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Friday, 28 December 2007

देवभूमि हिमाचल में भी लहराया भगवा ध्वज


गुजरात में मोदी की रहनुमाई में विजय यात्रा पूरी करने के बाद भारतीय जनता पार्टी ने आज देवभूमि माने जाने वाले हिमाचल प्रदेश में भी भगवा परचम फहराया। राज्य में भाजपा ने कांग्रेस को करारी शिकस्त देते हुए स्पष्ट बहुमत से सत्ता छीन ली। भारतीय जनता पार्टी ने राज्य की 68 विधानसभा सीटों में से 41 पर कब्जा किया जबकि कांग्रेस सिर्फ 23 सीटों तक सिमट कर रह गई। एक पर बसपा और तीन पर निर्दलीय उम्मीदवार विजयी रहे। चुनावों में उतरने से पूर्व ही प्रो. प्रेम कुमार धूमल को अपने मुख्यमंत्री के तौर पर पेश कर उतरी भाजपा नेताओं ने गुजरात विजय के बाद ही विश्वास व्यक्त करना शुरू कर दिया था कि हिमाचल प्रदेश में भी उसकी ही सरकार बनेगी। मतदान के बाद एक्जिट पोल में भी भगवा सरकार बनने का इशारा मिला था। कांग्रेस को जहां राज्य में सत्ता विरोधी प्रभाव से उबरना था वहीं भाजपा के पास बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, राज्य की खराब होती वित्तीय व्यवस्था और कुछ सेवाओं पर इस्तेमाल शुल्क लगाए जाने के मुद्दों की फसल थी। राज्य में पहली बार पूरे कार्यकाल तक सरकार चलाने में सफल रही कांग्रेस के मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह रोहरू विधानसभा क्षेत्र से निर्वाचित हो गए लेकिन उनके मंत्रिमंडल के कई सदस्य अपनी सीटें नहीं बचा सके। सरकार के खेवनहारों की पराजय के कारण कांग्रेस को पिछली विधानसभा के मुकाबले 20 सीटों का नुकसान उठाना पड़ा। राज्य में किसी एक पार्टी के दोबारा शासन में आने का चलन 1971 में राज्य की स्थापना के बाद से ही बहुत कम रहा है। कांग्रेस ने हालांकि सबसे ज्यादा समय तक शासन किया है लेकिन उसका लगातार सबसे लंबा शासन 1982 से 1990 तक रहा।

धूमल को शनिवार को भाजपा के नवनिर्वाचित विधायकों की बैठक में विधायक दल का नेता चुना जायेगा। गुजरात के बाद हिमाचल प्रदेश में जीत के बाद अब भाजपा नेताओं का दावा है कि देश में अगली सरकार राजग की बनेगी और उनकी पार्टी आम चुनावों में सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरेगी। भाजपा की वरिष्ठ नेता सुषमा स्वराज ने पार्टी की जीत पर नई दिल्ली में कहा कि हिमाचल प्रदेश और गुजरात में पार्टी की जीत लोकसभा चुनावों से पहले का ट्रेलर है और कांग्रेस एवं संप्रग शासन की उलटी गिनती शुरू हो गई है। पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने कहा कि हिमाचल और गुजरात में चुनावी जीत के बाद मैं महसूस करता हूं कि देश की जनता इस निष्कर्ष पर पहुंच गई है कि सिर्फ भाजपा ही अच्छा शासन दे सकती है। हमीरपुर जिले की बामसान सीट पर कांग्रेस के कर्नल बीसी लगवाल को 26 हजार से अधिक मतों से पराजित करने वाले धूमल ने राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार से मतभेदों का खंडन करते हुए कहा कि उन्हें मुख्यमंत्री बनाने संबंधी फैसला आलाकमान ने कुमार की सहमति से लिया है।

भावी मुख्यमंत्री ने कहा हम साथ हैं, फैसला उनकी सहमति से लिया गया। उन्होंने कांग्रेस पर विशेष तौर पर विकास के मोर्चे सहित सभी क्षेत्रों में जनता को गुमराह करने का आरोप लगाया। मंत्रिमंडल में शामिल विद्या स्टोक्स सहित कई सदस्यों को हार का सामना करना पड़ा। वन मंत्री रामलाल ठाकुर और उद्योग मंत्री कुलदीप कुमार को क्रमश: कोटकहलूर और गगरेत सीटों पर भाजपा उम्मीदवारों के हाथों पराजय का स्वाद चखना पड़ा। सोलन जिले की अरकी सीट से किस्मत आजमा रहे दस जनपथ के पूर्व रसोइए पदम राम के पुत्र प्रकाश चंद कराद को पराजय का सामना करना पड़ा। इस सीट पर भाजपा के गोविंद राम विजयी हुए। कांग्रेस का टिकट नहीं मिलने पर निर्दलीय के तौर पर उतरे विधानसभा उपाध्यक्ष धरमपाल ठाकुर दूसरे स्थान पर रहे। भाजपा को 2003 के चुनावों में सिर्फ 16 सीटों पर कामयाबी मिली थी जबकि कांग्रेस ने 43 सीटें जीती थीं।

उत्तर प्रदेश की सोशल इंजीनियरिंग को राज्य में आजमाने 67 सीटों पर उतरी बसपा के प्रदेश अध्यक्ष विजय सिंह मनकोटिया सहित उसके 65 उम्मीदवारों को पराजय का सामना करना पड़ा। मनकोटिया कांग्रेस छोड़कर बसपा में शामिल हुए थे। पार्टी को एकमात्र सफलता मिली जब पार्टी उम्मीदवार संजय चौधरी कांगडा से विजय हासिल करने में सफल रहे। राज्य में कुल 336 उम्मीदवार मैदान में थे। भाजपा ने सभी 68 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे जबकि कांग्रेस ने 67 प्रत्याशी मैदान में खड़े किए थे। दलित वोट बैंक पर बसपा का एकाधिकार नहीं बनने देने के प्रयास में लगी केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान की पार्टी लोजपा ने 40 सीटों पर उम्मीदवार उतारे पर उसकी झोली खाली रही। उत्तार प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव की सपा ने भी 12 उम्मीदवार खड़े किए थे जबकि शरद पवार की राकांपा ने चार प्रत्याशियों को टिकट दिया था। 58 निर्दलीय चुनाव मैदान में थे जिनमें से मात्र तीन को कामयाबी मिली। राज्य में दो चरणों में मतदान कराया गया था। पहले चरण में 14 नवंबर को लाहौल स्पीति, किन्नौर और भरमौर की आदिवासी सीटों के लिए मतदान हुआ था। 19 दिसंबर को दूसरे चरण में शेष 65 सीटों पर वोट डाले गए थे। मतगणना आज सुबह आठ बजे से शुरू हुई और तीन घंटे के भीतर ही परिणाम आने का सिलसिला शुरू हो गया। राज्य में पार्टी की जीत का संकेत मिलने के साथ ही भाजपा कार्यकर्ता जश्न में डूबने लगे और जैसे-जैसे पार्टी की सीटों की संख्या बढ़ने लगी वैसे-वैसे कार्यकर्ताओं का जोश बढ़ता चला गया और नेताओं ने सरकार गठन के लिए पहल कर दी। स्रोत: प्रभासाक्षी ब्यूरो

यूपीए सरकार के पतन की शुरुआत: सुषमा स्वराज


भारतीय जनता पार्टी की वरिष्ठ नेता सुषमा स्वराज ने कहा है कि केन्द्र से संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के पतन की शुरुआत हो चुकी है। वह हिमाचल प्रदेश में भाजपा की जीत पर प्रतिक्रिया व्यक्त कर रही थीं। उन्होंने कहा कि इस साल पहले उत्तराखण्ड और पंजाब और फिर गुजरात तथा अब हिमाचल प्रदेश में भाजपा की जीत से साबित हो गया है कि संप्रग सरकार से निराश जनता भाजपा की ओर देख रही है।

उन्होंने कहा कि अब अगला लक्ष्य कर्नाटक विधानसभा चुनाव हैं तथा अगले वर्ष होने वाले सभी विधानसभा चुनावों के लिए भी पार्टी ने कमर कस ली है। स्वराज ने कहा कि वैसे तो लोकसभा चुनाव 2009 में होने हैं लेकिन यदि उससे पहले भी चुनाव हो जाते हैं तो पार्टी अपनी तरफ से पूरी तरह तैयार है। उन्होंने कहा कि इस सरकार से किसान, मजदूर, मध्यमवर्ग समेत हर वर्ग के लोग परेशान हैं और इस सरकार को उखाड़ फेंकना चाहते हैं।

उन्होंने कहा कि यह कहना कि अगले वर्ष राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनावों में भाजपा हार जाएगी, गलत है क्योंकि यहां पर पार्टी चुनावी तैयारी शुरू कर चुकी है। स्वराज ने कहा कि अगले वर्ष होने वाले दिल्ली विधानसभा चुनाव भी हम जीतेंगे और उसके बाद बड़ी दिल्ली यानि केन्द्र में भी भाजपा ही सरकार बनाएगी। स्रोत: प्रभासाक्षी ब्यूरो

कांग्रेस से लोगों का मोहभंग हो गया: राजनाथ सिंह


भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनावों में पार्टी को मिली जीत से उत्साहित होकर कहा है कि अब लोगों का कांग्रेस से मोहभंग हो चुका है। उन्होंने पार्टी कार्यकर्ताओं को जीत की बधाई देते हुए कहा कि हमें जीत का जश्न तो मनाना चाहिए लेकिन अति उत्साह में नहीं आकर अभी से लोकसभा चुनावों की तैयारी में जीजान से जुट जाना चाहिए।

उन्होंने कहा कि केन्द्र सरकार पैकेजों की घोषणा धार्मिक आधार पर करती है जिससे जनता में गलत संदेश जा रहा है और अब उसका इस सरकार से मोहभंग हो चुका है। भाजपा अध्यक्ष ने कहा कि महंगाई, आतंकवाद और तुष्टिकरण की नीति के कारण जनता परेशान है जिससे वह भाजपा की ओर आशा भरी निगाह से देख रही है। स्रोत: प्रभासाक्षी ब्यूरो

हिमाचल प्रदेश में भी खिला कमल


गुजरात के बाद हिमाचल प्रदेश में भी बीजेपी का कमल खिल गया है। हिमाचल प्रदेश में विधानसभा चुनाव के सभी 68 सीटों के रुझान या नतीजे मिल चुके हैं। बीजेपी 41 सीट जीती है। जबकि राज्य में सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी को 23 सीटों पर सफलता मिली है। 3 सीट निर्दलीयों की झोली में गई है और एक पर बीएसपी ने बाजी मारी है।
बीजेपी की ओर से पहले ही मुख्यमंत्री के उम्मीदवार घोषित किए जा चुके प्रेम कुमार धूमल बमसान से जीत गए हैं। संभावना जताई जा रही है कि वह 30 दिसंबर को शपथ लेंगे। शनिवार को बीजेपी के विधायक दल की बैठक होगी जिसमें धूमल को औपचारिक रूप से विधायक दल का नेता चुना जाएगा। शिमला जिले के रोहरू विधानसभा क्षेत्र में मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह ने अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी बीजेपी के खुशीराम बलनाताह को हरा दिया है। बीजेपी के मुख्यमंत्री पद के दावेदार प्रेम कुमार धूमल ने हमीरपुर जिले के बमसान विधानसभा क्षेत्र में अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी कांगेस के बी.सी. लगवाल को हराया। इन चुनावों में बीजेपी ने सभी 68 सीटों पर अपने उम्मीदवार लड़ाए थे , जबकि कांग्रेस ने 67, एलजेपी ने 40 और समाजवादी पार्टी ने 12 उम्मीदवार खड़े किए थे। चुनावों में 58 निर्दलीयों ने भी भाग्य आजमाया है।

हिमाचल के नतीजे से भाजपा में उत्साह

नई दिल्ली। गुजरात के बाद हिमाचल प्रदेश में जीत से उत्साहित भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने कहा कि जनता कांग्रेस से पूरी तरह से तंग आ चुकी है। वह भाजपा को ही विकल्प के तौर पर देखती है इसलिए कार्यकर्ता लोकसभा चुनाव के लिए कमर कस लें।

भाजपा अध्यक्ष ने कहा कि पहले गुजरात और अब हिमाचल प्रदेश में पार्टी को मिली जीत से स्पष्ट हो जाता है लोग भाजपा को आशा भरी नजरों से देख रहे हैं। महंगाई, अल्पसंख्यक तुष्टीकरण तथा सुरक्षा की लचरता के कारण लोगों का कांग्रेस से मोह भंग हो गया है। उन्होंने कहा कि अगर किसी को विशेष पैकेज दिया जाता है तो वह धर्म के आधार पर नहीं बल्कि आर्थिक पिछड़ेपन और गरीबी के आधार पर दिया जाना चाहिए। राजनाथ ने हिमाचल की जीत पर भाजपा कार्यकर्ताओं को बधाई देते हुए कहा कि अब सभी कार्यकर्ताओं को लोकसभा चुनाव की तैयारी के लिए जी जान से जुट जाना चाहिए।

उधर, भाजपा ने कहा कि गुजरात और हिमाचल प्रदेश में पार्टी को मिली विजय तो अभी लोकसभा चुनावों में मिलने वाली उस सफलता का ट्रेलर भर है, जिसमें लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में केंद्र में भगवा दल की सरकार बनेगी।

भाजपा के पक्ष में रहे हिमाचल चुनावों के रुझानों से उत्साहित भाजपा संसदीय दल की प्रवक्ता सुषमा स्वराज ने कहा कि केंद्र में कांग्रेस और संप्रग की उलटी गिनती शुरू हो गई है। हिमाचल की चुनावी विजय तो लोकसभा चुनाव में मिलने वाली सफलता का ट्रेलर मात्र है। पार्टी के प्रवक्ता राजीव प्रताप रुडी ने कहा कि भाजपा का ग्राफ तेजी से बढ़ रहा है। आने वाले दिनों में लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में कें द्र में भाजपा की सरकार बनेगी।

पहाड़ पर लहराया केसरिया परचम

गुजरात के बाद हिमाचल में भी केसरिया परचम का लहराना केंद्र की यूपीए सरकार को सकते में लाने के लिए काफी है। हालांकि केंद्रीय राजनीति में हिमाचल की खास भूमिका नहीं रही फिर भी इस जीत का दूरगामी प्रभाव केंद्र की राजनीति पर पड़ने की पूरी संभावना है। हिमाचल विधानसभा चुनाव के परिणाम से जहां भाजपा का मनोबल बढ़ा है वहीं कांग्रेस उत्तर प्रदेश और गुजरात में खराब प्रदर्शन के बाद हिमाचल से भी अपना किला गंवाने के बाद हताश है। इससे पहले इस साल के शुरुआत में एक और पहाड़ी राज्य उत्तराखंड की सत्ता भी भाजपा ने कांग्रेस से छीन ली थी।

हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र के एसोसिएट प्रोफेसर उमेश चौहान इस चुनाव परिणाम को एंटी इनकम्बेंसी फैक्टर मानते हुए कहते हैं कि यदि 1985 के बाद के चुनाव परिणामों पर नजर डालें तो हरेक पांच साल बाद यहां सत्ता बदलती रही है। कांग्रेस ने अपनी तरफ से विकास को मुद्दा बनाने की कोशिश की लेकिन उसे असफलता मिली। प्रो.चौहान ने कहा कि सत्तारूढ़ दल अक्सर विकास को मुद्दा बनाने की कोशिश करता है लेकिन इसमें अहम बात ये है जनता विकास को किस तरह से समझती है। विकास में बेजरोजगारी से लेकर तमाम तरह की चीजें शामिल होती हैं। हिमाचल प्रदेश में देखें तो साक्षरता में वृद्धि तो हुई है लेकिन बेरोजगारी बढ़ी है। हिमाचल में कुछ औद्योगिक इकाईयां भी आई हैं जिसका सीधा लाभ आमलोगों को नहीं हुआ। भष्ट्राचार पर लगाम नहीं लगाया जा सका जिसका नतीज कांग्रेस को भुगतना पड़ा।

लगातार हार की ठोकर ने कांग्रेस पार्टी को एक बार फिर अपने गिरेबान में झांकने को मजबूर कर दिया है। सोनिया का करिश्माई नेतृत्व भी कामयाब नहीं हो पा रहा है। गुजरात की जीत पर जहां नरेंद्र मोदी के व्यक्त्तिव का जादू चला वहीं हिमाचल में भाजपा की जीत एंटी इनकैंबेंसी फैक्टर के कारण मानी जा रही है। हिमाचल में गुजरात की तरह मौत का सौदागर या सोहराबुद्दीन जैसे शब्दों के हथियार नहीं चले। यहां सत्ता के प्रति लोगों में आक्रोश था जिसे उन्होंने अपने मतों से जाहिर कर दिया। भाजपा भी शुरुआती असमंजस के बाद प्रेम कुमार धूमल को मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट करके साहसी फैसला लिया, जो सही साबित हुआ। नीरज कुमार दैनिक भास्कर

