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केंद्रीय वित्त मंत्री का कार्यभार संभाल रहे श्री प्रणव मुखर्जी ने 16 फरवरी को संसद में संप्रग सरकार का अंतरिम बजट(2009-10) प्रस्तुत किया। संसद के दोनों सदनों में अंतरिम बजट पर हुई चर्चा में भाग लेते हुए भाजपा सांसदों ने अपने आक्रामक भाषणों में संप्रग सरकार के उपलब्धियों के दावे की पोल खोल दी। भाजपा सांसदों ने आरोप लगाया कि केंद्र सरकार ने अपने कार्यकाल में आम आदमी की सुध नहीं ली।
डॉ. सत्यनारायण जटिया द्वारा लोकसभा में दिए गए भाषण का संपादित अंश
माननीय सभापति जी, अन्तरिम बजट कुछ नहीं होता है, बजट ही होता है और उसे बजट की तरह प्रस्तुत किया गया है। बजट की जो विशेषता होनी चाहिए एक निरन्तरता की, कंटीन्युटी की, भविष्य की रचना की, चुनावी वर्ष होने के कारण उन सारी बातों को पूरा नहीं किया जा सका है। इसलिए इस बजट के बारे में बाकी लोगों की जो राय है, वह है, किन्तु जो लिखा गया है, उसमें 'प्रणब दा का बजट' लिखा गया है। मैं आपको बताता हूं कि राष्ट्रीय सहारा, अपने 17 फरवरी के अंक में लिखता है कि-
सप्रति सरकार की अब तक की उपलब्धियों का महिमामंडन कर एवं औद्योगिक नीतियों का अनछुआ रहना और चुनाव की दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्रों के लिए आबंटन आदि, बस थोड़े शब्दों में यही प्रणब मुखर्जी के शब्दों का सार है। उद्योग जगत सहित आर्थिक विशेषज्ञ यदि इस पर निराशा प्रकट कर रहे हैं, तो इसमें अस्वाभाविक कुछ नहीं है। आखिर मंदी से छटपटाते देश के लिए एक-एक दिन कीमती है और हम नीतिगत घोषणाओं की जिम्मेदारी अगली सरकार पर लाद दें, इसका क्या तुक है।
महोदय, वास्तव में बजट को जानने वाले लोग कितने हैं। बजट का प्रभाव जिन लोगों पर होता है, उसके बारे में यदि हम चिन्ता करें, तो निश्चित रूप से इस देश का भला होगा। देश की आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा बेरोजगारी से, गरीबी से और असहायता से जूझ रहा है और उसे पता नहीं है कि वह क्या करे। प्रो. अमर्त्यसेन की, 'सामाजिक न्याय की मांग' विषय पर एक पुस्तक मुझे अभी-अभी प्राप्त हुई है। उसमें पृष्ठ 46 पर लिखा है कि-
हमारे देश के वंचित वर्ग की घोर दरिद्रता के बारे में अपेक्षाकृत कम राजनैतिक चर्चा तथा उसकी मूक स्वीकार्यता पर मुझे आश्चर्य होता है। राजनैतिक हितों का अम्बार लगाकर भारतीय समाज के वंचित वर्ग की भीषण व सतत तंगहाली को मात्र तात्कालिक मुद्दों पर आसान बयानबाजी के जरिए दूर करने की कवायद से सरकार पर इस बात के लिए दबाव कम हो जाता है कि वह भारत में विद्यमान अतिघोर एवं सतत अन्याय को अत्यावश्यक तत्परता के साथ दूर करे।
