लेखक- डॉ. राकेश सिन्हा
किसी भी सभ्य व्यक्ति के लिए राजनीतिक विश्लेषण में असभ्य भाषा का प्रयोग नहीं करना चाहिए, यह मेरी मान्यता रही है। परन्तु पिछले कुछ महीनों से पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्टों के द्वारा जिस बर्बरता, क्रूरता एवं राक्षसी वृत्ति का प्रदर्शन हो रहा है, उसे देख कर माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और सत्ता में उसके तीन सहयोगी पिछलग्गुओं (भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी और फारवर्ड ब्लॉक), के लिए 'दोगले' जैसे शब्द का प्रयोग भी, उनका सम्मान करने जैसा लगने लगा है। 15 मार्च को नंदीग्राम में एक दर्जन से अधिक गरीब-मजदूर-किसानों को मौत के घाट उतार दिया गया। सरकार उनकी जमीन, जमीर और जान का मुआवजा देकर 'सेज' संवारने में लगी हुई है। सिंगुर और नंदीग्राम में लगातार हिंसा का तांडव हो रहा है। किसानों-मजदूरों का हक क्या है यह जानने का एकाधिकार तो कम्युनिस्टों ने अपने लिए सुरक्षित रखा हैं। वे अपने आप को सर्वहारा का सिपाही कहते रहे हैं। उन्हीं के नाम पर राजनीति की रोटी सेंकते रहे हैं और जब सर्वहारा वर्ग अपने न्यूनतम अधिकारों के लिए संघर्ष पर उतरने लगा तब कम्युनिस्ट शासन ने असली चाल, चेहरा और चरित्र दिखा दिया।
बुध्ददेव भट्टाचार्य या उनकी पार्टी के लिए नैतिकता की बात करना मूर्खता होगी। इसलिए यह अपेक्षा करना कि इतने गरीब किसानों की मौत के बाद बुध्ददेव इस्तीफा दे देंगे, दोपहर की धूप में आसमान में तारे खोजने के समान होगा। संभवत: कम्युनिस्टों से कहीं अधिक संवेदनशीलता तो टाटा और सलेम ग्रुप में होगी। उनसे एक बार तो अपेक्षा की जा सकती है कि वे एक कदम पीछे हट जाएं और मजदूर-किसानों के खून से सनी धारती पर कार कारखाना या सेज का निर्माण नहीं करें। लेकिन राज्य के कम्युनिस्ट शासन से ऐसी उम्मीद नहीं की जा सकती।
माकपा में आज बुध्ददेव के खिलाफ बोलने वाला एक भी व्यक्ति नहीं है। किसान सभा, सीटू, एसएफआई जैसे संगठनों की जबान हिल तो रही है लेकिन इन खूनी कारनामों का औचित्य साबित करने के लिए। मजदूरों की रोजी-रोटी छीनने और उन पर हिंसात्मक कार्रवाई में भी ये क्रांति के दर्शन कर रहे हैं। मजदूरों- किसानों की बात करते हुए शहीद हुए सफदर हाशमी की याद में बना 'सहमत' जैसा संगठन भी मौन धाारण किए हुए है। सीपीआई संगठनात्मक रूप से पूरी तरह विकलांग है। इसका आत्मविश्वास खत्म हो चुका है। देश के सभी प्रांतों में 'अजय भवनों' के अतिरिक्त इसके पास कुछ नहीं बचा है- माकपा, कांग्रेस और लालू यादव जैसी बैसाखियों और मीडिया की सहानुभूति की बदौलत इसका राजनीतिक अस्तित्व दिखाई पड़ रहा है। इसलिए माकपा से असहमति जताते हुए भी यह वाम मोर्चे में बनी हुई है। और सबका एक ही रक्षा कवच है- 'हिन्दू साम्प्रदायिकता का खतरा'। आरएसपी और फारवर्ड ब्लॉक अपनी औकात जानते हैं, इसलिए उनके पास 'बुध्दम शरणम गच्छामि' के सिवा कोई चारा नहीं है।
इस पूरे प्रकरण में यह अहम सवाल उभरता है कि आखिर सीपीएम का चरित्र क्या है? सीपीएम का जन्म सीपीआई में विभाजन के परिणामस्वरूप 1964 में हुआ था। सीपीआई की राष्ट्रीय परिषद् के 32 सदस्यों ने भारत-चीन युध्द पर पार्टी द्वारा अपनाए गए दृष्टिकोण को प्रतिक्रियावादी और बुर्जुआ नेतृत्व के साथ समझौता करार दिया था। सीपीआई का मानना था कि चीन ने भारत पर आक्रमण किया। लेकिन ये 32 सदस्य, जिन्होंने सीपीएम का गठन किया, मानते थे कि माओ का नेतृत्व भारत के लिए अनुकरणीय है। वे भारत को ही भारत-चीन युध्द के लिए दोशी मानते थे। सीपीआई के दस्तावेज (बैटल अगेंस्ट माओइज्म एंड नक्सलिज्म) में लिखा गया है- यह सीपीआई से माओवाद के प्रभाव में टूट कर अलग हुई है। और इसी का अनुकरण करते हएु अपने कैडर को