हिमाचल में भाजपा को पूर्ण बहुमत


28 दिसम्‍बर 2007 एजेंसियां जोश18.काम शिमला।

हिमाचल प्रदेश विधानसभा की 68 सीटों में से 41 सीटें जीतकर भारतीय जनता पार्टी ने पूर्ण बहुमत हासिल कर लिया है। राज्‍य में कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा। उसके खाते में 23 सीटें आई है। राज्‍य में बहुजन समाज पार्टी को एक सीट मिली है। जबकि अन्‍य को 3 सीटें मिली हैं।
भाजपा के प्रेम कुमार धूमल का मुख्‍यमंत्री बनना लगभग तय है। वे बमसन विधानसभा सीट से निर्वाचित घोषित किए गए। मुख्‍यमंत्री और कांग्रेस उम्‍मीदवार वीरभद्र सिंह रोहडू विधानसभा सीट से चुनाव जीत गए हैं। राज्य के 65 विधानसभा चुनाव क्षेत्रों में 19 दिसम्बर को तथा किन्नौन, लाहौल स्पीती और भरमौर जनजातीय क्षेत्रों में 14 नवंबर को दो चरणों में मतदान हुआ था।
भाजपा ने मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार प्रेम कुमार धूमल के नेतृत्व में सभी 68 सीटों पर चुनाव लड़ा था। वहीं सत्तारूढ़ कांग्रेस मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के नेतृत्व में 67 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ा।

अंतिम दलीय स्थिति भाजपा 41 कांग्रेस 23 बसपा 1 अन्‍य 3 कुल सीट 68

Wednesday, 26 December 2007

वामपंथियों का इतिहास


राष्ट्र के हर महत्वपूर्ण मोड़ पर वामपंथी मस्तिष्क की प्रतिक्रिया राष्ट्रीय भावनाओं से अलग ही नहीं उसके एकदम विरूध्द रही है। गांधीजी के भारत छोड़ो आंदोलन के विरूध्द वामपंथी अंग्रेजों के साथ खड़े थे। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को 'तोजो का कुत्ता' वामपंथियों ने कहा था। मुस्लिम लीग की देश विभाजन की मांग की वकालत वामपंथी कर रहे थे। आजादी के क्षणों में नेहरूजी को 'साम्राज्यवादियों' का दलाल वामपंथियों ने घोषित किया। भारत पर चीन के आक्रमण के समय वामपंथियों की भावना चीन के साथ थी। अंग्रेजों के समय से सत्ता में भागीदारी पाने के लिए वे राष्ट्र विरोधी मानसिकता का विषवमन सदैव से करते रहे। कम्युनिस्ट सदैव से अंतरराष्ट्रीयता का नारा लगाते रहे हैं। वामपंथियों ने गांधीजी को 'खलनायक' और जिन्ना को 'नायक' की उपाधि दे दी थी। खंडित भारत को स्वतंत्रता मिलते ही वामपंथियों ने हैदराबाद के निजाम के लिए लड़ रहे मुस्लिम रजाकारों की मदद से अपने लिए स्वतंत्र तेलंगाना राज्य बनाने की कोशिश की। वामपंथियों ने भारत की क्षेत्रीय, भाषाई विविधता को उभारने की एवं आपस में लड़ने की रणनीति बनाई। 24 मार्च, 1943 को भारत के अतिरिक्त गृह सचिव रिचर्ड टोटनहम ने टिप्पणी लिखी कि ''भारतीय कम्युनिस्टों का चरित्र ऐसा कि वे किसी का विरोध तो कर सकते हैं, किसी के सगे नहीं हो सकते, सिवाय अपने स्वार्थों के।'' भारत की आजादी के लिए लड़ने वाले गांधी और उनकी कांग्रेस को ब्रिटिश दासता के विरूध्द भूमिगत आंदोलन का नेतृत्व कर रहे जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया, अच्युत पटवर्धन जैसे देशभक्तों पर वामपंथियों ने 'देशद्रोही' का ठप्पा लगाया।

Sunday, 23 December 2007

विचार और विकास के गठजोड़ से मिली गद्दी!


मुंबई. गुजरात की जनता के मतों से भारतीय राजनीति के चुनावी समाजशास्त्र में फिर एक योग घटित हुआ है। भाजपा ने एक बार फिर चुनाव पूर्व तमाम दावों और संभावनाओं को खारिज करते हुए गुजरात में स्पष्ट बहुमत हासिल कर ली है।

विचारधारा और विकास का गठजोड़ मोदी की इस जीत को विभिन्न नजरियों से देखा जा रहा है। दिल्ली यूनिवर्सिटी में राजनीतिशास्त्र के प्रोफेसर राकेश सिन्हा का मानना है कि यह विचारधारा और विकास के गठजोड़ की जीत है। एकात्ममानववाद के प्रस्फुटिकरण के लिए इन दोनों का गठजोड़ होना आवश्यक है। नरेंद्र मोदी ने गुजरात में बगैर किसी अपराधबोध के विचारधारा और विकास के गठजोड़ के साथ कार्य किया जिसके फलस्वरूप उन्हें बड़ी सफलता मिली।

विकास के कामों में उनकी ईमानदारी ने एंटी इंक्म्बेंसी फैक्टर को रोके रखा। राकेश सिन्हा ने कहा कि गुजरात में सोनिया गांधी की व्यक्तिगत हार भी हुई क्योंकि प्रदेश स्तर पर मोदी का मुकाबला करने के लिए कोई कद्दावार नेता नहीं था, और चुनाव की कमान सोनिया गांधी ने संभाल रखी थी। उन्होंने कहा कि उत्तर प्रदेश के बाद गुजरात चुनाव में राहुल गांधी की दूसरी हार है।

प्रोफेसर सिन्हा ने कहा कि गुजरात के चुनाव परिणाम से इस बात को बल मिलता है कि गुजरात की जनता ने हिंदुत्व के राजनीतिक स्वरूप को स्वीकार किया है। मोदी को मिले व्यापक जनसमर्थन का एक कारण उनके आतंकवाद विरोधी सख्त तेवर को मानते हुए प्रो. सिन्हा ने कहा कि नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रवादी स्वर को पहले से अधिक मुखर किया है। प्रो. सिन्हा का कहना है कि नरेंद्र मोदी की सरकार ने तुष्ष्टिकरण पर आधारित कांग्रेस की पूर्व व्यवस्था को खत्म किया।

दिल्ली यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र के पूर्व प्रोफेसर विनोद प्रसाद सिंह का मानना है कि गुजरात में कांग्रेस ने भी वही कार्ड खेला जिसका मुकाबला कर पाने में मोदी माहिर रहे हैं। कांग्रेस को बुनियादी मुद्दों पर बात करनी चाहिए थी। इससे परिणाम बहुत हद तक बदल सकते थे। हालांकि प्रो. सिंह का मानना है कि मोदी ने गुजरात में विकास का काम किया है लेकिन वह अभी आम आदमी के पूरे हक में नहीं आ सका है।

इस परिणाम से भाजपा में नरेंद्र मोदी का कद काफी बढ़ गया है। मोदी ने यह जीत भाजपा के कद्दावर नेताओं के विरोध के बावजूद हासिल की है। जहां एक ओर भाजपा के असंतुष्ट नेता मोदी के राजनीतिक भविष्य को मटियामेट करने पर तुले थे वहीं मोदी ने इस चुनौती को भी सहजता से लिया और अपने स्टैंड पर कायम रहे। वे सभी मुद्दे जो मोदी के वोटों को काटने के लिए छेड़े गए थे, उसे भी मोदी ने अपने पक्ष में कर लिया। सोनिया गांधी द्वारा मौत का सौदागर कहने पर उन्होंने सोहराबुददीन सहारा लिया और जनसमर्थन को अपने पक्ष में करने में कामयाब रहे। साभार- दैनिक भास्‍कर

27 दिसं को मुख्यमंत्री पद की शपथ लेंगे मोदी


अहमदाबाद (भाषा)। गुजरात विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने नरेन्द्र मोदी की रणनीति के सहारे शानदार प्रदर्शन करते हुए स्पष्ट बहुमत के साथ लगातार चौथी बार सत्ता पर कब्जा जमा लिया है। मोदी 27 दिसंबर को तीसरी बार राज्य के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेंगे।


182 सदस्यीय विधानसभा के मात्र आठ नतीजे आने शेष हैं और अब तक मिले परिणामों के अनुसार भाजपा ने 111 सीटों पर जीत हासिल की है। बहुत संभव है कि सदन में भाजपा दो तिहाई बहुमत से थोड़ा पीछे रह जाए। पिछले विधानसभा चुनाव में 127 सीट हासिल करने वाली भाजपा की इस जीत को 57 वर्षीय मुख्यमंत्री के करिश्माई व्यक्तित्व पर जनता की मोहर के रूप में देखा जा रहा है। चुनाव प्रचार अभियान के दौरान नरेन्द्र मोदी की सरकार पर हमला बोलने वाले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने नतीजे आने के बाद मुख्यमंत्री से फोन पर बात की और उन्हें जीत की बधायी दी। नतीजों की पृष्ठभूमि में स्थिति का जायजा लेने के लिए भाजपा संसदीय बोर्ड की आज शाम दिल्ली में बैठक हो रही है।


27 दिसंबर को मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने जा रहे मोदी ने मणिनगर में अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी और केन्द्रीय मंत्री दिनशा पटेल को 87 हजार मतों से मात दी है। मोदी ने पार्टी के बागियों को भी करारा जवाब दिया और सौराष्ट्र क्षेत्र की 63 में से 45 सीटें भाजपा के खाते में गयीं। दंगों के सबसे अधिक चपेट में आने वाले मध्य गुजरात में भाजपा कुछ सीटों पर कांग्रेस के हाथों शिकस्त खा बैठी लेकिन बाकी जगहों पर उसका प्रदर्शन शानदार रहा। पार्टी ने उत्तर और दक्षिणी गुजरात में कांग्रेस को पछाड़ दिया। चुनाव हारने वाले कांग्रेस के प्रमुख चेहरों में पूर्व उप मुख्यमंत्री नरहरि अमीन (मतार) तथा भाजपा के बागी बेछार बदानी प्रमुख रहे। बदानी ने लाठी विधानसभा सीट पर कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ा था। मोदी मंत्रिमंडल के चुनाव जीतने वाले उम्मीदवारों में अशोक भट्ट आनंदीबेन पटेल तथा रमनलाल वोरा प्रमुख रहे। राकांपा के प्रदेश प्रमुख जयंत पटेल बोस्की भी सारसा से चुनाव जीतने में सफल रहे। भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार लालकृष्ण आडवाणी ने कहा कि राष्ट्रीय राजनीति में पार्टी की यह जीत एक निर्णायक मोड़ है और यह पार्टी की केन्द्र में वापसी का संकेत भी है।

गुजरात का जनादेश


गुजरात विधानसभा के लिए हुए चुनावों में भारतीय जनता पार्टी ने साफ बहुमत हासिल कर लिया है। पार्टी को राज्य में 117 सीटें हासिल हुई हैं जो पिछली बार से 10 कम हैं। इसके बावजूद भाजपा ने गुजरात में धमाकेदार जीत दर्ज की है। हालांकि मतगणना से पहले हुए विभिन्न सर्वेक्षणों में पार्टी की जीत को तो तय माना जा रहा था लेकिन इतने बड़े अंतर से जीत होगी, यह किसी को नहीं लगा था। अलबत्ता, चुनाव नतीजों ने गुजरात में नरेंद्र मोदी की ताकत का अहसास करा दिया है।
गुजरात विधानसभा की 182 सीटों के लिए चुनाव हुए थे। इन सभी स्थानों के नतीजे आ गए हैं जिनमें से 117 भाजपा और 62 कांग्रेस के पक्ष में गए हैं। अन्य दलों और उम्मीदवारों को 3 स्थान मिले। प्रदेश विधानसभा में बहुमत हासिल करने के लिए 92 सीटों की जरूरत थी।मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने मणिनगर से 87 हजार से भी अधिक मतों से जीत दर्ज कर अपनी मजबूत स्थिति का अहसास करा दिया है। उन्होंने केन्द्रीय मंत्री दिन्शा पटेल को शिकस्त दी। मोदी के मंत्रिमंडलीय सहयोगी रमनलाल वोहर (समाज कल्याण), वजुभाई वाला (वित्ता) तथा आनंदीबेन पटेल (शिक्षा) चुनाव जीत गए हैं। मोदी के नेतृत्व में पार्टी ने लगातार दूसरा विधानसभा चुनाव जीता है। स्रोत: प्रभासाक्षी ब्यूरो

गुजरात में लहराया केसरिया -दैनिक जागरण


अहमदाबाद। गुजरात में आजादी के बाद से लड़ी गई सत्ता की अब तक की सबसे तीखी लड़ाई में अंतत: मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को जनता ने विजयश्री का वरण करा दिया। जनता की जय जय के साथ ही कांग्रेस को भी हारकर उनकी जयजय करनी पड़ी।

हालांकि भाजपा को सीटों का घाटा उठाना पड़ा लेकिन बहुमत के लिए जरूरी 92 के मुकाबले सीटों पर कब्जा कर लगातार तीसरी बार वह सरकार बनायेगी। विधानसभा की कुल 182 सीटों में से अब तक 106 सीटों पर कब्जा कर भाजपा ने भगवा गढ़ फतह करने के कांग्रेस के मंसूबों को धूल धूसरित कर दिया। संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी के नेतृत्व में मोदी को चुनौती दे रही पार्टी को मुकाबला नजदीकी होने की उम्मीद थी और हर दौर के मतदान के बाद एक्जिट पोल के नतीजों से उसकी आशा बढ़ रही थी लेकिन अब तक उसे केवल 55 सीटें ही मिली हैं। अन्य मात्र 4 सीट जीतने में सफल रहे है।

वर्ष 2002 में गोधरा दंगों के बाद हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 127 तथा कांग्रेस ने 51 सीटें जीती थीं और इस बार भले ही कांग्रेस की सीटों में कुछ इजाफा हो रहा हो लेकिन दोनों दलों में जीत का अंतर काफी रहेगा।

गुजरात में मुख्यमंत्री पद की हैट्रिक के संकेत मिलने के साथ ही मोदी ने अपने अंदाज में प्रसन्नता जताते हुए कहा कि वह सीएम हैं और सीएम रहेंगे।

भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने गुजरात में जबर्दस्त कामयाबी के बाद इन सुझावों को खारिज कर दिया कि मोदी को केंद्रीय राजनीति में लाया जाएगा और साफ तौर पर कहा कि लालकृष्ण आडवाणी पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बने रहेंगे।

मोदी तीसरी बार राज्य के मुख्यमंत्री पद की शपथ 27 दिसंबर को लेंगे। मणिनगर से 87 हजार से भी अधिक मतों से जीत दर्ज कर अपनी मजबूत स्थिति का अहसास करा दिया है। उन्होंने केंद्रीय मंत्री ढींढसा पटेल को शिकस्त दी है।

शुरूआती रुझानों के बीच ही नरेंद्र मोदी ने एसएमएस संदेश में कहा कि वह सीएम हैं और सीएम रहेंगे। उन्होंने सीएम का मतलब स्पष्ट करते हुए कहा कि इसका अर्थ कामन मैन है।

मोदी के मंत्रिमंडलीय सहयोगी रमनलाल वोहरा वजुभाई वाला (वित्त) तथा आनंदीबेन पटेल (शिक्षा) चुनाव जीत गए हैं।

दिल्ली से मिली खबरों के अनुसार भाजपा मुख्यालय में जहां जश्न का माहौल है वहीं मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने घुटने टेकते हुए न केवल अपनी हार स्वीकार कर ली बल्कि मोदी को बधाई दी है।

भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने चुनाव परिणामों को पार्टी की विचारधारा की जीत और मोदी के नेतृत्व में पार्टी कार्यकर्ताओं की मेहनत का परिणाम बताया वहीं भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार लालकृष्ण आडवाणी ने कहा कि गुजरात चुनावों का राष्ट्रीय राजनीति पर दूरगामी प्रभाव पड़ेगा। उन्होंने पार्टी कार्यकर्ताओं से लोकसभा चुनावों की तैयारी में जुट जाने का भी आह्वान किया।

कांग्रेस ने गुजरात में अपनी पराजय पूरे नतीजे आने से पहले ही स्वीकार कर ली और उसके प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने दिल्ली में संवाददाताओं से कहा कि नरेंद्र मोदी की महान विजय है यह उल्लेखनीय जीत है। उनकी जीत पर मुझे कोई ईर्ष्‍या नहीं है।

मोदी का करिश्‍माई सफर


23 दिसम्‍बर 2007 सीएनएन-आईबीएन नई दिल्‍ली।
उत्‍तरी गुजरात के वड़नगर में 17 सितम्‍बर 1950 को जन्‍में नरेन्‍द्र मोदी का राजनीतिक सफर राष्‍ट्रीय स्‍वंय सेवक संघ के प्रचारक के रूप में शुरू हुआ। उन्‍हें वर्ष 1972 में प्रचारक के रूप में हिमाचल प्रदेश के कागड़ा भेजा गया। उनके संगठन कौशल को देखते हुए वर्ष 1984 में उन्‍हें भाजपा में प्रवेश मिला। भाजपा के वरिष्‍ठ नेता लालकृष्‍ण आडवाणी के ‘प्रिय’ मोदी ने उनकी सोमनाथ यात्रा में जमकर हिस्‍सेदारी ली। वर्ष 1992 में उन्‍हें पार्टी का महासचिव बनाकर गुजरात का प्रभार सौंपा गया।

