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Saturday, 5 January 2008

पाकिस्तान की राजनीति का रक्तरंजित इतिहास

लेखक- संतोष कुमार मधुप

पाकिस्तान की स्थापना से लेकर आज तक इस देश की राजनीति हिंसा और रक्तपात की बुनियाद पर चलती रही है। लियाकत अली से लेकर बेनजीर भुट्टो तक सभी इसी रक्तरंजित राजनीति के शिकार हुए हैं। वर्षों से हत्या और आतंक पाकिस्तान की राजनीति का अभिन्न अंग बना हुआ है। वहाँ जनतांत्रिक चेतना और मूल्यबोध बहुत पहले लुप्त हो चुके हैं। 1947 में पाकिस्तान का गवर्नर जनरल बनने के बाद मोहम्मद अली जिन्ना ने वहाँ के लोगों को यह समझाने की कोशिश की थी कि शांति, प्रेम, भाईचारा और लोकतांत्रिक भावना इस्लामी विचारधारा से जुङे हुए हैं, अत: पाकिस्तान की राजनीति को लेकर चिन्ता का कोई कारण नहीं है। लेकिन जिन्ना का यह भरोसा अधिक दिनो तक कायम नहीं रह सका और खुद उनके उपर भी जानलेवा हमला हुआ। हालाँकि उस हमले के पीछे अन्य तरह के कारण थे। दरअसल पाकिस्तान के बहुत से लोग विभाजन से खुश नहीं थे। बहुतों ने अपना सब कुछ खोकर पाकिस्तान में आश्रय लिया था। उस पर तत्कालीन राजनेताओं की महात्वाकांक्षा और सत्ता लोलुपता ने पाकिस्तान की राजनीति को शुरु में ही अस्थिर कर दिया। पाकिस्तान को जन्म के साथ मिली राजनीतिक अस्थिरता की सौगात के कारण राजनीतिक द्वेष बढता रहा और हिंसा होती रही।

इस हिंसा के पहले शिकार बने लियाकत अली। 16 अक्टूबर 1951 को रावलपिंडी में एक जनसभा को संबोधित करने गए लियाकत अली की गोली मार कर हत्या कर दी गई। जिन्ना की तरह वे भी एक सुखी और समृध्द पाकिस्तान की कल्पना करते थे और उन्होंने भारत के साथ कुछ समझौते भी किए थे। कट्टरवादी उनकी राजनीति पसन्द नहीं करते थे। उन्हें पता था कि लोकतांत्रिक तरीके से लियाकत अली को हटाना संभव नहीं है इसलिए उन्होंने बंदूक का सहारा लिया। उसके बाद से पाकिस्तान में अधिनायकवाद और सैन्य शासन का दौर प्रारंभ हुआ। 1954 में अयूब खान द्वारा सत्ता हथिया लिए जाने के साथ ही पाकिस्तान में सैन्य शासन का नया सिलसिला शुरु हुआ। अयूब खान के बाद 1969 में याहिया खान ने सत्ता पर कब्जा किया, लेकिन दो सालों बाद उन्हें सत्ता छोङनी पङी। जुल्फिकार अली भुट्टो ने लोकतांत्रिक तरीके से सत्ता हासिल की लेकिन उनके शासन काल में भी सामरिक और सांप्रदायिक ताकतें मजबूत होती रही। परिणामस्वरूप जनरल जियाउल हक ने उनका तख्ता पलट कर एक बार फिर पाकिस्तान की सत्ता पर सेना का एकाधिकार कायम कर लिया। 4 अप्रैल 1979 को सुनियोजित तरीके से एक पुराने कत्ल के मामले में मुकदमा चला कर भुट्टो को फाँसी दे दी गई। जियाउल हक का अन्त भी सुखद नहीं रहा और 16 नवम्बर 1988 को रहस्यमय तरीके से एक विमान दुर्घटना में उनकी मौत हो गई। उनकी मौत को लेकर पाकिस्तान की सेना और गुप्तचर एजेंसी आईएसआई के साथ-साथ अमेरिका की सीआईए और रूस की केजीबी की ओर भी शक की उंगली उठी थी। लेकिन उनकी मौत आज तक रहस्य बना हुआ है।
इसी दौरान पाकिस्तान की राजनीति में बेनजीर भुट्टो का अभ्युदय हुआ। 1988 के आम चुनाव में उनकी पार्टी पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी को पूर्ण बहुमत मिला और बेनजीर देश की प्रथम महिला प्रधानमंत्री बनी। लेकिन वे अधिक दिनो तक सत्ता नहीं संभाल सकी और अल्पावधि में ही भ्रष्टाचार और कुशासन के आरोपों के कारण उन्हें कुर्सी छोङनी पङी। उनके पति आसिफ अली जरदारी को अपहरण के मामले में गिरतार कर लिया गया। उसके बाद हुए चुनाव नवाज शरीफ की पार्टी विजयी रही और वे प्रधानमंत्री बने। बेनजीर को अगले तीन सालों तक विपक्ष में बैठना पङा। 1993 के आम चुनाव में एक बार फिर पीपीपी की जीत हुई और बेनजीर दूसरी बार प्रधानमंत्री बनने में कामयाब रही। लेकिन एक बार फिर भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण उनकी सरकार बर्खास्त कर दी गई और इस बार पति जरदारी के साथ बेनजीर को भी रिश्वतखोरी के मामले में जेल जाना पडा।

