियत संघ और पाकिस्तान जैसे देश एटम बम बना सकते हैं तो रक्षार्थ भारत के एटम बम के खिलाफ प्रकट किया गया इनका विचार राष्ट्रद्रोह के सिवा और क्या कहलाएगा? इनके लेख में बंग्लादेशी घुसपैठ को नकारना या भारत एक राष्ट्र है इसका नकारना यह तो पहले से जगजाहिर है पर झूठ बोलने में माहिर मार्क्सवादी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना का काल 1923 से पहले दिखाकर खुद नंगा हो गये। क्योंकि सभी जानते हैं कि संघ की स्थापना 1925 में हुई थी। मुस्लिम लीग को बचाने के लिए इन्होंने पूरी कोशिश की है और सावरकर को ''द्वि-राष्ट्रवाद'' का दोषी करार दिया है जबकि यह सर्वविदित है कि मुस्लिम लीग ने इस सिध्दांत को सबसे पहले प्रतिपादित किया था।
वामपंथियों के झूठ का दस्तावेज स्वयं इनके द्वारा प्रकाशित पुस्तक ही है। झूठ बोलते समय इन्हें जरा भी शर्म नहीं आती है। चलते-चलते एक उदाहरण पर्याप्त है- घृणा की राजनीति नामक पुस्तक जो सीताराम येचुरी के नाम से प्रकाशित है उस पुस्तक के पहले ही लेख में इनकी कथनी और चरित्र तार-तार हो जाता हैं इस पुस्तक के साम्प्रदायिक और फांसीवादी ताकतों की चुनौती शीर्षक के तहत पृष्ठ-29 पर ए.के. गोपालन व्याख्यानमाला में 13 अप्रैल, 1998 को भाषण देते हुए सीताराम येचुरी ने कहा था.....
''इसलिए भाजपा को शिकस्त देने के लिए कांग्रेस के साथ रणनीतिक रूप से हाथ मिलाने का अर्थ होगा जिस डाल पर बैठे हों उसी को काटना।''
माक्र्सवादी आज कहां खड़े हैं। उसी कांग्रेस की गोद मे बैठकर मलाई काटने वाले सीताराम येचुरी और उनके पिछलग्गू यह भी भूल गये कि 1998 में कांग्रेस के बारे में उन्होंने उपरोक्त बातें कही थी।
हे भगवान! इन्हें मुक्ति दो क्योंकि ये खुद स्वीकार कर रहे हैं कि जिस डाल पर ये बैठे हैं उस डाल को ही ये काट रहे हैं। भारत में बुरे से बुरे आदमी को भी मरने के बाद हर व्यक्ति भगवान से उसका मुक्ति देने की प्रार्थना करता है। 1990 में पूरी दुनिया में दफनाये गये कम्युनिज्म को भगवान मुक्ति प्रदान करें। भारत में बेचारे केरल और बंगाल समुद्र के किनारे दो प्रांतों में ही सिमटे हुए कांग्रेस की कमजोरियों के कारण राष्ट्रीय राजनीति पर हावी होने का जो असफल प्रयास कर रहे हैं पता नहीं कब इनके पांव फिसल जाएं और भारत में भी ये समुद्र की लहरों में विलीन हो जाएं। मैं अग्रिम रूप से भगवान से यह प्राथना करूंगा कि भारत के कम्युनिस्टों को भी (भले ही कितना ही इन्होंने राष्ट्रद्रोह का काम किया हो और झूठ बोला हो) हे भगवान मुक्ति प्रदान करना।
1962 ई. में भारत-चीन युध्द के समय बिहार के बक्सर जिला स्थित मेरे गांव से कुछ कम्युनिस्ट गिरफ्तार हुए थे। 12 वर्ष की आयु में उनकी गिरफ्तारी पर मुझे बहुत आक्रोश आया था। मैंने पिताजी से पूछा कि इन लोगों को क्यों गिरफ्तार किया गया है तो पिता जी ने उत्तार दिया कि चीन ने भारत पर आक्रमण किया है उसकी ये खुशी मना रहे थे। तभी से कम्युनिस्टों के बारे में मेरे मानस पटल पर यह बात बैठ गई कि इन्हें भारत पसंद नहीं है।
