हितचिन्‍तक- लोकतंत्र एवं राष्‍ट्रवाद की रक्षा में। आपका हार्दिक अभिनन्‍दन है। राष्ट्रभक्ति का ज्वार न रुकता - आए जिस-जिस में हिम्मत हो

Friday 30 November, 2007

नंदीग्राम के मुद्दे पर संसद में श्री लालकृष्ण आडवाणी का ऐतिहासिक भाषण



गत 21 नवंबर को नंदीग्राम के मुद्दे पर लोकसभा में हुई बहस के दौरान वरिष्ठ भाजपा नेता व लोकसभा में विपक्ष के नेता श्री लालकृष्ण आडवाणी ने सारगर्भित भाषण दिया। प्रस्तुत है संपादित अंश :-

आज प्रात:काल जब मैंने अखबार खोला और देखा कि प्रधान मंत्री ने नन्दीग्राम के बारे में क्या कहा है, तो मुझे लगा कि मैं सबसे पहले उन्हें धन्यवाद देना चाहूंगा, उन्हें बधाई देना चाहूंगा कि विदेश जाते हुए उन्होंने वायुयान से इस प्रश्न के महत्व की ओर पूरे देश का और संसद का ध्यान आकृष्ट किया है। एक प्रकार से उनका यह वक्तव्य इस बात पर भी बल देता है कि इस प्रकार के प्रश्न पर संसद चर्चा करे, यह स्वाभाविक है और जरूरी है।

उन्होंने कहा है कि - “I sincerely hope that the State Government will be able to take necessary steps to restore confidence in the people through the effective deployment of security forces. I understand the spontaneous outpouring of grief and anguish over the issue as expressed by artists and intellectuals in Kolkata. I hope the State Government will take note of this.” मुख्य मंत्री ने एक रिस्पांस भी दिया है, चाहे पार्टी ने कोई और रिस्पांस दिया हो। यहां पर उसकी अभिव्यक्ति हो जायेगी कि जो पार्टी वहां पर शासन कर रही है, वह मुख्य मंत्री के रिस्पांस से संतुष्ट है या पार्टी के प्रवक्ता ने जो बात कही है, उससे संतुष्ट है। लेकिन आपने इस चर्चा के लिए जो गाइडलाइंस अपनी ओर से बताईं, मैं उनका पूरा पालन करने की कोशिश करूंगा।

मैं चाहूंगा कि इस चर्चा का उपयोग केवल एक-दूसरे पर मात्र प्रहार करने के लिए न हो, बल्कि इस प्रकार की स्थिति कहीं पर भी, कभी भी पैदा न हो, इसका क्या प्रबंधा किया जा सकता है, यह एक चिंता की बात है। मैं समझता हूं कि यह नन्दीग्राम में जाने पर सहज रूप से सबको लगे। यह एक साधारण बात नहीं है। वहां की घटना कोई अभी की घटना नहीं है, जो अक्टूबर, नवम्बर में हुई। यह घटना वहां कई महीनों से चल रही है। वहां पर जो भी कुछ घटनाक्रम हुआ है, उसकी शुरूआत वर्ष के आरम्भ में हुई थी और मैं स्वयं मार्च के महीने में वहां गया था और अबकी बार फिर से पिछले सप्ताह गया। दोनों बार की मेरी यात्रा में पूरे एन.डी.ए. की कई पार्टियों के मेरे साथी मेरे साथ गये थे। लेकिन इस बार एक बहुत बड़ा अंतर था कि जब मैं मार्च के महीने में वहां पर गया तो बहुत सारे लोग हमसे आकर मिलते थे, बातें करते थे और खुलकर बताते थे कि क्या हुआ, कैसे हुआ, कैसे हमारे ऊपर अत्याचार हुआ। इस बार एक आतंक का एक ऐसा वातावरण था कि अगर कोई आकर मिलता था तो उसे रोकने वाले उसके परिवार के ही लोग होते थे। मेरे साथ दूसरे सदन से सुशमा जी भी साथ गई थीं तो उनसे जब महिलाएं मिलती थीं और बलात्कार की चर्चा करती थीं तो एक महिला को उसके घर का लड़का उठाकर ले गया कि ऐसा क्यों करती हो?

अपना नाम मत बताना, किसी टी.वी. वाले को या किसी प्रैस वाले को अपना फोटो मत लेने देना। यह जो आतंक का वातावरण इस बार मैंने देखा, उसके कारण मुझे लगा कि इस बार का मामला बहुत गंभीर हो गया है। कैसे हुआ है, उसका थोड़ा सा उल्लेख मैं करूंगा। मैंने जैसा कहा कि मैं नहीं चाहता हूं कि यह केवल एक-दूसरे को दोष देने का एक प्रकरण बन जाए। यहां तक कि मैं अपने साथियों को भी कहूंगा। मुझे आकर वामपंथी पार्टी के कई लोग कहते हैं कि आप लेफ्ट मत कहिए। आप सीपीएम का नाम लीजिए। आप लेफ्ट मत कहिए। मुझे ऐसा कहने वाले इस लेफ्ट एलायंस के अलग-अलग पार्टियों के लोग हैं।

मैं इस बात पर आता हूं कि मैं जहां प्रधाान मंत्री जी के वक्तव्य का स्वागत करता हूं वहीं मैं इस बात का भी जिक्र करूंगा कि पहले दिन से लेकर यानी परसों का जो दिन था, सोमवार के दिन यहां सेन्ट्रल हॉल में श्रीमती इंदिरा गांधी के जन्मदिन के अवसर पर उन्हें पुष्प अर्पित करने के लिए हम सब लोग एकत्रित हुए थे और सदन के नेता से तब मेरी पहली बात हुई। मैंने कहा कि नंदीग्राम के संदर्भ में एनडीए ने तय किया है कि हम एक स्थगन प्रस्ताव देंगे जो कि हमने दिया और अध्यक्ष जी ने स्वयं कहा था कि स्थगन प्रस्ताव तो हो सकता है in respect of the failure of the Central Government, it cannot be in respect of the failure of a State Government. मैंने कहा कि सही बात है और उसकी ड्राफ्टिंग मैंने उसी हिसाब से करके अध्यक्ष जी को दिया था। मैं नहीं जानता हूं कि वह एडमिट होगा या नहीं होगा। उस पर सदन में कितने लोग समर्थन में खड़े होंगे कि नहीं होंगे। लेकिन मैंने अपने सहयोगी मल्होत्रा जी को यह भी कहा कि आप अध्यक्ष जी को यह भी बता दें कि हमारा कोई विधा पर आग्रह नहीं है। डिवाइस एडजर्नमेंट मोशन हो, इस पर आग्रह नहीं है। हमारा इस बात पर आग्रह है कि नंदीग्राम की चर्चा सदन में जरूर होनी चाहिए। वह चाहे किसी रूप में हो।

मुझे इस बात का संतोष है कि कल और परसों जो गतिरोधा उत्पन्न हुआ, वह गतिरोधा अब समाप्त हो गया है और इस विशय पर मैं चर्चा शुरु कर रहा हूं।

अधयक्ष महोदय, मैं ऑॅब्वियसली यह कहूंगा कि जो बात कही गई कि किसी सूरत में इस चर्चा के लिये नन्दीग्राम नाम नहीं आयेगा, तब मैंने कहा कि अगर किसी सूरत में नन्दीग्राम नाम नहीं आयेगा तो गतिरोधा किसी सूरत में समाप्त नहीं होगा। मुझे खुशी है कि नन्दीग्राम का नाम इसमें आया है, चाहे जिस ढंग से आया हो। would have liked it to be different. We are not discussing only SEZs. What has happened in Nandigram goes far beyond the issue or different view points on the question of SEZ. हम लोग SEZs पर डिसकशन कर चुके हैं लेकिन पार्लियामेंट में डिसकस हो, इसलिये कोई न कोई ऐसा पहलू हो चाहे सीआरपीएफ लायें, चाहे SEZs लाया जाये या कोशिश यह हुई कि नन्दीग्राम का उल्लेख किये बिना, चाहे देशभर में नक्सलवाद की समस्या हो, देश में फार्मर्स की समस्या हो, तब मैने कहा कि अगर ऐसा करना हो तो गतिरोधा समाप्त करने का यह कोई तरीका नहीं है। मुझे इसलिये खुशी है कि जिस-जिस ने इस ड्राफ्ट को बनाने में योगदान दिया, मैं उन सब के प्रति अपना आभार प्रकट करता हूं।

अगर इस सदन में नन्दीग्राम पर चर्चा नहीं होती तो न केवल नन्दीग्राम में, न केवल पश्चिमी बंगाल में लेकिन देश के बहुत सारे भागों में बहुत लोगों में यह भावना होती कि नन्दीग्राम जैसा बड़ा कांड हो और संसद में उस पर चर्चा न हो। They do not understand the rules. But the fact is that if this discussion had not taken place, it would have lowered the Parliament in the esteem of the people of the country. इसलिये संसद के सम्मान के लिये आवश्यक है कि यदि इस प्रकार की घटनायें कहीं भी हो, उन पर चर्चा जरूर होनी चाहिये और उस पर खुलकर चर्चा होनी चाहिये। यह कोई न कहे कि NANDIGRAM शब्द उस में नहीं होगा और यहां कहा गया कि अगर यह शब्द होगा तो हम मोशन स्वीकार नहीं करेंगे।

मैं इतना कहूंगा कि यह सदन सत्य तक पहुंचना चाहेगा और हमारे यहां सत्य को 'शिव' कहते हैं। और शिव तक पहुंचने के लिये नन्दी को पार करना ही पड़ता है।

चाहे अयोधया की समस्या हो, चाहे गोधारा की समस्या हो, चाहे गुजरात के दंगे हों, यहां सदन से ऑल पार्टी डेलीगेशन भेजे गये हैं। 1984 के दंगों में वहां जाने की जरूरत नहीं पड़ी लेकिन इन तीन स्थानों के लिये ऑल पार्टी डेलीगेशन गये थे। इसलिये मेरा सुझाव होगा जो आखिर में रिपीट करूंगा कि इस बार नन्दीग्राम के बारे में पूरी सच्चाई जानने के लिये एक ऑल पार्टी डेलीगेशन जाना चाहिये।

जब वहां पर गए तो वहां पर एक हायर सैकेन्ड्री स्कूल है जिसको रिफ्यूजी कैम्प में कनवर्ट कर दिया गया था। गांव बिल्कुल सुनसान थे। They were deserted. Some elderly people were living there. उनसे मिलकर जितना उनसे पता लगता था, वे बताते थे। वे कहते थे कि लोग डर के मारे भाग गए हैं और बहुत सारे हमारे लोग नन्दीग्राम टाउन में रिफ्यूजी कैम्प में हैं। वहां रिफ्यूजी कैम्प में हम गए। वहां सबसे पहले लोगों ने देखा कि संसद के सदस्य आए हैं तो भागकर कई महिलाएँ एक साथ आईं, आठ-दस होंगी, पैर पकड़कर रोने लगीं कि हमें तो खाली इतना पता लगे कि हमारे पति जीवित हैं या नहीं। हम खाली यह जानना चाहते हैं कि हमारे पति जीवित हैं या नहीं। It was such a spectacle that I felt literally miserable.… (Interruptions)

मैंने कहा कि मैं आया हूँ। फिर उन्होंने उसी समय एक इंप्रॉम्प्टू सा मंच लगाकर कहा कि आप बोलिए। कोई माइक्रोफोन ले आए। मैं उस पर बोला। It became the public meeting. But it was there that I promised them that with these happenings, I can tell them that I have come on behalf, as a Member of Parliament along with my other colleagues. We are certainly going to raise this matter in Parliament and talk about it; and through Parliament, tell the State Government that it is their duty to ensure that these queries whether their husband is alive or not, is he there or not, these should be properly tackled and answered. It happens that in the meanwhile, other things have happened. मैं आज इस बात को स्वीकार करूंगा कि साधारणत: इस संसद में कोई राज्य के मामले डिसकस नहीं होते। अगर कोई साधारण लॉ एंड ऑर्डर का राज्य का मामला माना जाए तो फिर डिसकसषन जस्टिफाइड नहीं है। लेकिन क्यों जस्टिफाइड हुआ, मैं इसका ज़िक्र करना चाहूंगा जिसके कारण प्रधान मंत्री को भी कहना पड़ा कि संसद में चर्चा होनी चाहिए। उसमें ज़िक्र है, मैंने क्वोट नहीं किया। लेकिन पहले जब मैंने गवर्नर का स्टेटमैंट देखा तो मैं तो चकित हो गया।

According to Shri Ashok Mitra, when he consented to become the Governor, he wanted that the leadership of the CPI(M) should be prepared to have him. He has now become the enemy. This is the word that has been used… (Interruptions)

Sir, there are three statements from various dignitary ies. One is, of course, the Governor’s statement. I am not quoting him. He said that the happenings in Nandigram are totally unlawful and unacceptable. Then, the second one is the judgment of the High Court of Kolkata, which goes on to say that the firing took place on 14th March – this judgment has come last week – is unconstitutional and unjustified. What it has said in the body of the judgment, I do not want to quote. The third statement is this. When the CRPF has been invited to help in Nandigram, it was said that हमारी जवाबदारी पूरी हो जाएगी, वे नंदीग्राम संभाल लेंगे। According to the CPI(M) there, it was the Maoists who are indulging in violence, though the Home Secretary of West Bengal came out with a statement that there is no Maoist, there is no Maoist literally there. … (Interruptions)

Sir, the DIG of the CRPF says that he has been given one week now. Sir, he has publicly said: “I have been called here; I have been invited here; I have been asked to deal with the situation in the Nandigram, whereas I am getting no cooperation from the State Government, from the State Police Authorities”.… (Interruptions)
Sir, if I were to quote, he said: “I asked the SP two days ago to provide me a list of wanted criminals, but I did not get it. I do not know why he is doing it. I have worked as an SP, and I have never seen such a behaviour.” These are the words of the CRPF officer... (Interruptions)

हाईकोर्ट इसे अनकाँस्टीटयुशनल कहता हैए गवर्नर जिसे टोटली अनलॉफुल कहता है और सी.आर.पी.एफ, जिसे स्टेट गवर्नमेंट ने रिक्वैस्ट कर के केन्द्रीय होम मिनिस्ट्री से मंगवायाए उस सी.आर.पी.एफ. का हैड कहता है कि यहां पर मुझे कोई कोआपरेशन नहीं मिलता। क्या यह गम्भीर स्थिति नहीं हैए जिस पर संसद को विचार करना चाहिए? Sir, I visited Nandigram, and many of the Press people, Media people accompanying me said that ‘this is the first time that we have been allowed to go to Nandigram. Otherwise, it was out of bounds for us.’ I was surprised to hear that ‘this is because Advani has friendship with the Chief Minister.’ This kind of a comment coming from the Ruling party surprised me. I did not expect this because I have had and I have tried, as the Home Minister, to maintain good relations with all the Chief Ministers in the country including many in the Congress party. That does not matter anything. I have good relations with them. Even now, I have good relations with him also. And, I was happy to find that his response to the Prime Minister’s comment on Nandigram was different from the party’s response. He said: “I appreciate what the Prime Minister has said.”

So, these are matters about which I have only this to say that the CPI(M) must look back at the entire Nandigram episode. How it happened? When you try to convert the party into a substitute for Government, then things go out of hand. I remember, when I first visited Nandigram, the same thing was again and again mentioned that it is his people who wore police uniforms. I do not know.
An MP’s name was mentioned. It was said – ‘It is they who fired on us while we were doing Puja. The Muslim ladies there were reciting Quran’ At that time, firing took place on them and they said that they were not policemen really, they were party men, party cadres in police uniform. … (Interruptions)
Sir, the High Court says in its operative part : “The action of the police department to open fire at Nandigram on 14th March, 2007 was wholly unconstitutional and can not be justified under any provision of the law”.

Now, a statement of this kind, the statement given by the Governor of West Bengal and lastly the statement made by the DIG, CRPF are there. I said to the Governor when I met him along with my colleagues that : “Is this not sufficient reason why you should send a formal report to the Central Government as to what has happened in Nandigram. You have your inputs on the basis of which you have yourself said.” In fact, this is not the first time that he said it. He said it for the first time in March itself, that “I have a feeling of cold horror”. These are the words that he used on visiting Nandigram, a feeling of ‘cold horror’.

He said : “This time, the Diwali all over the State has been dampened because of Nandigram incidents”. I said : “You owe it to the Central Government and to the country to send a detailed report to the Central Government as to what are your inputs which have made you to make this public statement and on the basis of that you can recommend that in this situation, the Constitution empowers the Central Government to issue directions to the State Government under Article 355 and if those directions are not followed to correct the situation in Nandigram, then the Central Government is fully justified in invoking Article 356”. … (Interruptions)

Sir, this was something that I said to the Governor which I am repeating here in Parliament. The hon. Minister of Home Affairs is here. I would like to urge him to consider this that the situation should be improved. What is happening there? The Governor said ‘I am in touch with the Central Government.’ … (Interruptions)

अधयक्ष महोदय, जहां के चीफ मिनिस्टर कहते हैं कि “We have paid them back in their own coin.” आप इतिहास देखिए, जब मैं पार्लियामेन्ट में पहली बार आया था, तब मार्क्सिस्ट मुझे कहते थे कि आज हमारा यूरोप पर साम्राज्य है और एक समय आएगा जब जिस प्रकार से ब्रिटिश साम्राज्य का सूर्यास्त नहीं होता। कम्युनिस्ट साम्राज्य भी ऐसा होगा, जिस में कभी सूर्यास्त नहीं होगा। और देखिये, क्या-क्या हो गया। आज वह दुनिया भर से समाप्त हो गया।

सी.पी.एस.यू. की जो 20वीं कांग्रेस थी, जिसमें ख्रुश्चेव ने वह भाषण किया था, लाइव बस्टिंग हार्ड, याद करो कि कैसे सोवियत संघ में आपका साम्राज्य खत्म हुआ।

अधयक्ष जी, मैं इसी संसद में था और संसदीय शिष्टमंडल में ढिल्लों साहब हमारे स्पीकर थे, उनके नेतृत्व में मैं 1972 में चैकोस्लवाकिया गया था और चैकोस्लवाकिया में जिस प्रकार का एग्रेशन मास्को का हुआ था और डुबचैक का काण्ड हुआ था, उसके कारण वहां समाप्ति हो गई। हमारी हिस्ट्री में ये टर्निंग पाइंटस हैं और मुझे लगता है कि जिस प्रकार के टर्निंग पाइंटस इन सब बातों से आये हैं, चाहे डुबचैक का प्रकरण हो, चाहे ख्रुश्चेव का भाषण हो, चाहे चाइना में थियानानमन स्क्वायर हो, Nandigram is going to be the turning point in the history of the Communist Party of India. कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के इतिहास में यह एक टर्निंग पाइंट बनेगा। अब 3-4 टापू बच गये हैं।

मैं फिर से कहूंगा कि नंदीग्राम के बारे में संसद को अधिाकृत जानकारी मिले, सरकार को भी अधिकृत जानकारी मिले, इस दृष्टि से पहले-पहल तो एक ऑल पार्टी डैलीगेशन यहां से नंदीग्राम भेजा जाना चाहिए और फिर इनको मैं यह कहूंगा कि इस बीच में सरकार इस पर विचार करे कि वह इस मामले में क्या कर सकती है। खासकर हाई कोर्ट ने जो निर्देश दिये हैं, जो मर गये हैं, उनको मुआवजा देना, जिनका बलात्कार हुआ है, उन महिलाओं को न्याय देना, ये सब जितने निर्देश दिये हैं, उन सब का भी पालन हो और साथ-साथ राज्यपाल को यहां बुलाकर उनसे प्रत्यक्ष पूरी जानकारी प्राप्त कर केन्द्रीय सरकार भी आवश्यक कार्रवाई करे।

मैं समझता हूं कि इसके आधार पर आप आर्टीकल 355 का पहले उपयोग करके फिर यदि उसका भी वे लोग पालन नहीं करते हैं तो आर्टीकल 356 का उपयोग करे।

