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Tuesday 30 September, 2008

देश के खिलाफ युध्द है अतंकवाद- मे.जन.(से.नि.) अफसिर करीम, रक्षा विशेषज्ञ

देश भर में हो रहे बम धमाकों और आतंकवादी कार्रवाईयों के बारे में एक बात स्पष्ट समझ लेनी चाहिए कि इनके पीछे पाकिस्तान के संगठन शामिल हैं। दूसरी बात यह है कि उन्होंने पैसे और मजहब के नाम पर कुछ लोगों को अपने साथ मिला रखा है, जोकि यहां आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देते हैं। पर हमारा काम है उनको रोकना, पकड़ना और उन्हें कड़ी सजा देना। लेकिन इन तीनों ही काम में हम असफल सिध्द हो रहे हैं।

आतंकवाद को रोकने में मिल रही असफलता का सबसे पहला कारण है खुफिया विभाग की नाकामी। दूसरी बात यह है कि खुफिया विभाग द्वारा जो सूचनाएं एकत्र की भी जाती हैं, गृह मंत्रालय के अधिकारी उसका सही विश्लेषण नहीं कर पाते हैं। खुफिया विभाग की सूचना के बाद सचेत रहने (रेड अलर्ट) की सार्वजनिक सूचना देने भर से कुछ नहीं होता। तीसरा-देश में आतंकवाद से लड़ने की क्या नीति हो, इस पर सभी राजनीतिक दल एकमत नहीं हैं। अमरीका में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमला हुआ या इंग्लैंड में बम धमाके हुए, वहां के सभी दलों ने एकमत से उसके खिलाफ जंग का ऐलान किया, कड़े कानून बनाए, और इसका परिणाम भी सामने आया। वहां उसके बाद कोई बड़ा आतंकवादी हमला नहीं हुआ। पर यहां कोई एक दल या उसकी सरकार आतंकवाद से निपटने का कोई कानून बनाती है, दूसरे दल की सरकार आकर उसे बदल देती है।
अमरीका में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमला हुआ या इंग्लैंड में बम धमाके हुए, वहां के सभी दलों ने एकमत से उसके खिलाफ जंग का ऐलान किया, कड़े कानून बनाए, और इसका परिणाम भी सामने आया। वहां उसके बाद कोई बड़ा आतंकवादी हमला नहीं हुआ। पर यहां कोई एक दल या उसकी सरकार आतंकवाद से निपटने का कोई कानून बनाती है, दूसरे दल की सरकार आकर उसे बदल देती है।
चौथा-घटना के बाद हमारी जांच प्रक्रिया बहुत कमजोर है। पांचवा-हमारी न्यायपालिका इतनी सक्षम नहीं है कि दोषी को शीघ्र और कठोर दंड दे सके। यदि किसी दोषी को सजा घोषित होने के बाद भी उसे सजा नहीं देंगे, वह महीनों-महीनों जेल में पड़ा रहेगा तो लोगों का पूरे तंत्र से विश्वास उठ जाएगा। ये सब कारण है जिसकी वजह से हमारा देश आतंकवाद का सही से मुकाबला नहीं कर पा रहा है।

इसके साथ ही मुस्लिम समुदाय के जो लोग राह भटक गए हैं, उन्हें मुख्य धारा में लाने का काम भी मुस्लिम समाज के प्रमुखों तथा अन्य सामाजिक संगठनों के माध्यम से लगातार होना चाहिए।
भारत में सहिष्णु हिन्दू समाज है वह बड़ी संख्या में है, और उसने किसी दूसरे पर आक्रमण नहीं किया, प्रतिक्रिया को होने से रोका है। यह बातें लोगों को समझ में आनी चाहिए तभी वे आतंकवाद से दूर होंगे।
क्योंकि भारत में सहिष्णु हिन्दू समाज है वह बड़ी संख्या में है, और उसने किसी दूसरे पर आक्रमण नहीं किया, प्रतिक्रिया को होने से रोका है। यह बातें लोगों को समझ में आनी चाहिए तभी वे आतंकवाद से दूर होंगे।

यदि हम सिर्फ पुलिस, सिर्फ कानून, सिर्फ खुफिया विभाग, सिर्फ मुस्लिम या सिर्फ राजनीतिक दलों की कमी की बात करेंगे तो सफलता नहीं मिलेगी। इन सब विषयों पर गंभीरता से विचार करके, एक आम सहमति बनाकर, युध्द के समान एक रणनीति बनाकर आतंकवाद का मुकाबला करेंगे, तभी यह समाप्त होगा। हमें आतंकवादियों को उनके घरों में घुसकर मारना होगा, सीमा पार के उनके नेताओं को मारना होगा, उनमें भय पैदा करना होगा, तभी वे ऐसा करने से डरेंगे।

किसी आतंकवादी घटना में किसी मुसलमान को पकड़ा जाए और कुछ राजनीतिक दल के नेता उसके घर पहुंच जाए और कहें कि मुसलमानों पर जुल्म हो रहा है, यह नीति भी गलत है।
किसी आतंकवादी घटना में किसी मुसलमान को पकड़ा जाए और कुछ राजनीतिक दल के नेता उसके घर पहुंच जाए और कहें कि मुसलमानों पर जुल्म हो रहा है, यह नीति भी गलत है।
और कुछ दलों के नेता कहें कि सब मुसलमान आतंकवादी है, यह नीति भी गलत है। दुर्भाग्य यह है कि हम राजनेताओं को कुछ कह नहीं सकते। ये लोग बहुत गलत काम कर रहे हैं।

अब जिस संघीय जांच एजेंसी की बात की जा रही है, उसकी आवश्यकता बहुत पहले से महसूस की जा रही है। आतंकवादी कहां छिपे हैं, उन्हें मदद कौन दे रहा है, धन कौन मुहैया करा रहा है, इस सबकी जांच के लिए एक केन्द्रीय मंत्रालय या विभाग होना चाहिए। यह बात भी स्पष्ट समझ लेनी चाहिए कि अब आंतरिक सुरक्षा और बाह्य सुरक्षा का मामला एक हो गया है। आतंकवाद को सिर्फ आंतरिक सुरक्षा से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए। क्योंकि अब लड़ाई के तरीके और माध्यम बदल गए हैं। आतंकवाद को देश के खिलाफ एक युध्द के रूप में देखा जाना चाहिए और उसी अनुरूप नीति बनाकर सजा के कठोर प्रावधान करने चाहिए।
(पांचजन्‍य, सितंबर 28, 2008 से साभार)

Sunday 28 September, 2008

आज जरूरत है राष्ट्र आराधना की

कम्युनिज्म के पंडे

-बाबा नागार्जुन

आ गये दिन एश के!

मार्क्स तेरी दाड़ी में जूं ने दिये होंगे अंडे

निकले हैं, उन्हीं में से कम्युनिज्म के चीनी पंडे

एक नहीं, दो नहीं तीन नहीं, बावन गंडे

लाल पान के गुलाम ढोयेंगे हंडे

सर्वहारा क्रांति की गैस के

आ गये अब तो दिन ऐश के

ठी-ठी-ठीमचा रहे ऊधम बहोत

शांति के कपोत

पीले बिलौटे ने मार दिया पंजा

सर हुआ घायल लेनिन का गंजा

हंसता रहा लिउ शाओ ची

फी-फी-फी

मित्रों,

कुछ दिन पहले कनॉट प्लेस, करोल बाग, गफ्फार मार्केट और बाराखंभा रोड में सिरियल बम ब्लास्ट हुए।

आज महरौली में बम ब्लास्ट हुआ। कल कहीं और हो सकता है। अगर इसी तरह आतंकवादियों के समर्थन में तथाकथित बुध्दिजीवी उतरते रहे तो उनके हौसले बुलंद होते रहेंगे। इस कैम्पस में भी आतंकवादियों के समर्थन में वामपंथी लगातार खड़े होते रहे हैं। ऐसे में हमें उनके नापाक इरादों को बेनकाब करने की जरूरत है।
आज महरौली में बम ब्लास्ट हुआ। कल कहीं और हो सकता है। अगर इसी तरह आतंकवादियों के समर्थन में तथाकथित बुध्दिजीवी उतरते रहे तो उनके हौसले बुलंद होते रहेंगे। इस कैम्पस में भी आतंकवादियों के समर्थन में वामपंथी लगातार खड़े होते रहे हैं। ऐसे में हमें उनके नापाक इरादों को बेनकाब करने की जरूरत है।

क्या सीता हरण के अभियुक्त रावण को आतंकवादी कहा जा सकता है? अश्वत्थामा, आचार्य द्रोण के सपूत, हजारों बौध्दों की हत्या का उत्तारदायी पुष्यमित्र शुंग, इत्यादि सबको क्या आतंकवादी की श्रेणी में डाला जा सकता है? हे प्रश्न पूछने वाले मार्क्‍स पुत्रों।

शर्म करो अपने वैचारिक व मानसिक स्तर पर। क्यों वयस्क जीवन में प्रवेश करके भी मासूम सा सवाल पूछते हो? तेरे मासूम सवालों से हैरान हैं हम। क्या रावण, अश्वत्थामा, पुष्यमित्र शुंग में कोई सम्बन्ध था? क्यों सतयुग, द्वापर, त्रेता और कलियुग चार युगों को एक सूत्र में पिरोने का प्रयास करके अपना समय व्यर्थ कर रहे हो! क्या तुम अपने पूज्य ग्रंथ बैलिस्ट मैनिफेस्टो में विभिन्न स्थानों में वर्णित द्वंद्वात्मक भौतिकवाद को भूल गये?

हम कहना यह चाहते हैं कि हिंसा, हत्या, घृणा और बर्बरियत का हर कौम से ताल्लुक होता है परन्तु इन विशिष्ट गुणों की तीव्रता व उस तीव्रता को प्रदर्शित करने के उद्देश्य में खाई जैसा अंतर होता है। रावण, अश्वत्थामा इत्यादि सभी व्यक्तियों ने ये गुण किसी विशेष कौम के विरुध्द नहीं प्रयोग किये। वे इन गुणों का प्रदर्शन व्यक्तिगत स्तर पर व्यक्तिगत शत्रुओं के विरुध्द करते रहे। परन्तु जब किसी कौम विशेष का मकसद इन गुणों को प्रयोग कर किसी दूसरी कौम का नामोनिशान मिटाने के लिए किया जाता है तो यह ही आतंकवाद कहलाता है। हे मार्क्‍सपुत्रों/पुत्रियों, अब शायद तुम्हारी समझ में आ गया होगा कि आतंकवाद किसी व्यक्ति के विरुध्द प्रयोग नहीं किया जाता। यह एक पूरे समुदाय के विरुध्द प्रयोग होने वाला शस्त्र है। व्यक्ति इस शस्त्र की चपेट में मात्र इसलिए आ जाता है कि समुदाय पराभौतिक वस्तु (Imagine community) की श्रेणी में आता है, जिसे आप छूकर, देखकर पहचान नहीं सकते। एक दूसरे तरह से यों कहा जा सकता है कि जैसे नक्सलवाद एक व्यक्ति विशेष के विरुध्द न होकर पूरी व्यवस्था के विरुध्द एक हिंसक आंदोलन है वैसे ही इस्लामिक आतंकवाद भी भारत के तमाम स्वदेशी संप्रदायों जैसे हिंदू, सिख, बौध्द, जैन इत्यादि के विरुध्द एक हिंसक आंदोलन है। अत: दोनों ही आतंकवाद की श्रेणी में अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं।

दूसरा प्रश्न यह है कि ''सारे आतंकवादी मुसलमान क्यों हैं?'' पुन: एक और मासूम सवाल! अब यह भी बताने की जरूरत है कि खिलाफत आंदोलन के दौरान भी ऐसे ही प्रश्न हिन्दू जनमानस के मन में आये थे कि आखिर क्यों हिन्दुस्तान के मुस्लिम भाइयों को खलीफा के साम्राज्य के बिखरने का ज्यादा दर्द है बजाय अपनी मातृभूमि के संकटों के। ऐसे प्रश्न अनुत्तारित ही छोड़ दिये जायें तो बेहतर है। परन्तु प्रश्न तो आखिर प्रश्न हैं। हम आपसे ही जवाब मांगते हैं कि आखिर क्यों पूरे भारत में विस्फोट पर विस्फोट हुए जा रहे हैं? अब आप पुन: कहेंगे कि संघ वाले भी तो ऐसा कर रहे हैं। तो भाई, आप बतायें क्या करें संघ वाले? जब मन आये दीवाली मनाइएगा, खून की होली खेलिएगा तो क्या हम चुप बैठ पाएंगे? नहीं, और आपको लगे हाथ सूचित भी कर दें कि अभी आगे बहुत लम्बी लड़ाई है। अब नानावटी कमीशन जिस जांच पड़ताल के लिए बनाया गया था वह पूरा करने के लिए भी आपकी राय लेगा? महज आपके कहने से ही रिपोर्ट बदल दी जाएगी कि नहीं डिब्बे में स्वयंसेवक खाना बना रहे थे? न्यायिक प्रक्रिया की पोल खोलने के लिए क्या इतना काफी नहीं कि अफजल जैसे लोग अभी भी सरकारी मेहमानवाजी का लुत्फ उठा रहे हैं? और रही बात बाप-बेटी की तरह रह रहे पादरी और नन की, तो कैसे बाप बेटी थे ये लोग वह हमें भी खूब मालूम है। शायद ठीक उसी तरह जैसे दो विपरीत लिंगी कॉमरेड ..... नहीं शायद दो कदम पीछे ही, आगे नहीं।

रही बात लाश दिखाने की, तो हे मार्क्‍स पुत्रों जिस प्रकार पार्टी हित में तथाकथित शीर्षस्थ पदाधिकारियों द्वारा लिए गए निर्णय और उनके कारण सार्वजनिक नहीं किये जाते, ठीक उसी प्रकार राष्ट्रहित में कुछ बातें, निर्णय सार्वजनिक नहीं की जातीं। तुम्हारी समझ को और विस्तृत बनाने के लिए तुम्हें बतायेंगे कि चीन में वर्ष 2007 में किसानों द्वारा 20,000 से भी अधिक विरोध प्रदर्शन, विद्रोह जिन्हें विश्व समुदाय के सामने नहीं आने दिया गया, या फिर KGB के क्रियाकलाप।

मित्रो! पत्रकारिता, मीडिया, इन्टेलेक्चुअल वर्ग की निष्पक्षता पर तो आप सभी को यकीन होगा! देश के सारे महत्वपूर्ण समाचार पत्र, टी।वी। चैनल्स और बौध्दिक डिस्कोर्स वामपंथी जागीर बने हुए हैं। इतिहास में उस अकबर को महान बताया जाता है जो राणा प्रताप के खिलाफ जीत हासिल करने पर इसे काफिरों के खिलाफ इस्लाम की जीत बताता है; तो वहीं सिख गुरुओं को लुटेरा बताया जाता है। आज आवश्यकता है तो ऐसे बौध्दिक वर्ग का प्रखर विरोध करने की; ऐसे पक्षपातपूर्ण इतिहास की पुस्तकों की होली जलाने की। हमने 1947 में अभी सिर्फ भौतिक आजादी पाई है। हमारी बौध्दिक आजादी आज तक मैकाले, मार्क्‍स के द्वारा प्रदान की गई पश्चिमी विचारधारा की गिरफ्त में है। मित्रों आइये इस गोरी चमड़ी की गोरी विचारधारा को उखाड़ फेकें।

आखिर राष्ट्र किस दिशा में जा रहा है? अल्पसंख्यक तुष्टीकरण अपनी चरमसीमा पर पहुंच गया है। इन्सपेक्टर शर्मा की शहादत पर सवाल उठाकर हर कोई अपने आपको बड़ा सेक्युलर साबित करने में लगा हुआ है। सेक्युलरिज्म को सिध्द करने के लिए इफ्तार पार्टियों में शिरकत करना आवश्यक हो गया है। धर्म को अफीम बताने वाले वामपंथी नेताओं के लिए उस समय धर्म क्या गांजा हो जाता है जिसका निरंतर सेवन कर ये लोग अपना शरीर और दिमाग यूरोपीय सभ्यता को गिरवी रख चुके हैं?रही बात किसानों की आत्महत्या, विस्थापन, आदिवासियों की समस्या, दलितों की पीड़ा...... तो सुनो, हे मार्क्‍सपुत्रों, वर्तमान काल में एक वस्तु जिसका नाम इन्टरनेट है, वहां पर जाकर गूगल (Google) नाम की वेबसाइट पर Sewa Bharati टाइप करके हमारा योगदान देखो। हे आर्यपुत्रों सेवाभारती, बालभारती, विद्याभारती, वनवासी कल्याण आश्रम, भारतीय मजदूर संघ इत्यादि चंद ऐसे संगठन हैं जो वर्ग विशेष की समस्याओं से ही जूझने का काम करते हैं। केन्द्रीयकरण में विकेन्द्रीकरण का यह अनूठा नमूना है जहां शीर्ष संगठन भविष्य के आने वाले संकटों के बारे में चिंता करता है, वहीं आनुषांगिक संगठनें अपने अपने कार्य क्षेत्र में वर्ग विशेष की समस्याओं का तत्काल निदान करती है। विद्याभारती आदिवासी क्षेत्रों में 1216 विद्यालयों के माध्यम से वनवासी बालिकाओं-बालकों को शिक्षा प्रदान कर रहा है।वैसे ये सब बातें तुम्हारे संज्ञान में न होने के भी कारण हैं ...... तुम जो काम करते हो वो काम कम, शोर ज्यादा होता है, आखिर मकसद जो वोट की फसल काटना होता है। हम जो काम करते हैं सेवाभाव से करते हैं। सेवाभाव अन्त:स्फुरित भावना है, वहीं राजनीति भाव खुराफाती-खलिहर दिमाग की उपज है।रही बात काम की, हमारे जो काम हैं, हम उनके प्रति दृढ़संकल्प हैं और आशान्वित भी। हिन्दुत्व हमारा लक्ष्य है और हमारा साधन उस लक्ष्य को पूरा करने के लिए। हिन्दुत्व हमारा संकल्प है और हमारी प्राणवायु जो हमें यह संकल्प लेने को प्रोत्साहित करती है। तुम्हारा वर्ग संघर्ष और साम्यवाद तो धूल फांक रहा है। यह तुम्हें भी पता है कि ये बातें किताबों में अच्छी लगती हैं इसलिए तुम अपना दिल बहलाने के लिए और छात्र समुदाय को भरमाने के लिए नाना प्रकार के नौटंकी, डेमो आयोजित करते रहते हो। OBC आरक्षण का डेमो सीरिज Vol 1 अपने आप में अनूठा रहा जहां तुम खुद अपनी आशा के विपरीत नयी आरक्षण व्यवस्था में OBC सीट की संख्या घटवाने में सफल रहे। तुम नित्यप्रति ऐसे ही विभिन्न आयोजनों से अपना मनोरंजन करते रहो क्योंकि तुमको भी यह खबर है कि साम्यवाद आने से रहा। वैसे अगर वाकई तुम्हारा हृदय टूट गया हो, गहरी निराशा छा गई हो तो, हिंदू धर्म की हिफाजत का ही कार्य क्यों नहीं प्रारम्भ करते हो? निठल्ले बैठने से विनाशकारी प्रश्न तुम्हारे मनोमस्तिष्क में घुमड़ते रहेंगे कहा भी गया है : खाली दिमाग शैतान का घर।

