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Saturday, 3 November 2007

पश्चिम बंगाल में अब 'राशन दंगों' की बारी


-अनुराधा तलवार

सिंगुर और नंदीग्राम में किसानों व खेतिहर मजदूरों के संघर्ष को लेकर चर्चा में आए पश्चिम बंगाल में पिछले डेढ़ माह से जनता द्वारा राशन की दुकानों को लूट लेने का सिलसिला शुरू हुआ है। इसे 'राशन दंगा' कहा जा रहा है। प्रदेश के पिछड़े और गरीब जिले बांकुरा में 16 सितंबर को तीन राशन दुकानों को लूटने के साथ 'राशन दंगा' शुरू हुआ। अब तो ग्रामीणों द्वारा रोजाना कहीं न कहीं राशन लूटने की खबरें आने लगी हैं। उल्लेखनीय बात यह कि ये घटनाएं स्वस्फूर्त घट रही हैं। इनके आगे पीछे न तो कोई राजनीतिक दल है और न ही कोई संगठन। जन-जन तक राजनीति की घुसपैठ रखने वाले पश्चिम बंगाल में ऐसे हालात वाकई आश्यर्चजनक हैं।

आखिर ऐसी स्वस्फूर्त घटनाओं के पीछे क्या हो सकता है? पहली और सबसे महत्वपूर्ण बात है लोगों की भूख जो तीन दशक के वामपंथी शसन में गरीब लोगों को झेलनी पड़ रही है। हाल ही में जारी किए गए राष्ट्रीय सांख्यिकी सर्वेक्षण का अध्ययन बताता है कि 'साल के कुछ महीनों में कई दिन भूखे सोने वाले परिवार', पश्चिम बंगाल में सबसे ज्यादा (10.6 प्रतिशत) पाए गए। पश्चिम मिदनापुर के बेलपहारी, पुरुलिया के बाघमंडी, पुनचा और बलरामपुर ब्लाक जहां नदियों के कटाव से किसानों की काश्त की जमीन जज्ब होती जा रही है तथा सिंगुर जहां उद्योगों के लिए खेतों का जबरिया अधिग्रहण किया जा रहा है, वहां से कुपोषण से होने वाली मौतों की संख्या लगातार बढ़ रही है। पश्चिम बंगाल के ग्रामीण क्षेत्रों की खाद्यान्नों की कीमतें तेजी से बढ़ी हैं। इस बढ़ोतरी का दोहरा असर पड़ा है। महंगाई की वजह से गरीबों को राशन की दुकानों से ज्यादा खाद्यान्न की आवश्यकता पड़ रही है, तो वहीं दूसरी ओर राशन विक्रेता अच्छी कीमत मिलने के लोभ में खुले बाजार में राशन का अनाज बेचने लगे हैं। इन्हीं स्थितियों के चलते राशन विक्रेताओं और जनता के बीच सघर्ष चरम पर पहुंच चुका है। दो अन्य कारण भी अपनी भूमिका निभा रहे हैं। पूरे पश्चिम बंगाल में 'राशन दंगे' जबरिया भूमि अधिग्रहण के खिलाफ शुरू हुए किसानों के संघर्ष के बाद हुए। इन संघर्षों ने पश्चिम बंगाल सरकार और वामपंथी दलों को कठघरे में खड़ा कर दिया है कि गरीबों के नाम पर राजनीति करने वाले, गरीबों के कितने पक्षधर हैं।