महोदय, यह भाषण का हिस्सा है। यह देश का किस्सा है। क्या बदला जब मानवता की पीर वही, तकदीर वही। यह नहीं कह रहे हैं कि कुछ हुआ नहीं है, परन्तु जहां होना चाहिए, वहां उतना नहीं दिखाई दे रहा है, जितना कि दिखाई देना चाहिए। गांव, गरीब और किसान, कौन बनाता है हिन्दुस्तान, भारत का मजदूर किसान। अब गांव की दशा क्या है, गांव की दशा गांव जैसी है। असुविधाग्रस्त समुदाय जहां पर भी रह रहा है, जहां पहुंच नहीं है, जहां सड़क अभी भी नहीं पहुंची है, क्योंकि माननीय अटल बिहारी वाजपेयी जी के नेतृत्व में प्रधान मंत्री ग्रामीण सड़क योजना के तहत 25 दिसम्बर, 2000 को गांवों की सड़कें बनाने का काम प्रारम्भ हुआ था और तब से सड़कें बननी शुरू हुईं। उन सड़कों का बनना धीमा हो गया है। उनकी क्वालिटी और गुणवत्त के बारे में भी कुछ कहा नहीं जा सकता। हम इस मामले में लक्ष्य से तो पीछे हैं ही। इस प्रकार से जब तक गांवों की हालत दयनीय रहने वाली है, तब तक हिन्दुस्तान समृध्द नहीं होगा।
क्योंकि, गांव में किसान रहता है, गांव में देश की आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा रहता है, जो खेती पर निर्भर है और खेती के बारे में हम ऊपरी, सतही प्रबन्धा करते जाते हैं। कर्जा माफ, कर्जा क्यों हो गया, आगे न हो, नहीं तो ठीक है, अच्छी लोकप्रिय घोषणा है। यह हमारे देश की एक विडम्बना कहनी चाहिए कि हम जिन बातों को देश में हो ही जाना चाहिए था, उसके बाद में आश्वासन देकर चुनावों में जाते रहते हैं। सड़क, बिजली, पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य, चिकित्सा, कमजोर वर्ग, गंदी बस्ती, इन्हों बातों को बार-बार दोहराते हैं। मैं उसका कोई राजनीतीकरण नहीं कर रहा हूं। गरीबी को हटाओ, जोर लगाओ, और हटाओ, भूल जाओ।
मेरे भाषण का केवल एक सार है कि समाज के गरीब आदमी को सामर्थ्य दे दें, भारत सामर्थ्यवान बन जायेगा, इसलिए सामर्थ्य को लाने का बार-बार तकाजा यहां हम करते रहते हैं, किन्तु यह तो सरकार का काम है, जो भी सरकार होगी, उसको करना है और उसके लिए जो-जो उपाय हमें प्रभावी रूप से करने चाहिए, उसे प्रभावी उपाय के रूप में यदि हम नहीं करेंगे तो इन बातों को दोहराते जाना पड़ेगा। ठीक है, गरीबी नहीं हटी, नहीं हटी, हटाने की कोशिश जारी है और आगे की क्या तैयारी है।
मैं कुछ बोलता नहीं, जो कुछ है, उसी को कहने की कोशिश करूंगा, क्योंकि, जिस तरह से यह कहा गया है, एक विश्लेषण और मेरे ध्यान में आ गया। सरकार ने अन्तरिम बजट में कुछ खास नहीं किया है, ये समीक्षा करने वाले लोग हैं, बजट के द्वारा सरकार अपनी छवि सुधारने की कोशिश कर रही है। स्पष्टत: सरकार ने अपने नकारात्मक पक्ष को छिपाने की कोशिश की है, जिससे यह साफ जाहिर होता है कि यह चुनावी बजट है। जिस ग्रोथ की सरकार बात कर रही है, उसका सूक्ष्म रूप से अध्ययन करने की जरूरत है। 8.6 फीसदी ग्रोथ की जो बात हो रही है, उसमें सरकार ने ऐसे आंकड़ों में उलझाकर पेश किया है, अपने अन्तरिम बजट में सरकार यह कह रही है कि उसने मुद्रास्फीति को कंट्रोल में रखा है, लेकिन यदि मुद्रास्फीति पिछले वर्षों र्की याद करें तो 10 फीसदी से ज्यादा थी, इसलिए यह कहना कि हमने मुद्रास्फीति को कंट्रोल कर लिया, गलत होगा। दरअसल मुद्रास्फीति की दर और बाकी की बातें तो अन्य-अन्य क्षेत्रों पर निर्भर