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Friday, 31 August 2007

नरेन्द्र मोदी का विकास कार्य प्रशंसनीय हैं-महाश्वेता देवी



पश्चिम बंगाल की प्रसिध्द लेखिका महाश्वेता देवी का मानना है कि बुध्दिजीवियों के बीच वामपंथी मोर्चा जिस प्रकार से अलग-थलग पड़ता जा रहा है, उससे पता चलता है कि पश्चिम बंगाल में अपने 30 वर्ष के शासन के बाद भी उसने वहां कुछ भी तो नहीं किया है।

नई दिल्ली में आयोजित नौंवे डी.एस. बोर्कर स्मृति व्याख्यान में 'माई विजन ऑफ इण्डिया: 2047 एडी' विषय पर भाषण देते हुए महाश्वेता देवी ने पश्चिम बंगाल की वामपंथी सरकार को विकास का कोई भी कार्य न कर पाने के लिए निकम्मा ठहराया और नरेन्द्र मोदी की गुजरात सरकार द्वारा जमीनी स्तर से विकास कार्य को बहुत ऊंचाई तक ले जाने के लिए प्रशंसा की।

उन्होंने कहा कि मैं इस बात से अत्यंत प्रभावित हुई हूं कि गुजरात में कार्य-संस्कृति अत्यंत सुदृढ अवस्था में पहुंच गई है। शहरी और गांव की सड़कें बहुत अच्छी बनी हुई हैं, यहां तक कि दूर-दराज के गांवों तक में भी बिजली और पेयजल उपलब्ध है। मैं विशेष रूप से पंचायतों और स्थानीय स्तर पर बने स्वास्थ्य केन्द्रों में प्राप्त डाक्टरी सुविधाओं से बहुत प्रभावित हुई हूं। यहां की स्थिति पश्चिम बंगाल जैसी नहीं है, जहां अब तक भी गांवों और पंचायती क्षेत्रों में कहीं भी बिजली के दर्शन तक नहीं हो पाते है और सरकार की तथाकथित स्वास्थ्य परिसेवा कहीं दिखाई नहीं पड़ती है। महाश्वेता देवी ने आगे कहा कि पश्चिम बंगाल में 30 वर्षों से सीपीआई(एम) की वामपंथी सरकार का शासन चल रहा है, फिर भी वहां कोई उपलब्धि दिखाई नहीं पड़ती है। उन्होंने यह भी कहा कि पश्चिम बंगाल में भूखमरी से होने वाली मौतें और बाल मृत्यु दर का दौर-दौरा है।

महाश्वेता देवी ने कहा कि मैंने इतिहास, लोक-संगीत और लोक-कहावतों की पुस्तकें पढ़ी है। जरूरत इस बात की है कि गांवों का दौरा किया जाए और ग्रामवासियों से मिला जाए। शायद मैंने इसी प्रकार भारत को जानना शुरू किया। आज 82 वर्ष की आयु में भी नन्दीग्राम का दौरा कर मैं यही कर रही हूं।

Thursday, 30 August 2007

हिन्दी पत्रकारिता के भविष्य की दिशा

हिन्दी पत्रकारिता के भविष्य की दिशा: डा. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री


आज जब हम हिन्दी पत्रकारिता की बात करते हैं तो यह जानकर आश्चर्य होता है कि शुरूआती दौर में यह ध्वज उन क्षेत्रों में लहराया गया था जिन्हें आज अहिन्दी भाषी कहा जाता है। कोलकाता का विश्वामित्र ऐसा पहला ध्वज वाहक था। उत्तर प्रदेश, बिहार और उन दिनों के सी.पी. बरार में भी अनेक हिन्दी अखबारों की शुरूआत हुई थी। लाहौर तो हिन्दी अखबारों का एक प्रकार से गढ बन गया था। इसका एक कारण शायद आर्यसमाज का प्रभाव भी रहा होगा। परंतु इन सभी अखबारों का कार्य क्षेत्र सीमित था या तो अपने प्रदेश तक या फिर कुछ जिलों तक। अंग्रेजी में जो अखबार उन दिनों निकलनी शुरू हुई उनको सरकारी इमदाद प्राप्त होती थी। वैसे भी यह अखबारें शासकों की भाषा में निकलती थीं इसलिए इनका रूतबा और रूआब जरूरत से ज्यादा था। चैन्नई का हिन्दू, कोलकाता का स्टेटसमैन मुम्बई का टाईम्स आफ इंडिया, लखनऊ का नेशनल हेराल्ड और पायोनियर, दिल्ली का हिन्दुस्तान टाईम्स और बाद में इंडियन एक्सप्रेस भी। ये सभी अखबार प्रभाव की दृष्टि से तो शायद इतने महत्वपूर्ण नहीं थे परंतु शासको की भाषा में होने के कारण इन अखबारों को राष्ट्रीय प्रेस का रूतबा प्रदान किया गया। जाहिर है यदि अंग्रेजी भाषा के अखबार राष्ट्रीय हैं तो हिन्दी समेत अन्य भारतीय भाषाओं के अखबार क्षेत्रीय ही कहलाएंगे। प्रभाव तो अंग्रजी अखबारों का भी कुछ कुछ क्षेत्रों में था परंतु आखिर अंग्रेजी भाषा का पूरे हिन्दुस्तान में नाम लेने के लिए भी अपना कोई क्षेत्र विशेष तो था नहीं। इसलिए अंग्रेजी अखबार छोटे होते हुए भी राष्ट्रीय कहलाए और हिन्दी के अखबार बड़े होते हुए भी क्षेत्रीयता का सुख-दुख भोगते रहे।

परंतु पिछले दो दशकों में ही हिन्दी अखबारों ने प्रसार और प्रभाव के क्षेत्र में जो छलांगे लगाई हैं वह आश्चर्यचकित कर देने वाली हैं। जालंधर से प्रारंभ हुई हिन्दी अखबार पंजाब केसरी पूरे उत्तरी भारत में अखबार न रहकर एक आंदोलन बन गई है। जालंधर के बाद पंजाब केसरी हरियाणा से छपने लगी उसके बाद धर्मशाला से और फिर दिल्ली से।

जहां तक पंजाब केसरी की मार का प्रश्न है उसने सीमांत राजस्थान और उत्तर प्रदेश को भी अपने शिकंजे में लिया है। दस लाख से भी ज्यादा संख्या में छपने वाला पंजाब केसरी आज पूरे उत्तरी भारत का प्रतिनिधि बनने की स्थिति में आ गया है ।

जागरण तभी उत्तर प्रदेश के एक छोटे से शहर से छपता था और जाहिर है कि वह उसी में बिकता भी था परंतु पिछले 20 सालों में जागरण सही अर्थो में देश का राष्ट्रीय अखबार बनने की स्थिति में आ गया है। इसके अनेकों संस्करण दिल्ली, उत्तरप्रदेश, मध्य प्रदेश, हरियाणा, उत्तराखंड, बिहार झारखंड, पंजाब, जम्मू कश्मीर, और हिमाचल से प्रकाशित होते हैं। यहां तक कि जागरण ने सिलीगुडी से भी अपना संस्करण प्रारंभ कर उत्तरी बंगाल, दार्जिलिंग, कालेबुंग और सिक्किम तक में अपनी पैठ बनाई है।

अमर उजाला जो किसी वक्त उजाला से टूटा था, उसने पंजाब तक में अपनी पैठ बनाई । दैनिक भास्कर की कहानी पिछले कुछ सालों की कहानी है। पूरे उत्तरी और पश्चिमी भारत में अपनी जगह बनाता हुआ भास्कर गुजरात तक पहुंचा है। भास्कर ने एक नया प्रयोग हिन्दी भाषा के साथ-साथ अन्य भारतीय भाषाओं में प्रकाशन शुरू कर किया है। भास्कर के गुजराती संस्करण ने तो अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की है। दैनिक भास्कर ने महाराष्ट्र की दूसरी राजधानी नागपुर से अपना संस्करण प्रारंभ करके वहां के मराठी भाषा के समाचार पत्रों को भी बिक्री में मात दे दी है।

एक ऐसा ही प्रयोग जयपुर से प्रकाशित राजस्थान पत्रिका का कहा जा सकता है, पंजाब से पंजाब केसरी का प्रयोग और राजस्थान से राजस्थान पत्रिका का प्रयोग भारतीय भाषाओं की पत्रिकारिता में अपने समय का अभूतपूर्व प्रयोग है। राजस्थान पत्रिका राजस्थान के प्रमुख नगरों से एक साथ अपने संस्करण प्रकाशित करती है। लेकिन पिछले दिनों उन्होंने चेन्नई संस्करण प्रकाशित करके दक्षिण भारत में हिन्दी के प्रयोग को लेकर चले आ रहे मिथको को तोड़ा है। पत्रिका अहमदाबाद सूरत कोलकाता, हुबली और बैंगलूरू से भी अपने संस्करण प्रकाशित करती है और यह सभी के सभी हिंदी भाषी क्षेत्र है। इंदौर से प्रकाशित नई दुनिया मध्य भारत की सबसे बड़ा अखबार है जिसके संस्करण्ा अनेक हिंदी भाषी नगरों से प्रकाशित होते हैं।

यहां एक और तथ्य की ओर संकेत करना उचित रहेगा कि अहिंदी भाषी क्षेत्रों में जिन अखबारों का सर्वाधिक प्रचलन है वे अंग्रेजी भाषा के नहीं बल्कि वहां की स्थानीय भाषा के अखबार हैं। मलयालम भाषा में प्रकाशित मलयालम मनोरमा के आगे अंग्रेजी के सब अखबार बौने पड़ रहे हैं। तमिलनाडु में तांथी, उडिया का समाज, गुजराती का दिव्यभास्कर, गुजरात समाचार, संदेश, पंजाबी में अजीत, बंगला के आनंद बाजार पत्रिका और वर्तमान अंग्रेजी अखबार के भविष्य को चुनौती दे रहे हैं। यहां एक और बात ध्यान में रखनी चाहिए कि उत्तरप्रदेश, राजस्थान, मध्यप्रदेश, बिहार, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, छत्तीसगढ़, झारखंड इत्यादि हिन्दी भाषी राज्यों में अंग्रेजी अखबारों की खपत हिंदी अखबारों के मुकाबले दयनीय स्थिति में है। अहिंदी भाषी क्षेत्रों की राजधानियों यथा गुवाहाटी भुवनेश्वर, अहमदाबाद, गांतोक इत्यादि में अंग्रेजी भाषा की खपत गिने चुने वर्गों तक सीमित है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि यदि राजधानी में यह हालत है तो मुफसिल नगरों में अंग्रेजी अखबारों की क्या हालत होगी? इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। अंग्रेजी अखबार दिल्ली, चंडीगढ़, मुम्बई आदि उत्तर भारतीय नगरों के बलबूते पर खड़े हैं। इन अखबारों को दरअसल शासकीय सहायता और संरक्षण प्राप्त है। इसलिए इन्हें शासकीय प्रतिष्ठा प्राप्त है। ये प्रकृति में क्षेत्रिय हैं (टाइम्स ऑफ इंडिया के विभिन्न संस्करण इसके उदाहरण है।) मूल स्वभाव में भी ये समाचारोन्मुखी न होकर मनोरंजन करने में ही विश्वास करते हैं । लेकिन शासकीय व्यवस्था ने इनका नामकरण राष्ट्रीय किया हुआ है। जिस प्रकार अपने यहां गरीब आदमी का नाम कुबेरदास रखने की परंपरा है। जिसकी दोनों ऑंखें गायब हैं वह कमलनयन है। भारतीय भाषा का मीडिया जो सचमुच राष्ट्रीय है वह सरकारी रिकार्ड में क्षेत्रीय लिखा गया है। शायद इसलिए कि गोरे बच्चे को नजर न लग जाए माता पिता उसका नाम कालूराम रख देते हैं। ध्यान रखना चाहिए कि इतिहास में क्रांतियाँ कालूरामों ने की हैं। गोरे लाल गोरों के पीछे ही भागते रहे हैं। अंग्रेजी मीडिया की नब्ज अब भी वहीं टिक-टिक कर रही है। रहा सवाल भारतीय पत्रकारिता के भविष्य का, उसका भविष्य तो भारत के भविष्य से ही जुड़ा हुआ है। भारत का भविष्य उज्जवल है तो भारतीय पत्रकारिता का भविष्य भी उज्ज्वल ही होगा। यहां भारतीय पत्रकारिता में हिंदी पत्रकारिता का समावेश भी हो जाता है।
(नवोत्थान लेख सेवा हिन्दुस्थान समाचार)

