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Thursday, 25 September 2008

पं. दीनदयाल उपाध्याय जयंती पर विशेष : डा. मुरली मनोहर जोशी


25 सितंबर भारतीय जनसंघ के पूर्व अध्यक्ष पं। दीनदयाल उपाध्याय का जन्‍म दिवस हैं। वे मूलत: एक चिंतक, सृजनशील विचारक, प्रभावी लेखक और कुशल संगठनकर्ता थे। दीनदयालजी भारतीय राजनीतिक चिंतन में एक नए विकल्प 'एकात्म मानववाद' के मंत्रद्रष्टा थे। उन्‍होंने मार्क्‍स के सिध्दांतों को 'भारत की धरती पर पूर्णत: आधारहीन' बताया। उनका मानना था कि भारत के बाहर भी किसी देश ने मार्क्‍स के सिध्दांतों को व्यवहार में नहीं अपनाया। मार्क्‍सवाद में व्यक्ति तथा समष्टि का संपूर्णता से चिंतन न होने के कारण इसका पराभव निश्चित है। हम यहां दीनदयालजी के सहयोगी रहे भाजपा के पूर्व अध्‍यक्ष एवं पूर्व केन्‍द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री डा. मुरली मनोहर जोशी का संस्‍मरणात्‍मक लेख प्रस्‍तुत कर रहे हैं-

दीनदयालजी के साथ मेरा परिचय 1949 में हुआ। यह वह समय था जब राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ पर प्रतिबंध लग चुका था। वे उ.प्र. के सह प्रान्त प्रचारक थे। हमने उन्हें अपने कॉलेज में एक व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया। वामपंथी विचारों से जुडे छात्र इस कोशिश में थे कि यह कार्यक्रम किसी तरह असफल हो जाये। दीनदयालजी आये और कार्यक्रम समय पर प्रारम्भ हुआ। मैं अपने कुछ मित्रों के साथ बाहर निकल कर देखने गया कि दीनदयालजी के भाषण के समय कोई अप्रिय घटना न घटे।

कार्यक्रम में व्यवधान डालने के लिए कुछ छात्रों ने बिजली का 'फ्यूज' उड़ा दिया। हम रोशनी की दूसरी व्यवस्था जुटाने के लिए भागे। यह सब इतनी आपा-धापी में हुआ कि मैं गिर पड़ा और चोट लग गई। कम्युनिस्टों के भरसक प्रयास के बावजूद दीनदयालजी का कार्यक्रम सफलतापूर्वक सम्पन्न हो गया। हम अपने-अपने छात्रावासों में वापस लौट गये। जब उन्हें हमारे चोट लगने की खबर लगी तो वे हमसे मिलने हमारे कमरे तक आये। तब से मैं लगातार उनके सम्पर्क में उनके अन्तिम समय तक बना रहा। पंडितजी संघ कार्य करते रहे और 1951 में जनसंघ की स्थापना होने पर उसमें सक्रिय हो गये।

मैं आगे की शिक्षा के लिए इलाहाबाद गया। पंडितजी जब भी इलाहाबाद आते थे तो वे रज्जू भैया के घर पर ठहरते थे। वे कभी भी विश्वविद्यालय छात्रावासों में जाकर छात्रों से भेंट करना नहीं भूलते थे। उनकी सादगी सबको प्रभावित करती थी। एक प्रमुख राजनीतिक दल के महामंत्री होने के बावजूद उनके व्यवहार में उनका पद कभी झलकता नहीं था। उनकी सादगी एवं बुध्दिमत्ता उन्हें छात्रों के काफी नजदीक लाती थी।

एक दिन उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र विभाग के विभागाधयक्ष एवं प्रख्यात अर्थशास्त्री प्रो.जे.के. मेहता से भेंट करने की इच्छा व्यक्त की। प्रो. मेहता अर्थशास्त्र जैसे विषय पर पंडितजी की समझ और पकड़ को देख कर काफी प्रभावित हुए और वे समझ गये कि दीनदयालजी कोई सामान्य राजनेता नहीं हैं। मुझे भारतीय जनसंघ के लिए काम करने का अवसर 1957 में मिला। उसके बाद वे जब भी इलाहाबाद आये वे हमेशा मेरे घर पर ही ठहरते थे। यह वह समय था जब जनसंघ अपनी शैशवास्था में था। इलाहाबाद कांग्रेस का गढ़ था और पंडित जवाहरलाल नेहरू और लाल बहादुर शास्त्री जैसे कद्दावर नेताओं के होते वहां जनसंघ के लिए अपनी उपस्थिति दर्ज कराना ही उपलब्धि हुआ करती थी।

