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Thursday, 11 October 2007

अभारतीय कम्युनिस्ट

-हरेन्द्र प्रताप

रामसेतु के सवाल पर अपने हलफनामे को लेकर केन्द्र सरकार को देश के अन्दर और बाहर शर्मिंदा होना पड़ा। यूपीए के मंत्रियों के बीच आरोप-प्रत्यारोप का दौर चला। संस्कृति मंत्री अम्बिका सोनी और कानून मंत्री हंसराज भारद्वाज ने कुछ निरीह कर्मचारियों को बली का बकरा भी बना दिया है। पर इस पूरे प्रकरण पर डीएमके के करुणानिधि और यूपीए को समर्थन दे रहे वामपंथियों की प्रतिक्रिया जले पर नमक छिड़कने का काम कर रही है।

भारत के इतिहास के लेखकों में जिन नामों को प्रचारित किया गया वे तथाकथित वामपंथी विचारधारा से ओतप्रोत हैं, इसलिए वामपंथी उनकी आलोचना नहीं कर सकते। शपथपत्र में श्रीराम और श्रीकृष्ण को काल्पनिक पात्र बताने का जो प्रयास किया गया है उसकी आलोचना के बदले वामपंथी इतना भर कह रहे हैं कि यह शपथपत्र का अनावश्यक हिस्सा है।

भगवान श्रीराम और श्रीकृष्ण के प्रति इस देश की जनता के मन में जो आस्था है उस आस्था पर बहुत पहले वामपंथियों ने हमला किया था, जिसका विरोध राष्ट्रवादी विचारधारा के लोगों ने किया भी था। वामपंथी इतिहासकारों की कुत्सित मानसिकता को समझने हेतु कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं-

- 'श्रीराम, श्रीकृष्ण और अर्जुन' के बारे में एन.सी.ई.आर.टी. द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में इतिहास के तथाकथित वामपंथी लेखकों आर.एस. शर्मा (एनशियेंट इंडिया) एवं सतीश चन्द्रा (मेडियावेल इण्डिया) ने उन्हें काल्पनिक पात्र घोषित कर दिया था।

केन्द्र सरकार की विदेशी मूल की नेता और सरकार को चलाने वाले वामपंथी विदेशी विचार के जीवंत उदाहरण हैं। अत: विदेशी नेतृत्व और विदेशी विचार ने हजारों वर्षों से भारत के जन-जन में बसने वाले श्रीराम और श्रीकृष्ण को अगर काल्पनिक घोषित किया है तो इसमें उनका दोष ही क्या है?

- देश इस समय 1857 की 150वीं वर्षगांठ मना रहा है। 1857 के समय साम्यवादी विचारधारा का नाम भी भारत में किसी ने नहीं सुना था। अगर सुना होता तो भारत के कम्युनिस्ट 1857 के सेनानियों को भी कम्युनिस्ट घोषित करने में जरा सा भी संकोच नहीं करते। फिर भी भारत के स्वाधीनता संग्राम के बारे में कम्युनिस्टों ने अनेक पुस्तकें प्रकाशित की हैं। भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन के प्रमुख सेनानी सरदार भगत सिंह को सामने रखकर स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान किए गए वामपंथी विश्वासघात को ढकने का असफल प्रयास जारी है।

- भगत सिंह का जन्म 28 सितम्बर, 1907 को हुआ तथा 23 मार्च, 1931 को उन्हें फांसी दे दी गई। मात्र साढ़े 23 वर्ष में भगत सिंह की कुछ तत्कालीन प्रतिक्रियाओं को उध्दृत करके उन्हें जोर शोर से कम्युनिस्ट घोषित कर दिया गया। चूंकि 1941 में सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी का कुरूप चेहरा विश्व पटल पर उजागर हुआ, अत: कम्युनिस्ट आकर्षण के मोहजाल में फंसे अनेक राष्ट्रीय नेताओं ने कम्युनिस्टों के असली चेहरे को पहचान लिया, पर दुर्भाग्य से यह अवसर भगत सिंह को नहीं मिला। अगर भगत सिंह भी 1941 तक जीवित रहते तो वे स्वयं कहते कि साम्यवाद एक खतरनाक विचार है, इस विचारधारा को साथ लेकर देश को आजाद नहीं किया जा सकता।

