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Sunday, 14 December 2008

हिन्दुत्व: हमारी राष्ट्रीय संस्कृति- अटल बिहारी वाजपेयी


समुद्र का दृश्य और उसकी लहरों का संगीत किसी भी व्यक्ति के मन में शाश्वत और अनन्त शक्ति के प्रति सहज ही जिज्ञासा पैदा कर सकता है। लेकिन मेरा मन भारत की ओर लौटता है। हमारी मातृभूमि के तट से इतिहास की कितनी ही लहरें टकरा गई। इसके विशाल क्षितिज पर नए वर्ष के कितने ही सूर्यों का उदय हुआ। हम अपने सांसारिक कार्यों में ही इतने खोये रहते हैं कि हम कभी-कभी यह भी भूल जाते हैं कि हमारी सभ्यता कितनी प्राचीन और महान है, उसमें कितना स्थायित्व है और उसमें अपने आपको नयेपन में ढालने की कितनी अपार क्षमता है। एक ऐसी सभ्यता जो अजेय है, सर्व समावेशक है, इतिहास की लहरों द्वारा लाये गये सभी सकारात्मक प्रभावों को अपने में समाहित करती रही है।
मुझे स्वामी विवेकानन्द के वे शब्द याद आ रहे हैं जो उन्होंने अपने निबंध '' भारत का भविष्य'' में कहे थे; '' यह वही भारत है जो सदियों से सैकड़ों विदेशी आक्रमणों के आघातों को, अनेक आचार-व्यवहारों और रीति-रिवाजों के उथल-पुथल को झेलता आया है। यह वही भारत है जो अपनी अनन्त शक्ति, अनश्वर जीवन के साथ विश्व में किसी भी चट्टान से अधिक मजबूती के साथ खड़ा है। इसके जीवन का वही स्वरूप है जो आत्मा का होता है, जिसका न तो आदि है और न अंत, जो शाश्वत है और हम ऐसे ही देश की संतानें हैं।''
हमारी प्राचीन सभ्यता की तरह हमारी विविधता भी भारत की महानता - और इस राष्ट्र के प्रति भारतीयों में गर्व की भावना का स्रोत है। विदेशी लोग हमेशा आश्चर्य प्रकट करते हैं कि हमारे देश में धर्म, जाति, भाषा और जीवन-शैली में इतनी अधिक विविधता होते हुए भी, हम एक राष्ट्र कैसे बने हुए हैं ? जो बात वे समझ नहीं सकते और जिसे हमें भी कभी नहीं भूलना चाहिए, वह है - विविधता के साथ रहना और एक-दूसरे के साथ एकता और सामंजस्य का ताना-बाना बुनना। अनंतकाल से सम्पूर्ण भारत की एक जीवन-पद्वति रही है। यह बात गोवा के सम्बंध में भी उतनी ही सत्य है जितनी गुजरात के बारे में, जम्मू और कश्मीर के बारे में जितनी सत्य है उतनी ही केरल के बारे में और मणिपुर के सम्बंधा में जितनी सत्य है उतनी ही मधय प्रदेश के बारे में।

समय-समय पर विविधता में एकता को लेकर गंभीर बहस और यहां तक कि विवाद भी छिड़ जाते हैं। मैं यहां दो विशिष्ट विचारों पर टिप्पणी करना चाहता हूं जिन पर गुजरात चुनावों के बाद जोर-जोर से चर्चा हो रही है। एक तरफ, पंथ-निरपेक्षता को इस सोच के आधार पर हिन्दुत्व के विरूद्व खड़ा किया जा रहा है कि दोनों एक दूसरे के विरोधी हैं। यह गलत और अनुचित है। पंथ-निरपेक्षता राज्य-व्यवस्था की वह अवधारणा है जिसमें सभी धार्मों का सम्मान किया जाता है तथा नागरिकों के साथ उनकी धार्मिक आस्थाओं के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाता है। भारत शुरू से ही पंथ-निरपेक्ष रहा है। हमने पंथ-निरेपंक्षता पर प्रतिबद्व रहना तब भी स्वीकार किया जग देश का विभाजन हुआ और पाकिस्तान का द्वि-राष्ट्र सिध्दांत के साम्प्रदायिक आधार पर निर्माण हुआ। ऐसा कभी संभव नहीं हुआ होता यदि अधिकांश भारतीय पंथ-निरपेक्ष नहीं होते।

गुरूदेव रविन्द्रनाथ टैगोर ने इसकी बहुत अच्छे ढंग से व्याख्या की है '' भारत हमेशा से सामाजिक एकता बनाए रखने का प्रयास करता रहा है जिसमें विभिन्न मतावलम्बियों को अपना अलग अस्तित्तव बनाए रखने की पूरी आजादी भी होते हुए एकजुट रखा जा सके। यह बंधान जितना लचीला है उतना ही परिस्थितियों के अनुरूप इसमें मजबूती भी है। इस प्रक्रिया से एक एकात्मक सामाजिक संघ की उत्पत्ति हुई जिसका सामूहिक नाम ' 'हिन्दुइज्म' है।''