मित्रों, राष्ट्र के लिए राज्य है, राज्य के लिए राष्ट्र नहीं। वह राजनीति जो राष्ट्र को क्षीण करे अवांछनीय रहेगी। तुष्टीकरण का एकमात्र उद्देश्य राष्ट्र को क्षीण करना है। क्या हम तैयार हैं इस्लामिक राष्ट्र घोषित होने के लिए? क्या हम तैयार हैं अपनी माँओं, बहनों का बलात्कार होते देखने के लिए? क्या हम तैयार हैं शरीयत पर चलने के लिए? यदि नहीं, तो मित्रों, वर्तमान आतंकवाद और कुछ नहीं ऐसी ही एक व्यवस्था स्थापित करने की दिशा में वैश्विक इस्लामी ताकतों का प्रयास है। आज जरूरत है तो राष्ट्र आराधना की। इसलिए जो राष्ट्र के प्रेमी हैं वे राजनीति से उपर उठकर राष्ट्रभाव की आराधना करें। राष्ट्र ही एकमेव सत्य है। इस सत्य की उपासना सांस्कृतिक कर्म है। दीनदयाल उपाध्याय (राष्ट्र जीवन की दिशा)

वन्दे मातरम। भारत माता की जय॥

ह/ विनीत चतुर्वेदी, उपाध्‍यक्ष, ABVP, JNU
ह/ स्नेहा, उपाध्‍यक्ष, ABVP, JNU

दिनाँक: 27.09.2008 को जेएनयू में जारी विद्यार्थी परिषद का पर्चा

Saturday 27 September, 2008

मार्क्‍सवाद और किसान

लेखक- बनवारी

यह केवल संयोग नहीं है कि सिंगूर के मामले में पश्चिम बंगाल की मार्क्‍सवादी सरकार किसानों के बजाय एक औद्योगिक घराने का पक्ष ले रही है। पश्चिम बंगाल का उद्योगीकरण किसानों के हितों को चोट पहुंचाए बिना भी हो सकता है। लेकिन मार्क्‍सवादी विचारधारा में किसानों की कोई खास हैसियत नहीं है।

सिंगूर के मामले में पश्चिम बंगाल की मार्क्‍सवादी सरकार किसानों के बजाय एक औद्योगिक घराने का पक्ष ले रही है। पश्चिम बंगाल का उद्योगीकरण किसानों के हितों को चोट पहुंचाए बिना भी हो सकता है। लेकिन मार्क्‍सवादी विचारधारा में किसानों की कोई खास हैसियत नहीं है।
इसलिए किसानों और किसान परिवारों से निकले छोटे उद्योग-धंधे चला रहे लोगों के बल पर पिछले तीस साल से सत्ता में पहुंचती रही वाम मोर्चा सरकार नंदीग्राम और सिंगूर दोनों जगह उन्हें अनदेखा कर सकी। उसके लिए नंदीग्राम और सिंगूर दोनों जगह अपनी कृषिभूमि के अधिग्रहण का विरोध कर रहे किसान राज्य की प्रगति के शत्रु हैं। पूरे आंदोलन के दौरान उसे किसानों के अधिकारों की सुध नहीं आई, वह ममता बनर्जी के राजनीतिक उभार को लेकर चिंतित रही।
अगर ममता बनर्जी न होतीं तो सशस्त्र स्थानीय मार्क्‍सवादी काडर वहीं गति करता जो वर्ग शत्रुओं की की जाती है। नंदीग्राम में तो उसने एक हद तक यह कर ही दिया था।
अगर ममता बनर्जी न होतीं तो सशस्त्र स्थानीय मार्क्‍सवादी काडर वहीं गति करता जो वर्ग शत्रुओं की की जाती है। नंदीग्राम में तो उसने एक हद तक यह कर ही दिया था, जिससे विचलित होकर राज्यपाल गोपाल कृष्ण गांधी को हिंसा के खिलाफ बयान देना पड़ा। उसी दिन से वे राज्य के मार्क्‍सवादियों की आंख की किरकिरी बन गए थे।

मार्क्‍सवादियों के इस व्यवहार से किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। मार्क्‍सवाद और पूंजीवाद दोनों का ही जन्म यूरोपीय समाज को शीघ्रतापूर्वक औद्योगिक समाज में बदलने के लिए हुआ था। इस उद्देश्य के लिए पूंजीवादी पूंजी और उसके स्वामियों की भूमिका सबसे महत्त्वपूर्ण मानते थे और मार्क्‍सवादी मजदूरों को संगठित करके सर्वहारा की तानाशाही स्थापित करने की वकालत करते रहे। उनके इस उद्देश्य में किसानों की भूमिका उद्योगीकरण के लिए साधन जुटाने वाले वर्ग से अधिक नहीं थी। पूंजीवादी व्यवस्था में तो बाजार के अप्रत्यक्ष नियंत्रण द्वारा उनका शोषण हुआ होगा, मार्क्‍सवादियों ने उनके साथ जो किया उनके वर्णन लोमहर्षक हैं।
स्तालिन के शासनकाल में सोवियत रूस के उद्योगीकरण के लिए 'सरप्लस' जुटाने का काम लाखों किसानों को क्रांति विरोधी बताते हुए मौत के घाट उतार कर या गुलाग श्रम शिविरों में सड़ने के लिए भेज कर किया गया था। 1932 में यूक्रेन के अकाल में ही पचास लाख लोगों को मर जाने दिया था, जबकि सरकार के गोदामों में अनाज भरा पड़ा था।
स्तालिन के शासनकाल में सोवियत रूस के उद्योगीकरण के लिए 'सरप्लस' जुटाने का काम लाखों किसानों को क्रांति विरोधी बताते हुए मौत के घाट उतार कर या गुलाग श्रम शिविरों में सड़ने के लिए भेज कर किया गया था। 1932 में यूक्रेन के अकाल में ही पचास लाख लोगों को मर जाने दिया था, जबकि सरकार के गोदामों में अनाज भरा पड़ा था।

लेकिन मार्क्‍सवादी इतिहासकारों को अपने सिध्दांतों और अपनी सबसे पहले स्थापित हुई क्रांतिकारी व्यवस्था के चेहरे पर यह कोई दाग नहीं लगता। क्योंकि उनकी प्रगति की कहानी में यह एक छोटा-सा अंधेरा कोना भर है। शायद रूस के लोगों को अपने उस इतिहास पर कुछ ग्लानि रही भी हो, भारत के मार्क्‍सवाद तो आज भी अपने आपको स्तालिनवादी कहने और कहलवाने में गौरव ही महसूस करते हैं। हालांकि अब वे रूस को अंतरराष्ट्रीय मार्क्‍सवाद के नेता का दर्जा नहीं देते क्योंकि उनकी निगाह में स्तालिन के रास्ते से हटकर रूस संशोधनवादी हो गया है। मार्क्‍सवादियों के नए आदर्श चीन का भी किसानों के बारे में कोई बहुत बेहतर दृष्टिकोण नहीं है। चीन ने कल तक ग्रामीण क्षेत्रों से लोगों के शहरों में आकर बसने पर सख्त पाबंदी लगाई हुई थी और चोरी-छिपे ऐसा करने वालों का सख्ती से दमन किया जाता रहा। ऐसा दुनिया के किसी और देश में शायद ही संभव हो सकता हो।

मार्क्‍सवादी रणनीति में जहां मजदूर न हों वहां वर्ग संघर्ष चलाने के लिए किसानों की भूमिका है। इसलिए पश्चिम बंगाल के लगभग खेतिहर समाज में राजसत्ता प्राप्त करने और बनाए रखने के लिए उन्हें किसानों का सहारा लेना पड़ा। पश्चिम बंगाल के मार्क्‍सवादियों को और भी सुविधा रही क्योंकि उन्हें लोकतांत्रिक प्रक्रिया में सरकारों से उपजने वाले असंतोष का लाभ उठाकर सत्ता मिल गई। 1977 में मिली इस सत्ता को उन्होंने फिर हाथ से नहीं निकलने दिया। पंचायतों पर कब्जे के द्वारा उन्होंने सरकारी साधनों से अपनी पार्टी का एक ऐसा अर्ध्दसैनिक काडर खड़ा कर दिया जो कांग्रेस या तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं के लिए देहाती इलाकों को अगम बनाए रहता है। इस अर्ध्दसैनिक काडर की छवि नंदीग्राम में सबको अच्छी तरह दिखाई दे गई थी। यहां तक कि लंबे समय से मार्क्‍सवादी काडर के अभ्यस्त स्थानीय पुलिस और प्रशासन को भी उनके खिलाफ मुंह खोलना पड़ा था।

फिर भी इसे उपलब्धि ही माना जाना चाहिए कि पश्चिम बंगाल की मार्क्‍सवादी पार्टी वहां के खेतिहर समाज पर इतने लंबे समय तक अपना प्रभाव और नियंत्रण बनाए रखने में सफल रही है। राज्य में जब मार्क्‍सवादी सत्ता में आए थे तो भूमि सुधारों की प्रक्रिया पूरी हो चुकी थी, जिसका श्रेय उनसे पहले की कांग्रेस सरकारों को जाता है। लेकिन बटाईदारों के अधिकार स्पष्ट नहीं थे, जिनकी पश्चिम बंगाल में बहुत बड़ी संख्या है। मार्क्‍सवादी पार्टी ने इसे अपनी क्रांतिकारी राजनीति का आधार बनाते हुए बटाईदारों को स्थायी कानूनी अधिकार दिलवा दिए। इसे ही बरगा ऑपरेशन कहा जाता है। क्या यह दिलचस्प बात नहीं है कि बटाई के पुश्तैनी अधिकार पर बटाईदार को हटाया नहीं जा सकता, पर राज्य सरकार पुश्तैनी भू स्वामियों को जब चाहे उनकी कृषि भूमि का अधिग्रहण करके बेदखल कर सकती है। अपनी पुश्तैनी भूमि पर बेचारे किसानों को कोई अनुलंघनीय अधिकार नहीं है।

बुध्ददेव भट्टाचार्य का यह कहना गलत नहीं है कि पश्चिम बंगाल में उद्योगीकरण को बढ़ावा देने की आवश्यकता है। उसके बिना पश्चिम बंगाल दूसरे राज्यों से पिछड़ जाएगा। पर क्या वाम मोर्चा सरकार किसानों को बलि का बकड़ा बनाए बिना उद्योगों के लिए जमीन की व्यवस्था नहीं कर सकती? अपने औद्योगीकरण के दौर में पर्यावरण का व्यापक विनाश कर चुके यूरोपीय समाज को अब पर्यावरण की इतनी चिंता है कि उसने दुनिया भर में कानून बनवा दिए हैं कि घोषित वनभूमि को हाथ नहीं लगाया जा सकता। आज हमारे देश में भी ऐसे कानून हैं कि किसी उद्योग के लिए वनभूमि को छुआ नहीं नहीं जा सकता। कृषिभूमि को भी इसी तरह का दर्जा क्यों न मिले? भारत में तो सदा यही मर्यादा थी। देश में अन्न की कमी और किसानों की बदहाली को देखते हुए यह मर्यादा फिर से क्यों नहीं बनाई जा सकती?

आज का समय अधिकारों का समय है। देश में मार्क्‍सवादियों, समाजवादियों और उदारवादियों ने मिलकर ऐसे कानून बनवा दिए हैं कि हमारे राज्यतंत्र और उद्योग तंत्र में एक बार नौकरी पाए व्यक्ति को आसानी से नहीं निकाला जा सकता। ऐसा कानून किसानों की भू संपत्ति के लिए क्यों नहीं है कि उनकी इच्छा के बिना राज्य भी उनकी भूमि अधिग्रहीत नहीं कर सकता?

यूरोप-अमेरिका के उदारवाद में किसानों की कोई जगह भले न रही हो, एशियाई समाजों में उनके महत्त्व को कभी कम करके नहीं आंका गया। यूरोप-अमेरिका के बाद दुनिया का सबसे अधिक औद्योगिक देश जापान है। वहां आबादी का घनत्व अधिक होने के कारण जमीन की किल्लत और भी अधिक है। जापानी लंबे समय तक टोकियो के अपने व्यस्ततम हवाई अड्डे का विस्तार इसलिए नहीं कर पाए कि किसान उसके लिए जमीन देने को तैयार नहीं थे और वहां के कानूनों में राज्य को किसानों की जमीन जबरन अधिग्रहीत करने का अधिकार नहीं है। पर यह किसानों की ही बात नहीं है। एक ठेठ परंपरागत एशियाई देश होने के नाते जापान में हर व्यक्ति का अपने परिवार, गांव, उद्योग, राज्यतंत्र और राजनीतिक मंडल से अटूट संबंध होता है। आप जिस कंपनी में नौकरी करते हैं, आजीवन उससे निकाले नहीं जाते। अगर आप स्वेच्छा से नौकरी छोड़कर चले गए तो नई कंपनी में आपको वह सम्मान नहीं मिल सकता और न फिर पुरानी कंपनी में आप लौट सकते हैं। जापान के बड़े-बड़े प्रोफेसर भी इसीलिए अपना देश छोड़कर यूरोपीय और अमेरिकी विश्वविद्यालयों में जाने से कतराते हैं।

मार्क्‍सवाद को इतिहास की सार्वदेशिक और सार्वकालिक व्याख्या मानने वाले मार्क्‍सवादियों को एशियाई समाजों की विशेषताएं समझने की फुरसत कहां है। यूरोपीय होने के नाते वरिष्ठ मार्क्‍सवादी नृशास्त्री मोरिस गोडेलियर यह कह सके कि कार्ल मार्क्‍स ने अपनी स्थापनाएं जिन जानकारियों के आधार पर की थीं वे सब गलत सिध्द हो चुकी हैं।
मार्क्‍सवाद को इतिहास की सार्वदेशिक और सार्वकालिक व्याख्या मानने वाले मार्क्‍सवादियों को एशियाई समाजों की विशेषताएं समझने की फुरसत कहां है। यूरोपीय होने के नाते वरिष्ठ मार्क्‍सवादी नृशास्त्री मोरिस गोडेलियर यह कह सके कि कार्ल मार्क्‍स ने अपनी स्थापनाएं जिन जानकारियों के आधार पर की थीं वे सब गलत सिध्द हो चुकी हैं।
लेकिन भारत के मार्क्‍सवादी तो यूरोप के ऐतिहासिक अनुभव के अधकचरे ज्ञान के आधार पर गढ़े गए मार्क्‍सवादी सिध्दांतों के अनुरूप भारत के इतिहास की व्याख्या करते रहते हैं और ईसाई मिशनरियों से उधार ली गई कार्ल मार्क्‍स की इस भाषा को दोहराते रहते हैं कि पिछड़ा भारतीय समाज जड़ता और अंधेरे में पड़ा हुआ था और उसे उसमें से निकालने के लिए ब्रिटीश साम्राज्यवाद आवश्यक था।
अपनी अंध वैचारिकता में अक्सर मार्क्‍सवादियों ने आत्म-गौरव की वह सामान्य भावना भी भुला दी जो हर समाज में सहज ही होती है और वे भारत के इतिहास की निंदाजनक व्याख्या करते रहे।
अपनी अंध वैचारिकता में अक्सर मार्क्‍सवादियों ने आत्म-गौरव की वह सामान्य भावना भी भुला दी जो हर समाज में सहज ही होती है और वे भारत के इतिहास की निंदाजनक व्याख्या करते रहे।

इस वैचारिक मुर्च्‍छा में बेचारे सिंगूर के किसानों की उन्हें क्या चिंता हो सकती है! जब ममता बनर्जी का आंदोलन बढ़ा और अनिच्छुक किसानों को उनसे अधिग्रहीत की गई चार सौ एकड़ जमीन लौटाने की मांग जोर पकड़ने लगी तो बुध्ददेव भट्टाचार्य ने कहा कि जो जमीन अधिग्रहीत कर ली गई है वह कानूनन लौटाई नहीं जा सकती। उन्होंने यह नहीं कहा कि भूमि अधिग्रहण कानून गलत है, उन्होंने कहा कि ममता बनर्जी की मांग गैरकानूनी है। राहुल बजाज उनसे एक कदम आगे बढ़ गए और कहा कि भूमि अधिग्रहण कानून अंग्रेजों के जमाने का है, उससे उद्योगपतियों को दिक्कतें आ रही हैं इसलिए उसे बदला जाए। दोनों में शायद ही किसी को पता हो कि 1894 के अंग्रेजों द्वारा बनाए गए भूमि अधिग्रहण कानून की पृष्ठिभूमि क्या है।

राजसत्ता हाथ में आने के बाद अंग्रेजों ने पाया कि भारत में राज्य को यूरोप की तरह सभी भौतिक साधनों पर स्वामित्व प्राप्त नहीं है। राजा भूमि का स्वामी नहीं, रक्षक है और इस नाते उसे अपने उपयोग के लिए किसानों की जमीन बिना उनकी सहमति के अधिग्रहीत करने का अधिकार नहीं है, भले वह अधिग्रहण कितने ही कल्याणकारी उद्देश्य के लिए किया जा रहा हो। चकित अंग्रेजों ने जब भूमि के पट्टों की भाषा देखना शुरू किया तो उन्हें समझ में आया कि भारत में सभी भूमि देवभूमि है। उदाहरण के लिए जगन्नाथ क्षेत्र में भगवान जगन्नाथ भूमि के स्वामी हैं। भूमि जोतने के कारण किसान को ही उस भूमि पर व्यावहारिक स्वामित्व की रक्षा करना है। अंग्रेज इस व्यवस्था को चलने नहीं दे सकते थे, सो उन्होंने सारे अधिकार राज्य को दे दिए।

वर्ष 1997 में केरल सरकार बनाम भास्करन पिल्लै के मुकदमे में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि अगर किसी सार्वजनिक उद्देश्य के लिए भूमि का अधिग्रहण किया गया है तो वह उद्देश्य पूरा होने के बाद बची जमीन को उसके मूल स्वामी को वापस नहीं दिया जा सकता, राज्य उसका उपयोग किसी और सार्वजनिक उद्देश्य के लिए कर सकता है। 2005 में फिर सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसा ही निर्णय दिया। इस तरह के भूमि अधिग्रहण कानून को किसानों के हक में बदलने के बजाय हमारे मार्क्‍सवादी नेता उसकी ओट लेने की कोशिश कर रहे हैं। यह दुर्भाग्य की बात है कि सिंगूर विवाद को माकपा ही नहीं, सभी पार्टियां एक स्थानीय राजनीतिक समस्या के रूप में देख रही हैं। हमारा शैक्षिक, बौध्दिक और राजनीतिक वर्ग यूरोपीय विचारों की ऐसी मुर्च्‍छा में है कि वह भूमि अधिग्रहण के व्यापक परिणामों को नहीं देख पा रहा। जबकि किसानों के साथ-साथ सबके जीवनयापन के स्थायी साधनों के अधिकार की बात उठाई जानी चाहिए।
(जनसत्ता से साभार)

Friday 26 September, 2008

आतंकवाद पर जेएनयू में विद्यार्थी परिषद् का पर्चा

मत चीखो
कि शहर में कर्फ्यु है
और कभी दंगे भड़क सकते हैं
फरियाद मत करो
कि तुम्हारे भगवान के पास त्रिशूल है
और मंजर कभी खौफनाक हो सकता है
प्रतिरोध मत करो
कि तुम बहुसंख्यक हो
और सौहार्द कभी टूट सकता है
बस जमींदोज हो जाओ बमों में
और साट लो होठों पर चुप्पी
क्योंकि तुम्हारा मरना
उन्हें अहसास कराता है कि वे जिन्दा हैं!

