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Tuesday 12 May, 2009

जरूरी है छद्म-सेक्युलरवादियों से बच कर रहना

चुनाव का मौसम आता है और हमारे वामपंथी बुध्दिजीवी, कांग्रेसी पाखण्डी और पंच सितारा होटलों में रहने वाले लोग तथाकथित समाजसेवी सेक्युलरिज्म पर अपना ज्ञान बघारने में लग जाते है और इस मुद्दे पर हंगामा खड़ा करना शुरू कर देते हैं। उन्हें तो इतना भी मालूम नहीं है कि 'सेक्युलरिज्म' शब्द की अवधारणा भारत में कोई नई नहीं है, परन्तु भले ही इसके आंतरिक शब्दों का अर्थ अलग हो। भारत में सेक्युलरिज्म का उपदेश देना मूर्खता है क्योंकि इसकी अवधारणा तो भारत की मिट्टी में चिरन्तन काल से चली आ रही है। सच तो यह है कि हमारे तथाकथित सेक्युलर ब्रिगेड के लोग जिस प्रकार का प्रचार कर रहे हैं, वह तो एक काल्पनिक बहुसंख्यक- अल्पसंख्यकों के बीच दीवार खड़ी कर छद्म-सेक्युलरिज्म का प्रचार कर रहे हैं जिससे कभी भी इस देश के लोगों में राष्ट्र के प्रति देशप्रेम की भावना का निर्माण नहीं हो सकता है।

यह दिखलाने के लिए कि वे ही सच्चे सेक्युलर सिध्दांतवादी है और अपनी सेक्युलर-विश्वसनीयता सिध्द करने के लिए लिए उन्हें बहुसंख्यकों की भर्त्सना करने में भी संकोच नहीं होता है। इस प्रकार की विचारधारा रखने से लोगों को एकजुट करने की बजाए होता यह है कि समस्या निरंतर बढ़ती चली जाती है। राष्ट्रीय एकता पनप तो नहीं पाती बल्कि अन्दरूनी रूप से लोगों में मजहबी उन्माद पैदा हो जाता है। समस्या निरंतर बनी रहती है जिससे राष्ट्रीय एकता की कीमत पर अल्पसंख्यक एकता को महत्व दिया जाता है, ताकि वोटबैंक की राजनीति चलती रहे।

काश, इस प्रकार का सेक्युलरिज्म ही राष्ट्रीय एकता निर्माण का ही सामंजस्यपूर्ण शक्ति बन पाता तो फिर कम्युनिस्ट शासित रूस और यूगोस्लोवाकिया क्यों विखण्डित होते। इस प्रकार का सेक्युलरिज्म सच्चे राष्ट्रवाद और देशभक्ति के विरूध्द रहता है, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति के लिए केवल एक ही पहचान की बजाए अनेक पहचान की बात की जाती है चाहे वह साम्प्रदायिक पहचान के रूप में किसी भी समुदाय की क्यों न हो? अब आप ही बताइए, कौन सी विचारधारा विभाजनकारी है? जब एक ही पहचान का सवाल सामने आता है तो भारत विश्व के सभी देशों में एक ही बात के लिए विख्यात है और वह है भारत की प्राचीन सभ्यता की पहचान, जिसमें उसका उज्ज्वल इतिहास और संस्कृति भी शामिल रहती है। भला कौन भगवान राम के अस्तित्व पर प्रश्न खड़ा करने की बात सोच भी सकता है और फिर क्या कोई कह सकता है कि ऐसा सवाल खड़ा कर वह सेक्युलरिज्म को आगे बढ़ा रहा है? क्या कोई व्यक्ति विभिन्न धर्मों के लिए अलग-अलग सिविल संहिताओं की बात कहे और फिर भी कहे कि वे ही सेक्युलरिज्म के हितों के चैम्पियन हैं?

पहले की तरह ही इस बार 2009 की चुनाव प्रक्रिया शुरू होने के साथ ही, साम्प्रदायिकता और सेक्युलरिज्म के बीच बहस फिर से सामने आ गई है। इस बार जिन व्यक्तियों ने इस बहस की शुरूआत की है, वह और कोई नहीं, वे हैं 'ग्रेट कामरेड' श्री प्रकाश करात और उनके साथीगण तथा कुछ पुराने कांग्रेस के बोगस-सेक्युलर मित्र। बार-बार उनकी एक ही रट लगी रहती है कि साम्प्रदायिक ताकतों को सत्ता में आने से रोकने के लिए केन्द्र में सेक्युलर पार्टियां मिलकर सेक्युलर सरकार बनाएंगी। परन्तु आम आदमी के लिए यह समझ पाना मुश्किल है कि कामरेडों का साम्प्रदायिकवाद और सेक्युलरवाद का मतलब क्या है? बल्कि यह बात और भी रोचक लगने लगती है कि भारत में वामपंथी प्रमाणपत्र देने वाली एजेंसी बन गई है कि कौन सेक्युलर है और कौन साम्प्रदायिक! उनके अनुसार-