इन तमाम विषम परिस्थितियों के बावजूद दीनदयालजी जनसंघ को प्रभावी बनाने के लिए इलाहाबाद का नियमित प्रवास करते थे। एक बार एक कार्यकर्ता को स्टेशन से अपनी मोटरकार में दीनदयालजी को एक सभा स्थल पर ले जाना था। वह मोटरकार रास्ते में खराब हो गई और स्टेशन पर उन्हें लेने कार्यकर्ता नहीं पहुंचा। मेरे पास उन दिनों एक मोटरसाईकिल थी। दीनदयालजी बिना हिचकिचाहट मेरी मोटरसाईकिल पर बैठे और सभास्थल में पहुंच गये। सभास्थल एक ग्रामीण क्षेत्र में था और ग्रामीण श्रोताओं की समस्याओं को लेकर जिस तरह उन्होंने अपना भाषण दिया वह दर्शाता था कि जन-भावनाओं के प्रति वे कितने संवेदनशील हैं। कहना आवश्यक नहीं है कि वे वहां मौजूद ग्रामीणों के साथ अपना तादात्म्य बिठाने में काफी सफल रहे।

कई बार वे इलाहाबाद आने की पूर्व सूचना नहीं देते थे। रिक्शा पकडकर सीधा घर आ जाते थे। भोजन में उनकी पसंद भी काफी सादी थी। पराठा घुंइया की सब्जी, दही-बूरा और उड़द की दाल उन्हें बहुत प्रिय था। वे कहते थे यह सब मिल जाना ही मेरे लिए किसी दावत से कम नहीं है। उन्हें छोटी-छोटी बातों की बड़ी चिंता थी। छोटा सा सुझाव भी जब उनके मस्तिष्क में कौंधा जाता था तो वे उस पर पूरा धयान देते थे।

1962 के लोकसभा चुनावों में विरोधी दलों ने तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के विरूध्द डा. राममनोहर लोहिया को फूलपुर निर्वाचन क्षेत्र से खड़ा किया। यद्यपि डा. लोहिया पराजित हुए लेकिन अंतिम वोट गिने जाने तक नेहरू जी की सांसें अटकी रहीं। कुछ पोलिंग स्टेशनों पर तो, जो जनसंघ के प्रभाव वाले क्षेत्र थे, नेहरूजी को एक वोट भी नहीं मिला। इन चुनावों से मुझे डा. लोहिया के करीब आने का अवसर मिला।

जब डा. लोहिया ने संघ और जनसंघ की कार्यप्रणाली को समझने की इच्छा व्यक्त की तो दीनदयालजी ने सोनभद्र (उ.प्र.) में आयोजित कार्यकर्ता शिविर में उन्हें आमंत्रित किया। यहां मिले अनुभवों का उन पर काफी सकारात्मक प्रभाव पड़ा। बाद में दीनदयालजी और डा. लोहिया अच्छे मित्र बने। इन दोनों के साथ आने से भारतीय राजनीति में एक नया अधयाय शुरू हुआ।
दीनदयालजी और डा. लोहिया भारत एवं पाकिस्तान के शांतिपूर्ण सहअस्तित्व की बात को बढ़ाने वाले अग्रणी व्यक्तियों में थे और यहां तक कि इस दिशा में उन्होंने भारत-पाक महासंघ के विषय पर एक संयुक्त वक्तव्य भी जारी किया।
दीनदयालजी और डा. लोहिया भारत एवं पाकिस्तान के शांतिपूर्ण सहअस्तित्व की बात को बढ़ाने वाले अग्रणी व्यक्तियों में थे और यहां तक कि इस दिशा में उन्होंने भारत-पाक महासंघ के विषय पर एक संयुक्त वक्तव्य भी जारी किया।

उन्होंने कई बार छोटी जगहों और संस्थाओं के निमंत्रण को भी सिर्फ उसके विचारधारा की दृष्टि से महत्व देते हुए स्वीकारा। एक बार हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने राजभाषा अधिनियम पर आयोजित सेमिनार में किसी राष्ट्रीय स्तर के नेता को मुख्य वक्ता के रूप में आमंत्रित करने की रूचि दिखाई। इस पर मैंने दीनदयालजी से व्यक्तिगत रूप से बात की और उन्होंने इस प्रस्ताव को स्वीकार किया क्योंकि यह अपने दल के विचार को रखने का एक सशक्त मंच था।

उनके मेरे आस पड़ोस में कई मित्र थे जो उनके नगर में होने पर सदैव मेरे घर उनसे भेंट करने अवश्य आते थे। एक बार उन्होंने मुझसे पास के एक गांव में चलने को कहा वहां पर उन्होंने ग्रामीणों से उनके बीच बैठ कर बड़ी आत्मीयता से बातें की। इलाहाबाद वापिस लौटते समय उन्होंने मुझे बताया कि उस गांव में वे इसलिए गये थे क्योंकि पिछली बार वे जब इस गांव में आये तो उन्होंने फिर आने की बात कही थी।