अब खुद को वामपंथी कैसे कहूं- गौतम घोष

नंदीग्राम घटना हमें देश की शासन व्यवस्था पर विचार करने का मौका देती है। हर घटना हमें सोचने के लिए विवश करती है, बशर्ते हम उसकी तह में जाएं। राजनीतिक पार्टियां आजकल विचारधारा से भटक गई हैं। उन्हें लोगों से ज्यादा कुर्सी की चिंता है। लोकतंत्र में कोई सरकार 30 वर्षों तक सत्ता में रहेगी, तो निष्चित रूप से बेपरवाह हो जाएगी। बंगाल में माकपा 30 वर्षों से सत्ता में है। आखिर यह कैसे हुआ। सिर्फ इसलिए कि बंगाल में विपक्षी दलों में एकता नहीं है, एक मंच पर आने को कोई तैयार नहीं। इसी का लाभ माकपा को मिला। मैं खुद वामपंथी हूं और इस विचारधारा से मुझे बेहद लगाव है, लेकिन आज मैं अपने को वामपंथी नहीं कह सकता। माकपा को विचारधाारा से मतलब नहीं रहा। कुछ वर्ष पहले पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु ने मुझसे कहा था कि अब लोगों को विचारधाारा से परिचित कराने के लिए माकपा में कक्षाएं नहीं लगतीं। कैडर से जुड़ने वालों की संख्या बढ़ रही है, जबकि विचारधारा से कोई जुड़ाव नहीं। मेरी राय में विचारधाारा अपनाकर यहां राजनीति करने कोई नहीं आता, बल्कि लोगों को पद, पैसे और प्रतिष्ठा की चिंता है। विचारधाारा से जुड़े नेताओं की संख्या घट रही है। नतीजतन नंदीग्राम में माकपा कैडर विपक्ष पर भारी पड़ा। जब तक विपक्ष ताकतवर था, उससे लोग त्रस्त रहे और जब माकपा की शक्ति बढ़ी, उसने नंदीग्राम पर कब्जा कर लिया। दोनों स्थितियों में निर्दोष जानें गई। राजनीति में बाहुबल का जोर है। जो कमजोर है, उसके लिए राजनीति नहीं। चुनाव जीतने के लिए अपराधाी उतारे जाते हैं। कोई किसी से कम नहीं। यही स्थिति नंदीग्राम में थी। लोकतंत्र में तभी राजनीतिक विचारधारा कायम रह सकती है, जब उस पर चर्चा हो, गलतियां दूर करने की कोशिश हो लेकिन बंगाल की स्थिति दूसरी है। यह देखकर मैं दुखी हूं। सरकार को संवेदनशील होना चाहिए। सरकार ही अपराधिायों और हिंसा का सहारा ले, तो लोकतंत्र के लिए यह शुभ संकेत नहीं। सबसे दुखद यह कि सरकार अपनी आलोचना सुनने के लिए तैयार नहीं। ऐसी सरकार से हम क्या उम्मीद करें। बुध्दिजीवियों ने सरकार की आलोचना की, तो उन्हें दुश्मन समझ लिया गया। सरकार किसी की बात सुनने के लिए तैयार नहीं। आप देखें पिछले 10.15 वर्षों में बंगाल के विकास के लिए कुछ नहीं किया गया। केवल कुछ लोग सत्ता का फायदा उठाते रहे। माकपा आत्ममंथन से पीछे हटेगी, तो वह दिन दूर नहीं जब लोग उसे सबक सिखा देंगे। नंदीग्राम और गुजरात की घटनाओं पर हमें आत्ममंथन की जरूरत है कि हम कहां जा रहे हैं। हम सत्ता के दम पर लोगों के जीवन से खेलें या मिलकर काम करें, विकल्प हमारे सामने है।

(गौतम घोष प्रसिध्द फिल्मकार हैं)
प्रस्तुति : निर्भय देवयांश

Wednesday 28 November, 2007

मार्क्‍सवाद का बंदीग्राम

लेखक -वेदप्रताप वैदिक

नंदीग्राम मार्क्‍सवाद का बंदीग्राम बन गया है। स्तालिन और माओ ने कार्ल मार्क्‍स को कठघरे में वैसे कभी खड़ा नहीं किया, जैसे हमारे मार्क्‍सवादियों ने कर दिया है। स्तालिन और माओं ने सर्वहारा की ओर से कुलकों और सामंतों पर प्रहार किया, लेकिन हमारे मार्क्‍सवादियों ने सर्वहाराओं के बीच ही गृह-युध्द छिड़वा दिया है। सर्वहारा ही सर्वहारा का खून बहाए, क्या यह मार्क्‍सवाद की उलट-पराकाष्ठा नहीं है? नंदीग्राम में मारे गए दर्जनों लोग कौन हैं? क्या वे पूंजीपति हैं, सामंत हैं, बुर्जुग हैं, शोषक हैं? वे चाहे माकपा के लोग हों, माओवादी हों, भूमि उच्छेद प्रतिरोध समिति के स्वयंसेवक हों, तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ता हों, पुलिस वाले हों - उनमें से कोई भी शोषक वर्ग का सदस्य नहीं है। इन शोषितों का खून बहाकर हमारे मार्क्‍सवादियों ने आज की राजनीति में कार्ल मार्क्‍स को कितने माक्र्स दिलवाए हैं? आज मार्क्‍स को शून्य 'मार्क्‍स' मिल रहे हैं। महान विचारक मार्क्‍स की ऐसी दुर्गति करने वाले हमारे मार्क्‍सवादी क्या अब खुद बच जाएंगे। उन्हें कल्पना नहीं है कि उनकी कितनी दुर्गति होगी।

तीन दशक में पहली बार बंगाल से मार्क्‍सवादियों के उच्छेद का बिगुल बज गया है। चुनाव में जब उच्छेद होगा, तब होगा, लेकिन अभी ही ऐसी स्थिति बन गई है कि केंद्र में भाजपा-गठबंधन होता तो कोलकाता की सरकार बर्खास्त हो जाती। राज्यपाल गोपाल कृष्ण गांधी को दो-दो बार खुला हस्तक्षेप करना पड़ा, यह मामूली बात नहीं है। स्वयं मार्क्‍सवादी गठबंधन के घटक बगावत की मुद्रा में है। रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी के मंत्री क्षिति गोस्वामी ने इस्तीफे की पेशकश की है। भाकपा और फारवर्ड ब्लॉक के नेता भी नंदीग्राम की हिंसा की निंदा कर रहे हैं। अनेक मार्क्‍सवादी नेता और कार्यकर्ता अपनी पार्टियों के रवैए पर मौन जरूर हैं, लेकिन अत्यंत क्षुब्ध हैं। अगर बंगाल में कोई सशक्त विकल्प होता तो बंगाल के सत्तारूढ़ दलों का आज दिवाला पिट जाता, लेकिन जहां तक बंगाल की जनता का सवाल है, उसकी नजर में मार्क्‍सवादियों की कीमत बहुत गिर चुकी है, वरना क्या अड़तालीस घंटे का बंद वैसा सफल होता, जैसा कि अभी हुआ है?

मई 2006 के विधानसभा चुनाव में 294 में से 235 सीटें जीतने वाले बुध्ददेव भट्टाचार्य इतनी जल्दी फीकें क्यों पड़ गए हैं? वे इतने असहाय और निरूपाय क्यों दिखाई पड़ रहे है? बुरी तरह चुनाव हारने वाली तृणमूल नेता ममता बनर्जी अचानक बंगाली जनमत पर हावी क्यों होती जा रही हैं? शेर की तरह दहाड़ने वाले माकपा के केंद्रीय नेता अब मेमनों की तरह क्यों मिमिया रहे हैं? अचानक ऐसा क्या हुआ है कि परमाणु सौदे पर हमारे मार्क्‍सवादी शीर्षासन की मुद्रा में आ गए हैं? आखिर क्या वजह है कि उन्होंने केंद्र सरकार को अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी से बात करने की ढील दे दी है?
इस ढील का मूल कारण वह शिकंजा है, जो नंदीग्राम ने मार्क्‍सवादियों के गले पर अचानक कस दिया है। यह कांग्रेस की मेहरबानी है कि वह भट्टाचार्य सरकार को बर्खास्त नहीं कर रही है। अगर वह बर्खास्त कर दे और इस समय चुनाव हो जाएं तो माक्र्सवादियों को पता है कि बंगाल की जनता उन्हें नंदीग्राम में बंद कर देगी। कोलकाता छोड़कर उन्हें नंदीग्राम में बंद कर देगी। कोलकाता छोड़ कर उन्हें नंदीग्राम के बंदीग्राम में निवास करना पड़ेगा। अब तक चुनाव का डर केवल कांग्रेस को था, अब उसकी दहशत मार्क्‍सवादियों के दिल में भी बैठ गई है। इसीलिए अब दोनों एक-दूसरे का नुकसान नहीं करेंगे। दोनों जुबान जरूर चलाएंगे, लेकिन कंधे से कंधा मिलाकर गठबंधन का रथ भी हांकते रहेंगे। अब कोई किसी को ब्लैकमेल नहीं कर पाएगा।

इस अधार के लटकाव का ज्यादा नुकसान भाकपा को भुगतना होगा, क्योंकि कांग्रेस तो पहले से ही गिड़गिड़ा रहीं थी, लेकिन मार्क्‍सवादी निरंतर गुर्राते रहे थे। अब वे बंगाल में ही नहीं, सारे भारत में मसखरों की तरह दिखाई पड़ेंगे। सत्ता का गणित शेर को कैसे भेड़ बना देता है, इस कहावत को मार्क्‍सवादी चरितार्थ करके दिखा रहे हैं। उन्होंने बता दिया है कि उनमें उतना ही और वैसा ही क्षीण नैतिक साहस है, जैसा कि अन्य बुर्जुआ पार्टियों में है। नंदीग्राम ने मार्क्‍सवादी पार्टियों के नाम पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। वे अपने आपको बंगाल की क्षेत्रीय पार्टियां घोषित क्यों नहीं कर देतीं? अपने सत्ता-सुख के लिए वे मार्क्‍सवाद को चूना क्यों लगा रही हैं?

इस तरह के असुविधाजनक सवाल मार्क्‍सवादियों से कांग्रेस क्यों करेगी? कांग्रेस को कोई लाग-लपेट नहीं है। वह पूरी तरह सत्तावादी और सुविधावादी पार्टी है। नंदीग्राम उसके लिए अचानक आसमान से फरिश्ते की तरह उतरा है। वह गदगद है। वह अब तृणमूल से भी हाथ मिला लेगी। वह इसलिए भी गदगद है कि नंदीग्राम, भारत के 'सबसे बड़े भक्त' जॉर्ज बुश की मनोकामना भी पूरी करेगा। अगर परमाणु सौदे पर हमारे कॉमरेड मौन साधा लें तो क्या पता वाइट हाउस में बुश नंदी-पूजा ही शुरू करवा दें। किसे पता था कि नंदीग्राम जैसा एक स्थानीय मसला अंतरराष्ट्रीय राजनीति में इतना महत्वपूर्ण निणार्यक तत्व बन जाएगा।

अगर सिंगुर और नंदीग्राम के हादसे नहीं होते तो दुनिया को यह भी शायद ही पता चलता है कि हमारे छोटे मियां तो बड़े मियां से भी आगे चल रहे हैं। साम्यवाद के सबसे बड़े मियां आजकल चीन ही है। जैसे औद्योगीकरण के खातिर चीनी कॉमरेडों ने शंघाई और शेन-जेन की पुरानी बस्तियों को एक ही झटके में उखाड़ दिया, वैसे ही हमारे कॉमरेड भी भारतीय और इंडोनेशियाई पूंजीपतियों की खातिर बंगाली किसानों को अपनी जमीन से बेदखल करना चाहते थे। वे चीनियों से भी आगे निकल रहे थे, क्योंकि चीनी कॉमरेड यही काम चीनी राज्य के लिए कर रहे थे। लेकिन हमारे कॉमरेड यही काम देसी और विदेशी पूंजीपतियों के लिए कर रहे हैं। इसके अलावा चीन विस्थापितों के लिए समुचित वैकल्पिक सुविधा और उचित मुआवजे की व्यवस्था करता है जबकि हमारे यहां शोषितों के जीवन-मरण का यह प्रश्न अभी तक कोरी बहस का मुद्दा बना हुआ है।

माकपा की सराहना तो तब होती जब वह इस समस्या का कोई आदर्श हल सबके सामने लाती। अन्य राज्य भी उसका अनुकरण करते। तब तो माना जाता कि शोषितों-पीड़ितों के लिए मार्क्‍सवादियों के दिल में कुछ दर्द है। अब सारी योजना को वापस लेने का क्या फायदा? उसने यही सिध्द किया कि आपने जन-आक्रोश के आगे घुटने टेक दिए। आश्चर्य की बात तो यह है कि मार्क्‍सवादियों को यह भी ध्‍यान नहीं रहा कि वे एक लोकतांत्रिक व्यवस्था के अंग है। वे किसी चीनी या सोवियत व्यवस्था में सरकार नहीं चला रहे हैं।

लोकशाही और पार्टीशाही में कितना फर्क है, इस तथ्य को मार्क्‍सवादी अब भली-भांति समझ गए होंगे। इस तथ्य का एक आनुषंगिक निष्कर्ष यह भी है कि भारत का सौभाग्य है कि माक्र्सवादियों का राज्य केवल बंगाल और केरल जैसे प्रदेशों में ही कायम हुआ, सारे भारत में नहीं हुआ। अगर हो जाता तो क्या होता, इसकी कल्पना की जा सकती है।

मार्क्‍सवादियों ने अपने आचरण से कई बुनियादी सवाल भी खड़े कर दिए। जैसे, क्या राज्य और पार्टी में कोई फर्क नहीं है? क्या दोनों एक-दूसरे के पर्याय है? नंदीग्राम के मकानों और भूखंडों से माकपा कार्यकर्ताओं को बेदखल करके अगर विरोधियों ने उन पर कब्जा कर लिया था तो राजधर्म क्या कहता है? अत्याचार ग्रस्त लोगों को न्याय दिलाइए। कोई फर्क मत कीजिए। वे चाहे किसी भी पार्टी या जाति या मजहब के हों। सरकार को निष्पक्ष रह कर दृढ़तापूर्वक कार्रवाई करनी चाहिए थी, लेकिन उसने क्या किया? आंख मींच ली और पार्टी काडर को इशारा कर दिया। माकपा कार्यकर्ता नंदीग्राम पर टूट पड़े। हथियारबंद कार्यकर्ताओं ने हत्या की, लूटपाट मचाई, बलात्कार किया और कब्जे किए। पुलिस खड़ी-खड़ी देखती रही।

केंद्र ने केंद्रीय रिजर्व पुलिस भिजवाई, लेकिन बहुत देर से। नंदीग्राम पहुंची हुई पुलिस बाहर ही खड़ी कर दी गई ताकि वह माकपा कार्यकर्ताओं के जन-युध्द में बाधा न पहुंचाए। अब ज्योति बसु और बुध्ददेव भट्टाचार्य संतुष्ट है कि नंदीग्राम में शांति लौट रही है। कैसी घृणित जुगलबंदी है, संप्रदायवाद और सेकुलरवाद में? इससे बढ़कर गैर-जिम्मेदाराना बयान कोई मुख्यमंत्री क्या दे सकता है कि नंदीग्राम के लोगों को ईंट का जवाब पत्थर से मिला है। यह तो राजधर्म के पूर्ण तिरोधान की घोषणा ही है। लोकतंत्र का इससे बड़ा अपमान क्या होगा कि आप पहले सरकार और पार्टी को एकमेक कर दें और फिर यह मान बैठें कि पार्टी ही जनता है। बुध्ददेव भट्टाचार्य कृपया यह बताएं कि वे पूरे बंगाल के मुख्यमंत्री हैं या सिर्फ माकपा के हैं? इसमें शक नहीं कि नंदीग्राम के पार्टी कार्यकर्ताओं ने मुख्यमंत्री को अकर्मण्यता का नकाब पहनने के लिए मजबूर किया हो, लेकिन क्या चुनी हुई सरकार को खुद से यह नहीं पूछना चाहिए कि आखिर वह किसके प्रति जवाबदेह है? उसका सर्वोच्च स्वामी कौन है? पार्टी कार्यकर्ता या जनता? जनता को नाराज करके नेता कहां जाएंगे? आखिर चुनाव की अग्नि परीक्षा में तो उन्हें उतरना ही पड़ेगा।

प्रदेश के कुल निवासियों के पंद्रह-बीस प्रतिशत वोट ही काफी होते हैं, चुनाव जीतने के लिए। सिर्फ वोटों की संख्या तय नहीं करती कि आप लोकतांत्रिक हैं। लोकतांत्रिक नैतिकता लोगों की संख्या से परे की चीज है। उसका निवास लोकमत में है, लोक-कल्याण में है, लोकप्रियता में है। क्या माकपा इस कसौटी पर खरी उतर रही है?

इस कसौटी पर मार्क्‍सवादी खोटे सिध्द हो रहे हैं। दलबंदी से अलग रहने वाली आम जनता के गुस्से की बात जाने दें, जो विद्वान, कलाकार, समाजसेवी, साहित्यकार लोग वामपंथी या उनके सहयात्री माने जाते हैं। आज उनकी राय क्या है? महाश्वेता देवी, अपर्णा सेन, ऋतुपर्ण घोष जैसे लोग किसी दक्षिणपंथी पार्टी के स्वयंसेवक नहीं हैं। मेधा पाटकर, स्वामी अग्निवेश और जनेवि के आचार्यगण किसी पार्टी या नेता के पिछलग्गू नहीं है। आखिर ये सब लोग खफा क्यों हैं? जनेवि के छात्र संघ के चुनाव में कम्युनिस्ट पार्टियों को आखिर मुंह की क्यों खानी पड़ी? सारा खबरतंत्र माकपा की खबर लेने पर उतारू क्यों है? बंगाल के बाहर रहने वाले बंगाली नंदीग्राम पर लज्जित क्यों हो रहे हैं? मार्क्‍सवादियों ने अपने कारनामों से मार्क्‍स पर ही नहीं, बंगाल के स्वर्णिम नाम पर भी बट्टा लगा दिया है। नंदीग्राम को अपने गले का पत्थर बना लिया है।

कब्रिस्तान के अमन को कैसे कहें कि नंदीग्राम में शांति है

लेखक- नबारूण भट्टाचार्य

अगर कब्रिस्तान के सन्नाटे को 'अमन' कहा जा सकता है तो नंदीग्राम में फिलहाल शांति है। पश्चिम बंगाल के सत्ताधारी वाममोर्चा के प्रमुख घटक माकपा नेतृत्व को यह खामोशी ज्यादा भाती है। ग्रामवासी जिन्होंने अपनी जमीन पर हक के लिए 11 महीने तक संघर्ष किया, अचानक ही माकपा समर्थकों में शुमार हो गए हैं। जब बंदूक की नाल से ताकत निकलती है तो ऐसे में किसी का क्या अख्तियार रह जाता है। यहां तक कि ऐतिहासिक उध्दरण भी 'क्रूर हास्यास्पद' हो सकते हैं। सात नवंबर को रणनीतिक रूप से अहम तेकहाली पुल पर तैनात पुलिस को हटा लेना, सशस्त्र पुलि का अपने को थाना परिसर में ही सीमित कर लेना जबकि गांव के गांव जल रहे हों, केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल की देरी से तैनाती और 'लिबरेशन' के लिए मिले अंतराल ने 'लोकतंत्र', 'प्रशासन', 'सरकार', 'वाम', 'मानवाधिकार' और 'सपंत्ति' तथा जीने के अधिकार जैसे शब्दों को बातिल और शून्य कर दिया है।

वे लोग जिन्हें नंदीग्राम के नक्शे पर माकपा को बलात् काबिज रखने के लिए जवाबदेही दी गई थी, वे कोई प्रतिबध्द मार्क्‍सवादी काडर नहीं थे। वे परले दर्जे के हत्यारे, डकैत, संहारक हथियारे, डकैत, संहारक हथिचार चलाने में उस्ताद और लोगों की जान मरने या उनका अंग-भंग कर मौके से भाग निकलने में माहिर थे। कोई आश्चर्य नहीं कि अर्जेंटीना से आए फिल्म प्रतिनिधियों को कोलकाता में आयोजित हो रहे फिल्मोत्सव का माहौल दमघोंटू लगा और वे चले गये। हम माकपा महासचिव प्रकाश करात एंड कंपनी की 'माओवादी' भूत वाली कहानी पर भरोसा कर सकते हैं जब तक कि वह लोगों की नजरों में इराक में संहारक हथियार वाली बुश की थ्योरी की तरह फुस्स न हो जाए और छोटा अंगरिया मामले में वर्षों से सीबीआई को वांछित अपराधी सकूल अली वर तपन घोष को नंदीग्राम में मारे गए लोगों और घायलों को ठिकाने लगाते ले जाते रंगे हाथ पकड़ जाने का सच पूरी तरह से उजगार नहीं हो जाता। प्रदेश के गृह सचिव को 13 नवंबर तक यह इलहाम नहीं था कि नंदीग्राम में माओवादी भी मौजूद हैं। इनमें से किसी को पकड़ा भी नहीं गया। किसी को यह बात मालूम नहीं थी लेकिन माओवादियों की कारगुजारियों के बारे में प्रकाश करात बेहतर जानते हैं और इस रहस्य की जानकारी उन्हें सीधो राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार नारायणन से मिली थी। अगर ऐसा हुआ भी तो यह सोचकर हैरत होती है कि ऐसे समय में जब पाक में आपात्काल का ऐलान हो रहा हो, सुरक्षा सलाहकार के पास इतना फालतू समय फिर भी बच जाता है कि वह नंदीग्राम में माओवादियों को ढूंढ निकाल ले! मैं तो अदना-सा-आदमी हूं और कलम का सिपाही हूं।

