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Tuesday 16 October, 2007

वाम दलों के आम आदमीः राजीव सचान

आम आदमी के हितों की परवाह करने वालों में वाम दल खुद को पहले नंबर पर रखते हैं। उनके आए दिन के बयान यही प्रतीति कराते हैं कि इस देश में केवल वही हैं जिन्हें आम आदमी की सबसे अधिक चिंता रहती है। उनका यहां तक दावा है कि उनके ही दबाव के चलते राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना वाला कानून आम आदमी के लिए लाभकारी सिद्ध हो सका। ऐसे दावे करने वाले वाम दलों के गढ़ पश्चिम बंगाल को लेकर ऐसी कोई धारणा बनना सहज है कि वहां तो आम आदमी अपेक्षाकृत खुशहाल होंगे, लेकिन दुर्भाग्य से वस्तुस्थिति ठीक इसके उलट है। यहां आम आदमी किस हालत में है, इसका एक प्रमाण राशन डीलरों के यहां हो रहे हमले हैं। ये हमले पिछले एक माह से जारी हैं और हाल-फिलहाल थमते नजर नहीं आ रहे हैं। राशन दुकानों में जरूरी खाद्यान्न न मिलने से क्षुब्ध ग्रामीणों का धैर्य जब जवाब दे गया तो उन्होंने राशन डीलरों के यहां हमले करने शुरू कर दिए। पहला हमला करीब एक माह पूर्व 16 सितंबर को बांकुड़ा जिले में हुआ। इसके बाद राशन डीलरों के यहां हमला बोलने और उनकी दुकानें लूटने का सिलसिला इस तरह आगे बढ़ा कि वह थामे नहीं थम रहा। बांकुड़ा के अलावा व‌र्द्धमान, बीरभूम, मुर्शिदाबाद, हुगली, नादिया आदि जिलों में राशन डीलर ग्रामीणों के निशाने पर हैं। ग्रामीणों के हमलों के भय से अब तक तीन राशन डीलर आत्महत्या कर चुके हैं और दो ग्रामीण पुलिस फायरिंग में मारे जा चुके हैं। अब गांव वाले पुलिस से दो-दो हाथ करने में भी संकोच नहीं कर रहे हैं। हालात इतने खराब हैं या कहिए कि आम जन राशन डीलरों के खिलाफ गुस्से से इतना भरे हुए हैं कि पुलिस को समझ नहीं आ रहा कि वह राशन डीलरों को कैसे बचाए, दक्षिणी बंगाल के ज्यादातर इलाकों के राशन डीलर ग्रामीणों के हमले के भय से या तो अपना घर-बार छोड़कर भाग गए हैं या फिर पुलिस के साये में रहने को विवश हैं।

कुछ इलाकों में ग्रामीण घंटों नहीं, बल्कि कई-कई दिनों तक राशन डीलरों की घेरेबंदी किए रहते हैं। यदि ग्रामीण आबादी ने राशन डीलरों के खिलाफ कानून अपने हाथ में ले रखा है तो इसका मतलब है कि उनके पास और कोई विकल्प नहीं रह गया है। राशन डीलरों पर हमले की ताबड़तोड़ घटनाओं के बाद यह सामने आया कि ज्यादातर डीलर वाम दलों के कार्ड होल्डर यानी पदाधिकारी हैं। यह तथ्य उजागर होते ही वाम दल इन डीलरों से अपनी दूरी बनाने में जुट गए, लेकिन उनके पास इस सवाल का जवाब नहीं है कि राशन डीलर सरकारी खाद्यान्न काले बाजार में क्यों बेच रहे थे, जब वाम दलों को अपनी इज्ज्त बचाना मुश्किल हो गया तो उन्होंने गांव वालों के गुस्से के लिए राशन डीलरों की कालाबाजारी के बजाय राशन में कमी का बहाना गढ़ा और इसके लिए केंद्र सरकार को जिम्मेदार ठहरा दिया। आंकड़े देकर यह बताने की कोशिश की गई कि किस तरह भारतीय खाद्य निगम ने पश्चिम बंगाल का खाद्यान्न कोटा कम कर दिया है। जल्दी ही जाहिर हो गया कि यह तो वामपंथियों का झूठ था। 10 अक्टूबर को भारतीय खाद्य निगम के प्रबंध निदेशक अशोक सिन्हा को यह स्पष्ट करना पड़ा कि पश्चिम बंगाल में राशन डीलरों पर हमले के लिए निगम उत्तारदायी नहीं, क्योंकि राज्य की राशन दुकानों के लिए 60 दिन का पर्याप्त भंडार मौजूद है। उन्होंने यह भी साफ किया कि राज्य सरकार ने अपने कोटे का खाद्यान्न उठाने में दिलचस्पी ही नहीं दिखाई। जब वाम दलों ने अपनी गलती छिपाने के लिए केंद्र को दोष देना जारी रखा तो 14 अक्टूबर को केंद्रीय मंत्री प्रियरंजन दासमुंशी आगे आए और बोले कि गरीबी रेखा से नीचे के परिवारों को खाद्यान्न उपलब्ध कराने में राज्य सरकार इसलिए विफल है, क्योंकि राज्य में सार्वजनिक वितरण प्रणाली भ्रष्टाचार से पंगु हो गई है। वैसे तो देश में शायद ही कहीं यह प्रणाली भ्रष्टाचार से मुक्त हो, लेकिन पश्चिम बंगाल में इसका भ्रष्टाचार में आकंठ डूबा होना चौंकाता है। यहां यह प्रणाली इसलिए भ्रष्टाचार में डूबी है, क्योंकि ज्यादातर राशन डीलर या तो वाम दलों के नेता और कार्यकर्ता हैं या फिर इन दलों का समर्थन करने यानी उन्हें चंदा देने को बाध्य हैं।