Wednesday, 29 August 2007

मदनी अब्दुल नसीर है कांग्रेस और सीपीएम के नये नायक

-डा. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

डा. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री का व्यक्तित्व बहुआयामी हैं। वे वरिष्ठ पत्रकार हैं। राजनीतिक विश्लेषक हैं। लेखक हैं। सामाजिक कार्यकर्ता हैं। राष्ट्रवादी आंदोलन के सिपाही हैं। आप तिब्बत की स्वाधीनता के लिए देश भर में अलख जगा रहे हैं। आपकी लेखनी जहां सत्यम् शिवम् सुंदरम् के लिए समर्पित है वहीं छद्म धर्मनिरपेक्षता का लबादा ओढ़े नेताओं-तथाकथित सामाजिक कार्यकर्ताओं, आतंकवादियों पर कड़ा प्रहार करती है। डा. अग्निहोत्री ने निम्न लेख में बहुत ही कुशलतापूर्वक कांग्रेस-कम्युनिस्ट और आतंकवादियों के गठजोड़ को बेनकाब किया है और इसे देश के लिए खतरनाक बताया है।

कोयम्बटूर की एक विशेष अदालत ने अब्दुल नसीर मदनी को रिहा कर दिया है। उन पर 14 फरवरी 1998 में कोयम्बटूर में हुए बम धमाकों की साजिश का आरोप था। इन धमाकों में 58 लोगों की मौत हो गई थी। आरोप इतने गंभीर थे और मामला इतना संवेदनशील था कि पिछले 9 सालों से जेल में बंद मदनी अनेक अदालतों में जमानत की गुजार लगाते रहे। लेकिन 2005 में सर्वोच्च न्यायालय तक ने उसकी जमानत की अर्जी को खारिज कर दिया था। ऐसा प्राय: कम मामलों में ही होता है लेकिन जब सर्वोच्च न्यायाल भी लंबे अरसे से रिमांड पर ही जेल में रह रहे अपराधी की जमानत याचिका खारिज कर दे तो मान लेना चाहिए आरोप गंभीर भी है और तथ्यपरक भी।

लेकिन मदनी निर्दोष छूट गए है। इससे किसी को आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि इससे पहले भी जेसिका लाल हत्याकांड केस में मनु शर्मा निर्दोष करार दिए गए थे। प्रियदर्शनी मट्टू हत्याकांड में संतोष सिंह निर्दोष करार दिए गए थे। यदि मदनी इसी परंपरा मे निर्दोष पाए जाते तो शायद इसको लेकर किसी को आश्चर्य भी न होता लेकिन मदनी के निर्दोष पाए जाने का जो खुलासा केरल सीपीएम के सचिव ने किया है वह चौंकाने वाला है। कन्नूर में संवाददाताओं से मदनी के जेल से छूटने पर प्रसन्नता व्यक्त करते हुए सीपीएम के सचिव विजयन ने रहस्योद्धाटन किया कि मदनी की रिहाई केरल और तमिलनाडु में सरकारों के बदलने के कारण ही संभव हो पाई है। इसका अर्थ यह हुआ कि तमिलनाडु सरकार और केरल सरकार ने न्यायालय के निर्णय को प्रभावित किया है। ऐसा नहीं है कि इस देश में राजनैतिक दल और राजनैतिक पुरुष न्यायालय के निर्णय को प्रभावित नहीं करते। मनु शर्मा और संतोष सिंह का किस्सा ऐसा ही है । लेकिन ऐसा पहली बार हुआ है किसी राजनैतिक दल ने खुलेआम इस बात की घोषणा की हो कि सरकार के बदलने के कारण किसी अपराधी की रिहाई संभव हो पाई है। यह ठीक है कि केरल में कांग्रेस और सीपीएम दोनों ही एक लंबे अरसे से मदनी को छुड़ाने की जुगते बिठा रहे थे। जहां तक कि इन दोनों दलों ने मिलकर मदनी की रिहाई के लिए 2005 में विधानसभा में सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव भी पारित किया था। विजयन कहते हैं कि रिमांड पर जेल पर रहने का मदनी का किस्सा करोड़ों में से एक है। लेकिन वे यह नहीं बताते कि विधानसभा द्वारा किसी अपराधी को मुक्त करवाने के लिए प्रस्ताव पारित करने का किस्सा भी करोड़ों में से एक ही है।

यदि इन बातों को गंभीरता से लिया जाए और इसे लेना भी चाहिए क्योंकि सीपीएम पार्टी केरल में राज्य कर रही है और केन्द्र में राज्य करने वालों को ऑक्सीजन मुहैया कर रही है। तमिलनाडु की द्रविड़ मुनेत्र कडगम भी केन्द्र की यूपीए सरकार का हिस्सा है। इसका अर्थ यह हुआ कि मदनी की रिहाई में डीएमके सरकार और केरल की साम्यवादी सरकार ने पर्दे के पीछे से महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। जज को डराया धमकाया होगा ऐसा तो कोई नहीं कह सकता। क्योंकि न्यायपालिका पर लोगों का विश्वास अभी भी अडिग है। लेकिन अब इतना तो मानना ही पड़ेगा कि डीएम सरकार ने मदनी का केस ही कचहरी में इस ढंग से प्रस्तुत किया होगा कि न्यायाधीश के पास उसको छोड़ने के अलावा और कोई चारा न रहे। कचहरियों में ऐसा पहले भी होता रहा है जब न्यायाधीश ने स्वयं ही कहा कि वे जानते हैं कि छूटने वाला अपराधी पाक साफ नहीं है लेकिन जांच करने वाली एजेंसी यदि उसके खिलाफ सबूत प्रस्तुत नहीं करेगी तो यह काम न्यायपालिका स्वयं तो नहीं कर सकती। तमिलनाडु के अध्यक्ष गणेशन ने ठीक ही कहा है, 'इस निर्णय के लिए न्यायापालिका को उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता। सरकार ने ही मदनी के खिलाफ कमजोर केस तैयार किया और उसके छूटने का रास्ता साफ कर दिया।

प्रश्न है मदनी केरल की राजनीति में इतने महत्वपूर्ण क्यों हो गए हैं? उसका प्रमुख कारण यह है कि उन्होंने केरल में कट्टरवादी मुस्लिम आतंकवाद को जन्म दिया है। उन्होंने 1980 में इस्लामी संघ की स्थापना की । जब सरकार ने उसे प्रतिबंधित कर दिया तो उसने उसके स्थान पर पीडीपी नामक राजनैतिक दल की स्थापना कर दी। वह मुसलमानों ने यह विश्वास दिलाने को कामयाब हो गया कि हिन्दुस्तान में दारूल हरब है। यानि उन लोगों का साम्राज्य जो ईश्वर की नजरों में अच्छे लोग नहीं है। इसलिए इस क्षेत्र में दारूल इस्लाम की स्थापना करना हर मोमिन का फर्ज है और यह ऐसा काम है जो उसे अल्लाह ने सौंपा है। इस फर्ज को अदा करने पर हर मोमिन जन्नत नसीब होगी और जन्नत में उसे क्या मिलेगा यह हर मोमिन पहले से ही जानता है। लेकिन यह रास्ता इतना आसान नहीं है। इसके लिए हथियार उठाना पड़ता है और दुर्भाग्य से मदनी के कहने पर केरल में मोमिनों न हथियार उठा लिए। मदनी पर आरोप था कि कोयम्बटूर के जिस बम विस्फोट में 58 लोग मारे गए उसको अंजाम देने वाले अलउम्मा के सदर एस.ए. बाशा और उसके अनुयायियों के तार मदनी से जुड़े हुए थे और मदनी ने ही उनके प्रशिक्षण की व्यवस्था की थी। यह प्रशिक्षण बौध्दिक भी था और हथियारों का भी। जाहिर है दारूल इस्लाम की खोज में मदनी के सैनिक तिरुवनंतपुरम की ओर से तमिल प्रदेश की ओर चल पड़े थे। न्यायालय में मदनी का दोष सिध्द नहीं हो पाया, यह अलग बात है, लेकिन इस पूरे आंदोलन में मदनी ने यह अरसा पहले ही सिध्द कर दिया था कि केरल के मुसलमानों के वोट उसकी झोली में है। वह जिसके पक्ष में चाहेगा उसके पक्ष में यह झोली उलटा सकता है। यह अलग बात है कि बंबों से खेलते खिलाते एक बम विस्फोट में उसकी अपनी एक टांग भी उड़ गई थी। परंतु मदनी जानता है कि भारत में दारूल इस्लाम की स्थापना के लिए खुदा के दरबार में यह भेंट तुच्छ ही मानी जाएगी। इसलिए वह दूसरे नायाब ताहफों की तलाश में रहता है। 1998 में जब केरल सरकार ने मदनी को राज्य में अशांति फैलाने के आरोप में गिरतार कर लिया तो मदनी ने चुनावों में अपनी शक्ति दिखा दी और अगले चुनावों में मुसलमानों के वोट न मिलने कारण कांग्रेस पिट गई। केरल में अब कांग्रेस और सीपीएम दोनों को ही मुसलमानों के वोटों की चिंता है। इसलिए मदनी को रिझाने में लगे हुए हैं। वैसे एक दृष्टि से देखा जाए तो कांग्रेस और सीपीएम मुस्लिम आतंकवादियों को रिझाने का प्रयोग पूरे देश में ही एक सोची समझी रणनीति के तहत कर रही है। कश्मीर से सेना वापिस बुलाई जा रही है। पाकिस्तान को आतंकवाद से लड़ने का सांझा साथी घोषित किया जा रहा है। अफजल गुरु को फांसी के फंदे से लगभग उतार ही दिया गया है उसके लिए जम्मू कश्मीर के कांग्रेसी मुख्यमंत्री की भूमिका काबिले गौर है। अलबत्ता मदनी की इस बात के लिए तारीफ करनी होगी कि उसने स्वयं स्वीकार कर लिया है कि वह मुसलमानों की कट्टरपंथी नीति से जुड़ा रहा है और उससे गल्तियाँ भी हुई है। लेकिन उसे यह नहीं मालूम की उसकी इन गलतियों में 58 लोगों की जान चली गई है। कांग्रेस और सीपीएम के लिए इस देश के नायक अफज़ल गुरु है, सोहराबुद्दीन है, प्रो. गिलानी है और अब अब्दुल नसीर मदनी है। बाकी देश में तो ये दोनों दल यह रणनीति मानवाधिकारों के नीचे चला रहे हैं लेकिन केरल में दोनों ने वह लोक लाज भी त्याग दी है और सीधे-सीधे मदनी के पक्ष में उतर आए हैं। सीपीएम और कांग्रेस की दृष्टि में इस देश के दुश्मन वे सैनिक है, वे सिपाही है और वह जांबाज जनता है जो आतंकवादियों से लड़ते हुए शहीद हो रही है। जो कहीं बच भी जाते हैं तो वे आतंकवादियों के मानवाधिकार हनन केस में जेल भेज दिए जाते हैं। बन्दे मातरम कहने वाले जेल में है और मदनी जेल से बाहर है। केरल में कांग्रेस और सीपीएम मिलकर मदनी के लिए वंदनबार सजा रहे हैं। उसके आगे कोर्निश कर रहे हैं माथे पर कार्ल मार्क्स का चित्र लगाकर हाथ में लाल झंडा लेकर मदनी के विजयोत्सव में नाच-नाच कर पसीने से सराबोर हो रहे हैं। लेकिन देश के सामने एक बहुत बड़ा महत्वपूर्ण प्रश्न है कि क्या तमिलनाडु की सरकार मदनी को रिहा करने के विशेष न्यायालय के इस निर्णय के खिलाफ अगले न्यायालय में अपील दायर करेगी या नहीं? या फिर वह भी केरल के साम्यवादी और कांग्रेसियों की तरह मदनी के विजयोत्सव में हिजडों की तरह नाच-नाच कर अपनेर् कत्तव्य की इतिश्री मान लेगी। (हिन्दुस्थान समाचार)