भारत में जन्म लेने के बाद कोई व्यक्ति भारत का अहित क्यों सोचता है, इसके मूल में वह व्यक्ति कम उस व्यक्ति की शिक्षा और संस्कार को दोषी मानना चाहिए। बाल्यकाल से जिसके मन मस्तिष्क पर भारत के बारे में भारत की एक नकारात्मक छवि प्रस्तुत की जाये तो स्वाभाविक है कि वह भारत विरोधी हो जायेगा। भारत विरोध के काम में सक्रिय इस्लामिक मौलवी, विदेशी पादरी एवं वामपंथी लेखक ही इस भारत विरोध की जड़ में बैठे हुए हैं।
''पटना से दिल्ली तक की यात्रा में एक मार्क्सवादी कार्यकर्ता के साथ कई विषयों पर जब मैं चर्चा कर रहा था तो वह बार-बार हमें यह समझाने की कोशिश कर रहा था कि मार्क्सवादी ही भारत की सत्य बातों को समाज के सामने लाते हैं। अत: उसने कहा कि आपको सीपीएम दफ्तर में जाकर सीपीएम द्वारा प्रकाशित और प्रचारित साहित्य को पढ़ना चाहिए और मैं दिल्ली स्थित सीपीएम कार्यालय गया और कुछ पुस्तकों को खरीद लिया। खरीदे गए पुस्तकों में से तीन पुस्तकों को मैं पढ़ चुका हूं- पहला, ''आरएसएस और उसकी विचारधारा'', दूसरा ''गोलवलकर या भगत सिंह'' एवं तीसरा, ''घृणा की राजनीति।''
''मदन दास देवी के अपने सहजादे का नाम भी कुख्यात पेट्रोल पम्प घोटाले में शामिल रहा है''- यह अपने आप में इतना बड़ा झूठ और चरित्रहनन की कोशिश थी जिसने मुझे कम्युनिस्टों को बेनकाब करने को प्रेरित किया क्योंकि मदन दास जी को पिछले 32 वर्षों से मैं जानता हूं। मदन दास जी अविवाहित हैं। ''गोलवलकर या भगत सिंह'' नामक पुस्तक के पृष्ठ-41 पर संघ के लोगों की चरित्र हत्या करते समय ''गोलवलकर या भगत सिंह'' के सम्पादक राजेन्द्र शर्मा के ऊपर न केवल गुस्सा आता है बल्कि ऐसे लेखकों के प्रति मन में घृणा का भाव भी उत्पन्न होता है।
कम्युनिस्टों ने अपने प्रत्येक लेख में यह लिखकर साबित करने की कोशिश की कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आजादी की लड़ाई में भाग नहीं लिया बल्कि उसने अंग्रेजों का साथ दिया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बारे में लिखते समय इन तीनों पुस्तकों में कम्युनिस्टों ने अमेरिकी शोधकर्ता जे.ए. करान जूनियर के शोधग्रंथ ''मिलिटेन्ट हिन्दुज्म इन इंडियन पॉलिटिक्स स्टडी आफ द आरएसएस'' पुस्तक का बार-बार उल्लेख किया है। हंसी तब आती है जब सीताराम येचुरी के नाम से प्रकाशित घृणा की राजनीति पृष्ठ-17 पर प्रकाशित इस पुस्तक का वर्ष 1979 लिखा गया है जबकि आरएसएस और उसकी विचारधारा नामक पुस्तक जिसे अरूण माहेश्वरी ने लिखा है। इसमें इस पुस्तक का प्रकाशन वर्ष 1951 दिखाया गया है। अब यह पाठकों को तय करना है कि जिस अमेरिका को कम्युनिस्ट दिन-रात गाली देते रहते हैं उसी अमेरिका के एक संस्था द्वारा कराये गये एक शोध को ये वामपंथी अपना बाइबल मानकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को गाली देने का काम कर रहे हैं।