हम अपने इस सौभाग्य पर रश्क कर सकते हैं कि हमारे पास गोपाल कृष्ण गांधी के रूप में एक संवेदनशील समीक्षक राज्यपाल हैं, जिनकी बौध्दिक साख एक माक्र्सवादी चिंतक के रूप में बिमान बोस (वाममोर्चे के संयोजक) की तुलना में कहीं ज्यादा है। जैसा कि सभी जानते हैं कि बंगाल के लोग आजादी के बाद से ही ऐसी अप्रत्याशित घटनाओं के साक्षी रहे हैं जब प्रदेश सरकार और प्रशासन के हर काम में माकपा काडरों की दखलंदाजी चलती है। चाहे प्रेस हो, प्रख्यात सामाजिक नेता या विपक्ष का नेता; किसी को भी वहां घुसने की इजाजत नहीं होती! कानून उनके हाथों उसी तरह बंदी हो जाती है जैसा स्टालिन के जमाने में होता था।

नंदीग्राम में जारी इस खूनी मंजर के बीच कोलकाता में फिल्मोत्सव मनाने का इंतजाम किया गया। जिस दिन शाम को दीप जलाकर फिल्म समारोह का उद्धाटन होना था, उसी दिन दोपहर को नंदीग्राम में विशेष आर्थिक क्षेत्र के लिए जमीन से बेदखल किए जा रहे निहत्थे प्रदर्शनकारियों पर माकपा के नकाबपोशधारी गुंडे गोलिया बरसा रहे थे। महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार तक किए गए। टेलीविजन के चैनलों ने दिखाया कि बुलेट खाए मानव अंगों से रिसते खून से नंदीग्राम की जमीन किस कदर रक्तरंजित हो गई थी। हजारों लोग बेघर हो गए। गांव घर लौटने के बुध्ददेव भट्टाचार्य के आह्वान के बावजूद बहुतों ने अभी जाने को राजी नहीं हैं। मरने वालों की सरकारी संख्या तो सागर में एक बूंद भर है। मृतकों की सही-सही संख्या किसी भी जगह, इतिहास या भूगोल में नहीं बताई जाती। नंदीग्राम भी इस तथ्य का कोई अपवाद नहीं है। यह भी कोई अलहदा नहीं है कि किसी कम्युनिस्ट पार्टी ने इस अपराधा को अंजाम दिया है, यद्यपि किसी को भी हैरानी हो सकती है कि नरसंहार को अंजाम देने वाला और उसका रक्षक एक ही नामवली कैसे सटीक बैठते हैं। एक बाद खुद कार्ल माक्र्स ने अपने शिक्षण के दौरान कहा था, 'अगर यही माक्र्सवाद है तो ईश्वर को धान्यवाद कि मैं मार्क्‍सवादी हूं।' देश के सभी वामपंथ समर्थकों को इस दार्शनिक के विचारों से अपने को जोड़ना चाहिए। नंदीग्राम के साथ अनोखा यह हुआ कि वहां की हिंसक घटनाएं लोकतांत्रिक संघीय ढांचे में हुई। केन्द्र में बैठे हमारे नेता ने अपने राजनीतिक फायदे के लिए इसे होने दिया। इसमें कोई अजूबा नहीं कि परमाणु करार पर भारत अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (आईएईए) की बातचीत पर वामदलों ने अपना रवैया नरम कर लिया है और जब नंदीग्राम में विरोधियों से निपटने का काम पूरा हो गया, तो अब केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल को आने की झंडी दी गई।

इन रिकार्डों का एक दिन फैसले के लिए इस्तेमाल किया जाएगा। नंदीग्राम की हिंसक घटनाओं को लेकर मैं भावनात्मक रूप से काफी उद्विग्न हूं, इसलिए संभव है जहां-तहां तथ्यों की थोड़ी भूल हो जाए किन्तु मुझसे बड़े सच की अनदेखी कदापि नहीं हो सकती। ऐसा नहीं कि लोग मारिचझानपी, नानपुर, केशपरु, गरबेटा आदि जगहों में हुई कारगुजारियों से अनजाने थे, बल्कि तब प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक, मीडिया आज इतना विकसित जनसंचार माधयम नहीं था। सत्ता में बैठे लोग जो यह सोचते थे कि वैश्वीकरण की ताकत जनता की प्रतिरोधा करने की क्षमता कमतर कर देगी, नंदीग्राम की घटना ने उनकी आंखों में उंगली डालकर दिखा दिया कि सच वह नहीं है। नंदीग्राम हिंसा के पश्चात् कोलकाता, दिल्ली, बंगलुरू और अन्य शहरों के सभ्य नागरिक समाज के प्रदर्शनों में जबरदस्त प्रतिरोधा के स्वर बुलंद किए हैं। पश्चिम बंगाल के बुध्दिजीवियों ने यह साबित कर दिया कि वे बिकाऊ नहीं हैं, हालांकि कुछ लोगों ने शैतानों के हाथों अपनी आत्मा बेच दी है। शकारी का साथ देने से अच्छा है खरगोश के साथ दौड़ना। इस बीच बिमान बोस गरजते हैं, 'नंदीग्राम में एक नया सवेरा हो रहा है', तो यह पश्चिम बंगाल के क्षितिज पर एक बड़ा ब्लैक होल बनाता है और यह जल्द ही देश के अन्य हिस्सों को भी अपना ग्रास बना लेगा। टेलीविजन के पर्दे पर उभरता एक चित्र 'नंदीग्राम का उपसंहार' है। एक गाय गोली से बिंधी आंखों से खूनी चीत्कार करती है। बेजुबान मासूम गाय नंदीग्राम की वीभत्स मारकाट का बयान कर जाती है। मैं तो फिलहाल कुछ बोलूंगा नहीं।
(लेखक मशहूर बांग्ला कवि और साहित्यकार हैं)

Tuesday 27 November, 2007

माकपा के पतन के पहले का उन्माद -जय गोस्वामी

यह तो पतन के पहले का उन्माद है। ऐसा उन्माद, जिसने बंगाल की सत्ता पर 30 वर्षों से काबिज माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) को अंधा बना दिया है। इस उन्माद में मार्क्सवाद का ढोंग कर तीन दशकों से सत्ता का सुख भोग रही माकपा उस अवस्था को प्राप्त हुई है, जिसमें बुझने से पहले दीपक की लौ बार-बार उफनती है। अगर ऐसा नहीं होता, तो फिर सभ्यता, संस्कृति व शासन के नाम पर वह जो कर रही है, उसकी अपेक्षा तो उससे नहीं थी। सत्ता के मद में चूर बुध्ददेव भटृटाचार्य व विमान बसु की भाषा आज वैसी नहीं होती, जैसी हुई है। कवि, लेखक, कलाकार, होनहार युवक-युवती और निहत्थे नागरिकों को इस तथाकथित वामपंथी सरकार की लाठियों, गोलियों की बौछार झेलने को विवश नहीं होना पड़ता।

10 नवंबर को माकपा की स्वपोषित गुंडावाहिनी ने माकपा के मुख्यमंत्री की पुलिस के संरक्षण में दिनभर नंदीग्राम में गोलियां बरसा कर वहां के निहत्थे किसानों को मौत की नींद सुलाने का काम किया। शाम होते ही संस्कृति और संवेदनशीलता की चादर ओढ़ मुख्यमंत्री बुध्ददेव भट्टाचार्य फिल्मोत्सव की चिंता में डूब गए। संस्कृति के अतीत से लोगों को परिचित कराने लगे, भविष्य की रूपरेखा तय करने लगे। वे यहीं नहीं थमते। बार-बार नरसंहारों को अंजाम दिलाने के बाद भी वे लोगों को सभ्यता का पाठ पढ़ाने का दुस्साहस करने से भी बाज नहीं आतें। यह सवाल तो उठता ही है कि नंदीग्राम में निहत्थे लोगों को मौत के हवाले कर रही माकपा की गुंडावाहिनी को कौन संरक्षण दे रहा है? कौन उसे प्रश्रय दे रहा है? बेशक एक ऐसा व्यक्ति, जो तथाकथित संस्कृतिबोधा के अहंकार से फटा जा रहा है। एक ऐसा नेता, जिस अपने लेखक होने का भी दंभ है। पर किसी लेखक के जिद्दी स्वभाव, अड़ियल रवैये या कहें हठधार्मिता के चलते दुनिया में कहीं भी रक्तपात हो रहा हो, निहत्थे लोगों का कत्लेआम हो रहा हो, ऐसा कभी किसी ने सुना है? देखा है? वह भी किसी एक जगह नहीं, जगह-जगह पर। एक बार नहीं, बार-बार। कभी सिंगुर में तो कभी नंदीग्राम में 17 जनवरी को, 14 मार्च को। इतने से हिंसा की प्यास बुझी नहीं तो फिर 10 नवंबर को भी।

10 नवंबर की घटनाओं ने तो मुख्यमंत्री की संवेदनशीलता व संस्कृतिबोधा का मुखौटा उतार फेंका। मुख्यमंत्री की प्रशासनिक दक्षता व क्षमता की पोल खेलार रख दी। मालूम हो गया कि सूबे की सरकार कितनी डरपोक है। निहत्थे लोगों के तेज के सामने कैसे कांपने लगती है। उनकी पुलिस कविता पाठ करते, रवींद्र संगीत गाते नागरिकों को देख आंतकित हो जाती है। आंतक में बदहवास होकर लाठियों का सहारा लेती है। भद्दी गालियां बकती है। बुध्ददेव की पुलिस उनको व खुद को भयमुक्त करने के लिए लेखकों-कलाकारों को हवालात में भरने को आतुर हो उठती है। अगर यह बात नहीं होती, तो रवींद्र सदन के सामने सड़के के किनारे रवींद्र संगीत गाते शांतिप्रिय कलाकारों को जबरन वैन में भर कर लालबाजार लॉकअप में ठूंसने की आवश्यकता क्या थी।

दरअसल बुध्ददेव की पुलिस के सामने सवाल यह होता है कि वह अपना रणकौशल आखिर दिखायें कब? किसके सामने? नंदीग्राम में असलहे लहराते माकपा के नकाबपोश गुंडों की फौज के सामने तो इनकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाती है। यूं कहें कि माकपाई हमलावरों की छाया तक से भी बचने में ही इन्हें अपनी भलाई दिखती है। डयूटी के नाम पर बाहर होते भी हैं, तो पेड़ की छांव में कहीं ताश खेल रहे होते हैं। इनके सामने जब निहत्थे व शांतिप्रिय महिला, युवती लेखक-कवि, कलाकार वयोवृध्द नागरिक आते है, इनका जोश जब उठता है। तभी तो रवींद्र सदन के सामने डीसी जावेद शमीम प्रतिवादी कवियों, लेखकों व कलाकारों को देख गालियां बकने लगते हैं, 'सुबह से बहुत हो गया। उठा लो सालों को। ये हैं संस्कृति संपन्न व्यक्तित्व के मालिक कहलाने वाले बुध्ददेव की पुलिस व प्रशासन के कारनामों की चंद झलकियां।
(जय गोस्वामी साहित्य अकादमी से पुरस्कार प्राप्त बांग्ला कवि हैं)

वामपंथियों के किले में खून की होली

नंदीग्राम से लौटकर, चंदन मित्रा

आतंक का यह सबसे डरावना चेहरा है। गांव दर गांव औरतों-बच्चों की आंखों से झांकता खौफ। जबान गूंगी हो चुकी है, बुजुर्गों की पसलियां उनकी किस्मत की तरह पढ़ी जा सकती हैं। यह वह जगह है जहां हर घर पर लाल झंडा लगाना जरूरी है। यही है नंदीग्राम-जहां टूटे हुए घरों के पीछे दुबके हैं डरे हुए लोग।

मंगलवार को हम भी यहां थे। यानी राजग का प्रतिनिधिामंडल और मीडिया के लोग। नंदीग्राम में वैसे तो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माक्र्सवादी) के लोग नहीं दिखते लेकिन स्थानीय निवासियों के चेहरे पर छाया डर यह बताने के लिए काफी है कि सीपीएम और उसका काडर सर्वव्यापी हैं। ज्यादातर घरों पर सीपीएम के लाल झंडे लगे हैं। कई झंडे हाल ही में टंगे हैं। कई जगहों पर हमें सड़क किनारे लाल झंडों के भारी बंडल दिखे। पता चला ये आगे के गांवों में लगेंगे। उन घरों में जिन पर सीपीएम के सशस्त्र कार्यकर्ताओं ने पिछले हफ्ते कब्जा किया। यहां हर राजनीतिक दल के दफ्तर गिरा दिए गए हैं। सड़क किनारे पड़े पार्टियों के बोर्ड और बैनर खुद अपनी दुर्दशा बता रहे हैं। नंदीग्राम के लोगों के लिए अपने घरों पर लाल झंडा लगाना अनिवार्य है। अगर वे घर तृणमूल कांग्रेस के सहयोगी संगठन भूमि उच्छेद प्रतिरोधा कमेटी के हैं तब तो सीपीएम का यह हुक्म और भी सख्ती से लागू होता है। कमेटी के अधिकतर लोग सीपीएम के हथियारबंद कार्यकर्ताओं से डर कर यह इलाका छोड़ चुके हैं। लाल झंडा लगाने का यही आदेश जमात-उल-उलेमा-ए-हिंद और उन सभी दलों पर लागू होता है जिन्होंने नंदीग्राम में सीपीएम के जमीन कब्जे का विरोध किया था। बहुत पूछने पर ग्रामीण बस इतना बोलते हैं कि उन्हें सीपीएम और पुलिस दोनों से डर लगता है। उन्हें राहत देने पहुंची सीआरपीएफ को दो दिन बाद किसी तरह सीपीएम के प्रभाव क्षेत्रों में तो जाने दिया गया लेकिन उन इलाकों में इस बल के जवान अब भी नहीं जा सके हैं जहां सर्वाधिक हिंसा हुई। सीपीएम के आतंक का एक और उदाहरण देखें। तृणमूल कांग्रेस के काफी कार्यकर्ता किसान है जो सीपीएम के डर से गांव छोड़ गए थे। वे अब धाान कटाई के लिए घर लौटना चाहते हें लेकिन उसके लिए उन्हें सीपीएम के स्थानीय दफ्तर जाकर एक 'सम्पूर्णपत्र' पर हस्ताक्षर करने होंगे, मीडिया से बात न करने का वादा करना होगा और सीपीएम में शामिल होना होगा। उसके बाद उन्हें लाल झंडा देकर घर जाने की अनुमति मिलेगी। अधिाकारी पाड़ा के पास हमें एक बुजुर्ग से बात करने का मौका मिला। उससे पूछा गया, हमला किसने किया? जवाब था, 'मोटरसाइकिल सवार थे' किसी न फिर पूछा, 'क्या एम-पार्टी के लोग थे?' बुजुर्ग ने पहले तो कहा हां, फिर बोले मैंने कुछ नहीं देखा, आप जाइए यहां से एक मुस्लिम महिला सुषमा स्वराज का हाथ पकड़ कर रोने लगी। असके दो जवान लड़के लापता थे। पहले तो वह अपना नाम बता गई लेकिन फिर सहम गई। हमें बताया गया कि जानकारियां निकलवाने के लिए सीपीएम अपने कार्यकर्ताओं को रिर्पोटर बना कर भेजती है। नंदीग्राम हाई स्कूल में प्रतिनिधिमंडल पर पथराव भी हुआ। यहां हमें दस साल का एक लड़का गोपाल मिला जिसकी मां श्यामली को उसकी आंखों के सामने गोली मार दी गई थी। लालकृष्ण आडवाणी ने पूछा, 'श्यामली का दोष क्या था?' उन्हें बताया गया कि श्यामली शांति मार्च में भाग ले रही थी। गोपाल के पिता कई महीनों से लापता हैं। नंदीग्राम में लापता का मतलब है 'मृत' कमालपुर में हमें दो मंजिला मकान जमींदोज मिला। मकान मालिक मोहिबुल ने बताया कि मकान सिर्फ इसलिए गिरा दिया गया क्योंकि उसका भाई भूमि उच्छेद प्रतिरोधा कमेटी का नेता था। पिछले बृहस्पतिवार को सीपीएम के कार्यकर्ताओं का हुजूम वहां पहुंचा। औरतों और बच्चों को घर से बाहर किया (मर्द पहले ही घर छोड़कर भाग चुके थे) और घर को आग लगा दी। लेकिन हिंसा का यह नंगा नाच उम्मीद भी जगाता है। लोग डरे हैं, हारे नहीं। कुछ हिस्सों में जहां दूसरे दलों के समर्थकों की संख्या अधिाक है, सीपीएम की निजी सेना 'हर्मद वाहिनी' भी उन्हें झुका नहीं सकी है। यह देख कर आश्चर्य हुआ कि एक राहत शिविर में हजार से अधिाक लोग हमसे मिलने पहुंचे। इतिहास साक्षी है कि दमन कुछ ही समय तक लोगों को दबा पाता है, अंतत: भावनाएं मुखर होती है। यही भावनाएं इतिहास बनाती हैं।
(लेखक राज्यसभा सदस्य और द पायनियर के संपादक है)

Monday 26 November, 2007

वामपंथ का दोहरा चरित्र और खूनी खेल

लेखक- डॉ. राकेश सिन्हा

किसी भी सभ्य व्यक्ति के लिए राजनीतिक विश्लेषण में असभ्य भाषा का प्रयोग नहीं करना चाहिए, यह मेरी मान्यता रही है। परन्तु पिछले कुछ महीनों से पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्टों के द्वारा जिस बर्बरता, क्रूरता एवं राक्षसी वृत्ति का प्रदर्शन हो रहा है, उसे देख कर माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और सत्ता में उसके तीन सहयोगी पिछलग्गुओं (भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी और फारवर्ड ब्लॉक), के लिए 'दोगले' जैसे शब्द का प्रयोग भी, उनका सम्मान करने जैसा लगने लगा है। 15 मार्च को नंदीग्राम में एक दर्जन से अधिक गरीब-मजदूर-किसानों को मौत के घाट उतार दिया गया। सरकार उनकी जमीन, जमीर और जान का मुआवजा देकर 'सेज' संवारने में लगी हुई है। सिंगुर और नंदीग्राम में लगातार हिंसा का तांडव हो रहा है। किसानों-मजदूरों का हक क्या है यह जानने का एकाधिकार तो कम्युनिस्टों ने अपने लिए सुरक्षित रखा हैं। वे अपने आप को सर्वहारा का सिपाही कहते रहे हैं। उन्हीं के नाम पर राजनीति की रोटी सेंकते रहे हैं और जब सर्वहारा वर्ग अपने न्यूनतम अधिकारों के लिए संघर्ष पर उतरने लगा तब कम्युनिस्ट शासन ने असली चाल, चेहरा और चरित्र दिखा दिया।

बुध्ददेव भट्टाचार्य या उनकी पार्टी के लिए नैतिकता की बात करना मूर्खता होगी। इसलिए यह अपेक्षा करना कि इतने गरीब किसानों की मौत के बाद बुध्ददेव इस्तीफा दे देंगे, दोपहर की धूप में आसमान में तारे खोजने के समान होगा। संभवत: कम्युनिस्टों से कहीं अधिक संवेदनशीलता तो टाटा और सलेम ग्रुप में होगी। उनसे एक बार तो अपेक्षा की जा सकती है कि वे एक कदम पीछे हट जाएं और मजदूर-किसानों के खून से सनी धारती पर कार कारखाना या सेज का निर्माण नहीं करें। लेकिन राज्य के कम्युनिस्ट शासन से ऐसी उम्मीद नहीं की जा सकती।

माकपा में आज बुध्ददेव के खिलाफ बोलने वाला एक भी व्यक्ति नहीं है। किसान सभा, सीटू, एसएफआई जैसे संगठनों की जबान हिल तो रही है लेकिन इन खूनी कारनामों का औचित्य साबित करने के लिए। मजदूरों की रोजी-रोटी छीनने और उन पर हिंसात्मक कार्रवाई में भी ये क्रांति के दर्शन कर रहे हैं। मजदूरों- किसानों की बात करते हुए शहीद हुए सफदर हाशमी की याद में बना 'सहमत' जैसा संगठन भी मौन धाारण किए हुए है। सीपीआई संगठनात्मक रूप से पूरी तरह विकलांग है। इसका आत्मविश्वास खत्म हो चुका है। देश के सभी प्रांतों में 'अजय भवनों' के अतिरिक्त इसके पास कुछ नहीं बचा है- माकपा, कांग्रेस और लालू यादव जैसी बैसाखियों और मीडिया की सहानुभूति की बदौलत इसका राजनीतिक अस्तित्व दिखाई पड़ रहा है। इसलिए माकपा से असहमति जताते हुए भी यह वाम मोर्चे में बनी हुई है। और सबका एक ही रक्षा कवच है- 'हिन्दू साम्प्रदायिकता का खतरा'। आरएसपी और फारवर्ड ब्लॉक अपनी औकात जानते हैं, इसलिए उनके पास 'बुध्दम शरणम गच्छामि' के सिवा कोई चारा नहीं है।