Saturday, 25 August 2007

सीपीएम मुख्यालय- यहां झूठ के सौदागर बैठते हैं


- हरेन्द्र प्रताप


श्री हरेन्द्र प्रताप प्रखर राष्ट्रवादी कार्यकर्ता है। वे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के राष्ट्रीय महामंत्री और राष्ट्रीय सह संगठन मंत्री पदों को सुशोभित कर चुके है। सम्प्रति वे भारतीय जनता पार्टी के पूर्णकालिक कार्यकर्ता है। श्री प्रताप संगठन शास्त्र में माहिर, वक्तृत्व कला में पारंगत व अध्ययन-वृति के धनी है। आपने नक्सलवाद और मार्क्सवाद का गहरा अध्ययन किया है। कम्युनिस्टों के प्रपंचों पर केन्द्रित श्री हरेन्द्र प्रताप का यह लेख हमारी आंखें खोलता है।

1962 ई. में भारत-चीन युध्द के समय बिहार के बक्सर जिला स्थित मेरे गांव से कुछ कम्युनिस्ट गिरफ्तार हुए थे। 12 वर्ष की आयु में उनकी गिरफ्तारी पर मुझे बहुत आक्रोश आया था। मैंने पिताजी से पूछा कि इन लोगों को क्यों गिरफ्तार किया गया है तो पिता जी ने उत्तार दिया कि चीन ने भारत पर आक्रमण किया है उसकी ये खुशी मना रहे थे। तभी से कम्युनिस्टों के बारे में मेरे मानस पटल पर यह बात बैठ गई कि इन्हें भारत पसंद नहीं है।

भारत में जन्म लेने के बाद कोई व्यक्ति भारत का अहित क्यों सोचता है, इसके मूल में वह व्यक्ति कम उस व्यक्ति की शिक्षा और संस्कार को दोषी मानना चाहिए। बाल्यकाल से जिसके मन मस्तिष्क पर भारत के बारे में भारत की एक नकारात्मक छवि प्रस्तुत की जाये तो स्वाभाविक है कि वह भारत विरोधी हो जायेगा। भारत विरोध के काम में सक्रिय इस्लामिक मौलवी, विदेशी पादरी एवं वामपंथी लेखक ही इस भारत विरोध की जड़ में बैठे हुए हैं।

''पटना से दिल्ली तक की यात्रा में एक मार्क्सवादी कार्यकर्ता के साथ कई विषयों पर जब मैं चर्चा कर रहा था तो वह बार-बार हमें यह समझाने की कोशिश कर रहा था कि मार्क्सवादी ही भारत की सत्य बातों को समाज के सामने लाते हैं। अत: उसने कहा कि आपको सीपीएम दफ्तर में जाकर सीपीएम द्वारा प्रकाशित और प्रचारित साहित्य को पढ़ना चाहिए और मैं दिल्ली स्थित सीपीएम कार्यालय गया और कुछ पुस्तकों को खरीद लिया। खरीदे गए पुस्तकों में से तीन पुस्तकों को मैं पढ़ चुका हूं- पहला, ''आरएसएस और उसकी विचारधारा'', दूसरा ''गोलवलकर या भगत सिंह'' एवं तीसरा, ''घृणा की राजनीति।''

''मदन दास देवी के अपने सहजादे का नाम भी कुख्यात पेट्रोल पम्प घोटाले में शामिल रहा है''- यह अपने आप में इतना बड़ा झूठ और चरित्रहनन की कोशिश थी जिसने मुझे कम्युनिस्टों को बेनकाब करने को प्रेरित किया क्योंकि मदन दास जी को पिछले 32 वर्षों से मैं जानता हूं। मदन दास जी अविवाहित हैं। ''गोलवलकर या भगत सिंह'' नामक पुस्तक के पृष्ठ-41 पर संघ के लोगों की चरित्र हत्या करते समय ''गोलवलकर या भगत सिंह'' के सम्पादक राजेन्द्र शर्मा के ऊपर न केवल गुस्सा आता है बल्कि ऐसे लेखकों के प्रति मन में घृणा का भाव भी उत्पन्न होता है।

कम्युनिस्टों ने अपने प्रत्येक लेख में यह लिखकर साबित करने की कोशिश की कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आजादी की लड़ाई में भाग नहीं लिया बल्कि उसने अंग्रेजों का साथ दिया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बारे में लिखते समय इन तीनों पुस्तकों में कम्युनिस्टों ने अमेरिकी शोधकर्ता जे.ए. करान जूनियर के शोधग्रंथ ''मिलिटेन्ट हिन्दुज्म इन इंडियन पॉलिटिक्स स्टडी आफ द आरएसएस'' पुस्तक का बार-बार उल्लेख किया है। हंसी तब आती है जब सीताराम येचुरी के नाम से प्रकाशित घृणा की राजनीति पृष्ठ-17 पर प्रकाशित इस पुस्तक का वर्ष 1979 लिखा गया है जबकि आरएसएस और उसकी विचारधारा नामक पुस्तक जिसे अरूण माहेश्वरी ने लिखा है। इसमें इस पुस्तक का प्रकाशन वर्ष 1951 दिखाया गया है। अब यह पाठकों को तय करना है कि जिस अमेरिका को कम्युनिस्ट दिन-रात गाली देते रहते हैं उसी अमेरिका के एक संस्था द्वारा कराये गये एक शोध को ये वामपंथी अपना बाइबल मानकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को गाली देने का काम कर रहे हैं।

'गोलवलकर या भगत सिंह' सम्पादक राजेन्द्र शर्मा के पुस्तक में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरूजी द्वारा लिखित पुस्तक ''हम अथवा हमारे राष्ट्रीयत्व की परिभाषा'' (ये हिन्दी में अनुवादित) नामक पुस्तक को इन लोगों ने प्रकाशित किया है। वामपंथियों ने स्वयं स्वीकार किया है कि आरएसएस ने इस पुस्तक को बाद में वापस ले लिया था फिर भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का विचार अंग्रेजों के बारे में क्या था इनके अनुवादित पुस्तक से ही कुछ उदाहरण नीचे दिये जा रहे हैं:-

पृष्ठ-76- इसे भी अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए कि गोरे मनुष्य की श्रेष्ठता ग्रंथी उनकी दृष्टि को धुंधली कर देती है..... उनमें न तो ऐसी उदारता और न सत्य के लिए ऐसा प्रेम। अभी कल ही की तो बात है जब वे अपनी नंगी देह पर विचित्र गोद ने गुदवाये और रंग पोते जंगलों में आदिम अवस्था में भटकते फिरते थे।

पृष्ठ-79- लेकिन, इससे पहले की इस जीत के फल एकत्र किये जा सकते, इससे पहले की राष्ट्र को शक्ति अर्जित करने के लिए सांस लेने की मोहलत मिल पाती ताकि वह राज्य को संगठित कर पाता, एक पूरी तरह से अप्रत्याशित दिशा से एक नया शत्रु चोरी छिपे विश्वासघाती रूप से देश में घुस आया और मुसलमानों की मदद से तथा जयचन्द, राठौर, सुमेर सिंह जैसे विश्वासघाती शासकों के कबीले के जो लोग अब भी बने हुए थे उनकी मदद से उन्होंने तिकड़मबाजी की और भूमि पर कब्जा करना शुरू कर दिया.... उल्टे कमजोरी के बावजूद वह 1857 में एक बार फिर दुश्मन को खदेड़ने के लिए उठ खड़ा हुआ था।

पृष्ठ-80- बेशक हिन्दू राष्ट्र को जीता नहीं जा सका है वह लड़ाई जारी रखे हुए है.....लेकिन लड़ाई जारी है और अब तक उसका निर्णय नहीं हुआ है......शेर मरा नहीं था सिर्फ सो रहा था वह एक बार फिर जाग रहा है और दुनिया पुनर्जाग्रत हिन्दू राष्ट्र की शक्ति देखेगी वह अपने बलिष्ठ बाजू से कैसे शत्रु के शेखियों को ध्वस्त करता है।

अंग्रेजों के शासन में अंग्रेजों को असभ्य, शत्रु, विश्वासघाती शब्दों के माध्यम से इस देश को जगाने वाला गुरू जी का यह लेख (यदि सचमुच उनका ही लेख है) तो अपने आप में न केवल प्रशंसनीय है बल्कि इस बात को प्रमाणित करता है कि गुरू जी के मन में अंग्रेजों के प्रति यह जो आक्रोश था वह आक्रोश संघ की शाखाओं में तैयार होने वाले स्वयंसेवकों के मन में कितना असर करता होगा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कितना देशभक्त है इसका सर्टिफिकेट कम्युनिस्ट नहीं दे सकते। क्योंकि कम्युनिस्टों ने 1942 से लेकर आज तक देश के साथ गद्दारी ही की है।

कम्युनिस्टों के तथाकथित इन पुस्तकों में चरित्र हनन का भी पुरजोर प्रयास किया गया है। गोलवलकर या भगत सिंह नामक पुस्तक के पृष्ठ-42 और 43 पर संघ प्रचारक और भाजपा के बारे में जो चरित्र हत्या की गई है उसकी जितनी भी निन्दा की जाये वह कम है।

''किसी को चरित्र की शिक्षा कम्युनिस्टों से लेने की आवश्यकता नहीं है। चरित्र हनन करना यह हम लोगों का संस्कार नहीं है फिर भी मार्क्स-पुत्रों को इशारे में यह बता देना आवश्यक है कि माउत्सेतुंग (जिसने न केवल 5 शादियां की बल्कि प्रत्येक बुधवार को नाचघर में उसके लिए लड़कियां बुलाई जाती थी....) मन में घृणा के साथ-साथ आक्रोश भी पैदा करता है। चरित्र के धरातल पर ऐसे पतीत लोग ही मार्क्सवादियों के मसीहा बने हुए हैं।

मार्क्सवादी किताबों में भारत के प्रति इनकी भक्ति कैसी है उसके कुछ उदाहरण निम्न हैं तथा ये झूठ को कैसे सत्य साबित करते हैं इसके उदाहरणार्थ इनकी पुस्तकों को देखें:-

''एटम बम बनाने के नाम पर केसरिया पलटन जो घोर अंधराष्ट्रवादी रूख करती रही है''- घृणा की राजनीति, लेखक सीताराम येचुरी, पृष्ठ- 24

''उधर भाजपा सांसद मदन लाल खुराना बांग्लादेशी घुसपैठियों की राजधानी में मौजूदगी की अतिरंजि त तस्वीरों के जरिये मुस्लिम विरोधी उन्माद भड़काने में लगे हुए हैं'' घृणा की राजनीति, लेखक सीताराम येचुरी, पृष्ठ- 42

''1938 में ही सावरकर ने खुलेआम यह ऐलान किया था कि भारत में दो राष्ट्र, हिन्दू और मुसलमान बसते हैं। मुस्लिम लीग ने इस सिध्दांत को 1947 में अपनाया था''- घृणा की राजनीति, लेखक सीताराम येचुरी, पृष्ठ- 34

