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Wednesday 23 January, 2008

बंगाल में पूंजीवाद या रावण का स्वर्ण मृग?

लेखक - देवेन्द्र स्वरूप

3 जनवरी को बंगाल के मुख्यमंत्री बुध्ददेव भट्टाचार्य ने अपनी पार्टी के दैनिक मुखपत्र 'गणशक्ति' के 45वें स्थापना दिवस समारोह में उपस्थित वामपंथी कार्यकर्ताओं को सम्बोधित करते हुए कहा कि बंगाल के आर्थिक विकास के लिए औद्योगिकीरण आवश्यक है और औद्योगिकीरण पूंजी के बिना सम्भव नहीं है इसिलए हमें पूंजीवाद के रास्ते पर जाना होगा। बुध्ददेव ने कोई नई बात नहीं कही। वे बंगाल विधानसभा चुनाव के पूर्व ही कह चुके थे कि बंगाल में जो कुछ कर रहे हैं वह समाजवाद नहीं, पूंजीवाद है। लेकिन इस बार उन्हें बंगाल के वयोवृध्द नेता ज्योति बसु का भी खुला समर्थन मिला। 5 जनवरी को ज्योति बसु ने माकपा कार्यकर्ताओं को सम्बोधित करते हुए दो टूक शब्दों में कहा कि औद्योगिक विकास के लिए हमें देशी व विदेशी पूंजी को आमंत्रित करना होगा। हमारा शासन केवल तीन राज्यों तक सीमित है। पूरे देश में पूंजीवादी व्यवस्था के भीतर हम काम कर रहे हैं इसलिए हमें भी पूंजीवाद का रास्ता अपनाना ही होगा।

क्या दो शीर्ष माकपाई नेताओं के इन उद्गारों को सोवियत रूस और माओवादी चीन में कई दशाब्दियों लम्बे मार्क्सवादी प्रयोग की विफलता की कारण-मीमांसा और विचार-मंथन में से निष्पन्न वैचारिक परिवर्तन माना जाए या केवल बंगाल में सत्ता में बने रहने की मजबूरी जन्य रणनीति? यदि भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के भीतर मार्क्स, लेनिन और माओ की किताबों की तोता रटन्त से आगे बढ़कर सोवियत संघ और चीन के अनुभवों के आलोक में मार्क्सवादी विचारधारा की अवैज्ञानिकता और अपूर्णता को समझने का ईमानदार बौध्दिक प्रयास हुआ होता तो बुध्ददेव और ज्योति बसु के कथनों पर वाममोर्चे के छुटभये घटकों भाकपा, आर.एस.पी. और फार्वर्ड ब्लाक आदि की इतनी तीखी प्रतिक्रिया न होती। यहां तक कि केरल के मुख्यमंत्री वी.एस. अच्युतानन्दन इन वक्तव्यों की खुली आलोचना न करते। शायद इस अन्तर्संवाद से बाहर निकलने के लिए ही माकपा महासचिव प्रकाश करात ने बुध्ददेव और ज्योति बसु के वक्तव्यों का समर्थन करते हुए स्पष्ट कर दिया कि यह मात्र रणनीति है, सैध्दांतिक परिवर्तन नहीं। समाजवाद पर हमारी निष्ठा अडिग है, वही हमारा अंतिम लक्ष्य है। केन्द्र में सत्ता में आये बिना हम पूरे भारत को समाजवाद के रास्ते पर नहीं ले जा सकते। उस लक्ष्य तक पहुंचने के लिए रणनीति के तौर पर हम पूंजीवाद को अपना सकते हैं। रणनीति बदल सकती है, लक्ष्य नहीं, सैध्दांतिक अधिष्ठान नहीं। करात ने त्वरित आलोचना के लिए आर.एस.पी. को फटकार भी लगाई।

आर.एस.पी. के नेता के. पंकजाक्षन ने कहा था कि मैंने माक्र्सवाद की किसी किताब में नहीं पढ़ा कि औद्योगिक विकास के लिए पूंजीवाद जरूरी है। पूर्व सोवियत संघ में कम्युनिस्ट पार्टी ने निजी पूंजी के बिना ही औद्योगिक ढांचा खड़ा कर दिया था। माकपा से निष्कासित केरल के एम.वी. राघवन ने, जिन्होंने कम्युनिस्ट माक्र्सवादी पार्टी नाम से नया मंच बनाया है, ज्योति बसु व बुध्ददेव की आलोचना करते हुए कहा कि यदि माकपा समझती है कि समाजवाद का कोई भविष्य नहीं है तो उसे स्वयं को भंग कर देना चाहिए। एक अन्य मार्क्सवादी ने कहा कि माकपा को अपना नाम पूंजीवादी कम्युनिस्ट पार्टी रख लेना चाहिए।