इस पूरे प्रकरण में यह अहम सवाल उभरता है कि आखिर सीपीएम का चरित्र क्या है? सीपीएम का जन्म सीपीआई में विभाजन के परिणामस्वरूप 1964 में हुआ था। सीपीआई की राष्ट्रीय परिषद् के 32 सदस्यों ने भारत-चीन युध्द पर पार्टी द्वारा अपनाए गए दृष्टिकोण को प्रतिक्रियावादी और बुर्जुआ नेतृत्व के साथ समझौता करार दिया था। सीपीआई का मानना था कि चीन ने भारत पर आक्रमण किया। लेकिन ये 32 सदस्य, जिन्होंने सीपीएम का गठन किया, मानते थे कि माओ का नेतृत्व भारत के लिए अनुकरणीय है। वे भारत को ही भारत-चीन युध्द के लिए दोशी मानते थे। सीपीआई के दस्तावेज (बैटल अगेंस्ट माओइज्म एंड नक्सलिज्म) में लिखा गया है- यह सीपीआई से माओवाद के प्रभाव में टूट कर अलग हुई है। और इसी का अनुकरण करते हएु अपने कैडर को माओवाद की महानता स्थापित करने का प्रशिक्षण दिया है। इसी दस्तावेज में आगे कहा गया है कि सीपीएम ने सांस्कृतिक क्रांति (1967) के दौरान लोगों पर हुए अत्याचार को भी सही ठहराया है। माओ के उत्ताराधिकारों ने सांस्कृतिक क्रांति के दौरान हुई बर्बरता के लिए माओ को अपराधी माना, लेकिन सीपीएम की माओभक्ति बनी रही। यह अकेली घटना नहीं है। सोवियत संघ में स्टालिन ने 1929 से 1953 तक जो बर्बरतापूर्ण व्यवहार किया, उसे सुन कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। स्टालिन के बाद के सोवियत नेतृत्व ने भी अपने मूल्यांकन में स्टालिन को दोषी माना, परन्तु सीपीएम को यह अच्छा नहीं लगा। आखिर बर्बरता के बिना माक्र्सवाद क्या! इसलिए उसने मद्रास कांग्रेस (1992) में जारी पार्टी के दस्तावेज- ऑन सटर्ेन आइडियोलॉजिकल इश्यूज, में सोवियत कम्युनिस्ट नेताओं को स्टालिन के गलत मूल्यांकन के लिए दुत्कारा। उसमें लिखा है- सीपीएम व्यक्तिवाद को ठीक करने के नाम पर अपनाए गए दृष्टिकोण को अस्वीकृत करती है। यह समाजवाद के इतिहास को निषेधा है। लेनिनवाद के पक्ष, ट्राटस्कीवाद और अन्य सैध्दांतिक भटकाव के विरूध्द स्टालिन के निर्विवाद योगदान को इतिहास के पन्नों से नहीं मिटाया जा सकता। तीसरी घटना है चीन के थ्येनआनमन चौक पर नागरिक अधिकारों की मांग को लेकर हो रहे विरोध प्रदर्शन को सरकार द्वारा बर्बरता से कुचल देने को भी सीपीएम समाजवाद की रक्षा के लिए उचित और साहसी कदम मानती रही है।

जिस पार्टी ने अपने जन्म से ही बर्बरता को वर्ग-संघर्ष मान लिया हो, उसका चाल, चेहरा, चरित्र कैसा होगा? सत्ता के लिए सीपीएम किसी तरह का समझौता कर सकती है। इसके लिए गांधीवाद से लेकर स्टालिनवाद और सोनिया गांधी से लेकर मुलायम सिंह तक सभी विकल्प खुले रहते हैं।

नंदीग्राम में जो हुआ वह पहली और अपवादस्वरूप घटना नहीं है। सीपीआई के ही वर्ग संघर्ष के प्रशिक्षण से नक्सलवाद का जन्म हुआ। सत्ता मिलते ही सीपीएम नक्सलवाद को अवैधा वामपंथी संतान मानने लगी। सीपीआई के मुखपत्र 'न्यू एज' के 15 मई 1977 के अंक में एक आलेख छपा- 'सीपीम करेंट पोस्चर' इसमें कहा गया है 'पश्चिम बंगाल में सीपीएम ने कार्रवाई दल बनाया है, जिसमें समाज विरोधी तत्वों को शामिल किया गया है। इसने सीपीआई और अन्य वामपंथी दलों के कार्यकर्ताओं पर हिंसक आक्रमण किया और उन्हें मौत के घाटा उतारा। नक्सलवादी जो सीपीएम से अलग हुए, उनके साथ भी ऐसा ही किया गया। केरल में भी सीपीएम ने अपना अस्तित्व स्थापित करने के लिए हिंसा और लोगों पर आक्रमण का सहारा लिया।'

कम्युनिस्टों से अपेक्षा की जाती है कि वे सर्वहारा के प्रति संवेदनशील होंगे। परन्तु यह संवेदनशीलता तो उनके बीच जीने और मरने में होती है। सीपीएम वाले बता दें कि अपनी स्थापना के बाद से देशभर में उन्होंने कितनी बार मजदूर-किसानों के संघर्ष का नेतृत्व किया है? इसके कितने कामरेड जेल गए हैं? सच तो यह है कि सीपीएम नेता सामूहिक रूप से एक ही बार जेल गए और वह भारत-चीन युध्द के समय चीन की तरफदारी करते हुए भारतीय राज्य के खिलाफ विद्रोह करने की तैयारी के आरोप में। आज सीपीएम नेतृत्व सर्वहारा को छोड़कर कारपोरेट व व्यावसायिक घरानों का सिपाही हो गया है। यह विडंबना नहीं, चरित्र है। सर्वहारा विरोधाी चरित्र और स्टालिनवादी चाल, माओवादी धाूर्तता के साथ सीपीएम अपने नए पूंजीवादी दोस्तों के साथ रंग की नहीं खून की होली खेलने में जनहित देख रही है।
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक और संघ संस्थापक हेडगेवार के जीवनीकार हैं)

माकपा के माथे पर कलंक

लेखक -स्वपन दासगुप्ता

नंदीग्राम में माकपा कार्यकर्ताओं के इशारे पर पुलिस ने बर्बरता की सारी सीमाएं लांघते हुए कम से कम 14 निर्दोष लोगों को मौत की नींद सुला दिया और सैकड़ों को घर छोड़कर भागने पर मजबूर कर दिया। इस घटना से पश्चिम बंगाल में तीन दशक से शासन कर रही माकपा के माथे पर कलंक लगने के साथ ही उसका दमनकारी चेहरा भी सामने आ गया है। इस भयानक हादसे से यह जाहिर हो गई है कि सत्ता के नशे में चूर दल न तो आलोचना बर्दाश्त कर सकते हैं और न ही विपक्ष की दलीलें। नंदीग्राम में जो हुआ उसकी वजह यह नहीं थी कि राज्य सरकार विकास के लिए कृतसंकल्प थी, बल्कि इसके पीछे बाहुबल का प्रदर्शन करने की सोच थी। पिछले तीस सालों में सूबे के ग्रामीण्ा इलाकों में माकपा का एकछत्र राज है। गांवों में माकपा की पैठ का मतलब यह नहीं कि लाल झंडा जनता के दिल में बसता है। माकपा ने अपनी पकड़ भोली-भाली जनता को डरा-धमका कर बनाई है।

1977 से बंगाल में सत्ता सुख भोग रही माकपा ने ग्रामीणों को दो वर्गों में विभाजित कर दिया है। एक तो वे जो उसके साथ हैं और दूसरे वे जो साथ नहीं है। सीमावर्ती जिलों को छोड़कर समूचे ग्रामीण बंगाल में माकपा की गहरी पकड़ का राज अब खुलने लगा है। माकपा ने क्रूरता और आतंक के बल पर गांवों में अपना जो साम्राज्य स्थापित किया है उससे मुक्ति के लिए अब बड़ी संख्या में स्थानीय समुदाय आवाज बुलंद करने लगा है। माकपा सरकार ने स्टालिनवाद पर न केवल उपदेश दिए बल्कि राज्य में पूरी निर्लज्जता के साथ उसे पाला पोसा। इसकी आड़ में माकपा रहनुमा की खाल ओढ़कर किसी क्रूर राजा की तरह तानाशाही का साम्राज्य फैलाती रही। नंदीग्राम को लेकर बौध्दिक किस्म के कुछ लोग वामपंथी सरकार की आलोचना करने का पाखंड कर रहे हैं। ऐसे लोग कपटी हैं। कई दशकों तक वामपंथियों ने जब अपने विरोधियों को कुचलने के लिए दमनकारी रवैया अपनाया तब यही बौध्दिक लोग उनके साथ थे और उनकी नीतियों का गुणगान करते थे। बंगाल को रक्तरंजित बनाने में इन लोगों का भी उतना ही दोष है जितना वामपंथियों का। ऐसे लोग वामपंथियों द्वारा रचे गए षडयंत्र का भी हिस्सा रहे हैं। अब वे अपना दामन पाक साफ दिखाने के लिए वाम सरकार को भला-बुरा कह रहे हैं। नंदीग्राम की हिंसा से माकपा के चेहरे से नकाब उतार गया है और उसकी असली सूरत पूरे देश के सामने आ गई है। अब जब भी सहमत द्वारा बनाई गई फिल्म को गुजरात में वितरक न मिलें और उसे लेकर वामपंथी न्याय की दुहाई दें या फिर जब भी संसद के बाहर बृंदा कारत आदिवासियों के साथ फोटो सेशन कराती दिखें या फिर बुध्ददेव भट्टाचार्य सूफियाना लहजे में नेरुदा या ब्रेख्‍त की कविताओं का पाठ करते दिखें तब उनके द्वारा ढहाए गए जुल्मों की याद दिलाने के लिए एक ही शब्द काफी होगा-नंदीग्राम। नंदीग्राम की हिंसा वाम आंदोलन के रक्तरंजित इतिहास की न तो पहली घटना है और न ही आखिरी। 1917 की बोलशेविक क्रांति के दौरान हुए खूनखराबे और वाम आंदोलनों में कई फर्क नहीं है। दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। भारत के संदर्भ में नंदीग्राम की घटना अहंकार में चूर ऐसे लोगों के लिए मील का पत्थर बन गई है जिन्होंने ताल ठोककर घोषित कर दिया है कि इतिहास ने एक बार फिर उनके पक्ष मे करवट ली है। नंदीग्राम की हिंसा के बाद माकपा जहां बचाव की मुद्रा में आ गई है वहीं कांग्रेस नेतृत्व का दोहरा चरित्र भी उजागर हो गया है। सोनिया गांधी की मजबूरी है कि वह भाजपा शासित छत्तीसगढ़ में नक्सलियों के हाथों मारे गए 55 जवानों की हत्या पर हायतौबा नहीं मचा सकतीं, क्योंकि फिर उन्हें नंदीग्राम पर भी कुछ बोलना पड़ेगा। नंदीग्राम को लेकर कांग्रेस आंख पर पट्टी बांधकार और कान में रुई डालकर बैठी है, क्योंकि संप्रग सरकार वामपंथियों की बैसाखी पर ही टिकी हुई है। वामपंथी विचारधारा का बौध्दिक समुदाय खामोश है। उनमें से बहुतों की आंखों का पानी मर चुका है। उनकी अंतरात्मा वामपंथी सत्ता तले मर चुकी है। देशभर में गंभीर होते जा रहे खाद्यान्न संकट को देखते हुए विशेष आर्थिक जोन पर चल रही बहस ने अब राष्ट्रीय रूप धारण कर लिया है। यह बहस आक्रामक नहीं है, लिहाजा संप्रग सरकार की सेहत पर कोई फर्क नहीं पडेग़ा। हालांकि राजग इस मामले को धार देने में जुटा है। मेधा पाटेकर और मुसलिम संगठनों के विरोध प्रदर्शन भले ही वक्त के साथ कमजोर पड़ जाएंए लेकिन पश्चिम बंगाल की राजनीति पर इनका दूरगामी प्रभाव पड़ेगा। यह साल पश्चिम बंगाल से नई दिल्ली के बीच उड़ान शुरू होने की 40वीं वर्षगांठ के रूप में मनाया जा रहा है। माकपा के समर्थन से सत्ता में आई यूनाइटेड फ्रंट सरकार ने खूनखराबे की शुरुआत की, जिसे नक्सली आंदोलन और कांग्रेस की गुंडागर्दी ने आगे बढ़ाया। इसमें कोई शक नहीं कि इस वजह से आर्थिक प्रगति की राह में पश्चिम बंगाल पिछड़ता गया।

क्या आपको 1967 का घेराव आंदोलन याद है? तब हुबली नदी के दोनों किनारों पर स्थित हजारों फैक्टि्रयां खाली हो गईं थीं। इस आंदोलन से वाम राजनीति पर प्रतिकूल असर पड़ा और उनकी बहुत आलोचना हुई थी। पश्चिम बंगाल का पतन केवल आर्थिक रूप से ही नहीं हो रहा। वामपंथियों के अजीबोगरीब राजनीतिक कदमों की वजह से इस राज्य ने सामाजिक रूप से भी बहुत कुछ खो दिया है। एक ब्रिटिश टिप्पणीकार ने किसी दूसरे संदर्भ में दुख और हताशा से भरे समुदाय का जिक्र किया थाए जो आज के परिप्रेक्ष्य में पश्चिम बंगाल पर बिल्कुल फिट बैठता है। अगर आपको यकीन न हो तो मृणाल सेन और रित्विक घटक की फिल्में देख लीजिएए आपकी आंखें और सोच दोनों खुल जाएंगे। अनाचार और कमियां अब सिर्फ वामदलों तक ही सीमित नहीं रह गई हैं, बल्कि गैर-वाम दल भी इसकी चपेट में आ गए हैं। नंदीग्राम की घटना को लेकर जारी विरोध प्रदर्शनों से यह बात जाहिर भी हो गई है।

माकपा का मुखौटा नंदीग्राम के आईने में- महाश्वेता देवी

मैं वृध्द हो गई हूं। न जाने कब चल बसूं। लेकिन चाहती हूं कि मेरे मरने के बाद योध्दा की मेरी पहचान रह जाए। मैंने जीवनभर कोई युध्द किया है, तो मुख्यत: कलम से। कलम ही मेरा हथियार है और 82 वर्ष की उम्र में मुझे अंतिम भरोसा अपने हथियार पर ही है। कलम के इस हथियार से आज भी युध्द किए जा रही हूं। इसी के साथ नृशंसता का प्रतिवाद भी यथासाध्य कर रही हूं, सड़क पर उतर कर। पहले भी किया है और जब तक जीवित रहूंगी, करती रहूंगी। नंदीग्राम में बुध्ददेव भट्टाचार्य की असामान्य 'कीर्ति' के विरूध्द अभी हमें सड़क पर उतरना पड़ा है। इस प्रसंग पर मैं बाद में आती हूं। पहले बुध्ददेव की असामान्य 'कीर्ति' पर।

क्या आपने टीवी पर नंदीग्राम में 14 मार्च को बुध्ददेव भट्टाचार्य की 'कीर्ति' को नहीं देखा? मैंने देखा। परे बंगाल ने देखा। बुध्ददेव ने 1919 के जलियांवाला बाग के डायर साहब को भी लज्जित कर दिया। माकपा की गुंडावाहिनी ने इस शताब्दी का एक नया इतिहास नंदीग्राम में लिखा। नंदीग्राम आज का जलियांवाला बाग है। नंदीग्राम ने मां, बहनों, भाइयों और पंक्तियों के रक्त से स्नान किया है। टीवी चैनल पर महिलाओं और बच्चों पर गोली चलाने का दृश्य हम सबने देखा है। निरीह और नि:शस्त्र महिलाओं, बच्चों, किशोरों और कि सानों पर अंधाधुंध फायरिंग की गई। यह फायरिंग हत्या के उद्देश्य से की गई, क्योंकि घायलों और मृतकों के पेट, गले, छाती में गोलियां लगी हैं। कई लोगों को काटकर भी मार डाला गया। हताहतों की संख्या सरकारी आंकड़े से बहुत बहु ज्यादा है। नंदीग्राम में नरसंहार के बाद कई लाशें गायब कर दी गईं। नंदीग्राम में पुलिस को रोकने के लिए वहां के आम नागरिकों ने गढ्ढे खोद कर रास्ते काट डाले थे। नरसंहार के बाद उन गढ्ढों में लाशें डाल कर ऊपर से कंक्रीट और सीमेंट से उसे पाट डाला गया। कई लाशें नदी या नहरों में या दूर जंगल में ले जाकर फेंक दीर् गईं। यह सारा कृत्य पुलिस और माकपा कैडरों ने मिलकर किया। कैडर से इतने लोगों की हत्या कराने के बाद भी बुध्ददेव मुख्यमंत्री बने रहेंगे? प्रकाश करात ने कोलकाता आकर फैसला सुनाया। हां, बने रहेंगे। बंगाल माकपा के लोग मेधा पाटकर को बाहरी कहते हैं। मैं पूछती हूं कि जब मेधा बाहरी हैं तो करात बाहरी नहीं है? माकपा की केन्द्रीय कमेटी के सदस्य विनय कोंगार ने पिछले महीने सार्वजनिक तौर पर कहा था कि मेधा पाटकर बाहरी है। उन्होंने नरसंहार के बाद कई महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया। कुछ स्त्री-पुरूषों के जननांग में गोली मार दी गई। वे नित्‍य क्रियाएं भी नहीं कर पा रहे हैं। क्षत-विक्षत जननांग लेकर क्या ये स्त्री-पुरूष सामान्य जीवन व्यतीत कर पाएंगे? स्त्रियों की इस त्रासदी और नंदीग्राम के नरसंहार के लिए बुध्ददेव जिम्मेदार है। वे हत्यारे हैं। नंदीग्राम के लिए आज एक ही शत्रु है और वह है बुध्ददेव सरकार।

बुध्ददेव अत्याचारी हैं, मानवाधिकार विरोधी हैं। क्या अपनी पुलिस और अपने यह भी कहा था कि मेधा और ममता नंदीग्राम जाएंगी, तो वहां के माकपा समर्थक उन्हें अपना 'पाछा' दिखाएंगे। नंदीग्राम नरसंहार के पहले मेधा पाटकर जब नंदीग्राम गई थीं, तो वहां विनय कोंगार की घोषणा के मुताबिक माकपा के कैडरों ने अपना पैंट खोलकर दिखाया था। नरसंहार के बाद मेधा जब गईं, तब कोई अभद्रता नहीं हो सकी, क्योंकि सीबीआई की टीम नंदीग्राम में मौजूद थी। नरसंहार के दिन जब ममता बनर्जी नंदीग्राम के करीब पहुचीं, तो उनकी गाड़ी रोक कर माकपा के कैडरों ने अभद्र नारे लगाए और उन्हें वापस कोलकाता जाने को कहा। ममता दूसरे दिन नंदीग्राम पहुंच सकी थीं।

मैं दिल्ली और भारत के अन्यान्य इलाकों के वामपंथी बुध्दिजीवियों से पूछना चाहती हूं कि वे नंदीग्राम के नरसंहार और महिलाओं पर अत्याचार पर क्या कहना चाहेंगे? उनकी राय में नंदीग्राम भारत में है या इराक में? नंदीग्राम में नरसंहार के विरूध्द कोलकाता हाईकोर्ट व बंगाल की अन्य अदालतों के वकील स्वत: स्फूर्त ढंग से सड़क पर उतरे। वामपंथी माने जाने वाले बुध्दिजीवी लेखक, कलाकार भी सड़क पर उतरे। नरसंहार के दूसरे दिन ही धर्मतला में लेखकों, कलाकारें ने धिक्कार जुलूस निकाला। ऐसा ही धिक्कार जुलूस 17 मार्च को भी कॉलेज स्क्वॉयर में निकला, जिसमें अपर्णा सेन, गौतम घोष, मनोज मित्र, विभास चक्रवर्ती, रूद्रप्रसाद सेनगुप्त, जया मित्र, सांली मित्र, जय गोस्वामी, नवारूण भट्टाचार्य, कबीर सुमन, प्रतूल मुखोपाध्याय, शुभा प्रसन्न समेत एक हजार से ज्यादा लेखकों, शिल्पियों और बुध्दिजीवियों ने भाग लिया।