''सन् 1923 में नागपुर की पहली जीत के बाद से ही संघ की गतिविधियां उसी साम्प्रदायिकता भड़काने और मुसलमानों पर हमला करने की षडयंत्र का भी गतिविधियों के अलावा कुछ नहीं थी। तब से आज तक देशभर में संधियों के नियंत्रण की अनेक व्यायामशालाएं दंगाइयों के अड्डे के रूप में काम करते देखी जा सकती है''- आरएसएस और उसकी विचारधारा, पृष्ठ- 65

उपरोक्त वामपंथी शब्द इस बात को प्रमाणित करते हैं कि जब अमेरिका, चीन, सोवियत संघ और पाकिस्तान जैसे देश एटम बम बना सकते हैं तो रक्षार्थ भारत के एटम बम के खिलाफ प्रकट किया गया इनका विचार राष्ट्रद्रोह के सिवा और क्या कहलाएगा? इनके लेख में बंग्लादेशी घुसपैठ को नकारना या भारत एक राष्ट्र है इसका नकारना यह तो पहले से जगजाहिर है पर झूठ बोलने में माहिर मार्क्सवादी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना का काल 1923 से पहले दिखाकर खुद नंगा हो गये। क्योंकि सभी जानते हैं कि संघ की स्थापना 1925 में हुई थी। मुस्लिम लीग को बचाने के लिए इन्होंने पूरी कोशिश की है और सावरकर को ''द्वि-राष्ट्रवाद'' का दोषी करार दिया है जबकि यह सर्वविदित है कि मुस्लिम लीग ने इस सिध्दांत को सबसे पहले प्रतिपादित किया था।

वामपंथियों के झूठ का दस्तावेज स्वयं इनके द्वारा प्रकाशित पुस्तक ही है। झूठ बोलते समय इन्हें जरा भी शर्म नहीं आती है। चलते-चलते एक उदाहरण पर्याप्त है- घृणा की राजनीति नामक पुस्तक जो सीताराम येचुरी के नाम से प्रकाशित है उस पुस्तक के पहले ही लेख में इनकी कथनी और चरित्र तार-तार हो जाता हैं इस पुस्तक के साम्प्रदायिक और फांसीवादी ताकतों की चुनौती शीर्षक के तहत पृष्ठ-29 पर ए.के. गोपालन व्याख्यानमाला में 13 अप्रैल, 1998 को भाषण देते हुए सीताराम येचुरी ने कहा था.....

''इसलिए भाजपा को शिकस्त देने के लिए कांग्रेस के साथ रणनीतिक रूप से हाथ मिलाने का अर्थ होगा जिस डाल पर बैठे हों उसी को काटना।''

माक्र्सवादी आज कहां खड़े हैं। उसी कांग्रेस की गोद मे बैठकर मलाई काटने वाले सीताराम येचुरी और उनके पिछलग्गू यह भी भूल गये कि 1998 में कांग्रेस के बारे में उन्होंने उपरोक्त बातें कही थी।
हे भगवान! इन्हें मुक्ति दो क्योंकि ये खुद स्वीकार कर रहे हैं कि जिस डाल पर ये बैठे हैं उस डाल को ही ये काट रहे हैं। भारत में बुरे से बुरे आदमी को भी मरने के बाद हर व्यक्ति भगवान से उसका मुक्ति देने की प्रार्थना करता है। 1990 में पूरी दुनिया में दफनाये गये कम्युनिज्म को भगवान मुक्ति प्रदान करें। भारत में बेचारे केरल और बंगाल समुद्र के किनारे दो प्रांतों में ही सिमटे हुए कांग्रेस की कमजोरियों के कारण राष्ट्रीय राजनीति पर हावी होने का जो असफल प्रयास कर रहे हैं पता नहीं कब इनके पांव फिसल जाएं और भारत में भी ये समुद्र की लहरों में विलीन हो जाएं। मैं अग्रिम रूप से भगवान से यह प्राथना करूंगा कि भारत के कम्युनिस्टों को भी (भले ही कितना ही इन्होंने राष्ट्रद्रोह का काम किया हो और झूठ बोला हो) हे भगवान मुक्ति प्रदान करना।

Thursday, 23 August 2007

फिर अखण्ड होगा भारत- महर्षि अरविन्द


- ललित मोहन शर्मा
आज से ठीक साठ साल पहले भारत में एक नए युग की शुरूआत हुई। सैकड़ों सालों के संघर्ष तथा लाखों राष्ट्रभक्तों के बलिदान के बाद 14-15 अगस्त की अर्धरात्रि को हमारे देश को स्वाधीनता मिली। 15 अगस्त की सुबह जब देशवासी सोकर उठे तो स्वतंत्र देश में स्वतंत्रता की सुरभि बह रही थी। प्रत्येक देशवासी ने स्वतंत्रता प्राप्ति की खुशी मनाई और तब से लेकर आज तक हम प्रतिवर्ष 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाते आ रहे हैं। देश को स्वतंत्रता मिलने के साथ ही विभाजन की त्रासदी से भी गुजरना पड़ा। लाखों निर्दोष देशवासियों के लिए यह आजादी अभिशाप सी बनकर आई। अंग्रेजों ने भारत को खण्डित कर उसके दो टुकड़े कर दिए।

क्यों हुआ विभाजन
भारत विभाजन की इस त्रासदी में तीन प्रमुख पात्र थे- अंग्रेज, मुस्लिम लीग और उस समय का देश का नेतृत्व।

सन् 1857 के प्रथम स्वातंत्र्य समर में हिन्दू और मुसलमानों के संगठित प्रयास को देखकर, अंग्रेजों ने भारत में टिके रहने के लिए मुसलमानों को हिन्दुओं से अलग करने तथा अपनी ओर मिलाने की रणनीति अपनाई।

इस नीति के तहत उन्होंने मुस्लिमों को भारत का शासक कहकर उकसाया तथा उन्हें अधिक सुविधाएं देकर तुष्टीकरण की नीति अपनाते हुए अपनी ओर मिलाने के प्रयास किए। अंग्रेजों ने 1904 में ही पूर्वी बंगाल को एक ''मुस्लिम प्रांत'' घोषित करते हुए 'मजहब' के नाम पर अलग देश के बीज बो दिए थे। इसी के परिणामस्वरूप 30 दिसम्बर 1906 को अखिल भारतीय मुस्लिम लीग की स्थापना हुई। मुस्लिम लीग की मांग पर पृथक निर्वाचन मण्डल तथा जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व की मांग स्वीकार कर अंग्रेजों ने अलगाववाद को हवा दी। मदनमोहन मालवीय ने इसकी आलोचना करते हुए असेम्बली में कहा था कि ''यह अंग्रेजों का भारतीयों में फूट डालने का षडयंत्र है, हम इसका समर्थन नहीं करते।''

स्वतंत्रता के लिए कोशिश कर रहे कांग्रेस के नेतृत्वकर्ताओं ने इस स्थिति का विरोध करने के स्थान पर मुस्लिमों को अपने पक्ष में करने के लिए तुष्टीकरण का ही रास्ता चुना।

स्वामी श्रध्दानन्द ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि ''कांग्रेस अधिवेशनों में भाग लेने वाले मुस्लिम प्रतिनिधियों को किराया तथा यात्रा-भत्ता तक दिया जाने लगा। उनसे भोजन शुल्क भी नहीं लिया जाता था। दस्तरखाने पर (भोजन की थाली में) उनके लिए अन्य प्रतिनिधियों से अलग भोजन परोसे जाते थे। अधिवेशनों में मुस्लिम प्रतिनिधि खूब मौज उड़ाते थे। कांग्रेस की ओर से मुस्लिम तुष्टिकरण का यह प्रारंभिक स्वरूप था।''

इस तुष्टीकरण का ही परिणाम था कि मुस्लिम लीग ने स्वतंत्र भारत में पहले प्रधानमंत्री पद पर अपनी दावेदारी जताई, जिसे अंग्रेजों की सहमति प्राप्त थी लेकिन कांग्रेस के तत्कालीन नेताओं को यह मान्य नहीं था। जिन्ना व नेहरू की महत्वाकांक्षाओं के बीच अंग्रेज अपनी चाल चलने में सफल हो गए और जाते-जाते देश के दो टुकड़े कर गए।

विभाजन की विभीषिका
भारत का जो हिस्सा अलग होकर पाकिस्तान बना, वहां के हिन्दुओं पर कहर टूट पड़ा। बहुसंख्यक मुसलमानों ने हिन्दुओं पर बर्बर अत्याचार किए, जिसमें सेना व पुलिस के मुस्लिम जवानों ने उनका खुलकर साथ दिया। लाखों हिन्दुओं को मौत के घाट उतार दिया गया, अबलाओं (महिलाओं) के साथ अमानुषिक कृत्य किए गए। अनेक लोगों को जबरन मुसलमान बना लिया गया तथा जो नहीं बने उनका सब कुछ लूटकर भारत चले जाने को मजबूर किया गया। उस समय की घटनाओं को सुनकर आज भी रोंगटे खडे हो जाते हैं। कैसी थी वह पाकिस्तान की सप्रेम भेंट- 15 अगस्त 1987 को लाहौर से अमृतसर के लिए पहली गाड़ी में एक भी यात्री जिंदा नहीं था। छोटे बच्चों की लाशें उनकी माताओं के मतृ शरीरों पर चिपटी थीं। माताओं व बहिनों के अंग-भंग कर दिए थे। गाड़ी के सभी डिब्बे लाशों से भरे थे और अन्तिम डिब्बे पर लिखा था ''स्वतंत्र भारत को पाकिस्तान की सप्रेम भेंट।''

इस भीषण संकट में जहां कम्युनिस्टों ने पाकिस्तानी मुसलमानों का साथ दिया, वहीं हमारे कांग्रेस के कुछ लोग 'हिन्दू-मुस्लिम एकता' का राग अलाप रहे थे। उस समय केवल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों ने अपनी जान की बाजी लगाकर हिन्दू समाज की पूरे सामर्थ्य से सुरक्षा की तथा अधिकांश हिन्दुओं को बचाकर लाने में सफल हुए।

आज भी है विभाजन की कसक
पाकिस्तान अलग देश बन गया और उस समय के मजहबी उन्माद में आकर कुछ भारतीय मुसलमान वहां चले गए लेकिन आज भी उनमें भारत में रह रहे अपने सम्बन्धियों और मित्रों के प्रति मोह देखने को मिलता है। यद्यपि कट्टरवादी ताकतें उनके इस मोह को तोड़ने का पूरा प्रयास कर रही है, लेकिन अपनी जन्म-भूमि के प्रति उनके मोह को खत्म करने में सफल नहीं हो सकी है। आज भी जब कोई पाकिस्तानी अपने पुश्तैनी गांव में पहुंचता है तो वह आंखें नम किए बिना नहीं रहता और बहुत से तो यह कहने से भी नहीं चूकते कि यह विभाजन बहुत गलत हुआ। हमें एक राष्ट्र बनकर रहना चाहिए। हमारी सभ्यता और संस्कृति एक ही है। सिन्धु के नाम से ही हमारे देश का नाम हिन्दुस्थान पड़ा और उसे भारत में ही होना चाहिए।