माओवाद की महानता स्थापित करने का प्रशिक्षण दिया है। इसी दस्तावेज में आगे कहा गया है कि सीपीएम ने सांस्कृतिक क्रांति (1967) के दौरान लोगों पर हुए अत्याचार को भी सही ठहराया है। माओ के उत्ताराधिकारों ने सांस्कृतिक क्रांति के दौरान हुई बर्बरता के लिए माओ को अपराधी माना, लेकिन सीपीएम की माओभक्ति बनी रही। यह अकेली घटना नहीं है। सोवियत संघ में स्टालिन ने 1929 से 1953 तक जो बर्बरतापूर्ण व्यवहार किया, उसे सुन कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। स्टालिन के बाद के सोवियत नेतृत्व ने भी अपने मूल्यांकन में स्टालिन को दोषी माना, परन्तु सीपीएम को यह अच्छा नहीं लगा। आखिर बर्बरता के बिना माक्र्सवाद क्या! इसलिए उसने मद्रास कांग्रेस (1992) में जारी पार्टी के दस्तावेज- ऑन सटर्ेन आइडियोलॉजिकल इश्यूज, में सोवियत कम्युनिस्ट नेताओं को स्टालिन के गलत मूल्यांकन के लिए दुत्कारा। उसमें लिखा है- सीपीएम व्यक्तिवाद को ठीक करने के नाम पर अपनाए गए दृष्टिकोण को अस्वीकृत करती है। यह समाजवाद के इतिहास को निषेधा है। लेनिनवाद के पक्ष, ट्राटस्कीवाद और अन्य सैध्दांतिक भटकाव के विरूध्द स्टालिन के निर्विवाद योगदान को इतिहास के पन्नों से नहीं मिटाया जा सकता। तीसरी घटना है चीन के थ्येनआनमन चौक पर नागरिक अधिकारों की मांग को लेकर हो रहे विरोध प्रदर्शन को सरकार द्वारा बर्बरता से कुचल देने को भी सीपीएम समाजवाद की रक्षा के लिए उचित और साहसी कदम मानती रही है।
जिस पार्टी ने अपने जन्म से ही बर्बरता को वर्ग-संघर्ष मान लिया हो, उसका चाल, चेहरा, चरित्र कैसा होगा? सत्ता के लिए सीपीएम किसी तरह का समझौता कर सकती है। इसके लिए गांधीवाद से लेकर स्टालिनवाद और सोनिया गांधी से लेकर मुलायम सिंह तक सभी विकल्प खुले रहते हैं।
नंदीग्राम में जो हुआ वह पहली और अपवादस्वरूप घटना नहीं है। सीपीआई के ही वर्ग संघर्ष के प्रशिक्षण से नक्सलवाद का जन्म हुआ। सत्ता मिलते ही सीपीएम नक्सलवाद को अवैधा वामपंथी संतान मानने लगी। सीपीआई के मुखपत्र 'न्यू एज' के 15 मई 1977 के अंक में एक आलेख छपा- 'सीपीम करेंट पोस्चर' इसमें कहा गया है 'पश्चिम बंगाल में सीपीएम ने कार्रवाई दल बनाया है, जिसमें समाज विरोधी तत्वों को शामिल किया गया है। इसने सीपीआई और अन्य वामपंथी दलों के कार्यकर्ताओं पर हिंसक आक्रमण किया और उन्हें मौत के घाटा उतारा। नक्सलवादी जो सीपीएम से अलग हुए, उनके साथ भी ऐसा ही किया गया। केरल में भी सीपीएम ने अपना अस्तित्व स्थापित करने के लिए हिंसा और लोगों पर आक्रमण का सहारा लिया।'
कम्युनिस्टों से अपेक्षा की जाती है कि वे सर्वहारा के प्रति संवेदनशील होंगे। परन्तु यह संवेदनशीलता तो उनके बीच जीने और मरने में होती है। सीपीएम वाले बता दें कि अपनी स्थापना के बाद से देशभर में उन्होंने कितनी बार मजदूर-किसानों के संघर्ष का नेतृत्व किया है? इसके कितने कामरेड जेल गए हैं? सच तो यह है कि सीपीएम नेता सामूहिक रूप से एक ही बार जेल गए और वह भारत-चीन युध्द के समय चीन की तरफदारी करते हुए भारतीय राज्य के खिलाफ विद्रोह करने की तैयारी के आरोप में। आज सीपीएम नेतृत्व सर्वहारा को छोड़कर कारपोरेट व व्यावसायिक घरानों का सिपाही हो गया है। यह विडंबना नहीं, चरित्र है। सर्वहारा विरोधाी चरित्र और स्टालिनवादी चाल, माओवादी धाूर्तता के साथ सीपीएम अपने नए पूंजीवादी दोस्तों के साथ रंग की नहीं खून की होली खेलने में जनहित देख रही है।
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक और संघ संस्थापक हेडगेवार के जीवनीकार हैं)
1 comment:
बहुत कड़ा लिख डाला है आपने साहब. कुछ बातों पर आपसे असहमति जरुर है पर कुल मिलाकर सहमति कि मात्रा ही ज्यादा है.
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