'गोलवलकर या भगत सिंह' सम्पादक राजेन्द्र शर्मा के पुस्तक में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरूजी द्वारा लिखित पुस्तक ''हम अथवा हमारे राष्ट्रीयत्व की परिभाषा'' (ये हिन्दी में अनुवादित) नामक पुस्तक को इन लोगों ने प्रकाशित किया है। वामपंथियों ने स्वयं स्वीकार किया है कि आरएसएस ने इस पुस्तक को बाद में वापस ले लिया था फिर भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का विचार अंग्रेजों के बारे में क्या था इनके अनुवादित पुस्तक से ही कुछ उदाहरण नीचे दिये जा रहे हैं:-
पृष्ठ-76- इसे भी अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए कि गोरे मनुष्य की श्रेष्ठता ग्रंथी उनकी दृष्टि को धुंधली कर देती है..... उनमें न तो ऐसी उदारता और न सत्य के लिए ऐसा प्रेम। अभी कल ही की तो बात है जब वे अपनी नंगी देह पर विचित्र गोद ने गुदवाये और रंग पोते जंगलों में आदिम अवस्था में भटकते फिरते थे।
पृष्ठ-79- लेकिन, इससे पहले की इस जीत के फल एकत्र किये जा सकते, इससे पहले की राष्ट्र को शक्ति अर्जित करने के लिए सांस लेने की मोहलत मिल पाती ताकि वह राज्य को संगठित कर पाता, एक पूरी तरह से अप्रत्याशित दिशा से एक नया शत्रु चोरी छिपे विश्वासघाती रूप से देश में घुस आया और मुसलमानों की मदद से तथा जयचन्द, राठौर, सुमेर सिंह जैसे विश्वासघाती शासकों के कबीले के जो लोग अब भी बने हुए थे उनकी मदद से उन्होंने तिकड़मबाजी की और भूमि पर कब्जा करना शुरू कर दिया.... उल्टे कमजोरी के बावजूद वह 1857 में एक बार फिर दुश्मन को खदेड़ने के लिए उठ खड़ा हुआ था।
पृष्ठ-80- बेशक हिन्दू राष्ट्र को जीता नहीं जा सका है वह लड़ाई जारी रखे हुए है.....लेकिन लड़ाई जारी है और अब तक उसका निर्णय नहीं हुआ है......शेर मरा नहीं था सिर्फ सो रहा था वह एक बार फिर जाग रहा है और दुनिया पुनर्जाग्रत हिन्दू राष्ट्र की शक्ति देखेगी वह अपने बलिष्ठ बाजू से कैसे शत्रु के शेखियों को ध्वस्त करता है।
अंग्रेजों के शासन में अंग्रेजों को असभ्य, शत्रु, विश्वासघाती शब्दों के माध्यम से इस देश को जगाने वाला गुरू जी का यह लेख (यदि सचमुच उनका ही लेख है) तो अपने आप में न केवल प्रशंसनीय है बल्कि इस बात को प्रमाणित करता है कि गुरू जी के मन में अंग्रेजों के प्रति यह जो आक्रोश था वह आक्रोश संघ की शाखाओं में तैयार होने वाले स्वयंसेवकों के मन में कितना असर करता होगा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कितना देशभक्त है इसका सर्टिफिकेट कम्युनिस्ट नहीं दे सकते। क्योंकि कम्युनिस्टों ने 1942 से लेकर आज तक देश के साथ गद्दारी ही की है।
कम्युनिस्टों के तथाकथित इन पुस्तकों में चरित्र हनन का भी पुरजोर प्रयास किया गया है। गोलवलकर या भगत सिंह नामक पुस्तक के पृष्ठ-42 और 43 पर संघ प्रचारक और भाजपा के बारे में जो चरित्र हत्या की गई है उसकी जितनी भी निन्दा की जाये वह कम है।