वर्ष1995 में उन्‍होंने गुजरात में विधानसभा चुनाव प्रचार का प्रभारी बनाया गया। इस चुनाव में राज्‍य में भाजपा को विजयश्री हासिल हुई। इसके बाद मोदी को पार्टी का राष्‍ट्रीय महासचिव बनाया गया। वर्ष 2001 में उनकी जिंदगी में उस वक्‍त नया मोड़ आया जब उन्‍हें पार्टी के केन्‍द्रीय नेतृत्‍व ने मुख्‍यमंत्री केशुभाई पटेल की जगह गुजरात के मुख्‍यमंत्री पद की कुर्सी सौंप दी।

गोधरा कांड के बावजूद गुजरात की 11वीं विधानसभा के चुनावों में कांग्रेस का पत्‍ता साफ कर उन्‍होंने साबित कर दिया कि वे राजनीति के एक बड़े खिलाड़ी हैं। मोदी ने अपनी जीत को गुजरात की अस्मिता से जोड़कर रख दिया। उन्‍होंने कहा कि यह उनकी नहीं बल्कि गुजरात की 5 करोड़ जनता की जीत है। जब सोनिया गांधी ने उन्‍हें ‘मौत का सौदागर’ की उपाधि दी तो उन्‍होंने पलटवार करते हुए कहा कि मैं नहीं बल्कि कांग्रेसी पार्टी ‘मौत का सौदागर’है। उनका करिश्‍मा इस बार के चुनाव में भी साफ तौर पर दिखाई दिया। अब लोग उन्‍हें प्रधानमंत्री पद का उम्‍मीदवार भी बता रहे हैं। साभार- जोश18 डॉट कॉम

गुजरात में नकारात्मकता हारी: मोदी


अहमदाबाद: गुजरात परिणामों को नकारात्मकता की हार और सकारात्मकता की जीत बताते हुए मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सभी राजनीतिक दलों से स्वर्णिम गुजरात बनाने के लिए सहयोग की अपील की।

चुनाव परिणामों की सभी अटकलों के मुंह के बल गिरने के बाद अपने पहले संवाददाता सम्मेलन में मोदी ने अपनी जीत को 'जीतेगा गुजरात' मंत्र की जीत बताया और कहा, 'यह सकारात्मक वोट है। सरकार को दोबारा लाने का वोट है। अनेक नकारात्मक प्रचार किए गए नई तरकीबें अपनाई गईं। नए शब्दों के इस्तेमाल के बावजूद जनता ने नकारात्मकता को नकार दिया और सकारात्मकता के पक्ष में फैसला दिया।'

मोदी के चेहरे पर जीत की खुशी साफ झलक रही थी मोदी ने अपने संक्षिप्त संबोधन में कहा कि गुजरात की जनता ने गुजरात विरोधी सभी ताकतों को परास्त कर दिया और 'जीतेगा गुजरात' मंत्र को बल दिया है। उल्लेखनीय है कि कांग्रेस के 'चक दे गुजरात' चुनावी नारे के मुकाबले में बीजेपी ने 'जीतेगा गुजरात' नारा दिया था। तीसरी बार राज्य में मुख्यमंत्री बनने जा रहे मोदी ने मतदान से कुछ पहले उनके खिलाफ बगावत करने वाले पूर्व मुख्यमंत्री और पार्टी के वरिष्ठ नेता केशुभाई पटेल द्वारा बधाई दिए जाने के बारे में पूछे जाने पर कहा - मैं एडवांस में ही सबको धन्यवाद कर चुका हूं। इस बारे में बार-बार पूछे जाने पर उन्होंने केशुभाई का नाम लिए बिना कहा -मैं सभी की बधाई लेता हूं। प्रधानमंत्री ने बधाई दी है। विभिन्न राजनीतिक दलों की बधाई मिली है।

संवाददाताओं को माध्यम बनाते हुए उन्होंने कहा कि आप भी बधाई देंगे तो मैं स्वीकार करूंगा लेकिन आप पीड़ित हैं तो अलग बात है। मोदी ने कहा कि 2010 गुजरात की स्थापना का स्वर्ण जयंती वर्ष है और इसे लेकर वह आगे बढ़ना चाहते हैं। उन्होंने सभी राजनीतिक दलों गुजरात प्रेमी नागरिकों और देश विदेश में रहने वाले गुजरातियों से गुजरात को स्वर्णिम बनाने में सहयोग देने की अपील की।

गुजरात परिणाम केंद्र में भाजपा की वापसी का सबूत : आडवाणी


नयी दिल्ली (भाषा)। गुजरात विजय को केंद्र में पार्टी की वापसी का संकेत मानते हुए भाजपा के वरिष्ठ नेता और पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार लालकृष्ण आडवाणी ने आज अपने कार्यकर्ताओं से लोकसभा चुनाव की तैयारी में जुट जाने का आह्वान किया।

आडवाणी ने कहा कि गुजरात में भाजपा की जीत और हिमाचल प्रदेश में सुनिश्चित विजय (जिसके लिए मतगणना 28 दिसंबर को होगी) से मुझे पूरा विश्वास है कि हम वास्तव में साबित करेंगे कि भाजपा की वापसी हो रही है।आडवाणी ने एक बयान जारी कर कहा कि मौत का सौदागर और अन्य आरोप लगाकर नरेन्द्र मोदी को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बदनाम करने की कोशिश की गयी जिसका गुजरात की जनता ने उचित जवाब दे दिया है। उन्होंने कहा कि मैं कांग्रेस नेतृत्व और अन्य दलों से अपील करता हूं कि कम से कम अब से वे भविष्य में इस तरह की राजनीति से तौबा कर लें। मुझे उम्मीद है कि वे आत्‍मनिरीक्षण करेंगे और गुजरात की पराजय से सही सबक सीखेंगे।

पार्टी की विचारधारा के चलते जीत हुई: राजनाथ


भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने कहा है कि गुजरात के चुनावों में पार्टी की जीत उसकी विचारधारा और राज्य में मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के कुशल नेतृत्व की जीत है।

राजनाथ सिंह ने दिल्ली में भाजपा मुख्यालय में पत्रकारों को संबोधित करते हुए गुजरात के चुनाव नतीजों के लिए जनता के प्रति आभार जताया। उन्होंने अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं को चुनावी जीत के लिए बधाई दी।श्री सिंह ने कहा कि गुजरात में भाजपा के चौथी बार सत्ताा में आने के पीछे भारतीय जनता पार्टी की विचारधारा और नरेंद्र मोदी के नेतृत्व की जीत है। उन्होंने कहा कि गुजरात के चुनाव नतीजों ने यह संकेत दे दिया है कि अगर देश में कोई पार्टी सुशासन उपलब्ध करा सकती है तो वह भाजपा है। उन्होंने कहा कि श्री मोदी के नेतृत्व में भाजपा सरकार ने गुजरात को विकास के 'मॉडल राज्य' के रूप में विकसित किया है। मतदाताओं ने इसी वजह से पार्टी को जीत दिलाई। स्रोत: प्रभासाक्षी ब्यूरो

सीएम हूं, सीएम रहूंगा: नरेंद्र मोदी का एसएमएस


गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने आज 'मुख्यमंत्री हूं- मुख्यमंत्री रहूंगा' का एसएमएस जारी कर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कटाक्ष का जवाब दिया।


प्रधानमंत्री ने पिछले दिनों गुजरात चुनाव प्रचार के दौरान कहा था कि विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी को भाजपा ने नरेन्द्र मोदी के डर से लोकसभा चुनाव से पहले ही प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया है। इस बीच राजनीतिक खेमों में ऐसी अटकलें जाहिर की जाने लगी थीं कि दो बार राज्य के मुख्यमंत्री रह चुके मोदी गुजरात में पार्टी की जीत सुनिश्चित करने के बाद शायद केन्द्र की राजनीति में जाना पसंद करेंगे। लेकिन श्री मोदी ने आज यह एसएमएस जारी कर इन अटकलों पर विराम लगा दिया।


नरेंद्र मोदी ने अपने एसएमएस में सीएम का अर्थ समझाते हुए कहा है सीएम मतलब कामन मैन। मोदी के इस अप्रत्याशित एसएमएस के बारे में पूछे जाने पर भाजपा संसदीय दल के नेता विजय कुमार मल्होत्रा ने कहा कि मीडिया और कुछ राजनीतिक दलों की व्यर्थ की अटकलों पर श्री मोदी की यह टिप्पणी है। यह पूछे जाने पर कि क्या मोदी गुजरात में अपना सिक्का जमा लेने के बाद केन्द्र की राजनीति में दबदबा बढ़ाने का प्रयास नहीं करेंगे, मल्होत्रा ने कहा कि मोदी खुद इस का जवाब दे चुके हैं। यह कहे जाने पर कि क्या पांच वर्ष बाद भी यही स्थिति रहेगी, मल्होत्रा ने कहा कि पांच साल अभी बहुत दूर हैं। स्रोत: प्रभासाक्षी ब्यूरो

गुजरात में भाजपा का परचम लहराया


गुजरात विधानसभा के लिए हुए चुनावों के शुरूआती रुझानों और नतीजों से जाहिर हो गया है कि राज्य में भारतीय जनता पार्टी एक बार फिर बहुमत पाकर सरकार बनाने जा रही है। अब तक मिले रुझानों में भाजपा कांग्रेस से काफी आगे चल रही है। गुजरात विधानसभा की 182 सीटों के लिए चुनाव हुए थे। इन सभी स्थानों के रुझान उपलब्ध हैं जिनमें से 120 भाजपा और 57 कांग्रेस के पक्ष में हैं। अन्य दलों और उम्मीदवारों को 5 स्थानों पर बढ़त मिलती दिखाई दे रही है। प्रदेश विधानसभा में बहुमत हासिल करने के लिए 92 सीटों की जरूरत है। स्रोत: प्रभासाक्षी ब्यूरो

एग्जिट पोल: मोदी को मिलेगी गुजरात की गद्दी


नई दिल्ली : गुजरात में सभी 599 उम्मीदरों का भविष्य ईवीएम में बंद हो गया और अब यह 23 दिसंबर को ही पता चल पाएगा कि किसकी सरकार बनेगी।


बहरहाल सभी एग्जिट पोल के नतीजे इस बात की ओर संकेत कर रहे हैं कि गुजरात की गद्दी पर बीजेपी काबिज होने जा रही है और एक बार फिर सूबे की सत्ता नरेंद्र मोदी के हाथों में होगी। साथ ही यह अनुमान भी जताया जा रहा है कि बीजेपी को कुछ नुकसान होगा और कांग्रेस फायदे में रहेगी।

गुजरात में दूसरे दौर की वोटिंग के बाद स्टार न्यूज-नीलसन द्वारा कराए गए एग्जिट पोल के मुताबिक बीजेपी को राज्य विधानसभा की 182 सीटों में 103 सीटें मिलेंगी। जबकि कांग्रेस को 76 सीटों से संतोष करना पड़ेगा। इस सर्वे के अनुसार दूसरे दौर में 95 सीटों के लिए हुए मतदान में बीजेपी को 50 फीसदी वोट मिले हैं , जबकि राज्य में दोबारा पैर जमाने की कोशिश में जुटी कांग्रेस को 44.5 फीसदी वोट मिले हैं। सीएनएन-आईबीएन और दिव्य भास्कर के एग्जिट पोल के नतीजे के अनुसार बीजेपी 92-100 सीट जीत सकती है और कांग्रेस की सीटों की संख्या 77 से 85 के बीच रह सकती है। एनडीटीवी-जीएफके के सर्वे के मुताबिक बीजेपी 90 से 110 और कांग्रेस 70 से 95 सीट जीत सकती है। वहीं जी न्यूज और सी-वीटर के एग्जिट पोल में बीजेपी को 93 से 104 और कांग्रेस को 75 से 87 सीटों पर जीतते हुए दिखाया गया है। इस तरह सभी एग्जिट पोल के अनुसार बीजेपी 182 सदस्यों वाली विधानसभा में बहुमत के लिए जरूरी 92 के जादुई आंकड़े को पार करती दिख रही है। लेकिन वर्ष 2002 में हुए चुनाव के मुकाबले उसे 30-35 सीटों का नुकसान बताया जा रहा है। पिछले चुनाव में बीजेपी 127 सीटों पर विजयी रही थी। साभार- नवभारत टाइम्‍स

Saturday, 22 December 2007

तिब्बत की आजादी पर एकजुट हुए भारतीय


लेखक : डा. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

लगता है चीन को लेकर भारत सरकार बहुत कुछ छिपा रही है। उत्तरी सीमांत पर चीनी सेना की घुसपैठ निरंतर हो रही है। इसका रहस्य उद्धाटन कभी भारत-तिब्बत सुरक्षा बल के लोग करते हैं, कभी अरूणांचल प्रदेश के सांसद और कभी कभार सेना के लोग भी कर देते हैं। परंतु भारत सरकार सख्ती से इस घुसपैठ का खंडन करती है। कभी-कभी घुसपैठ इतनी स्पष्ट और प्रत्यक्ष होती है कि भारत सरकार के लिए खंडन करना भी मुश्किल हो जाता है। तब सरकार के पास दूसरा पक्का बहाना है कि भारत और तिब्बत को लेकर जो मैकमोहन रेखा कागज पर खींची हुई है वह नीचे धरती पर दिखाई नहीं देती। इसलिए अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि कहाँ से भारत शुरू होता है ? और कहां तिब्बत खत्म होता है? सीमा की इस अस्पष्टता के कारण कभी कभार चीनी सेना इधर आ भी जाती है। लेकिन उसको घुसपैठ नहीं माना जाना चाहिए। वैसे भी भारत सरकार का यह तर्क बहुत पुराना है, पंडित नेहरू के वक्त में भी चीन सरकार लद्दाख में सड़क बनाती रही। भारत सरकार को इसका पता था लेकिन वह उसे छिपाती रही और अंत में जब चीन ने खुद ही घोषणा कर दी कि उसने लद्दाख में सड़क बना ली है तो भारत सरकार के पास दिखावे के लिए भी कोई बहाना नहीं बचा था। अलबत्ता चीन ने इतना जरूर किया कि उसने सड़क निर्माण पूरा हो जाने की विज्ञप्ति जारी करते समय उसने यह भी कह दिया कि यह इलाका चीन का ही है। इसी प्रकार चीनी सेना अब जब भारतीय इलाके में घुसपैठ कर रही है तो वह उसे चीनी क्षेत्र ही बता रही है और भारत सरकार भी शायद उसी पुराने बहाने से अपना बचाव कर रही है।

देश भर में चीन के इन प्रयासों का जनस्तर पर विरोध होता रहता है। वास्तव में चीन की यह घुसपैठ तिब्बत की गुलामी से जुड़ी हुई है। तिब्बत यदि चीन के कब्जे में न आता तो जाहिर है भारत की सीमा पर चीनी सेना के आने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता था। इसलिए भारतीय सीमा में चीनी घुसपैठ को रोकने का एक और कारगर तरीका तिब्बत की आजादी का है। यदि तिब्बत आजाद हो जाए तो स्वाभाविक है कि भारत की सीमाओं से चीनी सेना पीछे हट जाएगी और फिर घुसपैठ का प्रश्न भी समाप्त हो जाएगा। परन्तु दुर्भाग्य से भारत सरकार डरती है।

