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Monday 22 October, 2007

पश्चिम बंगाल के राशन दंगे क्या कह रहे हैं?

-दीनानाथ मिश्र

राशन के लिए दंगे-फसाद की खबरें 60 के दशक के बाद मैंने कभी नहीं सुनी। लेकिन आज पश्चिम बंगाल के बांकुड़ा, वीरभूमि, चौबीस परगना, बर्धवान, मुर्शिदाबाद, हुगली और नादिया जिलों से राशन के लिए हो रहे दंगों की खबर आ रही हैं। पश्चिम बंगाल में अकाल के प्रकोप का एक लम्बा इतिहास रहा है। ब्रिटिश राज के दौरान 1943 में भयानक अकाल पड़ा था। ब्रिटिश राज में आम जनता की उपेक्षा, अनाज का मनमाना भण्डारण, और जमाखोरों के कारण ऐसा दुर्भिक्ष पड़ा था, जिसमें तीस लाख से ज्यादा लोग मारे गए थे। विश्व विख्यात फिल्म निर्माता सत्यजीत रे ने दुर्भिक्ष पर एक फिल्म बनाई थी। इसके कारण बंगाल के जनमानस ने उस अकाल की तस्वीर गहराई से बैठ गई है। उसके बाद साठ के दशक में राशन के संकट ने फिर एक बार दस्तक दी थी। और सच तो यह है कि उसी अभाव का राजनैतिक शोषण करके माक्र्सवादी पार्टी का मोर्चा सत्ता में आया। लेकिन पार्टी ने अगले कुछ दशकों में इस दिशा में हुई प्रगति का जबरदस्त ढोल देश भर में पीटा। राज्य में भूमि सुधार कानून को विशाल पैमाने पर लागू करने का दावा किया। ग्रामीण बंगाल की खुशहाली के बहुत से तराने गाए गए।

पार्टी का राज्य में तीस वर्षों से ज्यादा समय से अखण्ड राज चल रहा है। लेकिन इस दौरान औद्योगिक और कृषि क्षेत्र में प्रगति की बजाए अवनति हुई। मार्क्सवादी पार्टी का शासन कैसा है? आज 2007 में राशन के लिए हो रहे दंगे फसादों ने मार्क्सवादी पार्टी के शासन की पोल खोलकर रख दी है। गरीबी एवं भुखमरी के नाम पर सत्ता में आई मार्क्सवादी पार्टी के दीर्घकालीन शासन के बावजूद आज क्या हालत है? भूखे लोग राशन की दुकानों पर हमला कर रहे हैं। और विचित्र बात यह है कि पश्चिम बंगाल में कोई बीस हजार सार्वजनिक वितरण प्रणाली की दुकाने हैं। उनमें से बहुत बड़ी संख्या माक्र्सवादी पार्टी के कार्डधारी सदस्यों को आवंटित है। सच तो यह है कि ये दुकाने उनको ही दी गई हैं जो या तो कार्डधारक हों, या पार्टी के सक्रिय समर्थक हों। गरीबी रेखा के नीचे के लोगों को सस्ते अनाज देने के लिए जारी किए गए कार्ड के अलावा गरीबी रेखा के ऊपर के गरीब लोगों को भी दूसरे कार्ड दिए गए हैं।

कार्ड है लेकिन राशन की दुकान से राशन नहीं मिलता। केन्द्र की तरफ से मिलने वाला सस्ता अनाज खुले बाजार में दुगुने भाव में बिक जाता है। कार्डधारियों को परिवार के सदस्यों की संख्या के अनुसार गेहूं, चावल और चीनी के वितरण की व्यवस्था है। लेकिन यह व्यवस्था बहुत कम काम कर पा रही है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली भ्रष्टाचार में आकंठ डूबा है। गांव में राशन की दुकान वाले लोग समृध्द होते चले जा रहे हैं। वह बड़े-बड़े मकानों में रहते हैं। गांवों में एक नया धनाढय तबका तैयार हो गया। उनका धन बोलता है।

दक्षिण बंगाल राशन डीलर्स एसोसिएशन के निर्मल सरकार ने आरोप लगाया कि ''स्थानीय नेताओं, पंचायत अधिकारियों आदि को नियमित रूप से हफ्ता देना पड़ता है। हम लोगों के पास कोई रास्ता नहीं होता सिवाय इसके कि राशन के अनाज को खुले बाजार में बेच दें।'' दिल्ली उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की गई है। जिसमें पश्चिम बंगाल और कुछ अन्य राज्यों में गरीबों के नाम आने वाले 30 हजार करोड़ रुपए के गेहूं और चावल को खुले बाजार में दुगुने दाम पर बेच देने का अभियोग लगाया गया है।

