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Saturday, 6 December 2008

हिन्दुत्व ही सांस्कृतिक राष्ट्रवाद है

लेखक- दीनानाथ मिश्र

पिछले पचास वर्षों के इस राजनैतिक अप्रचार के कारण हिन्दू, हिन्दू धर्म, हिन्दूवाद और हिन्दुत्व के ऊपर भयानक अत्याचार हुआ है।
भारत में अगर सर्व धर्मसमभाव है तो वह कम से कम पांच हजार साल की हिन्दू सभ्यता के मूल्यों और परम्पराओं के कारण है। जिसमें मजहब के नाम पर नागरिकों के साथ कोई भेदभाव करने की परम्परा नहीं रही है। ईसाई, यहूदी, पारसी और प्रारम्भ के मुसलमान, जब भारत की धरती पर आए तब हिन्दू सभ्यता ने बांह पसार कर उनका स्वागत किया। राजाओं ने गिरिजाघर और मस्जिदें बनाने की लिए जमीनें दी। तब यह संविधान नहीं था और, न ही इस संविधान वाला सेक्युलरवाद था। ऐसा इसलिए हो सका कि हिन्दू सभ्यता में दूसरों के लिए वैसी ही गुंजाइश और जगह है जैसे यहां पैदा हुए पंथों और सम्प्रदायों के लिए है।
धीरे-धीरे हिन्दू और हिन्दुत्व सेक्युलरवाद का विपरीतार्थक शब्द बना दिया गया। इस दौरान हिन्दू सभ्यता और संस्कृति की पांच हजार साल की विरासत को भुला दिया गया। हिन्दू और हिन्दुत्व से उसे काट दिया गया। उसके दार्शनिक, सांस्कृतिक और आध्‍यात्मिक तत्वों से संघ और जनसंघ को बेदखल करने की जबरदस्त कोशिश हुई और बहुत हद तक सफल भी हुई। पिछले बीस वर्षों में राजनैतिक बहस के धरातल पर साम्प्रदायिकता और सेक्युलरवाद का प्रयोग एक नारे के रूप में किया गया। हिन्दू और हिन्दुत्व को राजनैतिक अछूत और राक्षस के रूप में चित्रित किया गया। हिन्दू और हिन्दुत्व से जुड़े हुए हर प्रतीक को बिना तर्क के खारिज़ किया जाने लगा। उदाहरणार्थ सरस्वती वंदना के विरोध को देखा जा सकता है।

यह स्मरणीय है कि राजनीति में हिन्दुत्व के विरोध का यह सिलसिला पहले चुनाव से ही चालू हो गया था। तब तो भारतीय राजनीति में जनंसघ की कोई हैसियत ही नहीं थी। फिर भी प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने हिन्दू साम्प्रदायिकता को निशाना बनाने की शुरूआत कर दी थी। भारत विभाजन की पृष्ठभूमि थी। भयानक खूनखराबा हुआ था। जनसंघ को मुस्लिम विरोधी बताकर हिन्दू साम्प्रदायिकता का हौवा खड़ा करना वोट बैंक की राजनीति का श्रीगणेश था। '60 के दशक में तो कांग्रेस के नेताओं ने बाकायदा साम्प्रदायिकता विरोधी समिति बनाकर योजनाबध्द रूप से प्रचार की दीर्घकालीन रणनीति बनाई गई। संघ और जनसंघ के खिलाफ कई दर्जन पुस्तिकाएं लिखाई गई। आधे दर्जन सांसदों और आधो दर्जन लेखकों का यह उद्योग ही बन गया था। इन पुस्तिकाओं का उर्दू सहित सभी क्षेत्रीय भाषाओं में अनुवाद होता था। लाखों प्रतियां बांटी जाती थी। संघ के खिलाफ आधारभूत सामग्री प्रचार के मुद्दे इसी दौर में बनाए गए। आज भी उन्हीं मुद्दों, उन्हीं तर्कों, उन्हीं उध्दरणों और यहां तक कि उन्हीं मारक विशेषणों का इस्तेमाल किया जाता है।

पहले की सरकार में जब रामविलास पासवान रेलमंत्री थे तब उन्होंने गांधीजी के प्रिय भजन ''वैष्णव जन तो तैने कहिए, जो पीर पराई जाने रे'' जैसे भजन को राजधानी एक्सप्रेस में सुनाए जाने पर रोक लगा दी थी और उसकी जगह 'सेक्युलर भजन' की रचना का वचन दिया गया था। काश! पराई पीर, पर-नारी और पर-द्रव्य के बारे में जिस संवेदना का उल्लेख इस भजन में है, वैसी संवेदना अगर समाज में होती तो गोधरा की वैसी भीषण प्रतिक्रिया हरगिज नहीं होती। लेकिन स्वयं सेक्युलरवाद ने ऐसी संवेदनाओं पर प्रतिबंध लगाया और जब भीषण प्रतिक्रिया हुई तो 'गांधी के गुजरात' की याद आई। गुजरात के संदर्भ में कहा जा सकता है कि सेक्युलरवाद का वह तालिबानीकरण था। प्रचार के धारातल पर हिन्दुत्व को सेक्युलरवाद का विपरीतार्थक बनाने में काफी कुछ सफलता मिली लेकिन सिर्फ प्रचार के धरातल पर, जनता के धरातल पर नहीं। सच्चाई ठीक इसके विपरीत है।

