सोशलिज्म जब कैपिटलिज्म के साथ चोंच लड़ाता है तो एक नयी विचारधारा का जन्म होता है। राजनीति में अभी उसका कोई नाम भले ही न रखा गया हो, हम उसे चोंचलिज्म कह सकते हैं। वैसे, हिंदुस्तान में सोशलिज्म का कैपिटलिज्म के साथ चोंच लड़ाना कोई नयी बात नहीं है। अब तक यह काम चोरी-छिपे किया जाता था। सोशलिस्ट लोग छिप कर कैपिटलिस्टों से समझौता करते थे। बिलकुल वैसे ही, जैसे कोई आदमी अपनी बीवी से छिप कर, दूसरी औरत से मिलता है। लेकिन अब, जब चारों ओर विवाहेत्तर संबंध स्वीकार किये जाने लगे हैं, तो राजनीति भी क्यों न स्वीकार कर ले। चोंचलिज्म कम्यूनिजम की पॉलिसी-इतर संबंध की पैदाइश है।
चोंचलिज्म राजनीति के दड़बे में बंद गरीब की मुरगी है, जो सोने का अंडा देती है। यह गरीब की मुरगी भी अजीब चीज होती है। जब तक गरीब के पास रहती है, सोने का तो छोड़ो सादा अंडा भी ठीक से नहीं देती। जैसे ही किसी अमीर के दड़बे में पहुंचती है, फटाफट सोने के अंडे परोसने लगती है। तभी तो, जब तक जमीन गरीब किसान के पास है, उसका मोल कौड़ियों में होता है। सेठ के कब्जे में पहुंचते ही उसका भाव आसमान छूने लगता है। जमीन वही, नाप वही, इलाका वही, बस मालिक बदलने से भाव बदल जाता है। जाहिर है, मोल भाव का नहीं, मालिक का होता है। गरीब का सस्ता, अमीर का महंगा। कैपिटलिज्म में ऐसा हो तो बात समझ में आती है, सोशलिज्म में भी ऐसा क्यों होता है? क्योंकि, समाजवाद की चोंच पर अब पूंजीवाद की लार चिपक गयी है।
चोंचलिज्म का सबसे ताकतवर रूप पेश किया पश्चिम बंगाल के कम्युनिस्टों ने। जो लोग सरकारी कंपनियों के विनिवेश का छाती पीट-पीट कर विरोध कर रहे थे, उन्होंने किसानों की जमीन का विनिवेश कितनी आसानी से कर दिया। किसान विरोध कर रहे हैं, पर कम्युनिस्ट सुन नहीं रहे। सोशलिज्म को तो गरीब की बात सुननी चाहिए न! सोशलिज्म होता तो सुनता। यह तो चोंचलिज्म है। कम्युनिस्टों का तर्क है कि उद्योगपति को जमीन विकास के लिए दी गयी है। तो क्या कम्युनिस्टों ने आखिर मान लिया कि विकास पूंजीवाद में ही संभव है, कम्युनिज्म में नहीं? कोई कम्युनिस्ट यह बात खुलेआम स्वीकार नहीं करेगा, पर चुपके-चुपके कैपिटलिज्म से चोंच लड़ाता रहेगा। विवोहत्तर संबंध की तरह, नीति- इतर संबंध का भी एक अलग मजा होता है।
वैसे, चोंचलिज्म ने पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्टों के लिए पहचान का संकट खड़ा कर दिया है। आखिर कम्युनिज्म की पहचान क्या है? एक हंसिया और उसके बीच में लगा हथौड़ा। पहले सिंगुर और फिर नंदीग्राम के किसान अपने हंसिये खींच कर कम्युनिस्ट सरकार के सामने खड़े हो गये। मतलब झंडे से हंसिया तो गया। क्या हथौड़ा बचा रहेगा? मुश्किल है। क्योंकि, किसानों से ली जमीन पर जो कारखाने बनेंगे, वे ऑटोमैटिक होंगे। उनमें काटना, पीटना, ठोंकना- सब काम मशीनें करेंगी। हथौड़ा पुराने जमाने का औजार है। अब हथौड़े की राजनीति भी पुरानी हो जाएगी।
हंसिया गया, हथौड़ा गया, तो फिर कम्युनिज्म के नाम पर हिन्दुस्तानी कम्युनिस्ट क्या करेंगे? और कुछ तो बचा नहीं, इसलिए अमेरिका का विरोध करेंगे। अमेरिका का यह विरोध, विरोध है या विरोधाभास? कैपिटलिज्म से चोंच लड़ाना और कैपिटलिज्म के बाप का विरोध! गुड खाएं, गुलगुलों से परहेज! हिन्दुस्तानी कम्युनिस्ट अमेरिका का विरोध करते हैं, जबकि मूल कम्यूनिस्ट देश रूस और चीन पहले ही अमेरिका के तंबू में बैठ चुके हैं। सबसे ताज्जुब की बात तो यह है कि हिन्दुस्तानी कम्युनिस्ट अपना विरोध उस कांग्रेस के तंबू में बैठ कर प्रदर्शित करते हैं, जो खुद अमेरिका के तंबू में बैठी है। ऐसा सिर्फ राजनीति में ही हो सकता है कि छोटे तंबू में बैठ कर बड़े तंबू को नकार दिया जाए। जी हां, इस दुनिया में सिर्फ नेता ही ऐसा जीव है जो छतरी लगा कर आसमान को नकार सकता है। (साभार- प्रभासाक्षी)