लेकिन पिछले दिनों 10 दिसंबर को दिल्ली में संसद भवन के सामने जंतर मंतर पर तिब्बत की स्वतंत्रता को लेकर जो जन सैलाब उमड़ा वह दृश्य आश्चर्यचकित कर देने वाला था। 10 दिसंबर का दिन वैसे भी संयुक्त राष्ट्रसंघ दुनिया भर में मानवाधिकार दिवस के तौर पर मनाता है। संयुक्त राष्ट्रसंघ को विश्वभर में हो रहे मानवाधिकारों के हनन की कितनी चिंता है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि यह संगठन अमेरिका के साए में ही काम करता है और अमेरिका का मानवाधिकारों से उसी प्रकार का रिश्ता है जिस प्रकार का रिश्ता किसी नागा व्यक्ति का कुत्ते से होता है। लेकिन 10 दिसंबर को दलाईलामा को शांति के लिए नोबल पुरस्कार भी मिला था इसलिए इस दिन की महत्ता तिब्बतियों और भारतीयों दोनों के लिए ही बढ़ जाती है। ऐसा भी नहीं कहा जा सकता कि इस बार 10 दिसंबर को दिल्ली में संसद भवन के सामने तिब्बत की स्वतंत्रता को लेकर पहली बार प्रदर्शन हो रहा था। तिब्बत के लोग प्राय: हर साल ऐसा प्रदर्शन करते ही है। लेकिन इस बार के प्रदर्शन की सबसे बड़ी खूबी यही थी कि यह प्रदर्शन तिब्बती नहीं कर रहे थे बल्कि भारतीय कर रहे थे। तिब्बत के लोगों की संख्या उसमें आटे में नमक के बराबर ही थी। जब भारत सरकार एक बार पुन: हिन्दी चीनी भाई-भाई के रास्ते पर अग्रसर हो रही है तब दिल्ली में अलग-अलग स्थानों से तीन चार हजार भारतीयों का बिना किसी आह्वान के तिब्बत के समर्थन में और चीन की साम्राज्यवादी नीतियों के खिलाफ स्वत: प्रेरणा से उमड़ पड़ना एक ऐतिहासिक घटना ही कही जाएगी। तिब्बत की आजादी के साथ कैलाश मानसरोवर की मुक्ति का प्रश्न जुड़ जाने के कारण तिब्बत समस्या में एक प्रकार से भावनात्मक स्तर पर भारतीय सरोकारों में वृध्दि हुई है। यह आयोजन वैसे तो भारत-तिब्बत सहयोग मंच ने किया था। जो पिछले कुछ सालों से तिब्बत के प्रश्न को लेकर जन जागरण अभियान चला रहा है। लेकिन इस प्रदर्शन में शामिल होने के लिए जिस प्रकार मुसलमान, दिल्ली और जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र और नावबौध्द शामिल हुए उससे स्पष्ट पता चल रहा था कि भारत सरकार की चीन नीति का विरोध कहीं बहुत गहरे में भारतीय मानस में हो रहा है। जनभावना का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि प्रदर्शन की खबर सुनकर विख्यात पत्रकार कुलदीप नैय्यर समर्थन देने के लिए स्वयं ही इसमें पहुँचे। इसी प्रकार पूर्व उपराष्ट्रपति स्व. कृष्णकांत की धर्मपत्नी श्रीमती सुमन इसमें स्वत: प्रेरणा से आई । समाजवादी पार्टी के सांसद बृजभूषण तिवारी और जे.डी.(यू.) के सांसद वशिष्ठ नारायण सिंह भी तिब्बत को समर्थन देने के लिए उपस्थित थे। प्रदर्शन में भग लेने वाले निष्क्रिय दर्शक मात्र नहीं थे बल्कि वे सभी सक्रियतापूर्वक सामाजिक सरोकारों से जुड़े हुए लोग थे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक और संघ की केन्द्रीय कार्यकारिणी के सदस्य इन्द्रेश कुमार, जो पिछले कुछ सालों से तिब्बत के प्रश्न पर जन समर्थन के लिए आंदोलन चला रहे हैं ने इस प्रदर्शन में कुछ खरी-खरी और बेलाग बातें कही । इन्द्रेश कुमार जी का कहना था कि कुछ लोग इस कारण निराश हो सकते हैं कि भारत सरकार तिब्बत के प्रश्न पर सक्रियता नहीं दिखा रही। उन्होंने कहा ऐसा जरूरी नहीं है कि इसी प्रश्न पर सरकार से ही जनमानस की अभिव्यक्ति ही करे। तिब्बत का प्रश्न भी ऐसा ही है। तिब्बत की स्वतंत्रता के प्रश्न पर भारतीय जनमानस एक ओर है और भारत की सरकार दूसरी ओर है। देशों के रिश्तें जनता के स्तर पर पक्के होते हैं और कई बार सरकारें इन प्रश्नों पर बुरी तरह असफल रहती है। उन्होंने कहा चीन सरकार भी इस बात को अच्छी तरह जानती है कि तिब्बत के प्रश्न पर भारत सरकार भारतीय जनमत का प्रतिनिधित्व नहीं करती। इसलिए बीजिंग ने अब भारतीय पत्रकारों और अन्य सामाजिक कार्यकर्ताओं को चीन में बुलाकर उनको तिब्बत के प्रश्न पर चीन समर्थन बनाने के प्रयास प्रारंभ किए हैं। लेकिन भारत और तिब्बत के हजारों साल के रिश्ते इतने परिपक्व हैं कि चीन के ये प्रयास प्राय: निष्फल सिध्द हो रहे है। इस आक्रोशपूर्ण प्रदर्शन को देखकर लगता था कि चीन के प्रति भारत सरकार ने जो नपुंसकता पूर्ण नीति तैयार कर रखी है उसका जवाब भारतीयों ने देना शुरू कर दिया है ऐसी भी खबरें मिल रही हैं कि इस प्रकार के प्रदर्शन कई प्रदेशों की राजधानियों में भी हुए हैं। तिब्बत के प्रश्न को लेकर निश्चय ही यह शुभ संदेश है।
(नवोत्थान लेख सेवा हिन्दुस्थान समाचार)

Wednesday, 19 December 2007

नारी का चित्र और मीडिया का चरित्र

लेखक- आशुतोष

24 नवंबर 2007। असम की राजधानी दिसपुर में जो हुआ वह सभ्यता को कलंकित करने वाला था। झारखंड से पीढ़ियों पहले चाय बागानों में मजदूरी करने के लिये आये जनजाति के लोग असम में भी जनजाति की सूची में शामिल किये जाने की मांग को लेकर प्रदर्शन कर रहे थे। प्रदर्शन समाप्त होते ही रैली में शामिल कुछ असामाजिक तत्वों ने अचानक तोड़-फोड़ शुरू कर दी। स्थानीय निवासियों ने भी हिंसक प्रतिक्रिया की, पुलिस तमाशबीन बनी रही।

यहां तक का घटनाक्रम तो वही है जो हम गाहे-बगाहे देखते रहते हैं। असामान्य घटना इसके बाद हुई। रैली में शामिल लोगों को स्थानीय लोगों ने घेरकर मारना शुरू कर दिया। दर्जन भर प्रदर्शनकारी इस घटना में मारे गये। महिलाओं के साथ अभद्रता हुई। हद तब हो गयी जब असामाजिक तत्वों ने एक आदिवासी लड़की को पूरी तरह निर्वस्त्र कर दिया, उसके गुप्तांग को जूते से कुचला। मौके पर मौजूद प्रैस फोटोग्राफरों ने उसे बचाने के बजाय इस वीभत्स घटना के दुर्लभ चित्र लिये। मुहल्ले के शोहदे भी पीछे नहीं थे। वे सड़क पर निर्वस्त्र दौड़ती हुई उस लड़की के अपने मोबाइल से चित्र ले रहे थे और चुहल कर रहे थे। पुलिस की चुप्पी इनका मौन समर्थन कर रही थी।

जब यह फोटो और फुटेज अखबार और चैनलों के दतर में पहुंचे तो पेशेवर पत्रकारों की आंखें चमक उठीं। फोटोग्राफ जोरदार थे। उनमें खबर भी थी और बिकाऊपन भी। बिक्री अथवा टीआरपी बढ़ाने वाले सभी तत्व उसमें विद्यमान थे। घटना की संवेदनशीलता को देखते हुए एन.ई.टी.वी. जिसके पास इस घटना के मूल फुटेज थे, उसने इनका प्रसारण नहीं किया लेकिन उसने इन्हें अन्य राष्ट्रीय समाचार चैनलों को उपलब्ध कराया। चैनलों पर बदलती शब्दावली के साथ उस लड़की के चित्र बार-बार दोहराये जाने लगे जिन पर छोटी काली पट्टी चिपका कर उसे प्रसारण योग्य बना दिया गया था। अगले दिन के समाचार पत्रों में भी इन चित्रों ने काफी जगह पाई।

पत्रकारों व छायाकारों को इस अवसर पर मानवीय दायित्वों का निर्वाह करते हुए इस वीभत्स घटना को रोकने का प्रयास करना चाहिये या मानवीय संवेदनाओं को किनारे रख वे पत्रकार के रूप में वे अपने व्यावसायिक दायित्वों का निर्वाह कर रहे थे, यह पृथक बहस का विषय है। आज पत्रकारिता उस मुकाम पर आ खड़ी हुई है जहां नैतिक मूल्य निरर्थक माने जाने लगे हैं और सनसनी और सेक्स का घालमेल बिकाऊपन की गारंटी है।

एक दशक पहले तक जहां पीडित लड़की का नाम भी बदल कर छापा जाता था वहीं इस घटना के फुटेज दिखाते समय उसका चेहरा भी छिपाना जरूरी नहीं समझा गया। सिर्फ उत्तर पूर्व के समाचार पत्रों में ही नहीं बल्कि झारखंड के समाचार पत्रों ने भी इस घटना को प्रथम पृष्ठ पर फोटो सहित छापा। इसके फॉलोअप समाचार भी छपे किंतु उनमें मूल समस्या के स्थान पर सतही चर्चा अधिक हुई। समाचार पत्रों और चैनलों द्वारा यह तर्क दिया जा सकता है कि उन्होंने घटना को यथारूप प्रस्तुत कर समाज के प्रति अपने दायित्व का निर्वहन किया है। यह भी कहा जा सकता है कि वह इन चित्रों को दिखा कर समाज की संवेदना को झकझोरने का प्रयास कर रहे थे। लेकिन यह तर्क अपने आप में अधूरे और खोखलेपन को उजागर करने वाले हैं।

आरक्षण की मांग और स्थानीय और बाहरी की पहचान से उपजे सवाल के वल असम में ही नहीं अपितु देश के हर हिस्से में कभी धीमे और कभी तेज स्वर में उठते रहे हैं। पूर्वोत्तर के राज्यों में यह संवेदनाएं बेहद गहरी हैं। जिस तरह इस घटना को मीडिया में दिखाया गया उससे समाज के विभिन्न वर्गों के बीच की दूरी को पाटने के बजाये बढ़ाने में ही मदद मिलेगी।

असम की अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा चाय बागानों से आता है और चाय बागानों का सारा काम-धाम बिहार, झारखंड, बंगाल और पूर्वी उत्तर प्रदेश के श्रमिकों पर निर्भर है। असम की अर्थव्यवस्था और विकास की धुरी बन चुके ये बिहार और झारखंड के श्रमिक पीढ़ियों से इन बागानों में काम कर रहे हैं। स्थानीय समाज इनके श्रम को तो आवश्यक मानता है लेकिन उनके सामाजिक या राजनैतिक वजूद को स्वीकार करने को तैयार नहीं होता।

जब यह घटना हो रही थी, राज्य की पुलिस तमाशा देख रही थी। उसने न इन्हें रैली निकालने से रोका और न उन्हें पलटवार करने से । पुलिस की यह रहस्यमय चुप्पी बताती है कि घटना के राजनैतिक निहितार्थ भी हैं। राज्य में बड़ी संख्या में नागरिक अधिकार पा चुके बांग्लादेशी घुसपैठियों के विरूध्द जब पिछले विधानसभा चुनावों के पहले स्थानीय लोगों का गुस्सा फूटा था तो सरकार द्वारा न केवल उन्हें संरक्षण दिया गया अपितु उन्हें योजनाबध्द ढंग से बसाया भी गया और राशनकार्ड भी जारी किये गये। अपने ही देश के नागरिक जब अपनी मांगों के समर्थन में रैली की इजाजत मांगते हैं तो इजाजत नहीं मिलती। जब वे जबरन सड़कों पर आकर तोड़फोड़ करने लगते हैं तो उन्हें रोका नहीं जाता, विरोध में जब लोग उन पर हमला करते हैं तब भी पुलिस खामोश रहती है और मीडिया इस समूचे परिदृश्य पर बहस खड़ी करने के बजाय एक भयभीत निर्वस्त्र लड़की के सड़क पर भागने के चित्र दिखाकर सनसनी बेचती है और टीआरपी वसूलती है।

पत्रकारिता के इतिहास पर जिन्होंने नजर डाली है उन्हें याद है कि 6 अगस्त 1945 को हिरोशिमा की सड़क पर निर्वस्त्र भागती एक मासूम लड़की का चित्र एक छायाकार ने लिया था। अमेरिका के जिस लड़ाकू जहाज ने हिरोशिमा पर एटम बम गिराया था उसमें चार पत्रकार भी थे। उन्होंने तबाही के उस दृश्य को अपनी आंखों से देखा था और अमेरिकी अखबारों में उनके द्वारा दिये गये समाचार और छायाचित्र छपे भी थे। उनमें से एक पत्रकार को सर्वश्रेष्ठ रिपोर्टिंग के लिये पुरस्कृत भी किया गया था। वह पुरस्कृत किया जाने वाला पत्रकार भुलाया जा चुका है। किंतु एटम बम की आग से कपड़े जलने के बाद बदहवास हिरोशिमा की सड़क पर दौड़ रही उस लड़की का चित्र फोटो पत्रकारिता के जगत में आज भी 'यूनिक' है। उस चित्र के प्रकाशन के बाद न केवल उस चित्र को प्रतीक बनाकर विश्वशांति की चर्चा चली बल्कि आज भी वह लड़की संयुक्त राष्ट्र की आणविक हिंसा के विरूध्द 'शांति राजदूत' है।

मीडिया उच्च मानकों पर अमल करते हुए यदि ऐसे प्रतीक गढ़ता है तो निश्चय ही ऐसे किसी भी चित्र और छायाकार को पहचान मिलेगी। लेकिय यदि इन प्रयासों से नारी के आत्मसम्मान को चोट पहुंचाने के अतिरिक्त कुछ भी हासिल न हो तो केवल बाजार के हित के लिये नारी अस्मिता को दांव पर लगाना अस्वीकार्य ही नहीं निंदनीय भी है।

महिला स्वतंत्रता के समर्थक और मानवाधिकार के रखवाले भी इस घटना पर चुप्पी साधे हैं। सूचना प्रसारण मंत्रालय जानता है कि उमा खुराना के साथ हुई अभद्रता के प्रसारण पर उसे पत्रकार के साथ-साथ चैनल के खिलाफ तुरंत कार्रवाई करनी होगी क्योंकि मामला दिल्ली का है। सुदूर असम के चायबागान में रहने वाली और वहां के लिये भी बाहरी लड़की के लिये चिंतित होने की कोई आवश्यकता नहीं है। छोटी-छोटी बातों पर स्वत: संज्ञान लेने वाली न्यायपालिका के लिये भी यह महत्वपूर्ण नहीं है।

नक्कार खाने में तूती की आवाज की तरह कुछ लोग अथवा छोटे-मोटे संगठन, जो इस घटना पर प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहे हैं विश्वास रखें कि यदि उन्होंने इस आग को जिंदा रखा तो एक न एक दिन उसकी तपिश दिल्ली तक जरूर पहुंचेगी।
(नवोत्थान लेख सेवा हिन्दुस्थान समाचार)

Tuesday, 18 December 2007

मार्क्सवादी अमानुषिकता



मानवाधिकार दिवस पर उजागर

मार्क्सवादी अमानुषिकता
दिल्ली में आए मार्क्सवादी बर्बरता के शिकार कार्यकर्ता

-आलोक गोस्वामी
कण्णूर के सदानन्दन मास्टर के घुटने से नीचे दोनों पैर नहीं हैं। वे नकली पैरों के सहारे चलते हैं। उनके ये दोनों पैर मार्क्सवादी गुंडों ने 1994 में काट डाले थे। उस समय रा.स्व.संघ, त्रिशूर के बौध्दिक प्रमुख थे सदानन्दन। एक दिन स्कूल से पढ़ाकर घर लौट रहे थे कि रास्ते में कुछ गुंडों ने घेर कर सड़क पर गिरा दिया और तेज धार के हथियार से एक ही पल में दोनों पैर काट डाले। उनका कसूर क्या था? सदानन्दन मास्टर का कसूर केवल इतना था कि वे मार्क्सवादियों की हिंसक विचारधारा को छोड़कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राष्ट्रनिष्ठ विचारधारा से जुड़े थे, स्वयंसेवक बने थे। सदानन्दन के पिता अपने जिले के बड़े कम्युनिस्ट नेता थे और उस समय सदानन्दन भी कम्युनिस्ट छात्र संगठन एस.एफ.आई. के सक्रिय कार्यकर्ता थे। मगर 1975 में आपातकाल के दौरान मार्क्सवादियों की स्तरहीन राजनीति से मन ऐसा उखड़ा कि वे संघ की ओर आकर्षित हुए, बस यही बात हिंसक राजनीति के पक्षधर मार्क्सवादियों को रास नहीं आई और एक दिन ...।

प्रजिल की उम्र अभी 32 वर्ष ही है और वह संघ के सह जिला प्रचारक हैं। उनके शरीर पर तेज धार हथियार से 36 घाव किए गए थे जिनके निशान अब भी मिटे नहीं हैं। एक शाम सम्पर्क पर निकले प्रजिल पर मार्क्सवादी गुंडों ने यह घातक प्रहार किया था।

हरीन्द्रनाथ को भी संघ का स्वयंसेवक होने के कारण मार्क्सवादियों की हिंसा का शिकार होना पड़ा था। बी.एस.एन.एल. में ऊंचे पद पर कार्यरत हरीन्द्रनाथ के दफ्तर में घुसकर कम्युनिस्ट गुंडों ने उनके दाएं हाथ की दो उंगलियां काट डाली थीं।

भास्करन तो अब जीवन भर के लिए विकलांग हो गए हैं। चलने में बहुत कष्ट होता है। एक शाम हिंसक मार्क्सवादियों ने उनके घर हमला बोल दिया था। इस हमले में भास्करन के छोटे भाई की हत्या की गई। जब भास्करन अपने भाई के खून से लथपथ शरीर को लेकर अस्पताल जा रहे थे तो रास्ते में गुंडे पलटकर आए और इस बार भास्करन को निशाना बनाया। चाकुओं से इतने वार किए कि भास्करन के हाथ और पांव बुरी तरह घायल हो गए थे।

23 वर्षीय प्रसून का क्या कसूर था? उसका भी कसूर इतना ही था कि वह संघ शाखा में जाता था और इसी 'अपराध' के लिए 'सबक' सिखाने पर तुले मार्क्सवादी गुंडों ने प्रसून पर उस समय हमला कर दिया जब वह अन्य बच्चों के साथ क्रिकेट खेल रहा था। प्रसून के बाएं पैर पर गंडासे से प्रहार किया गया था। आज भी प्रसून को बाएं पैर और हाथ को सीधा करने में दर्द होता है।

