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Tuesday, 4 December 2007

तानाशाहों के लिए संदेश

लेखक- चंद्रमोहन

नंदीग्राम में कितनी महिलाओं से बलात्कार किया गया यह भी मालूम नहीं पड़ेगा, कितने बम चले इनकी गिनती ही नहीं। कितने लोग मारे गए यह भी मालूम नहीं पड़ेगा। कितने शव नदी में फेंक दिये, कोई नहीं जानता। राहत शिविरों में असंख्य ऐसी महिलाएं हैं जिन्हें पता नहीं कि उनके मर्द कहां हैं? और यही पार्टियां हैं जो गुजरात को लेकर इतना शोर मचाती रही हैं। गोधरा के बाद गुजरात में जो दंगे हुए वे निंदनीय हैं। हिंसा का कहीं भी कोई औचित्य नहीं है, पर नरेन्द्र मोदी ने कभी खुलेआम हिंसा को जायज नहीं ठहराया पर बुध्ददेव भट्टाचार्य तो खुलेआम कह रहे हैं कि जो हुआ वह सही था। हिंसा के बल पर आप अधिक देर शासन नहीं कर सकते। सोवियत यूनियन को बिखरते समय नहीं लगा था इसलिए माकपा को सावधान हो जाना चाहिए कि आम लोगों के साथ उसका रिश्ता टूट गया है। बुध्ददेव को यह भी याद रखना चाहिए कि उनके लोग बिल्कुल माफ नहीं करते। सिध्दार्थ शंकर रे के बाद पूरे तीस वर्ष हो गए, कांग्रेस के उन्होंने अभी तक पैर नहीं जमने दिए इसी में मिनी-तानाशाहों के लिए संदेश छिपा है।

एक न एक दिन ऐसा होना ही था। सच्चाई सामने आनी ही थी। 30 वर्ष से पश्चिम बंगाल में वामदलों का शासन है। सब हैरान हैं कि यह कैसे संभव हुआ जबकि इस दौरान प्रदेश निरंतर पिछड़ता गया। नंदीग्राम का घटनाओं से साफ हो गया है कि उस अभागे प्रांत में वामदलों का शासन हिंसा तथा अत्याचार पर आधाारित रहा है। सरकार पार्टी के अधीन हो गई और पार्टी के काडर ने विरोधियों को कुचल डाला। आज हालत है कि मेधा पाटेकर जो अधिकतर मामलों में वामदलों के साथ रही हैं, ने नंदीग्राम को टॉर्चर चैम्बर कहा है। उनके अनुसार यह ऐसा यातना शिविर है जहां सत्ताधारी माकपा के कार्यकर्ताओं को आतंक फैलाने की छूट है। वामदलों गठबंधान में शामिल आरएसपी के एक मंत्री ने इस्तीफे की इच्छा व्यक्त करते हुए नंदीग्राम में माकपा की गुंडागर्दी को इसके लिए दोषी ठहराया है। अब स्थिति कुछ सुधार गई है लेकिन एक बार तो पुलिस ने भी वहां की स्थिति को 'भयावह' कहा था। मुख्यमंत्री बुध्ददेव भट्टाचार्य हिंसा को न्यायोचित ठहरा रहे हैं। उनके अनुसार माओवादियों की हिंसा का जवाब देने के लिए उनके काडर को हिंसा अपनानी पड़ी। वह पहले मुख्यमंत्री हैं जिन्होंने खुलेआम हिंसा, लूटपाट तथा बलात्कार को न्यायोचित ठहराने की हिमाकत की है। किसी भी लोकतंत्र में इसकी इजाजत नहीं होनी चाहिए लेकिन मार्क्‍सवादी नेता समझते हैं कि उन पर कोई कानून लागू नहीं होता। आखिर वे गांधीवादी तो कभी भी नहीं थे। उन्हें लक्ष्य की चिंता है साधनों की चिंता उन्होंने कभी नहीं की इसीलिए नंदीग्राम में विरोधियों को हिंसा के साथ कुचल दिया गया।