- अफजल गुरू, कसाब और मदानी जैसे आतंकवादियों के प्रति उदासीनता बरती जाए तब तो ऐसे लोग भी सेक्युलरवादी होते है परन्तु एमसी शर्मा के बलिदान का समर्थन किया जाए तो वे लोग साम्प्रदायिक बन जाते है।
- एम.एफ. हुसैन सेक्युलर है परन्तु तस्लीमा नसरीन साम्प्रदायिक है, तभी तो उसे पश्चिम बंगाल के सेक्युलर राज्य से बाहर निकाल दिया गया।
- इस्लाम का अपमान करने वाला डेनिश कार्टूनिस्ट तो साम्प्रदायिक है परन्तु हिन्दुत्व का अपमान करने वाले करूणानिधि को सेक्युलर माना जाता है।
- मेजर संदीप उन्नीकृष्णन के बलिदान का उपहास उड़ाना सेक्युलरवादी होता है, हेमन्त करकरे के बलिदान पर प्रश्नचिह्न लगाने वाला सेक्युलवादी होता है, दिल्ली पुलिस की मंशा पर सवाल खड़ा करना सेक्युलरवादी होता है, परन्तु एटीएस के स्टाइल पर सवाल खड़ा करना साम्प्रदायिकता के घेरे में आता है।
- राष्ट्र-विरोधी 'सिमी' सेक्युलर है तो राष्ट्रवादी रा.स्व.सं साम्प्रदायिक है।
- एमआईएम, पीडीपी, एयूडीएफ और आईयूएमएल जैसी विशुध्द मजहब-आधारित पार्टियां सेक्युलर है, परन्तु भाजपा साम्प्रदायिक है।
- बांग्लादेशी आप्रवासियों, विशेष रूप से मुस्लिमों का और एयूडीएफ का समर्थन करना सेक्युलर है, परन्तु कश्मीरी पंडितों का समर्थन करना साम्प्रदायिक है।
- नंदीग्राम में 2000 एकड़ क्षेत्र में किसानों पर गोलियों की बरसात करना सेक्युलरिज्म है परन्तु अमरनाथ में 100 एकड़ की भूमि की मांग करना साम्प्रदायिक है।
- मजहबी धर्मांतरण सेक्युलर है तो उनका पुन: धर्मांतरण करना साम्प्रदायिक होता है।
- कुछ चुनिंदा समुदायों को स्कालरशिप और आरक्षण सेक्युलरिज्म है परन्तु सभी योग्य-सुपात्र भारतीयों के बारे में इस प्रकार की चर्चा करना भी साम्प्रदायिक होता है।
- मजहबी आधार पर आर्मी, न्यायपालिका, पुलिस में जनगणना कराना कांग्रेस और वामपंथियों की नजरों में सेक्युलरिज्म है परन्तु एक-भारत की बात करना भी साम्प्रदायिक है।
- हिन्दू समुदाय के कल्याण की बात करना साम्प्रदायिक है तो उधर मुस्लिम तुष्टिकरण सेक्युलर है।
- कामरेडों का नमाज में भाग लेना, हज जाना और चर्च जाना तो सेक्युलरिज्म है परन्तु हिन्दूओं का मंदिरों में जाना या पूजा में भाग लेना साम्प्रदायिक है।
- पाठय-पुस्तकों में छत्रपति शिवाजी और गुरू गोविन्द सिंह जैसी धार्मिक नेताओं के प्रति अपशब्दावली का इस्तेमाल 'डिटोक्सीफिकेशन' या सेक्युलरिज्म माना जाता है और भारत सभ्यता का महिमामंडन साम्प्रदायिक कहा जाता है।