नारियल के पेड़ पर चढ़कर नारियल तोड़ने वाले श्रमिक तिलकन की कहानी तो और भी दारूण है। संघ#भाजपा के कार्यकर्ता तिलकन पर 2002 में मार्क्सवादी तत्वों ने हमला करके सीधे हाथ की हथेली काट डाली थी। हथेली कट जाने से तिलकन नारियल नहीं तोड़ पाता था इसलिए उसको कोई अपने यहां मजदूरी पर नहीं रखता था। नौकरी छिन गई, पैसों के लाले पड़ गए। पेट भरने को घर में अन्न नहीं था। तिलकन की पत्नी से यह बर्दाश्त नहीं हुआ और अपने छोटे बच्चे के साथ उसने आत्महत्या कर ली। आज भी तिलकन उस घटना को याद करके सिहर उठता है।
पी.के. सुधीश, हरीन्द्रन, प्रकाश बाबू, अशोकन, प्रेमजीत, शालीन, विनोद, प्रसाद कवियूर.... कितने नाम गिनायें? कन्नूर से त्रिशूर तक और कोट्टायम से तिरुअनन्तपुरम् तक मार्क्सवादियों ने संघ, भाजपा, विश्व हिन्दू परिषद, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, भारतीय मजदूर संघ आदि हिन्दुत्वनिष्ठ संगठनों के कार्यकर्ताओं पर इस तरह हिंसक हमले किए हैं कि या तो उनकी हत्या हो गई नहीं तो वे जीवन भर के लिए विकलांग हो गए। और यह कोई नई बात नहीं है। 1967 में संघ के कार्यकर्ता रामकृष्णन की हत्या से हिंसा का जो ताण्डव कम्युनिस्टों ने केरल में रचा है वह आज तक जारी है। इस बीच 150 से ज्यादा कार्यकर्ताओं की हत्या हो चुकी है। यानी कम्युनिस्ट विचारधारा इतनी असहिष्णु है कि किसी भी दूसरी विचारधारा से जुड़े व्यक्ति को बर्दाश्त नहीं कर सकती। सदानन्दन मास्टर सहित ऊपर जिन लोगों का वर्णन किया गया है वे सभी गत 10 दिसम्बर को विश्व मानवाधिकार दिवस के अवसर पर नई दिल्ली आये थे ताकि यहां के मीडिया को मार्क्सवादियों के असली चेहरे और चाल से परिचित कराएं क्योंकि यहां का मीडिया नोएडा, कनाट प्लेस और गुड़गांव से परे कुछ देखता नहीं है। ये लोग आए थे केरल प्रदेश भाजपा द्वारा आयोजित मार्क्सवादी हिंसक राजनीति की असलियत उजागर करने वाले एक कार्यक्रम में। इन लोगों के अतिरिक्त इस महत्वपूर्ण कार्यक्रम में मार्क्सवादी हिंसा में शहीद हुए कार्यकर्ताओं के परिजन भी बड़ी संख्या में उपस्थित थे। कार्यक्रम स्थल पर एक चित्र प्रदर्शनी भी लगाई गई थी जिसमें शहीद हुए कार्यकर्ताओं के चित्र और हिंसक हमलों में घायलों के सचित्र विवरण प्रदर्शित किए गए थे जिन्हें देखकर सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता था कि आज 21वीं सदी में भी मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का चेहरा कितना वीभत्स है। इस अवसर पर इन सभी बहादुर संघ-भाजपा कार्यकर्ताओं का भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने अभिनंदन किया और कहा कि पूरी पार्टी अपने इन कार्यकर्ताओं के साथ है। उन्होंने कहा कि इन कार्यकर्ताओं के शारीरिक घावों की तो भरपाई नहीं की जा सकती मगर वे उनके साहस को सलाम करते हैं। श्री सिंह ने यह भी घोषणा की कि यदि केरल के इन कार्यकर्ताओं में से किसी को भी दिल्ली में इलाज की आवश्यकता है तो पार्टी की ओर से उन्हें हर प्रकार की सुविधा दी जाएगी। भाजपा अध्यक्ष ने प्रत्येक विकलांग कार्यकर्ता को 25 हजार रुपए की सहायता राशि देने की भी घोषणा की।
श्री राजनाथ सिंह ने इस अवसर पर कहा कि केरल और पश्चिम बंगाल में माकपा की हिंसक राजनीति जारी है। सेकुलर मीडिया भले ही कैसी भी तस्वीर पेश करे, वास्तव में इन मार्क्सवादियों का असली भद्दा चेहरा नंदीग्राम ने दिखा दिया है। पश्चिम बंगाल में पिछले 30 सालों से माकपा सरकार में है। वहां उसकी जीत क्या लोकतांत्रिक पध्दति से होती है? क्या उसकी जीत के पीछे पुलिस और प्रशासन की मिलीभगत तो नहीं है? माकपा की हिंसक राजनीति को देखते हुए यह कहना गलत नहीं होगा कि केरल और बंगाल माकपा के 'यातना शिविर' बन गए हैं। माकपा की यह हिंसा उसकी असहिष्णु विचारधारा से उपजती है।
पूर्व राज्यसभा सांसद एवं वरिष्ठ स्तम्भकार श्री बलबीर पुंज ने कहा कि जो भी माकपा के विचारों से सहमत नहीं होता उसे ये मार्क्सवादी सह नहीं पाते। दिल्ली में माकपा का एक चेहरा है तो बंगाल और केरल में कुछ दूसरा ही है। नन्दीग्राम का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि पश्चिम बंगाल में नन्दीग्राम ने दिखा दिया है कि मार्क्सवादी किस हद तक जाकर हिंसा करते हैं। बंगाल, केरल, चीन और पूर्ववर्ती साम्यवादी रूस में कम्युनिस्टों की हिंसा में करोड़ों लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी। केरल और बंगाल में राजनीतिक हत्याएं होती हैं मगर दिल्ली का मीडिया इनकी कोई चर्चा नहीं करता।
राज्यसभा सांसद और द पायनियर के सम्पादक श्री चंदन मित्रा ने हिंसक मार्क्सवादी विचारधारा के संदर्भ में अपने नंदीग्राम दौरे का जिक्र करते हुए कहा कि वहां जिस तरह से मार्क्सवादी गुंडों ने हिंसा का माहौल बनाया था उसके कारण आज भी एक आम गांववासी भयभीत है। पूरा गांव सूना-सूना है। गांव के युवक गांव छोड़कर चले गए हैं क्योंकि उन्हें अपनी जान का खतरा है। यह नंदीग्राम ही है जिसके कारण देश का मीडिया और बुध्दिजीवी वर्ग कम्युनिस्ट हिंसा से परिचित हुआ है। केरल में तो मार्क्सवादी हिंसा इस कदर हावी है कि न तो पुलिस तंत्र, न समाज और न ही प्रशासन उसके सामने कुछ कर पाता है। कन्नूर का हर गांव नंदीग्राम बना हुआ है।
कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे केरल प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष श्री पी.के. कृष्णदास ने मलयालम में अपनी बात रखते हुए कहा कि केरल के कन्नूर जिले में माकपा का वही हिंसक चेहरा दिखता है जो उसने नंदीग्राम में दिखाया है। माकपा की सोच फासीवादी है। हमारे कार्यकर्ताओं को मार्क्सवादी गुंडों ने अपनी हिंसा का शिकार बनाया है। केरल में आज भी संघ और भाजपा के कार्यकर्ताओं पर हिंसक हमले जारी हैं और ये हमले माकपा के पिनरई विजयन और कोडियरी बालकृष्णन जैसे नेताओं की शह पर हो रहे हैं। श्री कृष्णदास ने भाजयुमो के नेता स्वर्गीय के.टी. जयकृष्णन पर किए गए बर्बर हमले का वर्णन किया कि किस तरह कक्षा में पढ़ाते हुए मार्क्सवादी गुंडों ने जयकृष्णन की हत्या की थी और गवाही देने वालों को जान से मारने की धमकी दी थी। सदानन्दन मास्टर ने जब त्रिशूर और कन्नूर में मार्क्सवादियों द्वारा की जा रही हिंसक राजनीति का वर्णन किया तो वहां उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति हतप्रभ रह गया। उन्होंने कहा कि कन्नूर में 1950 में संघ का कार्य शुरू हुआ था और तब से ही माकपा का गढ़ माने जाने वाले इस क्षेत्र में मार्क्सवादियों को यह बात रास नहीं आई थी। वहां 1967 में संघ कार्यकर्ता रामकृष्णन की हत्या की गई थी। और उसके बाद से यह सिलसिला अब तक थमा नहीं है। कन्नूर वही इलाका है जहां कम्युनिस्ट पार्टी की भारत में स्थापना हुई थी। 1964 में कम्युनिस्ट पार्टी, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में विभाजित हुई। 1967 में ई.एम.एस. नम्बूदिरीपाद कम्युनिस्ट सरकार में मुख्यमंत्री बने थे। तब से आज तक इन 40 सालों में हिन्दुत्वनिष्ठ संगठनों के 150 से अधिक कार्यकर्ताओं की हत्या की गई, सैकड़ों विकलांग बना दिए गए, अनेक के परिवार उजाड़ दिए गए, उनके घर जलाए गए, उनकी रोजी-रोटी का माध्यम छीना गया। खुद को सर्वहारा की पार्टी बताने वाले इन मार्क्सवादियों ने मजदूरों और किसानों पर ही सबसे ज्यादा हमले किए हैं। सदानन्दन जी ने बताया कि आपातकाल के बाद जब उनका मार्क्सवादी पार्टी से मोहभंग हुआ और वे संघ के सक्रिय कार्यकर्ता बने तभी से उनके विरुध्द मार्क्सवादी तत्व सक्रिय हो गए थे। उन्हें यह बर्दाश्त नहीं था कि कोई उनकी पार्टी छोड़कर संघ का कार्यकर्ता बने। श्री सदानन्दन को संघ के जिला सह कार्यवाह की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। यह 1994 की बात है। एक दिन स्कूल से घर लौटते हुए मार्क्सवादी गुंडों ने उन पर हमला करके उनके दोनों पैर काट दिए। इसी तरह कभी माकपा सरकार में मंत्री रहे श्री एम.वी. राघवन ने जब माकपा से अलग होकर अपनी पार्टी बनाई तो उन पर भी हिंसक हमले किए गए थे। श्री सदानन्दन ने कहा कि मार्क्सवादी उन्हें घातक हथियारों से शारीरिक चोट पहुंचा सकते हैं, उनकी हत्या कर सकते हैं मगर वे हिन्दुत्वनिष्ठ विचारधारा के प्रसार में बाधा नहीं पहुंचा सकते। कार्यक्रम में भाजपा संसदीय दल के उपनेता श्री विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व केन्द्रीय मंत्री श्री राजीव प्रताप रूढी, भाजपा महामंत्री (संगठन) श्री रामलाल, दिल्ली भाजपा अध्यक्ष डा. हर्षवर्धन, केरल प्रदेश भाजपा के महासचिव श्री राधाकृष्णा, कन्नूर जिला भाजपा अध्यक्ष श्री वेलायुधन सहित अनेक गण्यमान्यजन उपस्थित थे। कार्यक्रम का संचालन केरल प्रदेश भाजपा उपाध्यक्ष श्री पी. मुरलीधरन ने किया।

Wednesday, 12 December 2007

सोनिया गांधी के नाम खुला पत्र- भारत के ढाई लाख करोड़ रुपए कहां हैं?

यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी को संबोधित इस खुले पत्र में कांग्रेस से जुड़े रहे राजनीतिक-आर्थिक मामलों के विश्लेषक नमित वर्मा ने कांग्रेस अध्यक्ष का ध्यान कायदे-कानून को ताक पर रखकर रिजर्व बैंक द्वारा भारतीय अर्थव्यवस्था को कम से कम ढाई लाख करोड़ रुपए का नुकसान पहुंचाने की ओर खींचा है। इस पत्र से भारत सरकार के कई दिग्गज संदेह के दायरे में आते हैं।

अमरीका में मंदी का दौर शुरू हो गया है। अमरीकी कांग्रेस की संयुक्त आर्थिक कमेटी बुश प्रशासन के निर्णयों पर सवालिया निशान लगाने लगी है। इराक पर कब्जा, खर्चों एवं विकास की गति में कमी लाने वाली अप्रत्यक्ष लागत जैसे चिंताजनक विषय उठाए जा रहे हैं। 14 नवम्बर, 2007 को एसोसिएटेड प्रेस ने यह खबर दी कि युध्द के खर्चे के लिए उधार लिए गए धन के ब्याज का भुगतान, गवाएं गए निवेश अवसर, घायक सेवानिवृत्त सिपाहियों के लिए दीर्घकालीन स्वास्थ्य सेवा खर्च तथा तेल के बाजार में आए उतार-चढ़ाव की लागत जैसे अप्रत्यक्ष खर्चे 16 खरब अमरीकी डालर तक जा पहुंचे हैं।

इस 16 खरब डालर के अलावा दूसरे खर्चे भी हैं जिनका बोझ भारत जैसे अन्य देशों पर डाला गया है। डालर की घटती कीमत को बचाने के लिए पचास अरब डालर भारतीय अर्थव्यवस्था से निकालकर अमरीका में झोंक दिए गए हैं। यह धनराशि रिजर्व बैंक ने भारतीय बाजर से ब्याज पर बटोरी है, फिर इससे चार प्रतिशत सस्ती ब्याज दर पर धनराशि अमरीकी अर्थव्यवस्था को उपलब्ध कराई गई है। ब्याज दरों के अंतर के कारण रिजर्व बैंक आफ इंडिया ने 8 हजार करोड़ रुपए से अधिक घाटा सहकर इतनी धनराशि प्रभावी रूप से अनुदान स्वरूप अमरीका को दी है।

भारतीय हितों के खिलाफ चल रहे इस षडयंत्र का क्रियान्वयन अमरीका के राजदूत डेविड कैंपबेल मलफोर्ड की निगरानी में हो रहा है। याद रहे कि राजदूत मलफोर्ड क्रेडिट सूइज फर्स्ट बोस्टन (सीएसएफबी) के अन्तरराष्ट्रीय अध्यक्ष की हैसियत से भारतीय स्टाक एवं आईपीओ घोटाले से प्रमाणित तौर पर जुड़े हुए हैं। इसके बावजूद कि केतन पारेख ने सीएसएफबी के फ्रैंक क्वात्रोन की पध्दति की पूरी तरह से नक्ल की थी, भारत सरकार ने उनके इस रिश्ते को पूर्णत: नजरअंदाज कर दिया। केतन पारेख को गिरफ्तार कर लिया गया और उन पर साजिश का 'सिरमौर' होने का आरोप लगाया गया, जबकि सीएसएफबी के अधिकारियों के खिलाफ गिरफ्तारी की कार्रवाई नहीं की गई। याद रहे कि सेबी ने जांच-पड़ताल के बाद केतन इंडिया सेक्यूरिटीज प्राइवेट लिमिटेड, दोनों को एक ही सजा दी-मर्चेंट बैंकर और स्टाक ब्रोकर के रूप में नए कारोबार करने पर पूरी तरह से रोक....।

आज के संदर्भ में डेविड मलपोर्ड और उनके निकट दोस्त डोमिंगो फेलीप कवालो का बहुचर्चित इतिहास चिह्नित करने लायक है। 1990 में मुद्रास्फीति को नियंत्रित करन के नाम पर अमरीका से प्रेरित होकर अर्जेंटीना में 'पेसो' का डालरीकरण किया गया तो उलटा उसके अर्थतंत्र का विध्वंस हो गया और उसकी कर्जदारी बढ़ती चली गई। तब अमरीका तथा विश्व बैंक-आईएमएफ की शह पर वहां डोमिंगो कवालो वित्तमंत्री थे। मंत्री बनते ही डोमिंगो ने पहला निर्णय लिया अपने मित्र सीएसएफपी के अध्यक्ष इंटरनेशनल डेविड कैंपबेल मलफोर्ड को 'डेब्ट-स्वाप' की व्यवस्था के लिए आमंत्रित करने का। आधे घंटे के अंदर ही मलफोर्ड ने 29.5 अरब डालर की 'महान अर्जेंटीनियन डेब्ट-स्वाप' की व्यवस्था कर दी। यह एक घोटला था, जिसकी जांच अब भी चल रही है। इस घोटाले में सीएसएफबी को ब्याज के अलावा साढ़े बारह करोड़ अमरीकी डालर की राशि का कमीशन मिला।

भारत में भी वैसी ही नीति अमरीका चलवा रहा है। रिजर्व बैंक के गवर्नर वाईवी रेड्डी अपनी नीति को डालरीकरण नहीं कहते हैं, पर उन्होंने प्रभावी रूप से रुपए को डालर के साथ नत्थी कर दिया है। उन्होंने कुल सकल उत्पाद का लगभग 6 फीसदी अमरीकी डालर की मदद में झोंक दिया है।

आज गर्वनर रेड्डी, वित्तमंत्री चिदंबरम् और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भोली-भाली जनता को यह कहकर गुमराह कर रहे हैं कि उनकी नीति का मकसद है मुद्रास्फीति को रोकना। इन तीनों दिग्गज अर्थशास्त्रियों की इस दोधारी मंशा को सरकार के खुले कैपिटल एकाउंट की नीति के संदर्भ में देखते हैं तो एक जबर्दस्त विरोधाभास सामने आता है।

ऐसा असंभव और आंतरिक रूप से परस्पर विरोधी एजेंडा सरकारी नीति में एक बहुत बड़ी गलती को उजागर करता है और जितनी बड़ी गलती होती है उसकी उतनी ही बड़ी कीमत भी चुकानी पड़ती है। वित्तमंत्री चिदंबरम चाहते हैं कि आर्थिक सिध्दांत के मूल सत्य एवं पारिभाषिक सीमाओं को झुठलाते हुए जनता यह स्वीकार कर ले कि उन्होंने कमजोर रुपए, मुद्रास्फीति की कम दर और खुले कैपिटल एकाउंट की असंभव तिकड़ी को संभव बना दिया है। चिदंबरम मुद्रास्फीति की दर कम होने का दावा कर रहे हैं और मनगढ़ंत आंकड़े पेश कर रहे हैं।

