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दुनिया भर के प्रमुख विचारकों ने भारतीय जीवन-दर्शन एवं जीवन-मूल्य, धर्म, साहित्य, संस्कृति एवं आध्यात्मिकता को मनुष्य के उत्कर्ष के लिए सर्वोत्कृष्ट बताया है, लेकिन इसे भारत का दुर्भाग्य कहेंगे कि यहां की माटी पर मुट्ठी भर लोग ऐसे हैं, जो पाश्चात्य विचारधारा का अनुगामी बनते हुए यहां की परंपरा और प्रतीकों का जमकर माखौल उड़ाने में अपने को धन्य समझते है। इस विचारधारा के अनुयायी 'कम्युनिस्ट' कहलाते है। विदेशी चंदे पर पलने वाले और कांग्रेस की जूठन पर अपनी विचारधारा को पोषित करने वाले 'कम्युनिस्टों' की कारस्तानी भारत के लिए चिंता का विषय है। हमारे राष्ट्रीय नायकों ने बहुत पहले कम्युनिस्टों की विचारधारा के प्रति चिंता प्रकट की थी और देशवासियों को सावधान किया था। आज उनकी बात सच साबित होती दिखाई दे रही है। सच में, माक्र्सवाद की सड़ांध से भारत प्रदूषित हो रहा है।
सुभाष चन्द्र बोस का जीवन देशप्रेम की एक अद्वितीय गाथा, संघर्षों की अपूर्व कहानी एवं बलिदानी जीवन का अमर संदेश है।
साम्यवाद (communism) पर नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के विचार-
25 जनवरी 1928 को कलकत्ता में अखिल भारतीय युवक सम्मेलन में उन्होंने कहा- मैं उन लोगों में से नहीं हूं जो जो आधुनिकता के जोश में अतीत के गौरव को भूल जाते हैं। हमें भूतकाल को अपना आधार बनाना है। भारत की संस्कृति को सुनिश्चित धाराओं में विकसित करते जाना है। विश्व को देने के लिए हमारे पास दर्शन, साहित्य, कला आदि बहुत कुछ है। हमें नए और पुराने का मेल करना है।
उनका कहना था कि व्यक्ति केवल रोटी खाकर ही जीवित नहीं रहता, उसके लिए नैतिक और आध्यात्मिक खुराक की भी आवश्यकता होती है।
कम्युनिज्म किसी भी ढंग से राष्ट्रवाद के बारे में सहानुभूति नहीं रखता और न ही यह भारतीय आंदोलन को एक राष्ट्रीय आंदोलन मानता है।
(शिशिर कुमार घोष, नेताजी सलेक्टेड वक्र्स, भाग-2 पृष्ठ 351)
साम्यवाद तथा फासिज्म के बारे में सुभाष बाबू का कहना था- दोनों में समानताएं है, दोनों व्यक्ति पर राज्य की प्रभुता को मानते है। दोनों ही पार्लियामेंटरी प्रजातंत्र को नकारते है। दोनों पार्टी शासन को, पार्टी के अधिनायकवाद को मानते है तथा समस्त असहमत अल्पसंख्यकों के दमन के पक्ष में है।
(शिशिर कुमार घोष, नेताजी सलेक्टेड वक्र्स, भाग-2 पृष्ठ 352)
''यदि आज कार्ल माक्र्स जीवित होते तो वे रूस की वर्तमान दशा को देखकर कितना सुखी होते, इसमें मुझे संदेह है। कारण? मुझे लगता है कि वह विश्वास करते थे कि उनका सामाजिक आदर्श रूपांतरित न होकर सभी देशों में समान रूप से प्रतिष्ठित होना चाहिए। इन सब बातों का उल्लेख मैं इसलिए कर रहा हूं, क्योंकि मैं स्पष्ट करना चाहता हूं कि मैं दूसरे देश के आदर्श या प्रतिष्ठान को आंखें मूंदकर अनुकरण करने का विरोधी हूं।''
'समाजवाद कार्ल माक्र्स के ग्रंथों से नहीं जनमा। इसका उद्गम भारत के विचारों एवं संस्कृति से हुआ है।''
(30 मार्च, 1929 रंगपुर राजनीतिक सम्मेलन में दिए गए भाषण से)