ग्रामीणों से लुट-पिट रहे राशन डीलरों का कहना है कि वे वाम नेताओं के समर्थन के बगैर अपना काम कर ही नहीं सकते। पश्चिम बंगाल में खाद्यान्न के लिए मची मारामारी का एक पहलू यह भी है कि खाद्यान्न विभाग फारवर्ड ब्लाक के पास है। फरावर्ड ब्लाक के पास यह विभाग 1977 से यानी पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा सरकार के अस्तित्व में आने के बाद से ही है। नंदीग्राम में संघर्ष और संग्राम छिड़ने के बाद फारवर्ड ब्लाक के नेताओं ने माकपा नेतृत्व पर जमकर हमला बोला था। माना जा रहा है कि खाद्यान्न संग्राम के सिलसिले में फारवर्ड ब्लाक की किरकिरी कराने के लिए माकपा के नेतृत्व वाली सरकार जानबूझकर हाथ पर हाथ रखकर बैठी रही। सच जो भी हो, किसानों-मजदूरों-ग्रामीणों के प्रबल हितैषियों के गढ़ में खाद्यान्न के लिए दंगे जैसे हालात पैदा होना बहुत कुछ स्पष्ट कर देता है। यह तो सबने जाना कि वाम दलों ने अपने समर्थन वाली केंद्र सरकार को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया, लेकिन देश को इससे भी अवगत होना चाहिए कि वे जब ऐसा कर रहे थे तो ठीक उसी समय उनके अपने घर की आम जनता राशन डीलरों पर हमले करने के लिए मजबूर थी। जब कानून, पुलिस और सरकार से भय खाने वाला आम आदमी हथियार उठाने के लिए विवश हो जाए तो यह अनुमान लगाना कठिन नहीं कि हालात कितने खराब हो गए होंगे, वाम दलों के नेता अभी भी यह रट लगाए हैं कि राज्य में राशन की कमी के लिए केंद्र सरकार जिम्मेदार है। आखिर जिस दल के नेता केंद्र सरकार को एक अंतरराष्ट्रीय करार न करने के लिए बाध्य कर सकते हैं वे अपने कोटे का राशन क्यों नहीं बढ़वा सकते, यह तो बायें हाथ का खेल है। राजग शासन के समय जिस तरह आंध्र प्रदेश की तेलुगू देशम सरकार चावल के अपने कोटे में मनचाही वृद्धि कराती रहती थी उसी तरह का काम वाम दलों के नेता कहीं आसानी सेकर सकते थे, लेकिन जब आम आदमी की परवाह न हो तो फिर सरल काम भी बहुत कठिन हो जाते हैं। (साभार-दैनिक जागरण )

1 comment:

अनुनाद सिंह said...

कामरेडों को 'आम आदमी' की कितनी चिन्ता है, यह समाचार पढकर समझा जा सकता है:


कामरेडों के गढ़ से गरीबों के राशन की तस्करी

http://in.jagran.yahoo.com/news/national/general/5_1_3829426.html