मित्रों,बमों के धमाके और निर्दोष लोगों की चीत्कार से वामपंथ को दिक्कत नहीं, इनके लिए वह चीख (और प्रतिरोध) दिक्कत पैदा करती है जो बमों के धमाके के खिलाफ भारत की आवाम के पक्ष में आवाज बुलंद करती है। वामपंथ को इस आवाज से खतरा है। यह अकारण नहीं है कि वामपंथ आतंकवादी बम धमाकों से कहीं ज्यादा उसके प्रतिरोध में उठी आवाज के खिलाफ लामबंद हुआ। आतंकवादी धमाकों पर एक-दो वाक्यों में टिप्पणी कर उन्होंने अपनी जिम्मेदारी का अहसास कराया और उतर आये हिन्दू प्रतिरोध की अपनी पुरानी संस्कृति पर। इसके लिए सिमी और इंडियन मुजाहिदीन जैसे संगठनों पर प्रतिबंध लगाना जरूरी नहीं है, पोटा और टाडा जैसे आतंकवाद निरोधक कानून जरूरी नहीं है। इनके लिए जरूरी है उस आवाज का खामोश हो जाना जो इसकी मांग करते हैं। वामपंथियों की लामबंदी इसी आवाज को खामोश करने की पुरजोर कोशिश है। वामपंथ को दिक्कत है कविता की उन पंक्तियों से जिसमें कहा गया है कि 'अल्लाह ने काफिरों के खून से इफ्तार किया।' गलत क्या है इसमें! इंडियन मुजाहिदीन और हिजाबुल मुजाहिदीन मदरसों में जिस तरह की सीडी दिखा रहे हैं उसमें यह बात साफ तौर पर कही गयी है कि 'जेहाद से खुदा प्रसन्न होता है' 'वह जन्न्त बख्शता है।' 'काफिर को मारने से खुदा की नेमत मिलती है।'' कविता और कला सत्य को अनावृत करने के माध्यम हैं। जानी-पहचानी चीज को भी महसूस कराने का एक जरिया है। यह संवेदनशील बनाने की प्रक्रिया है और इसके लिए कवि अनेक उपादानों का सहारा लेता है। अगर जेहाद से बिना हाथ-पांव और चेहरे का खुदा प्रसन्न होता है, तो 'काफिरों के खून से इफ्तार' इसकी एक इमेज क्रिएट करता है। कविता की भाषा में इसे मानवीकरण कहते हैं।

अब सवाल यह उठता है कि मकबूल फिदा हुसैन के चित्रों की वकालत करने वाले वामपंथी इस पर बिफर क्यों पड़े? कला अगर स्वायत्ता है और उस पर नैतिक निर्णय नहीं दिये जा सकते, तो इस कविता की भी निंदा नहीं की जानी चाहिए क्योंकि यह कविता भी उतनी ही स्वायतत्ता है जितनी कि मकबूल की पेंटिंग। मकबूल ने सत्य को अनावृत करने के लिए हिन्दू देवी-देवताओं के कपड़े उतार दिये हैं तो इस कवि ने निराकार अल्लाह को रूप दिया है- दोनों सत्यान्वेषण की ही प्रक्रिया है। इसलिए अगर जस्टीफाई किया जाना चाहिए तो दोनों को किया जाना चाहिए। कवि का उद्देश्य किसी की धार्मिक भावना को आहत करना नहीं वरन् सत्य का प्रकाशन है।

कविता और कला के कुछ बाहर विमर्शों की दुनिया है जिनमें कला की आवाजाही होती रहती है। वामपंथ अपनी सुविधा के हिसाब से मुहावरे गढ़ता रहता है और कला को कभी स्वायत्ता ओर कभी सामाजिक उत्पादन सिध्द करता है। सारे गैर वामपंथी उनके लिए कलावादी हैं। महान आलोचक नामवर सिंह के लिए कविता (कला) अच्छी या बुरी नहीं सही या गलत होती है। चूंकि वे माक्र्सवादी हैं इसलिए प्रतिमान है समाज का मंगल (?) भाव। अब इस आधार पर मकबूल की पेंटिंग सही है। ऐसे में सामाजिक उद्देश्य क्या है इनकी पेंटिंग का? अगर नग्नता समाज का मंगल करती है तो पैगम्बर मुहम्मद और ईसा मसीह का नंगापन भी मंगलकारक होगा। क्या ईसाई और मुस्लिम समुदायों का मंगल वामपंथ को रास नहीं आता? तसलीमा नसरीन की कला ब्च्प् ;डध्द के लिए स्वायतत्ता क्यों नहीं है?

बहरहाल मनुस्मृति, रामचरितमानस आदि में जाति व्यवस्था और स्त्री को लेकर कुछ टेक्स्चुअल प्रॉब्लम्स हैं इसलिए विमर्शों की दुनिया में इस पर बातचीत होनी चाहिए। आलोचना से भी परहेज नहीं किया जाना चाहिए। किसी भी तरह की शाश्वतता तात्कालिकता के दबाव से पूर्णत: मुक्त नहीं होती इसलिए उसके साथ समस्या होती है। जो बात मनुस्मृति और रामचरितमानस के साथ है वही 'कुरान शरीफ' और बाइबिल के साथ भी। स्त्री और जेहाद को लेकर 'कुरान शरीफ' के टेक्स्ट में प्राब्लम है इसलिए इस पर भी आपत्ति की जानी चाहिए। बाइबिल के बारह वर्सन में एक को प्रामाणिक मान लेना भी कहीं-न-कहीं शक्ति संबंधों की सूचना देता है। मनुस्मृति पर बात करते समय हम्मूराबी की विधि संहिता की क्रूरता को भी ध्यान में रखना चाहिए। यह भी देखा जाना चाहिए कि अलेक्जेण्ड्रिया के पुस्तकालय में आग लगाने में ईसाइयत ने किस क्रूरता का प्रदर्शन किया है। लेकिन वामपंथ के साथ कुछ बेसिक प्राब्लम्स हैं। ईसाइयत और इस्लाम की बुरी चीजों के प्रति जहां उसकी सहमति है हिन्दू धर्म की अच्छाइयों से भी गुरेज है। वामपंथ का यह दोमुंहापन उसे प्रतिक्रियावादी बना देता है और बाध्य करता है कि वह अपनी अस्मिता हिन्दू विरोध से परिभाषित करे। यही कारण है कि बीएसएफ के परचे में जब राम को गाली दी जाती है वामपंथी चुप रहते हैं, लेकिन जब दूसरे धर्मों के बारे में सही बात भी कही जाती है उनकी संगीनें तन जाती हैं। यह वामपंथ की तुष्टीकरण की नीति है। उन्हें विश्वास हो चला है कि मार्क्‍सवादी विचारधारा का अब कोई मतलब नहीं रह गया है इसलिए हिन्दू विरोध एक नयी विचारधारा है उनके अस्तित्व में बने रहने के लिए। हिन्दू विरोध का वैचारिक आधार लेकर सेक्युलरिज्म की बात करना सेक्युलरिज्म को गाली देना है।

मित्रों, आज तक भारत के इतिहास में कोई ऐसी घटना नहीं है जिसमें वामपंथियों ने भारत और हिन्दू के समर्थन में बात की हो। देश विभाजन के समय इन्होंने पाकिस्तान का समर्थन किया। 1962 के चीन के आक्रमण के समय इन्होंने चीन का समर्थन किया। वामपंथी इतिहासकारों ने लिखा कि चीन ने नहीं, भारत ने चीन पर आक्रमण किया। वामपंथी प्रसन्न थे कि चीन भारत को अपने में मिला मार्क्‍सवादी बना रहा है। उन्होंने 'चीनेर चेयरमैन आमार चेयरमैन' का नारा दिया। भारत के परमाणु विस्फोट पर इन्होंने कलाम जैसे देशभक्त को हत्यारा करार दिया और कहा कि भारत को इसकी जरूरत नहीं; जबकि चीन के परमाणु परीक्षण पर इन्‍होंने मिठाइयां बांटी थीं। अभी ईरान जैसे गैर-जिमेदार देश जिसने चोरी से परमाणु तकनीक हासिल की है, वामपंथियों की टिप्पणी है-उसके सामरिक रूप से सुरक्षित रहने के लिए परमाणु कार्यक्रम जरूरी है। अमरनाथ जमीन विवाद पर इनका कहना है कि भारत सरकार कश्मीर की डेमोग्राफी बदल रही है जबकि विस्थापित कश्मीरी पंडितों पर इन्होंने कोई सवाल कभी नहीं उठाए। हिन्दुओं का धर्मांतरण इनके लिए जायज है और हिन्दू धर्म में वापसी नाजायज। क्या मतलब है इसका? अब वामपंथियों को क्यों देशद्रोही न कहा जाए?

मुसलमान भाइयों की आतंकवाद के खिलाफ अपील का हम स्वागत करते हैं। लेकिन उनकी अपील एक प्रतिक्रिया है। अगर परचे में 'काफिर के खून से अल्लाह के इफ्तार का जिक्र न होता तो क्या वे आतंकवाद के खिलाफ एकजुटता की अपील करते? हम उनसे यह पूछना चाहते हैं कि अफजल की फाँसी के प्रति उनका क्या रवैया है? कश्मीर में पाकिस्तान का झंडा लगाया गया और हिन्दुस्तान का झंडा जलाया गया, इन घटनाओं पर उनके मन में तूफान क्यों नहीं उठा जो अब उठ रहा है। हम उनसे आग्रह करते हैं कि वामपंथियों के हाथ का खिलौना बनना बंद कर आत्मविवेक से राष्ट्रहित में निर्णय लें। कृपया इस तरह की टिप्पणी न करें कि सिमी को प्रतिबंधित किया जाए अगर वह दोषी है। जनाब अब तक आपको पता नहीं कि सिमी दोषी है या नहीं? अब इंटेलिजेंस ब्यूरो क्या आपको सी।डी। दिखाएगा तभी मानेंगे? इतने भी नादान न बनिए जनाब वामपंथी लूट खाएंगे, बड़े शातिर हैं वो।

वंदे मातरम्! भारत माता की जय!!
आतंकवाद पर जेएनयू में विद्यार्थी परिषद् का पर्चा 16 सितम्बर 2008

Thursday 25 September, 2008

पं. दीनदयाल उपाध्याय जयंती पर विशेष : डा. मुरली मनोहर जोशी


25 सितंबर भारतीय जनसंघ के पूर्व अध्यक्ष पं। दीनदयाल उपाध्याय का जन्‍म दिवस हैं। वे मूलत: एक चिंतक, सृजनशील विचारक, प्रभावी लेखक और कुशल संगठनकर्ता थे। दीनदयालजी भारतीय राजनीतिक चिंतन में एक नए विकल्प 'एकात्म मानववाद' के मंत्रद्रष्टा थे। उन्‍होंने मार्क्‍स के सिध्दांतों को 'भारत की धरती पर पूर्णत: आधारहीन' बताया। उनका मानना था कि भारत के बाहर भी किसी देश ने मार्क्‍स के सिध्दांतों को व्यवहार में नहीं अपनाया। मार्क्‍सवाद में व्यक्ति तथा समष्टि का संपूर्णता से चिंतन न होने के कारण इसका पराभव निश्चित है। हम यहां दीनदयालजी के सहयोगी रहे भाजपा के पूर्व अध्‍यक्ष एवं पूर्व केन्‍द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री डा. मुरली मनोहर जोशी का संस्‍मरणात्‍मक लेख प्रस्‍तुत कर रहे हैं-

दीनदयालजी के साथ मेरा परिचय 1949 में हुआ। यह वह समय था जब राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ पर प्रतिबंध लग चुका था। वे उ.प्र. के सह प्रान्त प्रचारक थे। हमने उन्हें अपने कॉलेज में एक व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया। वामपंथी विचारों से जुडे छात्र इस कोशिश में थे कि यह कार्यक्रम किसी तरह असफल हो जाये। दीनदयालजी आये और कार्यक्रम समय पर प्रारम्भ हुआ। मैं अपने कुछ मित्रों के साथ बाहर निकल कर देखने गया कि दीनदयालजी के भाषण के समय कोई अप्रिय घटना न घटे।

कार्यक्रम में व्यवधान डालने के लिए कुछ छात्रों ने बिजली का 'फ्यूज' उड़ा दिया। हम रोशनी की दूसरी व्यवस्था जुटाने के लिए भागे। यह सब इतनी आपा-धापी में हुआ कि मैं गिर पड़ा और चोट लग गई। कम्युनिस्टों के भरसक प्रयास के बावजूद दीनदयालजी का कार्यक्रम सफलतापूर्वक सम्पन्न हो गया। हम अपने-अपने छात्रावासों में वापस लौट गये। जब उन्हें हमारे चोट लगने की खबर लगी तो वे हमसे मिलने हमारे कमरे तक आये। तब से मैं लगातार उनके सम्पर्क में उनके अन्तिम समय तक बना रहा। पंडितजी संघ कार्य करते रहे और 1951 में जनसंघ की स्थापना होने पर उसमें सक्रिय हो गये।

मैं आगे की शिक्षा के लिए इलाहाबाद गया। पंडितजी जब भी इलाहाबाद आते थे तो वे रज्जू भैया के घर पर ठहरते थे। वे कभी भी विश्वविद्यालय छात्रावासों में जाकर छात्रों से भेंट करना नहीं भूलते थे। उनकी सादगी सबको प्रभावित करती थी। एक प्रमुख राजनीतिक दल के महामंत्री होने के बावजूद उनके व्यवहार में उनका पद कभी झलकता नहीं था। उनकी सादगी एवं बुध्दिमत्ता उन्हें छात्रों के काफी नजदीक लाती थी।

एक दिन उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र विभाग के विभागाधयक्ष एवं प्रख्यात अर्थशास्त्री प्रो.जे.के. मेहता से भेंट करने की इच्छा व्यक्त की। प्रो. मेहता अर्थशास्त्र जैसे विषय पर पंडितजी की समझ और पकड़ को देख कर काफी प्रभावित हुए और वे समझ गये कि दीनदयालजी कोई सामान्य राजनेता नहीं हैं। मुझे भारतीय जनसंघ के लिए काम करने का अवसर 1957 में मिला। उसके बाद वे जब भी इलाहाबाद आये वे हमेशा मेरे घर पर ही ठहरते थे। यह वह समय था जब जनसंघ अपनी शैशवास्था में था। इलाहाबाद कांग्रेस का गढ़ था और पंडित जवाहरलाल नेहरू और लाल बहादुर शास्त्री जैसे कद्दावर नेताओं के होते वहां जनसंघ के लिए अपनी उपस्थिति दर्ज कराना ही उपलब्धि हुआ करती थी।

इन तमाम विषम परिस्थितियों के बावजूद दीनदयालजी जनसंघ को प्रभावी बनाने के लिए इलाहाबाद का नियमित प्रवास करते थे। एक बार एक कार्यकर्ता को स्टेशन से अपनी मोटरकार में दीनदयालजी को एक सभा स्थल पर ले जाना था। वह मोटरकार रास्ते में खराब हो गई और स्टेशन पर उन्हें लेने कार्यकर्ता नहीं पहुंचा। मेरे पास उन दिनों एक मोटरसाईकिल थी। दीनदयालजी बिना हिचकिचाहट मेरी मोटरसाईकिल पर बैठे और सभास्थल में पहुंच गये। सभास्थल एक ग्रामीण क्षेत्र में था और ग्रामीण श्रोताओं की समस्याओं को लेकर जिस तरह उन्होंने अपना भाषण दिया वह दर्शाता था कि जन-भावनाओं के प्रति वे कितने संवेदनशील हैं। कहना आवश्यक नहीं है कि वे वहां मौजूद ग्रामीणों के साथ अपना तादात्म्य बिठाने में काफी सफल रहे।

कई बार वे इलाहाबाद आने की पूर्व सूचना नहीं देते थे। रिक्शा पकडकर सीधा घर आ जाते थे। भोजन में उनकी पसंद भी काफी सादी थी। पराठा घुंइया की सब्जी, दही-बूरा और उड़द की दाल उन्हें बहुत प्रिय था। वे कहते थे यह सब मिल जाना ही मेरे लिए किसी दावत से कम नहीं है। उन्हें छोटी-छोटी बातों की बड़ी चिंता थी। छोटा सा सुझाव भी जब उनके मस्तिष्क में कौंधा जाता था तो वे उस पर पूरा धयान देते थे।