सच्चाई यह है कि भारत में अगर सर्व धर्मसमभाव है तो वह कम से कम पांच हजार साल की हिन्दू सभ्यता के मूल्यों और परम्पराओं के कारण है। जिसमें मजहब के नाम पर नागरिकों के साथ कोई भेदभाव करने की परम्परा नहीं रही है। ईसाई, यहूदी, पारसी और प्रारम्भ के मुसलमान, जब भारत की धरती पर आए तब हिन्दू सभ्यता ने बांह पसार कर उनका स्वागत किया। राजाओं ने गिरिजाघर और मस्जिदें बनाने की लिए जमीनें दी। तब यह संविधान नहीं था और, न ही इस संविधान वाला सेक्युलरवाद था। ऐसा इसलिए हो सका कि हिन्दू सभ्यता में दूसरों के लिए वैसी ही गुंजाइश और जगह है जैसे यहां पैदा हुए पंथों और सम्प्रदायों के लिए है। भारत में जो समस्याएं आज विकराल होती दिखाई देती हैं, वह धर्मान्तरण करने वाले मज़हबों के कारण पैदा हुई है। ज्यादातर धार्मान्तरण बलात किए गए। लोभ, लालच या छल प्रपंच के जरिए किए गए। भारत का विभाजन उसी का परिणाम था। पाकिस्तान से पैदा हो रही समस्याओं की जड़ में यही धर्मान्तरण रहा है। सीमापार का आतंकवाद हो या आई.एस.आई. की दूसरी गतिविधियां; अक्षरधाम पर हुआ हमला हो या रघुनाथ मंदिर पर हुआ हमला, गहराई में जाने पर समझा जा सकता है कि ये सभी धर्मान्तरण के ही विषफल हैं।

सेक्युलरवादी इन सबको नकारते हैं। इन सबको नकारने के लिए उन्होंने झूठे, थोथे और पाखंडी तर्क गढ़ लिए हैं। पिछले तीस वर्षों में मार्क्‍सवादी इतिहासकारों ने इतिहास को हिन्दुत्व से खाली करने की भरपूर कोशिश की। इसके पहले के सौ साल में मैकाले के मानसपुत्रों ने भी ऐसी बौध्दिक पृष्ठभूमि बनाने में खासी सफलता प्राप्त की। राम जन्मभूमि मंदिर आंदोलन के डेढ़ दशक में पहली बार हिन्दुत्व ने करवट ली। जैसे जैसे ये आंदोलन आगे बढ़ता गया सेक्युलरवादी हमले भी बढ़ते गए। प्रचार के सारे अभियान में यही बताने की लगातार कोशिश होती रही है कि हिन्दुत्व मुसलमानों के खिलाफ है। और इसीलिए सेक्युलरवादी हर मामले में मुसलमानों के साथ होने और उनके सही गलत सब कुछ का समर्थन करने में जुटे रहते हैं।

यह ऐतिहासिक तथ्य है कि हिन्दू, हिन्दुत्व और हिन्दू संगठन भारत विभाजन के खिलाफ थे। वह तो अखण्ड भारत चाहते थे। अगर मुसलमानों के साथ बराबरी और सम-नागरिकता के साथ वह नहीं रहना चाहते थे तो अखण्ड भारत क्यों चाहते थे? फिर विभाजन का क्यों विरोध कर रहे थे? अगर कोई साम्प्रदायिक दंगों के इतिहास को देख जाए तो अक्सर यह देखने को मिलेगा कि पहल मुसलमानों की तरफ से हुई। जैसा कि गोधरा में भी हुआ। मगर सेक्युलरवादी इस बड़े सच को कभी स्वीकार नहीं करते। उनकी कोशिश यही होती है कि किसी न किसी तरह इस पहल का भी समर्थन करें। गोधरा का दोषारोपण भी गोधरा के शिकार हुए लोगों पर ही कर दिया गया।

