वर्ष 2007 के अन्त में सत्ता के गलियारों में जिन मुद्दों ने खासी हलचल मचाई उनमे बांग्लादेशी लेखिका तसलीमा नसरीन को लेकर उठा विवाद खासा अहम रहा। उपरी तौर पर भले ही यह मामला शांत लग रहा हो मगर हकीकत में यह शांति क्षणिक है। बंगाल के मार्क्सवादियों ने तसलीमा को लेकर जो चिंगारी भड़काई है वह किसी भी वक्त भङक सकती है। इसी बात को लेकर केन्द्र की सत्ता पर काबिज कुछ कथित धर्मनिरपेक्ष विचारधारा वाले नेता बहुत अधिक चिंतित हैं।
अपने देश से निकाले जाने के बाद तसलीमा ने यह सोच कर भारत में शरण लेने का फैसला किया था कि कम से कम यहाँ उनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कायम रह सकेगी। कोलकाता आकर उन्होंने समझा कि उन्हें उनका घर मिल गया। दुनिया भर के साहित्य-संस्कृति प्रेमियों के लिए कोलकाता हमेशा से आकर्षण का केन्द्र रहा है। इस शहर में आज भी वैसी बहुत सी चीजें विद्यमान हैं जो यहाँ आने वालों को अपनी जङों की ओर मुङने की प्रेरणा देती हैं। मुक्त चिंतन और बेबाक अभिव्यक्ति यहाँ की प्रमुख विशेषता रही है। इस शहर की सांस्कृतिक विशेषताओं को उदाहरण देकर समझाना बहुत कठिन है। लेकिन तसलीमा के शहर में आने के बाद से ये विशेष ताएँ धूमिल होने लगी। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि वर्तमान दौर में राजनीति संस्कृति से ज्यादा ताकतवर है। कोलकाता में तसलीमा भी कुत्सित राजनीति की शिकार हुई।
प. बंगाल में पिछले तीस वर्षों से सत्ता का नेतृत्व कर रहे मार्क्सवादियों को जब ऐसा लगा कि नन्दीग्राम और सिंगूर मामलों के कारण उनकी जागीर छिन सकती है, तो उन्होंने एक ऐसे मुद्दे की तलाश शुरु की जो लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर सके ताकि, नन्दीग्राम में पार्टी कैडरों द्वारा चलाया जा रहा खूनी अभियान किसी की नजर में न आ सके। इसके लिए उस वक्त तसलीमा से बेहतर कोई मुद्दा नहीं था। सुनियोजित तरीके से यह मुद्दा भड़का और ऐसा भड़का कि उसे संभालने में सबसे ज्यादा तकलीफ भड़काने वालों को ही हुई। विगत 21 नवंबर को तसलीमा को लेकर कोलकाता में जो कुछ हुआ उसे देख कर देश-विदेश के वे बुध्दिजीवी अचम्भित थे जो कोलकाता की खूबियों को जानते हैं। सिर्फ भारत ही नहीं, दुनिया भर में कोलकाता को मुक्तचिंतन की सरजमीं माना जाता है। उस घटना के बाद जिस प्रकार प. बंगाल सरकार ने तसलीमा को कोलकाता छोङने के लिए विवश किया वह मुक्तचिंतन और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रति माक्र्सवादियों की कुण्ठा को उजागर करता है। एक कपङे में कोलकाता से जयपुर पहुँची तसलीमा को इस बात से भी अन्जान रखा गया कि उन्हें कहाँ ले जाया जा रहा है और यह सब हुआ मुट्ठी भर धर्मांन्धों की उच्छृंखलता के कारण। तसलीमा को लेकर अचानक कोलकाता में ऐसी परिस्थिति का सृजन किया गया जिसे नियंत्रित करने के लिए सेना बुलानी पङी और कई इलाकों में कर्फ्यू लगाने पङे। आनन-फानन में राज्य सरकार ने तसलीमा को सुरक्षा देने में असमर्थता प्रकट कर दी और तसलीमा को शहर छोङना पङा। कोलकाता