फिर एक होगा भारत
महान् क्रांतिकारी-योगिराज-महर्षि अरविन्द ने आज से 60 वर्ष पहले 1957 में यह भविष्यवाणी कर दी थी कि ''देर चाहे कितनी भी हो पाकिस्तान का विघटन और भारत में विलय निश्चित है।'' इसकी एक झलक हमें श्री अरविन्द की जन्मशताब्दी वर्ष 1972 में देखने को मिली थी। उस समय 92 हजार पाकिस्तानी सैनिकों ने हथियार डालकर भारतीयों के सम्मुख आत्मसमर्पण कर दिया। उल्लेखनीय है कि महर्षि अरविन्द का जन्म 15 अगस्त 1872 में को हुआ था और हमारा स्वतंत्रता दिवस भी 15 अगस्त ही है। यह मात्र संयोग ही नहीं बल्कि भगवान द्वारा श्री अरविन्द के बताए मार्ग पर चलने की स्वीकृति भी है। 15 अगस्त 1947 को देश की स्वतंत्रता प्राप्ति के अवसर पर योगिराज ने स्वयं अपने उद्बोधन में कहा कि ''भागवत शक्ति ने- जो कि मेरा पथ-प्रदर्शन करती है- उस कार्य के लिए अपनी अनुमति दे दी है और उस पर मुहर लगा दी है जिसके साथ-साथ मैंने अपना जीवन आरम्भ किया था। देश का विभाजन दूर होना ही चाहिए, वह दूर होगा या तो तनाव के ढीले पड़ जाने से या शांति और समझौते की आवश्यकता को धीरे-धीरे हृदयंगम करने से, या किसी कार्य को मिलजुलकर करने की सतत् आवश्यकता से या उस उद्देश्य की पूर्ति के लिए साधनों की जरूरतों को महसूस करने से। जिस किसी तरह क्यों न हो, विभाजन दूर होना ही चाहिए और दूर होकर ही रहेगा। उन्होंने यही बात सन् 1950 में अपने प्रिय शिष्य कन्हैया लाल माणिक मुंशी जी से भी कही थी। महर्षि ने कहा कि ''भारत फिर से एक होगा मैं उसे स्पष्ट देख रहा हूं।''

Tuesday, 21 August 2007

अखण्ड भारत पर अटल बिहारी वाजपेयी की कविता


यह सुविदित है कि भाजपा के वरिष्ठ नेता व पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी एक कुशल राजनेता के साथ-साथ लब्धप्रतिष्ठ कवि भी हैं। समय-समय पर अपनी रचनाओं के माध्यम से वे राष्ट्र की चुनौतियों के विरूध्द सिंहगर्जना करते रहते हैं। स्वतंत्रता दिवस और अखण्ड भारत पर केन्द्रित अटलजी की निम्न कविता बेहद लोकप्रिय रचना है और यह आज भी सामयिक है।


पन्द्रह अगस्त का दिन कहता,
आजादी अभी अधूरी है।

सपने सच होने बाकी हैं,
रावी की शपथ न पूरी है।
लाशों पर पग धर कर,
आजादी भारत में आई।
अब तक हैं खानाबदोश,
गम की काली बदली छाई॥
के फुटपाथों पर, जो आंधी-पानी सहते हैं।
उनसे पूछो, पन्द्रह अगस्त के बारे में क्या कहते हैं॥
के नाते उनका दुख सुनते, यदि तुम्हें लाज आती।
तो सीमा के उस पार चलो, सभ्यता जहां कुचली जाती॥
इन्सान जहां बेचा जाता, ईमान खरीदा जाता है।
इस्लाम सिसकियां भरता है, डालर में मुस्काता है॥
को गोली, नंगों को हथियार पिन्हाये जाते हैं।
सूखे कण्ठों से, जेहादी नारे लगवाये जाते हैं॥

लाहौर, कराची, ढाका पर, मातम की है काली छाया।
पख्तूनों पर, गिलगित पर है, गमगीन गुलामी का साया॥

बस इसीलिए तो कहता हूं, आजादी अभी अधूरी है।
कैसे उल्लास मनाऊं मैं? थोड़े दिन की मजबूरी है॥

दूर नहीं खण्डित भारत को, पुन: अखण्ड बनायेंगे।
गिलगित से गारो पर्वत तक, आजादी पर्व मनायेंगे।

उस स्वर्ण दिवस के लिए, आज से कमर कसें, बलिदान करें।
जो पाया उसमें खो न जाएं, जो खोया उसका ध्यान करें॥

Thursday, 16 August 2007

अखण्ड भारत पर विचार-2

यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि कुछ लोगों को छोड़कर आज लोग अखण्ड भारत का विचार ही नहीं करते। इसका कारण यह है कि भारत विभाजन को स्थापित सत्य मान लिया गया है। लोग कहते है कि भारत का विभाजन एकदम गलत है, यह नहीं होना चाहिए था, परन्तु अब क्या किया जा सकता है, विभाजन तो हो गया। अब फिर से भारत को अखण्ड थोड़े ही किया जा सकता है। इसी विचार के कारण लोग विभाजन और अखण्ड भारत के बारे में सोचते ही नहीं। इसीलिए सब से पहले लोगों के मनों से स्थापित सत्य वाली बात को निकालना होगा। आइए, इतिहास की कुछ स्थापित सत्य दिखनेवाली बातों के बारे में विचार किया जाए। हम अखण्ड भारत विषय पर विस्तार से चर्चा करना चाहते है। दूसरी कडी में हम अखण्ड भारत मुद्दे पर यहां महापुरूषों के विचार प्रकाशित कर रहे हैं-

मैं स्पष्ट रूप से यह चित्र देख रहा हूं कि भारतमाता अखण्ड होकर फिर से विश्वगुरू के सिंहासन पर आरूढ है।
-अरविन्द घोष

आइए, प्राप्त स्वतंत्रता को हम सुदृढ़ नींव पर खड़ी करें अखंड भारत के लिए प्रतिज्ञाबध्द हों।
- वीर सावरकर

अखंड भारत मात्र एक विचार न होकर विचारपूर्वक किया हुआ संकल्प है। कुछ लोग विभाजन को पत्थर रेखा मानते हैं। उनका ऐसा दृष्टिकोण सर्वथा उनुचित है। मन में मातृभूमि के प्रति उत्कट भक्ति न होने का वह परिचायक है।
-पंडित दीनदयाल उपाध्याय

हम सब अर्थात् भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश इन तीनों देशों में रहने वाले लोग वस्तुत: एक ही राष्ट्र भारत के वासी हैं। हमारी राजनीतिक इकाइयां भले ही भिन्न हों, परंतु हमारी राष्ट्रीयता एक ही रही है और वह है भारतीय।
-लोकनायक जयप्रकाश नारायण

पाकिस्तान तो इस्लामी भावना के ही विपरीत है। यह कैसे कहा जा सकता है कि जिन प्रांतों में मुसलमान अधिक है वे पाक हैं और दूसरे सब प्रांत नापाक हैं।
-मौलाना अबुल कलाम आजाद

पश्चाताप से पाप प्राय: धुल जाता है किंतु जिनकी आत्मा को विभाजन के कुकृत्य पर संतप्त होना चाहिए था वे ही लोग अपनी अपकीर्ति की धूल में लोट लगाकर प्रसन्न हो रहे हैं। आइए, जनता ही पश्चाताप कर ले-न केवल अपनी भूलचूक के लिए, बल्कि अपने नेताओं के कुकर्मों के लिए भी।
-डा राम मनोहर लोहिया

पिछले चालीस वर्ष का इतिहास इस बात का गवाह है कि विभाजन ने किसी को फायदा नहीं पहुंचाया। अगर आज भारत अपवने मूल रूप में अखंडित होता तो न केवल वह दुनिया की सबसे बड़ी ताकत बन सकता था, बल्कि दुनिया में अमन-चैन कायम करने में उसकी खास भूमिका होती।
-जिए सिंध के प्रणेता गुलाम मुर्तजा सैयद

मुझे वास्तविक शिकायत यह है कि राष्ट्रवादी मुसलमानों के प्रति न केलव कांग्रेस अपितु महात्मा गांधी भी उदासीन रहे। उन्होंने जिन्ना एवं उनके सांप्रदायिक अनुयायियों को ही महत्व दिया। मुझे पूरा विश्वास है कि यदि उन्होंने हमारा समर्थन किया होता तो हम जिन्ना की हर बात का खंडन कर देते और विभाजनवादी आंदोलन के आरंभ काल में पर्याप्त संख्या में मुसलमानों को राष्ट्रवादी बना देते।
-न्यायमूर्ति मोहम्मद करीम छागला

Tuesday, 14 August 2007

अखण्ड भारत पर विचार


आज 14 अगस्त है। हम सब 'अखण्ड भारत दिवस' मना रहे है। अखण्ड भारत को लेकर अनेक जगह संगोष्ठी, निबंध प्रतियोगिता एवं व्याख्यानमालाएं आयोजित की जा रही है, पर्चे बांटे जा रहे है। यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि कुछ लोगों को छोड़कर आज लोग अखण्ड भारत का विचार ही नहीं करते। इसका कारण यह है कि भारत विभाजन को स्थापित सत्य मान लिया गया है। लोग कहते है कि भारत का विभाजन एकदम गलत है, यह नहीं होना चाहिए था, परन्तु अब क्या किया जा सकता है, विभाजन तो हो गया। अब फिर से भारत को अखण्ड थोड़े ही किया जा सकता है। इसी विचार के कारण लोग विभाजन और अखण्ड भारत के बारे में सोचते ही नहीं। इसीलिए सब से पहले लोगों के मनों से स्थापित सत्य वाली बात को निकालना होगा। आइए, इतिहास की कुछ स्थापित सत्य दिखनेवाली बातों के बारे में विचार किया जाए। हम अखण्ड भारत विषय पर विस्तार से चर्चा करना चाहते है। डॉ। सदानन्द दामोदर सप्रे ने अखण्ड भारत मुद्दे पर विचारोत्तेजक पुस्तक लिखी है। प्रथम कडी में, इस पुस्तक में प्रस्तुत प्रमुख बिन्दुओं को हम यहां प्रकाशित कर रहे हैं-



  • · जिस तरह स्वाधीनता से पहले प्रत्येक राष्ट्रभक्त के लिए स्वाधीनता की भावना प्रेरणा का मुख्य स्रोत हुआ करती थी उसी तरह स्वाधीनता के बाद अखण्ड भारत का स्वप्न प्रत्येक राष्ट्रभक्त के लिए प्रेरणा का मुख्य स्रोत होना चाहिए और इस स्वप्न को साकार करने के लिये उसको सतत् क्रियाशील रहना चाहिए।

    · विभाजन का मूल कारण है राष्ट्र और संस्कृति के बारे में भ्रामक धारणा। अंग्रेजों के जाल में हमारा नेतृत्व फंसा। तबसे राष्ट्र और संस्कृति के विषय में सर्वसामान्य जनता की भी धारणा भ्रामक हो गई। मिला-जुला राष्ट्र और मिली-जुली संस्कृति के विचार के कारण एक राष्ट्र, एक संस्कृति की बात गलत लगने लगी।

    · स्वाधीनता संग्राम के एक प्रमुख नेता पं. जवाहरलाल नेहरू कहा करते थे कि "We are a nation in the making" अर्थात् ''हम राष्ट्र बनने की प्रक्रिया में है''। अंग्रेजों ने यह संभ्रम फैलाने का प्रयास किया कि भारत कभी एक राष्ट्र रहा ही नहीं, उन्होंने इसे एक राष्ट्र बनाया है।

    · अंग्रेजों की शह से पुष्ट हुई मुस्लिम लीग ने 1940 में देश के विभाजन की मांग की, अंग्रेजों ने 3 जून 1947 को विभाजन की योजना प्रस्तुत की और 14-15 अगस्त 1947 की मध्यरात्रि को देश का विभाजन हो गया।

    विभाजन के बीज:

    · 1906 में की गई पृथक निर्वाचक-मण्डल की मांग को भारत विभाजन की दिशा का पहला कदम कहा जा सकता है। यह स्पष्ट रूप से मुस्लिम अलगाववाद था और इसे अंग्रेजों का समर्थन प्राप्त था।

