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Tuesday, 9 September 2008

मार्क्सवादी चले मजहब की राह

लेखक- एम.जे.अकबर

प. बंगाल में अपने हाथ से छिटके मुस्लिम मतों को पुन: कब्जे में करने के प्रयास में मार्क्सवादी अब लीक से हट रहे हैं। वे अब भारतीय मतदाता की प्राथमिक पहचान रहे 'वर्गवाद' को छोड़कर 'मजहब' की ओर बढ़ गए हैं। उनका ये कदम भले ही उन्हें थोड़ा कम मार्क्सवादी बना दे लेकिन इस प्रयास में वे भारतीय हो जाएंगे, इसमें कोई संदेह नहीं है।

तीन साल पहले प.बंगाल में वाममोर्चे की सत्ता में वापसी के पीछे मुस्लिम वोटों का जबरदस्त हाथ रहा था। प. बंगाल में मुसलमानों की 28 प्रतिशत आबादी है। जो किसी अन्य राज्य की तुलना में सबसे अधिक है। मुसलमान वैसे भी बड़ी संख्या में मतदान करते हैं, पर यहां तो मुसलमानों का मतदान और भी ज्यादा रहता है। अब यदि मुसलमान बड़ी संख्या में मार्क्सवादियों का साथ छोड़ देते हैं तो वाममोर्चे की अगले लोकसभा चुनावों में 20 सीटें कम हो सकती हैं और यदि यही स्थिति बनी रही तो माकपा की पिछले तीन दशकों से राज्य में जमीजमाई सत्ता खत्म भी हो सकती है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण पिछली गर्मियों में हुए पंचायत चुनाव हैं जिसमें ग्रामीण मुस्लिम मतदाता बड़ी संख्या में ममता बनर्जी की ओर मुड़े। विशेष रूप से दक्षिण बंगाल में यह रुझान देखने को मिला जहां सारी भय- बाधाएं टूटती दिखीं।

मार्क्सवादी बंगाल में अपने किले की ढहती दीवारों की मरम्मत में जुटे हैं लेकिन अब सीमेंट का रंग पूरे तौर पर लाल नहीं है। इसमें हरे रंग का पुट भी दिख रहा है। जार्ज बुश, सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह के बीच हुए प्रभावी गठबंधन ने भी उन्हें एक अवसर प्रदान किया है। वामदलों ने अमरीकी साम्राज्यवाद के विरुध्द अधिकांशत: मुस्लिम संगठनों द्वारा आयोजित होने वाले सम्मेलनों में शिरकत शुरू कर दी है। ये मौका उन्हें हमारे प्रधानमंत्री की बदौलत ही मिला है। जो सार्वजनिक रूप से मार्क्सवादियों की गुलामी से छुटकारे का जश्न मना रहे हैं। प्रकाश करात की जगह उन्हें बुश ज्यादा अच्छे सहयोगी मिल गए। मार्क्सवादियों को मुसलमानों से नजदीकी बढ़ाने का भला इससे बढ़िया मौका और कब मिल सकता था।

परम्परागत मार्क्सवादी विश्लेषणके अनुसार 'वर्ग' मजहब से अधिक महत्व रखता है। रोटी का कोई मजहब नहीं होता। सम्मान गरीब का अधिकार है। यह बंगाल जैसे जटिल राज्य में चुनावी ध्रुवीकरण का सशक्त आधार रहा है। चूंकि वाममोर्चे ने राज्य में साम्प्रदायिक सद्भाव बनाये रखा है इसलिए शायद लोग भूल गये हैं कि वास्तव में बंगाल कितना संवेदनशील राज्य रहा है और हो सकता है। पंजाब की तरह ही बंगाल भी विभाजन की आंच में झुलस चुका सीमान्त प्रदेश है। इस राज्य में भी बड़ी संख्या में ऐसे शरणार्थी आये जिनके साथ निर्वासन की बड़ी दर्दभरी दास्तां जुड़ी है। ये पलायन, अगर आप पंजाब से तुलना करें तो 'अपर्याप्त' था जहां जनसंख्या की पूर्ण अदलाबदली हुई। मालेरकोटला जरूर अपवाद था।

लेकिन बंगाल में माकपा की 'छत्रछाया' मुसलमानों की सुरक्षा तक ही रुक गयी। मुसलमानों को नौकरी, अन्य मूलभूत सुविधाएं जैसे स्कूल तथा गांवों में स्वास्थ्य सुविधाएं देनी हैं, ये माकपा भूल गयी। उन्होंने सोचा मुसलमानों के स्थायी वोट लेने के लिए उन्हें सिर्फ सुरक्षा देना ही पर्याप्त है।