हिदू दर्शन द्वारा पंथों की विविधाता की स्वीकार्यता भारतीय सेक्युलरिज्म का मूल-सत्व रहा है। महर्षि अरविंद ने इसे इन शब्दों में व्यक्त किया है: ''भारतीय धर्म की अवधारणा में हमेशा यह महसूस किया गया है कि चूंकि मनुष्यों के विचारों, स्वभाव और बौद्विक ज्ञान में असीमित विविधताएं होती हैं, अत: हर व्यक्ति को अपने विचार अभिव्यक्त करने और ईश्वर की अपने ढंग से पूजा-अर्चना करने की पूर्ण स्वतंत्रता दी जानी चाहिए।

दूसरी तरफ, हिन्दुत्व, जो मानव जीवन का विराट दर्शन प्रस्तुत करता है, को कुछ लोगों द्वारा एक संकीर्ण, कट्टर तथा चरमपंथी रूप में पेश किया जा रहा है। यह एक दुर्भाग्यपूर्ण और अस्वीकार्य व्याख्या है जो इसके सही अर्थ के बिल्कुल विपरीत है। हिन्दुत्व सम्पूर्ण सृष्टि को समग्र रूप से समझने की दृष्टि है जो इस लोक तथा परलोक, दोनों के लिए रास्ता दिखाता है। यह व्यक्ति और समाज तथा मनुष्य की भौतिक तथा आधयात्मिक जरूरतों के बीच अटूट सम्बंधों पर बल देता है। हिन्दुत्व उदार है, उदात्त है, मुक्तिगामी है। यह किसी भी आधार पर विभिन्न समुदायों के बीच कोई दुर्भावना, घृणा अथवा हिंसा को बर्दाश्त नहीं करता है।

पांच हजार वर्ष पुरानी संस्कृति और सभ्यता का यह राष्ट्र है। इसलिए जब संविधान परिषद बैठी थी और सेकुलरवाद या सेकुलरवाद की भावना के प्रश्न पर चर्चा हो रही थी, उस समय भी सेकुलर का अर्थ क्या है, इसके बारे में अलग-अलग राय थी। लेकिन संविधान के निर्माताओं ने सेकुलर शब्द संविधान में नहीं रखा। संविधान की प्रस्तावना में सेकुलर शब्द उस समय आया, जब देश में इमर्जेंसी लगी थी और कई लोग जेलों में बंद थे। विचार व्यक्त करने की आजादी नहीं थी। उस समय संविधान में संशोधन किया गया। उससे पहले धारणा यह थी कि प्रस्तावना में संशोधन नहीं होना चाहिए। होगा भी नहीं, मगर प्रस्तावना में संशोधान कर दिया गया और भारत को डेमोक्रेटिक रिपब्लिक के साथ-साथ सेकुलर एंड सोशलिस्ट रिपब्लिक भी घोषित कर दिया गया।

हमारा सेकुलरिज्म पश्चिम के सेकुलरिज्म से भिन्न होगा। उन्होंने कहा था कि यह बहुधर्मों का देश है और सेकुलरिज्म का अर्थ है कि किसी भी धर्म के मानने वाले के साथ भेदभाव न हो और सब धर्मों को समान दृष्टि से देखा जाये। हम इस व्याख्या को हृदय से स्वीकार करते हैं। यह हिन्दू चिंतन का निचोड़ हैं। यह हमारी अस्मिता है क्योंकि भारत में अनेक मत हैं अनेक मतांतर हैं। केवल एक पुस्तक नहीं है, एक पैगम्बर नहीं है। यहां ईश्वर को मानने वाले भी है और ईश्वर की सत्ता को नकारने वाले भी है। यहां किसी को सूली पर नहीं चढ़ाया गया और न किसी को पत्थर मारकर दुनिया से उठाया गया। यह सहिष्णुता इस देश की मिट्टी में है '' एकं सद् विप्रा: बहुधा वदन्ति' अब तो दर्शन उससे भी आगे चला गया है। यह अनेकांतवादी देश है।
इस देश में कभी मजहबी राज्य की मांग नहीं उठी। इस देश मे कभी मजहब के आधार पर, मत भिन्नता के आधाार पर उत्पीड़न की बात नहीं उठी, न उठेगी, न उठनी चाहिए।

मुझे याद है कि देश के दुर्भाग्यपूर्ण विभाजन के बाद पंडित जवाहरलाल नेहरू अलीगढ़ विश्वविद्यालय में भाषण करने के लिये गये थे। दीक्षांत समारोह था। उनके भाषण का एक अंश है-
''मैं कह चुका हूं कि मुझे अपनी विरासत एवं अपने पूर्वजों पर बड़ा गर्व है, जिन्होंने भारत को ज्ञान एवं सांस्कृतिक उत्कर्ष पर पहुंचाया। इस अतीत के बारे में आप कैसा महसूस करते है? क्या आप इसमें अपने आपको हिस्सेदार महसूस करते हैं और इसका वारिस महसूस करते हैं और किसी बात पर गर्व महसूस करते हैं जो उतनी ही आपसे संबधित है, जितनी मुझसे या इससे अलग महसूस करते हैं? क्या यह अजनबी सरसराहट जो यह महसूस करने से आती है कि हम इस विशाल खजाने के वारिस हैं, न्यासी हैं- या बिना समझदारी से ही? आप एक मुसलमान है और मैं एक हिन्दू। हम अलग-अलग धार्मिक विश्वास रख सकते हैं और कोई भी धार्मिक विश्वास न रखें, उससे हमारी विरासत समाप्त नहीं होती जो आपकी भी उतनी ही है, जितनी मेरी। अतीत हमें एक सूत्र में बांधाता है, जबकि वर्तमान और भविष्य हमें विभाजित करता हैं।''