    · 1906 में अड़तालीसवें शिया इमाम आगा खां के नेतृत्व में एक प्रतिनिधिमंडल लार्ड मिण्टो से मिला। इसकी प्रमुख मांग थी- मुसलमानों के लिए पृथक् निर्वाचक मण्डल। लार्ड मिण्टो ने इस मांग के प्रति अपनी सहमति जाहिर की और आगे चलकर 1909 के मार्ले-मिण्टो सुधारों में इसे सम्मिलित किया।

    · तुष्टीकरण के अंतर्गत शर्तों के आधार पर मुसलमानों को स्वाधीनता संग्राम में सम्मिलित करने के लिए कांग्रेस ने राष्ट्रीय मानबिन्दुओं के साथ समझौते किए। 1923 में कांग्रेस के काकीनाड़ा अधिवेशन में प्रख्यात गायक पं. पलुस्कर ने जैसे ही 'वन्देमातरम्' का गायन प्रारंभ किया वैसे ही कांग्रेस अध्यक्ष मोहम्मद अली ने यह कहते हुए गायन को रोकने का प्रयास किया कि इसमें मूर्ति पूजा है इसलिए इससे मुसलमानों की भावनाओं को ठेस पहुंचती है। मंच पर आसीन एक भी नेता ने इसका विरोध नहीं किया। पं. पलुस्कर ने मोहम्मद अली को यह कहकर चुप कर दिया कि मुझे यहां 'वन्देमातरम्' गाने के लिए बुलाया गया है और मैं तो गाऊंगा। इसके बाद उन्होंने संपूर्ण 'वन्देमातरम्' गाया और उस दौरान मोहम्मद अली मंच से उठकर चले गये। आगे चलकर 1937 में यह देखने के लिए एक समिति बनाई गई कि 'वन्देमातरम्' का कौन सा हिस्सा मुसलमानों के लिए आपत्तिजनक है। उनके निष्कर्ष के अनुसार ' वन्देमातरम्' के केवल पहले दो पद ही गाये जायेंगे ऐसा तय हुआ और आगे का 'वन्देमातरम्' निकाल दिया गया। आज भी हमारे स्वीकृत राष्ट्रगीत 'वन्देमातरम्' में पहले दो पद ही हैं, संपूर्ण 'वन्देमातरम्' नहीं है।

    · मोहम्मद अली जिन्ना की अध्यक्षता में 1927 में प्रमुख मुस्लिम नेताओं की एक बैठक हुई। इसमें उनकी मांगें ''चार सूत्र'' के रूप में प्रस्तुत की गई इस समय तक पृथक निर्वाचन-मंडल वाली बात निष्प्रभावी हो चुकी थी, अत: चार सूत्रों के बदले पृथक निर्वाचक मंडल के स्थान पर आरक्षण वाले संयुक्त निर्वाचन क्षेत्रों की बात स्वीकार करने की बात कही गई-

    (1) सिंध का मुंबई प्रांत से अलग किया जाये
    (2) पश्चिमोत्तार सीमा प्रांत और ब्लूचिस्तान का स्तर बढ़ाकर उन्हें पूर्ण गवर्नर का प्रांत बनाया जाये।
    (3) पंजाब और बंगाल इन मुस्लिम बहुल प्रांतों में जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व दिया जाये।
    (4) केन्द्रीय विधानमंडल में कम से कम एक तिहाई सदस्य मुसलमान हों।

    सभी मांगें खतरनाक थीं। विशेष रूप से सिंध को मुंबई से अलग करने की। क्योंकि इससे सिंध मुस्लिम बहुल प्रांत बननेवाला था। (सिंध के मुस्लिम बहुत प्रांत बनने से ही विभाजन के समय वह पाकिस्तान में शामिल हो गया, जबकि यदि वह हिन्दू-बहुल मुंबई प्रांत का हिस्सा होता तो सिंध आज भारत में होता।) कांग्रेस ने पहली तीन मांगें स्वीकार कर लीं। जब जिन्ना ने देखा कि कांग्रेस इतना झुक रही है तो उसने 1928 में ''जिन्ना के चौदह सूत्र' प्रस्तुत कर दिए। इनमें पिछली सारी मांगें तो थी हीं, साथ में कुछ और मांगें भी थीं, जिनमें प्रमुख थी-

    (1) पंजाब, बंगाल और पश्चिमोत्तार सीमाप्रांत का कोई ऐसा पुनर्गठन न हो जिससे उनका मुस्लिम बाहुल्य समाप्त हो।
    (2) केन्द्रीय और सभी प्रांतीय मंत्रिकंडलों में कम से कम एक तिहाई मुस्लिम हों।

    साथ ही इसमें फिर से पृथक् निर्वाचक मण्डल की मांग की गई थी। इसमें यह भी घोषणा की गई कि मुसलमान मात्र एक समुदाय नहीं, बल्कि विशेष दृष्टि से स्वयं में एक राष्ट्र है। इस तरह कांग्रेस के मुस्लिम तुष्टीकरण के कारण अलगाववादी मुस्लिम नेताओं की मांगें बढ़ती ही गई।

    · 1930 में लंदन में हुए प्रथम गोलमेज सम्मेलन का कांग्रेस ने नमक सत्याग्रह के कारण बहिष्कार किया इस कारण वह निष्फल हुआ। 1939 में हुए दूसरे गोलमेज सम्मेलन में कांग्रेस की ओर से गांधीजी सम्मिलित हुए। आगा खां को मुसलमानों के प्रतिनिधि के रूप में चुना गया। इसमें कोई सर्वसम्मत निष्कर्ष नहीं निकला परन्तु इस सम्मेलन में ही पहली बार 'पाकिस्तान'' यह शब्द अस्तित्व में आया।

    · 1939 में जब द्वितीय विश्वयुध्द आरंभ हुआ तब भारतीयों का समर्थन और सहयोग प्राप्त करने के लिए वाइसराय लिनलिथगोने गांधीजी के साथ जिन्ना को भी वार्ता क के लिए आमंत्रित किया। इस तरह अंग्रेजों ने जिन्नों को गांधीजी के बराबरी का स्थान दिया। कांग्रेस ने युध्द समाप्ति के बाद भारत के लिए पूर्ण स्वाधीनता की मांग की। परन्तु मुस्लिम लीग ने हमेशा की तरह केवल अलगाववाद पर आधारित मुस्लिम हित ही सामने रखा, भारत की स्वाधीनता के संबंध में कोई बात नहीं की। उन्होंने दो मांगें की-

    (1) कांग्रेस-शासित प्रांतों में मुसलमानों को न्याय और उचित व्यवहार मिलना चाहिए।
    (2) मुस्लिम लीग की सहमति के बिना भारत की संवैधानिक प्रगति के प्रश्न पर न तो कोई घोषणा की जाये और न ही कोई संविधान बनाया जाये।

    · अंग्रेजों ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अखिल इस्लामवाद को खाद-पानी देना प्रारंभ किया ताकि युध्द के दौरान मुस्लिम देश उनके निकट आ जायें। इसका लाभ भी मुस्लिम लीग उठा रही थी। ऐसे वायुमंडल में 1940 के लाहौर अधिवेशन में मुस्लिम लीग ने मुसलमानों के लिए अलग देश की मांग की। इसे ''पाकिस्तान प्रस्ताव'' के रूप में जाना जाता है।

    · 1939 में भारत के कम्युनिस्ट द्वितीय विश्वयुध्द में अंग्रेजों के विरूध्द थे क्योंकि जर्मनी के हिटलर ने रूस के स्टालिन से संधि की थी। परन्तु जब जर्मनी ने 1941 में रूस पर आक्रमण कर दिया तब अपनी पहले की भूमिका बदलकर वे अंग्रेजों के समर्थक बन गए। इस कारण उन्होंने भी 1942 के ''भारत छोड़ों'' आंदोलन का विरोध किया। साथ ही उन्होंने मुस्लिम लीग की देश विभाजन की मांग का समर्थन किया और अपने अनेक मुस्लिम सदस्यों को निर्देश दिया कि द्वि-राष्ट्र सिध्दांत को बौध्दिक बल देने के लिए वे मुस्लिम लीग में शामिल हों। उन्होंने तो ऐसा कहना भी प्रारंभ किया कि प्रत्येक भाषाई इकाई अलग राष्ट्र है और उन्हें अलग होने का अधिकार है। इस तरह अंग्रेज-लीग-कम्युनिस्ट गठबधंन भारत की स्वाधीनता और अखण्डता की जड़ें काटने में जुट गया।

    · 1945-46 में जो चुनाव हुए उनमें कांग्रेस 'अखण्ड भारत' के नारे के साथ चुनाव मैदान में उतरी तो मुस्लिम लीग 'पाकिस्तान' के नारे के साथ। इस चुनाव में जहां एक ओर सभी सामान्य क्षेत्रों में कांग्रेस विजयी रही और केन्द्रीय धारा सभा में उसे 91.3 प्रतिशत मत प्राप्त हुए वहीं दूसरी ओर मुस्लिम लीग को सभी मुस्लिम सीटों पर विजय मिली। उसके मतों का प्रतिशत 86.8 था। इस बात से लीग के नेता उन्मत्ता हुए और वे खुली लड़ाई की चुनौतियां देने लगे।

    · कांग्रेस ने 8 मार्च 1947 की बैठक में इस घोषणा का स्वागत किया और मांग की कि पंजाब और बंगाल का सांप्रदायिक आधार पर विभाजन किया जाये। इस तरह कांग्रेस ने यह संकेत दे दिया कि उसने पाकिस्तान की मांग को सिध्दांत रूप में स्वीकार कर लिया है और वह आधा पंजाब और आधा बंगाल भारत में लाने के लिए प्रयत्नशील है।

    · माउंटबेटन ने 2 जून को मेनन योजना सबके सामने रखी। कांग्रेस ने इसे इस शर्त पर स्वीकार किया कि मुस्लिम लीग भी इसे बिना किसी शर्त के स्वीकार करे। 2 जून की रात्रि को जब माउंटबेटन ने जिन्ना से भेंट की तो उसने कहा कि लीग को अखिल भारतीय परिषद की सहमति प्राप्त करने के लिए एक सप्ताह चाहिए। इस पर माउंटबेटन ने उसे स्पष्ट चेतावनी दी कि यदि तुरंत स्वीकृति नहीं मिली तो कांग्रेस भी अपनी स्वीकृति वापस ले लेगी और उसके हाथ से पाकिस्तान प्राप्ति का अवसर सदा-सदा के लिए निकल जाएगा। तब जिन्ना ने भी अपनी स्वीकृति दी।

    · 3 जून को एटली ने हाउस ऑफ कॉमंस में योजना की अधिकृत घोषणा की इसलिए इसे '3 जून योजना' कहा गया। इसमें सत्ताा हस्तातंरण की तिथि जून 1948 से पीछे खिसककर 15 अगस्त 1947 कर दी गई।

    · 14-15 जून को अखिल भारतीय कांग्रेस समिति की बैठक में 3 जून योजना को स्वीकृति दी जानी थी। वरिष्ठ नेताओं में से केवल बाबू पुरुषोत्ताम दास टंडन ने विभाजन की 3 जून योजना का विरोध किया, परंतु उनके भाषण पर तालियों की भारी गड़बड़ाहट हुई। ऐसे समय गांधीजी ने 3 जून योजना का समर्थन किया। प्रस्ताव के पक्ष में 157 और विपक्ष में 29 मत पड़े। 32 सदस्य तटस्थ रहे। इस तरह वह प्रस्ताव पारित हो गया। (यहां यह प्रश्न पूछा जा सकता है कि जिस कांग्रेस ने 1945-46 का चुनाव ''अखंड भारत'' के नारे पर लड़ा और जीता उसे विभाजन स्वीकार करने का क्या नैतिक अधिकार था?) इस प्रकार स्वाधीनता संग्राम का नेतृत्व करने वाली कांग्रेस ने विभाजन को स्वीकृति देकर राष्ट्रीय एकता और अखंडता के मूल प्रश्न पर आत्मसमर्पण कर दिया जिसके परिणामस्वरूप 14-15 अगस्त 1947 की मध्य रात्रि को देश का दुर्भाग्यपूर्ण विभाजन होकर उसे स्वाधीनता मिली।

