12 जुलाई 2008 की अलसायी सुबह। टेलिविजन पर गाजियाबाद की डासना स्थित जिला कारागार के बाहर का दृश्य। वातावरण में भारीपन है। कैमरामैन कारागार के मुख्य द्वार को फोकस कर अपने कैमरे सेट कर चुके हैं। पत्रकारों का हुजूम बैचेनी में टहल रहा है।
साढ़े आठ बजे एक कार आकर रुकती है। पत्रकार सक्रिय हो जाते हैं। कैमरामैन गाड़ी पर फोकस कर देते हैं। गाड़ी से नोयडा में दोहरे हत्याकांड में अपनी मासूम बेटी आरुषी को गंवा चुकी नूपुर तलवार उतरती हैं। उनके पति डॉ राजेश तलवार आज जेल से रिहा होने वाले हैं। साथ में राजेश तलवार के भाई दिनेश तलवार और उनकी पत्नी भी हैं।
पत्रकार नूपुर तलवार के पास पहुंचते हैं। जाना-पहचाना सवाल-कैसा महसूस कर रहीं हैं? नूपुर तलवार चुपचाप जेल के दरवाजे की ओर बढ़ जाती हैं। अंदर से राजेश तलवार को आने में कुछ मिनट लगते हैं। नूपुर बैचेनी से दरवाजे की ओर देख रही हैं। कैमरा उन पर फोकस है। जो कुछ भी हो रहा है वह स्क्रीन पर सामने है पर न्यूज रूम से आ रही एंकर की आवाज मौके पर मौजूद पत्रकार को कुछ न कुछ बोलने के लिये विवश करती है।
अचानक पत्रकार को लगता है उसे कुछ खास हाथ लग गया है। उसकी आवाज उभरती है - नूपुर तलवार के लिये यह इन्तजार बहुत मुश्किल हो रहा है। देखिये ! देखिये ! वे बैचेनी में अपने नाखून चवा रहीं हैं। सच में, उनके नाखून कुतरने पर तो किसी और पत्रकार का ध्यान ही नहीं गया था। मुझे लगा कि न्यूज रूम से अब एंकर की आवाज गूंजेगी - देखिये, एक बार फिर से हम दिखा रहे हैं नूपुर तलवार के नाखून कुतरने के दृश्य। यह एक्सक्लूसिव दृश्य केवल हमारे चैनल के पास ही मौजूद हैं। लेकिन इसी बीच डॉ राजेश तलवार कारागार से बाहर आ गये और नाखून कुतरने के एक्सक्लूसिव दृश्यों के पुनरावर्तन से दर्शक वंचित रह गये।
डॉ राजेश तलवार बाहर आकर सभी परिवारीजनों के गले लगते हैं। उनमें उनकी पत्नी नूपुर भी शामिल हैं। परिवार के लिये यह भावुक क्षण है। इस पर कैमरे की तीखी निगाह है। सभी चैनल इन क्षणों की ब्यौरेवार जानकारी अपने-अपने दर्शकों को परोसने लगते हैं। रिपोर्टर की आवाज आती है - नूपुर के गले लग कर राजेश भावुक हो गये, उनकी आंखें भर आयीं। आधे घंटे बाद भी चैनल उस दृश्य को दोहरा रहा था किन्तु अब बता रहा था कि राजेश तलवार नूपुर के गले लग कर रो पड़े।
एक चैनल के न्यूज रूम से बताया जा रहा था कि राजेश तलवार के चेहरे पर खुशी दिखाई दे रही थी। खुशी के आंसू उनकी आंखों से छलक पड़े। चैनल ने यह नहीं बताया कि ऐसी कौन सी खुशी तलवार परिवार को हासिल हो गयी थी। कुछ पल बाद ही जेल सूत्रों के माध्यम से खबर दी गयी कि तलवार इतने टूट चुके थे कि आत्महत्या करने की बाते करने लगे थे। आधा घंटा और बीता। अब चैनल बता रहा था कि राजेश तलवार नूपुर के लगे लग कर फूट-फूट कर रोये।