सरकारी आंकड़े कम से कम 3 महीने विलंब से छपते हैं, सो आज की स्थिति जनवरी, 2008 में ही पूर्णत: उजागर होगी, परन्तु रूझान तो आ चुके हैं। खासकर जिन वेतनभोगियों को कृषि, वस्त्र-उद्योग, हथकरघा एवं बीपीओ क्षेत्र में नौकरी से बेदखल कर दिया गया है उनको तो अर्थव्यवस्था की असलियत का पता चल ही चुका है।

ऐसे दौर में जब भारी विदेशी निवेश भारत के विकास का कारक और साथी बनने का इच्छुक था, तब सरकार के गलत मौद्रिक नीतियों ने विकास को बढ़ाने के बदले घटा दिया। भारतीय बाजार में बहुत पैसा आया, परन्तु विरोधाभास देखिए कि ब्याज दर बढ़ गयी। यह तभी संभव है जबकि मुद्रास्फीति की स्थिति उत्पन्न हो चुकी हो। अर्थात् चिदंबरम् की 3 प्रतिशत मुद्रास्फीति दर एक झांसा है।

जैसे-जैसे बैंकों का ब्याज दर बढ़ रही है, छोटा निवेशक बाजार से बाहर हो रहा है। सस्ते ब्याज दर पर उपलब्ध विदेशी ऋण को भारत में प्रवेश करते ही, सरकार की गलत नीतियों के कारण देशी निवेशकों एवं उपभोक्ताओं के लिए महंगा बना दिया जाता है। इससे कर्ज की बनावटी अनुपलब्धता की परिस्थिति उत्पन्न होती है और विकास में बाधा आती है।

गलत मुद्रास्फीति के प्रभाव से बचकर सीधे विदेश से सस्ता ऋण लेने के बड़े उद्योगपतियों के रास्ते में भी सरकार अड़चनें खड़ी कर रही है, कारोबार के लिए विदेशी ऋण पर 2 करोड़ डालर की सीमा लगाकर। इससे भी विकास प्रभावित होता है और अर्थव्यवस्था की विकास दर घटती है। एक तरफ विकास को बढ़ावा देने वाले भारतीय निवेशक पर मात्रात्मक एवं बढ़ती ब्याज दर आधारित लगाम कसी जा रही है, तो दूसरी तरफ मुनाफाखोर विदेशी पूंजीपतियों को अर्थव्यवस्था को लूटने के लिए बेलगाम छोड़ दिया गया है। नतीजा यह हुआ है कि भारत सरकार की नीतियों के जरिए अमरीका का मंदी का माहौल भारत में आयोजित कर लिया गया है।

आखिरकार भारत सरकार अपने देश और देशवासियों की कीमत पर अमरीकी अर्थव्यवस्था की इतनी सेवा क्यों कर रही है? इस प्रश्न का जवाब हमें मनमोहन सिंह, चिदंबरम एवं रेड्डी के कथित आका डेविड मलफोर्ड के बयान से मिलता है। अमरीकी सीनेट के विदेश मामलों की समिति के समक्ष मलफोर्ड ने कहा था, 'जिस प्रकार अमरीका में भारतीय उत्पादन एवं सेवाओं का अच्छा बाजार रहा है, ठीक उसी प्रकार भारत के लगातार बढ़ते बाजार को भी अमरीकी उत्पाद एवं निवेश के प्रति चुंबकीय शक्ति प्रतीत होनी चाहिए। यह तभी हो सकता है जब भारत में आर्थिक उदारीकरण तेजी से कार्यान्वित होता है। इसके लिए भारत को तेजी से अपने बाजार को विदेशी उत्पाद और निवेश के लिए खोलना पड़ेगा।'

1 नवम्बर, 2007 को द इकोनामिक टाइम्स ने कहा, 'भारत में भारी मात्रा में विदेशी निवेश आ रहा है। इससे रुपए में 12 प्रतिशत की मूल्य वृध्दि हो चुकी है। रूपए में आगे तेजी रोकने के प्रयास के तहत रिजर्व बैंक उस डालर को स्वयं खरीद ले रहा है और सीधे विदेशी-मुद्रा बाजार में नहीं जाने दे रहा है।'

इस वर्ष रिजर्व बैंक ने जनवरी से अब तक 61 अरब डालर खुले बाजार से खरीदा है। अत: उसे भारी मात्रा में विसंक्रमण करना पड़ा।

भारत सरकार द्वारा विदेशी निवेश पर यह बेतुका 3 से 4 प्रतिशत अनुदान अमरीकी ट्रेजरी की मुद्रा पलायन की समस्या को हल करता है। साथ ही साथ यह अमरीकी निजी निवेशकों की जेब भी भरता है। मध्य जुलाई से सितम्बर तक विश्व भर के केन्द्रीय बैंकों ने 48 अरब डालर की अमरीकी ट्रेजरी सेक्युरिटी बेची। यह आंकड़ा और भयानक हो सकता था यदि इसी दौरान रिजर्व बैंक अमरीकी ट्रेजरी के सहायतार्थ घाटे को नजरअंदाज करते हुए उनकी सेक्यूरिटी खरीदने के लिए बाजार में नहीं उतरता। रिजर्व बैंक और भारत सरकार की इस नीति के तहत भारत के पिछले महीनों हुए विकास का फायदा अमरीका को हस्तांतरित कर दिया गया और अक्तूबर, 2007 में आश्चर्यजनक रूप से अमरीका में 1,66,000 नई नौकरियां उत्पन्न हो गईं।

भारत सरकार की बेतुकी नीति का एक और नतीजा रहा एक साथ मुद्रास्फीति तथा ऋण एवं क्रय-शक्ति का संक्रमण। परिणाम यह हुआ कि मुद्रास्फीति के दानव से जुझने की गुहार लगाने वाली मनमोहन सरकार ने और भी भयावह स्टैगफ्लेशन के ब्रह्मराक्षस को भारतीय अर्थव्यवस्था पर बेकाबू छोड़ दिया है।

गर्वनर रेड्डी और उनके सहयोगी ने अपने कार्यकारी समूह की बैठक में स्वीकार किया था कि उन्हें ब्याज आधारित जमा खाता चलाने की संवैधानिक छूट नहीं है। यह जानने के बाद भी रिजर्व बैंक ने एक ढकोसला मात्र करार-पत्र दस्तखत कर, अपने जन्मदाता कानून का उल्लंघन किया। यह स्पष्ट धोखाधड़ी है।

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, वित्त चिदंबरम, गर्वनर रेड्डी और उनके विदेशी आका डेविड मलफोर्ड और उनके सहयोगियों की इस मिलीभगत के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था से 2,00,000 करोड़ रुपए की निवेशयुक्त पूंजी को विदाकर हमारे देश में निवेश और विकास को गहरी चोट दी गई। साथ ही भारत के फायदेमंद बाजार से अमरीका के मंदीयुक्त बाजार की तरफ निवेश को मोड़ने की खातिर भारत सरकार ने घाटा उठाकर 8000 करोड़ रुपए का अनुदान भी दिया।

एक और विषय जो उभर कर आता है, वह यह है कि अमरीका की ओर मोड़ी गयी यह धनराशि किस प्रयोग में आयी? अमरीकी कांग्रेस की संयुक्त आर्थिक कमेटी में छिड़ी बहस से स्पष्ट हो गया है कि अमरीका के बढ़ते कर्ज का हर आखिरी डालर उसके द्वारा इराक में घुसपैठ पर खर्च हो रहा है। इसका अर्थ यह निकला कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सरकार ने गुप-चुप तरीके से विगत एक वर्ष में 8000 करोड़ रुपए का अनुदान इराक में अमरीकी घुसपैठ कार्यक्रम को दिया। इस नीति का राजनीतिक परिणाम तो आम चुनाव के द्वारा ही प्रमाणित होगा।

इस खुले पत्र का उद्देश्य आम भारतीय को यह बताना है कि हम किस प्रकार से आर्थिक संकट में फंसते जा रहे हैं।

सरकार ने रिजर्व बैंक अधिनियम 1935 का स्पष्ट उल्लंखन किया है। इस प्रकार के उल्लंघन में स्पष्ट तौर से आपराधिक मामला बनता है, इस पर उचित कानूनी कार्रवाई होनी चाहिए। सर्वप्रथम बाजार संक्रमण योजना (एस एस एस) समाप्त करनी चाहिए। द्वितीय, इस धोखाधड़ी के लिए जिम्मेदार लोगों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई होनी चाहिए।

राष्ट्र का भविष्य दांव पर लगा हुआ है। जल्दी से जल्दी सुधार का कदम उठाना अनिवार्य है। कांग्रेस अध्यक्ष एवं संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की नेता होने के नाते आप ही समय रहते सुधार कर सकती हैं। एक अरब भारतीयों की खातिर आपको यह जिम्मेदारी निभानी पड़ेगी। यह आपका दायित्व है। कृपया भारतवर्ष और भारतीय अर्थव्यवस्था को बचा लें।

Tuesday, 11 December 2007

वंदे मातरम पर नए विवाद


लेखक- हरिकृष्ण निगम

हाल में बाल दिवस पर श्रीनगर में आयोजित एक रैली में जिसमें मुख्यमंत्री गुलाम नबी आजाद उपस्थित थे, वन्दे मातरम के गान पर जो विवाद उठा उस पर किसी को भी लज्जा हो सकती है। मुफ्ती वशीरूद्दीन अहमद ने दावा किया कि वन्देमातरम हमारा राष्ट्रगीत नहीं हो सकता क्योंकि यह इस्लाम की मूल धारणा के विरूध्द हैं और इसने जम्मू-कश्मीर के लोगों की भावनाओं पर आघात पहुंचाया है। हुरियत कांफ्रेंस के अध्यक्ष मीरवायज़ उमर फारूख ने इस घटना की भर्त्सना की और कहा कि बच्चों से धर्म-विरोधी गीत-गवाना भारत सरकार द्वारा उनकी धार्मिक पहचान मिटाने की दूरगामी साजिश है। 14 नवंबर 2007 को नेहरू जी की 118वीं जन्मतिथि पर आयोजित एक समारोह में हजारों बच्चों की उपस्थित में वंदेमातरम गाया गया था। उन्हीं सारे तर्कों को कश्मीर में दोहराया गया जो देश के अनेक मुस्लिम नेता पिछले कई वर्षों से राष्ट्रीय गौरव के इस गान पर आपत्ति के रूप में बड़बोलेपन द्वारा व्यक्त करते रहे हैं।

यह समझ के बाहर की बात है कि आखिर किसी बुनियाद पर हमारी संविधान सभा द्वारा राष्ट्र के स्वीकृत प्रतीकों के विरूध्द ऐसी देश विरोधी दुस्साहसी टिप्पणियां खुल कर की जा रही हैं। शायद आज की सरकार देश की सुरक्षा के साथ-साथ राष्ट्रीय प्रतीकों को आदर दिलवाने के मामले में जितनी लापरवाह सिध्द हई उस पर विश्वास ही नहीं होता है। क्या उन्हें संविधान निर्मात्री सभा की अभिलेखित कार्रवाइयों के अभिलेखों को पढ़ने की फुरसत भी नहीं मिलती है। जिसमें 'जन गण मन' व 'वंदेमातरम' के बीच चुनाव करने पर बहस हुई थी। देश के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद ने 24 जनवरी 1950 को देश की संविधान सभा को संबोधित करते हुए कहा था कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में सुदृढ़ भूमिका निभाने वाले 'वंदेमातरम' गीत को 'जन गण मन अधिनायक' राष्ट्रगान के बराबर प्रतिष्ठा और बराबरी का दर्जा प्राप्त होगा। भारतीय संविधान सभा के आधिकारिक रूप में संकलित चर्चा के अभिलेखों के खण्ड-12 पर यदि दृष्टिपात किया जाए तो 'वंदेमातरम' का विरोध करने वाले या उनके समर्थक सेकुलर बुध्दिजीवियों को देशविरोधी कहने में किसी को संकोच न होगा।

बंकिमचन्द्र चटर्जी द्वारा रचित राष्ट्रीय पुकार का प्रतीक वन्दे मातरम गीत सबसे पहले 1896 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में गाया गया था। यह आश्चर्य की बात है कि स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान कांग्रेस के अधिवेशनों में स्वयं बड़े मुस्लिम नेता उन लोगों की भर्त्सना करते थे जो इस गीत के दौरान खड़े नहीं होते थे। तत्कालीन ब्रिटिश समाचार पत्र जैसे 'स्टेटसमैन' एवं 'पायनियर' में कई संदर्भ आये हैं, जब खिलाफत आंदोलनों की बैठकों में वंदेमातरम के गायन के समय हिन्दू मुस्लिम सभी आदर से खड़े हो जाते थे। एक-दो मुस्लिम नेता खड़े नहीं होते थे तो उनकी आलोचना भी की जाती थी। अंग्रेज वंदेमातरम से इस लिए चिढ़ते थे कि बंग-विभाजन के दौरान इस गीत ने सारे देश को अभूतपूर्व रूप से जोड़ दिया था। इसीलिए अंग्रेजों ने इसे प्रतिबंधित कर मुस्लिम लीग को इसके विरूध्द भड़काना शुरू किया था।

स्वतंत्रता से पहले कांग्रेस की लगभग हर बड़ी सभा में इसे नियमित रूप से गया जाता था। 1923 के कांग्रेस के काकीनाडा अधिवेशन में जब विष्णु दिगंबर पलुस्कर वंदेमातरम गाने के लिए खड़े हुए थे, तब कांग्रेस के एक मुस्लिम सदस्य मौलाना अहमद अली ने आपत्ति जताई थी । इसके पूर्व मुसलमानों को अपने खिलाफत आंदोलन तक में गांधी द्वारा इस गाने का अनुमोदन दिलवाया गया था।

एक और रोचक ऐतिहासिक सत्य 'वंदेमातरम' के संबंध में सामने आया जब कांग्रेस के अपराजेय चाणक्य कहलाने वाले पं. द्वारका प्रसाद मिश्र वंदेमातरम का विरोध करने वाले रऊफ अहमद और एस.डब्ल्यू.ए. रिजवी जैसे पुरानी सेन्ट्रल प्राविन्सेज़ और बरार की 1937 की पहली कांग्रेस सरकार के सदस्यों पर इस तरह वन्देमातरम की रक्षा व समर्थन पर टूट पड़े थे जो हर कांग्रेसी को जानना जरूरी है। उस सरकार के प्रमुख थे बी.एन. खरे और उस समय कुछ मुस्लिम सदस्यों की आपत्तियों पर डा. मिश्र के तर्क तमाचे का काम करते थे। तात्पर्य यह है कि कांग्रेस के राष्ट्रवादी नेता उस समय भी सेकुलरवादी कहलाने वाले लोगों के कुतर्कों का दो टूक जवाब दे सकते थे।

अभी अधिक दिन नहीं हुए जब हैदराबाद के मुस्लिम धार्मिक नेताओं ने फतवा जारी किया था कि जिन स्कूलों में वंदेमातरम सामूहिक रूप से गाया जाता है, वहां मुस्लिम बच्चों को न पढ़ाया जाए। उनके अनुसार वे 'हिन्दू मजहबी तराने' के खिलाफ है और इसके सामूहिक गायन पर प्रतिबंध की मांग करते है। छह दशकों में यह विवाद कई बार उठा पर आज तो इसके समर्थन में प्रबुध्द कहलाने वाले अंग्रेजी मीडिया का एक बड़ा वर्ग अगुवाई कर रहा है' जिससे स्थिति चिंताजनक बनती जा रही है। पिछली बार जून 2006 में जब आल इंडिया सुन्नी उलेमा बोर्ड के अध्यक्ष मौलाना सैय्यद शाह बदरूद्दीन कादरी अलजीलानी ने वंदेमातरम के विरूध्द फतवा जारी किया था उसके बावजूद कई प्रदेशों में इसका असर नहीं था पर सेकुलरवादियों के उन्हीं घिसेपिटे तर्कों के प्रयोग के कारण यह विवाद उठता ही रहता है।