''किसी को चरित्र की शिक्षा कम्युनिस्टों से लेने की आवश्यकता नहीं है। चरित्र हनन करना यह हम लोगों का संस्कार नहीं है फिर भी मार्क्स-पुत्रों को इशारे में यह बता देना आवश्यक है कि माउत्सेतुंग (जिसने न केवल 5 शादियां की बल्कि प्रत्येक बुधवार को नाचघर में उसके लिए लड़कियां बुलाई जाती थी....) मन में घृणा के साथ-साथ आक्रोश भी पैदा करता है। चरित्र के धरातल पर ऐसे पतीत लोग ही मार्क्सवादियों के मसीहा बने हुए हैं।
मार्क्सवादी किताबों में भारत के प्रति इनकी भक्ति कैसी है उसके कुछ उदाहरण निम्न हैं तथा ये झूठ को कैसे सत्य साबित करते हैं इसके उदाहरणार्थ इनकी पुस्तकों को देखें:-
''एटम बम बनाने के नाम पर केसरिया पलटन जो घोर अंधराष्ट्रवादी रूख करती रही है''- घृणा की राजनीति, लेखक सीताराम येचुरी, पृष्ठ- 24
''उधर भाजपा सांसद मदन लाल खुराना बांग्लादेशी घुसपैठियों की राजधानी में मौजूदगी की अतिरंजि त तस्वीरों के जरिये मुस्लिम विरोधी उन्माद भड़काने में लगे हुए हैं'' घृणा की राजनीति, लेखक सीताराम येचुरी, पृष्ठ- 42
''1938 में ही सावरकर ने खुलेआम यह ऐलान किया था कि भारत में दो राष्ट्र, हिन्दू और मुसलमान बसते हैं। मुस्लिम लीग ने इस सिध्दांत को 1947 में अपनाया था''- घृणा की राजनीति, लेखक सीताराम येचुरी, पृष्ठ- 34
''सन् 1923 में नागपुर की पहली जीत के बाद से ही संघ की गतिविधियां उसी साम्प्रदायिकता भड़काने और मुसलमानों पर हमला करने की षडयंत्र का भी गतिविधियों के अलावा कुछ नहीं थी। तब से आज तक देशभर में संधियों के नियंत्रण की अनेक व्यायामशालाएं दंगाइयों के अड्डे के रूप में काम करते देखी जा सकती है''- आरएसएस और उसकी विचारधारा, पृष्ठ- 65
उपरोक्त वामपंथी शब्द इस बात को प्रमाणित करते हैं कि जब अमेरिका, चीन, सोवियत संघ और पाकिस्तान जैसे देश एटम बम बना सकते हैं तो रक्षार्थ भारत के एटम बम के खिलाफ प्रकट किया गया इनका विचार राष्ट्रद्रोह के सिवा और क्या कहलाएगा? इनके लेख में बंग्लादेशी घुसपैठ को नकारना या भारत एक राष्ट्र है इसका नकारना यह तो पहले से जगजाहिर है पर झूठ बोलने में माहिर मार्क्सवादी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना का काल 1923 से पहले दिखाकर खुद नंगा हो गये। क्योंकि सभी जानते हैं कि संघ की स्थापना 1925 में हुई थी। मुस्लिम लीग को बचाने के लिए इन्होंने पूरी कोशिश की है और सावरकर को ''द्वि-राष्ट्रवाद'' का दोषी करार दिया है जबकि यह सर्वविदित है कि मुस्लिम लीग ने इस सिध्दांत को सबसे पहले प्रतिपादित किया था।
वामपंथियों के झूठ का दस्तावेज स्वयं इनके द्वारा प्रकाशित पुस्तक ही है। झूठ बोलते समय इन्हें जरा भी शर्म नहीं आती है। चलते-चलते एक उदाहरण पर्याप्त है- घृणा की राजनीति नामक पुस्तक जो सीताराम येचुरी के नाम से प्रकाशित है उस पुस्तक के पहले ही लेख में इनकी कथनी और चरित्र तार-तार हो जाता हैं इस पुस्तक के साम्प्रदायिक और फांसीवादी ताकतों की चुनौती शीर्षक के तहत पृष्ठ-29 पर ए.के. गोपालन व्याख्यानमाला में 13 अप्रैल, 1998 को भाषण देते हुए सीताराम येचुरी ने कहा था.....