करती हैं। दूसरी बात का विश्लेषण करते हुए उसने कहा कि सरकार इस अन्तरिम बजट में जिस ग्रोथ की बात कर रही है, उससे अमीरी गरीबी की खाई और गहरी हुई है। अब यह गरीब गरीब, अमीर अमीर, अमीर ज्यादा अमीर हो जायेगा तो गरीब नीचे जायेगा। जो गरीब है, उसको जो जरूरी जीवन के लिए आवश्यक वस्तुं हैं, उसको हम कैसे मुहैया करा रहे हैं? जो हमारा सिस्टम है, जिसको हम कहते हैं कि लोगों को राशन की दुकानों से राशन पहुंचाने के लिए वही एक सिस्टम है। परन्तु इस सारे सिस्टम में जो कुछ मुश्किलें हैं, उनको दूर करने के उपाय हमें करने होंगे। हम लगातार उस परम्परा को ही जारी रखना चाहते हैं , उसको बदलने की कोई कोशिश ही नहीं कर रहा है। उसने कहा कि ये जो पी.डी.एस. सिस्टम वाली दुकानें हैं, इनको हम बराबर रखेंगे। पी.डी.एस. सिस्टम के अलावा भी कुछ और हो सकता है क्या? किस तरह से हम उस गरीब को पी.डी.एस. सिस्टम पर आदमी क्यों जाता है, इसलिए कि उसके पास खरीद की क्षमता नहीं है, जिसकी खरीद की क्षमता नहीं है, उसका अर्थ है कि उसको रोजगार ठीक प्रकार का नहीं है। जब उसका रोजगार ठीक प्रकार का नहीं है तो इसका अर्थ यह है कि उसके परिवार का गुजारा बहुत मुश्किल से होता है।
मुझे यह पता है कि ये जो आंकड़े हैं, ये आंकड़े गरीब आदमी नहीं समझ रहा है, उसकी गिनती ज्यादा से ज्यादा हजार तक जाती है, लाख तक बहुत मुश्किल से समझते हैं, करोड़ और अरब-खरब, बाकी की बातें तो बहुत मुश्किल लगेंगी, इसलिए यह बजट केवल बजट है तो यदि उसको सार्थक, साकार नहीं करने के उपाय हम करेंगे तो निश्चित रूप से यह किताबों की बातें हैं। यदि सार्थक नहीं हुआ तो स्याही के दम पर।
ये लफ्जों की उलझन, ये गिनती के हौवे,
अगर समझ गये तो जरा हमें भी बता दीजिए,
सिरा ढूंढता हूं, जिंदगी का,
अगर पता हो तो मुझे भी बता दीजिए।
उसको और ज्यादा कुछ नहीं चाहिए। गरीब आदमी को सौ दिन के रोजगार की गारंटी है, इसमें क्या गारंटी है? उस गारंटी रोजगार में जो शर्तों रखी गयी हैं, उन शतों के अंतर्गत तो वह काम ही नहीं कर पा रहा है, इसलिए ऐसी शर्तों र्का कोई मतलब ही नहीं है।
गांव के विकास के लिए जो जरूरी बातें है, उनको करने का उपाय तेजी से करना चाहिए। बहुत-बहुत बड़ी योजनाओं के बारे में आप बात कह रहे हैं, इतने हजार करोड़, उतने हजार करोड़, आप उन करोड़्स को गांव तक मोड़ दीजिए। गांव में ऐसा प्रबंध करिए कि उससे शिक्षा का प्रबंध हो जाए, उनको शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिल जाए। सर्व शिक्षा अभियान चलाया जरूर गया है, परंतु सर्व शिक्षा अभियान में जो खामियां हैं, उनको दूर करने के लिए हमें उपाय करने चाहिए। गरीब का बच्चा स्कूल में जाए, इसका प्रबंध करने के लिए, अगर उसके मां-बाप को रोजगार की गारंटी हो जाएगी, तो जरूर उसको इसका लाभ मिलेगा। किसान को खुशहाल करने के संबंध में मैं कहना चाहूंगा कि आज निश्चित रूप से खेत और उसका रकबा कम होता जा रहा है, क्योंकि खेत कोई ऐसी चीज नहीं है, जो हमेशा बढ़ जाएगी, परिवार के बढ़ जाने से खेत का बटवारा हो जाता है और रकबा कम हो जाता है। वह गुणवत्त की खेती कर सके और इतनी खेती कर सके, जिससे उसको अपने गुजारे लायक खर्च करने का मौका हो। खेती के लिए, खाद के लिए, बीज के लिए, उसे गुणवत्त के बीज मिलें और किसान का कर्ज माफ करने का अवसर फिर न आए, आप इस तरह से उपाय करें।