विचारधारा या अंधविश्वास?
भारतीय कम्युनिस्टों में सिंगूर, नंदीग्राम, तस्लीमा, रिजवानुर रहमान आदि प्रसंगों को लेकर जो बहस चल रही है उसे पढ़कर लगता है कि मार्क्सवाद उनके लिए वैज्ञानिक विचारधारा से अधिक एक अंधविश्वास बन गया है। यह अंधविश्वास केवल राजनीतिक कार्यकर्ताओं तक सीमित नहीं है तो बड़े-बड़े कम्युनिस्ट बौध्दिकों में भी गहरा बैठा हुआ है। बंगाल सरकार के संरक्षण में माकपाई कार्यकर्ताओं द्वारा नंदीग्राम में किसानों के नरमेध से उद्वेलित राजेन्द्र यादव, जो हंस के संपादक हैं, के इन शब्दों को पढ़िये, 'कुछ लोगों की असफलताओं के कारण छोड़कर विरोधी खेमे में चले जाना हमारा धर्म नहीं है। हमें आज भी वाम-विचारधारा में अटूट विश्वास है, क्योंकि मानव-इतिहास में आज भी वही सबसे विकसित अजेय विचारधारा है। चूंकि सभी विचारधाराओं में वही सबसे वैज्ञानिक है...' (हंस, दिसम्बर, 2007)

यहां सवाल खड़ा होता है कि किसी विचारधारा की वैज्ञानिकता की कसौटी क्या है? मार्क्सवाद का दार्शनिक अधिष्ठान द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद को माना जाता है। मानव सभ्यता की मूल प्रेरणा आर्थिक कही गई है। क्या विज्ञान की पिछले डेढ़ सौ साल की प्रगति के आलोक में इस सिध्दांत को वैज्ञानिक कहा जा सकता है? माक्र्स ने मानव सभ्यता की इतिहास यात्रा को आदिम साम्यवाद, दासयुग, सामंतयुग और पूंजीवादी युगों में विभाजित करते हुए भविष्यवाणी की कि पूंजीवाद के विनाश के बीज उसके भीतर ही विद्यमान हैं और अपने चरम पर पहुंचकर वह नए साम्यवादी युग को जन्म देगा। मार्क्स के अनुसार पूंजीवाद की मृत्यु अवश्यम्भावी है, मार्क्सवादियों को केवल उस दिन को नजदीक लाना है, इसके लिए सर्वहारा को संगठित करके क्रांति का बिगुल बजाना है। माक्र्स की इतिहास दृष्टि यदि वैज्ञानिक होती तो माक्र्सवादी क्रांति को सबसे पहले सर्वाधिक विकसित पूंजीवादी देशों जैसे ब्रिटेन, अमरीका, जर्मनी या फ्रांस में होना चाहिए था। किन्तु इन देशों में मार्क्सवादी क्रांति होना तो दूर, उनका पूंजीवाद ही अब रूस और चीन जैसे कम्युनिस्ट देशों पर हावी हो गया है, माक्र्सवाद को उन्होंने पूरी तरह तिलांजलि दे दी है। माक्र्सवाद की वैज्ञानिकता तो उसी दिन धराशायी हो गई थी जब लेनिन ने असंतुष्ट रूसी सिपाहियों के सहारे सत्ता परिवर्तन को मार्क्सवाद प्रेरित क्रांति का आवरण पहना दिया था। रूस में तब तक पूंजीवाद प्रारंभिक चरण में था, इसके बाद चीन में माओ के नेतृत्व में जब सत्ता-परिवर्तन हुआ तब वहां पूंजीवाद प्रसववेदना से ही गुजर रहा था। माक्र्स ने नारा दिया था दुनिया के मजदूरों एक हो जाओ। किन्तु आज दृश्य क्या है? उन्हें एकता के सूत्र में बांधने का ठेका जिन मार्क्सवादियों पर है वे स्वयं ही बीसियों टुकड़ों में बिखर गये हैं और प्रत्येक अपने को सच्चा मार्क्सवादी कहता है। क्या किसी वैज्ञानिक विचारधारा के इतने अर्थ हो सकते हैं? वैज्ञानिक सत्य एक होता है, वह सार्वकालिक, सार्वभौमिक होता है।