एक पत्रकार ने नंदीग्राम से रिपोर्ट भेजी है, 'अधिकतर जगह माकपा के कार्यकर्ता अंधाधुंध गोलियां चलाते हुए गांवों में दाखिल हो गए। उसके बाद लूटपाट और आगजनी शुरू हो गई। मध्‍यकालीन समय के युध्द की याद दिलाने वाले हथकंडों को अपनाते हुए सीपीएम ने एक बड़ी रैली का आयोजन किया जिसके आगे पकड़े गए 500 भूमि उच्छेद कमेटी के कार्यकर्ताओं को मानव ढाल की तरह इस्तेमाल कया गया। सभी के हाथ बंधो थें इसके दो मकसद थे। एक, विरोधी अब उनकी रैली पर गोली नहीं चला सकेंगे और दूसरा अगर रास्ते में बारूदी सुरंग बिछाई गई है तो उसका असर इस मानवीय ढाल पर पहले होगा।'

यह हालत है आज के आधुनिक भारत के एक हिस्से की जहां लोगों को पकड़ कर 'मानवीय ढाल' की तरह उनका इस्तेमाल किया जाता है। यह भी उल्लेखनीय है कि मुख्यमंत्री की यह शिकायत कि वहां तृणमूल कांग्रेस तथा माओवादियों के बीच सांठगांठ रही है, का प्रतिवाद उनके अपने गृहसचिव ने किया है जिनका कहना है कि उनके पास इसका कोई प्रमाण नहीं है। साफ है कि अपने काडर की हिंसा तथा बदमाशी से धयान हटाने के लिए मुख्यमंत्री माओवादियों को दोषी ठहरा रहे हैं जबकि स्वतंत्र पर्यवेक्षक कह चुके हैं कि वहां की बुरी हालत का कारण माकपा का आतंक का शासन है। कई जगह तो बाकायदा बंकर बने हुए हैं। शायद इसीलिए राज्यपाल ने इसे युध्द क्षेत्र कहा है। कुछ समय के लिए सीआपीएफ को नंदीग्राम में प्रवेश नहीं दिया गया। मीडिया को भी बाहर रखा गया। खैर अब चिंता नहीं रही क्योंकि मुख्यमंत्री हिंसा का औचित्य समझा रहे हैं। अगर हिंसा सही है तो फिर छिपाने की जरूरत ही नहीं है।

कांग्रेस जो इस मामले में बच-बच कर मुंह खोल रही है, को भी कहना पड़ा कि 'यह हिंसा राज्य-समर्थित कत्लेआम है।' कांग्रेस संतुष्ट है कि वामदल विशेष तौर पर माकपा, दबाव में आ गए हें और परमाणु करार को लेकर शायद अब बहुत तंग नहीं करेंगे लेकिन देश को तो सोचना चाहिए कि पश्चिम बंगाल में कैसी सरकार है जिसके लिए हिंसा शासन का सही साधान है? जहां गांवों पर कब्जे किये जाते हैं और विरोधियों को परास्त करने के लिए अत्याचार और बलात्कार का इस्तेमाल किया जाता है। नंदीग्राम में कितनी महिलाओं से बलात्कार किया गया यह कभी मालूम नहीं पड़ेगा। कितने बम चले इनकी गिनती ही नहीं। कितने लोग मारे गए यह भी मालूम नहीं पड़ेगा। कितने शव नदी में फेंक दिये, कोई नहीं जानता। राहत शिविरों में असंख्य ऐसी महिलाएं हैं जिन्हें पता नहीं कि उनके मर्द कहां हैं? और यही पार्टियां हैं जो गुजरात को लेकर इतना शोर मचाती रही हैं। गोधारा के बाद गुजरात में जो दंगे हुए वे निंदनीय हैं। हिंसा का कहीं भी कोई औचित्य नहीं है, नरेन्द्र मोदी ने कभी खुलेआम हिंसा को जायज नहीं ठहराया पर बुध्ददेव भट्टाचार्य तो खुलेआम कह रहे हैं कि जो हुआ वह सही था। अर्थात वह स्पष्ट कर रहे है कि अगर कम्युनिस्टों की सत्ता को चुनौती दी गई तो फिर ऐसा ही होगा।