मैंने अस्वस्थ होने के बावजूद दोनों जुलूसों में हिस्सेदारी की। लेखकों की दो सभाओं में भी मैं गई। इसके अलावा 19 मार्च को धर्मताला में आयोजित जमाए-ए-उलेमाए-हिन्द की सभा में भी मैंने भाषण किया। जैसा कि मैंने शुरू में कहा- मैं जीवन की सांध्यबेला में भी बुध्ददेव भट्टाचार्य की बर्बरता के विरूध्द युध्द किए जा रही हूं। नंदीग्राम के नरसंहार का प्रतिवाद किए जा रही हूं और जनतंत्र में आस्था रखनेवाले सभी लोगों से उम्मीद करती हूं कि वे भी मेरी आवाज से आवाज से आवाज मिलाकर नारे लगाएंगे बुध्ददेव सरकार, और नहीं दरकार, नंदीग्राम में जिन निर्दोष लोगों ने अपने प्राणों की आहुति दी है, वह व्यर्थ नहीं जाएगी। उनकी शहादत से प्रेरणा ग्रहण कर सिंगुर, हरिपुर बारूईपुर, बारासात और राजारहाट के लोग भी जमीन अधिग्रहण के विरूध्द और ताकत के साथ युध्द छेड़ेंगे।

मैं पहले सिंगुर गई थी। यह युध्द भी स्वाधीनता संग्राम जैसा ही है। यह लक्ष्यपूर्ति तक चलता रहेगा। सरकार का कहना है कि नंदीग्राम में प्रशासन नाम की कोई चीज नहीं थी, इसलिए वहां पुलिस गई। यह सरासर झूठ है। तथ्य यह है कि नंदीग्राम के लो सशस्त्र नहीं थे। इसे टीवी चैनल ने दिखाया है। सशस्त्र थे माकपा के समर्थक। उन्हें एक माकपा सांसद ने हथियार उपलब्ध कराए थे। यह कहना भी गलत है कि नंदीग्राम में पुलिस नहीं जा पा रही थी। खेजुरी से तो नंदीग्राम में सब कुछ आ रहा था। खेजुरी में बैठकर ही माकपा के नेताओं ने नंदीग्राम की कार्रवाई का ब्लू प्रिंट तैयार किया था। उसे ब्लू प्रिंट के अनुसार सुनियोजित तरीके से एक अफवाह फैलाई गई कि नंदीग्राम के माकपा समर्थक काकली गिरी के साथ जमीन उच्छेद प्रतिरोध कमेटी के लोगों ने बलात्कार किया। इस अफवाह के बाद ही स्थिति को नियंत्रण में करने के नाम पर पुलिस कार्रवाई का फैसला किया गया, लेकिन कार्रवाई के ठीक पहले काकली गिरी एक चैनल पर आई और उन्होंने खुलासा किया कि यह उनके खिलाफ गलत प्रचार किया जा रहा है कि उनके साथ बलात्कार हुआ। काकली ने माकपा को बेनकाब कर दिया। मुझे उम्मीद हे कि सीबीआई भी दूध का दूध और पानी का पानी करेगी और माकपा का मुख और मुखौटा एक बार फिर देश देखेगा।

Friday 23 November, 2007

मार्क्सवाद की असलियत

-हृदयनारायण दीक्षित

पश्चिम बंगाल अशांत है। आपातकाल जैसी स्थिति है। नंदीग्राम में चीत्कार है। मा‌र्क्सवादी इस गांव को भारत का अंग नहीं मानते। उन्होंने केंद्रीय रिजर्व बल को भी गांवों तक जाने से रोका है।

मा‌र्क्सवाद और मानवता का संघर्ष पुराना है। मा‌र्क्सवादी वर्ग शत्रु के सफाए के विश्वासी हैं। वैसे मा‌र्क्स और एंगेल्स की दृष्टि में किसान वर्ग शत्रु नहीं थे। दोनों ने जर्मनी के किसान संघर्ष की प्रशंसा की थी। मा‌र्क्स ने 1844 में किसान विद्रोह को जर्मन इतिहास का सबसे बड़ा परिवर्तनवादी युद्ध बताया था। मा‌र्क्स के अनुसार धर्म अफीम है। जर्मन किसान विद्रोह भी धार्मिक आस्था के कारण असफल हुआ। किसान और मजदूर किसी भी राष्ट्र के श्रमशील स्तंभ होते हैं। मा‌र्क्स दोनों को मिलाकर जनवादी क्रांति के पक्षधर थे। चीन में माओ ने किसान लामबंदी के जरिए ही क्रांति की थी।

लेकिन भारत के मा‌र्क्सवादी और माओवादी किसान विरोधी हैं। माओवादियों से लड़ना आसान है। वे राज्य व्यवस्था और कानून के दायरे में हैं। लेकिन मा‌र्क्सवादी केंद्र सरकार की संजीवनी हैं। पश्चिम बंगाल में वे स्वयं सरकार है। यहां पुलिस और माकपा कार्यकर्ता की अलग पहचान नहीं है। वे पुलिस संरक्षण में कत्ल करते हैं, पुलिस उनके संरक्षण में हिंसा करती है। दुनिया की सारी संस्कृतियां और सभ्यताएं मनुष्य केंद्रित हैं। मनुष्य जीवन की कीमत पर कोई भी सभ्यता, राज व्यवस्था या विचारधारा नहीं चलती। हिंसा हर हाल में घृणित है, लेकिन मार्क्सवादी हिंसा को निंदनीय नहीं मानते। पश्चिम बंगाल में बदले की कार्रवाई जारी है।

मार्क्स पूंजीवाद को शत्रु मानते थे, किसान-मजदूर को अपनी लड़ाई का प्रमुख सैनिक मानते थे। माकपा सरकार ने किसानों की खेती छीनकर उद्योगपति को दी है। हालात ये हैं कि किसान धरना-प्रदर्शन के जरिए अपनी मांगें रखने के लिए भी स्वतंत्र नहीं हैं। किसानों की लोकतांत्रिक कार्रवाई का समर्थन करने वाली पूर्व केंद्रीय मंत्री और सांसद ममता बनर्जी भी माकपा के निशाने पर हैं। राज्यपाल ने चिंता व्यक्त की सो वे भी माकपा के निशाने पर हैं। यहां मानवाधिकार आयोग ठेंगे पर है। मा‌र्क्सवाद मानवाधिकार नहीं मानता। केंद्रीय संसदीय मंत्री भी रो रहे हैं। उन्होंने कांग्रेस के एक कार्यकर्ता के परिवार की सुरक्षा के लिए डीजीपी से आग्रह किया। बावजूद इसके उसका घर तहस-नहस हुआ। घरवाले अपहृत हुए। मारे-पीटे गए। पश्चिम बंगाल के बुद्धिजीवियों ने शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन किया। उनकी भी पिटाई हुई।

मा‌र्क्स विचारधारा बुद्धिजीवियों को पूंजीपतियों का पिछलग्गू मानती है। मा‌र्क्सवाद की कलई खुल गई। जनवाद की खोल में छुपा पूंजीवाद प्रकट हो गया। सत्ता के क्रूर आचरण से वाम विचार की असलियत सामने आई। मार्क्सवादी इतिहासकार, आलोचक और कथित चिंतक हलकान हैं। फिल्मकार अपर्णा सेन ने वाम नैतिक श्रेष्ठता पर सवाल उठाते हुए किसान उत्पीड़न को तानाशाही बताया है। कांग्रेस अपनी सरकार की चिंता में है, लेकिन प्रतिपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी और भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने मा‌र्क्सवादी हिंसा पर सीधा हमला किया है। इतिहासकार सुमित सरकार की टिप्पणी है कि उनका सिर शर्म से झुक गया है। पश्चिम बंगाल सरकार के हिस्सेदार घटक दल भी खासे नाराज हैं। मंत्री त्यागपत्र की धमकी दे रहे हैं। बावजूद इसके माकपा आक्रामक है। माकपा महासचिव प्रकाश करात ने राज्य सरकार व माकपा कार्यकर्ताओं की कार्रवाई को जायज ठहराया है। भारत के संघीय ढांचे पर प्रश्नचिह्न है। कानून एवं व्यवस्था राज्यों का मसला है, लेकिन पश्चिम बंगाल में सरकार का राजनीतिक तंत्र स्वयं ही कानून एवं व्यवस्था पर हमलावर है। पुलिस लाचार है। पश्चिम बंगाल में पुलिस का कामरेडीकरण हुआ है। सत्ताधारी दल द्वारा की जाने वाली हिंसा को रोकने का कोई तंत्र नहीं है। स्थानीय पुलिस सरकारी निर्देश मानने को बाध्य है। अन्य राज्यों में भी ऐसी ही स्थितियां अक्सर आती हैं। उत्तर प्रदेश के मऊ में तीन वर्ष पहले हुए भीषण दंगों में ऐसी ही भयावह परिस्थिति थी। पुलिस अधिकारियों के सामने हिंसा थी, आगजनी थी। अनेक पुलिसजनों ने मीडिया के सामने बताया कि वे मजबूर थे। सभी राज्य भारतीय राष्ट्र-राज्य के अंगभूत घटक हैं। राज्य संप्रभु नहीं हैं। भारतीय संवैधानिक व्यवस्था में केंद्र असली शासक नहीं है। किसी भी शासन का मुख्य काम जनसुरक्षा और कानून एवं व्यवस्था है। भारत में यह काम राज्यों के पास है, लेकिन तमाम राज्यों के क्षत्रप अपने-अपने क्षेत्रों के अत्याचारी जमींदार जैसा आचरण करते हैं। वे राज्यों को राष्ट्र से पृथक सत्ता बनाते हैं। केंद्र कार्रवाई नहीं करता।

पश्चिम बंगाल की सरकार अपने संवैधानिक कर्तव्य निर्वहन में असफल हो गई है। ममता बनर्जी के अनुसार सैकड़ों हत्याएं हुई हैं। प्रकाश करात के अनुसार 28 माकपाई मारे गए हैं। स्थिति आइने की तरह साफ है। राज्य का संवैधानिक तंत्र ध्वस्त हो गया है, लेकिन सरकार बर्खास्तगी के लिए राजनीतिक अनुकूलता और इच्छाशक्ति चाहिए। मनमोहन सिंह सरकार वाम दलों के बगैर अल्पमत में है। वाम दल अपने समर्थन की कीमत हर माह वसूल करते हैं। वे सरकार हिलाते हैं, गिराने की स्थिति में लाते हैं। कांग्रेस रिरियाती है, उनकी बातें मानती है। वे अल्पकालिक जीवनदान देते है। विद्वान प्रधानमंत्री भी मजबूर हैं। पश्चिम बंगाल में वाम दलों का शासन है। पश्चिम बंगाल भी भारत का हिस्सा है। यह वाम दलों की निजी जागीर नहीं है, लेकिन केंद्र उनसे डरता है। सरकार बर्खास्तगी लायक है। राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी के चलते बर्खास्तगी असंभव है। तब क्षेत्रीय आपातकाल क्यों नहीं लागू किया जाता। संविधान के अनुच्छेद 352 में व्यवस्था है कि युद्ध या वाह्य आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह के कारण यदि भारत या उसके राज्य के किसी हिस्से की सुरक्षा संकट में है तो राष्ट्रपति संपूर्ण भारत या उसके राज्य क्षेत्र के ऐसे भाग के संबंध में आपातकाल की उद्घोषणा करेंगे। बेशक ऐसी उद्घोषणा भी संसद में अनुमोदन के लिए आएगी। सशस्त्र विद्रोह की बात वे स्वयं स्वीकार कर चुके हैं। ऐसी आपात उद्घोषणा के जरिए केंद्र स्वयं सारी प्रशासनिक कार्रवाइयों के संचालन में निर्देश देने का अधिकारी होगा। आखिरकार केंद्र ऐसा साहस क्यों नहीं जुटाता। जाहिर है कि कांग्रेस और वाम दलों के बीच एक-दूसरे के अपराध न देखने का समझौता है।

पश्चिम बंगाल की हिंसा, अराजकता ने कई वैचारिक सवाल भी उठाए हैं। मसलन क्या मार्क्सवाद का अंत हो गया। कहीं नंदीग्राम का पूंजीवादपोषक किसानहंता फैसला भी मा‌र्क्सवादियों की ऐतिहासिक भूल ही तो नहीं है। मा‌र्क्सवादी छोटी-मोटी गलतियां नहीं करते। वे ऐतिहासिक भूल ही करते हैं। अम‌र्त्य सेन ने उपजाऊ कृषि भूमि उद्योगों को देने की नीति का विरोध किया है। क्या मा‌र्क्सवादी गरीब किसानों को मारकर कोई नई जनक्रांति लाने की तैयारी में हैं। या परमाणु करार को सिर्फ अमेरिकी होने के कारण ही बेजा बताने वाले वामपंथी अमेरिकी भूमंडलीकरण की गिरफ्त में हैं या सारी दुनिया से खारिज मा‌र्क्सवादी खोटा सिक्का भारत में भी खोटे सिक्के के रूप में पहचान लिया गया है। भारत में मा‌र्क्सवाद यों भी नहीं चलता, पश्चिम बंगाल में भी हंसिया और हथौड़ा हिंसा के जरिए ही शासन करता है। मा‌र्क्सवादी इतिहासकार बताएं कि नंदीग्राम की शव यात्राएं मा‌र्क्सवाद की भी शव यात्राएं क्यों नहीं हैं। (लेखक वरिष्ठ भाजपा नेता व उप्र सरकार के पूर्व मंत्री हैं)

Wednesday 21 November, 2007

भारतीय कम्युनिस्टों की बर्बरता- इंडिया टुडे

1979 : सुंदरबन द्वीप में पुलिस और माकपा कार्यकर्ताओं ने पूर्वी बंगाल के सैकड़ों शरणार्थियों को मौत के घाट उतार दिया।

1982 : माकपा कार्यकर्ताओं ने कोलकाता में इस अंदेशे में 17 आनंदमार्गियों को जलाकर मार डाला कि निर्वाचन क्षेत्र में वे अपना आधार खो बैठेंगे।

2000 : भूमि विवाद को लेकर बीरभूमि जिले में माकपा कार्यकर्ताओं ने कम से कम 11 भूमिहीन श्रमिकों की हत्या कर दी।

2001 : माकपा कार्यकर्ताओं ने तृणमूल कांग्रेस के प्रायोजित राज्यव्यापी बंद के दौरान मिदनापुर में 18 लोगों को मार डाला। (साभार- इंडिया टुडे, 28 नवंबर,2007)

2007 : नंदीग्राम में अपना हक मांग रहे किसान, मजदूर और महिलाओं पर माकपा कार्यकर्ताओं ने जबरदस्त जुल्म ढ़ाए। महिलाओं के साथ बलात्कार किए। लाशों के ढेर लगा दिए। करीब 200 लोग मारे गए।

नंदीग्राम के अपराधियों को दंड कौन देगा? - तरुण विजय

वे जो खुद डरे हुए हैं या जनता के अवसन्न मन की राख से चिंगारी निकलेगी?

जिस प्रकार वामपंथी विचार के भी अनेक कलाकार, साहित्यकार एवं अन्य बुध्दिजीवी नंदीग्राम में माकपा कार्यकर्ताओं की गुंडागर्दी के खिलाफ कोलकाता में सड़कों पर उतर आए और लगभग 3 मील लम्बे विरोध प्रदर्शन में शामिल हुए, यह इस बात का हल्का सा संकेत देता है कि सब कुछ सहने वाली धरती की तरह जनता भी बहुत कुछ बहुत समय तक सहती है, लेकिन एक दिन ऐसा भी आता है जब परिणाम की चिंता किए बिना उसकी अंतश्चेतना अन्याय के विरुध्द उठ खड़ी होती है। नंदीग्राम नरसंहार पर केन्द्र चुप है। जनता में हताशा और राजनीतिज्ञों के प्रति अविश्वास के कारण सन्नाटा है। लेकिन एक गुस्सा भीतर ही भीतर पल रहा है। यह कब, कहां और कैसे फूटेगा इसका अंदाजा लगाना कठिन है। लेकिन अन्याय करने वाले और अन्याय के प्रति चुप रहने वाले बख्शे नहीं जाएंगे, यह विश्वास करते हुए राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत कार्यकर्ताओं को निर्णायक प्रहार की सफलता हेतु जमीन, पानी और हवा (संत विनोबा के शब्दों में) तैयार करने का काम जारी रखना होगा। यह परिदृश्य रूस के राष्ट्रपति पुतिन की उपलब्धियों के संदर्भ में देखने का प्रयास समीचीन होगा।

हाल ही में प्रधानमंत्री डा0 मनमोहन सिंह रुस की 28 घंटे की यात्रा पर गए थे। यह यात्रा वर्तमान संदर्भों में विशेष सामरिक महत्व की रही, क्योंकि एक ओर अमरीका से परमाणु संधि पर विवाद अभी थमा नहीं है, दूसरी ओर भारत के भूराजनीतिक क्षेत्र में रुस और चीन के साथ मैत्री का विशेष महत्व है। इस यात्रा में एक दिलचस्प बात यह रही कि यद्यपि संप्रग सरकार उन वामपंथियों के सहारे पर टिकी है जिन्हें 1917 में रुस में प्रारंभ हुई बोलशेविक क्रांति की वैचारिक संतान कहा जा सकता है, लेकिन अपनी यात्रा के दौरान न तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उस क्रांति की चर्चा ही करना उचित समझा जिसकी बचे खुचे कम्युनिस्ट 90वीं वर्षगांठ मना रहे हैं और न ही वे मास्को में लेनिन की सुरक्षित रखी देह पर फूल चढ़ाने गए। बोलशेविक क्रांति का नामोनिशान उसी भूमि में समाप्त हो गया है जहां वह जन्मी थी। यह सब 75 वर्ष से भी कम समय में दिखा, जबकि लगभग उसी समय प्रारंभ हुआ हिन्दुत्व का आंदोलन जो रा0स्व0संघ के नाम से पहचाना गया, 82वें वर्ष में पहले से अधिक सशक्त, सबल दिख रहा है और भारतीय वस्तुपरक प्रेक्षक भी यह मानते हैं कि रा0स्व0संघ भारत का पाथेय तय कर रहा है। दुनिया के सबसे बड़े हिन्दू संगठन के नाते तो उसकी मान्यता चतुर्दिक फैली ही है। यह अंतर होता है आत्मीयता पर आधारित एवं मातृभूमि की वंदना से प्रेरित आंदोलन तथा हिंसा और घृणा पर टिके आंदोलन में।

हालांकि डा0 मनमोहन सिंह की इस यात्रा में परमाणु सहयोग तथा दक्षिण भारत में रुस की मदद से चार नये परमाणु रिएक्टर प्रारंभ करने के बारे में समझौते पर हस्ताक्षर नहीं हो सके, क्योंकि रुस संभवत: अमरीका के प्रतिबंधों के कारण ऐसे समझौते फिलहाल नहीं कर सकता, लेकिन अंतरिक्ष अनुसंधान, सन् 2011 तक चंद्रमा पर भारत और रुस का संयुक्त अंतरिक्ष यान-अभियान, आतंकवाद और नशीले पदार्थों पर रोकथाम के लिए साझा रणनीति तथा बहुत बड़ी मात्रा में युध्दक सामग्री, जैसे युध्दक हेलीकाप्टर और पांचवीं पीढ़ी के अत्यंत उन्नत युध्दक विमान प्राप्त करने पर समझौता हुआ।

पुतिन इस समय रुस के महानायक के रुप में उभरे हैं, जिनकी तुलना रुसी साम्राज्य की दृढ़ नींव रखने वाले पीटर महान से की जाने लगी है। कम्युनिस्ट शासन के दौरान सोवियत संघ की आर्थिक स्थिति एक छलावे और भ्रम में छुपाकर रखी गई और दुनिया के सामने एक ऐसी महाशक्ति का मुखौटा प्रकट किया गया जो भीतर से खोखली होती जा रही थी। नतीजा यह हुआ कि अमरीकी रणनीति के कारण गोर्बाचोव सोवियत संघ के विघटन का साधन बने। शेष बचा रुस महासंघ यद्यपि आज भी दुनिया के बड़े और विशालकाय देश के नाते जाना जाता है, परंतु विघटन के समय उसकी आर्थिक नींव टूट चुकी थी। उस समय लोग थैले भरकर रुबल ले जाते थे और उनके बदले अंगुलियों पर गिने जाने वाले डालर भी नहीं मिलते थे। 1991 में बोरिस येलत्सिन रुस के पहले लोकतांत्रिक पध्दति से चुने गए राष्ट्रपति बने। परंतु वे भी रुस की आर्थिक स्थिति को संभाल नहीं पाए। उनके बाद राष्ट्रपति बने व्लादिमीर पुतिन पर केवल रुस की आर्थिक स्थिति को ही संभालने की जिम्मेदारी नहीं थी बल्कि विश्रृंखलित और विखंडित रुस के स्वाभिमान और सामर्थ्य को पुन: स्थापित करने एवं केजीबी से निकले हुए कर्मचारियों के माफिया गिरोहों की गिरफ्त से रुस को मुक्त करने का काम भी उन्हीं के कंधों पर टिका। उधर चेचन्या में बढ़ रहे इस्लामी आतंकवाद की आंच रुस को भी जला रही थी। पुतिन ने सत्ता के सूत्र बहुत कड़ाई और परिणाम की चिंता किए बिना अपने हाथ में लिए, घोटाले और जालसाजी में लिप्त देश के सबसे बड़े उद्योगपति खादरोकोव्स्की को गिरफ्तार कर 9 साल के लिए जेल में भेजा। निष्क्रिय प्रधानमंत्री को अपने कमरे में बुलाकर तुरंत बर्खास्त किया और चेचन्या के इस्लामी विद्रोहियों से किसी भी तरह की बातचीत से साफ इनकार करते हुए प्रबल सैनिक कार्रवाई द्वारा उनको कुचला। जाहिर था इसकी अमरीका के तथाकथित मानवाधिकारवादियों ने जमकर आलोचना की। बढ़ते रुस के महानायक पुतिन आज अमरीका की आंख में सबसे ज्यादा खटकने लगे हैं, क्योंकि अमरीका को लगता है कि उसकी एक धुव्रीय वैश्विक महाशक्ति बनने की यात्रा को पुतिन ही बाधित कर सकते हैं। लेकिन पुतिन दो कार्यकाल तक राष्ट्रपति बनने के बाद अब अगले वर्ष मार्च में पद छोड़ने की घोषणा कर चुके हैं। उनकी इस घोषणा का रुस में तीव्र विरोध हुआ है, क्योंकि लोग चाहते हैं कि रुस को पुतिन जैसे कठोर और दृढ़निश्चयी शासक ही बचा सकते हैं।