    · मुस्लिम लीग की हठधर्मिता और हिंसात्मक कारवाइयों के कारण विवश होकर कांग्रेस ने विभाजन को स्वीकृति दी। परंतु यदि यह स्वीकृति नहीं दी जाती तो क्या होता? अधिक से अधिक गृहयुध्द होता। किंतु क्या देश की अखंडता के लिए गृहयुध्द नहीं किया जा सकता? अमरीकी इतिहास में अब्राहम लिंकन ने देश विभाजन और गृहयुध्द में से गृहयुध्द को चुना और अंततोगत्वा वे देश को अखंड रखने में सफल हुए। आज कोई भी उन्हें युध्दपिपासु नहीं कहता, उन्हें महापुरुष माना जाता है।

    · कभी-कभी ऐसा विचार भी मन में आ सकता है कि जब हमारे श्रध्देय नेताओं ने विभाजन स्वीकार कर लिया तो हमने भी उसे स्वीकार कर लेना चाहिए। परंतु जरा विचार करें। जितने भी लोगों ने स्वाधीनता के लिए प्रयास किये, उनकी आंखों के सामने अखंड भारत था या खंडित भारत। इसका उत्तार- अखंड भारत।

    · द्वितीय विश्वयुध्द के बाद जर्मनी का विभाजन हो गया। इतनी सख्ती थीं कि अब यह विभाजन सदैव के लिए है ऐसा लगने लगा था परन्तु आज जर्मनी फिर से अपने अखण्ड रूप में है। वियतनाम का एकीकरण हो चुका है।

    अखण्ड भारत के विषय को आम लोगों के हृदय तक पहुंचाने के लिए निम्न उपाय करने होंगे-

    'अखण्ड भारत स्मृति दिवस' का आयोजन करना, ताकि युवा पीढी के सामने अखण्ड भारत का सपना बरकरार रहे।
    -अखण्ड भारत का चित्र अपने कमरों में लगाना, यह हमारे आंखों के सामने रहेगा जिससे हमारा संकल्प और मजबूत होता रहे।

    महापुरूषों के विचार:


मैं स्पष्ट रूप से यह चित्र देख रहा हूं कि भारतमाता अखण्ड होकर फिर से विश्वगुरू के सिंहासन पर आरूढ है।
-अरविन्द घोष

· आइए, प्राप्त स्वतंत्रता को हम सुदृढ़ नींव पर खड़ी करें अखंड भारत के लिए प्रतिज्ञाबध्द हों।
-स्वातंत्र्यवीर सावरकर

· अखंड भारत मात्र एक विचार न होकर विचारपूर्वक किया हुआ संकल्प है। कुछ लोग विभाजन को पत्थर रेखा मानते हैं। उनका ऐसा दृष्टिकोण सर्वथा उनुचित है। मन में मातृभूमि के प्रति उत्कट भक्ति न होने का वह परिचायक है।
-पंडित दीनदयाल उपाध्याय

· पाकिस्तान तो इस्लामी भावना के ही विपरीत है। यह कैसे कहा जा सकता है कि जिन प्रांतों में मुसलमान अधिक है वे पाक हैं और दूसरे सब प्रांत नापाक हैं।
-मौलाना अबुल कलाम आजाद

· पश्चाताप से पाप प्राय: धुल जाता है किंतु जिनकी आत्मा को विभाजन के कुकृत्य पर संतप्त होना चाहिए था वे ही लोग अपनी अपकीर्ति की धूल में लोट लगाकर प्रसन्न हो रहे हैं। आइए, जनता ही पश्चाताप कर ले-न केवल अपनी भूलचूक के लिए, बल्कि अपने नेताओं के कुकर्मों के लिए भी।
-डा राम मनोहर लोहिया

· हम सब अर्थात् भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश इन तीनों देशों में रहने वाले लोग वस्तुत: एक ही राष्ट्र भारत के वासी हैं। हमारी राजनीतिक इकाइयां भले ही भिन्न हों, परंतु हमारी राष्ट्रीयता एक ही रही है और वह है भारतीय।
-लोकनायक जयप्रकाश नारायण

· पिछले चालीस वर्ष का इतिहास इस बात का गवाह है कि विभाजन ने किसी को फायदा नहीं पहुंचाया। अगर आज भारत अपवने मूल रूप में अखंडित होता तो न केवल वह दुनिया की सबसे बड़ी ताकत बन सकता था, बल्कि दुनिया में अमन-चैन कायम करने में उसकी खास भूमिका होती।
-जिए सिंध के प्रणेता गुलाम मुर्तजा सैयद

· मुझे वास्तविक शिकायत यह है कि राष्ट्रवादी मुसलमानों के प्रति न केलव कांग्रेस अपितु महात्मा गांधी भी उदासीन रहे। उन्होंने जिन्ना एवं उनके सांप्रदायिक अनुयायियों को ही महत्व दिया। मुझे पूरा विश्वास है कि यदि उन्होंने हमारा समर्थन किया होता तो हम जिन्ना की हर बात का खंडन कर देते और विभाजनवादी आंदोलन के आरंभ काल में पर्याप्त संख्या में मुसलमानों को राष्ट्रवादी बना देते।
-न्यायमूर्ति मोहम्मद करीम छागला

Monday, 13 August 2007

आजादी के साठ साल


-संजीव कुमार सिन्हा


पूरा देश आजादी की साठवीं वर्षगांठ मना रहा है। हालांकि साठ वर्ष का कालखण्ड भारत जैसे सनातन राष्ट्र के लिए अधिक महत्व का नहीं है लेकिन विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के नाते आजादी की साठवीं वर्षगांठ मनाना हम सबके लिए गौरव का विषय है और वह भी ऐसे समय में जब हमारे पड़ोसी मुल्कों में कहीं राजतंत्र है, तानाशाही है तो कहीं फौजी शासन। यदि आपातकाल के थोड़े से कालखण्ड को छोड़ दे तो भारत में लोकतंत्र निरंतर अपनी जडें मजबूत करता हुआ दिखाई दे रहा है। विश्व के अनेक बुध्दिजीवियों का मानना है कि भारत में लोकतंत्र एक नई इबारत लिख रहा है और आजादी के 60 वर्षों में भारत की यह सबसे बड़ी उपलब्धि है।

पिछले साठ वर्षों में अपने देश में खासे बदलाव हुए हैं, जिनसे कभी हमारा सीना चौड़ा होता है तो वहीं हम अपनी नाकामियों पर शर्मिंदगी भी महसूस करते हैं। एक ओर देश विकास की नई परिभाषाएं गढ़ रहा है तो वहीं दूसरी ओर व्यवस्था का विद्रूप आलम हमें खिझाता है।

अब भारत का विकास दर लगभग चीन के बराबर तक पहुंच गया है। हमारा निर्यात निरंतर बढ़ रहा है। विदेशी मुद्रा भंडार भी ऊंचाई पर है। डालर के मुकाबले रूपया मजबूत हो रहा है। हमारे बुनियादी ढांचा में भी तेजी से सुधार हो रहा है। सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में हमारा डंका बज रहा है। सॉफ्टवेयर का निर्यात अरबों डालर तक पहुंच चुका है। तीन दशक पहले हमें अनाज आयात करना पड़ता था वहीं अब गोदामों में अनाज भरे पड़े हैं। अरबपतियों की संख्या दनादन बढ़ रही है। मोबाइल क्रांति के अनोखे चमत्कार हुए हैं। शेयर के दाम उछल रहे हैं। भारत के कॉल सेंटर विश्वभर में दबदबा कायम कर रहे हैं। कल्पना चावला और सुनीता विलियम जैसी भारत की बेटियों ने देश का नाम रौशन किया है। सानिया मिर्जा टेनिस की बुलंदियों को छू रही है। सचिन तेंदुलकर ने विश्व क्रिकेट को एक नई पहचान दी है। आध्यात्मिक विभूतियां-मां अमृतानंदमयी, आसाराम बापू, मोरारी बापू, श्रीश्री रविशंकर, बाबा रामदेव जैसे अनगिनत संत-साध्वी विश्व को शांति और प्रेम का पाठ पढ़ा रहे हैं। दुग्ध क्रांति का विस्तार इस कदर हुआ है कि आज हम सालाना करोड़ों लीटर दूध का उत्पादन कर रहे हैं।

वहीं विकास की इस चकाचौंध में आज भी अनेक समस्याएं मुंह बाए खड़ी है। गरीबी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, जातिवाद, क्षेत्रवाद, वंशवाद, बालश्रम, भुखमरी, कुपोषण, किसानों की आत्महत्या, धर्मांतरण, घुसपैठ, अशिक्षा, शिक्षा का व्यावसायीकरण, बढ़ता आतंकवाद, साम्प्रदायिक दंगे, बेलगाम महंगाई, बेहतर सड़क-बिजली-पानी के अभाव से देश की स्थिति भयावह हो रही है। उदारीकरण और वैश्वीकरण से आम आदमी को फायदा नहीं हुआ है, अलबत्ता कॉरपोरेट जगत जरूर फले-फूले हैं। स्थिति की भयावहता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि लोगों की आय, स्वास्थ्य, शिक्षा के आधार पर तैयार किए जाने वाले मानव विकास सूचकांक में 2004 में 177 देशों की सूची में भारत का स्थान 126 वां था। 11वीं पंचवर्षीय योजना में यह उल्लेख किया गया है कि 2004-05 में गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों का प्रतिशत 27.8 अनुमानित था। भारत एक कृषि प्रधान देश है। आज भी 70 प्रतिशत आबादी कृषि व्यवसाय के सहारे अपना जीवन गुजार रहे हैं लेकिन परिस्थितियां ऐसी बन गई हैं कि 40 प्रतिशत किसान, किसानी छोड़ना चाहता है। जीडीपी में कृषि क्षेत्र का हिस्सा 2005-06 में घटकर 20 फीसदी रह गया। यह अजीब विडंबना है कि लोगों का पेट भरने वाला अन्नदाता किसान मौत को गले लगाने पर मजबूर हो रहा है। हाल ही में देश ने देखा कि मजदूरों के हित का राग अलापने वाले माकपा-भाकपा ने किस तरह अपना हक मांग रहे किसानों पर बर्बर जुल्म ढाए। वर्तमान में राजनीति से लोगों का भरोसा उठ रहा है। पिछले 60 साल में 50 साल देश पर शासन करने वाली कांग्रेस ने देशवासियों को गुमराह किया है। पूरे समाज की चिंता करने की बजाए सभी दलों में वोट-बैंक के चक्कर में मुस्लिम तुष्टिकरण की होड़ लगी है। यह राष्ट्रीय एकता के लिए खतरनाक है। शैक्षिक परिदृश्य की बात करें तो देशवासियों के माथे पर चिंता की लकीरें उभरना स्वाभाविक है। केन्द्र सरकार यौन शिक्षा के बहाने भारतीय सभ्यता और संस्कृति पर प्रहार कर रही है। शिक्षा अब बाजार की वस्तु बन गई है। शुल्कों में बेतहाशा वृध्दि हो रही है। देश में शिक्षा व्यवस्था ध्वस्त हो चुकी है। एक हालिया रिपोर्ट के मुताबिक देश के 32 हजार विद्यालयों में शिक्षक नहीं है। आजादी के 60 सालों के बाद देश की यह स्थिति चिंताजनक है। इस अंधकार के खिलाफ तमाम जनसंगठन और सामाजिक कार्यकर्ता मशाल थामे हुए हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, वनवासी कल्याण आश्रम, सेवा भारती, विद्या भारती, विद्यार्थी परिषद, गायत्री परिवार, स्वाध्याय परिवार जैसे अनेक राष्ट्रवादी संगठनों के साथ-साथ श्री अन्ना हजारे, श्री नानाजी देशमुख, श्री राजेन्द्र सिंह, बाबा आमटे, इला भट्ट जैसी सामाजिक कार्यकर्ता भारत की प्रगति के लिए अपना सर्वस्व अर्पण कर रहे हैं।