1962 के लोकसभा चुनावों में विरोधी दलों ने तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के विरूध्द डा. राममनोहर लोहिया को फूलपुर निर्वाचन क्षेत्र से खड़ा किया। यद्यपि डा. लोहिया पराजित हुए लेकिन अंतिम वोट गिने जाने तक नेहरू जी की सांसें अटकी रहीं। कुछ पोलिंग स्टेशनों पर तो, जो जनसंघ के प्रभाव वाले क्षेत्र थे, नेहरूजी को एक वोट भी नहीं मिला। इन चुनावों से मुझे डा. लोहिया के करीब आने का अवसर मिला।

जब डा. लोहिया ने संघ और जनसंघ की कार्यप्रणाली को समझने की इच्छा व्यक्त की तो दीनदयालजी ने सोनभद्र (उ.प्र.) में आयोजित कार्यकर्ता शिविर में उन्हें आमंत्रित किया। यहां मिले अनुभवों का उन पर काफी सकारात्मक प्रभाव पड़ा। बाद में दीनदयालजी और डा. लोहिया अच्छे मित्र बने। इन दोनों के साथ आने से भारतीय राजनीति में एक नया अधयाय शुरू हुआ।
दीनदयालजी और डा. लोहिया भारत एवं पाकिस्तान के शांतिपूर्ण सहअस्तित्व की बात को बढ़ाने वाले अग्रणी व्यक्तियों में थे और यहां तक कि इस दिशा में उन्होंने भारत-पाक महासंघ के विषय पर एक संयुक्त वक्तव्य भी जारी किया।
दीनदयालजी और डा. लोहिया भारत एवं पाकिस्तान के शांतिपूर्ण सहअस्तित्व की बात को बढ़ाने वाले अग्रणी व्यक्तियों में थे और यहां तक कि इस दिशा में उन्होंने भारत-पाक महासंघ के विषय पर एक संयुक्त वक्तव्य भी जारी किया।

उन्होंने कई बार छोटी जगहों और संस्थाओं के निमंत्रण को भी सिर्फ उसके विचारधारा की दृष्टि से महत्व देते हुए स्वीकारा। एक बार हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने राजभाषा अधिनियम पर आयोजित सेमिनार में किसी राष्ट्रीय स्तर के नेता को मुख्य वक्ता के रूप में आमंत्रित करने की रूचि दिखाई। इस पर मैंने दीनदयालजी से व्यक्तिगत रूप से बात की और उन्होंने इस प्रस्ताव को स्वीकार किया क्योंकि यह अपने दल के विचार को रखने का एक सशक्त मंच था।

उनके मेरे आस पड़ोस में कई मित्र थे जो उनके नगर में होने पर सदैव मेरे घर उनसे भेंट करने अवश्य आते थे। एक बार उन्होंने मुझसे पास के एक गांव में चलने को कहा वहां पर उन्होंने ग्रामीणों से उनके बीच बैठ कर बड़ी आत्मीयता से बातें की। इलाहाबाद वापिस लौटते समय उन्होंने मुझे बताया कि उस गांव में वे इसलिए गये थे क्योंकि पिछली बार वे जब इस गांव में आये तो उन्होंने फिर आने की बात कही थी।

1963 में दीनदयालजी ने जौनपुर से लोकसभा उपचुनाव लड़ा लेकिन वे हार गये। लेकिन उन्होंने अपनी हार को भी विनम्रतापूर्वक स्वीकारते हुए किसी भी तरह का आरोप-प्रत्यारोप लगाने से इंकार कर दिया। ''मेरा प्रतिद्वंद्वी अपनी बात को वोटरों तक ले जाने में मेरे से अधिक सफल रहा'', पराजय के बाद मात्र इतना ही उन्होंने कहा।
1963 में दीनदयालजी ने जौनपुर से लोकसभा उपचुनाव लड़ा लेकिन वे हार गये। लेकिन उन्होंने अपनी हार को भी विनम्रतापूर्वक स्वीकारते हुए किसी भी तरह का आरोप-प्रत्यारोप लगाने से इंकार कर दिया। ''मेरा प्रतिद्वंद्वी अपनी बात को वोटरों तक ले जाने में मेरे से अधिक सफल रहा'', पराजय के बाद मात्र इतना ही उन्होंने कहा।
चार वर्ष के बाद 1967 में कांग्रेस को कई राज्यों के विधानसभा चुनावों में विरोधी दलों के आगे धूल चाटनी पड़ी। कांग्रेस को बहुमत न मिलने से विरोधी दलों की बीच सरकार बनाने की कवायद शुरू हो गई। भारतीय जनसंघ के सदस्यों की संख्या इन सभी विधानसभाओं में प्रभावकारी थी। जब संविद सरकारों की बात चली तो दीनदयालजी ने इसे मानने से प्रारम्भ में इंकार कर दिया। उनका मत था इससे पार्टी और विचारधारा पर विपरीत असर पडेग़ा। उत्तार प्रदेश में वे नहीं माने परन्तु बिहार में वे मान गये। बाद में उन्होंने उ.प्र. में भी संविद सरकार के गठन को मंजूरी दे दी।

जब दीनदयालजी जनसंघ के अधयक्ष बने तो मैं उनके साथ कालीकट तक ट्रेन यात्रा में था। कालीकट अधिवेशन के बाद दीनदयालजी भारतीय राजनीति के अग्रणी नेताओं में गिने जाने लगे। वहां से लौटने के बाद वे उ.प्र. गये। वहां उन्होंने श्री नानाजी देशमुख, श्री रामप्रकाश गुप्ता, श्री हरीश चन्द्र श्रीवास्तव, श्री गंगा भक्त और अन्य नेताओं और कार्यकर्ताओं से मिले। यहां से उन्हें पटना जाना था और मैं उन्हें स्टेशन तक छोड़ने गया। उस क्षण मैंने उन्हें आखिरी बार जीवित अवस्था में देखा था क्योंकि यह यात्रा उनकी अंतिम यात्रा साबित हुई।

उन्हें पटना के लिए विदा करने के बाद मैं इलाहाबाद में एक प्रशिक्षण वर्ग के लिए चला गया। वह 11 फरवरी (1968) का दिन था जब हमें उ.प्र. के तत्कालीन उप मुख्यमंत्री श्री राम प्रकाश गुप्ता का फोन आया कि दीनदयालजी का शव मुगलसराय में पड़ा हुआ है। हम सभी स्तब्ध रह गये। श्री गुरूजी ने मुझे तत्काल वाराणसी पहुंचने को कहा। जब दीनदयालजी का शव पोस्टमार्टम के लिए ले जाया गया मैं उनके साथ था।

चित्रकार हुसैन का सच- अम्बा चरण वशिष्ठ


विश्वविख्यात चित्रकार मुहम्मद फिदा हुसैन के बारे में कई प्रकार की भ्रांतियां मीडिया में फैल रही है या फैलाई जा रही हैं। कुछ उन्हें अपने नंगे चित्रों के कारण भारतीयों की भावनाओं को ठेस पहुचाने का दोषी बता रहे हैं तो कुछ ऐसा माहौल प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहे हैं मानो श्री हुसैन ने तो कुछ गलत किया ही नहीं और भारत के पावलो पिकासो को कुछ कट्टरपन्थी हिंदुओं ने भारत छोड़कर विदेश में रहने पर मजबूर कर दिया है। वस्तुत: स्थिति यह नहीं है। यह तो सिर्फ एक पक्ष है, एक आंख से देखने का प्रयास जिससे दूसरा पक्ष ओझल रहता है।

प्रश्न तो यह उठता है कि यदि श्री हुसैन ने कुछ गलत नहीं किया और किसी कानून का उल्लंघन किया ही नहीं तो वह फिर विदेश में क्यों बैठे हैं? वह तो अपने देश से बहुत प्रेम करते हैं। दूसरी ओर न तो वर्तमान सरकार ने और न किसी पिछली सरकार ने कभी कहा कि वह उन्हें समुचित सुरक्षा प्रदान नहीं करेंगे। तो फिर वह क्यों नहीं आते?

जो लोग उनकी तुलना विश्वविख्यात चित्रकार पाबलो पिकासो से करते हैं वह भूल जाते हैं कि पिकासो ने तो तत्कालीन प्रशासन से बगावत करने का लोहा लिया था और वह जीवन के अन्तिम पल तक अपने विचारों पर अडिग रहे। उसके लिये उन्होंने अपने प्राण तक न्यौछावर कर दिये। पर श्री हुसैन के साथ तो ऐसा कुछ नहीं है। वह तो कई तरह की बातें करते फिरते हैं। मुआफी भी मांगी है। फिर उनका पिकासो से क्या मेल?

उनकी अपनी बातों और उनके समर्थक उदारवादियों का खण्डन तो उन्होंने स्वयं ही बीबीसी पर अपने एक हाल ही के साक्षात्‍कार में कर दिया। वह तो मानते ही नहीं कि वह किसी के कारण निर्वासित जीवन व्यतीत कर रहे हैं। श्री हुसैन ने उच्चतम न्यायालय द्वारा भारत माता का नग्न चित्र बनाने के मामले पर कार्यवाही नहीं करने के आदेश पर संतोष व्यक्त करते हुये कहा कि ''सुप्रीम कोर्ट ने जबाव दे दिया है''।
जब बीबीसी पत्रकार ने आगे पूछा कि वह वतन कब लौटने की सोच रहे हैं उनका उत्तर था ''मैं वतन से दूर गया ही नहीं, मैं तो घूमता-फिरता रहता हूं।'' यदि बात यह है तो उन्होंने तो हमारे बहुत से बुध्दिजीवी और उदारवादी चिंतकों के इस आरोप को ही गलत साबित कर दिया कि श्री हुसैन हिन्दू कट्टरपन्थियों के कारण ही वतन से दूर रह रहे हैं और एक निर्वासित जीवन व्यतीत कर रहे हैं।
जब बीबीसी पत्रकार ने आगे पूछा कि वह वतन कब लौटने की सोच रहे हैं उनका उत्तर था ''मैं वतन से दूर गया ही नहीं, मैं तो घूमता-फिरता रहता हूं।'' यदि बात यह है तो उन्होंने तो हमारे बहुत से बुध्दिजीवी और उदारवादी चिंतकों के इस आरोप को ही गलत साबित कर दिया कि श्री हुसैन हिन्दू कट्टरपन्थियों के कारण ही वतन से दूर रह रहे हैं और एक निर्वासित जीवन व्यतीत कर रहे हैं।

जब उनसे भारत माता के विवादास्पद चित्रों के बारे में पूछा कि आपने उसमें क्या दिखाने की कोशिश की है तो वह इसका सीधा उत्तर देने से टाल गए और अपने उत्तर को मरोड़ते हुये बोले ''भारत एक ऐसा देश है जहां हर तरह की ताकतें आईं, बीसियों देशों से निकाल दिया गया उन्हें। बुध्द धर्म आया, ईसाइयत आई, इस्लाम आया, सब एक-दूसरे से जुड़ गए और एक व्यापक संस्कृति बनी। यह यूनिक है, दुनिया में कोई देश भारत जैसा नहीं है''। वह तो इतिहासकार भी बन बैठे जिन्होंने बुध्द धर्म को भी इसलाम की तरह बाहर से आया बता दिया।

जब उनसे पूछा गया कि ''सबसे विवादास्पद पेंटिंग : मदर इंडिया'' के बारे में आप क्या कहेंगे और उसमें आपने क्या दिखाने की कोशिश की है, तो उनका उत्तर था: ''मैं बचपन से ही देखता था भारत के नक्शे में गुजरात का हिस्सा मुझे औरत के स्तन जैसा दिखता है, इसलिए मैंने स्तन बनाया, फिर उसके पैर बनाए, उसके बाल बिखरे हैं वह हिमालय बन गया है। ये बनाया है मैंने। और ये जो 'भारत माता' नाम है ये मैंने नहीं दिया है, यह मेरा दिया हुआ नाम नहीं है''। वह भारतीय होने के बावजूद भारत की धरती को भारत माता मानने को तैयार नहीं हैं। वह कहते हैं कि ''भारत माता तो एक मुहावरा है, एक भावना है कि हमारा मुल्क है, वह हमारी माता जैसी है। लेकिन उसमें कोई देवी कहीं नहीं है।''

जब श्री हुसैन मानते हैं कि ''भारत माता एक मुहावरा है, एक भावना है'', तो क्या एक भारतीय होने के नाते भारतीयों की ''भावना'' को दुख पहुंचाना उनका कर्तव्य व धर्म है?

उनका कथन मान भी लिया जाये कि भारत माता कोई देवी नहीं है तो क्या मां सरस्वती, मां दुर्गा और भारत की अन्य देवियां भी ''कोई देवी कहीं नहीं है''? क्या यह कहकर वह भारत के करोड़ों नागरिकों की भावनाओं को ठेस नहीं पहुंचा रहे हैं?

यदि यही शब्द कोई भारतीय किसी गैर हिंदू धर्म के बारे में कहते तो क्या यह उस धर्म के अनुयायियों की भावनाओं को चोट नहीं पहुंचाता? उनके इन शब्दों के बावजूद हमारे उदारवादी और सेक्युलरवादी मानते हैं कि श्री हुसैन सेकुलर है और सब धर्मों का सम्मान करते हैं। वह कहते हैं कि हुसैन साहब ने तो कोई जुर्म किया ही नहीं। फिर यह विरोधाभासी पाखण्ड नहीं है उनका?

इतना तो सब मानते है कि कोई भी व्यक्ति कोई काम करने से पहले शुरूआत अपने घर से ही करता है। कोई व्यक्ति नया कैमरा खरीदकर लाता है तो सबसे पहले वह चित्र अपने परिवार - माता, पिता, भाई, बहन, पति, पत्नी और पुत्र, पुत्री का ही खींचता है। इसी आधार पर स्वाभाविक तो यह होना चाहिए था कि श्री हुसैन भी उसी परम्परा को निभाते और दूसरों के धर्म के बार चित्र बनाने से पहले वह यह महान पवित्र काम अपने घर और अपने धर्म से ही शुरू करते। ऐसा उन्होंने क्यों नहीं किया? इसका उत्तर तो श्री हुसैन तथा उनके उदारवादी सेकुलर पैरोकारों को ही देना होगा।
जब बीबीसी के संवाददाता ने उनसे प्रश्न किया कि ''आपके आलोचक कहते हैं कि हुसैन साहब अपने धर्म की कोई तस्वीर क्यों नहीं बनाते, मक्का-मदीना क्यों नहीं बनाते?'' तो उनका उत्तर था: 'अरे भाई, कमाल करते हैं। हमारे यहां इमेजेज हैं ही नहीं तो कहां से बनाऊंगा। न खुदा का है न किसी और का। यहां लाखों करोड़ों इमेजेज हैं, मंदिर उनसे भरे पड़े हैं।''
जब बीबीसी के संवाददाता ने उनसे प्रश्न किया कि ''आपके आलोचक कहते हैं कि हुसैन साहब अपने धर्म की कोई तस्वीर क्यों नहीं बनाते, मक्का-मदीना क्यों नहीं बनाते?'' तो उनका उत्तर था: 'अरे भाई, कमाल करते हैं। हमारे यहां इमेजेज हैं ही नहीं तो कहां से बनाऊंगा। न खुदा का है न किसी और का। यहां लाखों करोड़ों इमेजेज हैं, मंदिर उनसे भरे पड़े हैं।''

लगता है हुसैन साहब जनता को मूर्ख समझ रहे हैं। हमें यह समझा रहे हैं कि मक्का-मदीना की भी कोई फोटो या इमेज नहीं है? वह भूल रहे हैं कि हिंदू देवी-देवताओं या ईसाई धर्म की भी पवित्र आत्माओं या अन्य धर्मों के
लगता है हुसैन साहब जनता को मूर्ख समझ रहे हैं। हमें यह समझा रहे हैं कि मक्का-मदीना की भी कोई फोटो या इमेज नहीं है? वह भूल रहे हैं कि हिंदू देवी-देवताओं या ईसाई धर्म की भी पवित्र आत्माओं या अन्य धर्मों के पैगंबरों की भी कोई फोटो उपलब्ध नहीं है। उनके जितने भी चित्र बनते हैं वह केवल उनके धार्मिक ग्रंथों में चर्चित उनके आकार-भाव के अनुसार ही बनाये जाते हैं। इसी आधार पर वह अपने धर्म के महानुभावों के भी चित्र बना सकते हैं। जब वह हिंदू धर्म से संबंधित देवी-देवताओं के प्रति अपनी कल्पना की उड़ान भर सकते हैं तो अपने धर्म के प्रति उनकी कल्पना की उड़ान ऊची क्यों नहीं जाती?
पैगंबरों की भी कोई फोटो उपलब्ध नहीं है। उनके जितने भी चित्र बनते हैं वह केवल उनके धार्मिक ग्रंथों में चर्चित उनके आकार-भाव के अनुसार ही बनाये जाते हैं। इसी आधार पर वह अपने धर्म के महानुभावों के भी चित्र बना सकते हैं। जब वह हिंदू धर्म से संबंधित देवी-देवताओं के प्रति अपनी कल्पना की उड़ान भर सकते हैं तो अपने धर्म के प्रति उनकी कल्पना की उड़ान ऊची क्यों नहीं जाती?

विश्व में महानतम चित्रकार हुए हैं लेकिन शायद ही किसी चित्रकार ने अपनी माता की नग्न तस्वीर बनायी हो। शायद हुसैन साहब ने भी नहीं। क्यों नहीं, इसका उत्तर तो वह ही दे सकते हैं।

भारतीय देवियां सरस्वती व दुर्गा लाखों-करोड़ों भारतीयों की माता ही नहीं, अपनी माता से भी ऊपर अधिक सम्माननीय हैं। अपनी अभिव्यक्ति का बहाना लेकर जब श्री हुसैन हिंदू देवियों के नग्न चित्र बनाकर उन्हें अमर बना रहे है तो उन्होंने अपने परिवार में से किसी का भी नग्न चित्र बनाकर उन्हें अमर क्यों नहीं किया? हिंदू देवियां पर ही वह इतने मेहरबान क्यों हैं? इसलिये कि वह स्वयं हिन्दू नहीं हैं? यदि ऐसा नहीं है तो वह बतायें कि सच क्या है? चलो कुछ पल के लिये उनके इस तर्क को ही मान लेते हैं कि कि ''हमारे यहां (मुस्लिम धर्म में) इमेजेज़ हैं ही नहीं ....न खुदा का है। न किसी और का ....'' क्या किसी मुस्लिम महिला का भी कोई चित्र या इमेज नहीं है? तो फिर हुसैन साहिब बतायें कि वह केवल हिन्दू देवियों पर ही क्यों मेहरबान हुये और आज तक उन्हों ने किसी मुस्लिम महिला का नंगा चित्र बनाकर उसे अमर क्यों नहीं बनाया?

