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Tuesday 15 July, 2008

कौन सी दुनिया में रहते हैं वामपंथी



लेखिका- तवलीन सिंह

पिछले सप्ताह जब कामरेड प्रकाश करात ने पत्रकारों को बुलाकर ऐलान किया कि वामपंथी दल सरकार से अपना समर्थन वापिस ले रहे हैं तो मेरे दिमाग में एक ही बात आई काश कि यह पिछले वर्ष ही हो गया होता। शायद कुछ आर्थिक सुधार हो गए होते, कुछ विकास के कार्य, कुछ आम सुविधाओं में परिवर्तन। पिछले अगस्त से ही वामपंथी दल सरकार को डरा-धमका रहे हैं। तब से जब प्रधानमंत्री ने साफ शब्दों में कहा कि परमाणु करार देश के हित में है और वह इस करार को रद्द करने को तैयार नहीं हैं। प्रधानमंत्री ने इस करार को इतना महत्वपूर्ण समझा कि उस वक्त त्यागपत्र देने को तैयार थे। बेचारे डाक्टर साहिब शरीफ आदमी हैं लेकिन जब उन्हीं के पार्टी के लोग उनको कहने लगे कि सरकार बचाना करार से ज्यादा जरूरी है तो चुप हो गए। वामपंथियों की धमकियां बर्दाश्त करते रहे। परिणाम अच्छा न हुआ। वामपंथियों ने जब देखा कि सरकार को डराना आसान है तो हर दूसरे-तीसरे दिन कोई नई धमकी देते रहे। यूं न करोगे तो ऐसा होगा, यूं करोगे तो हम यूं करेंगे, इत्यादि। सरकार पीछे हटती रही और वह अपना लाल झंडा हाथ में लिए नारे लगाते हुए आगे बढ़ते रहे।

परमाणु करार के मुद्दे पर विश्लेषण सरकार के गिरने-बचने तक ही सीमित रहा है जबकि समस्या इस एक मुद्दे की नहीं बल्कि भारत के राजनीतिज्ञों की राजनीतिक पिछड़ेपन की है। ऐसा लगता है कि इस देश के तकरीबन सारे नेता उस समय में अटके हुए हैं जब शीत युध्द ने दुनिया को दो खेमों में बांट रखा था। वामपंथी दलों का उस समय में अटके रहना समझ में नहीं आता है। यह वह समय था जब हम सोवियत रूस को महाशक्ति मानते थे और माक्र्सवादी विचारधारा की कद्र दुनिया भर में थी। लेकिन मायावती और चंद्रबाबू नायडू के परमाणु करार पर बयान सुनकर ऐसा लगता है कि उनको अभी तक जानकारी नहीं कि शीत युध्द समाप्त हुए कोई 20 वर्ष हो गए हैं। आज अमरीकी 'सामंतवाद' की बातें करना कोई मतलब नहीं रखता है। मायावती से जब सुना कि करार का विरोध वह इसलिए कर रही हैं कि यह मुसलमानों के खिलाफ है, मुझे हंसी आई। फिर जब उन्होंने आधार यह बताया कि अगर अमरीका से हम परमाणु ऊर्जा लेने की कोशिश न कर रहे होते तो ईरान तक पाइप लाइन अवश्य बनाते गैस लाने के लिए। मुझे ऐसा लगा कि उन्हें बिलकुल कुछ समझ नहीं आया है अंतरराष्ट्रीय मुद्दों के बारे में। राष्ट्रीय स्तर की नेता बनने की अगर उम्मीद रखती हैं तो अपने सलाहकार जरूर बदलें। अगर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के बयान सुनकर मायूसी हुई तो उससे ज्यादा तब हुई जब आंध्र के पूर्व मुख्यमंत्री ने कहा कि मनमोहन सिंह जार्ज डब्ल्यू बुश के इशारे पर नाच रहे हैं।

