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Saturday, 19 July 2008

परमाणु करार से किस का हित सधेगा ? : डा0 कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

हिन्दी के प्रसिध्द व्यंग्यकार श्री हरिशंकर परसाई की एक कहानी है। परसाई कहते हैं यदि दुकानदार किसी ग्राहक की प्रशंसा करना शुरू कर दे तो ग्राहक को चौंकन्ना हो जाना चाहिए। इस प्रशंसा का अर्थ केवल इतना ही है कि दुकानदार ग्राहक को लूट रहा है लेकिन ग्राहक फिर भी चुप है। इसलिए दुकानदार की नजर में वह ग्राहक प्रशंसनीय है। इसी तर्ज पर कहा जा सकता है कि यदि अमेरिका किसी दूसरे देश की सरकार की प्रशंसा करना शुरू कर दे तो उस देश के लोगों को चौकन्ना हो जाना चाहिए। अमेरिका की प्रशंसा का अर्थ यह है कि जिस देश की सरकार की वह प्रशंसा कर रहा है वह सरकार अपने देश के हितों की रक्षा की बजाय अमेरिका के हितों की रक्षा कर रही है।

इन दिनों अमेरिका के राष्ट्रपति सोनिया-मनमोहन सिंह सरकार की दिल खोलकर प्रशंसा कर रहे हैं। बुश का कहना है कि मनमोहन सिंह की सरकार अमेरिका के साथ परमाणु समझौता करके एक इतिहास का निर्माण कर रही है। बुश ने ही नहीं अमेरिकी राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी ओबामा भी इस सरकार की प्रशंसा कर रहे हैं। यह परमाणु करार होना चाहिए इसकी चिंता भारत से ज्यादा अमेरिका को है। दिल्ली में अमेरिका के राजदूत ने तो अलग-अलग राजनैतिक दलों के नेताओं को मिलकर करार के फायदे समझाने शुरू कर दिये हैं। कुछ राजनैतिक दलों के नेता तो इन फायदों को समझने के लिए अमेरिका तक का चक्कर लगा आए हैं। अमेरिका में एक बार जाते ही मानो उन्हें बुध्द की तरह ज्ञान प्राप्ति हो जाती है और वे करार के पक्ष में कसीदे पढ़ना शुरू कर देते हैं। जाहिर है कि यह परमाणु करार भारत से ज्यादा अमेरिका के हितों की रक्षा कर रहा है। अमेरिका भारत को परमाणु हथियारों के मामले में काफी अरसे से घेर कर नंपुसक बनाने का प्रयास कर रहा है। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार द्वारा परमाणु विस्फोट करने के बाद से तो अमेरिका की यह छटपटाहट और भी बढ़ गई है। लेकिन भारत ने अब तक अमेरिका के आगे झुकने से इंकार किया हुआ था। अमेरिका ने भारत को नीचा दिखाने के लिए ही 2004 में सोनिया-मनमोहन सिंह की सरकार बनाने में अप्रत्यक्ष भूमिका निभाई थी। अमेरिका जानता था कि यदि विश्व बैंक (जो प्रकारांत से अमेरिका का ही बैंक कहना चाहिए) के सलाहकार रहे मनमोहन सिंह भारत के प्रधानमंत्री बन जाते हैं तो उनके माध्यम से परमाणु हथियारों के मामले पर भारत की प्रगति को रोका जा सकता है। भारत अमेरिका का 123 परमाणु करार मूलत: अमेरिका की इसी साजिश का हिस्सा है। इस करार के माध्यम से भारत का पूरा सिविल परमाणु कार्यक्रम अमेरिका का बंधक बन जाएगा और सामरिक आणविक कार्यक्रम अमेरिका के प्रत्यक्ष निरीक्षण में ही आ जाएगा। अमेरिका ने मनमोहन सिंह के हाथ में परमाणु ऊर्जा का झुनझुना पकड़ा दिया है। जिसे वे बजाते हुए पूरे देश में घूम रहे हैं। भारत के जाने माने परमाणु वैज्ञानिक इस झुनझुने की सच्चाई जानते हैं इसलिए भारत सरकार परमाणु करार की समीक्षा वैज्ञानिकों से न करवाकर नौकरशाही से करवा रही है और सोनिया और मनमोहन सिंह एक दूसरे की पीठ थपथपा रहे हैं। भारत को जितनी ऊर्जा की आवश्यकता है उसकी शतांश पूर्ति भी यह करार नहीं कर पाएगा। बहते जल से जितनी जल विद्युत उत्पन्न हो सकती है उससे भारत का ऊर्जा का संकट हल हो सकता है। लेकिन लगता है कि ऊर्जा तो मात्र एक बहाना है। मनमोहन सिंह यह करार पूरा करके अमेरिका के प्रति अपनी स्वामी भक्ति का पुख्ता प्रमाण देना चाहते हैं।