यदि मोहम्मद फिदा हुसैन अपने आपको भारतीय मानते हैं तो उन्होंने जब मां दुर्गा और मां सरस्वती के नग्न चित्र बनाये तो उन्होंने उन चित्रों के शीर्षक के रूप में यह क्यों नहीं लिखा ''मेरी मां सरस्वती'' और '' मेरी मां दुर्गा''। यदि वह ऐसा करते तो विरोधी उनके विरूध्द आज जो कुछ कह रहे हैं वह न कह पाते और उनके ओठ सिल जाते। पर शायद श्री हुसैन का सत्य तो कुछ और ही है - वह नहीं जो हमारे उदारवादी सैकुलर बुध्दिज़ीवी हमें समझाने का व्यर्थ प्रयास कर रहे हैं!

Wednesday 24 September, 2008

भाजपा की विचारधारा- पंचनिष्‍ठा, अंतिम भाग



लेखक- प्रो ओमप्रकाश कोहली

भारतीय जनता पार्टी आज देश की प्रमुख विपक्षी राजनीतिक पार्टी हैं। सात प्रांतों में भाजपा की स्वयं के बूते एवं 5 राज्यों में भाजपा गठबंधन की सरकारें है। 6 अप्रैल, 1980 को स्थापित इस दल ने अल्प समय में ही देशवासियों के बीच अपना विशिष्ट स्थान बनाया है। पहले, भाजपा के विरोधी इसे ब्राह्मण और बनियों की पार्टी बताते थे लेकिन आज भाजपा के ही सर्वाधिक दलित-आदिवासी कार्यकर्ता सांसद-विधायक निर्वाचित है। इसी तरह पहले, विरोधी भाजपा को उत्तर भारत की पार्टी बताते थे और कहते थे यह कभी भी अखिल भारतीय पार्टी नहीं बन सकती है। वर्तमान में भाजपा ने दक्षिण भारत में भी अपना परचम फहरा दिया है। भाजपा में ऐसा क्या है, जो यह जन-जन की पार्टी बन गई हैं, बता रहे है भाजपा संसदीय दल कार्यालय के सचिव प्रो ओमप्रकाश कोहली। पूर्व सांसद श्री कोहली दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं दिल्ली प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष रह चुके हैं। निम्न लेख को हम यहां पांच भागों में प्रकाशित कर रहे हैं। प्रस्तुत है अंतिम भाग-


मूल्याधारित राजनीति
मूल्य का अर्थ है यह दृष्टि या विवेक कि क्या सही है और क्या गलत है, क्या महत्वपूर्ण है और क्या महत्वहीन, क्या मूल्यवान है, ग्राह्य है, वांछनीय है, क्या मूल्यहीन है, अग्राह्य है, अवांछनीय है। मूल्य उन उच्च मानदण्डों का नाम है जिनके पालन से श्रेष्ठता का सृजन होता है, आदर्शों का निर्माण होता है। मूल्य वह विवेक दृष्टि है जो अच्छे और बुरे का बोध जगाती है। जो अच्छा है उसका आचरण करने और जो बुरा है उससे निवृत्त होने की प्रेरणा देती है। संक्षेप में श्रेष्ठता का मानदण्ड मूल्य कहलाते हैं।

राजनीति का क्षेत्र सार्वजनिक जीवन का एक महत्वपूर्ण अंग है। इसकी श्रेष्ठता और प्रतिष्ठा के लिए जिन मानदण्डों का पालन ज़रूरी है, वे ही मूल्य हैं। भारतीय जनता पार्टी राजनीति में उच्च मानदण्डों के पालन के प्रति प्रतिबध्द है। मूल्यों के आग्रह के कारण ही किसी समय राजनीति, राजनेता और राजनैतिक कार्यकर्ताओं को समाज में प्रतिष्ठा और सम्मान प्राप्त था। मूल्यों का आग्रह छूट जाने से, राजनीति विकृत हो गई और राजनेता तथा राजनैतिक कार्यकर्ता की प्रतिष्ठा को क्षति पहुंची है। हमें राजनीति को पुन: मूल्यों पर अधिष्ठित करने की अपनी प्रतिबध्दता को सुदृढ़ करना होगा।

भाजपा मात्र एक राजनीतिक दल नहीं है। यह सिध्दान्तों, विचारधाराओं और मान्यताओं पर आधारित एक आन्दोलन है जिसका उद्देश्य है सामाजिक परिवर्तन और राष्ट्रीय पुनर्निर्माण।

भाजपा मात्र एक राजनीतिक दल नहीं है। यह सिध्दान्तों, विचारधाराओं और मान्यताओं पर आधारित एक आन्दोलन है जिसका उद्देश्य है सामाजिक परिवर्तन और राष्ट्रीय पुनर्निर्माण।
स्वतंत्रता पूर्व की राजनीति का तात्कालिक उद्देश्य था देश को ब्रिटिश दासता से मुक्त करना, भारत माता के पाँव में पड़ी बेड़ियों को काटना। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद की राजनीति का उद्देश्य है राष्ट्रीय विकास, पुनर्निर्माण और राष्ट्रीय अभ्युदय। इसी से विश्व के देशों की मालिका में भारत को गौरवपूर्ण स्थान मिल सकेगा। कहीं स्वतन्त्रता के बाद की राजनीति अपने इस महान ध्‍येय से भटक तो नहीं गई है? श्री दीनदयालजी ने सलाह दी थी कि 'राष्ट्र को क्षीण करने वाली राजनीति को त्याज्य ही मानना चाहिए। उनका मत था कि 'राजनीति अन्तत: राष्ट्र के लिए ही होती है। राष्ट्र का विचार त्याग दिया-अर्थात् राष्ट्र की अस्मिता, इतिहास, संस्कृति एवं सभ्यता का विचार ही नहीं किया- तो राजनीति किस काम की'?

आज के राजनीतिक दलों के व्यवहार और कार्यकलापों पर दृष्टि डालें तो लगता है कि राजनीति राष्ट्रीय पुनर्निर्माण और सामाजिक परिवर्तन के ध्‍येय से विमुख होकर सत्ताभिमुखी हो गई है। राष्ट्रसेवा का स्थान सत्ता की आंकाक्षा और सत्ता के भोग ने ले लिया है। इसमें से अनेक प्रकार की विकृतियां उत्पन्न हुई हैं, सत्ता प्राप्ति की महत्वाकांक्षा, दलबदल, अवसरवादिता, भ्रष्टाचार, विशेषरूप से सार्वजनिक जीवन के उच्च स्थानों पर व्याप्त भ्रष्टाचार, सहकार नहीं विरोध, सामंजस्य नहीं वैमनस्य, रचना नहीं विध्‍वंस, तात्कालिक लाभ के लिए जनभावनाओं को भड़काने की प्रवृत्ति, वोट बैंक की राजनीति जिसके चलते जातीय, साम्प्रदायिक और क्षेत्रीय भावनाओं को भड़काकर सामाजिक विभाजन को तीव्र किया जाता है, तुष्टीकरण की विभाजनकारी राजनीति। उक्त विकृतियों के कारण आज भारतीय राजनीति और सार्वजनिक जीवन में शुचिता की भारी कमी आ गई है।

भाजपा प्रचलित विकृत राजनीतिक संस्कृति के स्थान पर वैकल्पिक राजनीतिक संस्कृति विकसित करने के लिए प्रयत्नशील है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए कार्यकर्ताओं का संस्कार और शिक्षण आवश्यक है। भाजपा ने विभिन्न स्तरों पर कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण और संस्कार की व्यवस्था की है ताकि वे निजी और सार्वजनिक जीवन में शुचिता का आग्रह रखें।
भाजपा प्रचलित विकृत राजनीतिक संस्कृति के स्थान पर वैकल्पिक राजनीतिक संस्कृति विकसित करने के लिए प्रयत्नशील है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए कार्यकर्ताओं का संस्कार और शिक्षण आवश्यक है। भाजपा ने विभिन्न स्तरों पर कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण और संस्कार की व्यवस्था की है ताकि वे निजी और सार्वजनिक जीवन में शुचिता का आग्रह रखें।
भाजपा की पहचान एक अनुशासित कैडर वाली पार्टी के रूप में होती आई है। आज अनुशासन में कुछ शिथिलता दिखाई पड़ती है, जो भाजपा के कर्णधारों के लिए चिन्ता का विषय है। अनुशासन के पहले जैसे ऊँचे मानदण्डों का आग्रह बढ़ाने की दिशा में ठोस उपाय किए जा रहे हैं। भाजपा दल-बदल की विरोधी हैं, क्योंकि दलबदल से जहां एक ओर राजनीतिक अस्थिरता पैदा होती है, वहीं यह मतदाताओं से विश्वासघात भी है। इसके लिए हमारे चुनाव कानूनों में सुधार किए जाने की ज़रूरत है। भारतीय राजनीति में धनबल, बाहुबल और अपराधी तत्वों का प्रभाव बढ़ा है।

परिणामत: चुनाव भयमुक्त और निष्पक्ष वातावरण में नहीं हो पाते और इनसे उपजा जनादेश कई बाद छद्म जनादेश होता है। इसके लिए जहाँ एक ओर राजनीतिक दलों में आमसहमति से आचार संहिता विकसित किया जाना जरूरी है, वहीं चुनाव कानूनों में आवश्यक सुधार करने होंगे। भारतीय राजनीति की एक विकृति अवसरवादी राजनीतिक गठबंधन है। राजनीतिक गठबंधन समय की आवश्यकता होने पर भी, ये कुछ सिध्दान्तों और मर्यादाओं पर आधारित होने चाहिए। चुनाव परिणाम के बाद महज़ सत्ता प्राप्त करने के लिए किए गए सिध्दान्तविहीन संगठन जहां टिकाऊ नहीं होते वहाँ वे मतदाता से भी छल होता है। यूपीए सरकार कांग्रेस के कुछ अन्य दलों और वामपंथी दलों से गठबन्धान का परिणाम है। लेकिन वामपंथी दल और कांग्रेस में न आर्थिक नीतियों को लेकर और न ही वैदेशिक नीतियों को लेकर सामंजस्य है। उलटे वामपंथी दल यूपीए सरकार पर न्यूनतम सांझा कार्यक्रम से भटक जाने का आरोप लगाते रहते हैं। ऐसे अवसरवादी गठबन्धनों से लोकविश्वास आहत होता है। सार्वजनिक जीवन में उच्च स्थानों पर भ्रष्टाचार के प्रसंग अक्सर समय-समय पर सामने आते रहते हैं। इन प्रसंगों के लिए जिम्मेदार व्यक्तियों को कठोर दण्ड देने के बजाय अक्सर इनकी जांच को अनावश्यक रूप से वर्षों-वर्षों लटकाया जाता है और कार्रवाई के नाम पर लीपापोती की जाती है। भ्रष्टाचार विकास के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा बनी हुई है। कांग्रेस और कुछ अन्य सत्ताालोलुप दल आरक्षण की राजनीति और अल्संख्यक तुष्टीकरण को हवा देने में लगे रहते हैं। राष्ट्रीय हित गौण और दलीय हित प्रमुख हो गए हैं। जातीय और सामाजिक विभाजन की राजनीति की प्रचण्ड प्रतिस्पर्धा चल रही है। इस अन्धी प्रतिस्पर्धा में राष्ट्रीय हितों की भी अनदेखी हो रही है- फिर वह चाहे राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े सरोकार हों या आंतरिक सुव्यवस्था के सरोकार। दलीय हितों की पूर्ति के लिए लोकतान्त्रिक परम्पराओं और संस्थाओं का अवमूल्यन करने से परहेज़ नहीं किया जाता, राज्यपाल के पद का दुरूपयोग कर सरकारें गिराई जाती हैं, न्यायपालिका और संसद के निर्णयों और भावनाओं के प्रति असम्मान प्रदर्शित किया जाता है, कानून में रातोंरात संशोधन या परिवर्तन कर न्यायपालिका के सुविचारित निर्णयों को प्रभावहीन बना दिया जाता है। उक्त विकृतियों के चलते मतदाताओं का राजनीतिक व्यवस्था से मोहभंग होता जा रहा है। इस स्थिति का समय रहते कठोरतापूर्वक उपचार करना ज़रूरी है। पटरी से उतर गई राजनीतिक संस्कृति को पुन: पटरी पर बैठाने के लिए यह आवश्यक है कि हम अपने को शुचिता के मूल्य के प्रति प्रतिबध्द करें।

Tuesday 23 September, 2008

भाजपा की विचारधारा- पंचनिष्‍ठा, भाग-4



लेखक- प्रो ओमप्रकाश कोहली

भारतीय जनता पार्टी आज देश की प्रमुख विपक्षी राजनीतिक पार्टी हैं। सात प्रांतों में भाजपा की स्वयं के बूते एवं 5 राज्यों में भाजपा गठबंधन की सरकारें है। 6 अप्रैल, 1980 को स्थापित इस दल ने अल्प समय में ही देशवासियों के बीच अपना विशिष्ट स्थान बनाया है। पहले, भाजपा के विरोधी इसे ब्राह्मण और बनियों की पार्टी बताते थे लेकिन आज भाजपा के ही सर्वाधिक दलित-आदिवासी कार्यकर्ता सांसद-विधायक निर्वाचित है। इसी तरह पहले, विरोधी भाजपा को उत्तर भारत की पार्टी बताते थे और कहते थे यह कभी भी अखिल भारतीय पार्टी नहीं बन सकती है। वर्तमान में भाजपा ने दक्षिण भारत में भी अपना परचम फहरा दिया है। भाजपा में ऐसा क्या है, जो यह जन-जन की पार्टी बन गई हैं, बता रहे है भाजपा संसदीय दल कार्यालय के सचिव प्रो ओमप्रकाश कोहली। पूर्व सांसद श्री कोहली दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं दिल्ली प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष रह चुके हैं। निम्न लेख को हम यहां पांच भागों में प्रकाशित कर रहे हैं। प्रस्तुत है चौथा भाग-


सकारात्मक पंथनिरपेक्षता
भारत बहुधार्मिक-बहुपांथिक देश है। इसमें विविध विश्वासों और आस्थाओं वाले लोग रहते है। उपासना पध्दतियों की बहुलता है। ऐसे समाज को धार्मिक उदारता का दृष्टिकोण अपनाकर ही एक रखा जा सकता है। धार्मिक उदारता पंथनिरपेक्षता या सेकुलरिज्म का आधारभूत तत्व है। लेकिन सेकुलरिज्म शब्द के अर्थ को लेकर विभ्रम व्याप्त है।

सेकुलरिज्म की एक व्याख्या धर्म के विरोध के रूप में की जाती है। यह व्याख्या लौकिकता को स्वीकार करती है और आध्‍यात्मिकता का निषेध करती है। ईश्वरीय सत्ता या अव्यक्त सत्ता को नकार कर लौकिक सत्ता और मानव सत्ता का स्वीकार सेकुलरिज्म माना जाता है। धर्म के अस्वीकार वाली सेकुलरिज्म की कल्पना भाजपा को स्वीकार नहीं।

यूरोप में चर्च और राज्य के बीच टकराव में से सेकुलरवाद का उद्भव हुआ। राज्य ने चर्च द्वारा लौकिक या पार्थिव मामलों में दखल के विरूध्द आवाज़ उठाई। इसलिए सेकुलरवाद का अर्थ हुआ राज्य की धर्मनिरपेक्षता। इसके विपरीत भारत में धर्म को कर्तव्य या नीति के रूप में स्वीकार किया गया और इसे जीवन के सभी अंगों के लिए ग्राहय माना गया, यहां तक कि राज्य के लिए भी। भारत की सोच धर्मनिरपेक्ष राज्य की नहीं धर्माधारित राज्य की रही है।

यूरोप में चर्च और राज्य के बीच टकराव में से सेकुलरवाद का उद्भव हुआ। राज्य ने चर्च द्वारा लौकिक या पार्थिव मामलों में दखल के विरूध्द आवाज़ उठाई। इसलिए सेकुलरवाद का अर्थ हुआ राज्य की धर्मनिरपेक्षता। इसके विपरीत भारत में धर्म को कर्तव्य या नीति के रूप में स्वीकार किया गया और इसे जीवन के सभी अंगों के लिए ग्राहय माना गया, यहां तक कि राज्य के लिए भी। भारत की सोच धर्मनिरपेक्ष राज्य की नहीं धर्माधारित राज्य की रही है।
सेकुलरिज्म की एक अन्य व्याख्या धर्म के मामले में राज्य की तटस्थता के रूप में की जाती है। राज्य का कोई धर्म नहीं होना चाहिए, राज्य को धार्मिक मामलों से स्वयं को अलग रखना चाहिए, इत्यादि। सेकुलरिज्म की एक अन्य व्याख्या यह है कि राज्य सभी धर्मों से समान व्यवहार करे, राज्य की दृष्टि में सभी धर्म समान हों और राज्य विभिन्न धार्मिक समुदायों में भेदभाव न करे।

हिन्दू धर्म और भारतीय संस्कृति स्वभाव से ही पंथनिरपेक्ष है। इसमें विविध धर्माचरणों, विश्वासों और उपासना पध्दतियों का स्वीकार है। एक ईश्वर को पाने के, उस तक पहुंचने के मार्ग भिन्न-भिन्न हो सकते हैं, ईश्वर की उपासना के तरीके अलग-अलग हो सकते हैं। एक ही तत्व को विद्वान् भिन्न-भिन्न नामों से पुकारते हैं-- एकं सद्विप्रा बहुध वदन्ति'। भारतीय संस्कृति के इस धार्मिक उदारवाद के स्वभाव का ही परिणाम है कि भारत पंथनिरपेक्ष राष्ट्र है। यहां धार्मिक मामलों में न भेदभाव किया जाता रहा है और नहीं धार्मिक आधार पर किसी धार्मिक समुदाय का उत्पीड़न।