हमारे प्रिय छद्म-सेक्युलर कामरेडों, आखिर आप आम आदमी को क्या समझते हैं? क्या वे एकदम मूर्ख है? नहीं, बिल्कुल नहीं! वे आपकी मंशा और विदेशों के प्रति आपके नर्म रूख को वे भली भांति जानते हैं, वे आपकी गली-सड़ी विचारधारा को समझते हैं, जिसे पूरी दुनिया ने कूड़े में फेंक दिया है। आपने एक बार नहीं, दो बार नहीं, बल्कि कई बार अपने को राष्ट्र-विरोधी और समाज-विरोधी प्रमाणित कर दिया है।
आप तो उस विचारधारा के प्रवर्तक रहे हैं जिसने 1942 में 'भारत छोड़ो' आंदोलन का जबरदस्त विरोध किया, 1962 में आपने चीन-भारत युध्द में भारत का विरोध किया, पाकिस्तान के साथ 1965 और 1971 के युध्दों मे ंभारत का विरोध किया, करगिल युध्द में आक्रमणकारियों के समर्थन में आकर भारत की कार्रवाई पर सवालिया निशान लगाया, जब 1975 में राष्ट्रीय इमर्जेंसी लगी तो आपने लोकतंत्र का गला घोंटने का समर्थन किया, आपने अवैध बांग्लादेशी आप्रवासियों के देश-निष्कासन का विरोध किया, 'भारत के परमाणु शक्ति बन जाने' तक का विरोध किया, बल्कि आपने इस पर उस समय चीन का समर्थन किया जब वह परमाणु शस्त्रों का परीक्षण कर रहा था। अर्थव्यवस्था के उदारीकरण का विरोध किया। भारत में विकास और औद्योगीकरण का विरोध किया और आपकी पार्टी की शासित राज्य सरकार ने 'सेज' निर्माण के लिए निर्दोष किसानों पर गोलियों की बौछार की। आप तो वह लोग हैं जिन्होंने 'सोनार बागला' (पश्चिम बंगाल) को तबाह करके रख दिया। आपने अपने 30 वर्ष के शासन में राज्य को भारतीय राज्यों में सबसे निचले स्तर पर लाकर खड़ा कर किया है, पश्चिम बंगाल और केरल में सभी विकास-कार्य ठप्प हो गए हैं, आपने अपने स्वार्थ के लिए पूरी अर्थव्यवस्था और समाज को तबाह करके रख दिया है।

आप तो उसी वामपंथी मोर्चे के लोग हैं जिन्होंने अपने स्वार्थी राजनैतिक हितों के लिए यूपीए के बैनर तले साढ़े चार वर्षों तक कांग्रेस का खूब दोहन किया। और जब आपने देख लिया कि अब तो दूध मिलने वाला नहीं तो अपने उसे बाहर का दरवाजा दिखा दिया। कांग्रेसनीत यूपीए की तरह आप भी भारत और उसकी अर्थव्यवस्था को बिगाड़ने के लिए उतने ही जिम्मेदार हैं। आप भी उसी गठबंधन का हिस्सा थे जिसने देश को समृध्द बनाने की बजाए गरीब बना कर रख दिया, किसानों के कल्याण की बजाए उन्हें आत्महत्या करने पर मजबूर किया, कीमतें स्थिर न रह कर आवश्यक वस्तुओं की कीमतों को आसमान तक पहुंचा दिया, भारतीय अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने की बजाए तबाह कर दिया, आम आदमी की रोजी-रोटी को छीना, बेरोजगारी बढ़ी और उसकी सुरक्षा खतरे में पड़ गई।

हमारे प्रिय कामरेडों, यह सच है कि किसी भी व्यक्ति के लिए आपकी सही प्रकृति भांपना बेहद मुश्किल काम है परन्तु सीधो सादे शब्दों में यह तो कहा ही जा सकता है कि आप 'अवसरवादी' होने के अलावा कुछ भी नहीं रह गए हैं और आप सत्ताा हथियाने के लिए किसी से भी हाथ मिला सकते हैं और हमारे इस महान देश को सीढ़ी दर सीढ़ी तबाह करने में जुटे हैं। वरना, उड़ीसा में जो बीजेडी दो महीने पहले साम्प्रदायिक थी, वह आपसे मिलने के बाद कैसे एक ही रात में सेक्युलर बन गई। यदि आप मानते हैं कि चन्द्रबाबू नायडू, जयललिता और देवगौड़ा साम्प्रदायिक थे, जब वे एनडीए के पार्टनर थे, तो अचानक वे आज कैसे सेक्युलर हो गए।

यह नितांत अवसरवादिता है और आप फिर से सेक्युलरिज्म के नाम पर सत्ताा हथियाने की फिराक में लगे हैं। क्योंकि आम आदमी आपकी वास्तविक मंशा को समझने लगा है, इसलिए आप अपनी पार्टी के 80 वर्ष के इतिहास में अपने खेमे में 80 एमपी भी ला नहीं पाए। यदि राष्ट्र-विरोधी तत्वों के खिलाफ आवाज उठाना साम्प्रदायिक है, यदि अपने उज्ज्वल अतीत और संस्कृति पर अभिमान करना साम्प्रदायिक है तो इस महान देश का आम आदमी छद्म-सेक्युलर होने के बजाए स्वयं को साम्प्रदायिक कहलाना ही अधिाक पसंद करेगा। हमें उम्मीद है कि देश का परिपक्व मतदाता इन चुनावों में छद्म-सेक्युलवादी ताकतों से बुरी तरह आहत होकर अपने को सेक्युलरवादी होने का दावा करने वालों के मिथक को तोड़ डालेगा और उन्हें सेक्युलरिज्म का सही अर्थ समझा देगा।

- राम प्रसाद त्रिपाठी
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में शोध-छात्र हैं)