यही 'उदार पंथनिरपेक्षता' की नीति थी कि शांति बनाये रखो और मुसलमानों को सुरक्षित रहने दो। इस नीति को विभाजन के बाद की पीढ़ियों ने चुनौती दी। नई पीढ़ी के मुसलमानों ने जान लिया कि भारतीय नागरिक होने के नाते सुरक्षा पाना उनका संवैधानिक अधिकार है और इसे कोई उनसे छीन नहीं सकता। इस प्रकार उन्होंने इसे विशेष सुविधा मानने से इनकार कर दिया। अब वे क्रुध्द हैं क्योंकि उनका मानना है कि उनके साथ बड़ी बारीकी से आर्थिक साम्प्रदायिकता के रूप में भेदभाव किया गया। बंगाल में मुसलमान यह महसूस कर रहे हैं कि उन्हें उस पार्टी ने धोखा दिया जिस पर उन्होंने बिना किसी सुविधा के सर्वाधिक विश्वास किया।

सच्चर कमेटी से पता चला कि बंगाल में मुसलमानों को गुजरात जैसे राज्य से भी कम संरक्षण और सुविधाएं मिली हैं। ये तुलना, जिसे आसानी से समझा जा सकता है, बहुत ही उत्तेजनात्मक है। न्यायमूर्ति राजिन्द्रर सच्चर को बीजेपी का आदमी कहकर तो खारिज नहीं किया जा सकता। इस रिपोर्ट के प्रहार ने माकपा के किले की चूलें हिला दी हैं और यह सिंगूर व नंदीग्राम के मुस्लिम मजदूरों-किसानों के उस क्रोध से कम प्रहारक नहीं है जो उनकी भूमि रक्षा आन्दोलन के वक्त दिखाई पड़ा।
वस्तुत: ये सच्चाई तब सामने आयी जब सच्चर कमेटी की रिपोर्ट प्रकाशित हुई, जिसका वाममोर्चा ने प्रारंभ में स्वागत किया। सच्चर कमेटी से पता चला कि बंगाल में मुसलमानों को गुजरात जैसे राज्य से भी कम संरक्षण और सुविधाएं मिली हैं। ये तुलना, जिसे आसानी से समझा जा सकता है, बहुत ही उत्तेजनात्मक है। न्यायमूर्ति राजिन्द्रर सच्चर को बीजेपी का आदमी कहकर तो खारिज नहीं किया जा सकता। इस रिपोर्ट के प्रहार ने माकपा के किले की चूलें हिला दी हैं और यह सिंगूर व नंदीग्राम के मुस्लिम मजदूरों-किसानों के उस क्रोध से कम प्रहारक नहीं है जो उनकी भूमि रक्षा आन्दोलन के वक्त दिखाई पड़ा। इस मनोवैज्ञानिक दु:ख के क्षण में ममता बनर्जी का प्रादुर्भाव हुआ। कभी-कभी एक घटना व्यापक सोच का प्रतीक बन जाती है। बंगाल के शहरी मुसलमान, जो अधिकांशत: बिहारी हैं, उन्हें बुध्ददेव प्रशासन द्वारा रिजवान के मामले में दिखाये गये असंवेदनशील व्यवहार से भी काफी धक्का लगा है। इस घटना के विरोध में मजहब के संकुचित दायरे से बाहर निकलकर लोगों ने विरोध किया। लोगों का मानना था कि रिजवान की हत्या हुई तथा पुलिस ने घूस लेकर मामले को रफा-दफा किया। मुख्यमंत्री ने खुद ही ऐसे संकेत दिये कि वह जनता की बजाय पुलिस के साथ हैं। रिजवान, सच्चर और नंदीग्राम के बीच माकपा अपूर्व संकट में पड़ गयी है। इस संकट के कारण कुछ बेमेल साथियों के साथ अस्थायी गठजोड़ की संभावना भी बनती है। मुस्लिम समुदाय को खुद से दूर जाता देख वाममोर्चा चिंतित है, वे मुसलमान जिनका उन्होंने घोर तिरस्कार किया। क्या ये परिवर्तन बहुत देर से है? किंतु मूर्छित मार्क्सवादियों की पुन: ताकतवर हो जाने की शक्ति को कम करके नहीं आंकना चाहिए। लेकिन इतना तो निश्चित है कि वामपंथ अपने ही किले में रक्तरंजित हो गया है। (इंडियन एक्सप्रेस व पांचजन्‍य से साभार)

2 comments:

अनुनाद सिंह said...

आश्चर्य है अकबर को भारतीय मार्क्सवाद इतना देर से समझ में आया।

Anonymous said...

कोई दूध के धुले तो नहीं हैं मार्क्सवादी। चुनावी अखाड़े के एक पहलवान हैं आखिर।