से जयपुर और फिर वहाँ से दिल्ली का अज्ञातवास। इतनी खींचतान से परेशान तसलीमा ने बाद में अपनी लेखनी पर खेद प्रकट किया। कई लोगों ने कहा - तसलीमा हार चुकी हैं। लेकिन सही मायनो में इस पूरे प्रकरण से पराजय तसलीमा की नहीं हुई बल्कि पराजित हुई प. बंगाल की मार्क्सवादी सरकार। जो सरकार एक शरणार्थी को सुरक्षा देने में नाकामयाब रही हो उसे पराजित ही माना जाएगा। लेकिन राज्य सरकार को अपनी पराजय का अहसास तक नहीं है। यहाँ के माक्र्सवादी तसलीमा को कोलकाता से बाहर कर इस खुशफहमी के शिकार हैं कि इससे उनका मुसलमान वोट बैंक जो नन्दीग्राम के कारण खिसक चुका था कुछ हद तक मजबूत होगा। लेकिन वे इस बात से बेखबर हैं कि तसलीमा को कोलकाता से बाहर करने की जल्दबाजी में उन्होंने जो कदम उठाए उनसे सरकार की छवि को कितना नुकसान पहुँचा है।
तसलीमा को मीडिया और उनके आलोचकों ने विवादास्पद लेखिका का खिताब दिया है। वे विवादास्पद क्यों है? सिर्फ इसलिए कि इस्लाम को लेकर उनकी सोच औरों से अलग है। लेकिन इस बात से सभी सहमत होंगे कि किसी भी विषय-वस्तु को देखने, समझने और उसका विश्लेषण करने का हर आदमी का तरीका अलग-अलग होता है। तसलीमा नसरीन एक ऐसी लेखिका हैं जिन्होंने अपनी लेखनी में उन मुद्दों को मुक्तचिंतन से जोङने की कोशिश की है जिन पर उन्हें विशेषज्ञता हासिल है। किसी भी मुद्दे पर दुनिया के हर आदमी की राय एक जैसी नहीं हो सकती, लेकिन सभी को अपनी राय जाहिर करने का हक तो है। यदि तसलीमा को भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हासिल है तो उन्हें विवादास्पद कहा जाना कहाँ तक उचित है? कोई लेखक क्या लिख रहा है इससे ज्यादा महत्वपूर्ण यह देखना है कि उसकी लेखनी में कलात्मक अनुशासन है या नहीं। तसलीमा ने अपनी लेखनी में कम से कम इस अनुशासन का पालन जरूर किया है। कला जगत की जानी-मानी हस्ती चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन ने तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आङ में कलात्मक अनुशासन की सारी हदें तोङ दी थी। इसके बावजूद उन्हें कभी विवादास्पद चित्रकार नहीं कहा गया।
शायद माकपा नेता अभी भी इस गलतफहमी में हैं कि जनता को झूठ का आईना दिखाकर सच पर पर्दा डाला जा सकता है। वे जनता को भ्रमित करने की रणनीति पर लगातार काम कर रहे हैं। तसलीमा प्रकरण भी उनकी इसी रणनीति का एक हिस्सा था। लेकिन इस कोशिश में उनकी अपनी कमजोरिया ही उजागर हुई। सरकार के लिए इससे बङी विफलता और क्या होगी कि वह कुछ सौ लोगों की धमकियों से डर गई। तसलीमा को बांग्लादेश में भी इस तरह की धमकियों का सामना करना पङा था। लेकिन वे भयभीत नहीं हुई। भयभीत हुई वहाँ की सरकार, और अब प. बंगाल की मार्क्सवादी सरकार। इस सरकार ने आतातायियों की भीड़ के समक्ष आत्मसमर्पण कर खुद अपनी औकात दिखा दी। बेसहारों को सहारा देने का दम भरने वाले मार्क्सवादियों के लिए यह बड़े शर्म का विषय है।
संतोष कुमार मधुप (नवोत्थान लेख सेवा हिन्दुस्थान समाचार)
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