भारत एक सनातन राष्ट्र है, विचारधारा है, दुनिया के लिए प्रकाशस्तंभ है। विगत साठ वर्षों में हमने नेहरूवादी और समाजवादी मॉडल अपनाकर देखा। समाज के अंतिम आदमी तक विकास की किरणें नहीं पहुंच पाई। अब सबको समझ में आने लगा है कि 2020 में समृध्दिशाली भारत का सपना तभी साकार हो सकता है जब हम पाश्चात्य देशों का नकल छोड़कर अपनी ही तासीर के मुताबिक विकास प्रक्रिया को आगे बढ़ाएं।

Saturday, 4 August 2007

मीडिया का रीतापन और अधीशजी : आशुतोष


गत 5 जुलाई को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख श्री अधीश कुमार का संघ कार्यालय केशव कुंज झण्डेवालान दिल्ली में निधन हो गया।

17 अगस्त, 1955 को आगरा में जन्मे श्री अधीश जी बचपन से ही प्रखर प्रतिभाशाली थे। उन्होंने अपनी पढ़ाई आगरा में की। वे एम.एससी, एल.एलबी थे। पहले वे सर्वोदयी रहे। आर्य समाज में भी उन्होंने काफी कार्य किया। विद्यार्थी जीवन में वे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के प्रमुख कार्यकर्ता रहे। आपातकाल में उन्होंने जे पी आन्दोलन में भी प्रमुख रूप से हिस्सा लिया। इस कठिन काल में श्री अधीश जी 'लोक संघर्ष' पत्रिका का प्रकाशन करते रहे जिससे लोकतंत्र की रक्षा हुई। आपातकाल में आगरा में पोस्टर चिपकाते हुए पकड़े गए तथा पुलिस ने उन पर बेलन चलाया। ताजमहल में मून लाईट में वे पर्चे बाँटते थे। लालकिला में विदेशी बनकर घुसे और आपातकाल के विरोध में पर्चे बाँटे ।

1982 में वे मेरठ में वे श्री लज्जाराम तोमर की प्रेरणा से संघ के प्रचारक बने। वे सहारनपुर के विभाग प्रचारक, प्रान्त के सह बौध्दिक प्रमुख रहे। 1996 में क्षेत्र प्रचार प्रमुख बनकर लखनऊ आए तथा यहाँ विश्व संवाद केन्द्र की गतिविधियों को नए नए आयाम प्रदान किये ।

श्री अधीश जी अखिल भारतीय सह प्रचार प्रमुख तथा तीन वर्ष पूर्व अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख बने। उन्होंने अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, भारत तिब्बत सहयोग मंच, प्रचार विभाग, प्रकाशन आदि का भी मार्गदर्शन किया। आपने राष्ट्रीय महत्व के कई विषयों पर पुस्तकें भी लिखीं जो काफी लोकप्रिय हुई।

पुस्तक संग्रह तथा पढ़ने की गहन अभिरूचि वाले श्री अधीश जी का विविध विषयों पर गहन अध्ययन था। राष्ट्र हित तथा राष्ट्रीय समस्याओं पर वे अपनी धारा प्रवाह वक्तृता से श्रोताओं को मंत्र मुग्ध कर लेते थे। अपने अत्यन्त सरल सादगी पूर्ण जीवन तथा आत्मीयता पूर्ण व्यवहार से उन्होंने संघ के बहुत से कार्यकर्ता निर्माण किये। वे कुशल संगठनकर्ता भी थे।

अधीशजी के निधन के समाचार से सारे देश में उनके परिचितों को गहरा आघात लगा है लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि अनगिन पत्रकारों के प्रेरणा पुंज रहे अधीशजी के जाने से देश का मीडिया प्राय: बेखबर है। प्रस्तुत है हिन्दुस्थान समाचार से जुड़े श्री आशुतोष का एक विचारशील आलेख-


मीडिया की भी कोई देह होती है क्या? क्या उसके भी अधिकार, कर्त्तव्य और धर्म होते हैं? क्या मानव देह की भांति ही इसकी भाषा, भाव और संवेदनाएं होती हैं? क्या उसके भी मेरूदंड, हृदय, मस्तिष्क होता है? क्या उसके रक्त में भी प्राणवायु संचरण करती है? क्या प्राणवायु कम होने से वह भी अस्वस्थ हाती है, बाहर से पहले जैसी किंतु भीतर से खोखली हो जाती है? उत्तर यदि हां में है तो मीडिया के साथ यह हुआ है।

मीडिया की देह आज भी वैसी ही दिखाई दे रही है जैसी 5 जुलाई से पूर्व थी, किंतु खो गया है प्राणवायु जैसा महत्वपूर्ण तत्व जिसका नाम 'अधीश' था। विडंबना है कि देशभर में सैकड़ों नहीं बल्कि हजारों पत्रकारों के प्रेरणा पुंज रहे अधीश जी के जाने से देश का मीडिया प्राय: बेखबर है। सच तो यह है कि मीडिया यह महसूस भी नहीं कर पा रहा है उसने क्या खोया है।

यदि आलीशान दफ्तरों में बैठकर बुध्दि विलास और मोटे पैकेज पत्रकारिता में वरिष्ठता के मानदंड हैं तो अधीश जी पत्रकार थे ही नहीं! लेकिन यदि पत्रकारिता वह प्रवृत्ति है जो आजादी से पहले तिलक, गांधी और सावरकर में दिखती थी तो अधीश जी का नाम नि:संदेह इस श्रृंखला की आजादी के बाद की कड़ी में है।

1975 में इंदिरा गांधी द्वारा देश पर थोपे गए आपात्काल का सबसे पहला शिकार मीडिया ही हुआ था। सभी स्वाभिमानी पत्रकार जेल में थे । जो पत्रकार-संपादक जेल से बाहर थे उनके विषय में श्री आडवाणी की उक्ति प्रसिध्द है-उन्हें झुकने के लिए कहा गया था लेकिन उन्होंने रेंगना शुरू कर दिया। ऐसे रीढ़विहीन रेंगते हुए कलम चलाने वाले मजदूरों को देख उपजी वितृष्णा ने विश्वविद्यालय के छात्र अधीश को पत्रकार बना दिया।

तानाशाही को चुनौती देती तीखी धारदार शब्दावली में आपात्काल की आड़ में नागरिकों पर हो रहे अत्याचार की घटनाओं के विवरण, जो मुख्यधारा के समाचार पत्र छापने से डरते थे, जनता तक पहुंचाने का बीड़ा अधीश जी ने उठाया। आगरा नगर से कुछ किलोमीटर बाहर स्थित रुनकता और कैलाश के जंगलों में साइकल के कैरियर पर लगी छोटी साइक्लोस्टाइल मशीन बनी 'लोक संघर्ष' नाम के भूमिगत समाचार पत्र का छापाखाना। पुलिस की नजर बचाकर समाचार पत्र छापना और रात में उन्हें लोगों के घरों तक पहुंचाना, यह क्रम लगातार चलता रहा।
लोक संघर्ष की प्रतियों की संख्या यद्यपि सैकड़ों में थी लेकिन उसके पाठकों की संख्या असीमित । एक-एक प्रति को दर्जनों लोग मांग-मांग कर पढ़ते थे। पुलिस के बर्बर अत्याचारों के लोमहर्षक वर्णन और तात्कालिक परिस्थितयों पर आग उगलती टिप्पणियों ने न केवल पीड़ित परिवारों अपितु जनसामान्य को भी क्षोभ से भर दिया। दूसरी ओर पुलिस इसका प्रकाशन न रोक पाने से बौखलाई हुई थी। हद तब हो गई जब भारी सुरक्षा को धता बताते हुए भारत सरकार के निमंत्रण पर आये विदेशी प्रतिनिधिमंडल के सदस्यों तक भी 'लोक संघर्ष'की प्रतियां पहुंच गई और पुलिस सिर धुनती रह गई। यह सिलसिला तभी रूका जब 13 दिसंबर 1976 को आधी रात में वे आपातकाल के विरूध्द पोस्टर लगाते पकड़े गये। उनके साथ वे अमानुषिक अत्याचार किये जिन्हें सुनकर भी सिहरन हो उठती है। पुलिस ने उन्हें मृत प्राय: स्थिति में जेल भेज दिया। तब वे मृत्यु से संघर्ष में विजयी हुए क्योंकि उन्हें बहुत कुछ करना बाकी था।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के जीवनव्रती प्रचारक के रूप में कार्य करते हुए भी निर्भीक पत्रकारिता की वह प्रवृत्ति चुकी नहीं, केवल रूपांतरित हुई। इसका प्रकटीकरण हुआ विश्व संवाद केन्द्रों की स्थापना के रूप में जहां से मीडिया जगत में पत्रकारिता की राष्ट्रवादी धारा के पत्रकारों की एक पूरी श्रृंखला विकसित हुई।

अधीशजी के लेखन में भाषा के संस्कार, तथ्यों की शुध्दता, सूक्ष्म विश्लेषण, प्रवाहपूर्ण प्रस्तुतीकरण और विषयों का वैभिन्य पाठक पर अपनी अलग छाप छोड़ता था। दर्जनों पुस्तकों का लेखन, संपादन, विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में हजारों लेखों के प्रकाशन के बावजूद मीडिया के लिए वे गुमनाम ही बने रहे ।

छोटे नगरों और कस्बों से निकलने वाले समाचार पत्रों को स्तरीय सामग्री के अभाव से जूझते हुए उन्होंने देखा। अच्छी सामग्री छापने का उपदेश देने के बजाय उन्होंने स्वयं के प्रयासों से ऐसे समाचार पत्र-पत्रिकाओं को साप्ताहिक रूप से देश-विदेश के महत्वपूर्ण समाचार एवं जाने-माने स्तंभकारों के लेख उपलब्ध कराने प्रारंभ कर दिए। पत्र-पत्रिकाओं को यह सामग्री साप्ताहिक आधार पर नि:शुल्क उपलब्ध कराई जाती थी। इस योजना से नियमित लाभान्वित होने वाले समाचार पत्र-पत्रिकाओं की संख्या छ: सौ से भी अधिक है। देश भर में हजारों युवा और नवोदित पत्रकारों को अधीश जी का मार्गदर्शन प्राप्त हुआ।

52 वर्ष से भी कम आयु में पत्रकारिता को इतना बड़ा योगदान देने वाले मौन साधक के अवसान पर यदि देश का मीडिया जगत बेखबर बना रहा तो यह अधीश जी के अनामिक स्वभाव के अनुरूप ही है, परंतु मीडिया की देह यदि अपने आपको कहीं रीता महसूस कर रही है तो कारण है अधीश जी की गैर मौजूदगी ।

यह समय है मीडिया द्वारा अधीश जी के प्रति मन:पूर्वक कृतज्ञता ज्ञापन का, उनके अवदान को स्मरण करने का, उनकी रचनाओं के पुन: अवगाहन का। साथ ही यह विश्वास करने का कि उनके जाने से भी मीडिया में आया रीतापन बहुत देर तक रहेगा नहीं, उनसे प्रेरणा पाये पत्रकारों की नयी पीढ़ी प्राणवायु के नये झोंके के समान उस रिक्तता को दूर कर देगी। नहीं दूर हो सकेगी तो उनकी स्मृतियां। बहुत याद आएंगी उनकी चुटकियां, उनके तर्क, उनके अट्टहास। हमेशा !