1963 में दीनदयालजी ने जौनपुर से लोकसभा उपचुनाव लड़ा लेकिन वे हार गये। लेकिन उन्होंने अपनी हार को भी विनम्रतापूर्वक स्वीकारते हुए किसी भी तरह का आरोप-प्रत्यारोप लगाने से इंकार कर दिया। ''मेरा प्रतिद्वंद्वी अपनी बात को वोटरों तक ले जाने में मेरे से अधिक सफल रहा'', पराजय के बाद मात्र इतना ही उन्होंने कहा।
1963 में दीनदयालजी ने जौनपुर से लोकसभा उपचुनाव लड़ा लेकिन वे हार गये। लेकिन उन्होंने अपनी हार को भी विनम्रतापूर्वक स्वीकारते हुए किसी भी तरह का आरोप-प्रत्यारोप लगाने से इंकार कर दिया। ''मेरा प्रतिद्वंद्वी अपनी बात को वोटरों तक ले जाने में मेरे से अधिक सफल रहा'', पराजय के बाद मात्र इतना ही उन्होंने कहा।
चार वर्ष के बाद 1967 में कांग्रेस को कई राज्यों के विधानसभा चुनावों में विरोधी दलों के आगे धूल चाटनी पड़ी। कांग्रेस को बहुमत न मिलने से विरोधी दलों की बीच सरकार बनाने की कवायद शुरू हो गई। भारतीय जनसंघ के सदस्यों की संख्या इन सभी विधानसभाओं में प्रभावकारी थी। जब संविद सरकारों की बात चली तो दीनदयालजी ने इसे मानने से प्रारम्भ में इंकार कर दिया। उनका मत था इससे पार्टी और विचारधारा पर विपरीत असर पडेग़ा। उत्तार प्रदेश में वे नहीं माने परन्तु बिहार में वे मान गये। बाद में उन्होंने उ.प्र. में भी संविद सरकार के गठन को मंजूरी दे दी।

जब दीनदयालजी जनसंघ के अधयक्ष बने तो मैं उनके साथ कालीकट तक ट्रेन यात्रा में था। कालीकट अधिवेशन के बाद दीनदयालजी भारतीय राजनीति के अग्रणी नेताओं में गिने जाने लगे। वहां से लौटने के बाद वे उ.प्र. गये। वहां उन्होंने श्री नानाजी देशमुख, श्री रामप्रकाश गुप्ता, श्री हरीश चन्द्र श्रीवास्तव, श्री गंगा भक्त और अन्य नेताओं और कार्यकर्ताओं से मिले। यहां से उन्हें पटना जाना था और मैं उन्हें स्टेशन तक छोड़ने गया। उस क्षण मैंने उन्हें आखिरी बार जीवित अवस्था में देखा था क्योंकि यह यात्रा उनकी अंतिम यात्रा साबित हुई।

उन्हें पटना के लिए विदा करने के बाद मैं इलाहाबाद में एक प्रशिक्षण वर्ग के लिए चला गया। वह 11 फरवरी (1968) का दिन था जब हमें उ.प्र. के तत्कालीन उप मुख्यमंत्री श्री राम प्रकाश गुप्ता का फोन आया कि दीनदयालजी का शव मुगलसराय में पड़ा हुआ है। हम सभी स्तब्ध रह गये। श्री गुरूजी ने मुझे तत्काल वाराणसी पहुंचने को कहा। जब दीनदयालजी का शव पोस्टमार्टम के लिए ले जाया गया मैं उनके साथ था।

12 comments:

संजय बेंगाणी said...

श्रद्धांजली

Anonymous said...

नेपाल से महामानव को श्रद्धांजली

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } said...

दीनदयाल जी जैसे महामानव कभी कभी ही जनम लेते है . कष्टों का बचपन ,कष्टों से भरा जीवन और उनका दर्शन एकात्म मानववाद ,अन्तोदय एक धरोहर है हमारे लिए . लेकिन सत्ता की आग व भूख सब खात्मे की और ले चला है . दीनदयाल जी को सच्ची शिर्धन्जली

संजीव कुमार सिन्‍हा said...

एकात्‍ममानव दर्शन के प्रणेता पं दीनदयाल उपाध्‍याय, जिन्‍होंने अपना पूरा जीवन समाज के अंतिम व्‍यक्ति के उत्‍थान और राष्‍ट्रवादी विचारधारा को पल्‍लवित करने में खपा दिया, को शत्-शत् नमन।

surendra joshi said...

देश के महान चिन्‍तक और संगठक परम आदरणीय पण्डित दीनदयाल जी उपाध्‍याय को आज उनके जयंती दिवस पर शत श्‍ात नमन........

Unknown said...

he rastrapurush yugprabaratak aapko sat sat naman

Unknown said...

he rastrapurush yugprabaratak aapko sat sat naman

jitendra surana barwaha said...

देश के महान चिन्‍तक और संगठक परम आदरणीय पण्डित दीनदयाल जी उपाध्‍याय को आज उनके जयंती दिवस पर शत श्‍ात नमन........barwaha bjp k or se

jitendra surana barwaha said...

देश के महान चिन्‍तक और संगठक परम आदरणीय पण्डित दीनदयाल जी उपाध्‍याय को आज उनके जयंती दिवस पर शत श्‍ात नमन........

jitendra surana barwaha said...

श्रद्धांजली

jitendra surana barwaha said...

श्रद्धांजली

Anonymous said...

श्रद्धांजली