मुख्यमंत्री का कहना है कि 'मैं पार्टी से बड़ा नहीं हूं।' इस स्वीकृति पर किसी को आपत्ति नहीं होगी, आखिर वहां माकपा के नेतृत्व में सरकार है और कांग्रेस वाला हाल नहीं कि नेता पार्टी से बड़ा है। लेकिन पश्चिम बंगाल की समस्या मुख्यमंत्री तथा पार्टी का रिश्ता नहीं, असली समस्या है कि सरकार पार्टी के मातहत है। पार्टी वहां लूटपाट करें, लोगों को आतंकित करे, विरोधियों को खत्म कर दे, सरकार चुपचाप तमाशा देखती रहेगी। पश्चिम बंगाल के पतन का भी यही कारण है। अब अवश्य बुध्ददेव घेराव की नीति की आलोचना करते हैं पर उस वक्त जब सस्ती लोकप्रियता के लिए उद्योग को पश्चिम बंगाल से खेदेड़ा जा रहा था सरकार मूकदर्शक बना रही। आज उसी उद्योग को वापस बुलाने की कोशिश में सिंगूर तथा नंदीग्राम में समस्या खड़ी हो गई है क्योंकि अब उनकी जमीन छीनी जा रही है वे प्रतिरोध कर रहे हैं और मीडिया के इस युग में उन्हें दमन से भी दबाया नहीं जा सकता।

एक लोकतंत्र में सरकार तथा पार्टी के अलग अलग निधार्रित क्षेत्र होते हैं। सरकार को चलाने के लिए अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने भाजपा के प्रिय मुद्दों को एक तरफ रख दिया था लेकिन पश्चिम बंगाल में काडर सुप्रीम है। वह तो लाठी और गोली चलाने के आदी हैं। उन्हें तो समझाया गया है कि जो विरोध करे उसे पीट डालो और अगर जरूरत पड़े तो गोली भी चला दो, हम सब संभाल लेंगे। उन्हें बातचीत या आम सहमति का रास्ता आता ही नहीं क्योंकि पश्चिम बंगाल में इसे कभी अपनाया ही नहीं गया। या आप हमारे साथ हैं या हमारे खिलाफ। जरूरत से अधिक यह आत्मविश्वास अब उलटा पड़ा है और दशकों से इस आतंक को बर्दाश्त करने वाला समाज उठा खड़ा हुआ है। बुध्ददेव शुरू में अपने लोगों को नियंत्रण में करने का प्रयास करते रहे लेकिन जिन्न ने वापस बोतल में आने से इनकार कर दिया और अब दबाव इतना है कि उदार मुख्यमंत्री का मुखौटा उतार वह खुद हिंसा को सही ठहरा रहे हैं। इस प्रक्रिया में उन्होंने आर्थिक सुधार की अपनी नीति भी खतरे में डाल दी क्योंकि जिस तरह के हथकंडे अपना कर माकपा ने अपनी सत्ता कायम की थी वही अब प्रांत के लिए बेड़िया बन गये हैं क्योंकि इन हालात में वे उद्योगपति महामूर्ख होंगे जो पश्चिम बंगाल में निवेश करना चाहेंगे। अब तो वहां के वामदलों के समर्थक बुध्दिजीवी भी सड़कों पर उतर आए हैं। पहली बार है कि माकपा बिल्कुल अलग-अलग पड़ गई है।

सबसे अधिक दुख इस बात का है कि यह बढ़िया प्रांत जिसने कई बार देश का विभिन्न क्षेत्रों में नेतृत्व किया था एक बार फिर राजनीतिक तथा हिंसा के मिश्रण के कारण फंस गया है। पर हिंसा के बल पर आप अधिक देर शासन नहीं कर सकते। सोवियत यूनियन को बिखरते समय नहीं लगा था इसलिए माकपा को सावधान हो जाना चाहिए। आम लोगों के साथ उसका रिश्ता टूट गया है। बुध्ददेव को यह भी याद रखना चाहिए कि उनके लोग बिल्कुल माफ नहीं करते। सिध्दार्थ शंकर रे के बाद पूरे तीस वर्ष हो गए, कांग्रेस के उन्होंने अभी तक पैर नहीं जमने दिए इसी में मिनी-तानाशाहों के लिए संदेश छिपा है।

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