अब तक राशन के दंगों में करीब आधा दर्जन लोगों की मौत हो चुकी है। कई हजार लोग घायल हो चुके हैं। पुलिस गोलाबारी से भी कुछ मौतें हुई हैं। राशन की दुकानों के संगठन के प्रवक्ता भी दबी जुबान से यह स्वीकार करते हैं कि उनके बीच कुछ काली भेंडें हैं जो सरकारी राशन का भण्डार खुले बाजार में बेच डालते हैं। स्थिति का अंदाज कुछ इस तरह लगाया जा सकता है कि अनेक स्थानों पर राशन दुकानों के मालिकों पर हमला किया जाता है। डीलरों के बुलावे पर कहीं पुलिस आती है कहीं पर नहीं आती है।

राशन दंगों की शुरूआत 16 सितम्बर से ही हो गई थी। भीड़ ने बांकुड़ा में माक्र्सवादी पार्टी की रैली पर हमला किया। कारण सार्वजनिक वितरण व्यवस्था की बदहाली ही था। 17 सितम्बर को बांकुड़ा में भीड़ अचानक एकत्र हुई और राशन डीलर पर हमला किया। 22 सितम्बर को राशन दंगे बांकुड़ा से वीरभूमि पहुंचे। 25 सितम्बर को राज्य सरकार ने 38 डीलरों को निलंबित कर दिया। बाद में निलंबित डीलरों की संख्या 117 हो गई। बांकुड़ा में ही एक डीलर ने आत्महत्या कर ली। बर्धवान जिले में राशन दंगे फैलते गए। कई अन्य डीलरों ने आत्महत्या की। एक माक्र्सवादी विधायक को भीड़ ने पीट दिया। पुलिसवालों के मकानों में आग लगा दी गई। राशन दंगों का व्याप्त एक एक करके कई जिलों में फैल गया।

स्थिति की भयानकता देखते हुए राज्य सरकार ने केन्द्र के सिर पर ठीकरा फोड़ते हुए कहा कि केन्द्र सरकार ने राज्य सरकार को अनाज के कोटे में पिछले महीनों में दो बार कमी कर दी। इस दावे के विपरीत केन्द्रीय खाद्यमंत्री शरद पवार ने आंकड़ों के जरिए यह साबित करने की कोशिश की कि न तो खाद्यान्न की कमी है और न ही कोटे में कमी की गई है। बदइंतजामी और भ्रष्टाचार प्रदेश के वितरण तंत्र में भयानक रूप से पेवस्त हो चुका है। केन्द्र ने यह भी संकेत दिया है कि पश्चिम बंगाल से अनाज की तस्करी बांग्लादेश की तरफ हो रही है। इसके जवाब में राज्य सरकार ने कहा है कि सीमा पर बीएसएफ तैनात है और उन्होंने इस तस्करी की जानकारी राज्य सरकार को नहीं दी।

आरोप प्रत्यारोप का यह सिलसिला मार्क्सवादी पार्टी और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकारों के बीच चल रहा है। और उधर राशन दंगों का सिलसिला पिछले चार हफ्तों से लगातार चल रहा है। कभी एक जगह दंगा भड़क जाता है तो कभी दूसरी जगह। पूछा जा सकता है कि क्या मार्क्सवादी सरकार ने केन्द्रीय खाद्य मंत्रालय से पश्चिम बंगाल को कोटा बढ़ाने की मांग की? जवाब मिलेगा 'नहीं'। आबंटित गेहूं और चावल के बारे में प्राय: यह देखा गया है कि जितना आबंटन होता है राज्य सरकार उतना भी कोटा नहीं उठा पाती। ऐसी दिशा में कोटा बढ़ाने की मांग वह कर ही नहीं सकते थे। यह सही है कि संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार ने कृषि और खाद्य व्यवस्था पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया। खाद्य मंत्री शरद पवार अपने क्रिकेट प्रेम के लिए जाने जाते हैं। वह महाराष्ट्र की राजनीति को भी संचालित कर रहे हैं। ऐसे में मंत्रालय के काम को तरजीह न मिले तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

याद कीजिए राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के शासन को। खाद्यान्न के मामले में कभी कोताही नहीं हुई। अनाज के भण्डार हमेशा भरे पूरे रहे। समस्या अनाज की कमी की नहीं, अनाज की विपुलता की रही। यही कारण था कि अनाज का निर्यात कई वर्षों तक करना पड़ा। आज हर दो महीने पर एक खबर आ जाती है कि भारत ने इतने लाख टन गेहूं अमेरिका से खरीदा या कहीं और से खरीदा। मंहगे भाव से गेहूं खरीदने की शिकायतें भी हैं। भारत जब गेहूं खरीदता है तो गेहूं के दाम चढ़ ही जाते हें। क्योंकि भारत विपुल मात्रा में खरीदता है। राशन के गेहूं और चावल को केन्द्रीय सरकार सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिए सहायता देकर कम दोमों में बेचती हैं। जैसे चावल 6 रूपए किलो। बाजार में इसी चावल को 13 रुपए किलो में ग्राहक खरीदते हैं। यह अंतर बहुत बड़ा है। आज राशन से सम्बंधित जो दंगे हो रहे हैं, उसमें एक कारण गरीबी और भुखमरी से जूझने वाली जनता का आक्रोश भी हैं। स्वाभाविक रूप से राज्य की माक्र्सवादी पार्टी और सरकार बहुत चिंतित है। इसलिए नहीं कि गरीबी और भुखमरी से जूझ रहे लोग हिंसक प्रदर्शन पर उतर आए हैं। बल्कि इसलिए कि पंचायत चुनाव होने वाले हैं। चिंता का विषय यह है कि राशन के इन दंगों का असर पार्टी के चुनावी विजय को दुष्प्रभावित कर सकता है। कभी पश्चिम बंगाल के माक्र्सवादी नेता राशन की दुकानों पर दंगों के लिए माओवादियों पर दोष मढ़ रहे हैं तो कभी जमात-ए-उल-हिंद पर और कभी ममता बनर्जी और तृणमूल कांग्रेस पर।