सच तो यह है कि भारतीय कम्युनिस्टों को माक्र्सवाद की समझ लेनिन, स्टालिन और माओ के रास्ते से मिली है। यदि लेनिन ने रूस के सत्ता-परिवर्तन को मार्क्सवादी क्रांति का आवरण न पहनाया होता और 'सर्वहारा के अधिनायकवाद' के मुखौटे में कम्युनिस्ट पार्टी की तानाशाही को स्थापित न किया होता, जार सम्राटों द्वारा निर्मित विशाल रूसी साम्राज्य के अपार साधनों के बल पर अपनी विदेश नीति को विश्व क्रांति का रूप न दिया होता, रूस की जनता को भूखों रखकर मुत प्रचार-साहित्य से पूरी दुनिया को न पाट दिया होता तो शायद माक्र्सवाद कुछ किताबी बौध्दिकों की बहस तक सिमटा रह जाता।

भारतीय कम्युनिस्टों के गहरे अंधविश्वास का ही उदाहरण है कि जब रूस की जनता स्टालिन और लेनिन की व्यक्ति-पूजा को पूरी तरह दफना चुकी है, चीन की जनता और सरकार माओ का नाम तक नहीं लेना चाहती, भारत के कम्युनिस्ट अभी भी लेनिन और माओ का झंडा उठाये घूम रहे हैं। लेनिन की अंध-भक्ति के कारण वे मार्क्सवादी क्रांति का एकमात्र लक्ष्य सत्ता पर कब्जा जमाना समझ बैठे हैं। मार्क्सवादी शब्दावरण में सत्ता को पाना, उस पर टिके रहने को ही वे क्रांति कहते हैं। उनके लिए सत्ता ही क्रांति है, क्रांति का अन्तिम लक्ष्य सत्ता है। रूस और चीन के अनुभवों से यह स्पष्ट हो गया कि कम्युनिस्ट पार्टी का अधिनायकवाद जनजीवन पर राज्य का और राज्य पर अपने शिकंजे को अधिकाधिक सुदृढ़ करता जाता है। मार्क्स के इस कथन को वह पूरी तरह भूल जाता है कि उत्पादन और वितरण के साधनों पर राज्य का नियंत्रण स्थापित करने का उद्देश्य शोषण विहीन समतामूलक समाजजीवन की आदर्श स्थिति उत्पन्न करना है, यह स्थिति उत्पन्न होने पर राज्य स्वयं ही अस्तित्वहीन हो जाएगा। किन्तु इन दोनों देशों का अनुभव कहता है कि शोषण विहीन समतामूलक जीवन तो वहां खड़ा हुआ नहीं, स्वयं कम्युनिस्ट शासक ही शोषण और विषमता का स्रोत बन गये किन्तु अधिनायकवादी सत्ता-तन्त्र उत्तरोत्तर अपना शिकंजा कसता गया। चीन ने मार्क्सवाद और माओवाद को तो तिलांजलि दे दी किन्तु अधिनायकवाद शासन तंत्र को बनाए रखा है।

औद्योगिक दृष्टि से रेगिस्तान बना बंगाल
सिंगूर-नंदीग्राम और तस्लीमा प्रकरणों के बाद बंगाल में तीस वर्ष लम्बे कम्युनिस्ट शासन का जो रूप सामने आया है उसे देखकर कुछ मार्क्सवादी बुध्दिजीवी और कलाकार भी चिललित हो उठे हैं। संसदीय लोकतंत्र के चौखटे के भीतर शासन करने वाले दल का चरित्र इतना हिंसक, भ्रष्टाचारी और सत्ताप्रेमी हो सकता है, यह वे कल्पना भी नहीं कर सकते थे। किन्तु इसके लिए वे बंगाल की मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी को ही दोषी मान रहे हैं, किन्तु मार्क्सवादी विचारधारा के प्रति अपनी अडिग निष्ठा का ढिंढोरा पीट रहे हैं। कई बार भारतीय कम्युनिस्टों की मार्क्सवाद के प्रति अंध श्रध्दा और व्यक्ति पूजा को देख कर उस मुस्लिम मानसिकता का स्मरण हो आता है जो इस्लाम के नाम पर होने वाली प्रत्येक हिंसा और बर्बरता को गैर इस्लामी कह कर अपना समाधान कर लेता है और मुस्लिम मानसिकता के दो मूल स्रोतों- कुरान और पैगम्बर मुहमद के प्रति अन्ध श्रध्दा लेकर चलता है, उनकी तनिक भी आलोचना सहन नहीं कर पाता। इसी प्रकार भारतीय कम्युनिस्ट मार्क्स के प्रत्येक शब्द को अन्तिम सत्य मान कर चलते हैं, और प्रत्येक उलझन के समय माक्र्स या लेनिन के उध्दरणों की तोता रटन्त करते रहते हैं।