इस समय रुस की आर्थिक स्थिति काफी मजबूत है और आंतरिक सुरक्षा की दृष्टि से आतंकवादियों का प्राय: निर्मूलन किया जा चुका है। पुतिन की आयु केवल 55 वर्ष है। वे ब्लैक बेल्ट धारक कराटे खिलाड़ी हैं और युवकोचित उत्साह के साथ देश में एक नई शक्ति का स्फुरण करने में कामयाब हुए हैं।

भारत के प्रधानमंत्री जब उनसे मिले तो पश्चिम बंगाल में नंदीग्राम नरसंहार हो चुका था। लेकिन न तो प्रधानमंत्री नंदीग्राम में माकपाई हिंसाचार के शिकार अपने ही भारतीयों से मिलने गए और न ही उन्होंने उस क्षेत्र में मार्क्सवादी आतंक के कारण डर से पलायन करने पर विवश लोगों की सुरक्षा के लिए कारगर उपाय किए। यहां तक कि पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री श्री बुध्ददेव भट्टाचार्य द्वारा नंदीग्राम में भूमि अधिग्रहण का विरोध कर रहे नागरिकों पर हिंसक हमले का समर्थन ही किया गया। इस पर भी शासक दल की ओर से निंदा का एक शब्द भी नहीं कहा गया। देश में आतंकवादी कहीं भी, किसी भी जगह हमले करने के लिए स्वतंत्रता महसूस कर रहे हैं। माओवादी हिंसाचार, इस्लामी जिहाद से भी ज्यादा बर्बर साबित हुआ है। ये कम्युनिस्ट आतंकवादी आज भी स्टालिन और माओ त्से तुंग को उसी प्रकार से नायक मानते हैं जिस प्रकार माकपा इन दोनों कम्युनिस्ट नेताओं के प्रति अपनी श्रध्दा और सम्मान प्रकट करती है। सबकी ऊर्जा और प्रेरणा के केन्द्र एवं स्रोत एक ही हैं, और वे अपने अपने देश में बर्बर हिंसाचार, गुलाग, साइबेरिया और सांस्कृतिक क्रांति के नाम पर अमानुषिक आंदोलनों के लिए जाने जाते हैं, बस काम करने और मुखौटे ओढ़ने के तरीके भिन्न-भिन्न हैं। माकपा और उसके सहधर्मी कम्युनिस्ट संगठन देश में असहिष्णुता, नफरत और हिंसाचार के सबसे बड़े केन्द्र बन गए हैं। केन्द्रीय गृहमंत्रालय ने केवल कम्युनिस्ट आतंकवाद पर नियंत्रण एवं निर्मूलन के लिए एक विशेष प्रकोष्ठ बनाया हुआ है, जिसके 13 मुख्यमंत्री सदस्य हैं।

गृह मंत्रालय में इसी विषय पर एक विशेष डिवीजन 19 अक्तूबर, 2006 को बनाया गया था जिसका उद्देश्य है-सुरक्षा और विकास, दोनों ही दृष्टिकोण से कम्युनिस्ट आतंकवाद पर नजर रखना तथा जिन क्षेत्रों में कम्युनिस्ट आतंकवाद तीव्रता से बढ़ रहा है वहां रोकथाम के उपाय सुझाना। इसमें सरकार को जम्मू-कश्मीर के इस्लामी जिहादियों के समान ही नहीं बल्कि उससे कहीं अधिक अपनी ताकत और धन का इस्तेमाल करना पड़ रहा है। गृह मंत्रालय की 2007 की रिपोर्ट में गृहमंत्री श्री शिवराज पाटिल ने बताया है कि देश के 12,476 में से 395 पुलिस थाना क्षेत्रों में नक्सल या कम्युनिस्ट हिंसाचार की घटनाएं घटी हैं। 2003 में नक्सली कम्युनिस्ट आतंकवादियों ने 410 नागरिकों एवं 105 पुलिसकर्मियों की हत्या की । 2006 में यह आतंकवाद बढ़ा है और पिछले वर्ष कम्युनिस्ट आतंकवादियों द्वारा 521 नागरिकों एवं 157 पुलिसकर्मियों की हत्या की गई। मुख्यत: कम्युनिस्ट आतंकवादियों के गिरोह महाराष्ट्र, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु और उत्तराखंड में नये प्रभाव बनाने में जुटे हुए हैं। हालांकि झारखंड, उड़ीसा, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश, बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में उनका पहले से ही प्रभाव चला आ रहा है। इस दृष्टि से माओवादी गुट अब एकजुट हो रहे हैं, जैसे कम्युनिस्ट पार्टी आफ इंडिया(माओवादी) यदि नई भर्तियों के लिए जुटी हुई है तो मई 2005 में स्थापित क्रांतिकारी लोकतांत्रिक मोर्चा अब भारत का जनवादी लोकतांत्रिक मोर्चा (पीपुल्स डेमोक्रेटिक फ्रंट आफ इंडिया) के नाम से जाना जाने लगा है। पिछले दिनों झारखंड में नक्सलवादियों ने 18 लोगों को मौत के घाट उतार दिया था, जिनमें प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री एवं भाजपा नेता श्री बाबूलाल मरांडी का पुत्र भी था। इन क्षेत्रों के विकास और नक्सल कम्युनिस्ट आतंकवाद पर रोकथाम के लिए 13 राज्यों हेतु केन्द्र सरकार ने 3677.67 करोड़ रूपए आवंटित किए हैं।

पर जब केन्द्र में ऐसा राजा हो जो स्वयं ही डरा हुआ हो तो प्रजा कहां से संबल प्राप्त करेगी? इसलिए रुस के राष्ट्रपति पुतिन से केवल हथियार ही लेने की आवश्यकता नहीं है। आतंकवाद निर्मूलन और राष्ट्रीय स्वाभिमान जागरण हेतु शक्ति संवर्धन के लिए कुछ ग्राम साहस भी मनमोहन सिंह ले आते तो बेहतर होता।

Tuesday 13 November, 2007

सच्चाई के खिलाफ साजिश- बलबीर पुंज

विगत 25 अक्टूबर को कुछ टीवी चैनलों पर आपरेशन कलंक और गुजरात का सच शीर्षक से गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को निशाना बनाने के लिए किए गए स्टिंग ऑपरेशन को प्रसारित किया गया। कांग्रेस को मदद पहुंचाने में जुटे चर्च और विदेशी सहायता प्राप्त कुछ स्वयंसेवी संगठनों के वित्तपोषण पर रची गई इस साजिश का एक ही उद्देश्य था, 2002 के गुजरात दंगों के जख्मों को कुरेद कर कांग्रेस के लिए चुनावी मुद्दा उपलब्ध कराना और भाजपा सरकार ने अपने कार्यकाल में जिस विकसित और सशक्त गुजरात का निर्माण किया है उसकी ओर से जनता का ध्यान हटाकर समाज को पंथिक तनाव में झोंकना। जिन चौदह लोगों के बयान कैमरे में कैद किए गए हैं उनमें से तीन- बजरंग दल के पूर्व नेता बाबू बजरंगी, विश्व हिंदू परिषद के कार्यकर्ता सुरेश रिचर्ड और रमेश दवे का सफेद झूठ सामने आ चुका है। बाबू बजरंगी और रिचर्ड ने कैमरे पर कहा कि उसने नरोदा पाटिया में मुसलमानों की हत्या की और पल-पल की जानकारी गृहमंत्री को मिलती रही। गृहमंत्री और मुख्यमंत्री से उसे शाबाशी भी मिली और जब नरेंद्र मोदी दंगे के एक दिन बाद (28 फरवरी) नरोदा पाटिया के दौरे पर आए तो उन्हें धन्यवाद कहा। आधिकारिक रिकार्ड के अनुसार उक्त तिथि को मोदी वहां गए ही नहीं।

बाबू बजरंगी और रिचर्ड की तरह विहिप कार्यकर्ता रमेश दवे ने दावा किया कि दरियापुर क्षेत्र के डीएसपी एसके गांधी ने उनसे पांच मुसलमानों को मारने का वादा किया था और उन्होंने अपना वादा पूरा भी किया। जबकि आधिकारिक रिकार्ड के अनुसार दरियापुर दंगे के एक माह बाद गांधी की वहां बहाली हुई थी और उनके कार्यकाल में दंगे की एक भी घटना नहीं हुई। जालसाज पत्रकारों का एक और निशाना बने सरकारी वकील अरविंद पांड्या। उनके मुंह से नानावती आयोग के दोनों न्यायाधीशों की प्रामाणिकता और निष्पक्षता पर कीचड़ उछलवाया गया था, जबकि पांड्या के अनुसार एक चैनल के पुराने परिचित पत्रकार ने उनसे एक टीवी सीरियल पागल तमाशा के लिए संपर्क किया था। पत्रकार ने कुछ वास्तविक चरित्रों को शामिल करने के नाम पर उन्हें अपने जाल में लपेट लिया। अरविंद पांड्या को एक लिखित स्क्रिप्ट पढ़ने को दी गई। तीन-साढ़े तीन घंटे की इस रिकार्डिग में से अनुकूल वाक्यों को इस स्टिंग ऑपरेशन में जोड़ दिया गया।

वस्तुत: गुजरात में चुनावी सरगर्मी बढ़ने के साथ ही सेकुलरिस्टों का दुष्प्रचार भी तेज हो गया है। गोधरा संहार की प्रतिक्रिया में भड़के दंगों में 790 मुसलमान और 254 हिंदू मारे गए थे। पांच साल पूर्व की इस घटना के लिए अब तक पंद्रह से अधिक हिंदू-मुसलमानों को दंडित किया जा चुका है। इसकी तुलना में 23 साल पूर्व कांग्रेस पार्टी द्वारा प्रायोजित देशव्यापी सिख नरसंहार में तीन हजार से अधिक सिख मारे गए थे, किंतु अब तक केवल तेरह पर ही आरोप लगाए गए हैं, दोष सिद्ध होना बाकी है। कांग्रेस से जुड़े तमाम बड़े नेता आरोपों से बरी किए जा चुके हैं। जगदीश टाइटलर पर अभी मामला अदालत में चल रहा है, लेकिन कांग्रेस के बचाव में सीबीआई ने हाल में उन्हें भी क्लीन चिट दे दी, जिस पर अदालत ने अपनी आपत्ति भी व्यक्त की है। सेकुलर मीडिया को यहां दायित्वबोध नहीं होता। लोकतंत्र का सजग प्रहरी होने के नाम पर गुजरात दंगों के दौरान सेकुलर मीडिया ने जिस तरह अतिरंजित कथानकों के साथ समाचार परोसे, उसका एक ही उद्देश्य था- सारी दुनिया में नरेंद्र मोदी और भाजपा की छवि हिटलर और नीरो के रूप में बनाना। हकीकत यह है कि वहां के स्थानीय समाचार पत्र गुजरात के जिस सच को प्रकाशित कर रहे थे उसकी सेकुलर राष्ट्रीय मीडिया में अनदेखी की गई, किंतु राज्य की जनता उससे प्रभावित नहीं हुई।

गुजरात दंगों के लिए भाजपा पर लगाए जा रहे झूठे आरोपों के बावजूद जनता ने दूसरी बार भी राजकाज चलाने का भार भाजपा को सौंपा। उसके बाद हुए नगर निगम, नगर पालिका और ग्राम सभा के चुनावों में भी भाजपा को भारी बढ़त के साथ जीत हासिल हुई। भाजपा के दूसरे कार्यकाल में एक भी दंगा नहीं हुआ। दिल्ली-कोलकाता-चेन्नई में आज चौबीस घंटे भले ही बिजली की आपूर्ति नहीं हो, किंतु गुजरात के गांवों में दिन-रात बिजली की अबाधित आपूर्ति हो रही है। कभी पानी की किल्लत से जूझ रहे गांवों को नियमित जल उपलब्ध हो रहा है। गुजरात आज दूसरे राज्यों को भी जल की आपूर्ति कर रहा है। विकास के मामले में गुजरात देश का अव्वल व समृद्ध राज्य है। यहां विकास दर 10 प्रतिशत से अधिक है। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने कहा है कि विदेशी निवेश के मामले में गुजरात पहले नंबर पर है और पूरे देश का चौथाई से अधिक विदेशी पूंजी निवेश अकेले गुजरात में हुआ। अंतरराष्ट्रीय संस्था-अर्नस्ट एंड यंग ने गुजरात की 72 योजनाओं का अध्ययन किया और उसे देश के दूसरे राज्यों के लिए अनुकरणीय बताया। राजीव गांधी फाउंडेशन ने गुजरात को सर्वोत्तम राज्य कहा है। अंतरराष्ट्रीय स्वास्थ्य संगठन ने गुजरात की स्वास्थ्य संबंधी योजनाओं की सराहना की है, जिसे हाल में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री भी दोहरा चुके हैं। जिस विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) योजना के कारण कई राज्यों में हिंसा व्याप्त है, उस सेज योजना में भी गुजरात सबसे आगे है। कहीं कोई हिंसा नहीं। 2007 में जो राज्य विकास की प्रयोगशाला बन चुका है, उसे बार-बार 2002 के कथित हिंदुत्व की प्रयोगशाला से क्यों जोड़ा जा रहा है? सन 2002 से ही नरेंद्र मोदी और गुजरात पर निरंतर कीचड़ उछालने में लगे शबनम हाशमी, तीस्ता सीतलवाड़, हर्ष मंदर, मुकुल सिन्हा, कैथोलिक चर्च के फादर सेड्रिक प्रकाश, दलित नेता मक्वान मार्टिन और उनके द्वारा खड़े किए गए स्वयंसेवी संगठनों के वित्तीय स्त्रोत क्या हैं।

यदि फर्जी आंकड़ों और गवाहों के आधार पर 2002 की गुजरात सरकार नरसंहार की आरोपी है तो 1984 की कांग्रेस सरकार को क्या संज्ञा दी जाए। गुजरात के दंगों के तुरंत बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने दंगों को देश का कलंक की संज्ञा दी और मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को राजधर्म निभाने का निर्देश दिया। इसके विपरीत 1984 के सिख दंगों के मामले में देश को 21 वर्ष प्रतीक्षा करनी पड़ी। 2005 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 1984 के दंगों के लिए देश से क्षमा याचना की। 1984 के दंगों की विभीषिका के बीच तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने दंगों को लगभग न्यायोचित ठहराते हुए कहा था, जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती ही है। अगले महीने गुजरात की जनता को अपनी नई सरकार चुननी है। चुनावी मुद्दा क्या होना चाहिए। 2002 का गोधरा कांड और उसके बाद के दंगे या गुजरात का अब तक का विकास और आगे की योजना। नरेंद्र मोदी, जिनका वर्षो से पंथिक आधार पर दानवीकरण किया गया, तो साढ़े पांच करोड़ गुजरातियों के विकास और अस्मिता के मुद्दे पर चुनाव लड़ रहे हैं, किंतु उनके विरोधी दंगों के जख्मों को कुरेद कर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकना चाहते हैं। क्या यह भारतीय सेकुलरिज्म का घिनौना सच नहीं।
लेखक भाजपा के राष्ट्रीय सचिव हैं।

Monday 12 November, 2007

लाल झंडे वालों को मिर्ची लगे तो...- आलोक मेहता

बंगाल में दो करोड़ लोगों को राशन तक नहीं दे पाने वाले कम्युनिस्ट दिल्ली में कर रहे दादागिरी

बुश या मुशर्रफ से दूरी रखने के मुद्दों पर भारतीय कामरेड दिल्ली दरबार में आंखें तरेरते हुए दादागिरी कर रहे हैं लेकिन उनके अपने राज में क्या हो रहा है? पश्चिम बंगाल में 5 करोड़ 71 लाख लोग सफेद राशन कार्डधारी हैं और गरीबी रेखा से नीचे की श्रेणी में 2 करोड़ लोग हरे राशन कार्डधारी हैं। गरीबी रेखा से नीचे का मतलब है महीने में मात्र 350 रुपए आमदनी वाले लोग यानी प्रतिदिन 12 रुपए से भी कम कमा सकने वाले गरीब। हालत यह है कि सफेद कार्ड वालों के साथ हरे कार्ड वाले गरीबों तक को राशन की दुकान से 6 रुपए 15 पैसे की दर से एक किलो चावल, 8 रुपए 65 पैसे की दर से एक किलो गेहूं तथा 13 रुपए 50 पैसे किलो की दर से 250 ग्राम चीनी तक नहीं मिल पा रही है। भूखे नंगे लोग ही नहीं, राशन की दुकान चलाने वाले तक आत्महत्या कर रहे है। कामरेड मस्ती में हैं, चीन की जयकार कर रहे हैं। अपने कंधों पर बैठी मनमोहन सरकार को कोस रही है। बंगाल और केरल में वोटों के समीकरण से वर्षों से सत्ता सुख भोगने वाले कम्युनिस्ट पिछले साढे तीन वर्षों के दौरान अचानक राष्ट्रीय नेता बन बैठे हैं। राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय राजनीति करने वाले इन कम्युनिस्टों में से कितने तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ, पंजाब या जम्मू-कश्मीर में वोटों के बल पर चुनकर आ सकते हैं? भाजपाइयों के मुखौटे तो कब के उखड़ गए और कांग्रेसियों की खद्दर टोपी में लगे दाग भी दिखते रहे है। लेकिन क्रांतिकारी कम्युनिस्टों की शोषक और अत्याचारी तस्वीर अब अधिक सामने आ रही है। जो कम्युनिस्ट नेता चीन को सबसे नजदीक मित्र मानते हैं, उनके राज में पश्चिम बंगाल में राशन की सार्वजनिक वितरण प्रणाली पूरी तरह ध्वस्त हो चुकी है। कामरेड प्रकाश कारत और बुध्ददेव भट्टाचार्य एक तरफ दिल्ली दरबार में बैठकर उदार अर्थव्यवस्था तथा अमेरिका से दोस्ती का विरोध करते हैं, तो दूसरी तरफ निक्सन के साथ भारत विरोधी अभियान चलाने वाले खलनायक हेनरी कीसिंजर से गले मिलने में कोई संकोच नहीं करते। यूपीए के साथ बैठकों में आदर्श झाड़ते हैं लेकिन लाखों टन अनाज तस्करी से बांग्लादेश पहुंच जाने से रोकने के लिए अपनी भ्रष्ट पुलिस मशीनरी का इस्तेमाल नहीं करते।

भाजपा के साथ गठजोड़ करने वाली तृणमूल कांग्रेस या अमेरिका से दोस्ती के लिए बेताब कांग्रेस पार्टी के नेताओं की गलत नीतियों पर आपत्ति उठाए जाने पर किसी को शिकायत नहीं हो सकती लेकिन विकल्प में कामरेड कौन सा 'आदर्श' पेश कर रहे हैं। बंगाल में 30 वर्षों के दौरान अन्य राजनीतिक पार्टियों की कमजोरियों का लाभ उठाकर कम्युनिस्टों ने एक प्रतिबध्द कैडर और गरीब अशिक्षित दिशाहीन मतदाताओं की आंखों पर लाल पट्टी बांध रखी है। नतीजा यह है कि पश्चिम बंगाल में ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी का अनुपात 28 प्रतिशत से अधिक हो चुका है। बिहार में गरीबी के कारण नाम दर्ज होने के बावजूद स्कूल छोड़ने वाले बच्चों की संख्या करीब 6 लाख 96 हजार हैं, वहीं बंगाल में यह संख्या 9 लाख 61 हजार से अधिक हो चुकी है। हर साल गरीबी और भुखमरी से मरने वालों की संख्या हजारों में पहुंच रही है। जिन अल्पसंख्यकों के नाम पर वे राजनीतिक दुकान चलाते हैं, उन्हें रोजगार देने में बंगाल सबसे पीछे है। पश्चिम बंगाल की आबादी में 25.2 प्रतिशत मुस्लिम हैं जबकि राज्य सरकार की नौकरियों में केवल 2.1 प्रतिशत को अवसर मिले है। नंदीग्राम में हो रहे आंदोलन और पुलिस जुल्म को राजनीतिक मान लिया जाए तो अन्य क्षेत्रों में बिगड़ी स्थिति, पुलिस भ्रष्टाचार को क्या कहा जाए?