एक्सक्लूसिव के चक्कर में एक उत्साही पत्रकार जेलर रामजी सिंह के पास जा पहुंचे। उन्होंने बताया कि तलवार उदास रहते थे, हिन्दुस्थान टाइम्स पढ़ते थे, जेल में दांतों के रोगियों का इलाज करने के इच्छुक थे किन्तु डेंटिस्ट की कुर्सी लम्बे समय से टूटी होने के कारण यह संभव नहीं हो सका। परसों ही वह कुर्सी ठीक होकर आयी थी और उम्मीद थी कि तलवार उस पर बैठ कर दांत के मरीज कैदियों का इलाज कर सकेंगे किंतु अच्छा हुआ कि उन्हें जमानत मिल गयी।
जोश से लबरेज चैनलवंशी पत्रकार ने अंतत: पूछ ही लिया - टीवी पर वह कौन सा चैनल देखना पसंद करते थे। उसे उम्मीद रही होगी कि जेलर महोदय उसके चैनल का ही नाम लेंगे। उम्मीद गलत भी नहीं थी क्योंकि उनका चैनल ही यह इंटरव्यू ले रहा था किन्तु जेलर महोदय जरा भी मीडिया फ्रें डली नहीं निकले। साफगोई दिखाते हुए उन्होंने कहा - टीवी पर तो बार-बार आरुषी की हत्या और तलवार के बारे में तरह-तरह की बातें आती रहती थी। हर समय उनके घाव कुरेदे जाते थे इसलिये वे टीवी से तो दूर ही रहते थे। संयोग से इस बात-चीत का सीधा प्रसारण हो रहा था।
इसके बाद शुरू हुई गाजियाबाद से नोयडा तक की रोमांच भरी यात्रा। जांबाज पत्रकार लगातार तलवार की कार का पीछा कर रहे थे। कभी उनकी कार को ओवरटेक करते हुए उनकी कार के अंदर के दृश्य अपने कैमरे में कैद करने की कोशिश करते तो कभी आगे - पीछे से चित्र लेते। कई वर्ष पहले पापारेजी पत्रकारों द्वारा पीछा किये जाने से बचने के लिये भागती ब्रिटेन की राजवधू डायना की मृत्यु के समाचार पढ़ कर मन में जिस प्रकार का चित्र बना था, वह आज टेलिविजन के पर्दे पर साकार दिखाई दे रहा था।
सभी चैनलों के न्यूज रूम से बार-बार घोषणा हो रही थी- हमारे तमाम पत्रकार अलग-अलग जगहों पर मौजूद हैं और हमें पल -पल की जानकारी दे रहे हैं। जलवायु विहार स्थित तलवार के निवास पर भी पत्रकारों की भीड़ थी। सूचना आ रही थी कि शीघ्र ही तलवार परिवार वहां पहुंचने वाला है। फिर खबर आई कि वे लोग सेक्टर 61 स्थित सांई बाबा मंदिर पर रुक गये हैं। तभी तलवार के पड़ोसी दुर्रानी की गाड़ी जलवायु विहार से बाहर निकलीऔर तलवार की ससुराल जा पहुंची। पत्रकारों ने सूंघ लिया कि दाल में कहीं काला है। देखते ही देखते पत्रकारों की फौज जा पहुंची तलवार की ससुराल जहां थोड़ी ही देर में तलवार परिवार भी जा पहुंचा।
अंतत: डॉ राजेश तलवार को हाथ जोड़ कर निवेदन करना पड़ा कि आज के दिन वे केवल अपनी बेटी को याद करना चाहते हैं इसलिये अच्छा हो कि उन्हें अकेला छोड़ दिया जाय। इसके बाद पत्रकारों को तो उनके घर से वापस लौटना पड़ा किन्तु शाम ढ़लते ही प्राइम टाइम पर एक बार फिर तलवार परिवार की चर्चा शुरू हो गयी।
कहीं पचास दिन का पूरा घटनाक्रम और उसके फुटेज को जोड़ कर कहानी परोसी जा रही थी तो कहीं दीपक चौरसिया तलवार परिवार की मानसिक स्थिति का सूक्ष्म विवेचन कर रहे थे। उन्होंने अपने विवेचन को ठोस आधार देने के लिये तलवार परिवार की नजदीकी श्रीमती चङ्ढा को फोन लाइन पर जोड़ा हुआ था।