क्या प. बंगाल का अनुभव यह बताने के लिए पर्याप्त नहीं है कि कम्युनिस्ट ट्रेड यूनियनवाद ने बंगाल को औद्योगिक दृष्टि से रेगिस्तान बना दिया और अब सत्ता में टिके रहने की मजबूरी ने माकपाई मुख्यमंत्री बुध्ददेव को पूंजी आकर्षित करने के लिए ट्रेड यूनियनवाद पर अंकुश लगाने को बाध्य कर दिया है। नंदीग्राम पर 10,000 पार्टी कैडरों की फौज के आक्रमण और पाशविक बल के द्वारा वहां की जमीनों और घरों पर कब्जा करने की घटना ने स्पष्ट कर दिया है कि बंगाल में शासन-तंत्र और पार्टी का भेद मिट चुका है शासन-तंत्र और पार्टी तंत्र एक रूप हो चुके हैं और मिलकर जनता का उत्पीड़न व शोषण कर रहे हैं। इसे पार्टी अधिनायकवाद नहीं तो क्या कहें? यह अधिनायकवाद जनता के लिए नहीं, केवल पार्टी के लिये है। इसके कारण पार्टी के भीतर भ्रष्टाचार और विलासिता को बढ़ावा मिला है। दिल्ली से प्रकाशित मेल टाइम्स (8 जनवरी) में आलोक बनर्जी ने पार्टी सूत्रों से अपने सम्बंध के आधार पर जानकारी दी है कि बंगाल में माकपा चुनावों पर 200-250 करोड़ रुपए की विशाल धनराशि खर्च करती है। 30 वर्ष लम्बे कम्युनिस्ट शासन की अजेयता से आतंकित उद्योग और व्यापार क्षेत्र उन्हें खुलकर पैसा दे रहा है। राज्यभर में पुराने जीर्ण-शीर्ण कार्यालयों का पुनर्निर्माण पंच सितारा भवनों में हो गया है। सुदूर गांवों में भी तीन मंजिले भवन बन गये हैं। जो कामरेड तीस साल पहले साइकिलों पर चला करते थे, वे अब एयर कन्डीशन्ड गाड़ियों में घूमते हैं। नंदीग्राम नरमेध के बाद मीडिया ने पार्टी के चरित्र को पूरी तरह नंगा कर दिया है। जिससे बंगाल का मध्यम वर्ग उद्वेलित हो उठा है। उधर कट्टरपंथियों के दबाव में तस्लीमा को राज्य से खदेड़ने के निर्णय ने पार्टी के छद्म सेकुलरवाद और उदार चेहरे पर से नकाब उठा दिया है। नंदीग्राम में मुस्लिम बहुसंख्या होने के कारण वह प्रश्न भी मुस्लिम प्रश्न बन गया है। सच्चर रपट में भी बंगाल के मुसलमानों की स्थिति खराब बतायी गई है। इस प्रकार नंदीग्राम, तस्लीमा, सच्चर रपट और रिजवानुर कांड ने माकपा के सामने 20 प्रतिशत मुस्लिम वोट बैंक को बचाये रखने की गंभीर समस्या खड़ी कर दी है। मेल टाइम्स की रपट के अनुसार माकपा सांसद मुहम्मद सलीम ने पार्टी कामरेडों की बंद कमरे की मीटिंग में चेतावनी दी कि यदि हमने इस्लाम की आलोचना की तो मुसलमानों के वोट नहीं मिलेंगे। मुख्यमंत्री बुध्ददेव भी इस बात से सहमत थे।