कामरेड दिल्ली दरबार में अंतर्राष्ट्रीय राजनीति पर उबलते रहते हैं लेकिन भुखमरी के कारण स्वयं जेल जाने वाजे गरीबों को लेकर कोई वाकआउट, आंदोलन और सरकार गिराने की धमकी नहीं देते। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के न्यायमूर्ति आर.एस. सोढ़ी और न्यायमूर्ति बी.एन. चतुर्वेदी ने पिछले दिनों एक रिपोर्ट में बताया है कि बड़ी संख्या में गरीब और भीख मांगने वाले जेलों में बंद हैं क्योंकि उन्हें बाहर दो मुट्ठी अनाज नहीं मिल पाता। इस मुद्दे पर किसी कामरेड ने कोई टी.वी इंटरव्यू नहीं दिया। वैसे भी पश्चिम का विरोध करने वाले कामरेड जनता की भाषा हिंदी में ठीक से लिख-बोलने तक की क्षमता नहीं जुटा पाए हैं। इसे हिन्दी प्रदेशों का सौभाग्य ही कहा जाएगा कि माक्र्सवादियों को राज्य सरकारों में आने का अवसर नहीं मिला है, वरना बंगाल की तरह पुलिस और पार्टी की छत्रछाया में पलने वाले असामाजिक तत्वों के गोला-बारूद से गरीब लोगों के मारे जाने के खतरे बढ जाते। माक्र्सवादी देवियां ममता की पारिवारिक कलह पर व्यंग बाण छोड़ने में पीछे नहीं हैं लेकिन क्या वे माक्र्सवादी नेताओं के निजी रिश्तों की सार्वजनिक चर्चा के लिए तैयार होंगी।
टब थोड़ी सी बात - कामरेड के प्रेरणादायक चीन की। चीन के हमले, षडयंत्रों, पाकिस्तान-प्रेम आदि की बात छोड़ भी दी जाए, केवल आर्थिक क्रांति पर ही नजर डाली जाए तो पता चलेगा कि पिछले 10 वर्षों में उदार अर्थव्यवस्था के कारण गरीबी-अमीरी की खाई बढने के साथ गांवों की स्थितियां बदतर होने के तथ्यों को समझने के लिए वे आंखों से पट्टी हटाएं। भारत के विशेष आर्थिक क्षेत्र पर तो बवाल है लेकिन चीन में 15 बड़े आर्थिक क्षेत्र, 47 प्रादेशिक जोन, 53 उच्च टेक्नोलॉजी आर्थिक क्षेत्र बनने और 1,800 विशाल डिपार्टमेंटल स्टोर्स की श्रृंखलाएं फैलने से छोटे दुकानदारों की हालत खस्ता हो रही है। हमारे कॉमरेड क्या इस तथ्य को नहीं जानते कि चीन के लगभग 10 करोड़ लोगों को एक डॉलर से भी कम दिहाड़ी मिल पा रही है और भ्रष्टाचार कई गुना बढ़ता जा रहा है। इसलिए सीमा पर सुख-शांति और काम धंधे के लिए तो 'हिन्दी-चीनी भाई-भाई' का नारा ठीक है लेकिन उसकी व्यवस्था को आदर्श बताने की गलती न करें तो अच्छा है। (19 नवंबर, 2007 के आउटलुक साप्ताहिक से साभार)

पुलिस देखती रही, सीपीएम के लोग नंदीग्राम में खून बहाते रहे


सीपीएम के गुंडों ने नंदीग्राम पर कब्जा किया

तामलुक / मिदनापुर : पश्चिम बंगाल के नंदीग्राम में 11 नवंबर को पुलिस के मूक समर्थन से सत्ताधारी सीपीएम के कार्यकर्ताओं ने ऑपरेशन कब्जा की मुहिम को परवान चढ़ा दिया। इससे पहले कि केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) के जवान यहां पहुंचते तृणमूल समर्थिक भूमि उच्छेद प्रतिरोध समिति व सीपीएम के कॉडरों के बीच युद्ध समाप्त हो चुका था और एक बार फिर करीब-करीब पूरे नंदीग्राम पर सत्ताधारी पार्टी कब्जा जमा चुकी थी। नंदीग्राम पर कब्जे के बाद सत्ताधारी पार्टी के कार्यकर्ताओं ने एक रैली भी निकाली जिसमें भूमि उच्छेद प्रतिरोध समिति के बंधक बनाए गए 500 सदस्यों को हाथ बांधकर विजय प्रतीक के रूप में प्रदर्शित भी किया गया।

सीपीएम के लोग 11 नवंबर को नंदीग्राम में फायरिंग करते हुए प्रवेश किया और लूटपाट व आगजनी करते हुए पूरे क्षेत्र पर कब्जा कर लिया। इसमें कितने लोगों की जानें गईं है इसकी कोई आधिकारिक जानकारी नहीं है क्योंकि सीपीएम कार्यकर्ताओं ने नंदीग्राम में जाने और आने के सभी रास्ते बंद कर दिए थे। यहां तक कि एसपी के काफिले को भी अंदर नहीं जाने दिया। एक स्थानीय अखबार ने भूमि उच्छेद प्रतिरोध समिति का नेतृत्व कर रहे विधायक शिशिर अधिकारी के हवाले से बताया है कि इस हमले में 50 लोग मारे गए हैं और 200 से ज्यादा घायल हुए हैं।

नंदीग्राम पर कब्जे के लिए पूर्वी और पश्चिमी मिदनापुर के दो शीर्ष नेताओं ने एक मीटिंग में दो हफ्ते पहले ही योजना बनाई थी। इस मीटिंग में पूर्वी मिदनापुर के एक सांसद और राज्य सरकार के मंत्री भी शामिल थे। मीटिंग में मुख्य रूप से इस बात पर चर्चा हुई कि 11 महीने से निंयत्रण से बाहर नंदीग्राम पर कैसे कब्जा किया जाए। इसको परवान चढ़ाने के लिए तीन जिलों-पूर्वी मिदनापुर] बांकुड़ा और उत्तरी 24 परगना से हथियारबंद लोग बुलाए गए थे। साभार- नवभारत टाइम्स

Wednesday 7 November, 2007

रामभक्त, रावण-हनन के बिना ही दीवाली मनाएंगे?

यह तो युध्द है।
पहले जमीन छीनी, फिर जल पर हमला और हमारे सपनों का आकाश भी आक्रांत।
रामभक्त, रावण-हनन के बिना ही दीवाली मनाएंगे?
लेखक -तरुण विजय
बृजेश ने इसलिए आत्महत्या कर ली क्योंकि उसे अंग्रेजी नहीं आती थी। वह हिन्दी में कामकाज, लिखना-पढ़ना कर सकता था लेकिन आज के माहौल और हर अवसर पर लगे अंग्रेजी के ताले ने उसे इतना बेबस और हताश कर दिया कि उसे लगा अब जीवन बेकार है। वह लड़ सकता था। हो सकता है लड़ना चाहता भी हो, लेकिन जब चारों ओर हर कोई यह सलाह देने के लिए तत्पर हो कि 'जिंदगी में क्या करोगे अगर अंग्रेजी नहीं सीखी-चपरासी भी नहीं बन सकते' तो शायद वह और निराश हो गया होगा। आश्चर्य की बात यह है कि इस आत्महत्या पर न हिन्दी वालों में कोई कंपन हुआ, न ही किसी भी अन्य भाषा के पत्र में या चैनल पर इस विषय पर उस तरह की बहसें हुईं जैसी प्राय: सामाजिक सरोकारों से जुड़े क्रुध्द और बुध्दमना पत्रकार किसी आंदोलनकारी की भूमिका में किया करते हैं। भारत के अंग्रेजी अखबार भारतीय ही चलाते हैं लेकिन उनकी कोशिश यह रहती है कि वह अधिक से अधिक स्वयं को उस सांचे और आंच का प्रतिरुप दिखाते रहें जो लंदन वाले यहां के गली कूचों में छोड़ गए या वे अब भी फ्लीट स्ट्रीट से दिखाते रहते हैं।


बृजेश की आत्महत्या भारतीय भाषाओं के क्षरण की शोकांतिका है। लेकिन ग्लानि उसे हो जिसके भीतर सत्व बचा हो। देश की शोकांतिका राष्ट्रीय समाज के मर्म स्थल के रेतीले पठारों जैसी सूखती जा रही उस नदी का संकेत देती है जिसे संस्कृति भी कहा जाता है। इस समय माहौल यह है कि चैनलों और अखबारों में हिन्दी की हत्या का आनंदोत्सव बड़े गर्व और दंभ के साथ मनाया जा रहा है और कहा जाता है कि जो हिन्दी को हिन्दी के रुप में बनाए रखने के पक्षधर हैं वे बैलगाड़ी युग के पगलाए हुए संदर्भहीन जीवाश्म हैं जो बदलते समय की चाल के अनुसार स्वयं को बदलने से इनकार कर रहे हैं। यह कहते हुए हिन्दी के अखबार अब अंग्रेजी में निकलने लगे हैं, जिसमें हिन्दी का भी देवनागरी में उपयोग होता है। शुध्दता के पक्षधर वैसे ही गाली और तिरस्कार पाते हैं जैसे 'ग' से गणपति के पक्षधर 'ग' से गधा पढ़ाने के सेकुलर पक्षधरों से आघात सहते रहे हैं।

भाषा जीवन, संस्कार, सभ्यता और समाज की वैश्विक दृष्टि का पहला परिचय होता है। देश के क्षरण से पहले भाषा मरती है। भाषा का खत्म होना उन तमाम अवयवों के शिथिल और प्राणहीन होते जाने का लक्षण है जिसे राष्ट्रीयता का पार्किंसन भी कह सकते हैं। इसके परिणाम अनेक रुपों में दिखते हैं। आत्मदैन्य, आत्मविस्मृति, आत्म तिरस्कार में भौंडा आनंद और अपने से इतनी घृणा कि हमलावर आततायी बर्बरों के अनाचार को दैवदत्त कृपा मानते हुए उनके अनुचर बनने में गौरव और कृतार्थता अनुभव करने लगते हैं। खेत खलिहान में फसल रोपते और काटते समय, कुएं की मेंड़ पर पानी भरते समय, विद्यालय में, घर के भीतर या यात्रा के समय , पूजा के समय, यज्ञोपवीत संस्कार, सप्तपदी और अंतिम संस्कार के समय जो भाषा बोली और समझी जाती है उस भाषा का तिरस्कार और उसे धीरे-धीरे खत्म करने का प्रयास यदि राज्यसत्ता और उस सत्ता को चुनने वाले घटक मिलकर करने लगें तो भविष्य कैसा होगा? हिन्दी, संस्कृत तथा सभी भारतीय भाषाओं के प्रति हेय दृष्टि का संवर्ध्दन हर वह व्यक्ति कर रहा है जो आज धन, बौध्दिकता और प्रभाव में संपन्न है एवं वर्तमान प्रचलित एवं लोकमान्य मापदंडों के अनुसार आगे बढ़ रहा है। ऐसे किसी भी परिवार में अपनी घरेलू भाषा, गीत, संस्कार, प्राचीन पुस्तकों का पठन पाठन और सम्मान कितना बढ़ रहा है और कितना घट रहा है, यह रहस्य की बात नहीं रह गई है बल्कि सबको ठीक उसी प्रकार से दिख रहा है जैसे दीवार पर लिखी इबारत दिखती है। इसलिए जिन कांवेंट स्कूलों में अक्सर त्योहारों की छुट्टी न होना, बिंदी न लगाने या चूड़ी न पहनकर आने की शिकायतें, संपादक के नाम रीढ़हीन गुस्साए पत्रों में दिखती हैं, ऐसे किसी भी विद्यालय से कभी संस्कृतिनिष्ठ धीरोदात्त व्यक्ति ने दृढ़ता से अपने बच्चे निकाले हों, ऐसे कितने उदाहरण मिलते हैं?

खंडित आजादी के बाद भी देश सिकुड़ता ही गया, उसी अनुपात में जिस अनुपात में भारतीय भाषा का विस्तार और सम्मान सिकुड़ता गया। अब कश्मीर से भारतीय देशभक्त सिकुड़कर जम्मू तक आए। लेकिन उससे पहले आप जानते हैं क्या हुआ? कश्मीर से कश्मीरी भाषा को निकाला गया। देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली कश्मीरी भाषा कश्मीर की राजभाषा नहीं है, वहां की राजभाषा है अरबी लिपि में लिखी जाने वाली वह उर्दू जिसका कश्मीर, कश्मीरियत, कश्मीर के इतिहास और संस्कृति से कोई आत्मीय रिश्ता रहा ही नहीं। अगर कुछ रहा तो सिर्फ यह कि जैसे बिहार और उत्तर प्रदेश ने उर्दू में अलगाववादी, विभाजनकारी पाकिस्तान परस्तों को गोला बारुद और लड़ने का सामान दिया ठीक वैसे ही कश्मीर पर उर्दू थोपे जाने के बाद वहां की मूल संस्कृति, परंपरा, इतिहास और उस सबका प्रतिनिधि करने वाले हिन्दुओं को ही नहीं बल्कि एक साथ रहने वाले सांझी विरासत के मुसलमानों को भी आहत किया गया। यानी जमीन सिकुड़ी, भाषा को बहिष्कृत किया और फिर देशभक्तों को तिरस्कृत कर पलायन पर मजबूर किया गया। उधर अरुणाचल पर निरंतर खतरे की तलवार लटकती आ रही है। आज जिससे भी आप पूछिए, पूर्वांचल में ऐसा कौन सा द्वीप अभी शेष है जहां शासन, सुशासन, गांव-नगरों में आज भी जयहिंद का नारा सम्मान से उच्चारा जाता है, तो एक ही जवाब होगा-अरुणाचल प्रदेश, और अरुणाचल प्रदेश में आज भी हिन्दी जीवित है। वहां के कामकाज, सामान्य व्यवहार, बाजार और यहां तक कि अरुणाचली जनजातियों के घरों और गांवों में भी हिन्दी में ही व्यवहार सामान्य बात है। लेकिन अब अरुणाचल पर भी खतरा मंडराने लगा है और ईसाई मिशनरी जहां-जहां अरुणाचल में अलगाव की आग को हवा दे रहे हैं वहां-वहां रोमन लिपि और रोमन भाषा बढ़ रही है। नागालैंड, मणिपुर और मिजोरम में भारतीय भाषाओं का बहिष्कार और अपमान पहले हुआ और उसके बाद भारत से अलग होने की मांग उठी। यही भारतीयता का सिकुड़ना और विलुप्त होना है, जो राम मंदिर के विरोध में राम की अर्चना कर रहे उन्हीं लोगों को खड़ा कर देता है जो सत्ता के लिए सेकुलर होते हैं और धन-धान्य का व्यापार बढ़ाने के लिए घर के प्राइवेट रुम में अत्यंत धार्मिक और पूजापाठी।

जिनका अपने में विश्वास नहीं और जो द्रोपदी के चीरहरण को किसी खेल का सामान्य दृश्य मानकर जीवन व्यापार चलाते रहते हैं वही रामसेतु भंजन में कुछ भी असामान्य नहीं देखते।

भाषा और संस्कार वह जमीन है जो राष्ट्र को आधार देती है। राष्ट्र जंगल, नदियों, पहाड़ों और बस्तियों में श्मशान घाटों का समुच्चय नहीं होता, वह भूधरों का ऐसा खंड हो सकता है जहां लोग वैसे ही रहते हों जैसे मवेशी चराने वाले किसी भी हरे भरे मैदान को देखकर वहां सुबह मवेशी छोड़ देते हैं और शाम को मवेशियों का दूध निकाल लेते हैं या भेड़ों की ऊन काट लेते हैं। वे पैदा हुए हैं इसलिए जीने का साधन ढूंढना ही पड़ता है और मर जाएंगे तो न उस जमीन से रिश्ता होगा जहां जिए थे और न ही वहां के दर्द से वेदना का कोई सरोकार पैदा कर पाएंगे। यही लोग भाषा, भूषा और भावना के भंजक होते हैं। ज्यादातर लोग ऐसे ही हैं। भौगोलिक जमीन गई तो न प्रतिशोध की आवाज उठी, न प्रतिकार का संकल्प गूंजा। अब सांस्कृतिक जमीन घट रही है, दूर हो रही है और वहां गजनी और गोरियों के तम्बू तन गए हैं, फिर भी तानसेन दरबार में गा रहे हैं और वाजिद अली शाह की रूमानियत के गीतों का इश्क बदस्तूर जारी है। हमें समझाया जा रहा है 'विदेशी मुद्रा भंडार बढ़ रहा है, भारतीय सेठों के बैंक खाते दुनिया में सबसे बड़े और ऊंचे हुए हैं। देखो, हम सबसे अमीर हो गए। हमारी अभिनेत्रियां भी दुनिया भर में प्रसिध्द हो रही हैं, होटलों, बाजारों और घटिया से घटिया जगहों पर भी उनके पोस्टर लगे हैं, फिल्मों की सीडियां बिक रही हैं। देखो, हम कितना बढ़ रहे हैं।' यह बढ़ना किसका बढ़ना है? क्या कोई यह सवाल नहीं उठाएगा? यहां के सेठों के पास पैसा बाबर, औरंगजेब या मैकाले के समय क्या कम था और यहां की नौटंकियां और नृत्य क्या कम लोकप्रिय थे? पर भारत कहां था?