एक बात ध्यान में रखनी चाहिए कि चीन और अमेरिका दोनों ही भारत के परमाणु कार्यक्रम को किसी भी ढंग से रोकना चाहते हैं। चीन पहले ही अमेरिका के परमाणु क्लब में शामिल हो चुका है। अमेरिका उसे चाहकर भी रोक नहीं पाया था लेकिन अब जब एक बार चीन उस क्लब में शामिल हो गया है तो अमेरिका ने उसके साथ हमराह होने में ही भलाई समझी। वैसे भी चीन और अमेरिका दोनों ही साम्राज्यवादी प्रकृति के देश हैं। दोनों में भौतिकवाद को लेकर वैचारिक समानता है। इसलिए लंबी राजनीति में दोनों एक दूसरे के स्वाभाविक साथी हो सकते हैं और हो भी रहे हैं। चीन कभी नहीं चाहेगा कि भारत आणविक दृष्टि से शक्तिशाली देश बने। इसी प्रकार अमेरिका की मंशा है कि एशिया में यदि भारत उसके आगे घुटने टेक दे तो उसका अश्वमेध यज्ञ पूरा हो जाएगा। भारत के घुटने टेकने का अर्थ यह होगा कि प्राचीन संस्कृति और सभ्यता का अंतिम दुर्ग भी एक चर्च के आगे ढह गया।

इसे देश का दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि संकट की इस घड़ी में देश का नेतृत्व उन लोगों के हाथों में चला गया जिनके लिए देश की प्राचीन संस्कृति का अर्थ महज सांप्रदायिकता है और अमेरिका के आगे बिकने का अर्थ प्रगति की लंबी छलांग है। मनमोहन सिंह बुढ़ापे में यह लंबी छलांग लगाना चाहते हैं। इसी प्रकार की लंबी छलांगे कभी पंडित जवाहर लाल नेहरू ने लगाई थी और वे देश को जाते-जाते कश्मीर समस्या और चीन के हाथों शर्मनाक पराजय दे गये थे। अब उसी परंपरा में मनमोहन सिंह यह छलांग लगाना चाहते हैं और हो सकता है कि इस देश को अमेरिका की आणविक गुलामी दे जाएं। मनमोहन सिंह अच्छी तरह जानते हैं कि अमेरिका से किया जा रहा परमाणु समझौता केवल 123 समझौता नहीं है बल्कि इसके साथ अमेरिकी संसद द्वारा पारित हाइड एक्ट भी जुड़ा हुआ है। मनमोहन सिंह यह कहकर नहीं बच सकते कि भारत का इस हाइड एक्ट से कुछ लेना देना नहीं है यह भारत और अमेरिका के बीच की संधि नहीं है। भारत चाहे हाइड एक्ट से बंधा हुआ हो या न हो परंतु इतना तो मनमोहन सिंह को पता है कि अमेरिका इस एक्ट से अच्छी तरह बंधा हुआ है। यह हाइड एक्ट भारत के आणविक परमाणु कार्यक्रम को रोकने का एक स्पष्ट जाल है।

आश्चर्य की बात है कि भाजपा इस समझौते का विरोध कर रही है। संपूर्ण वामपक्ष इस समझौते का विरोध कर रहा है। लेकिन इसके बावजूद मनमोहन सिंह इस सीमा तक अड़े हुए हैं कि वे सरकार गिराने को भी तैयार है। आखिर अमेरिका के पक्ष में मनमोहन सिंह की क्या मजबूरी है, इसकी जांच किसी निष्पक्ष एजेंसी से करवानी चाहिए। नहीं तो जैसा किसी शायर ने कहा है-'लमहों ने खता की, सदियों ने सजा पाई।' मनमोहन सिंह की लमहों की यह खता सदियों तक आणविक क्षेत्र में भारत को पंगू बनाकर रख देगी।
(नवोत्थान लेख सेवा हिन्दुस्थान समाचार)

1 comment:

Anonymous said...

एटमी डील का मतलब होगा अमेरिका पर पुरी निर्भरता । निरभर्ता का अर्थ होगा की हम अपने आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक और साँस्कृतिक निर्णय अमेरिका और बिलायत के कहे अनुसार ले । हमारे पास जल विद्युत, सौर्य उर्जा, पवन उर्जा आदि विकल्प है जिसमे हमे निवेष करना चाहिए ।