अधिनायकवाद
इसलिए बंगाल में सत्ता को टिकाए रखने की त्रिसूत्री रणनीति बनाई गई है। एक तो बंगाली मध्यम वर्ग को शान्त करने के लिए औद्योगिक विकास में तेजी की जाए। उसके लिए देशी-विदेशी पूंजी आकर्षित करने के लिए पूंजीवाद का उद्धोष किया जाए। दूसरे, मुस्लिम वोट बैंक को रिझाने के लिए कट्टरपंथी मुस्लिम नेतृत्व को प्रसन्न किया जाए। तीसरे, विपक्ष में एकता न पैदा होने दी जाए। हाल ही में सिंगूर से कुछ किलोमीटर दूर स्थित बालागढ़ उपचुनाव में, जो माकपा का परंपरागत गढ़ रहा है, माकपा बड़ी मुश्किल से सीट बचा पायी, जीत का अन्तर बहुत कम हो गया। यदि वहां विपक्ष ने एक्यबध्द होकर मजबूत प्रत्याशी खड़ा किया होता तो माकपा की हार सुनिश्चित थी। इतने पर भी माकपा की साख कमजोर हुई है। वाम मोर्चे के घटक उसे आंखें दिखाने लगे हैं। ममता बनर्जी की ओर झुकने लगे हैं। किन्तु बंगाल में विपक्षी एकता सोनिया पार्टी व भाजपा के बिना पूरी नहीं मानी जा सकती। सोनिया पार्टी केन्द्र में सत्ता खोने के भय से माकपा को नाराज नहीं करना चाहती और भाजपा के प्रति मुस्लिम मन में इतना जहर भर दिया गया है कि संयुक्त मोर्चे में भाजपा के प्रवेश करते ही माकपा का प्रचार तंत्र मुस्लिम भावनाओं को भड़काने में जुट जाएगा। वोट बैंक राजनीति के इन अन्तर्विरोधों से कैसे पार पाया जाए, राष्ट्रीय एकता के उपासकों के लिए यही आज चिन्ता का मुख्य विषय है। बंगाल को माकपा के भ्रष्ट अधिनायकवाद से मुक्त कराने के लिए तात्कालिक दलीय स्वार्थ से ऊपर उठकर दूरगामी रणनीति ही आज की आवश्यकता है।

इसके साथ ही चुनावी राजनीति से आगे बढ़कर कम्युनिस्ट बुध्दिजीवियों के सामने बौध्दिक चुनौती खड़ा करने की बड़ी आवश्यकता है। बौध्दिक क्षेत्र में माक्र्सवाद पैसा, पद, प्रतिष्ठा और सुविधाएं दिलाने वाली गिरोह बन्दी का पर्याय बन गया है। जन जीवन से कटे, बुध्दि-विलास में मगन वामपंथी बौध्दिक मार्क्स की व्यक्ति-पूजा और पार्टी अनुशासन के प्रति अंधनिष्ठा से बंधे हुए हैं। मार्क्सवाद को लेनिन का मुख्य योगदान यह रहा कि उसने 'सर्वहारा के अधिनायकवाद' को 'लोकतांत्रिक केन्द्रवाद' के शब्दाडम्बर में 'पार्टी अधिनायकवाद' का रूप दे दिया और 'पार्टी कभी गलत नहीं हो सकती' जैसे सूत्र वाक्य के द्वारा पार्टी को भगवान की जगह बैठा दिया। इसलिए बड़े श्रेष्ठ मार्क्सवादी बुध्दिजीवी भी मार्क्स या लेनिन के वाक्यों की तोतारटन्त में शर्म अनुभव नहीं करते और बौध्दिक अहंकार में चूर रहते हैं। अंध भक्ति और अहंकार कितनी दूर तक जा सकता है इसका नमूना राजेन्द्र यादव की इन पंक्तियों में देखिए। वे लिखते हैं :

'सोवियत यूनियन की लाख बुराइयों के बावजूद यह भी सच है कि दुनिया में जहां भी अपने लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए जमीनी संघर्ष हुए हैं उनकी एकमात्र प्रेरणा मार्क्सवाद ही रहा है। ... आज भी लाखों बुध्दिजीवियों और जुझारू जनता की प्राणशक्ति मार्क्सवाद ही है।' (हंस, दिसम्बर, 2007)
कोई राजेन्द्र जी से पूछे कि यदि यही सच है तो बंगाल, त्रिपुरा और केरल के बाहर कम्युनिस्ट पार्टियां जनाधार शून्य क्यों हैं? इस दिल्ली शहर में मार्क्सवादी प्रोफेसरों, पत्रकारों, साहित्यकारों और रंगकर्मियों की इतनी बड़ी फौज होने के बाद भी दिल्ली नगर निगम में एक सीट जीतने लायक भी जनाधार उनके पास क्यों नहीं है?

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