भारत तो तिल-तिलकर जल रहा था। जिन्हें उसकी जलन से पीड़ा हुई वे स्वामी विवेकानंद, ईश्वर चंद विद्यासागर, भगत सिंह और डा. हेडगेवार बने। जिन्हें उस समय भी सब कुछ सामान्य लग रहा वे शहर कोतवाल या भगत सिंह के खिलाफ गवाही देने वाले बने। उन्हें इसमें कुछ भी खराब नहीं लगा, स्वाभाविक ही था।

वही लोग रामसेतु तोड़े जाने पर न उद्वेलित होते हैं न परेशान। पत्थर ही तो हैं। आज तक किसी ने नहीं तोड़ा, आज तोड़ रहे हैं तो क्या हुआ? ये वही लोग थे जो सीता के अपहरण पर भी परेशान नहीं हुए और रावण की लंका में रोज का व्यापार, खाना पीना, आमोद-प्रमोद करते रहे। सीता अगर अशोक वाटिका में थी, तो थी। सीता जैसी अनेक स्त्रियों का रावण अपहरण करता आ रहा था। रावण स्त्री जाति के प्रति भोगवादी दृष्टि रखने वाला अहंकारी, बलशाली राजा था तो क्या हुआ? क्या इससे किसी को पीड़ा होनी चाहिए थी? आमतौर पर सोचा जाए तो सभी को रावण के इस व्यवहार के प्रति विद्रोही बनना चाहिए। लेकिन उस समय मेघनाथ और कुंभकरण थे और इस समय बालू और करुणानिधि हैं। बालू और करुणानिधि अपने मन में यह मानकर चल रहे हैं कि वे जो जानते हैं, समझते हैं और कर रहे हैं, वही ठीक है। इसलिए एक अनपढ़ उच्छिष्ट जीवी की तरह वे किसी ऊल जलूल उध्दरण और बकवास को वाल्मीकि की रामायण या तुलसीदास कृत रामचरितमानस का अंश बता देते हैं या शपथ पत्र दे देते हैं कि राम थे ही नहीं। और दीवाली, दशहरे पर राम का पूजन करते हुए रामसेतु तोड़ने की साजिश में उसी आनंद के साथ शामिल होते हैं जिस आनंद से वे रात में दीवाली पूजन करते हैं। ऐसे लोगों का पतन और पराजय सुनिश्चित करनी है, राम की सेना में शामिल होना है और यही कार्य अयोध्या आगमन की पूर्व पीठिका बन सकता है-और कुछ नहीं।

इसलिए राम योध्दा होने का अर्थ है अपनी भारतीयता और रामभक्ति और अपने मनुष्यत्व की साधना करना। राम योध्दा होने का अर्थ यह भी है कि एक जिद्द लेकर अपने चतुर्दिक समझौतावादियों के सलेटी और स्याह रंग को भस्म करते जाना। जो समझौता करे, झुके या बीच का रास्ता खोजे वह सिर्फ धिक्कार के योग्य है। अयोध्या की दीपावली भारत का दीपोत्सव तभी बन सकती है जब राम योध्दा राक्षसों को परास्त कर घर लौटें।

Tuesday 6 November, 2007

हिटलर व इंदिरा गांधी की राह पर मुशर्रफ : अरुण जेटली


पिछले 24 घंटों के दौरान पाकिस्तान में हुआ घटनाक्रम अंतरराष्ट्रीय चिंता का विषय है। सबसे नजदीकी पड़ोसी होने के नाते भारत के लिए यह स्थिति और भी ज्यादा गंभीर है। भारतीय जनता पार्टी मानती रही है कि पाकिस्तान में लोकतंत्र के लिए संघर्ष और मजहबी आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई को अलग-अलग नहीं किया जा सकता। पाकिस्तान में लोकतंत्र बहाली और कानून का राज स्थापित करने के संघर्ष में भाजपा वहां की जनता के साथ प्रतिबद्धता व्यक्त करती है।

भारत में खास तौर से 1975 के बाद जन्मे या वयस्क हुई पीढ़ी के लिए पिछले 24 घंटों के दौरान पाकिस्तान का घटनाक्रम हूबहू वही है जो हम आपातकाल के दौरान झेल चुके हैं। यह विडंबना है कि जिस समय पाकिस्तान में यह घटनाक्रम चल रहा था, उस समय 1975 में भारत पर निरंकुशता के साथ आपातकाल थोपने वाली कांग्रेस पार्टी की अध्यक्ष सोनिया गांधी भाजपा पर संवेदनहीन और सामाजिक सरोकारों से दूर होने का आरोप मढ़ रही थीं। दुनिया ने बार-बार देखा है कि आपातकाल के नाम पर लोकतांत्रिक संविधानों को ताक पर रखा गया और सत्ता की पूरी शक्ति व्यक्ति केंद्रित करने के लिए तानाशाही को थोपा गया। तानाशाहों ने आपाताकाल थोपने के लिए आतंकवाद की धमकी, अस्थिरता के खतरे और कार्यपालिका पर न्यायपालिका के अतिक्रमण जैसे मुहावरों को ढाल बनाया। एडाल्फ हिटलर ने जर्मनी की संसद रिचस्टैग में आग लगने की घटना को आपातकाल लागू करने का आधार बनाया। इंदिरा गांधी ने देश को अस्थिर करने की साजिशों का आरोप लगा कर देश पर आपातकाल थोपा। अब जनरल परवेज मुशर्रफ ने भी आतंकवाद और कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में न्यायपालिका के अतिक्रमण को आधार बनाया तो कोई आश्चर्य नहीं। आपातकाल की तीनों ही घटनाओं के पीछे एक ही भावना अंतर्निहित थी। व्यक्तिगत ताकत को सुदृढ़ कर सब कुछ अपने हाथ में लेने की चाह, सत्ता खोने की सभी आशंकाओं को खत्म करने और किसी भी तरह की आलोचना को बर्दाश्त न कर पाने की भावना ही आपातकाल लागू करने का कारण बनी है। तीनों ही घटनाओं में संवैधानिक संरचना भी एक ही है। सबसे पहले तो बिना पर्याप्त कारणों के आपातकाल लागू करिए। दूसरे इस फैसले को बदलने की सभी संभावनाएं खत्म करने के लिए चाहे जजों को धमकाया जाए या फिर बदल दिया जाए। तीसरे, विरोध के हर स्वर को समाप्त कर दिया जाए। वह चाहे मीडिया पर प्रतिबंध लगाकर हो, दूरसंचार संबद्धता खत्म कर या फिर संपादकों को गिरफ्तार करके ही यह लक्ष्य पूरा होता हो। चौथा तरीका है कि नागरिक अधिकारों को बिल्कुल खत्म कर उन्हें बिना ट्रायल के जेलों में ठूंस दिया जाए और उसे अदालत में भी चुनौती न दी जा सके। इसी कड़ी में पांचवां तरीका सभी राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को गिरफ्तार करवाने का है। इसके साथ ही चाटुकारिता का वह दौर शुरू हो जाता है, जिसमें आपातकाल लगाने के समर्थन में तर्क दिए जाते हैं। कहा जाता है कि राष्ट्रहित के लिए यह जरूरी था। आपातकाल के पैरोकार तो एक कदम आगे जाकर वंशवाद को लोकतंत्र के मुकाबले स्थापित करने का प्रयास करने से भी नहीं चूकते। भारत इसका एक जीवंत उदाहरण है। आपातकाल के ये पैरोकार अंतत: इसे आम आदमी के हितों से जुड़ा हुआ भी करार देते हैं। बताया जाता है कि देश की आर्थिक तरक्की होगी और गरीबों को इसका सबसे ज्यादा फायदा होगा।

हमें नहीं भूलना चाहिए कि इमरजेंसी के बाद हिटलर ने 25 सूत्री और इंदिरा गांधी ने 20 सूत्री आर्थिक कार्यक्रम लागू किया था। अब पाकिस्तान से भी ऐसी किसी घोषणा की उम्मीद है। भाजपा यह इसलिए बता रही है कि देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा जो 1970 के मध्य में जन्मा है वह इस बात का एहसास कर सके कि 1975-77 के दौरान देश को किन दुश्वारियों का सामना करना पड़ा था। भारतीय जनमानस ने आपातकाल से लड़ने में अतुलनीय हिम्मत और साहस का प्रदर्शन किया था। हम आशा करते हैं कि पाकिस्तान की जनता भी उसी जज्बे के साथ सफलता हासिल करेगी। प्रस्तुति : राजकिशोर

Monday 5 November, 2007

अंग्रेजी के ताले में बंद भारत का विकास-2

-मधु पूर्णिमा किश्वर संपादक, मानुषी

यह सच है कि आर्थिक वैश्वीकरण के इस युग में अंग्रेजी भाषा की महत्ता थोड़ी मात्रा में ही सही, हर देश में बढ़ गयी है। अधिकांश देशों में अंग्रेजी शेष दुनिया के देशों के साथ संवाद के लिए प्रयोग की जाती है, विशेषकर अन्तरराष्ट्रीय लेन-देन के मामलों में। हालांकि कुछ गिने-चुने देश ही अंग्रेजी को आन्तरिक प्रशासन, शिक्षा, तकनीकी शिक्षा या व्यावसायिक गतिविधियां चलाने के लिए प्रयोग करते हैं। चीन, कोरिया, थाइलैण्ड, जापान, फ्रांस, तुर्की, ईरान, चिली या जर्मनी आदि देशों में कोई व्यक्ति बिना अंग्रेजी जाने भी अधिवक्ता, चिकित्सक, वास्तुविद् या अभियन्ता बन सकता है। इसके विपरीत भारत में बिना अंग्रेजी जाने कोई व्यक्ति किसी महत्वपूर्ण पद पर पहुंचने के योग्य ही नहीं माना जाता। जहां दुनिया के अधिकांश देशों में बिना स्थानीय भाषा के ज्ञान के किसी व्यक्ति को किसी सुयोग्य पद पर बैठने के योग्य नहीं समझा जाता, वहीं भारत सम्भवत: दुनिया का एकमात्र ऐसा देश है, जहां ऊंचे पदों पर बैठे उच्च शिक्षा प्राप्त लोग, जिन्होंने देश में रहते हुए ही शिक्षा तथा पद पाया है, वे यह बताना सम्मानजनक समझते हैं कि उन्हें अपनी मातृभाषा नहीं आती। वह मातृभाषा हिन्दी हो, तमिल, तेलुगू अथवा अन्य कोई, वे दस वाक्य भी अंग्रेजी के शब्दों और लोकोक्तियों के प्रयोग किए बिना नहीं बोल सकते।

बहुत से लोग यह कहकर इसका प्रतिवाद करेंगे कि-

1. अंग्रेजी भाषा सफलता की कुंजी नहीं है, इसके विपरीत अंग्रेजी बोलने वाला वर्ग ऊंचे जातियों से आता है। और अंग्रेजी का बढ़ता महत्व इन्हीं ऊंची जातियों और इनके ऊंचे पदों के कारण है।

अथवा 2. अंग्रेजी भाषा आसानी से सीखी जा सकती है क्योंकि इसके सीखने की कोई क्षेत्रीय सीमा नहीं है।

लेकिन यह कहना पूरी तरह गलत है। पिछली एक शताब्दी से हमारी शिक्षा पध्दति पर अंग्रेजी की प्रभावी पकड़ होने के बावजूद बहुत छोटी-सी संख्या ऐसी है, जो प्रभावी एवं सही तरीके से यह भाषा बोल सकने में समर्थ है। यहां तक कि अंग्रेजी पढ़े-लिखे वर्ग की भी स्थिति बहुत सन्तोषजनक नहीं है। हमारे अधिकांश परास्नातक और शोध उपाधि प्राप्त लोग अंग्रेजी में सही तरीके से तीन वाक्य भी नहीं लिख सकते, यद्यपि उन्होंने अपनी सारी परीक्षा अंग्रेजी में ही दी होती है। फिर भी वे अंग्रेजी के पीछे भागते हैं, क्योंकि अंग्रेजी का दिखावा भारतीय भाषाओं की तुलना में ज्यादा प्रभावी है। यही कारण है कि आज देश के लोग मध्य एवं निम्न मध्य वर्ग अपने बच्चों को प्राथमिक शिक्षा भी अंग्रेजी में दिलाने के लिए सभी प्रकार के सामाजिक व आर्थिक त्याग करने को तैयार हैं।

वस्तुत: अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों के प्रति भारतीय जनता के बढ़ते मोह के पीछे गैरअंग्रेजी माध्यम स्कूलों की गुणवत्ताहीन शिक्षा भी कम जिम्मेदार नहीं है। स्थानीय या क्षेत्रीय भाषा में शिक्षा ग्रहण करना आज निम्न छोटे स्तर की बात मानी जाने लगी है। यदि आप अंग्रेजी भाषा न जानने के कारण अशिक्षित माने जा रहे हैं तो आपके पास कोई दूसरा चारा भी नहीं है, सिवाय इसके कि आप भी अंग्रेजी सीखें और वह भी अपनी सभी अन्य आवश्यक योग्यताओं की कीमत पर। गैर अंग्रेजी माध्यम स्कूलों की तुलना में अंग्रेजी स्कूल आज अच्छे माने जाते हैं और यह भी कि जो इन स्कूलों में पढ़ते हैं उन्हें अधिक सभ्य माना जाता है। यह बात इस तथ्य के बावजूद मानी जा रही है कि अधिकांश अंग्रेजी स्कूलों की शैक्षिक गुणवत्ता बहुत निम्न स्तर की है। कुछ अपवाद छोड़ दें तो इन स्कूलों में पढ़े-लिखे अधिकांश छात्र अखबारों की रपट को समझने की योग्यता तक नहीं रखते। अंग्रेजी की गम्भीर पुस्तकों को पढ़ने की बात छोड़ दें तो भी वे अंग्रेजी से जूझने में अपनी सारी शक्ति खर्च करते हैं और जानबूझकर अपनी मातृभाषा के ज्ञान के प्रति लापरवाही बरतते हैं। और इस प्रक्रिया में उन्हें अंग्रेजी और अपनी मातृभाषा की भ्रमित खिचड़ी के अतिरिक्त कुछ हाथ नहीं लगता। इसी के साथ उनकी सोचने की क्षमता पर भी बहुत गंभीर असर पड़ता है क्योंकि भाषा शब्दों को समझने, विचारों को गुनने और प्रभावी संवाद की अवधारणाओं के प्रयोग का प्राथमिक साधन है। किसी व्यक्ति की सोचने की क्षमता बुरी तरह से क्षतिग्रस्त हो जाती है यदि वह कम से कम एक भाषा का अच्छा जानकार नहीं है।

यही एक प्रमुख कारण है जिसके कारण हमारे देश में बड़ी संख्या में पाठशालाओं व महाविद्यालयों में अच्छे अध्यापकों की कमी है। जो अच्छी अंग्रेजी जानते हैं, साधारणत: वे ऊंचे व ज्यादा वेतन वाले पदों पर पहुंच जाते हैं। जो थोड़े-बहुत अध्यापन क्षेत्र चुनते भी हैं तो वे बड़े विद्यालयों व विश्वविद्यालयों का रुख कर लेते हैं। दूसरी तरफ जो हिन्दी माध्यम या किसी अन्य क्षेत्रीय भाषा के विद्यालयों में पढ़े-लिखे होते हैं वे अंग्रेजी ज्ञान के अभाव में यहां तक नहीं पहुंच पाते।

अंग्रेजी के वर्चस्व ने जो दुष्परिणाम पैदा किए हैं उसे हमें साहस के साथ स्वीकार करना चाहिए। वे जिन्होंने भारतीय भाषाओं में अध्ययन किया है और जिन्हें अंग्रेजी की सतही जानकारी है, उनकी विभिन्न विषयों से सम्बन्धित ज्ञान व सूचनाओं तक पहुंच नहीं हो पाती। कुछ ऐसे उदाहरण हैं जिनसे हमारे अंग्रेजी शिक्षित लोगों की संवेदनहीनता और अहंकार के कारण जन्मे अन्याय और विसंगतियों पर प्रकाश पड़ता है।

0 देश में चिकित्सा, विज्ञान, तकनीकी या सामाजिक विज्ञान विषयक पत्रिकाएं किसी भारतीय भाषा में नहीं हैं। सभी वैज्ञानिक अपने निष्कर्ष अंग्रेजी में ही प्रकाशित करते हैं तथा सभी तकनीकी संस्थान अंग्रेजी में पढ़ाते हैं। मानो अंग्रेजी ही विज्ञान व तकनीकी शिक्षा के लिए सहज व स्वीकार्य भाषा है। लेकिन थाइलैण्ड, कोरिया, चीन व जापान में ऐसा देखने को नहीं मिलेगा और न ही जर्मनी अथवा फ्रांस में।

0 देश के सभी वास्तु तकनीक विद्यालयों में शिक्षण और परीक्षा का माध्यम अंग्रेजी ही है। यद्यपि भारत की अपनी सुविकसित व विशेष वास्तु परम्परा रही है।

0 यह असम्भव नहीं तो कठिन जरूर होगा कि हम अपने नल बनाने वाले, बिजली मिस्त्री तथा भवन बनाने वाले मिस्त्रियों के शिक्षण के लिए हिन्दी, मराठी व तमिल में कोई शिक्षण सामग्री तैयार कर सकें। इसी का परिणाम है कि जो लोग इन व्यवसायों को चुनते हैं उनका कौशल व ज्ञान आधा-अधूरा ही रहता है, क्योंकि उनके पास दूसरों के काम निरीक्षण अथवा उनसे बातचीत कर सीखने के अलावा दूसरा कोई रास्ता नहीं है।

0 हमारे वकील अंग्रेजी में ही उनकी ओर से अंग्रेजी में याचिका तैयार करते हैं, जो अंग्रेजी का एक अक्षर भी नहीं जानते। हमारे उच्च न्यायालयों की कार्यवाही तथा न्यायाधीशों के निर्णय भी अंग्रेजी में ही दिये जाते हैं।

0 भारत ही एक ऐसा देश है जहां के प्रसिध्द इतिहासकार देश का इतिहास भी अंग्रेजी में लिखते हैं। सुप्रसिध्द समाजशास्त्री भी अपने सामाजिक अध्ययन के विवरण अंग्रेजी में ही प्रकाशित करते हैं। जो अंग्रेजी नहीं जानते हैं उनके लिए यह नया ज्ञान पहुंच से परे है।

आज भी हम अपने इतिहास को जानने के लिए औपनिवेशिक प्रशासनों, विदेशियों तथा विदेशी यात्रियों द्वारा लिखित विवरणों पर निर्भर रहते हैं। भारत के प्राचीन व धार्मिक ग्रन्थों का अनुवाद और उनका गहन अध्ययन भी विदेशी विद्वानों ने ही किया है परिणामत: उनकी पूर्वाग्रहपूर्ण व्याख्या तथा उनकी समालोचना को ही हम सत्य मानने को मजबूर हैं। हम अपनी सफलता तथा विफलता, अपनी समस्याएं और अपनी प्रेरणाओं को समझने के लिए भी बाहरी लोगों के मोहताज हैं। हम उसे ही मानते व बताते हैं जिन्हें पश्चिम ने मान्यता दी है। हम लोग अपनी सफलताओं, विफलताओं, समस्याओं की रूपरेखा और यहां तक कि अपनी महत्वाकांक्षाओं को भी बाहरी व्यक्ति की आंखों से देखने लगे हैं। हम उसकी उपेक्षा करते हैं जिसको पश्चिम ने अस्वीकृत किया था या तिरस्कृत कर दिया है। आज यदि किसी अंग्रेजी शिक्षित संभ्रान्त व्यक्ति से आप किन्हीं तीन अच्छे भारतीय साहित्यिक लेखकों के नाम पूछें तो वह अपना पसंदीदा नाम विक्रम सेठ, शशि थरुर या अमिताभ घोष के नाम बताएगा। उनमें से बहुत कम ही ओ.वी. विजयन, जो कि मलयालम के एक बहुत ही अच्छे लेखक थे या विजय तेन्दुलकर, जिन्होंने मराठी में कुछ बहुत ही अच्छे नाटक लिखे का नाम लेंगे, क्यों? क्योंकि इन लेखकों को हम उतना महत्वपूर्ण नहीं समझते जितना कि उस लेखक को जो बुकर पुरस्कार जीत चुके हैं।

भारत में अंग्रेजी कभी भी जन शिक्षा का माध्यम नहीं हो सकती है। अंग्रेजी में निपुणता बहुतों के लिए अप्राप्य है तथा एक विशाल जनसमूह को असामान्य प्रतिस्पर्धा की स्थिति प्रदान करती है। प्रशासन व संभ्रान्त पेशों की भाषा के रूप में भारतीयों पर अंग्रेजी थोपे जाने के डेढ़ सौ साल बीत जाने पर भी, हमारी आबादी के एक प्रतिशत लोग भी इसे प्रथम या द्वितीय भाषा के रूप में प्रयोग नहीं करते। यहां तक कि शिक्षित भारतीयों में भी अंग्रेजी तीसरे स्थान पर है। भारत में लगभग 45 प्रतिशत लोग हिन्दी भाषी राज्यों से आते हैं जबकि महाराष्ट्र, गुजरात, कश्मीर, असम, पंजाब, बंगाल, आन्ध्र प्रदेश, उड़ीसा में एक बड़ी संख्या में लोग हिन्दी का व्यवहारिक ज्ञान रखते हैं।

यह सिर्फ संयोग ही है कि भारत के सभी राज्यों में से केवल उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ही ऐसे हैं, जो सहजता से अपने राज्य की भाषा नहीं बोल सकते। अपने पिता श्री बीजू पटनायक, जो उड़िया संस्कृति को गहराई से रचे बसे थे, की व्यापक मन छवि का लाभ उन्हें मिला। राजनीतिक महत्वाकांक्षा पनपने के बाद सोनिया और राहुल गांधी दोनों को अथक प्रयासों से हिन्दी सीखनी पड़ी है। जबकि भारत में अपने शुरुआती 30 सालों में सोनिया गांधी ने न स्वयं और न ही अपने बच्चों को कभी प्रयत्नपूर्वक हिन्दी सीखने व सिखाने की परवाह की। क्षेत्रीय भाषाओं की राजनीतिक शक्ति और राजनीतिक क्षत्रप इस बात के गवाह हैं कि कोई व्यक्ति, जो गहराई से अपने चुनाव क्षेत्र की भाषा और संस्कृति से नहीं जुड़ा है, के चुनाव जीतने की सम्भावना कम ही होती है, भले ही वह कितना ही योग्य क्यों न हो। जनता को जब अपने वोट देने का अवसर मिलता है तो इसमें भाषा का भी अप्रत्यक्ष संकेत रहता है।

जो भी हो, न्यायपालिका, नौकरशाही तथा संभ्रान्त पेशों में आज भी वही लोग प्रभावी हैं, जो देश की भाषाओं में 5 वाक्य नहीं लिख सकते और ऐसा इसलिए है, क्योंकि जनता के पास इन क्षेत्रों में अपनी भाषा की पसंद बताने की कोई ताकत नहीं है, जैसे वह वोट के द्वारा राजनीति के क्षेत्र में रखती है।

इसका मतलब यह भी है कि हमारी राजनीति में उन लोगों का प्रभुत्व हो चुका है जो गुणवत्तापरक शिक्षा नहीं प्राप्त कर पाये हैं। इसी के साथ हमारे बहुत से चुने हुए प्रतिनिधि उस पद के अयोग्य होते हैं जिसके लिए वे चुने जाते हैं जैसे कि कानून निर्माण की बात ही ले लें। इसलिए चुने हुए प्रतिनिधियों की जगह नौकरशाह और किराये के कानूनविद् ही अधिकांशत: कानूनों को लिखने, उसकी अवधारणा निर्मित करते हैं। अतएव हमारे राजनीतिक संस्थानों के प्रतिमानों और उपलब्धियों का क्षरण हमारी दोहरी भाषा नीति का ही परिणाम है। इसी के कारण देश की सामान्य जनता स्तरहीन शिक्षा पाने को विवश है। समाप्त