आप आज हजारों करोड़ रूपए के कर्ज माफ करने की बात कह रहे हैं, यदि पहले हम उस पैसे को उसकी खुशहाली में लगा देते, तो शायद यह कर्ज नहीं होता। इसे अब भी कर सकते हैं। किसान के बारे में सोचने की आवश्यकता है। जहां तक रोजगार और श्रम की बात है, निश्चित रूप से श्रम की स्थितियां हमारे देश में कमजोर होती चली जा रही हैं और रोजगार के अवसर कम होते जा रहे हैं। मंदी का वातावरण है, ऐसा कहा जा रहा है। हमारा देश तो कभी पूंजीवादी देश नहीं रहा, हम तो कौशल के वैश्वीकरण के प्रमुख देश रहे हैं। आज पूंजी का वैश्वीकरण हो रहा है। हम स्किल ग्लोबलाइजेशन के माध्यम से, स्किल को ज्यादा प्रोत्साहन करके, अनुकूल परिस्थितियां पैदा करें। जो गरीब आदमी गांव के अंदर काम करता था, यदि फैक्ट्रियां उस काम को करना शुरू कर दें, तो उसके रोजगार के अवसर जाते रहेंगे, इसलिए उसको रोजगार के विकल्प के लिए प्रशिक्षण का कार्यक्रम होना चाहिए। यदि हम प्रशिक्षण देकर अन्य रोजगारों के बारे में उनको तैयार कर सकें, तो निश्चित रूप से यह सब के लिए ठीक होगा।
इफ्रास्ट्रक्चर के संबंध में आपने देखा होगा कि पिछले कुछ समय में सीमेंट और स्टील के दाम ज्यादा बढ़ गए थे। इस कारण इफ्रास्ट्रक्चर को खड़ा करने के लिए स्वर्णिम चतुर्भज योजना, उत्तर-दक्षिण, पूर्व-पश्चिम कोरीडोर की बात आयी। इन सारी बातों को लागू करने का काम हो सकता था। बिजली की हमारे यहां कमी है, यह बहुत बड़ी मुश्किल है। बिजली की कमी की योजनाओं को किस तरह से हम पूरा कर सकें, अगर बिजली की कमी रहेगी, तो हमारा देश आगे नहीं बढ़ सकता है, क्योंकि उस पर उद्योग, कृषि और बहुत सारी चीजें निर्भर रहती हैं।
पानी के संबंध में कहना चाहूंगा कि पानी को किस तरह से हम बचा सकते हैं, पानी को किस तरह से हम रोक सकते हैं? सड़कों को जोड़ने की बात चल रही है, प्रधानमंत्री सड़क योजना से गांव को जोड़ने के लिए, स्वर्णिम चतुर्भुज और बाकी की योजनाओं से शहर की सड़कों को जोड़ने के लिए, उसी प्रकार से यदि नदी के पानी को हम एकसाथ मिलाने का काम करें, तो निश्चित रूप से बाढ़ और सूखे के संकट से सारा देश बार-बार गरीब होता जाता है, वह संकट दूर हो जाएगा। मुझे उम्मीद है कि हम सारी बातों को करने में समर्थ होंगे। इसलिए हमारा सबसे बड़ा ध्यान गांव, गरीब और किसान की ओर जाना चाहिए, उस भूखे इंसान की ओर जाना चाहिए, जो रोजी-रोटी की तलाश कर रहा है। मुझे विश्वास है कि बाकी सब बातों से बात नहीं बनेगी, क्योंकि
बुलंद वादों की बस्तियां लेकर हम क्या करेंगे,
हमें हमारी जमीन दे दो, आसमां लेकर क्या करेंगे?
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