केन्द्र द्वारा जारी किया गया राशन का अनाज किस हद खुले बाजार में जाता है, इस सम्बंध में एक अध्ययन किया गया है। अध्ययन केन्द्रीय उपभोक्ता मंत्रालय ने कराया है। उसके मुताबिक सबसे अधिक दुरूपयोग उत्तर प्रदेश में और दूसरे नम्बर पर पश्चिम बंगाल में होता है। अध्ययन के मुताबिक जो अनाज गरीबों के लिए निर्धारित था वह खुले बाजार में चला गया। पिछले तीन वर्षों के आंकड़ों को मिलाकर अध्ययन का निष्कर्ष है कि राज्यों में 32,89,317 करोड़ रूपए का गेहूं और चावल खुले बाजार में बेच दिया गया। यह पिछले तीन वर्षों का समेकित आंकड़ा है। अध्ययन का एक निष्कर्ष यह है कि 53 प्रतिशत गेहूं और 39 प्रतिशत चावल राशन की दुकान की बजाए, बाजार का मुंह कर लेता है। उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल की ख्याति सबसे अधिक बदइंतजाम राज्यों के रूप में हुई हैं। राशन की दुकानों की लूटपाट भी होनी चालू हो गई। अनेक डीलरों ने मजबूरन डीलरशिप लौटा दी है। कई सौ डीलर हिंसक उत्पात के आतंक में कहीं न कहीं छिपे हुए हैं। नंदीग्राम और सिंगूर में कुछ महीने पहले जो हिंसक आक्रोश फूटा था, उसे पुलिस दमन करके मामले को निपटाया गया। छिटपुट घटनाएं हाल तक होती रही है। लेकिन राशन के दंगे उससे कहीं व्यापक हैं।

इस सारे घटना-क्रम में अनाज की मंहगाई का बड़ा भारी योगदान है। जो लोग गरीबी रेखा के ऊपर हैं, वह राशन का गेहूं और चावल नहीं उठाते थे। लेकिन अनाज जैसे-जैसे मंहगे होते गए, वैसे-वैसे वह भी राशन की दुकान पर पहुंच कर अपने हिस्से का अनाज लेने लगे। अचानक त्योहारों का मौसम आया तो यह संख्या बढ़ गई। उधर डीलर आबंटित गेहूं और चीनी नहीं उठाते थे क्योंकि कार्ड धारकों की मांग नहीं थी। अब मंहगाई के कारण मांग बढ़ी तो तुरंत राशन में बढ़ोतरी नहीं की जा सकी। अभाव इस तरह पैदा हुआ। कुल मिलाकर राशन दंगों के पीछे माक्र्सवादी शासन की चहुंमुखी विफलता ही रेखांकित होती है। हफ्ता देने की मजबूरी, राशन के गेहूं और चावल को खुले बाजार में बेचने की मजबूरी, मंहगाई के कारण राशन दुकानों की तरफ देखने की फिर से आम लोगों की मजबूरी, पार्टी तंत्र को मजबूत करने के लिए पार्टी तंत्र को सार्वजनिक वितरण प्रणाली में लगाने के कारण तंत्र खोखला और कमजोर हो गया। इधर सीमा सुरक्षा बाल की तैनाती के बावजूद अनाज और जानवरों की तस्करी का सिलसिला लगातार चल रहा है। जहां राशन दंगा माक्र्सवादी शासन के विदू्रप को उजागर करता है वहीं ये दंगे केन्द्रीय सरकार की विफलता को भी खोलकर रख देते हैं।

गरीबी और भुखमरी में आज भी भारत, चीन और यहां तक कि पाकिस्तान से भी आगे है। अन्तर्राष्ट्रीय खाद्य नीति शोध संस्थान ने भूख सूचकांक बनाया है। उसमें भारत का स्थान 94वें नम्बर पर है। असल में कृषि उत्पादन में भारत पिछड़ रहा है। कृषि उत्पादन दर में दूसरे क्षेत्रों के मुकाबले बहुत कम वृध्दि हो रही है। वैसे कहने को कहा जाता है कि भारत विश्व की दो सबसे तेज अर्थव्यवस्थाओं में से है। अन्य क्षेत्रों में होगा, कृषि में नहीं। विशेष रूप से पश्चिम बंगाल और आधा दर्जन अन्य राज्यों के कारण यह स्थिति बनी।

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