1999 में जनरल परवेज मुशर्रफ ने नवाज शरीफ सरकार का तखता पलट कर लोकतंत्र का मखौल उङाते हुए पाकिस्तान में पुन: सामरिक शासन स्थापित किया। नवाज शरीफ को दर-बदर कर मुशर्रफ लंदन में रह रही बेनजीर को भी गिरतारी का भय दिखाते रहे। मुशर्रफ के शासन में हुए आम चुनाव में 382 में से 80 सीटें मिली लेकिन बेनजीर देश लौटने की हिम्मत नहीं जुटा सकी। क्योंकि मुशर्रफ ने पाकिस्तान लौटते ही उन्हें सलाखों के पीछे डालने की पूरी तैयारी कर रखी थी। वर्ष 2007 में बेनजीर और मुशर्रफ के बीच समझौते के सुर सुनाई पङे। बेनजीर ने इस्लामाबाद के लाल मस्जिद में कट्टरपंथियों के खिलाफ मुशर्रफ की सैन्य कार्रवाई का समर्थन किया। ऐसा कर उन्होंने कट्टरपंथियों की नाराजगी जरूर मोल ले ली पर इससे उनकी पाकिस्तान वापसी का रास्ता भी साफ हो गया। आखिरकार 18 अक्टूबर 2007 को बेनजीर वापस लौटीं और पाकिस्तान के राजनीतिक हलकों में नया जोश उमर पङा। लेकिन इसके साथ ही उनकी जान लेने की कोशिशें भी शुरु हो गई।

पाकिस्तान आगमन के साथ ही उन पर जानलेवा हमला किया गया। इस हमले में वे खुद तो बच गईं लेकिन उनके स्वागत में खङे सौ से अधिक लोगों की मौत हो गई। आखिरकार 27 दिसम्बर 2007 को बेनजीर भी पाकिस्तान की खूनी राजनीति की शिकार हो गई। उनकी हत्या में मुशर्रफ या उनकी सरकार का हाथ था या नहीं यह कहना मुश्किल है, परन्तु जिस तरह उनकी मौत के कारणों को लेकर नए-नए रहस्य पैदा किए गए उससे भयानक राजनीतिक षडयंत्र की बू आ रही है। गौरतलब है कि उसी दिन एक और पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के काफिले पर भी गोलिया दागी गई। खुद नवाज शरीफ ने अपनी हत्या की आशंका जाहिर की है। पाकिस्तान पूरी तरह से कृत्रिम अराजकता का शिकार है। यहाँ बैलेट की बजाए बुलेट पर भरोसा करने की परम्परा रही है। बेनजीर खूनी सियासत की शिकार होने वाली पहली या आखिरी शख्स नहीं थीं। यह सिलसिला चलता रहेगा। पता नहीं कब तक।
(नवोत्थान लेख सेवा हिन्दुस्थान समाचार)

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