देखिए, मेरे तो बहुत सारे मित्र वामपन्थी हैं। इसका भी कभी इतिहास लिखा जाना चाहिए कि ऐसी संस्थाओं की कितनी मदद मैंने की है। लेकिन उसकी बहुत सारी मौलिक स्थापनाओं से मेरी असहमति हैं। खासकर हिन्दी में जो वामपन्थ है, उसने जो अतिचार कर रखा है, उससे भी मेरी घोर असहमति है। तमाम लेखक, कृतियां - उनके प्रति अनुनायी युवा लेखक, प्राय: अनभिज्ञ है। बिना जाने-बिना पढ़े सबको खारिज करते हैं। वह संगठन है, बाकी विचारधाराएं संगठन नहीं हैं, वे विचार है-उनके संगठन नहीं। अलग-अलग विचार लोगों के हैं लेकिन वामपन्थी एक या दो संगठन है।
संगठन के बिना इनका विचार चलता नहीं। तो संगठन बने। इन संगठनों का काम सुबह से शाम तक यही है कि किसको गिराना है, किसको उठाना है।
दूसरा, इन्होंने पूरे सोवियत संघ को, पूरी कम्युनिस्ट व्यवस्था के तहत ध्वस्त होने पर कभी गंभीरता से विचार नहीं किया। उसका कोई प्रमाण नहीं है। तीसरा, यह मानते थे कि मार्क्स ने यह कहा था, अगर आप मैटिरियल फैक्ट्स बदल दें तो चेतना बदल जाएगी। सत्तर वर्ष आपने सोवियत संघ में राज किया। मनुष्य की चेतना नहीं बदली। बल्कि उसी चेतना ने आपको नष्ट कर दिया, ध्वस्त कर दिया। ये सब गहरे मामले हैं। इनको लेकर आपके मन में कुछ गंभीरता होनी चाहिए।
सच तो यह हैं कि किसी वैचारिक शत्रुता के बिना इनका वाम काम ही नहीं कर सकता। यह उसकी सबसे बड़ी दुर्बलता है। उसको शत्रु चाहिए। पहले अज्ञेय थे फिर निर्मल वर्मा व विद्यानिवास मिश्र हैं। वे नहीं होंगे तो कोई और तैयार हो जाएंगे।
बाकी उनका यह आग्रह कि सामाजिक संघर्ष में साहित्य की भूमिका है, इस पर मुझे कोई एतराज नहीं है, किन्तु उसका मूल्य सिर्फ उसकी तथाकथित सामाजिक उपयोगिता में है-इसको मैं मानने को तैयार नहीं हूं। क्योंकि समाज अपने आप में एक अमूर्त धारणा है-आखिर समाज क्या है, क्या मतलब उससे? वह एक अवधारणा है मेरे हिसाब से। हिन्दी के बहुत सारे वामपंथी अपढ़ वामपंथी भी हैं जो कि विलक्षण बात है। मूल ग्रन्थ पढ़ा नहीं है और जो मार्क्सवादी विचार ने ही अपना विस्तार किया है, जब सोवियत संघ था, तब और उसके बाद भी -इससे इनका कोई लेना-देना है।
(साभार : पाव भर जीरे में ब्रह्मभोज-ओम निश्चल से बातचीत)
2 comments:
हम भारतीय अतिवाद के प्रशंसक हैं। प्रशंसा करेंगे तो भगवान बना देंगे और निंदा करेंगे तो पाताल में भी जगह नहीं देंगें। अतः वामपंथ के अतिचार पर भला आश्चर्य क्यों? वैसे भारत में वामपंथ था ही कब? अवसरवादियों की जमात को एक वैचारिक जामा पहनाकर नैतिक रूप देने की भद्दी कोशिश आधी सदी से ज्यादा समय से की जारही है और भारत की भोली भाली जनता इनके स्वरूप को भी अभी तक भी समझ नहीं पाई है।
अशोक वाजपेयी से वैचारिकता की आशा करना अब व्यर्थ है। वे भाववाद, थैलीशाहों के भोंथरे हथियार की तरह वे गाली गलौच पर उतर आए हैं।
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