किन्तु सेकुलरिज्म के राजनीतिक इस्तेमाल ने इसका रूप विकृत कर दिया है। सेकुलरिज्म के नाम पर वोट की राजनीति का चलन बढ़ता गया है। इसके लिए मुख्यत: कांग्रेस पार्टी का एक वर्ग, कम्युनिस्ट और कुछ अन्य हिन्दू विरोधी ताकतें जिम्मेदार हैं। इनका सकुलरिज्म हिन्दू विरोध और मुस्लिम तुष्टीकरण मात्र है। मुस्लिम वोट पर नज़र रखने वाले राजनीतिक दलों और राजनेताओं के लिए हिन्दू विरोध ही धर्मनिरपेक्षता है, फिर वे हिन्दू विरोध में चाहे किसी भी सीमा तक क्यों न बह जाएं। हमारे देश में ऐसे तत्व भी हैं, जिन्हें वंदे मातरम् गाना या सरस्वती वंदना करना धर्मनिरपेक्षता के आदर्श का उल्लंघन लगता है। ये ताकतें इस्लामी कट्टरवाद को अनदेखा कर देती हैं, बहुसंख्यक हिन्दू समाज के अधिकारों की उपेक्षा करती है, अल्पसंख्यक समाज के विशेषाधिकारों का समर्थन करती हैं और इस प्रकार समाज को बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक में विभाजित कर देती हैं। इन्हें सिर्फ हिन्दू साम्प्रदायिकता ही दिखायी पड़ती है, मुस्लिम साम्प्रदायिकता के प्रति ये आखें बंद किए रहते हैं।
हमारे देश में ऐसे तत्व भी हैं, जिन्हें वंदे मातरम् गाना या सरस्वती वंदना करना धर्मनिरपेक्षता के आदर्श का उल्लंघन लगता है। ये ताकतें इस्लामी कट्टरवाद को अनदेखा कर देती हैं, बहुसंख्यक हिन्दू समाज के अधिकारों की उपेक्षा करती है, अल्पसंख्यक समाज के विशेषाधिकारों का समर्थन करती हैं और इस प्रकार समाज को बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक में विभाजित कर देती हैं। इन्हें सिर्फ हिन्दू साम्प्रदायिकता ही दिखायी पड़ती है, मुस्लिम साम्प्रदायिकता के प्रति ये आखें बंद किए रहते हैं।
सेकुलरिज्म का लबादा ओढ़े ये छद्म सेकुलरिस्ट घोर साम्प्रदायिक हैं। कश्मीर की अखंडता का प्रश्न हो या बंगलादेशी घुसपैठ और इस्लामी आतंकवाद, ये ऐसे राष्ट्रीय हित और सुरक्षा के प्रश्नों को भी साम्प्रदायिकता के चश्मे से ही देखते हैं। इनकी धर्मनिरपेक्षता छद्म धर्मनिरपेक्षता है, सत्ता प्राप्ति का शार्टकट है। ये ताकतें हिन्दू भावनाओं को आहत करने का कोई मौका नहीं चूकती। हिन्दू धर्म, लोकाचार तथा हिन्दू धर्म से सम्बन्धित किसी भी मान्यता या विश्वास को साम्प्रदायिक घोषित कर देती हैं। इन तथाकथित धर्मनिरपेक्षतावादियों की धर्मनिरपेक्षता का धार्मिक सहिष्णुता से कोई वास्ता नहीं। ये घोर असहिष्णु हैं।

भारतीय जनता पार्टी जिस सेकुलरिज्म में निष्ठा रखती है उसमें पंथीय राजतन्त्र या थियोक्रेसी के लिए कोई स्थान नहीं है। भाजपा की सेकुलरिज्म की कल्पना का अर्थ हैं सभी धर्मों का आदर, सभी को न्याय, तुष्टीकरण किसी का नहीं। भाजपा की यह मान्यता भारत के प्राचीन चिन्तन और परम्परा पर आधारित है।

Monday 22 September, 2008

'35 हजार महिलाओं के साथ हमबिस्तर हुए कॉमरेड कास्त्रो'



क्यूबा के क्रांतिकारी नेता फिदेल कास्त्रो अपनी 82 साल की उम्र में कुल 35 हजार महिलाओं के साथ हमबिस्तर हुए। यह सनसनीखेज़ दावा एक डॉक्युमंट्री में किया गया है। यह डॉक्युमंट्री जल्द ही दिखाई जाएगी।

फिल्म मेकर इऐन हैल्पेरिन के मुताबिक , ' कास्त्रो 40 सालों तक हर दिन कम से कम दो महिलाओं के साथ रोज़ सोते रहे। उन्हें लंच के तौर पर एक महिला के साथ सोते थे जबकि डिनर में दूसरी महिला महिला के साथ सोना पसंद करते थे। कभी-कभी तो उन्हें ब्रेकफस्ट में भी एक महिला की जरूरत पड़ती थी। ' कास्त्रो ने अपने प्रेज़िडंट होने का खूब फायदा उठाया।

गौरतलब है कि फिदेल कास्त्रो दिसंबर 1959 से लेकर फरवरी 2008 तक क्यूबा की सत्ता पर काबिज़ रहे। इसी साल फरवरी में कास्त्रो ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया। क्यूबा के तानाशाह बातिस्ता के खिलाफ क्रांति के फलस्वरूप कास्त्रो सत्ता में आए थे।

हालांकि कास्त्रो के सत्ता में आने के तुरंत बाद ही अमेरिकी शासन उनके पीछे पड़ गया था लेकिन कास्त्रो के पद छोड़ने तक अमेरिका कम से कम 9 प्रेज़िडंट देख चुका था।

नवभारत टाइम्‍स से साभार

Saturday 20 September, 2008

भाजपा की विचारधारा- पंचनिष्‍ठा, भाग-3


लेखक- प्रो ओमप्रकाश कोहली


भारतीय जनता पार्टी आज देश की प्रमुख विपक्षी राजनीतिक पार्टी हैं। सात प्रांतों
में भाजपा की स्वयं के बूते एवं 5 राज्यों में भाजपा गठबंधन की सरकारें है। 6
अप्रैल, 1980 को स्थापित इस दल ने अल्प समय में ही देशवासियों के बीच अपना विशिष्ट स्थान बनाया है। पहले, भाजपा के विरोधी इसे ब्राह्मण और बनियों की पार्टी बताते थे लेकिन आज भाजपा के ही सर्वाधिक दलित-आदिवासी कार्यकर्ता सांसद-विधायक निर्वाचित है। इसी तरह पहले, विरोधी भाजपा को उत्तर भारत की पार्टी बताते थे और कहते थे यह कभी भी अखिल भारतीय पार्टी नहीं बन सकती है। वर्तमान में भाजपा ने दक्षिण भारत में भी अपना परचम फहरा दिया है। भाजपा में ऐसा क्या है, जो यह जन-जन की पार्टी बन गई हैं, बता रहे है भाजपा संसदीय दल कार्यालय के सचिव प्रो ओमप्रकाश कोहली। पूर्व सांसद श्री कोहली दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं दिल्ली प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष रह चुके हैं। निम्न लेख को हम यहां पांच भागों में प्रकाशित कर रहे हैं। प्रस्तुत है तीसरा भाग-


भारतीय जनता पार्टी के कार्य की प्रेरणा पार्टी संविधान में उल्लिखित पंच निष्ठाएं हैं:

राष्ट्रवाद एवं राष्ट्रीय एकता
लोकतंत्र
गांधीवादी दृष्टिकोण पर आधारित समतामूलक समाज की स्थापना
सकारात्मक पंथनिरपेक्षता
मूल्य आधारित राजनीति


समतामूलक समाज की स्थापना
विश्व के विभिन्न चिन्तकों ने ऐसे समाज की स्थापना का विचार किया है जो शोषणमुक्त हो, और जिसमें मानव-मानव के बीच समानता हो। भारतीय संस्कृति प्राचीन काल से ही ऐसे समाज की कामना करती आई है जिसमें सभी सुखी हों, रोगमुक्त एवं स्वस्थ हो, सबका कल्याण हो। समतामूलक समाज की स्थापना की दो दृष्टियां रही हैं- आध्‍यात्मिक और भौतिक।
गांधीजी के सामाजिक-आर्थिक दर्शन और दीनदयालजी के एकात्ममानववाद से प्राप्त दृष्टि के कारण ही भाजपा सामाजिक-राजनीतिक और आर्थिक सत्ता के विकेन्द्रीकरण में विश्वास रखती है।
आध्‍यात्मिक दृष्टि सभी प्राणियों में, जड़ चेतन में एक परमसत्ता की विद्यमानता को स्वीकार करती है - 'सर्वं खलु इदं ब्रह्मं,' फिर मानव-मानव में अन्तर क्यों? भोग की अधिकता ही विषमता और शोषण का कारण बनती है। संयम का आचरण कर हम विषमता और शोषण को मिटा सकते है अथवा कम कर सकते हैं। गांधीजी ने इच्छाओं और आवश्यकताओं के बहुलीकरण का विरोध किया है। उपनिषद् ने संयमित और मर्यादित भोग को आदर्श जीवन का लक्षण माना है। त्याग भावना के बिना मर्यादित भोग सम्भव नहीं। उपनिषद त्यागपूर्वक भोग की सलाह देते हैं-- त्यक्तेन भुंजीथ:।

शोषणमुक्त समतायुक्त समाज की स्थापना मानव समाज के समक्ष निरन्तर एक चुनौती रही है। मार्क्‍स और उनके अनुयायियों ने निजी सम्पत्ति को शोषण और विषमता का कारण बताया और इसका उपचार बताया सम्पत्ति पर से निजी स्वामित्व की समाप्ति और उस पर राज्य का स्वामित्व। मान लिया गया कि उत्पादन के साधनों पर राज्य का स्वामित्व होने से व्यक्ति के हाथ में पूंजी का संचय नहीं होगा और शोषण भी नहीं हो सकेगा। इस व्यवस्था में राजशक्ति द्वारा कठोर दमनकारी उपायों का अवलम्बन लिया गया। सारी शक्तियां राज्य के हाथ में केन्द्रित होने से राज्य क्रूर, निर्मम और दमनकारी हो गया। इस व्यवस्था ने व्यक्ति का पूर्ण तिरस्कार किया।
पूंजीवाद ने व्यक्ति द्वारा अमर्यादित उत्पादन, संचयन और उपभोग के सिध्दान्त को स्वीकार किया। परिणाम हुआ व्यक्ति द्वारा आत्यान्तिक उपभोग और उसमें से जन्मी विषमता, शोषणकारी व्यवस्था और साम्राज्यवाद। इसी की प्रतिक्रिया में मार्क्‍सवाद का आविर्भाव हुआ था जिसने व्यक्ति की स्वायत्त सत्ता को पूर्णत: नकार दिया था और राज्य को सर्वसत्ता का अधिष्ठान बनाकर सर्वसत्तात्मक राज्य व्यवस्था को जन्म दिया था। यह व्यवस्था भी पूंजीवादी व्यवस्था के समान ही उत्पीड़नकारी सिध्द हुई।
उधर इसकी पूर्ववर्ती व्यवस्था पूंजीवाद ने व्यक्ति द्वारा अमर्यादित उत्पादन, संचयन और उपभोग के सिध्दान्त को स्वीकार किया। परिणाम हुआ व्यक्ति द्वारा आत्यान्तिक उपभोग और उसमें से जन्मी विषमता, शोषणकारी व्यवस्था और साम्राज्यवाद। इसी की प्रतिक्रिया में मार्क्‍सवाद का आविर्भाव हुआ था जिसने व्यक्ति की स्वायत्त सत्ता को पूर्णत: नकार दिया था और राज्य को सर्वसत्ता का अधिष्ठान बनाकर सर्वसत्तात्मक राज्य व्यवस्था को जन्म दिया था। यह व्यवस्था भी पूंजीवादी व्यवस्था के समान ही उत्पीड़नकारी सिध्द हुई।

गांधीजी भी मानव समाज में व्याप्त शोषण को मिटाकर समतामूलक समाज के निर्माण के लिए प्रयत्नशील थे। उन्होंने व्यक्ति के स्वायत्त व्यक्तित्व को नहीं नकारा लेकिन व्यक्ति की चेतना के उन्नयन और समाजीकरण पर बल दिया जिसका अर्थ है व्यक्ति का सामाजिक दायित्वबोध। व्यक्ति जिस समाज में रहता है उसके प्रति उसका नैतिक कर्तव्य या दायित्व है। इसे ममत्व भी कह सकते हैं। यही आत्मविस्तार है। मां अपनी संतान के कल्याण के प्रति जिस भावना से प्रेरित होती है वह भावना ममता कहलाती है। सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से पिछड़े, दलित, शोषित, अस्पृश्य और वंचित-निर्धन समाज बन्‍धुओं के प्रति गांधीजी ने इसी ममता भावना को उद्दीप्त करने का प्रयत्न किया। गरीब की ऑंखों से ऑंसू पोंछना उनकी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था की प्रेरणा बनी। उन्होंने दरिद्र में नारायण के दर्शन किए और दलितोध्दार और दरिद्रोध्दार को ईश्वरीय कार्य माना। गांधीजी की सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था करूणा, प्रेम, नैतिकता, धार्मिकता, ईश्वरीय भावना पर आधारित है। उन्होंने नर सेवा को नारायण सेवा माना।

गांधीजी ने ट्रस्टीशिप के सिध्दान्त पर ज़ोर दिया, जिसका अर्थ वास्तव में अपने लिए मर्यादित उपभोग और शेष सम्पत्ति का समाजहित के लिए उपयोग था। इसमें व्यक्ति के सम्पत्ति के उपार्जन पर कोई सीमा या रोक नहीं, लेकिन उपार्जित सम्पत्ति के अपने लिए उपभोग पर रोक की व्यवस्था थी। यह रोक किसी वाह्य शक्ति द्वारा, राजसत्ता द्वारा लागू न होकर व्यक्ति की अन्त:प्रेरणा, नैतिक चेतना, सामाजिक दायित्व बोध द्वारा लागू होगी, ऐसी विचार गांधीजी ने रखा। गाँधीजी के सामाजिक-आर्थिक चिन्तन का अधिष्ठान भारतीय संस्कृति का मूलाधार अध्‍यात्मवाद ही है।

श्री दीनदयालजी ने जिस एकात्ममानववाद के दर्शन का प्रतिपादन किया और जिसे भाजपा ने अपने संगठन के दर्शन के रूप में स्वीकार किया वह व्यक्ति और समाज को परस्पर विरोधी सत्ता नहीं बल्कि अन्योन्याश्रित सत्ता मानता है। वस्तुत: पूंजीवाद और समाजवाद के एकांगी समाजदर्शन से मानव कल्याण होता न देखकर श्री दीनदयालजी ने एकात्ममानववाद के रूप में ऐसे समग्र दर्शन का प्रतिपादन किया जो मानव का समग्र विचार करता है, उसके शरीर, मन, बुध्दि और आत्मा सभी पक्षों का समावेश करता है। यह दर्शन व्यक्ति, परिवार, समाज और मानवता को एक दूसरे का विरोधी नहीं, बल्कि अन्योन्याश्रित और पूरक मानता है। यह दर्शन संघर्ष और टकराव पर आधारित नहीं है, परस्पर पूरकता पर आधारित है। इसकी मूल दृष्टि आत्मविस्तार की आध्‍यात्मिक दृष्टि है। व्यक्ति और समष्टि एक ही चेतना से व्याप्त है। 'आत्मवत् सर्वभूतेषु य: पश्यति स: पण्डित:।' जयशंकर प्रसाद ने कामायनी में मनु से कहलवाया है:
हम अन्य न और कुटुम्बी
हम केवल एक हमीं हैं
तुम सब मेरे अवयव हो
इसमें कुछ भी न कमी है।

यह समरसता की दृष्टि है, एकरूपता की दृष्टि है, अविच्छिन्नता की दृष्टि है, अभेद और एकात्म की दृष्टि है।

एकात्ममानववाद दर्शन का मूल तत्व है समरसता।
भाजपा ने सामाजिक प्रश्नों के प्रति समरसता का दृष्टिकोण अपनाया है। यह दृष्टिकोण भाजपा कार्यकर्ताओं को समाज के सभी वर्गो को, सभी जातियों को, सभी पंथों को और विशेष रूप से वंचित, दलित और अस्पृश्य कहे जाने वाले तथा वनवासी बन्धुओं के प्रति आत्मीयता और ममत्व का भाव रखने, उनकी सेवा और कल्याण में प्रवृत्त होने और अन्त्योदय के प्रति समर्पित होने के लिए प्रेरित करता है।
भाजपा ने सामाजिक प्रश्नों के प्रति समरसता का दृष्टिकोण अपनाया है। यह दृष्टिकोण भाजपा कार्यकर्ताओं को समाज के सभी वर्गो को, सभी जातियों को, सभी पंथों को और विशेष रूप से वंचित, दलित और अस्पृश्य कहे जाने वाले तथा वनवासी बन्धुओं के प्रति आत्मीयता और ममत्व का भाव रखने, उनकी सेवा और कल्याण में प्रवृत्त होने और अन्त्योदय के प्रति समर्पित होने के लिए प्रेरित करता है। यही दृष्टिकोण भाजपा को समाज के कमज़ोर वर्गो के प्रति बन्धुभाव, ममत्वभाव अपनाने और उनके कल्याण के लिए रचनात्मक कार्यो, सेवा कार्यो में, प्रवृत्त होने की प्रेरणा देता है।

गांधीजी के सामाजिक-आर्थिक दर्शन और दीनदयालजी के एकात्ममानववाद से प्राप्त दृष्टि के कारण ही भाजपा सामाजिक-राजनीतिक और आर्थिक सत्ता के विकेन्द्रीकरण में विश्वास रखती है। पंचायती राज को सुदृढ़ करना, विकास के केन्द्र में गांव को और कमज़ोर वर्गो को रखना और केन्द्र-राज्यों की संघीय व्यवस्था को सुदृढ़ करना इसी निष्ठा की अभिव्यक्तियां हैं। यह निष्ठा सामाजिक सौहार्द और सद्भावना को प्रेरित करने वाली और असमानता तथा शोषण मिटाने वाली है।

Thursday 18 September, 2008

आज भी प्रासंगिक हैं नियोगी आयोग की अनुशंसाएं - समन्वय नंद

ओडिशा के कंधमाल जिले के जलेशपटा आश्रम में जन्माष्टमी के दिन स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या के बाद चर्च की गतिविधि एक बार फिर चर्चा में आ गयी है। इसके साथ ही चर्च का मध्यकालीन बर्बर चेहरा तथा चर्च का अभारतीय कृत्य लोगों के सामने आ गया है। ईसाई मिशनरियां सेवा का बहाना करते हैं। किन्तु उनका असली उद्देश्य अपनी सत्ता व साम्राज्य स्थापित करना है। भारतीयों को अपने संस्कृति के जडों से काटना और उनका यूरोपीयकरण करना है।