पिछले पचास वर्षों में हिन्दू राष्ट्र को विवादास्पद बनाने की भरपूर कोशिश हुई।
पिछले पचास वर्षों में हिन्दू राष्ट्र को विवादास्पद बनाने की भरपूर कोशिश हुई। क्या यह गलत है कि यह हिन्दू राष्ट्र है। आज भी इसका नाम हिन्दुस्तान है। इसकी एक बहुत प्राचीन सभ्यता रही है। इसकी विविधता और बहुलता हजारों साल से फलती फूलती रही। विविधता के बावजूद सांस्कृतिक एकता बनी रही है। कभी बड़े साम्राज्य थे, कभी राजे-रजवाड़े थे। लेकिन राजकाज के विभिन कालखण्डीय उतार चढ़ाव के बावजूद एक सांस्कृतिक सातत्य पूरे देश में बना रहा है। यहां के सभी मजहबों और धर्म के लोग सांस्कृतिक रूप से एक ही विरासत के वारिस हैं। यही कारण है कि अनेक ईसाई नेता हाल-हाल तक यह कहते रहे हैं कि उनका रिलीज़न भले ही ईसाई हो, मगर सांस्कृतिक धरातल पर तो वह हिन्दू ही हैं।
क्या यह गलत है कि यह हिन्दू राष्ट्र है। आज भी इसका नाम हिन्दुस्तान है। इसकी एक बहुत प्राचीन सभ्यता रही है। इसकी विविधता और बहुलता हजारों साल से फलती फूलती रही। विविधता के बावजूद सांस्कृतिक एकता बनी रही है। कभी बड़े साम्राज्य थे, कभी राजे-रजवाड़े थे। लेकिन राजकाज के विभिन कालखण्डीय उतार चढ़ाव के बावजूद एक सांस्कृतिक सातत्य पूरे देश में बना रहा है। यहां के सभी मजहबों और धर्म के लोग सांस्कृतिक रूप से एक ही विरासत के वारिस हैं। यही कारण है कि अनेक ईसाई नेता हाल-हाल तक यह कहते रहे हैं कि उनका रिलीज़न भले ही ईसाई हो, मगर सांस्कृतिक धरातल पर तो वह हिन्दू ही हैं।

24 दिसम्बर को ईद मिलन के अवसर पर इस्लामिक अध्‍ययन संस्थान के प्रधान वहीदुद्दीनखान ने याद किया कि बचपन में अपने गांव में होली, दिवाली और ईद, हिन्दू मुसलमान मिलकर मनाते थे। मुसलमान भी दशहरे में शिरकत करते थे। उस दिन ईद मिलन के कार्यक्रम में संघ के सरसंघचालक श्री सुदर्शनजी, भारत के पूर्व उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी जैसे कई दर्जन प्रमुख व्यक्ति शरीक हुए थे। अनेक मौलाना भी उपस्थित थे। कई मस्जिदों के इमाम भी थे। पचास से अधिक मुसलमान जम्मू-काश्मीर से आए थे। ईद मिलन के आयोजक मुजफ्फर हुसैन साहब ने देश के विभिन्न भागों से मुस्लिम बुध्दिजीवियों को भी बुलाया था। उसमें मुसलमानों को संबोधित करते हुए सुदर्शनजी ने कहा था कि आप सब लोग भारत में ही पैदा हुए हैं। आपका खानदान हजारों वर्षों से यहां रहता रहा है। उन्होंने पूछा कि मुसलमान होने से आप अल्पसंख्यक कैसे हो गए? यहां तो परम्परा से सभी मतों, मज़हबों, पंथों की गुंजाइश रही है। कदाचित संघ और भाजपा के समस्त उपस्थित नेता यह संदेश देना चाहते थे कि देश के सभी उत्सवों में सब की भागीदारी होनी चाहिए। सामाजिक और धार्मिक उत्सव में सब की भागीदारी से सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की भौतिक उपस्थिति दर्ज होती रहेगी और देश मजबूत होता रहेगा।

हिन्दू संगठन और हिन्दुत्ववादी लोग हिन्दू राज नहीं चाहते। राज तो परम्परा से, मतों, पंथों और मजहबों के आधार पर किसी तरह का भेदभाव न करने और न होने देने का आग्रही रहा है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की यही विशेषता है। हिन्दू राष्ट्र की बात करने वाले संगठन पहले दिन से ही यह कहते रहे हैं कि भारत एक हिन्दू राष्ट्र है। हजारों साल से है। उनकी यह चिंता जरूर रही है कि धर्मान्तरण से देश की भौगोलिक सीमा सिकुड़ी है। इसी धरती पर पाकिस्तान और बंगलादेश बन गए। जो आज शत्रु की भूमिका निभा रहे हैं। जहां तक सांस्कृतिक एकता के स्वर का सवाल है पाकिस्तान और बंगलादेश से भी इसी तरह के स्वर अक्सर फूटते रहते हैं। भारत के साथ सांस्कृतिक समानता की बात इन दोनों देशों में लोग स्वीकार करते हैं। पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने दक्षिण एशिया के देशों के महासंघ की बात कही थी। वह भी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की ही कामना है।
(लेखक प्रसिध्द पत्रकार व स्तंभकार हैं)

1 comment:

shyam gupta said...

yahee saty hai.aage tippnee kee aavashyaktaa hee naheen hai.