अपने अंतिम दस्तावेज में नेहरू जी ने जो कुछ लिखा है और आज पाठय-पुस्तकों का विषय बन गया है, सबको फिर से पढ़ने की जरूरत है। नेहरू जी पर कोई पुरातनपंथी होने का आरोप नहीं लगा सकता, लेकिन नेहरू जी ने उस विश्वास की बात की है कि हम अपने दिमाग खुले रखते हैं, हम खिडकियां खुली रखते हैं। मगर यह भी कहा है कि हम अपने पांव पर मजबूती से खड़े रहते हैं। कामन इनहेरिटेंस इसकी स्वीकृति है? क्या जो अतीत है, उसमे अभिमान है?

बहुत से विदेशी यहां आये, लोगों को शरण मिली। हमने निर्दोष आने वालों को, उजड़ कर आने वालों को वापस नहीं भेजा। भारत माता की गोद में सबको जगह मिली। जो अपना देश छोड़ कर उत्पीड़न के शिकार होकर यहां आये, उन्हें जगह मिली। भारत में पहली मस्जिद हिन्दू राजा की अनुमति से केरल में बनी, भारत में पहला चर्च भी केरल में बना, वही भी अनुमति से। यह हमारे रक्त में हैं। यह जीवन की घुट्टी में है। मजहब के आधार पर भेदभाव नहीं होना चाहिए। सबको छूट होनी चाहिए। सबके साथ बराबर व्यवहार होना चाहिए लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है। बराबर व्यवहार नहीं हो रहा है। इसलिये कठिनाई पैदा हो रही है। इसलिये लोगों के मन में शंकाए पैदा हो रही है।

इस देश में हिन्दू बहुत संख्या में हैं, मगर उनमें एक माइनिरिटी काम्पलेक्स जैसा विकसित हो रहा है। माइनिरिटी में अगर काम्पलेक्स हो तो मैं समझ सकता हूं कि जो संख्या में कम हैं वे संरक्षण की बात करें। संरक्षण मिलना चाहिए। यह राजधर्म है और इसलिये जहां हम राष्ट्र की सुरक्षा पर बल देते हैं, वहां इस बात पर भी बल देते हैं, कि देश के भीतर हर नागरिक की जान माल इज्जत की और धर्म की हिफाजत होनी चाहिए। (मेरी संसदीय यात्रा पृष्ठ क्र. 52,53,54, 55)

हमें हिन्दुत्व की उस सही पहचान को परिपुष्ट करके और बढ़ावा देने की जरूरत है जो भविष्योन्मुखी है, न कि पीछे का मुकाबला करने के लिये सक्षम बनाता है, न कि पुरानी लीक पर ही अटकी रहने वाली, जो सुधारवादी है न कि उस रूढ़िवाद, अन्याय की हिमायत करने वाली जिसके विरूद्व विगत में सभी समाज सुधारकों ने संघर्ष किया था। यदि इस प्रबुद्व हिंदुत्व को समझा जाये और इसका अनुकरण किया जाये, जैसा कि स्वामी विवेकानन्द और अन्य महान देशभक्तों ने प्रतिपादित किया है, तो हिन्दुत्व के बारे में वर्तमान में चल रहा विवाद पूर्णतया अनावश्यक दिखाई देगा।
ऐसे हिन्दुत्व तथा भारतीयता में कोई अंतर नहीं है क्योंकि दोनों ही एक चिंतन को अभिव्यक्त करते है। दोनों ही इस बात पर जोर देते है कि भारत सभी का है और सभी भारत के है। इसका तात्पर्य यह है कि सभी भारतीयों के समान अधिकार हैं और उनकी जिम्मेदारियां भी समान हैं। यह हमारी सामूहिक राष्ट्रीय संस्कृति जो भारत की सभी विभिन्न धार्मिक तथा गैर-धार्मिक परम्पराओं से समाविष्ट है, की पहचान को दर्शाता है। सदियों से दोनों ही समान रूप से हमारी राष्ट्रीय पहचान को परिलक्षित करते आये हैं। यहां तक कि उच्चतम न्यायालय ने ही यह माना है कि हिन्दुत्व न तो कोई धार्मिक अवधारणा है न ही राजनीतिक बल्कि यह हमें जीवन का उदात्त एवं उन्नत मार्ग दिखाता है। यही भारतीयता है जिसका हमें गुणगान करना है तथा इसे और मजबूत बनाना है।

1 comment:

विवेक सिंह said...

बेहतरीन लेख रहा . कृपया डबल प्रिंट को सही कर दें .