स्वतंत्रता से पूर्व चर्च व ईसाई मिशनरियां किसके हित के लिए काम कर रहे थे। पश्चिमी शक्तियों के साम्राज्यवादी हितों की पूर्ति के लिए उन्होंने चर्च को एक औजार के रुप में इस्तमाल किया। 1859 में ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री लार्ड पामस्टर्न ने कहा था कि यह ब्रिटेन के हित में है कि भारत के हिस्से से दूसरे हिस्से तक ईसाइयत का प्रचार किया जाना चाहिए। उनके इस कथन को ठीक से समझने की आवश्यकता है। पश्चिमी साम्राज्यवादी शक्तियां भारत में अपना साम्राज्य को बरकरार रखने के लिए चर्च का इस्तमाल कर रहे थे। जोसेफ कर्नवालिस कुमारप्पा प्रसिध्द गांधीवादी थे। वह स्वयं एक ईसाई भी थे। उन्होंने एक बार कहा था कि पश्चिमी शक्तियों के चार सेना हैं। थल सेना, वायु सेना, नौ सेना तथा चर्च। स्वयं एक ईसाई होने के बावजूद उनकी दृष्टि में चर्च और मिशनरियां अंग्रेजों के सेना के रुप में कार्य कर रहे थे और अंग्रेज साम्राज्य को बचाने के लिए कार्यरत थे। मतांतरित ईसाइयों के मन में भारत के प्रति श्रध्दाभाव खत्म हो जाता था और वे अंग्रेजों के आज्ञाकारी सेवक बन जाते थे। यही कारण था कि भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में जोसेफ कुमारप्पा व ई.एम. जार्ज के अलावा किसी और ईसाई का नाम प्रमुखता से नहीं आता है। लेकिन इन दोनों के द्वारा स्वतंत्रता की मांग किये जाने के कारण इन्हें जान से मारने की धमकी भी दी गई थी। भारतीय ईसाइयों ने इन दोनों की न केवल निंदा की बल्कि इनका सामाजिक बहिष्कार भी किया। यही कारण था
देश के दूसरे राष्ट्रपति डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन को कहना पडा था कि भारत में ईसाइयों के लिए एक हाथ में तलवार और दूसरे हाथ में यूनियन जैक को लेकर चल रहे थे।
देश के दूसरे राष्ट्रपति डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन को कहना पडा था कि भारत में ईसाइयों के लिए एक हाथ में तलवार और दूसरे हाथ में यूनियन जैक को लेकर चल रहे थे। यह तो थी स्वतंत्रता से पूर्व की बातें। स्वतंत्रता के बाद ने चर्च ने क्या अपनी पुरानी नीति बदल ली। चर्च ने अपना वही भारत विरोधी कार्य जारी रखा। चर्च की नीति स्पष्ट है, चर्च का राजनीतिक उद्देश्य स्पष्ट है। स्वतंत्रता के बाद भारत में विशेषकर उत्तरपूर्व राज्यों में चर्च ने जो कार्य किया है उससे चर्च के असली राजनीतिक उद्देश्य का पता चलता है। उत्तर-पूर्व के राज्यों में चर्च को मिली खुली छूट के कारण नागालैण्ड जैसे अलगाववाद की बात करते हैं और भारत से अलग होने की बात करते हैं। यह चर्च के कारण ही संभव हो सका है। चर्च चाहता है कि भारत कमजोर हो , इसलिए वह इस तरह के कार्य करता रहता है। जो शक्तियां भारत को कमजोर देखना चाहती हैं वह चर्च को खूब पैसा देते हैं ताकि उनके इरादे पूरे हो सकेँ।
नगालैण्ड में क्राइस्ट फार नागालैण्ड के नारे लगाये जा रहे हैं। मिजोरम में भी यही हालत है। वहां रियांग जनजाति के 60 हजार लोगों को चर्च समर्थित ईसाई आतंकवादियों द्वारा अपना धर्म न बदलने के कारण मिजोरम से बाहर भेज दिया है। रियांग जनजाति के लोग अब शरणार्थी के रुप में जीवन जीने के लिए मजबूर हैं। केवल नगालैण्ड में 40 ईसाई मिशनरी समूह तथा 18 आतंकवादी संगठन काम कर रहे हैं। नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल आफ नगालैण्ड हिंसक आतंकवादी संगठनों को वर्लड काउंसिल आफ चर्चेस के माघ्यम से धनराशि तथा और शस्त्र प्राप्त कर रहे हैं।
नगालैण्ड में क्राइस्ट फार नागालैण्ड के नारे लगाये जा रहे हैं। मिजोरम में भी यही हालत है। वहां रियांग जनजाति के 60 हजार लोगों को चर्च समर्थित ईसाई आतंकवादियों द्वारा अपना धर्म न बदलने के कारण मिजोरम से बाहर भेज दिया है। रियांग जनजाति के लोग अब शरणार्थी के रुप में जीवन जीने के लिए मजबूर हैं। केवल नगालैण्ड में 40 ईसाई मिशनरी समूह तथा 18 आतंकवादी संगठन काम कर रहे हैं। नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल आफ नगालैण्ड हिंसक आतंकवादी संगठनों को वर्लड काउंसिल आफ चर्चेस के माघ्यम से धनराशि तथा और शस्त्र प्राप्त कर रहे हैं। ये विदेशी शक्तियां एके-47 के माध्यम से बंदूक के नोक पर धर्मांतरण करवा रहे हैं। इसके अलावा भारत के सुरक्षा बल भी इस इलाके में चर्च समर्थित आतंकवादी संगठनों के निशाने पर हैं। अब तक इस इलाके में 50 हजार सुरक्षाकर्मी बलिदान दे चुके हैं।

केवल नगालैण्ड व मिजोरम में ही चर्च का यह घिनौना कार्य चल रहा है , ऐसा नहीं है। उत्तर-पूर्व के बाकी राज्यों में भी यही हाल है। त्रिपुरा में नेशनल लिबरेशन फ्रांट आफ त्रिपुरा (एनएलएफटी) नामक एक आतंकी संगठन काम करता है। उत्तरी त्रिपुरा के नागमनलाल हलाम जिले में बाप्टिस्ट मिशनरी चर्च से हथियारों का जखीरा पकडा गया था। इस चर्च के सचिव ने स्वीकार किया है कि यह हथियार तथा विस्फोटक आतंकवादी संगठन नेशनल लिबरेशन फ्रांट आफ त्रिपुरा के आतंकियों के लिए था। स्वयं केन्द्रीय गृह मंत्रालय ने संसद ने इस घटना के बारे में जानकारी होने की बात कही है। चर्च का इससे बडा राष्ट्रविरोधी करतूतों का उदाहरण और क्या हो सकता है।

चर्च एक और भारत विरोधी काम में लगा रहता है। वह यह है कि भारत के खिलाफ पूरे विश्व में झूठे प्रचार करना। भारत के खिलाफ माहौल तैयार करना। चर्च के आरोपों में कोई सच्चाई नहीं होती है यह बाद में जांच के बाद स्पष्ट हो जाता है। लेकिन उस समय वह इतने जोर शोर से इन बातों को कहते हैं , जिससे यह कई बार सच प्रतीत होता है। इस पूरी प्रक्रिया में भारतीय चर्च का साथ देता है पश्चिमी मीडिया। ये मिल कर भारत के खिलाफ झूठे प्रचार करते हैं और भारत की छवि खराब करते हैं। एक- दो उदाहरण दें तो शायद इसे ठीक से समझा जा सकता है।
कुछ साल पहले चर्च द्वारा यह आरोप लगाया गया कि मध्य प्रदेश के झाबुआ में ननों के साथ बलात्कार किया गया है और इसमें हिन्दूवादी संगठनों के हाथ है। लेकिन बाद में जांच के बाद पता चला कि मध्य प्रदेश के कांग्रेस सरकार द्वारा जिन्हें गिरफ्तार किया गया था वे सब धर्मांतरित ईसाई हैं।
कुछ साल पहले चर्च द्वारा यह आरोप लगाया गया कि मध्य प्रदेश के झाबुआ में ननों के साथ बलात्कार किया गया है और इसमें हिन्दूवादी संगठनों के हाथ है। लेकिन बाद में जांच के बाद पता चला कि मध्य प्रदेश के कांग्रेस सरकार द्वारा जिन्हें गिरफ्तार किया गया था वे सब धर्मांतरित ईसाई हैं। बाद में यह भी पता चला कि यह लूटमार की घटना है जिसे बलात्कार का रंग दे दिया गया था। इस तरह के अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद मध्य प्रदेश की कांग्रेस सरकार ने चर्च की धर्मांतरण गतिविधियों तथा इनके कार्यकलापों की जांच के लिए 1956 में न्यायमूर्ति भवानी शंकर नियोगी की अध्यक्षता में एक कमेटी गठित की थी। इस कमेटी की खास बात यह थी कि इसमें एस।के। जार्ज नाम के एक ईसाई विद्वान भी थे। इस कमेटी ने इस समिति ने व्यापक जांच करने के बाद चर्च के गतिविधियों के बारे में जो पाया वह वास्तव में आंखें खोल देने वाली हैं। समिति ने पाया चर्च एक अंतरराष्ट्रीय षडयंत्र का हिस्सा है।
चर्च के कार्य का मूल उद्देश्य धर्मांतरण के माध्यम से राष्ट्रांतरण है। राष्ट्रांतरण से देश की एकता व अखंडता खतरे में पड जाती है। चर्च धर्मांतरण के लिए छल, झूठ, प्रलोभन तथा भय का सहारा लेती है।
चर्च के कार्य का मूल उद्देश्य धर्मांतरण के माध्यम से राष्ट्रांतरण है। राष्ट्रांतरण से देश की एकता व अखंडता खतरे में पड जाती है। चर्च धर्मांतरण के लिए छल, झूठ, प्रलोभन तथा भय का सहारा लेती है। न्यायमूर्ति भवानी शंकर नियोगी की अध्यक्षता में गठित कमेटी की रिपोर्ट में जो अनुशंसाएं की गई हैं उससे चर्च के खतरनाक इरादों के बारे में पता चलता है। साथ ही कमेटी ने अपने सिफारिशों में चर्च के इस राष्टरविरोधी कृत्यों से कैसे निपटा जाना चाहिए इसके लिए कुछ अनुशंसाएं की हैं। कमेटी के मुख्य अनुशंसाएं इस प्रकार के हैं। कमेटी की सबसे पहली सिफारिश है कि जिन मिशनरियों का मुख्य उद्देश्य केवल धर्म परिवर्तन है उन्हें वापस जाने के लिए कहा जाए। देश के भीतर विदेशी मिशनरियों का बहु त संख्या में आना अवांछनीय है और इसकी रोक थाम होनी चाहिए। समिति ने अपनी दूसरी सिफारिश में कहा है कि भारतीय चर्च के लिए सबसे प्रथम मार्ग यह है कि वे भारत के लिए एक संयुक्त ईसाई चर्च की स्थापना करे जो विदेश से आने वाली सहायता पर निर्भर न रहे। समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि ऐसी चिकित्सा संबंधी सेवाओं तथा व अन्य सेवाओं को, जो धर्म परिवर्तन के कार्य के लिए कोम में लायी जाती हों उसे कानून द्वारा वर्जित कर दी जानी चाहिए। दबाव, छल कपट, अनुचित भय, आर्थिक या दूसरी प्रकार की सहायता का आश्वासन देकर, किसी व्यक्ति की आवश्यकता, मानसिक दुर्बलता तथा मुर्खता का लाभ उठा कर धर्मांतरण के प्रयास को सर्वथा रोक देना चाहिए। समिति ने अपने रिपोर्ट में सरकार से कहा है कि सरकार का यह प्रथम कर्तब्य है कि वह अनाथालयों का स्वयं संचालन करे क्योंकि जिन नाबालिगों के माता पिता या संरक्षक नहीं हैं उनकी वैधानिक संरक्षक सरकार ही है। धर्म प्रचार के लिए जो भी साहित्य हो वह बिना सरकार के अनुमति से वितरित नहीं किया जाना चाहिए। नियोगी कमेटी की इस रिपोर्ट ईसाई मिशनरियों की गतिविधियों की काली करतुतों का कच्चा चिट्ठा प्रस्तुत करता है। इस कमेटी ने अपने रिपोर्ट में चर्च के सुनियोजित भारतविरोधी कार्यों के प्रति आगाह किया था। लेकिन दुर्भाग्य से हमारे देश के सत्ताधीशों ने इस रिपोर्ट से कोई सीख नहीं ली। चर्च को खुली छूट मिली हुई है। चर्च अपना काम धडल्ले से कर रहा है और भारत को कमजोर करने के उसके मूल उद्देश्य की पूर्ति में लगा हुआ है। उत्तर पूर्व राज्यों में इसका प्रभाव साफ दिख रहा है। वहां अलगाववाद अपने चरम पर है। चर्च सेवा की आड में या कहें तो सेवा के मुखौटे में भारत को तोडने की अपपनी मूल उद्देश्य की ओर बढ रहा है। गत 4 दशकों से अधिक समय हुए ओडिशा के जनजातीय जिले में सेवा के कार्य में अपना जीवन लगा चुके स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या को भी इसी क्रम में देखा जा सकता है। न्यायमूर्ति भवानी शंकर नियोगी की रिपोर्ट को अभी लगभग पचास साल हो गये हैं। इन पचास सालों में चर्च ने अपने गतिविधियों को और बढाया है। धर्मांतरण के लिए विभिन्न देशों से आ रही सहायता राशि में भी बढोत्तरी हुई है। चर्च ने अपनी रणनीति भी बदली है। चर्च इन दिनों काफी आक्रमक है। चर्च द्वारा प्रकाशित पुस्तक आपरेशन वर्ल्ड तथा जोशुआ प्रोजेक्ट का अगर हम अध्ययन करें तो चर्च के खतरनाक मनसूबों के बारे में हमें पता चलता है। चर्च के सेवा के आड में भारत विरोधी गतिविधियों की अनदेखी अब कितने दिन तक होती रहेगी। अगर यही हाल रहा तो पूर्वोत्तर राज्यों में जो स्थित है वह देश के अन्य राजों में भी हो सकता है। इस कारण आवश्यकता इस बात की है कि चर्च के इस देशविरोधी गतिविधियों की जांच के लिए एक कमेटी गठित की जाए। यह कमेटी चर्च के राष्ट्रविरोधी गतिविधियों की जांच करे। चर्च को मिल रहे पैसा कहां से आ रहा है, किस लिए आ रहा है तथा इसका उपयोग कैसे हो रहा है इस बात की पूरी जांच होनी चाहिए। विदेश से जो आर्थिक सहायता दे रहे हैं उनका राजनीतिक उद्देश्य क्या है इस बात की भी जांच होनी चाहिए। इस जांच रिपोर्ट के आधार पर सरकार को चर्च के राष्ट्रविरोधी गतिविधि पर आवश्यकीय रोक लगाने चाहिए। सरकार को यह कार्य जल्द से जल्द करना चाहिए, अन्यथा काफी देर हो सकती है। देश के शेष राज्यों की हालत उत्तर पूर्व के राज्यों की तरह हो सकती है।
(नवोत्थान लेख सेवा हिन्दुस्थान समाचार)

अमेरिका के साथ परमाणु संधि को लेकर हो रहा नाटक - डा. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

भारत और अमेरिका के बीच परमाणु संधि को लेकर पिछले लंबे अरसे से एक नाटक खेला जा रहा है। यह परमाणु संधि अमेरिका के हितों की पूर्ति करते है, इसमें कोई संशय नहीं है। परन्तु सोनिया और मनमोहन सिंह दोनों मिलकर इस देश को यह भरोसा दिलाने की कोशिश कर रहे हैं कि यह समझौता भारत के हक में है। इसके लिए संसद में तथ्यों को छिपाकर जितना कुछ कहा जा सकता है। उतना कहा लेकिन कहने से बात बनती न देखकर कुछ सांसदों को नकद नारायण भी दिया गया, जिसकी जांच अभी तक चल रही है। शिब्बू शोरेन से मुख्यमंत्री पद का वायदा किया गया था। उसकी पूर्ति कर दी गई है। कई बदमाश जो जेल में बंद थे और सजा भुगत रहे थे। जिसको न्युट्रॉन, प्रोटोन की बात तो दूर परमाणु के बारे में कुछ ज्ञात नहीं है। वो परमाणु संधि के पक्ष में धड़ल्ले से बोलते देखे गए।
सरकार जीत गई लेकिन सोनिया-मनमोहन सिंह की जोड़ी इतना तो जानती ही है कि संसद में जीत के बावजूद भी जनता में उसकी पराजय हुई है और जनता इस बात को अच्छी तरह जानती है कि सोनिया गांधी के नियंत्रण वाली सरकार यूरोप और अमेरिका के हितों की रक्षा के लिए भारत के पूरे परमाणु कार्यक्रम को अमेरिका के पास गिरवी रखने जा रही है। इसलिए अमेरिका के साथ मिलकर इन दोनों ने नाटक का दूसरा हिस्सा बियाना में प्रारंभ किया।
सरकार जीत गई लेकिन सोनिया-मनमोहन सिंह की जोड़ी इतना तो जानती ही है कि संसद में जीत के बावजूद भी जनता में उसकी पराजय हुई है और जनता इस बात को अच्छी तरह जानती है कि सोनिया गांधी के नियंत्रण वाली सरकार यूरोप और अमेरिका के हितों की रक्षा के लिए भारत के पूरे परमाणु कार्यक्रम को अमेरिका के पास गिरवी रखने जा रही है। इसलिए अमेरिका के साथ मिलकर इन दोनों ने नाटक का दूसरा हिस्सा बियाना में प्रारंभ किया।

