भारतीय जनसंघ के पूर्व अध्यक्ष पं. दीनदयाल उपाध्याय मूलत: एक चिंतक, सृजनशील विचारक, प्रभावी लेखक और कुशल संगठनकर्ता थे। वे भारतीय राजनीतिक चिंतन में एक नए विकल्प 'एकात्म मानववाद' के मंत्रद्रष्टा थे। दीनदयालजी ने माक्र्स के सिध्दांतों को 'भारत की धरती पर पूर्णत: आधारहीन' बताया। उनका मानना था कि भारत के बाहर भी किसी देश ने माक्र्स के सिध्दांतों को व्यवहार में नहीं अपनाया। माक्र्सवाद में व्यक्ति तथा समष्टि का संपूर्णता से चिंतन न होने के कारण इसका पराभव निश्चित है।
कम्युनिज्म पर दीनदयाल उपाध्याय के विचार-
· विश्व का एक भी देश कम्युनिज्म के मार्गदर्शक सिध्दांतों के अनुसार समाज-जीवन का निर्माण नहीं कर पाया है। कम्युनिस्ट देशों ने भी मूल कम्युनिस्ट विचारों के प्रति प्रतिबध्दता छोड़ दी। वर्ग-कलह, जड़वाद, इतिहास की भौतिक व्याख्या, द्वंद्वात्मक भौतिकवाद विश्व में सिध्दांत बनकर रह गए। 'दुनिया के मजदूरों एक हो जाओ' की गुहार एक नारा बनकर रह गया। 'विवाह' संस्था की समाप्ति, व्यक्तिगत संपत्ति की समाप्ति, धर्म को 'अफीम की पुड़िया' आदि कथन केवल नारे बनकर रह गए। श्रमिकों की तानाशाही एक अस्थायी संक्रमण व्यवस्था की बजाय एक स्थायी असहिष्णु तानाशाही का रूप लेती दिखाई देती है। समाज न राज्यविहीन था, न वर्गहीन है।
· माक्र्सवाद का पहला आक्रमण प्रजातंत्र पर होता है।
· समाजवादी व्यवस्था में राज्य संस्था न केवल आर्थिक क्षेत्र में अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहती है, बल्कि वह लोगों के राजनीतिक अधिकारों पर अधिकार भी कर लेती है। अत: समाजवाद की बंदूक की गोली प्रजातंत्र की छाती पर ही चलती है। समाजवाद एवं प्रजातंत्र एक साथ नहीं रह सकते। बाघ और बकरी का सह-अस्तित्व असंभव है। हरेक समाज की संस्कृति तथा समाज-रचना का विचार आर्थिक विकास के साथ ही करें तो यह उधेड़बुन और भी उलझ जाती है।
· बोल्शेविक क्रांति से लेकर आज तक रूस का इतिहास अनेक विफलताओं का ही इतिहास सिध्द हुआ है। वह इस विचार-प्रणाली की न केवल अपूर्णता का द्योतक है, अपितु भयानक परिणामों का भी जन्मदाता है। समाजवाद ने पहला आघात लोकतंत्र पर किया और समाजवाद में आस्था रखनेवाले रूस के बाहर के लोगों को उसने भयभीत कर दिया।
साम्यवादी या समाजवादी अपनी असहिष्णु प्रवृत्ति के अनुसार भिन्न मतावलंबियों को चुनी हुई विशिष्ट गालियां भर देते रहते है। सारे संसार ने भी यह देख लिया है कि जहां भी साम्यवाद आता है, वहां सबसे पहले लोकतंत्र की बलि चढ जाती है, मनुष्य मनुष्य नहीं रहता, बल्कि वह निर्गुण शासनतंत्र का एक नितांत विवश दास बन जाता है। लोकतंत्र और माक्र्स प्रणीत समाजवाद का एक ही म्यान में रहना सर्वथा असंभव है। (साभार- साम्यवाद का सच, लेखक-सतीशचंद्र मित्तल)
4 comments:
दीनदयाल जी के विचार जानना रुचिकर रहा।
म्राक्स --> मार्क्स
मार्क्सवाद पर भारत के विभिन्न महापुरुषों के विचार पढ़कर मार्क्सवाद के बारे में बहुत सी नयी बातें पता चलीं। मुझे यह जानकर सुखद आश्चर्य हो रहा है कि लोग कितने दूरदर्शी थे और उनकी सूझबूझ कितनी उन्नत थी जो उन्होने आने वाले समय को पहले ही देख लिया था।
यदि इसी तरह एक-दो लेख इस बात पर भी लिखें कि मार्क्स ने भारत को पददलित होते देख क्या-क्या विचारा था और किस प्रकार उन्होने भारत के लिये गुलामी की 'मंगलकामना' और अभिलाषा अपने लेखों में प्रकाशित की।
पहले तो मार्क्स लिखना सीखो. म में आ की मात्रा आधा क फिर आधा र और फिर स. ठीक है. अब भइया ये भी बता दो कि ये एकात्म मानववाद है क्या? आज तक कोई निक्करधारी ये नहीं बता पाया. भरोसा न हो तो सुदर्शन जी से लेकर बूर्ज्वा जी सबसे पूछ लो. अब दीन दयाल को दार्शनिक बनाकर ही छोड़ोगे तो हम रोक थोड़ो ही लेंगे. क्यों भइया?
jansevak ji,
naam to aapne jan sevak rakh liya lekin kabhi uske means ko bhi samjha hai kya?
agar kabhi koi word galat ho jaye to us par dhyan nahi dekar uske andar ke bhavon ko samjhna chahiye.............
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