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Wednesday 16 July, 2008

दोहरे मापदंड से नहीं उबरे वामपंथी



लेखक- राजनाथ सिंह 'सूर्य'


हमारे देश का वामपंथी आंदोलन प्रचारात्मकता के सहारे अपनी वास्तविकता पर परदा डालने में निरंतर सफल रहा है। प्रेरणा के लिए कभी सोवियत यूनियन और अब चीनोन्मुखी होने के अतिरेक में देशहित विरोधी आचरण के बावजूद 'गरीबों का मसीहा' होने के वामपंथियों के दावे की साख का बने रहना बहुत बड़ी बात है। दुनिया के किसी भी देश में वामपंथ के परानुकरण का ऐसा स्वरूप कभी नहीं रहा, जैसा भारत में था और आज भी मौजूद है।


सोवियत क्रांति से प्रभावित होकर जिन देशों ने साम्यवाद या मार्क्‍सवाद को अपना आदर्श माना, उसका अनुकरण किया, उनमें चीन को हम अग्रणी मान सकते हैं, जो आज भी साम्यवाद का प्रतिमान माना जाता है। लेकिन यदि पूर्व सोवियत संघ की छत्रछाया से निकलने का काम किसी देश ने सबसे पहले किया, तो वह चीन ही था, जहां का मार्क्‍सवाद लेनिन या स्टालिन के बजाय माओत्से तुंग के प्रति निष्ठावान बना। लेकिन भारत में साम्यवादियों की निष्ठा, चाहे वह मार्क्‍सवादी पार्टी के नाम से, लेनिन और स्टालिन में बनी हुई है। यह और बात है कि रूस ने उनके शव तक को ठिकाने लगा दिया हो।
हमारे देश में माओवादी नाम से अनेक संगठन क्रांति के नाम पर शस्त्र उठाकर सत्ता को चुनौती दे रहे हैं। अब तो पड़ोसी नेपाल के चुनाव में प्रचंड की जीत से देश में सक्रिय माओवादियों के बल और व्यवहार में और बढ़त की आशंका जताई जाने लगी है। भले ही प्रचंड ने भारत में माओवादियों से हिंसा त्यागने की अपील की हो। लेकिन इन माओवादियों की दिशा और दृष्टि स्पष्ट है, उनका मकसद महज हिंसा फैलाना है, इसलिए उनसे निपटना बहुत कठिन नहीं है। जैसा पचास के दशक में तेलंगाना में हो चुका है। लेकिन जो साम्यवादी 'मारो घुटना, फूटे आंख' के तौर-तरीके से सक्रिय हैं, और अपना प्रभाव लगातार बढ़ा रहे हैं, उनसे खतरे को लेकर सिंगूर और नंदीग्राम की घटनाओं के घटने के बावजूद हमें चेतना का घोर अभाव दिखाई पड़ता है।


साम्यवादियों के दोहरे चरित्र के बार-बार बेनकाब होने के बावजूद उनकी नारेबाजी की शक्ति अब भी उपयोगी साबित हो रही है। सारी दुनिया जब तिब्बत के शांतिप्रिय बौध्दों को उनकी धार्मिक स्वायत्तता दिलाने के पक्ष में खड़ी है, तब साम्यवादी 'हिंसा पर उतारू' तिब्बतियों के 'विद्रोह' को कुचलने के चीन के अधिकार का उसी प्रकार समर्थन कर रहे हैं, जैसा उन्होंने पिछली सदी में साठ के दशक में चीन का यह कहकर समर्थन किया था कि चीन ने भारत पर नहीं, बल्कि भारत ने चीन पर आक्रमण किया है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अरुणाचल यात्रा का उन्होंने चीन के समान ही विरोध किया।


इतना ही नहीं, राज्य सरकार द्वारा तिब्बत धर्मगुरु दलाई लामा को तवांग में आने का न्यौता दिया जाना भी उन्हें भारत-चीन संबंधों के लिए कांटा दिखाई पड़ता है। वामपंथियों के इसी आचरण से प्रसन्न चीन के राजदूत ने कोलकाता जाकर वाम मोरचा सरकार को बधाई दी। और गौर कीजिए कि पश्चिम बंगाल सरकार ने उसी चीनी राजदूत की बधाई हुलसकर स्वीकार की, जिसने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अरुणाचल यात्रा की सार्वजनिक तौर पर भर्त्सना की थी।


हमारे देश के साम्यवादी मानते हैं कि अमेरिका के साथ परमाणु करार भारत के हितों का विरोधी है। लेकिन जब उनसे पूछा जाता है कि चीन तो ऐसा करार कर चुका है, तो उनका जवाब होता है कि चीन से हमें क्या लेना-देना है। लेकिन जब चीन द्वारा पाकिस्तान को लगातार मजबूत बनाने, तिब्बतियों का विनाश करने या फिर उसके घटिया माल को भारतीय बाजार से निकालते का सवाल आता है, तो वे चुप हो जाते हैं, विरोध करते हैं या फिर बगले झांकने लगते हैं।


भारत के साम्यवादियों का यह दोहरा मापदंड या स्वरूप नया नहीं है। असल में, वे नहीं चाहते कि भारत में एक स्थिर और मजबूत इरादों वाली सत्ता स्थायी हो, क्योंकि ऐसा होने से उनके इरादों पर पानी फिर जाएगा। कटु वास्तविकता यही है कि आज जिस स्थिति में देश घिरा है, उसमें केंद्र में कमजोर सरकार होना अभिशाप हो सकता है। साम्यवादी मनमोहन सिंह सरकार को अब हर हाल में गिराना चाहते हैं, क्योंकि अमेरिका के साथ परमाणु करार के मसले पर सरकार ने उन्हें ठेंगा दिखा दिया है। लेकिन वास्तव में वे कभी भी यूपीए सरकार की स्थिर और सबल छवि बनने देने के पक्ष में नहीं थे। और उनके इस आचरण ने देश में राजनीतिक अस्थिरता के माहौल को बढ़ावा देने में भरपूर सहयोग किया है।


शक्तिविहीन सत्ता के कारण अतीत में जो कुछ हुआ है, उसकी पुनरावृत्ति फिर न हो सके, इसके लिए हमें साम्यवादियों के वर्तमान चाल-चरित्र और चेहरे को ठीक से देखना होगा। अलबत्ता इस समय यह कहना भी कठिन है कि समाजवादी पार्टी ने यूपीए एवं वामपंथी, दोनों समन्वय समितियों से अलग होकर 'स्वतंत्र वाम नीति' का जो नारा दिया है, उसका कितना असर होगा। लेकिन यह बिलकुल स्पष्ट है कि वाम मोरचे से सामंजस्य की घोषणा का पर्दाफाश होना शुरू हो गया है। (साभार : अमर उजाला, 14जुलाई, 2008)

1 comment:

Unknown said...

मैं तो यह मानता हूँ कि वामपंथी इस देश के कभी सगे नहीं हो सकते. जिन की वफादारी सीमा पार देश से है वह वामपंथी इस देश की सरकार को धमकाते रहे और यह सरकार उन के सामने घुंटने टेकती रही. कुर्सी के लालच ने राजनीतिवाजों को इतना नीचे गिरा दिया है कि खुल्लमखुल्ला दूसरे देश की वकालत करने वाले देश भक्त माने जाते हैं. राष्ट्रिय हितों की बात करने वाले अछूत करार दिए जाते हैं.