भारत का स्वाधीनता संग्राम- (लेखक - ई.एम.एस. नंबूदिरिपाद, अनुवादक-आनंदस्वरूप वर्मा) पुस्तक के माध्यम से नंबूदिरिपाद ने यह सिध्द करने का प्रयास किया है कि भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन में कम्युनिस्ट विचारधारा और कम्युनिस्ट नेतृत्व ने बढ़-चढ़ कर भाग लिया। महात्मा गांधी और कांग्रेस का कद छोटा करने के लिए उन्होंने गांधी और कांग्रेस को बार-बार वामपंथी गाली 'बुर्जुआ' से सम्बोधित किया है।

नंबूदिरिपाद ने अपनी उपरोक्त पुस्तक के पृष्ठ 138 पर यह स्वयं स्वीकार किया है कि लेनिन के भाई ने भारत के आन्दोलन से प्रभावित होकर ही 'जार' की हत्या का प्रयास किया जिसके लिए उन्हें मृत्युदण्ड प्राप्त हुआ। नंबूदिरिपाद की पुस्तक के पृष्ठ 260 के अनुसार 1927 में ही जवाहर लाल नेहरू और सुभाष चन्द्र बोस को कम्युनिस्ट घोषित कर दिया गया था। उसी पुस्तक के पृष्ठ 481 पर आचार्य नरेन्द्र देव, पृष्ठ 490 पर एम.आर.मसानी, अशोक मेहता तथा डा. राम मनोहर लोहिया एवं पृष्ठ 491 पर लोकनायक जयप्रकाश नारायण को कम्युनिस्ट विचारधारा का क्रांतिकारी घोषित किया है। जिस मार्क्स और एंजेल्स को वे साम्यवाद का जनक मानते हैं उसी मार्क्स और एंजेल्स को भारत की कितनी समझ थी इसकी कुछ झलक नंबूदिरिपाद की पुस्तकों में दिखती है, यथा-

मार्क्स ने भारत पर मुस्लिम आक्रमण और अंग्रेजों के दमन का समर्थन निम्न रूप में किया है-

'जिस प्रकार इटली को समय-समय पर आक्रमणकारी की तलवार विभिन्न प्रकार के जातीय समूहों में बांटती रही है उसी प्रकार हम पाते हैं कि हिन्दुस्थान पर मुसलमानों, मुगलों या अंग्रेजों का दबाव नहीं होता तो उसमें जितने शहर या कहें कि जितने गांव होते वे उतने ही स्वतंत्र और विरोधी राज्यों में बंट जाते।' (पृष्ठ-11)

नंबूदिरिपाद ने अपनी पुस्तक के 495 पृष्ठ पर यह घोषित कर दिया कि 'गांधी, नेहरू और सुभाष भारतीय बुर्जुआ वर्ग के नेता थे।' जिन नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को इन्होंने कम्युनिस्ट घोषित किया था उन्हीं को 1942 आते-आते 'तोजो का कुत्ता' घोषित करने में इन्हें शर्म नहीं आई।

भारतीय इतिहास की जैसी मार्क्सवादी व्याख्या नंबूदिरिपाद ने की है वह भविष्य में इतिहास की प्रमाणित पुस्तक न हो जाए, इसलिए यह आवश्यक है कि वामपंथियों को बेनकाब किया जाए।