कुछ दिनों पहले प्रसिध्द विधिवेत्ता राम जेठमलानी इस विवाद पर (13 सितंबर 2006)'ए ट्रिस्ट विद वंदेमातरम' शीर्षक एक भावपूर्ण लेख लिखा था। इसके प्रथम पैराग्राफ ने उन्होंने 14 अगस्त 1947 की उस सुबह की याद दिलाई है जब संविधान निर्मात्री सभा का पांचवा सत्र कान्स्टीटयूशन हाल में डा. राजेन्द्र प्रसाद की अध्यक्षता में हो रहा था और लगभग सभी सदस्य उपस्थित थे। उस दिन के एजेन्डा का पहला आइटम वन्देमातरम का गान सुचेता कृपलानी द्वारा होना था। गीत के गायन के दौरान सभी मंत्रमुग्ध होकर सुन रहे थे क्योंकि उन्होंने उसे अत्यंत सुरीली आवाज में गाया था। डा. राजेन्द्र प्रसाद का उसके बाद का भाषण ऐतिहासिक कहा जा सकता है क्योंकि उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन से सेनानियों की भारत व अण्डमान जैसी जगहों की जेल यातना के अनुभवों की याद कर उन्हें श्रध्दांजलि दी। उन्होंने देश के सभी नागरिकों के साथ-साथ सभी अल्पसंख्यकों की सुरक्षा व समृध्दि की गारंटी देते हुए उनके कल्याण की कामना की। उस समय उपस्थित सदस्यों में एक ने भी वंदे मातरम के गाने पर या उसके बाद भी टिप्पणी न की थी। यहाँ तक कि चौधरी खालिकुज्जमां ने नेहरू जी के प्रस्ताव का अनुमोदन किया जिसमें मध्यरात्रि को ली जाने वाली शपथ का प्रारूप था। जन गण मन और वंदे मातरम् के चुनाव के बीच प्रतिद्वंद्विता मात्र संगीत और धुन की लोकप्रियता के आधार पर थी। यह महसूस किया गया कि गाते समय जन गण गन की धुन ज्यादा अच्छी रहेगी इसलिए उसे राष्ट्र गान चुना गया। यह भी स्पष्ट किया गया कि वंदे मातरम का उतना ही महत्व राष्ट्रगीत के रूप में रहेगा।

जैसा ऊपर लिखा गया है 24 जनवरी 1950 को, हमारे गणतंत्र के जन्म के दो दिन पहले औपचारिक रूप से राष्ट्रपति का यह वक्तव्य स्वीकार किया गया था। 'जन गण मन जो अपने शब्दों व धुन वाली कृति से परिचित है, भारत का राष्ट्रगान होगा, जिसमें समयानुसार सरकार किसी शब्द के परिवर्तन के लिए अधिकृत की गई है तथा वंदे मातरम जिसने देश के स्वतंत्रता संग्राम में ऐतिहासिक भूमिका निभाई है, उसी जन गण मन जैसे गीत की बराबरी का हकदार और दर्जा दिया जाने वाला यह राष्ट्रगीत होगा। 'तालियों की गड़गड़ाहट के बाद राष्ट्रपति के वक्तव्य को वही आदर व मान्यता मिली जो संविधान की किसी अन्य धारा को।' यदि देश के मुस्लिम नागरिक 'जन गण मन' का आदर कर सकते हैं तब अचानक उसी संविधान के दूसरे प्रावधानों का उल्लंघन कैसे हो सकता है? मात्र गाना ही नहीं भावों और आदर सहित इसके प्रति रूख दिखाने की अपेक्षा है जो राष्ट्रीय एकता के लिए आवश्यक है, ऐसा राम जेठमलानी भी मानते हैं।
(नवोत्थान लेख सेवा हिन्दुस्थान समाचार)

Wednesday, 5 December 2007

श्री अटल बिहारी वाजपेयी की कविता



मौत से ठन गई

ठन गई!
मौत से ठन गई!

जूझने का मेरा कोई इरादा न था,
मोड़ पर मिलेंगे इसका कोई वादा न था,

रास्ता रोककर वह खड़ी हो गई ।
यों लगा जिंदगी से बड़ी हो गई।

मौत की उम्र क्या दो पल भी नहीं,
जिंदगी-सिलसिला, आज कल की नहीं,
मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूं,
लौटकर आऊंगा, कूच से क्यों डरूं

तू दबे पाव, चोरी-छिपे से न आ,
सामने वार कर, फिर मुझे आजमा,
मौत से बेखबर, जिंदगी का सफर,
शाम हर सुरमई, रात बंसी का स्वर।

बात ऐसी नहीं कि कोई गम ही नहीं,
दर्द अपने-पराए कुछ कम भी नहीं
प्यार इतना परायों से मुझको मिला,
न अपनों से बाकी है कोई गिला।

हर चुनौती से दो हाथ मैंने किए,
आंधियों में जलाएं हैं बुझते दिए,

आज झकझोरता तेज तूफान है,
नाव भंवरों की बाहों में मेहमान है।

पार पाने का कायम मगर हौसला,
देख तूफां का तेवर तरी तन गई,
मौत से ठन गई।

Tuesday, 4 December 2007

तानाशाहों के लिए संदेश

लेखक- चंद्रमोहन

नंदीग्राम में कितनी महिलाओं से बलात्कार किया गया यह भी मालूम नहीं पड़ेगा, कितने बम चले इनकी गिनती ही नहीं। कितने लोग मारे गए यह भी मालूम नहीं पड़ेगा। कितने शव नदी में फेंक दिये, कोई नहीं जानता। राहत शिविरों में असंख्य ऐसी महिलाएं हैं जिन्हें पता नहीं कि उनके मर्द कहां हैं? और यही पार्टियां हैं जो गुजरात को लेकर इतना शोर मचाती रही हैं। गोधरा के बाद गुजरात में जो दंगे हुए वे निंदनीय हैं। हिंसा का कहीं भी कोई औचित्य नहीं है, पर नरेन्द्र मोदी ने कभी खुलेआम हिंसा को जायज नहीं ठहराया पर बुध्ददेव भट्टाचार्य तो खुलेआम कह रहे हैं कि जो हुआ वह सही था। हिंसा के बल पर आप अधिक देर शासन नहीं कर सकते। सोवियत यूनियन को बिखरते समय नहीं लगा था इसलिए माकपा को सावधान हो जाना चाहिए कि आम लोगों के साथ उसका रिश्ता टूट गया है। बुध्ददेव को यह भी याद रखना चाहिए कि उनके लोग बिल्कुल माफ नहीं करते। सिध्दार्थ शंकर रे के बाद पूरे तीस वर्ष हो गए, कांग्रेस के उन्होंने अभी तक पैर नहीं जमने दिए इसी में मिनी-तानाशाहों के लिए संदेश छिपा है।

एक न एक दिन ऐसा होना ही था। सच्चाई सामने आनी ही थी। 30 वर्ष से पश्चिम बंगाल में वामदलों का शासन है। सब हैरान हैं कि यह कैसे संभव हुआ जबकि इस दौरान प्रदेश निरंतर पिछड़ता गया। नंदीग्राम का घटनाओं से साफ हो गया है कि उस अभागे प्रांत में वामदलों का शासन हिंसा तथा अत्याचार पर आधाारित रहा है। सरकार पार्टी के अधीन हो गई और पार्टी के काडर ने विरोधियों को कुचल डाला। आज हालत है कि मेधा पाटेकर जो अधिकतर मामलों में वामदलों के साथ रही हैं, ने नंदीग्राम को टॉर्चर चैम्बर कहा है। उनके अनुसार यह ऐसा यातना शिविर है जहां सत्ताधारी माकपा के कार्यकर्ताओं को आतंक फैलाने की छूट है। वामदलों गठबंधान में शामिल आरएसपी के एक मंत्री ने इस्तीफे की इच्छा व्यक्त करते हुए नंदीग्राम में माकपा की गुंडागर्दी को इसके लिए दोषी ठहराया है। अब स्थिति कुछ सुधार गई है लेकिन एक बार तो पुलिस ने भी वहां की स्थिति को 'भयावह' कहा था। मुख्यमंत्री बुध्ददेव भट्टाचार्य हिंसा को न्यायोचित ठहरा रहे हैं। उनके अनुसार माओवादियों की हिंसा का जवाब देने के लिए उनके काडर को हिंसा अपनानी पड़ी। वह पहले मुख्यमंत्री हैं जिन्होंने खुलेआम हिंसा, लूटपाट तथा बलात्कार को न्यायोचित ठहराने की हिमाकत की है। किसी भी लोकतंत्र में इसकी इजाजत नहीं होनी चाहिए लेकिन मार्क्‍सवादी नेता समझते हैं कि उन पर कोई कानून लागू नहीं होता। आखिर वे गांधीवादी तो कभी भी नहीं थे। उन्हें लक्ष्य की चिंता है साधनों की चिंता उन्होंने कभी नहीं की इसीलिए नंदीग्राम में विरोधियों को हिंसा के साथ कुचल दिया गया।

एक पत्रकार ने नंदीग्राम से रिपोर्ट भेजी है, 'अधिकतर जगह माकपा के कार्यकर्ता अंधाधुंध गोलियां चलाते हुए गांवों में दाखिल हो गए। उसके बाद लूटपाट और आगजनी शुरू हो गई। मध्‍यकालीन समय के युध्द की याद दिलाने वाले हथकंडों को अपनाते हुए सीपीएम ने एक बड़ी रैली का आयोजन किया जिसके आगे पकड़े गए 500 भूमि उच्छेद कमेटी के कार्यकर्ताओं को मानव ढाल की तरह इस्तेमाल कया गया। सभी के हाथ बंधो थें इसके दो मकसद थे। एक, विरोधी अब उनकी रैली पर गोली नहीं चला सकेंगे और दूसरा अगर रास्ते में बारूदी सुरंग बिछाई गई है तो उसका असर इस मानवीय ढाल पर पहले होगा।'

यह हालत है आज के आधुनिक भारत के एक हिस्से की जहां लोगों को पकड़ कर 'मानवीय ढाल' की तरह उनका इस्तेमाल किया जाता है। यह भी उल्लेखनीय है कि मुख्यमंत्री की यह शिकायत कि वहां तृणमूल कांग्रेस तथा माओवादियों के बीच सांठगांठ रही है, का प्रतिवाद उनके अपने गृहसचिव ने किया है जिनका कहना है कि उनके पास इसका कोई प्रमाण नहीं है। साफ है कि अपने काडर की हिंसा तथा बदमाशी से धयान हटाने के लिए मुख्यमंत्री माओवादियों को दोषी ठहरा रहे हैं जबकि स्वतंत्र पर्यवेक्षक कह चुके हैं कि वहां की बुरी हालत का कारण माकपा का आतंक का शासन है। कई जगह तो बाकायदा बंकर बने हुए हैं। शायद इसीलिए राज्यपाल ने इसे युध्द क्षेत्र कहा है। कुछ समय के लिए सीआपीएफ को नंदीग्राम में प्रवेश नहीं दिया गया। मीडिया को भी बाहर रखा गया। खैर अब चिंता नहीं रही क्योंकि मुख्यमंत्री हिंसा का औचित्य समझा रहे हैं। अगर हिंसा सही है तो फिर छिपाने की जरूरत ही नहीं है।

कांग्रेस जो इस मामले में बच-बच कर मुंह खोल रही है, को भी कहना पड़ा कि 'यह हिंसा राज्य-समर्थित कत्लेआम है।' कांग्रेस संतुष्ट है कि वामदल विशेष तौर पर माकपा, दबाव में आ गए हें और परमाणु करार को लेकर शायद अब बहुत तंग नहीं करेंगे लेकिन देश को तो सोचना चाहिए कि पश्चिम बंगाल में कैसी सरकार है जिसके लिए हिंसा शासन का सही साधान है? जहां गांवों पर कब्जे किये जाते हैं और विरोधियों को परास्त करने के लिए अत्याचार और बलात्कार का इस्तेमाल किया जाता है। नंदीग्राम में कितनी महिलाओं से बलात्कार किया गया यह कभी मालूम नहीं पड़ेगा। कितने बम चले इनकी गिनती ही नहीं। कितने लोग मारे गए यह भी मालूम नहीं पड़ेगा। कितने शव नदी में फेंक दिये, कोई नहीं जानता। राहत शिविरों में असंख्य ऐसी महिलाएं हैं जिन्हें पता नहीं कि उनके मर्द कहां हैं? और यही पार्टियां हैं जो गुजरात को लेकर इतना शोर मचाती रही हैं। गोधारा के बाद गुजरात में जो दंगे हुए वे निंदनीय हैं। हिंसा का कहीं भी कोई औचित्य नहीं है, नरेन्द्र मोदी ने कभी खुलेआम हिंसा को जायज नहीं ठहराया पर बुध्ददेव भट्टाचार्य तो खुलेआम कह रहे हैं कि जो हुआ वह सही था। अर्थात वह स्पष्ट कर रहे है कि अगर कम्युनिस्टों की सत्ता को चुनौती दी गई तो फिर ऐसा ही होगा।

मुख्यमंत्री का कहना है कि 'मैं पार्टी से बड़ा नहीं हूं।' इस स्वीकृति पर किसी को आपत्ति नहीं होगी, आखिर वहां माकपा के नेतृत्व में सरकार है और कांग्रेस वाला हाल नहीं कि नेता पार्टी से बड़ा है। लेकिन पश्चिम बंगाल की समस्या मुख्यमंत्री तथा पार्टी का रिश्ता नहीं, असली समस्या है कि सरकार पार्टी के मातहत है। पार्टी वहां लूटपाट करें, लोगों को आतंकित करे, विरोधियों को खत्म कर दे, सरकार चुपचाप तमाशा देखती रहेगी। पश्चिम बंगाल के पतन का भी यही कारण है। अब अवश्य बुध्ददेव घेराव की नीति की आलोचना करते हैं पर उस वक्त जब सस्ती लोकप्रियता के लिए उद्योग को पश्चिम बंगाल से खेदेड़ा जा रहा था सरकार मूकदर्शक बना रही। आज उसी उद्योग को वापस बुलाने की कोशिश में सिंगूर तथा नंदीग्राम में समस्या खड़ी हो गई है क्योंकि अब उनकी जमीन छीनी जा रही है वे प्रतिरोध कर रहे हैं और मीडिया के इस युग में उन्हें दमन से भी दबाया नहीं जा सकता।

एक लोकतंत्र में सरकार तथा पार्टी के अलग अलग निधार्रित क्षेत्र होते हैं। सरकार को चलाने के लिए अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने भाजपा के प्रिय मुद्दों को एक तरफ रख दिया था लेकिन पश्चिम बंगाल में काडर सुप्रीम है। वह तो लाठी और गोली चलाने के आदी हैं। उन्हें तो समझाया गया है कि जो विरोध करे उसे पीट डालो और अगर जरूरत पड़े तो गोली भी चला दो, हम सब संभाल लेंगे। उन्हें बातचीत या आम सहमति का रास्ता आता ही नहीं क्योंकि पश्चिम बंगाल में इसे कभी अपनाया ही नहीं गया। या आप हमारे साथ हैं या हमारे खिलाफ। जरूरत से अधिक यह आत्मविश्वास अब उलटा पड़ा है और दशकों से इस आतंक को बर्दाश्त करने वाला समाज उठा खड़ा हुआ है। बुध्ददेव शुरू में अपने लोगों को नियंत्रण में करने का प्रयास करते रहे लेकिन जिन्न ने वापस बोतल में आने से इनकार कर दिया और अब दबाव इतना है कि उदार मुख्यमंत्री का मुखौटा उतार वह खुद हिंसा को सही ठहरा रहे हैं। इस प्रक्रिया में उन्होंने आर्थिक सुधार की अपनी नीति भी खतरे में डाल दी क्योंकि जिस तरह के हथकंडे अपना कर माकपा ने अपनी सत्ता कायम की थी वही अब प्रांत के लिए बेड़िया बन गये हैं क्योंकि इन हालात में वे उद्योगपति महामूर्ख होंगे जो पश्चिम बंगाल में निवेश करना चाहेंगे। अब तो वहां के वामदलों के समर्थक बुध्दिजीवी भी सड़कों पर उतर आए हैं। पहली बार है कि माकपा बिल्कुल अलग-अलग पड़ गई है।

सबसे अधिक दुख इस बात का है कि यह बढ़िया प्रांत जिसने कई बार देश का विभिन्न क्षेत्रों में नेतृत्व किया था एक बार फिर राजनीतिक तथा हिंसा के मिश्रण के कारण फंस गया है। पर हिंसा के बल पर आप अधिक देर शासन नहीं कर सकते। सोवियत यूनियन को बिखरते समय नहीं लगा था इसलिए माकपा को सावधान हो जाना चाहिए। आम लोगों के साथ उसका रिश्ता टूट गया है। बुध्ददेव को यह भी याद रखना चाहिए कि उनके लोग बिल्कुल माफ नहीं करते। सिध्दार्थ शंकर रे के बाद पूरे तीस वर्ष हो गए, कांग्रेस के उन्होंने अभी तक पैर नहीं जमने दिए इसी में मिनी-तानाशाहों के लिए संदेश छिपा है।

नंदीग्राम पर ऐसे कब्जा जमाया माकपा ने

भाड़े के सिपाहियों, अपराधियों के हाथों में थी माकपाई सेना की कमान।

माकपा ने नंदीग्राम पर फिर से कब्जा कर लिया है। पार्टी का दावा है कि तृणमूल कांग्रेस के नेतृत्व वाली भूमि उच्छेद प्रतिरोध समिति (बीयूपीसी) का गढ़ रहे इस इलाके के तकरीबन सभी गांवों पर कई किलोमीटर लंबा जुलूस निकालकर उसने अपन झंडा गाड़ दिया है। यह संभव हुआ है माकपा की निजी सेना के जरिए।

एक हफ्ते तक चले ऑपरेशन को सफल बनाने के लिए ते-तर्रार निजी सेना बनाई गई। कैसी हे यह निजी सेना? डीएनए-भास्कर ने यह पता लगाने के लिए नंदीग्राम के लोगों, पार्टी के जमीनी कार्यकर्ताओं और राज्य के वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों से बात की।