आई बी एन सेवन चैनल एंटीक्लाइमेक्स थ्योरी पर काम करते हुए आरोपी कृष्णा के पिता और उसकी भांजी को स्टूडियों में ले आया था। वे लोग कृष्णा के हत्याकांड में शामिल होने का खंडन कर रहे थे। कृष्णा की भांजी का हालांकि विस्तृत परिचय पाने का मौका तो नहीं मिला किन्तु ऐसा नहीं लग रहा था कि वह कैमरे का पहली बार सामना कर रही हैं। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि कृष्णा को के वल इसलिये फंसाया गया है क्यों कि वह गरीब है। जबकि तलवार अमीर होने के कारण बच निकले। इस बात को एंकर ने भी एक से अधिक बार जोर देकर दोहराया। कृष्णा की भांजी ने यह बताते हुए अपना महत्व स्थापित किया कि सुबह से सभी चैनल उनसे बात करने के लिये पीछे पड़े हैं और अपने-अपने स्टूडियों में आमंत्रित कर रहे हैं। अन्य चैनल भी पीछे नहीं थे। सभी अपनी-अपनी तरह से सीबीआई की कहानी में छेद तलाशने के अभियान में जुटे थे।
मजेदार बात यह भी हुई कि इस बार सभी चैनल और अखबार अन्य चैनलों और अखबारों पर घटना को तोड़ने-मरोड़ने तथा डॉ तलवार को अनावश्यक रूप से अपराधी की तरह प्रस्तुत करने के आरोप लगाने लगे। आज दो दिन बाद भी तलवार सुर्खियों में बने हुए हैं, चैनल इस, उस या जाने किस-किस तरह से विश्लेषण कर मामले को खींच रहे हैं।
सवाल यह है कि मीडिया किसी एक घटना को कितना मथेगी? इसके अतिरेक में जो अन्य महत्वपूर्ण खबरें नजरअंदाज कर दी गयीं अथवा बेहद कम कवरेज मिला उनके विषय में मीडिया क्या स्पष्टीकरण देगी? अथवा क्या मीडिया को भी जनसामान्य की जिज्ञासाओं से परे अपना कार्य व्यापार चलाना है? क्या वह भी समय और समाज की मांग के स्थान पर अपनी सुविधा से सूचनाओं को प्रस्तुत करेगी?
कौन से ऐसे पैमाने हैं जिनके आधार पर मीडिया ने इसे देश की सबसे बड़ी मर्डर मिस्ट्री का नाम दे दिया? क्या कभी मीडिया ने उन हजारों हत्याकांडों के विषय में भी इतनी तत्परता दिखायी है जो वर्षों बाद भी अनसुलझे हैं? क्या किसी झुग्गी बस्ती में मौत के घाट उतार दी जाने वाली किसी किशोरी की मौत और नोयडा की जलवायु विहार जैसी समृध्द बस्ती में होने वाली हत्या के बीच मीडिया भी फर्क करती है? अगर घटना स्थल तक चैनलों की ओ बी वैन जा सकती है तो वह ब्रेकिंग न्यूज और अगर नहीं जा सकती तो ब्लैक आउट, क्या यही पैमाना है?
विडंबना तो यह है कि मीडिया जांचकर्ता, जासूस और न्यायाधीश, सभी की भूमिका स्वयं ही निभा रही है। मीडिया द्वारा बनाये गये अनावश्यक दवाब के कारण ही सीबीआई हड़बड़ी में अधकचरी कहानी के साथ ही सामने आयी और अब मीडिया उसकी कहानी की बखिया उधेड़ने में जुट गयी है।
इस आलेख को कितना भी लम्बा किया जा सकता है। किन्तु इसे एक पत्रकार की टिप्पणी के साथ समेटना उचित होगा। जब मैंने तलवार की रिहाई के बाद प्राइम टाइम में एक पत्रकार की एंकरिंग की तारीफ करते हुए बधाई दी तो उसने कहा - ' आये थे हरि भजन को, ओटन लगे कपास। ' शायद यह पंक्ति हर दूसरे पत्रकार की व्यथा है।
(लेखक हिन्दुस्थान समाचार से जुडे हैं।)
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