1942 में भारत के सभी नेताओं ने 'अंग्रेजों, भारत छोड़ो' आन्दोलन में बढ़ चढ़ कर भाग लिया क्योंकि उनकी मान्यता यह थी कि इंग्लैण्ड जर्मनी के साथ विश्वयुध्द में फंसा हुआ है अत: अभी आन्दोलन को उग्र किया जाए तो भारत को आजादी मिल जायेगी। विश्वयुध्द में इंग्लैण्ड, अमरीका और सोवियत संघ 'मित्र राष्ट्र' बनकर जर्मनी के खिलाफ लड़ रहे थे। एक तरफ साम्राज्यवाद था तो दूसरी तरफ फासिज्म। चूंकि भारत को अंग्रेजों ने गुलाम बनाया हुआ था अत: भारत के स्वतंत्रता सेनानियों ने अंग्रेजों को दुश्मन मानकर संगठित आन्दोलन चलाया। पर 1942 के आन्दोलन में भारत के कम्युनिस्टों ने स्वतंत्रता आन्दोलन का न केवल विरोध किया बल्कि अंग्रेजों के लिए मुखबिरी भी की।

देश के बौध्दिक जगत पर तो कम्युनिस्टों का पहले से ही कब्जा बना हुआ है। आने वाले दिनों में हमारे स्वतंत्रता आन्दोलन को भी छीन न लें इसकी सावधानी देश के प्रबुध्द वर्ग को बरतनी होगी।

6 comments:

अनुनाद सिंह said...

कम्युनिस्टों को "अभारतीय" कहना पूरी तरह से ठीक नहीं होगा। असल में वे "भारत-द्रोही" की संज्ञा के अधिकारी हैं!

शाश्वत said...

यह बात तो तय है कि भारत में ही कम्‍युनिज्‍म का कब्रिस्‍तान होगा। आपने विचारशील लेख प्रस्‍तुत किया है।

चंद्रभूषण said...

हितचिंतक जी, आप कुछ भूल रहे हैं। संघ परिवारी या हिंदुत्व बिरादरी में आने वाले किसी भी संगठन ने भारत छोड़ो समेत स्वतंत्रता आंदोलन की किसी भी सक्रिय गतिविधि में कभी भूल कर भी भाग नहीं लिया था। इसके लिए उन्हें कम्युनिस्टों की ही नहीं, खुद विनायक दामोदर सावरकर की भी गालियां सुननी पड़ी थीं। यही नहीं, जब पूरा देश अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध में उलझा हुआ था उस समय हिंदू महासभा ने बंगाल में सुहरावर्दी के नेतृत्व वाली मुस्लिम लीग के साथ मिलकर सरकार बना रखी थी। पहले स्वाधीनता आंदोलन में किए गए अपने पाप धो लीजिए, फिर 1942 वाले रवैये के लिए कम्युनिस्टों को ठठाइए। गांधी को दी गई गालियां आपको याद हैं लेकिन उन्हें मारी गई गोलियां शायद आपकी स्मृति से उतर गई है। ऐसी चुनिंदा याददाश्त लेकर ब्लॉग की बहस में उतरने के बजाय किसी चंडूखाने में गप्प करना न सिर्फ आपके लिए बल्कि आपकी चिरकुट वार्ता पर वाह-वाह करने वालों के लिए भी श्रेयस्कर होगा।

sumansourabh.blogspot.com said...

आपको धन्यवाद देता हूँ कि आपने आंखें खोल देने वाला लेख प्रस्तुत किया हैं. भारतीय इतिहास कम्युनिस्टों की गद्दारी से भरा हुआ हैं. पूरी दुनिया से कम्युनिस्टों की विदाई हो रही हैं. भारत की जनता भी इनकी असलियत जानती हैं. इसीलिये ये ८० वर्षों के बाद भी महज तीन प्रांतों में सिकुरे हुये हैं.

Unknown said...

yes indian communist never feel for indian working class.And some nonsense blame that rss not participate in freedom movement by this communist justified there crime.first yes rss not participate but rss tell all his activities to participate in freedom movement personally and never publish art.like subhas chandra netaji is dog and bhagat singh is not marxist which cpi at that time published.same on you communist you are not follower of great comrade lenin but just agent of capitalist

Unknown said...

yes indian communist never feel for indian working class.And some nonsense blame that rss not participate in freedom movement by this communist justified there crime.first yes rss not participate but rss tell all his activities to participate in freedom movement personally and never publish art.like subhas chandra netaji is dog and bhagat singh is not marxist which cpi at that time published.same on you communist you are not follower of great comrade lenin but just agent of capitalist