दुर्गापूजा के बाद हुई प्लानिंग: पिछले माह दुर्गा पूजा महोत्सव खत्म होने के तत्काल बाद माकपा का शीर्ष नेतृत्व कार्यकर्ताओं के भारी दबाव में आ गया था। कार्यकर्ता हाथ से निकल चुके नंदीग्राम पर फिर से कब्जा करना चाहते थे। स्थानीय नेताओं को आशंका थी कि नंदीग्राम के हाथ से निकल जाने पर अगले साल होने वाले पंचायत चुनावों में इसका विपरीत प्रभाव पड़ेगा। माकपा के बड़े नेता कोई बड़ा प्रशासनिक कदम नहीं उठाना चाहते थे, क्योंकि पिछली बार नंदीग्राम में पुलिस तैनात करने के बाद फायरिंग में 14 लोगों की मौत हो गई थी। ऐसे में विकल्प के तौर पर तय किया गया कि नंदीग्राम से संबंधा रखने वाले राज्य के एक मंत्री और एक सांसद को पार्टी मुख्यालय बुलाया जाए।

थोड़े समय में ही सेना तैयार: 'केशपुर लाइन' के आधार पर समूचे ऑपरेशन का बड़ा आक्रामक ब्लूप्रिंट तैयार किया गया। 29 अक्टूबर से 3 नवंबर तक के संक्षिप्त समय में ही माकपा ने निजी सेना खड़ी कर दी। वॉर रूम का प्रबंधान पूर्वी मिदनापुर के पार्टी जिला अधयक्ष अशोक गुरिया ने संभाला। उनके साथ थ, नंदीग्राम में छह जनवरी का अपनी जान गंवाने वाले पार्टी नेता शंकर सामंत के भाई नव कुमार सामंत। यह तय हुआ कि पार्टी कार्यकर्ता इस सेना के पैदल सिपाही होंगे और बाहरी लोग पहले हमला बोलेंगे।

कुख्यात अपराधियों से सजी सेना: कार्यकर्ताओं के काडर पडोस के गरबेटा और चन्द्रकोण से लाए गए। प्लाटून को कुख्यात और स्थानीय अपराधियों से सजाया गया। तपन घोष और सुकुर अली जैसे भूमिगत नेताओं की विशेषज्ञता का लाभ लिया गया। घोष और अली छोटा अंगारिया में तृणमूल कार्यकर्ताओं को जलाने के मामले में सीबीआई के मोस्ट वांटेड अपराधी हैं।

गोला-बारूद का प्रबंध: पड़ोस के बांकुडा जिले के ओंडा और राजपुर तथा बिहार-झारखंड से भी काडर बुलवाए गए। टी को पड़ोसी राज्यों से हथियार व गोला-बारूद नंदीग्राम तक पहुंचाने का जिम्मा सौंपा गया।

'पुलिस कुछ न करें': चार नवंबर को माकपा मुख्यालय ने निजी सेना को हरी झंडी दिखा दी। नंदीग्राम थाने का खास निर्देश दिए गए कि वह किसी भी हालत में पुलिस न भेजे। पांच नवंबर को पूर्वी मिदनापुर के एसपी ने ऑन रिकार्ड कहा कि उन्हें सुरक्षाबल नंदीग्राम भेजने के निर्देश नहीं हैं।

...और शुरू हुआ अभियान: छह नवंबर को सेना की एक टुकड़ी ने नंदीग्राम की ओर कूच किया। तलपट्टी नहर की टेखाली पुलिया पार कर उसने भांगबेरा में विरोधियों पर फायरिंग शुरू की लेकिन यह तो महज एक दिखावा था। बड़ी टुकड़ी नहर पार कर गरचकबेरिया और सतेंगोबरी की तरह बढ़ गई। यह बड़ी सेना विरोधिायों पर भारी पड़ी और गांव के गांव सेना के कब्जे में आते चले गए। विरोधियों और उनके समर्थकों को माकपा सेना ने बंधक बना लिया।

आठ नवंबर को सेना भूमि उच्छेद प्रतिरोध समिति के मजबूत गढ़ सोनाचूरा की ओर बढ़ने को तैयार थी। कहीं से कोई विरोधा नहीं था। क्यों? क्योंकि सेना के साथ सबसे आगे बंधक चल रहे थे, उनके पीछे माकपा काडर और फिर स्वचालित हथियारों से लैस सेना के 'सिपाही'। खुद के लोगों को बंधक बना देख बीयूपीसी के दस्तों ने गोली चलाने की हिम्मत नहीं की। अंतत: 10 नवम्बर को नंदीग्राम फिर से माकपा के कब्जे में आ चुका था। (साभार: दैनिक भास्कर)

Monday, 3 December 2007

बंगाल के वामपंथी किस राह पर? : संतोष कुमार मधुप

यूं तो भारत में वामपंथ हमेशा से दिशाहीन और अपनी प्रकृति के प्रतिकूल रहा है लेकिन वामपंथ और वामपंथियों की वर्तमान दशा को देख कर पुराने वामपंथी जरूर चिंतित और चकित होंगे। इस देश में वामपंथ कभी भी सर्वमान्य न था और न कभी हो पाएगा। जिन गिने चुने इलाकों में उनका प्रभाव था वो भी अब खत्म होने के कगार पर है। पश्चिम बंगाल एक ऐसा राज्य है जहाँ पिछले तीन दशकों से वामपंथियों का शासन है। इसका ये मतलब कतई नहीं है कि यहाँ की जनता उन्हें पसन्द करती है या उनके सिध्दांत यहाँ बहुत लोकप्रिय है। मुमकिन है दो दशक पहले यह स्थिति रही हो। लेकिन यदि पिछले दस-बीस सालों की बात करें तो बंगाल में ना तो वे लोकप्रिय हैं और ना ही आम आदमी पर उनका विशेष प्रभाव है। यहाँ है तो सिर्फ उनका आतंक और भय। अक्सर लोगों को कौतूहल होता है कि बंगाल की जनता माकपा और उसके सहयोगी दलों को उनकी किस खूबी के कारण 30 सालों से समर्थन देती आ रही हैं। सच तो यह है कि जनता समर्थन देती नहीं बल्कि उनसे समर्थन लिया जाता है- जबरन, भय दिखा कर, बम और गोलिया चला कर। यहाँ के वामपंथी शासक हर फन में माहिर हैं। पुलिस प्रशासन का अपने हक में इस्तेमाल करना, सरकारी धन से वोट खरीदना, विपक्ष को विखंडित रखना यह सब इन्हें बखूबी आता है। पुलिस का जितना बेजा इस्तेमाल बंगाल में होता है, देश के किसी और राज्य में शायद ही होता हो। अब तक राज्य की जनता इनके जुल्मों सितम खामोशी से सहती रही, लेकिन सिंगूर और नन्दीग्राम की घटना ने उन्हें झकझोङ कर रख दिया। अब वे वामपंथी सरकार से वगावत करने को तैयार नजर आ रहे हैं। जनाक्रोश का जो चरमोत्कर्ष इस वक्त यहाँ देखने को मिल रहा है उससे मुख्यमंत्री बुध्ददेव भट्टाचार्य की सांसे हलक में फँसी हुई है। वाम मोर्चे के चेयरमेन विमान बसु की घबराहट छुपाए नहीं छुप रही। माकपा के सहयोगी दल अपना दामन बचाने की कोशिशों में जुटे हुए हैं और सारा दोष माकपा के सर डाल रहे हैं। वामपंथी खेमे में हर तरफ अफरातफरी और बौखलाहट साफ नजर आ रही है।

इस बौखलाहट में ये लोग ऐसी गलतियां कर रहे हैं जो ना सिर्फ उनके लिए बल्कि प. बंगाल में वामपंथ के भविष्य के लिए भी नुकसानदेह साबित हो सकता है। मुख्यमंत्री बुध्ददेव भट्टाचार्य को ही लें। जिस नंदीग्राम में हर सवेरा खूनी जंग की सौगात लेकर आता है वहाँ वे नया सूरज उदित होने की बात करते हैं। जिस तरह पाकिस्तान कश्मीर में आतंकी गतिविधियों को जायज ठहराने की नापाक कोशिश करता रहता है ठीक उसी तरह बुध्ददेव और विमान नन्दीग्राम में माकपा समर्थकों द्वारा फैलाए जा रहे आतंक को उचित ठहराने का दुस्साहस तक कर चुके हैं।

नन्दीग्राम को लेकर राज्य में माकपा की जो फजीहत हो रही है वह किसी से छुपी नहीं है। राज्यपाल की ओर से केन्द्र को जो रिपोर्ट भेजी गई है उसमे साफ कहा गया है कि राज्य में कानून व्यवस्था की हालत खस्ता है। उधर उच्च न्यायालय ने भी राज्य में कानून व्यवस्था की बदहाली के लिए सीधे तौर पर राज्य सरकार को जिम्मेदार ठहराया है। स्वयं प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह भी नन्दीग्राम की स्थिति पर अपनी चिंता जाहिर कर चुके हैं। जहाँ तक मीडिया का सवाल है तो वो काफी पहले से ही सरकार के खलाफ मुखर है। इन सब बातों ने राज्य के माकपा नेतृत्व को इस कदर हिला कर रख दिया है कि वे विक्षिप्तों जैसी हरकतें करने लगे हैं। माकपा नेता विमान बसु और विनय कोंगर ने जिस भाषा में उच्च न्यायालय के न्यायधीश और राज्यपाल की आलोचना की है वह उनके मानसिक दिवालियेपन का ही परिचायक है। उन्हें ना तो न्यायपालिका की मर्यादा की चिन्ता है और ना ही राज्यपाल पद की गरिमा का भान है। न्यायधीशों का वेतन बढाने की बात करने वाले विमान बाबू को शायद यह भी पता नहीं राज्य के हजारों सरकारी कर्मचारियों को महीनो इन्तजार के बाद वेतन मिलता है।

दूसरी ओर बुध्ददेव बाबू राज्य में माकपा की काली करतूतों को जनता तक पहुँचाने वाले संवाद माध्यमों से बेहद खफा हैं। पिछले दिनो उन्होंने भरे पत्रकार सम्मेलन में एक बांग्ला दैनिक के प्रतिनिधि को संबोधित कर अपनी खीझ कुछ यूँ जाहिर की - आपका अखबार पिछले 11 महीनो से नन्दीग्राम के बारे में गलत और भ्रामक खबरें छाप कर लोगों को हिंसा के लिए उकसा रहा है। कोई दूसरी सरकार होती तो आपके अखबार को प्रतिबंधित कर दिया जाता। हम कीचङ में हाथ डाल कर अपने हाथ गंदे नहीं करना चाहते..........। खुद को कवि और साहित्यकार समझने वाले मुख्यमंत्री के मुँह से इस कदर तुच्छ शब्दों वाली टिप्पणी सुन कर मीडिया के साथ साथ संपूर्ण बुध्दिजीवी वर्ग आहत हुआ। ये अलग बात है कि अगले ही दिन उस दैनिक के संपादक ने बुध्ददेव बाबू के बयान की तीखी आलोचना करते हुए जब उन्हें दैनिक के खिलाफ कार्रवाई करने की खुली चुनौती दी तो उनकी बोलती बंद हो गई।

ऐसे अनेकों उदाहरण हैं जिनसे कभी-कभी ऐसा प्रतीत होता है कि बंगाल के वामपंथी नेता अपना मानसिक संतुलन खो चुके हैं। बंगाल में वामपंथियों की इस कदर बौखलाहट कहीं उनके पतन का संकेत तो नहीं? अपनी जङों को तो ये खुद ही खोखला कर चुके हैं, अब जो कुछ सूखी-अधसूखी डालियाँ बची हैं वे भी जनाक्रोश के इस तूफान में टूट कर बिखर सकती हैं।
(नवोत्थान लेख सेवा हिन्दुस्थान समाचार)

बेनकाब हुआ सीपीएम का सांप्रदायिक चेहरा

लेखक- डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

कहते हैं चीता अपनी धारियाँ नहीं छुपा सकता लेकिन सीपीएम की दाद देनी पड़ेगी कि उसने 30 साल तक न केवल न अपनी धारियाँ छिपा कर रखीं बल्कि अपने चीता होने का प्रमाण भी छिपाए रखा। अब जब पर्दा हटा है तो उसके खूंखार पंजे पैने दांत स्पष्ट दिखाई देने लगे हैं।

सीपीएम की पूंजीवादी धारियाँ तो पिछले 6-7 सालों से तेजी से प्रकट होनी शुरू हो ही गई थीं। लेकिन वे पूंजीवादियों के दलाल ही बन जाएंगे ऐसा किसी ने नहीं सोचा था। नंदीग्राम को देखकर लगता है कि वहां सीपीएम के लोग नहीं लड़ रहे बल्कि किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी के प्रशिक्षित गुंडे आम जनता पर अत्याचार ढा रहे हैं। नंदीग्राम में पूंजीपतियों के पक्ष में सीपीएम का बंदूक लेकर गांव-गांव में निकल पड़ना और विरोध के हर स्वर को गोली से शांत कर देना। उसका एक पक्ष था। लेकिन पिछले दिनों उसका जो दूसरा सांप्रदायिक पक्ष सामने आया है वह उसके पूंजीवादी पक्ष से भी ज्यादा खतरनाक है।

अभी तक नंदीग्राम के संघर्ष को किसी ने सांप्रदायिक दृष्टिकोण से मूल्यांकित नहीं किया था। नंदीग्राम में जो लड़ रहे हैं, वे किसान हैं । न वे हिन्दू हैं, न वे मुसलमान हैं। वे किसान अपनी जमीन के लिए लड़ रहे हैं। उनमें से ज्यादातर किसी राजनैतिक दल से ताल्लुक भी नहीं रखते। वे अपनी रोजी रोटी के लिए अपने अधिकारों के लिए उस राज्य सरकार से लड़ रहे हैं जो राज्य सरकार जाहिर तौर पर इन्हीं के हितों का पोषण करने की बात कहती रही हैं। लेकिन पिछले दिनों कोलकाता में जो कुछ हुआ उसने सीपीएम को बीच चौराहे में नंगा कर दिया। किसी अखिल भारतीय अल्पसंख्यक फ्रंट के लोगों से नंदीग्राम को लेकर प्रदर्शन करवाया गया। वह सीपीएम के सांप्रदायिक चेहरे को बेनकाब करता है।

सीपीएम नंदीग्राम को हिन्दू-मुस्लिम समस्या का रूप देना चाहती है। इतना ही नहीं, उसने इसी अल्पसंख्यक फ्रंट के माध्यम से नंदीग्राम के साथ ही तसलीमा नसरीन के वीजा के प्रश्न को नत्थी कर दिया। अल्पसंख्यक फ्रंट के लोगों का कहना है कि नंदीग्राम में मुसलमानों पर अत्याचार हो रहा है। सरकार मूल रूप में ही मुसलमानों के खिलाफ है। इसका एक और सबूत यह है कि पश्चिमी बंगाल सरकार ने तसलीमा नसरीन को कोलकाता में रखा हुआ है। उसे तुरंत बंगाल से निकाला जाना चाहिए। अन्धा क्या मांगे दो ऑंखे। सारी की सारी सीपीएम क्या बुध्द देव भट्टाचार्य और क्या विमान बोस, क्या सीताराम येचुरी और क्या प्रकाश करात सब तसलीमा के पीछे लठ लेकर पड़ गए हैं। अल्पसंख्यक फ्रंट को खुश करने के लिए सीपीएम की सरकार ने तसलीमा नसरीन को जबरदस्ती विमान में बिठचकर राजस्थान रवाना कर दिया। यहां तक कि उसे नित्य प्रयोग के कपड़े भी उठाने नहीं दिए। सीपीएम का यह निर्लजतापूर्ण सांप्रदायिक आचरण यद्यपि ऊपर से स्तंभित कर देने वाला है लेकिन जो इस दल के इतिहास से वाकिफ हैं वे जानते हैं कि सत्ता में बने रहने के लिए सीपीएम कभी भी घनघोर घंघोर सांप्रदायिक व्यवहार कर सकती है। नंदीग्राम में सर्वहारा की एकता को तोड़ने के लिए सीपीएम द्वारा चलाया गया यह घृणित सांप्रदायिक हथियार है।

सबसे बड़ी बात यह है कि तसलीमा नसरीन मूल रूप से बंग भाषी ही है। यदि वह किसी और प्रांत की होती तो शायद अल्पसंख्यक फ्रंट को खुश करने केलिए सीपीएम के लोग उसे खुद ही रात के अंधेरे में बांग्लादेश की सीमा में धकेल देते। सर्वहारा के लिए संघर्ष करने का दम भरने वाली सीपीएम किसी दिन सत्ता सुख के लिए अपनी सांप्रदायिक जीभ से ही दंश मारेगी ऐसा कम से कम बंगाल के किसानों ने और नंदीग्राम में अपने अधिकारों के लिए लड़ने वाले लोगों ने नहीं सोचा होगा। अलबत्ता सीपीएम के पक्ष में इतना जरूर जाता है कि उसकी दार्शनिक आधार भूमि शुरू से ही यह मानती है कि सत्ता बंदूक की नली से निकलती है। वक्त पड़ने पर उन्होंने नंदीग्राम के माध्यम से बता भी दिया है कि पिछले 30 सालों से इसी बंदूक की नली से पश्चिमी बंगाल की सत्ता पर कब्जा जमाए हुए हैं। अब जब नंदीग्राम के लोगों ने साहस करके बंदूक की नली को ही पकड़ लिया हैतो सीपीएम वालों ने उनकी सफों में सांप्रदायिकता का सांप छोड़ा है। इस आशा के साथ कि शायद वह सर्वहारा की एकता को तोड़ दे या कम से उनको डरा ही दे। इसके लिए सीपीएम तसलीमा नसरीन को बली का बकरा बनाना चाहती है।