काफी दिनों से श्रीमती जी की इच्छा थी कि दिल्ली में सिनेमा साथ नहीं देखा, हमें चलना चाहिए। और यह इच्छा गत 8 जुलाई को पूरी हुई। हिंदी के दस राष्ट्रीय समाचार-पत्र अपन प्रतिदिन देखते हैं लेकिन पढ़ते जनसत्ता हैं। इस अखबार में 'नगर में आज' नाम से एक स्तंभ है जिसमें उस दिन होने वाले कार्यक्रमों की सूचना होती है। इसी से हमें दिल्ली में आयोजित सेमिनार, संगोष्ठी और प्रदर्शनों की जानकारियां मिलती हैं। और हम समय निकाल कर अकसर जाते हैं। इसी स्तंभ से पता चला कि राजघाट स्थित राष्ट्रीय गांधी संग्रहालय में सायं 4 बजे से शनिवार को अंग्रेजी और रविवार को हिंदी फिल्म दिखाई जाती है। 8 जुलाई को रविवार था। हमने श्रीमती जी को कहा कि चलो तैयार हो जाओ। ठीक साढ़े तीन बजे निकलना है। उनको सहसा विश्वास नहीं हुआ। लेकिन मेरी गंभीरता देख वह तैयार हो गई। तो अपने डेढ़ वर्षीय पुत्र के साथ हम राजघाट पहुंचे। जब हम पहुंचे तो फिल्म चल रही थी। हॉल में लगभग 50 लोगों के बैठने की व्यवस्था है लेकिन वहां बमुश्किल 15 लोग थे। फिल्म का नाम था- 'बापू ने कहा था..'। 1962 में श्वेत और श्याम के कैनवास पर बनी इस फिल्म के निर्देशक थे विजय भट्ट, इन्होंने ही मशहूर फिल्म बैजू बावरा निर्देशित की थी। अपन गांधीजी के भक्त हैं इसलिए फिल्म का नाम जानकर मन प्रफुल्लित हो गया। पांच मिनट फिल्म चली होगी कि 'सार्थक' ने अपना करतब दिखाना शुरू कर किया। वह बगल में पड़ी खाली कुर्सियों पर उधम-कूद मचाने लगा। श्रीमती जी गुस्सायीं। हमने कहा, ऐसा करो कि बगल में ही राजघाट है। यहीं बापू की समाधि है तब तक उसे देख आओ। वह 'सार्थक' को गोद में लेकर बाहर निकल गई। फिल्म में मैं गांधीजी के अवतरित होने का इंतजार कर रहा था लेकिन वे प्रारंभ के दस मिनट तक दिखाई नहीं दिए। मैं भी बाहर निकला। वहां के विक्रय केंद्र में खड़ी एक महिला से पूछा, 'बापू ने कहा था..' फिल्म कहां लगी ? महिला ने उसी हॉल की ओर इशारा किया। मैं फिर जाकर वहीं बैठ गया। देखता हूं कि सिनेमा में मोरारजीभाई एक जनसभा में बच्चों को उपदेश दे रहे हैं। वे बता रहे थे, 'बच्चों, गांधी जी सच बोलते थे और कहते थे हमेशा सच बोलना। चोरी नहीं करना। किसी को कष्ट नहीं पहुंचाना।' दरअसल यह फिल्म गांधीवादी आदर्शों की पृष्ठभूमि में बनी है। इस फिल्म में चार-पांच नटखट बच्चे हैं। एक बार वे लोग पटाखे चलाते हैं और इसकी लुत्ती एक व्यक्ति की झोपड़ी पर पड़ती है। झोपड़ी धू-धूकर जल जाती है। इसे लेकर पंचायत बैठती है तो उसमें ये बच्चे शरारती हरकत करते हुए किसी और व्यक्ति का नाम लगा देते हैं। जिसका घर जला है उसके साथ एक सेठ छल रचता है। सेठ उससे कहता है कि हम तुम्हें घर बनवाने के लिए 300 रुपए देते हैं, इसके बदले यहां (स्टाम्प लगे सादे कागज पर) अंगूठा लगा दो, हम ये रुपए उस व्यक्ति से, जिसने तुम्हारा घर जलाया है उससे बात हो गई, ले लेंगे। और इस तरीके से सेठ उससे अंगूठे का निशान लगवाकर उसकी सारी जमीनें अपने नाम कर लेता है। चार-पांच जो नटखट बच्चे हैं उसमें से एक सेठ का भी बेटा है और यह बालक अपने पिता की कारस्तानी को अपनी आंखों से देखता है। उसे रात में नींद नहीं आती है। वो सोचता है। मोरारजी भाई द्वारा गांधीजी के कहे एक-एक शब्द उसके दिमाग में घूमने लगते हैं। वो तय करता है कि अपने पिता के इस कृत्य का विरोध करेगा। जब सेठ अपने दल-बल सहित, जिसका घर जला है, उसके जमीन पर हल चलाने पहुंचता है तो सेठ का बेटा सामने आकर खड़ा हो जाता है। वह जिद्द करता है कि पिताजी आपने गलत किया। हमने आपके छल-प्रपंच को अपनी आंखों से देखा है। उसके पिता नाराज होते हैं और घर लौट जाते हैं। बालक वहीं खेत में ही सत्याग्रह पर बैठ जाता है। उसके सभी नटखट दोस्तों को भी अपनी गलती का आभास होता है और वे भी उसके साथ हो जाते हैं। धीरे-धीरे गांव के और भी लोग बालक का साथ देने आ जाते हैं। सेठ पिता जमीन छोड़ने पर मजबूर होता है और इस तरह सच की जीत होती है। सत्यमेव जयते। ध्यान में आया कि यही तो भारत की परंपरा है। नचिकेता ने भी श्रेष्ठ आचरण परंपरा की अक्षुण्णता के लिए पिता से जिद किया था। परमात्मा से यही प्रार्थना है कि हमें नचिकेता और गांधीजी के प्रेरक पाथेय पर चलने की शक्ति दी।
फिल्म समाप्त होने से दो मिनट पहले श्रीमती जी हॉल में आ गईं। उन्हें साफ-सुथरा बापू की समाधि ने प्रेरित किया। फिर हमने अपने सैमसंग मोबाइल से केन्द्र के परिसर में लगी बापू की मूर्तियों के सान्निध्य में तस्वीरें खिंचवायीं। घर आने के बाद श्रीमती जी ने कहा, 'बापू की समाधि, वहां का शांतिमय प्रेरक वातावरण, उनके चित्र, उनकी मूर्तियों को देखकर अच्छा लगा। थैंक यू।'