''इसके प्रमाण के रूप में मैं यह कह सकता हूं कि साम्यवाद की विश्वव्यापी तथा मानवीय अपील के बाद भी साम्यवाद भारत में कोई स्थान नहीं बना पाया है, मुख्यत: क्योंकि उनके द्वारा अपनाए गए तरीके एवं युक्तियां ऐसे हैं, जो दुश्मन बनाते हैं, न कि मित्रों तथा सहयोगियों को जीतते हैं।''
(5 अप्रैल, 1931 अखिल भारतीय नवयुवक भारत सभा कराची में भाषण से)
25 जनवरी 1928 को कलकत्ता में अखिल भारतीय युवक सम्मेलन में उन्होंने कहा- मैं उन लोगों में से नहीं हूं जो जो आधुनिकता के जोश में अतीत के गौरव को भूल जाते हैं। हमें भूतकाल को अपना आधार बनाना है। भारत की संस्कृति को सुनिश्चित धाराओं में विकसित करते जाना है। विश्व को देने के लिए हमारे पास दर्शन, साहित्य, कला आदि बहुत कुछ है। हमें नए और पुराने का मेल करना है।
उनका कहना था कि व्यक्ति केवल रोटी खाकर ही जीवित नहीं रहता, उसके लिए नैतिक और आध्यात्मिक खुराक की भी आवश्यकता होती है।
कम्युनिज्म किसी भी ढंग से राष्ट्रवाद के बारे में सहानुभूति नहीं रखता और न ही यह भारतीय आंदोलन को एक राष्ट्रीय आंदोलन मानता है।
(शिशिर कुमार घोष, नेताजी सलेक्टेड वक्र्स, भाग-2 पृष्ठ 351)
साम्यवाद तथा फासिज्म के बारे में सुभाष बाबू का कहना था- दोनों में समानताएं है, दोनों व्यक्ति पर राज्य की प्रभुता को मानते है। दोनों ही पार्लियामेंटरी प्रजातंत्र को नकारते है। दोनों पार्टी शासन को, पार्टी के अधिनायकवाद को मानते है तथा समस्त असहमत अल्पसंख्यकों के दमन के पक्ष में है।
(शिशिर कुमार घोष, नेताजी सलेक्टेड वक्र्स, भाग-2 पृष्ठ 352)
''यदि आज कार्ल माक्र्स जीवित होते तो वे रूस की वर्तमान दशा को देखकर कितना सुखी होते, इसमें मुझे संदेह है। कारण? मुझे लगता है कि वह विश्वास करते थे कि उनका सामाजिक आदर्श रूपांतरित न होकर सभी देशों में समान रूप से प्रतिष्ठित होना चाहिए। इन सब बातों का उल्लेख मैं इसलिए कर रहा हूं, क्योंकि मैं स्पष्ट करना चाहता हूं कि मैं दूसरे देश के आदर्श या प्रतिष्ठान को आंखें मूंदकर अनुकरण करने का विरोधी हूं।''
'समाजवाद कार्ल माक्र्स के ग्रंथों से नहीं जनमा। इसका उद्गम भारत के विचारों एवं संस्कृति से हुआ है।''
(30 मार्च, 1929 रंगपुर राजनीतिक सम्मेलन में दिए गए भाषण से)
''इसके प्रमाण के रूप में मैं यह कह सकता हूं कि साम्यवाद की विश्वव्यापी तथा मानवीय अपील के बाद भी साम्यवाद भारत में कोई स्थान नहीं बना पाया है, मुख्यत: क्योंकि उनके द्वारा अपनाए गए तरीके एवं युक्तियां ऐसे हैं, जो दुश्मन बनाते हैं, न कि मित्रों तथा सहयोगियों को जीतते हैं।''
(5 अप्रैल, 1931 अखिल भारतीय नवयुवक भारत सभा कराची में भाषण से)
4 comments:
सुन्दर लेख, धन्यवाद नेता जी के विचारों की प्रस्तुति के लिए!
नेताजी के विचारॊं कॊ हम तक पहुंचाने के लिए धन्यवाद।
Bhai Sanjeev Ji.
Many many thanks for making available the thought of Netaji on communism.
Keep it up.
vahut khoob sinha ji.
jaari rakhiye..............
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