''इसलिए भाजपा को शिकस्त देने के लिए कांग्रेस के साथ रणनीतिक रूप से हाथ मिलाने का अर्थ होगा जिस डाल पर बैठे हों उसी को काटना।''
माक्र्सवादी आज कहां खड़े हैं। उसी कांग्रेस की गोद मे बैठकर मलाई काटने वाले सीताराम येचुरी और उनके पिछलग्गू यह भी भूल गये कि 1998 में कांग्रेस के बारे में उन्होंने उपरोक्त बातें कही थी।
हे भगवान! इन्हें मुक्ति दो क्योंकि ये खुद स्वीकार कर रहे हैं कि जिस डाल पर ये बैठे हैं उस डाल को ही ये काट रहे हैं। भारत में बुरे से बुरे आदमी को भी मरने के बाद हर व्यक्ति भगवान से उसका मुक्ति देने की प्रार्थना करता है। 1990 में पूरी दुनिया में दफनाये गये कम्युनिज्म को भगवान मुक्ति प्रदान करें। भारत में बेचारे केरल और बंगाल समुद्र के किनारे दो प्रांतों में ही सिमटे हुए कांग्रेस की कमजोरियों के कारण राष्ट्रीय राजनीति पर हावी होने का जो असफल प्रयास कर रहे हैं पता नहीं कब इनके पांव फिसल जाएं और भारत में भी ये समुद्र की लहरों में विलीन हो जाएं। मैं अग्रिम रूप से भगवान से यह प्राथना करूंगा कि भारत के कम्युनिस्टों को भी (भले ही कितना ही इन्होंने राष्ट्रद्रोह का काम किया हो और झूठ बोला हो) हे भगवान मुक्ति प्रदान करना।
4 comments:
तथ्यपूर्ण ज्ञानवर्द्धक जानकारी दी है। धन्यवाद।
श्री हरेन्द्र प्रताप का यह लेख अति उत्तम है और इसे तो साम्यवादियों को भी बड़े ध्यान से पढ़ना चाहिये। शायद उनकी आंख पर से भी झूठ का पर्दा हट जाये। वस्तुत: साम्यवाद का जन्म ही अनैतिक है क्योंकि उन्हें धर्म, मानवीय व्यवस्था व नियमों से कोई सरोकार नहीं है। वह शुरू से ही कहते कुछ हैं और करते कुछ हैं। उनकी दोनों आंखें एक ही चीज़ नहीं देखतीं। वह एक आंख से रूस, चीन व क्यूबा को देखते हैं और वहां उन्हें सब ठीक, सब जनहित व विश्वहित में दीखता है और दूसरी आंख से वही चीज़ अमरीका आदि में हो रही हो तो गलत लगती है।
भारत-अमरीका समझौते पर वह इस लिये ज़ोर-ज़ोर से दहाड़ें मारकर चीख रहे हैं क्योंकि इस समझौते से भारत का परमाणु परीक्षण करने का स्वतन्त्र आधिकार छिन जायेगा। पर यही पाखण्डी साम्यवादी तब ज़ोर से चिल्ला रहे थे विरोध में, जब वाजपायी सरकार ने 1998 में परमाणु परीक्षण किया था। उन्हें अमरीका या अन्य देशों द्वारा सैंकड़ों-हज़ारों निर्दोष लोगों के मारे जाने पर बड़ा दु:ख होता है पर रूस में स्टालिन द्वारा तथा सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान चीन में लाखों निर्दोष लोगो की निर्मम हत्या पर कोई दु:ख नहीं होता।
अमरीका द्वारा अफगानिस्तान, ईराक, वियतनाम आदि देशों पर जबरदस्ती कब्ज़े पर बड़ा क्षोभ होता है पर जब रूस ने अफगानिस्तान और पोलैण्ड आदि देशों पर अतिक्रमण किया तो उसे वह गलत नहीं समझते। उन्हें भारत से कितना प्रेम है यह तो उनकी इस बात से ही पता चल जाता है कि यह देशभक्त आज तक चीन की निन्दा करना तो दूर, भारत का पक्ष लेने की भी हिम्मत नहीं दिखा पाये कि उनके आका चीन व रूस कहीं नाराज़ न हो जायें।
उनके पास तो भारत का कुछ भी नहीं है। उनका दिल, दिमाग, आंखें और कान सब कुछ वही करते हैं जो उन्हें चीन व रूस से आदेश मिलता है। वह तो भारत में मात्र उनकी कठपुतलियां हैं जो गैर-भारतीयों के इशारे पर नाचती हैं।
कामरेडों की पोल खोलता अच्छा लेख।
sadhuvad is lekh ke liye
aaj kafi samay baad manniya harendra ji ka lekh pada. isse pahle kai baar abvp ke adhiveshno me suna. kafi jankari is lekh se mili....
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