45 देशों का परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह है। इस समूह में इस बात का निर्णय होना था कि भारत को परमाणु व्यापार की छूट दी जाए या नहीं। यह छूट 34 वर्ष पहले तब लगी थी जब 1974 में इन्दिरागांधी की नेतृत्व में भारत ने परमाणु विस्फोट किया था। अब यह जरूरी था कि परमाणु आपूर्ति समूह सभी पात्र देश ऐसा व्यवहार करे और भारत को यह छूट देने का डटकर विरोध करें। जितने जोर से यह विरोध करेंगे मीडिया उतनी ही तेजी से उसका ऑंखों देखा हाल प्रसारित करता रहेगा। धीरे-धीरे इन नटों के व्यवहार से ऐसा वातावरण बन जाएगा। मानो सभी देश अमेरिका और भारत के इस परमाणु समझौते का विरोध कर रहे हैं तो जाहिर है कि भारत की जनता को लगेगा कि यह समझौता भारत के हितों में है इसीलिए चीन, आस्ट्रिया, न्यूजीलैण्ड और न जाने कितने लैण्ड इसका विरोध कर रहे हैं। यदि यह विरोध समाप्त हो जाता है और परमाणु आपूर्ति समूह के देश भारत को परमाणु व्यापार करने की छूट दे देते है तो इसका अर्थ होगा कि भारत की जीत हुई है और विश्व जनमत भारत के आगे झुक गया है। जाहिर है कि इसका सारा श्रेय सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह को दिया जाएगा। इसका अर्थ यह हुआ कि जो लोग परमाणु समझौते का विरोध कर रहे थे वे भारत के हितों के खिलाफ थेऔर जो लोग इसका समर्थन कर रहे थे। वे भारत के हितों की रक्षा कर रहे थे। अमेरिका और मनमोहन सिंह ने बड़ी खूबसूरती से इस नाटक की स्क्रिप्ट तैयार की और परमाणु आपूर्ति समूह के हाथों में थमा दी। फिर यह ड्रामा कई दिन चला। जिस पात्र को बोलने के लिए जो डायलॉग दिए गए थे वे ईमानदारी से उन्हें बोलता रहा। लेकिन इस कथा का अंत सभी जानते थे। जैसे दस दिन चलने वाली रामलीला को लोग उत्सुकता से देखते भी रहते हैं। पात्रों के संवादों पर हस्ते भी हैं और रोते भी हैं लेकिन उन्हें कथा का अंत पहले से ही मालूम होता है। इस कथा का अंत भी निश्चित था क्योंकि कथा का सूत्रधार अमेरिका था। धीरे-धीरे नाटक का पटाक्षेप होने लगा और जो पात्र 4 दिन पहले अंगद की तरह अपने पांव फटकार रहे थे। वे भी नए पथ्य में जाने लगे कथा का अंत मनमोहन सिंह भी जानते थे बुश भी जानते थे और सोनिया गांधी को तो इस पूरे नाटक में भर्ती ही इसलिए किया गया था कि वे संकट के इस काल में भारत के सत्ता सूत्रों पर बरकरार रहे। जैसे ही नाटक का अंत हुआ तो पूरा मीडिया तालियां बजाने लगा भारत की जीत हुई है। भारत की जीत हुई है। ये तालियां टीवी चैनलों पर भी देखी जा सकती है। प्रिंट मीडिया पर भी और सोनिया गांधी के घर के आगे तो नृत्य करने वालों का जमावड़ा है। भारतीय परंपरा में मिरासी मनोरंजन करने के काम आते हैं नीति निर्धारण करने के लिए नहीं इन तालियों से लोगों को यह भ्रम नहीं हो सकता कि ये समझौता भारत के हित में है। क्योंकि जब यह नाटक चल ही रहा था तो घर के एक भेदी ने भांडा फोड़ कर दिया। बुश का अमेरिकी संसदों के नाम लिखा वह पत्र जगजाहिर हो गया जिसमें उन्होंने स्पष्ट कहा है कि यदि भारत परमाणु विस्फोट करता है तो यह समझौता टूट जाएगा। अमेरिका को इस बात की दाद देनी चाहिए कि यह चिट्ठी जाहिर होने के बाद उसने उसे छिपाने की कोशिश नहीं की बल्कि यह कहा कि यह चिट्ठी कोई बड़ा रहस्य नहीं है इसमें जो भी लिखा गया है वह अमेरिका ने भारत सरकार को पहले ही बता दिया था इसका अर्थ यह हुआ कि जब मनमोहन सिंह संसद में दम ठोककर यह कह रहे थे कि अमेरिका ने ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं लगाया है और भारत भविष्य में अपने सामरिक हितों के लिए परमाणु विस्फोट करने के लिए स्वतंत्र है तो वह जानते थे कि वे झूठ बोल रहे हैं। दुर्भाग्य से जब भारत अपनी सामरिक स्थिति को लेकर संकट में घिरा हुआ है तो उसके सत्ता सूत्र एक ऐसी इतावली महिला के हाथ में है जिन्होंने भारत के हितों को व्हाईट हाऊस के पास गिरवी रख दिया है।
यह ध्यान रखना चाहिए कि यदि भारत भविष्य में परमाणु विस्फोट करता है तो यह जरूरी नहीं है कि अमेरिका समझौता रद्द करने तक ही सीमित रहे वह देश के अंदर भी आ सकता है वह ईराक में आ चुका है, अफगानिस्तान के भीतर है और पाकिस्तान की सीमाओं का अतिक्रमण कर चुका है। उसका कहना है कि वह सबकुछ आतंकवाद की समाप्ति के लिए कर रहा है और आतंकवाद कहा है इसका निर्णय भी वह स्वयं ही करता है।
यह ध्यान रखना चाहिए कि यदि भारत भविष्य में परमाणु विस्फोट करता है तो यह जरूरी नहीं है कि अमेरिका समझौता रद्द करने तक ही सीमित रहे वह देश के अंदर भी आ सकता है वह ईराक में आ चुका है, अफगानिस्तान के भीतर है और पाकिस्तान की सीमाओं का अतिक्रमण कर चुका है। उसका कहना है कि वह सबकुछ आतंकवाद की समाप्ति के लिए कर रहा है और आतंकवाद कहा है इसका निर्णय भी वह स्वयं ही करता है। जब भारत भविष्य में परमाणु विस्फोट करेगा तो अमेरिका को उसका यह कदम आतंकवाद की ओर बढ़ता हुआ दिखाई नहीं देगा। इस बात की क्या गारंटी है? अपने इन्हीं षडयंत्रों को छिपाने के लिए और भारत की जनता को गफलत में रखने के लिए श्रीमती सानिया मायनो और जॉर्ज बुश को बियाना में इतना लंबा नाटक करना पड़ा पर भारत के लोगों को भविष्य में पर्दे की पीछे छिपे रहस्य को देख लेने की क्षमता विकसित करनी होगी। (नवोत्थान लेख सेवा हिन्दुस्थान समाचार)

आतंकवाद-आजमगढ और आदित्यनाथ: धीरेन्द्र प्रताप सिंह

आतंकवाद एक समस्या है आजमगढ वह स्थान है जो इस समस्या से ग्रस्त है और आदित्यनाथ वह व्यक्ति हैं जो इस समस्या के खिलाफ जबर्दस्त मुहिम चलाए हुए है। आजमगढ आतंकवाद की उर्वरभूमि होने के साथ आतंकवादियों के पसंदीदा शरणस्थल के रुप में भी पहचाना जाता है। उत्तर प्रदेश के मुस्लिम बाहुल्य इस जिले में यदि खाड़ी देशों की मुद्रा दिरहम और दीनार की बेशुमार आवक है तो वही इन दिरहमों-दीनार के मालिकों द्वारा जेहाद के नाम पर आतंकियों को दिल खोल मदद में देसी ही नही बल्कि विदेशी आतंकियों तक को अपनी तरफ आकर्षित किया है। आतंकवादियों ने अपने इस मनपंसद आरामगाह और ऐशगाह को अपनी शरणस्थली बनाने के साथ ही इसे पाक अधिकृत कश्मीर और पाकिस्तान के कबायली इलाकों में चलाए जा रहे आतंकी प्रशिक्षण केन्द्रों की अनुकृति बनाने का अभियान भी बाकायदा चलाया हुआ है।

भारत में वोट बैंक की लालच में तुष्टिकरण करने वाली सरकारों के सहयोग से ये आतंकवादी अपने खतरनाक मंसूबों में काफी हद तक सफल भी हो रहे हैं। लेकिन पूर्वाकाल में इन तत्वों के राष्ट्रद्रोही मंसूबो के पूरा होने के रास्ते में योगी आदित्यनाथ जैसे सन्यासी चट्टान की तरह खड़े मिलते है। राष्ट्रीय एकीकरण के पवित्र कार्य का बीड़ा उठाने वाले ऐसे सन्यासी शुरु से ही आतंकवादियों और चरमपंथियों के निशाने पर रहे है। योगी आदित्यनाथ विश्व प्रसिध्द कनफटे साधुओं के सबसे बड़े आस्था केन्द्र गोरक्षपीठ के घोषित उत्तराधिकारी हैं। राजनैतिक जगत में योगी की पहचान गोरखपुर से भाजपा सांसद के रूप में जरुर है लेकिन आम जनता के बीच उनकी पहचान हिन्दू हृदय सम्राट और एक ऐसे योध्दा के रूप में है जो देश में स्वामी विवेकानन्द के अधूरे कार्यों को पूरा करने के लिए अवतरित हुआ है। कम उम्र में आश्चर्यचकित करने वाली आध्यात्मिक और शैक्षिक उपलब्धियां अर्जित करने वाले योगी आदित्य नाथ ने अपने गुरु और गोरक्षपीठ के वर्तमान पीठाधीश्वर महन्त अवैद्यनाथ के कहने पर भारतीय राजनीति की बदनाम गलियों में प्रवेश किया और आश्चर्यजनक रुप से अपनी लोकप्रियता के ग्राफ को बढ़ाया।

उस गोरखपुर में जहां भाजपा जैसी राष्ट्रवादी पार्टी को अपनी जमीन तक नही मिल पा रही थी, योगी ने अपने पराक्रम से कमल खिला दिया और गोरखपुर सहित गोंडा, पड़रौना, बस्ती, देवरिया, महाराजगंज और फैजाबाद जैसे जिलों की कई लोकसभा और विधानसभा सीटें भाजपा की झोली में डाल दीं। योगी को अपने अच्छे कार्यो का पुरस्कार भाजपा से तो नहीं मिला लेकिन इस कवायद में योगी राजनैतिक और धार्मिक कट्टरपंथियों के निशाने पर जरूर आ गए। योगी ने पूर्वांचल में जब एक वर्ग विशेष की दहशत तले जी रहे समाज में चेतना भरनी शुरु की तो विघटन की राजनीति करने वाले राजनितिज्ञों और कट्टरपंथियों ने उनके रास्ते को राकेने में अपनी पूरी ताकत लगा दी। लेकिन भारत की पवित्र भूमि का यह स्वभाव रहा है कि यहां सत्य परेशान तो हो सकता है लेकिन पराजित नहीं और इसीलिए सत्यसाधक योगी आदित्यनाथ भी परेशान होने के बावजूद पराजित नहीं हुए और अपने कार्य में मनोयोग से लगे रहे, जिसका परिणाम है कि आज पूर्वांचल के 13 जिलों में योगी के नाम पर अपनी जान दे देने वालों की लम्बी फौज तैयार हो गयी है।

अन्याय और अत्याचार के प्रतिकार का प्रतिरुप बन कर उभरे योगी आदित्यनाथ आज पूर्वी उत्तर प्रदेश में आतंकवाद और कट्टरवाद के फायरब्रांड शत्रु के रुप में पहचाने जाते हैं। योगी की बढती लोकप्रियता से एक तरफ जहां राजनीतिक जगत के उनके विरोधियों में अफरातफरी मची हुई है तो वही आतंकवादी तत्व भी उन्हें अपने रास्ते से हटाने के लिए अपनी साजिश को अंजाम देने की नयी नयी तरकीबें आजमा रहे हैं।
अन्याय और अत्याचार के प्रतिकार का प्रतिरुप बन कर उभरे योगी आदित्यनाथ आज पूर्वी उत्तर प्रदेश में आतंकवाद और कट्टरवाद के फायरब्रांड शत्रु के रुप में पहचाने जाते हैं। योगी की बढती लोकप्रियता से एक तरफ जहां राजनीतिक जगत के उनके विरोधियों में अफरातफरी मची हुई है तो वही आतंकवादी तत्व भी उन्हें अपने रास्ते से हटाने के लिए अपनी साजिश को अंजाम देने की नयी नयी तरकीबें आजमा रहे हैं।
विगत वर्षों में आजमगढ़, मऊ, गाजीपुर, गोरखपुर जैसे संवेदनशील जनपदों में विघटनकारी शक्तियों ने जब-जब भी अपनी कारगुजारियों को अंजाम देने की कोशिश की तो योगी ने इसे असफल कर दिया। इसका उदाहरण मऊ जिले में सन् 2005 के दशहरे के दौरान जब आतंकियों से संबंध का आरोप झेल रहे मुख्तार अंसारी ने दंगा भड़काया और उसका नेतृत्व किया तो दहशत से घर-बार छोड़ कर भाग चुके हजारों हिन्दुओं को योगी ने हिम्मत बंधाई, तब प्रशासन भी जागरुक हुआ और वहां दंगे थमे।

योगी की कड़ाई के चलते उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव को अपनी ही पार्टी के सांसद के भाई विधायक मुख्तार अंसारी को सलाखों के पीछे पहुंचाना पड़ा। योगी आदित्यनाथ की इस जिजीविषा के चलते ही आज उनकी लोकप्रियता अपने चरम पर है और उनकी इस लोकप्रियता से घबराने वाले उनके विरोधी उन्हें किसी भी कीमत पर अपने रास्ते से हटाना चाहते हैं।

योगी अपनी इस लोकप्रियता से अन्जान अपनी सुरक्षा को भी दरकिनार कर अपने दैवकार्य में निरन्तर लगे हुए हैं। आजमगढ़ पूर्वी उत्तर प्रदेश का वह जिला हैं जहां पर आतंकी तत्वों की उपस्थिति के बारे में राज्य और केन्द्र का गृहमंत्रालय बराबर लोगों को सतर्क करता रहता है।
पिछले दिनों गुजरात और राजस्थान के बम विस्फोटकांड के मास्टरमाइण्ड अबू बसर की यहां से गिरफ्तारी के बाद यह जिला एक बार फिर देश की सुरक्षा एजेंसियों के निशाने पर आया। इतने खतरनाक कांड के मास्टरमाइण्ड की गिरफ्तारी पर भी घृणित राजनीति करने वाली पार्टियां राजनीति करने लगीं और तो और गिरफ्तार आतंकी के घर जा कर उसके प्रति अपनी सहानुभूति दर्शायी और उन्हें एक और गोधरा-गुजरात कांड करने की छूट देने की कोशिश की। बाकी कमी इमाम बुखारी ने पूरी कर दी जिसने सपा नेताओं के साथ आजमगढ़ में सभा की और सरकार व संविधान विरोधी नारे लगावकर भारतीय लोकतंत्र का उपहास उड़ाने के साथ ही देशद्रोहियों को यह संदेश भी दिया कि वे अपना कार्य करते रहें।
पिछले दिनों गुजरात और राजस्थान के बम विस्फोटकांड के मास्टरमाइण्ड अबू बसर की यहां से गिरफ्तारी के बाद यह जिला एक बार फिर देश की सुरक्षा एजेंसियों के निशाने पर आया। इतने खतरनाक कांड के मास्टरमाइण्ड की गिरफ्तारी पर भी घृणित राजनीति करने वाली पार्टियां राजनीति करने लगीं और तो और गिरफ्तार आतंकी के घर जा कर उसके प्रति अपनी सहानुभूति दर्शायी और उन्हें एक और गोधरा-गुजरात कांड करने की छूट देने की कोशिश की। बाकी कमी इमाम बुखारी ने पूरी कर दी जिसने सपा नेताओं के साथ आजमगढ़ में सभा की और सरकार व संविधान विरोधी नारे लगावकर भारतीय लोकतंत्र का उपहास उड़ाने के साथ ही देशद्रोहियों को यह संदेश भी दिया कि वे अपना कार्य करते रहें। अबू बशर की गिरफ्तारी और इमाम बुखारी की हरकत से आक्रोशित योगी आदित्यनाथ 7 सितंबर को आजमगढ़ के डी.ए.वी. कॉलेज में एक जनसभा को संबोधित करने जा रहे थे। इस बात की जानकारी उन्होंने स्थानीय प्रशासन को 15 दिन पहले ही दे दी थी। लेकिन पता नहीं बसपा के शासन में कार्य करने वाले प्रशासन ने इनको भाजपा का सांसद होने की वजह से या इनके हिन्दू हृदय सम्राट होने की बात से नाराज हो कर इनकी सुरक्षा के प्रति लापरवाही बरती जिसका खामियाजा ये हुआ कि योगी का काफिला जैसे ही मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र तकिया में पहुंचा, पहले से ही तैयार खतरनाक मंसूबों कट्टरपंथी तत्वों ने इस संत पर हमला कर दिया। दैव योग से यह हमला तब हुआ जब योगी का वाहन आगे निकल गया था।

लेकिन उनके काफिले में शामिल पांच वाहनों को आक्रमणकारियों ने बुरी तरह तहस नहस कर दिया और इनके कई भक्त भी घायल हो गए। इतनी बड़ी घटना के बाद भी योगी अपने निर्धारित कार्यक्रम से पीछे नही हटे और उस कॉलेज में जुटी भारी भीड़ को संबोधित किया और आतंकियों को उनके खूंखार मंसूबों को कामयाब न होने देने की अपनी प्रतिज्ञा भी दृढ़ता से दुहरायी। बुलन्द हौसलों के धनी योगी आदित्यनाथ की सुरक्षा में खामी का अंदाजा हम इस बात से लगा सकते है कि केन्द्र की राजग सरकार ने जहां परमाणु करार पर अपनी सरकार को बचाने की एवज में अमर सिंह जैसे राज्यसभा सदस्य तक को जेड श्रेणी की सुरक्षा दे रखी है तो वहीं अपने आप को कानून और व्यवस्था की सबसे बड़ी हिमायती बताने वाली मायावती ने प्रदेश के सारे बड़े माफिया सरगनाओं को तो जेड और वाई श्रेणी की सुरक्षा दे रखी है लेकिन आतंकवादियों की आंख की किरकिरी बने योगी आदित्य नाथ को देश का दूसरा लक्ष्मणानन्द बनने के लिए भगवान भरोसे छोड़ दिया।

लेकिन सरकार को याद रखना चाहिए कि यदि योगी आदित्यनाथ को कुछ होता है तो वह आतंकवादियों के लिए सुनहरा अवसर तो होगा ही पूर्वी उत्तर प्रदेश के लिए अकल्पनीय भी होगा क्योंकि योगी का बाल-बांका होते ही पूरा क्षेत्र हिंसा की आग में जलकर राख हो जाएगा। इसलिए सरकार को योगी आदित्यनाथ को तत्काल और पूरी सुरक्षा उपलब्ध करवा और उन पर आक्रमण कराने वाले अपराधियों पर कार्यवाई कर अपनी मुस्तैदी का प्रमाण देना चाहिए।
(हिन्दुस्थान समाचार नवोत्थान लेख सेवा)