लोग इस बात से आजिज आ चुके थे कि उनकी शिकायतें सुनी ही नहीं जा रही हैं। उदाहरण के लिए सितंबर 2003 में जब स्थानीय स्तर पर की गई शिकायतों का कोई नतीजा नहीं निकला तो खेतिहर मजदूरों के संगठन पीबीकेएमएस के कार्यकर्ताओं ने सात राशन विक्रेताओं के खिलाफ पश्चिम मिदनापुर के दातान ब्लाक में सबूतों के साथ शिकायतें दर्ज कराईं। जिले के अधिकारी रात दस बजे इन शिकायतों की जांच करने पहुंचे, लेकिन शिकायतकर्ताओं को इसकी सूचना नहीं दी। अधिकारियों ने आरोपी राशन विक्रेताओं से दस से बीस हजार रूपए तक वसूले और इस तरह शिकायतें रफा-दफा कर दी गईं। अनुभव बताते हैं कि अधिकारियों का यह कृत्य अपवाद नहीं अपितु दस्तूर बन चुका है। राशन विक्रेता, पंचायत प्रतिनिधि, पार्टी के कार्यकर्ताओं व अधिकारियों के बीच सांठ-गांठ जनता के सामने स्पष्ट हो गई, लिहाजा उसने कानून अपने हाथ में लेने का फैसला ले लिया, परिणामस्वरूप 'राशन दंगे' शुरू हो गए।

वाममोर्चा सरकार की ओर से जो प्रतिक्रिया प्रत्याशित थी, वही आई। कुछ दिन पहले सरकार ने एक विज्ञापन जारी करके यह बताने की कोशिश की कि केंद्र ने राज्य को खाद्यान्न का कोटा कम कर दिया है। 'कैग' की रिपोर्ट के अनुसार पश्चिम बंगाल में राशन की दुकानों से खाद्यान्नों का उठाव दो से पचास प्रतिशत के आसपास है। जाहिर है कि शेष राशन का अन्न कालाबाजार की भेंट चढ़ जाता है और इसी की वजह से राज्य में सार्वजनिक वितरण प्रणाली ध्वस्त हुई है। सरकार की दूसरी प्रतिक्रिया यह हुई कि इस समस्या को उसने कानून व्यवस्था का मसला माना। राज्य के तमाम भ्रष्ट व कालाबजारी राशन विक्रेताओं की सुरक्षा के लिए पुलिस तैनात करवा दी। जबकि प्रशासन को चाहिए था कि आरोपी राशन विक्रेताओं के खिलाफ आवश्यक वस्तु अधिनियम के तहत कार्रवाई करता। ऐसे में लोगों का गुस्सा वाजिब है लेकिन सरकार उनकी भावनाओं की कद्र नहीं कर रही है। सार्वजनिक वितरण के तंत्र को भी सुधारने की जरूरत है। राशन विक्रेताओं के संगठन की बात सही मानी जाए तो एक राशन विक्रेता यदि ईमानदारी से काम करे तो हर महीेने वह मुश्किल से 562 रूपए ही बचा पाएगा। इसलिए यह भी जरूरी है कि राशन विक्रेताओं के हितों का ख्याल रखा जाए ताकि वे बाजार में राशन सामग्री बेचने को विवश न हों। पश्चिम बंगाल सरकार छत्तीसगढ़ से प्रेरणा ले सकती है। यहां भ्रष्ट राशन विक्रेताओं को हटाकर यह काम स्वसहायता समूहों को सौंपा गया है जिनकी जवाबदेही समाज के प्रति रहती है और वे इसका ध्यान रखते हुए काम कर रहे हैं। ( साभार : दैनिक भास्कर)


लेखिका सुप्रीम कोर्ट द्वारा सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तौर-तरीके जानने के लिए गठित आयोग की सलाहकार हैं।

3 comments:

आशीष कुमार 'अंशु' said...

Pashim Bangaal me jo ho rahaa hai Sharmanaak hai, Medha patekar ke sath vahaa Anuraadha talwaar kaa karya sarahaniy hai.

रवीन्द्र प्रभात said...

वैसे इसमें कोई संदेह नही की वहाँ जो कुछ भी हो रहा है , अच्छा नही हो रहा है , इस सम्बन्ध में पश्चिम बंगाल सरकार की भूमिका शर्मनाक है

काकेश said...

शायद अकल आये उन्हें.

http://kakesh.com