गुजरात के बाद हिमाचल में भी केसरिया परचम का लहराना केंद्र की यूपीए सरकार को सकते में लाने के लिए काफी है। हालांकि केंद्रीय राजनीति में हिमाचल की खास भूमिका नहीं रही फिर भी इस जीत का दूरगामी प्रभाव केंद्र की राजनीति पर पड़ने की पूरी संभावना है। हिमाचल विधानसभा चुनाव के परिणाम से जहां भाजपा का मनोबल बढ़ा है वहीं कांग्रेस उत्तर प्रदेश और गुजरात में खराब प्रदर्शन के बाद हिमाचल से भी अपना किला गंवाने के बाद हताश है। इससे पहले इस साल के शुरुआत में एक और पहाड़ी राज्य उत्तराखंड की सत्ता भी भाजपा ने कांग्रेस से छीन ली थी।
हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र के एसोसिएट प्रोफेसर उमेश चौहान इस चुनाव परिणाम को एंटी इनकम्बेंसी फैक्टर मानते हुए कहते हैं कि यदि 1985 के बाद के चुनाव परिणामों पर नजर डालें तो हरेक पांच साल बाद यहां सत्ता बदलती रही है। कांग्रेस ने अपनी तरफ से विकास को मुद्दा बनाने की कोशिश की लेकिन उसे असफलता मिली। प्रो.चौहान ने कहा कि सत्तारूढ़ दल अक्सर विकास को मुद्दा बनाने की कोशिश करता है लेकिन इसमें अहम बात ये है जनता विकास को किस तरह से समझती है। विकास में बेजरोजगारी से लेकर तमाम तरह की चीजें शामिल होती हैं। हिमाचल प्रदेश में देखें तो साक्षरता में वृद्धि तो हुई है लेकिन बेरोजगारी बढ़ी है। हिमाचल में कुछ औद्योगिक इकाईयां भी आई हैं जिसका सीधा लाभ आमलोगों को नहीं हुआ। भष्ट्राचार पर लगाम नहीं लगाया जा सका जिसका नतीज कांग्रेस को भुगतना पड़ा।
लगातार हार की ठोकर ने कांग्रेस पार्टी को एक बार फिर अपने गिरेबान में झांकने को मजबूर कर दिया है। सोनिया का करिश्माई नेतृत्व भी कामयाब नहीं हो पा रहा है। गुजरात की जीत पर जहां नरेंद्र मोदी के व्यक्त्तिव का जादू चला वहीं हिमाचल में भाजपा की जीत एंटी इनकैंबेंसी फैक्टर के कारण मानी जा रही है। हिमाचल में गुजरात की तरह मौत का सौदागर या सोहराबुद्दीन जैसे शब्दों के हथियार नहीं चले। यहां सत्ता के प्रति लोगों में आक्रोश था जिसे उन्होंने अपने मतों से जाहिर कर दिया। भाजपा भी शुरुआती असमंजस के बाद प्रेम कुमार धूमल को मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट करके साहसी फैसला लिया, जो सही साबित हुआ। नीरज कुमार दैनिक भास्कर
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