कौन सी दुनिया में रहते हैं ये लोग। क्या इतना भी नहीं जानते कि अंतरराष्ट्रीय भाषा ही बदल गई है? जब सोवियत यूनियन अपनी ही नाकामियों के कारण टूटा और दुनिया को मालूम पड़ा कि आर्थिक तौर पर वह बिल्कुल खोखला है तब से दुनिया बदलना शुरू हुई। बर्लिन की दीवार गिरी, पूर्वी यूरोप की कम्युनिस्ट सरकारें सब रूई की तरह उड़ गईं। चीन ने पहले ही समझ लिया था कि वामपंथी आर्थिक नीतियों में कोई दम नहीं है। हमसे 10 वर्ष पहले उन्होंने आर्थिक सुधार करना शुरू किया। आज चीन भारत से हर स्तर पर आगे है- शिक्षा, स्वास्थ्य और खुशहाली। निजी तौर पर मैं यह कह सकती हूं कि 1997 में मौका मिला था मुझे उस देश का दौरा करने का और मैं दंग रह गई थी उनकी सड़कें, उनकी आम सुविधाएं, उनके शहर देखकर। जो बेहाली, जो गरीबी दिल्ली-मुंबई की सड़कों पर खुलेआम दिखती है वैसी गरीबी चीन में तब भी नहीं थी। और हम हैं कि ऐसे वामपंथी दल पाले हुए हैं जिन्होंने मनमोहन सरकार को आर्थिक सुधार करने से बिल्कुल रोक रखा है।

तो अब क्या होगा? सरकार अगर बचती है तो कुछ करके दिखाएगी क्या? उम्मीद कम है क्योंकि चुनाव समय पर भी अगर होते हैं तो दूर नहीं। चुनाव सिर पर जब होते हैं तो कोई भी सरकार कुछ नहीं करती। लेकिन मोहलत अगर मिलती है प्रधानमंत्री को तो कम-से-कम उन 1500 विश्वविद्यालयों की नींव तो रखें जिनकी सख्त जरूरत है। शिक्षा नीति में अगर थोड़ा-बहुत भी सुधार आएगा तो वे सैकड़ों स्कूल बनना शुरू हो जाएंगे जिनके बिना 21वीं सदी के अंत तक भारत के बारे में कहा जाएगा कि दुनिया के सबसे ज्यादा अशिक्षित लोग भारत में मिलते हैं। शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार अगर नहीं होता तो बाकी आर्थिक सुधार बेमतलब हो जाते हैं इसलिए कि उनका लाभ सिर्फ वे लोग ले सकते हैं जिनको शिक्षित होने के नाते समझ है। वामपंथी दल इतने पिछड़े हैं हमारे, इतने अंधे कि अभी तक समझते हैं कि आर्थिक सुधार सिर्फ अमीरों के लिए हैं।

इतना नहीं समझ पाए हैं कि अमीर भारतीयों का आज यह हाल है कि उनको सरकारी सुविधाओं की जरूरत ही नहीं है। बच्चों की पढ़ाई प्राइवेट स्कूलों में होती है। बच्चों की पढ़ाई प्राइवेट स्कूलों में होती है, इलाज प्राइवेट अस्पतालों में, यहां तक कि ऊर्जा, पानी का भी इंतजाम वह खुद कर लेते हैं। अच्छी आम सुविधाओं के अभाव के कारण पिसता है मध्यम वर्ग और बेचारा आम आदमी जो निर्भर है सरकारी सेवाओं पर।

यानी आम आदमी के सबसे बड़े दुश्मन अगर कोई हैं तो वे हैं अपने वामपंथी दल। उनके जाने से किसी को नुक्सान नहीं होने वाला, किसी ने दो आंसू नहीं बहाने। (साभार : पंजाब केसरी / 12 जुलाई, 2008)

1 comment:

अनुनाद सिंह said...

पिछले चार वर्षों से भारत में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सब कुछ वामपंथी विचारकों (?) के अनुसार हुआ। उस का परिणाम आते देर नहीं लगी। मंहंगाई दिन-दूनी रात-चौगूनी बढ़ रही है; भारत की विदेश-नीति बुरी तरह पिट गयी है। - यानी मार्क्सवादी नीतियों का खोखलापन और अव्यावहारिकता का भारत में भी परीक्षण हो गया। (सोवियत परीक्षण के निष्कर्ष को हमारे वामपंथी अभी भी मानने को तैयार नहीं थे) । चलो इनकी नीतियों की पोल तो खुली; बहुत ज्यादा नुकसान नहीं हुआ है, अब भी स्थिति को काबू में किया जा सकता है। बस आवशयकता है एक ऐसी सरकार की जो देश हित को सर्वोपरि समझे (चीन,पाकिस्तान और इरान्के हित को नहीं)