Wednesday, 29 October 2008
Tuesday, 28 October 2008
Sunday, 26 October 2008
प्रचंड को स्वर्ण के पलंग पर सोना चाहिए। आखिर 15,000 नेपाली नागरिक की मौत के बाद वे सत्ता में आए हैं।
नेपाल में राजशाही को उखाड़ फेंकने के लिए एक दशक तक संघर्षरत रहने के बाद प्रचंड स्वयं शाही रहन-सहन में लिप्त हो गये हैं। प्रचंड जो घड़ी पहनते हैं उसकी कीमत लाखों में है। वे काफी महंगे वस्त्र पहनते हैं। अब जनता से मिलने में कतराते है। आज के –'नई दुनिया' समाचार-पत्र में एजेंसी के हवाले से एक खबर प्रकाशित हुई हैं कि 'प्रचंड को चाहिए लखटकिया पलंग'। यह खबर हम यहां साभार प्रस्तुत कर रहे हैं ताकि कॉमरेडों के भ्रष्ट और तानाशाही जीवन की कलई खुल सके।
कम्युनिस्ट अक्सर मजदूरों की व्यथा को दुनिया के सामने लाते हैं। उनकी पीडा को अपना दुखदर्द मानकर उन्हीं की जीवनशैली को अपनाते हैं। लेकिन आजकल यह एक ढोंग बन गई है। मजदूरों को लेकर वर्षों से सत्तासंघर्ष कर रहे और हाल में ही इसे भुना कर सत्ता की गद्दी पर पहुंचे प्रचंड को आजकल उसी मजदूरों का जीवन नीरस लगने लगा है। तभी तो वह सत्ता में आने के बाद एक लाख नेपाली रूपए के पलंग पर सोते हैं। इन दिनों उनकी पलंग ही उनके लिए मुसीबत बन गया है। नेपाली मीडिया में प्रचंड के इस पलंग की खूब चर्चा हो रही है। दो महिने एक नेपाली टेलीविजन ने खबर प्रसारित की थी कि प्रचंड के पलंग का मूल्य एक लाख नेपाली रूपए से भी अधिक है। प्रसिद्ध स्तंभकार खगेंद्र खानगरूला ने 'जब अपनी आंखों से देखना छोड देते हैं' नामक स्तंभ में इस संबंध में प्रचंड की खूब आलोचना की थी। इसके बाद यह मामला खूब गरमा गया है। एक अनिवासी नेपाली ने सिडनी से व्यंगात्मक लहजे में प्रचंड को 'श्री सात' की संज्ञा दे डाली। नेपाल में पूर्व राजा ज्ञानेंद्र को 'श्री पांच' की संज्ञा दी जाती थी। अनिवासी नेपाली ने लिखा कि प्रचंड को महंगे से महंगे पलंग पर सोना चाहिए। उन्होंने लिखा है कि उन्हें स्वर्ण के पलंग पर सोना चाहिए। आखिर 15,000 नेपाली नागरिक की मौत के बाद वे सत्ता में आए हैं।
Thursday, 23 October 2008
रंगभूमि का नायक
लेखक- विकास कौशिक
मैं मुन्ना भाई नहीं हूं…मुझे मेरे सामने जीते जागते महात्मा गांधी नजर नहीं आते…लेकिन सच कहूं…सपने में मुंशी प्रेमचंद से मेरी मुलाकात होती है। और सुनिये ये मामला किसी कैमीकल लोचे का नहीं मामला सचमुच इस वक्त के सबसे बड़े लोचे का है। बहरहाल आपको बताउं मुंशी जी ने मुझसे क्या कहा…वो मुझे रंगभूमि में ले गए…अरे वही रंगभूमि जिसे आप हम सभी कभी ना कभी पढ़ चुके हैं..सब कुछ याद नहीं रख सकते इसीलिए भूल भी चुके हैं। वैसे मुंशी जी अपने साथ पिछले कुछ दिनों की अखबारी कतरने लिए घूम रहे थे..बोले- यार हालात अब भी नहीं बदले…रंगभूमि में भी यही हुआ था। गरीबों की बस्ती में कई एकड़ जमीन पर मालिकाना हक रखने वाला अंधा भिखारी सूरदास अमीर पूंजीपति और स्थानीय प्रशासकों की मिलीभगत से अपनी ज़मीन गंवा देता है..सूरदास की जमीन हड़पने में मदद करने वाले सूरदास के वही पड़ोसी होते हैं जिनके भले के लिए ही सूरदास किसी भी कीमत पर अपनी जमीन देने के लिए राजी नही होता। सूरदास और उसके साथियों में फूट पड जाती है और फिर होता वही है जो किसी भी समाज में सर्वजन के हित में नहीं होना चाहिए। यानि लालच…राजनीति…क्षुद्र भावनाओं की चपेट में आकर समाज टूटता है…झूठ की जय जयकार होती है और सच अपना मुहं छिपाकर रोता है।
इसके बाद प्रेमचंद बाबू रोआंसे कम और आक्रामक ज्ञानी ज्यादा हो गए…बोले …ये सिर्फ इसी कहानी का नहीं पूरी दुनिया में होने वाली ज्यादातर ज्यादतियों का लब्बो-लुबाव है। जब आपस में प्यार से जुड़ी हुई कड़िया खुलने लगती है…जब हम एक दूसरे को खलने लगते हैं…स्वार्थों के लिए आपस में जलने लगते हैं। तब हमारा इतिहास हमारी बर्बादी की गवाही देने की तैयारी करने लगता है। हजारों साल से हिंदुस्तान के इतिहास में भी यही तो होता आया है। पहले शासक आपस में लड़कर रियासतों में बंट गए। अंग्रेज आए तो उन्हें पहले से बंटे इन रजवाड़ों को उखाड़ने में ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी फिर भी उन्होंने जो कोशिशें की उसे उनकी क््क्ष्ज्क्ष्क््क ॠक्् ङछक घ्क्ष्क् के रुप में प्रसिध्दि मिली। 300 सालों तक उनके शासन का इतिहास देखकर तो यही लगता है कि दुनिया में शायद ही राज करने की ऐसी कोई दूसरी नीति रही होगी।
मैंनें भी प्रेमचंद जी की हां में हां मिलाई। वो और एक्साइटिड होकर बोले….
लेकिन विकास जी मैं तो ये मानता हूं कि 300 साल तक रहे इस जुल्मी ब्रितानी शासन का श्रेय अंग्रेजो की तोड़कर राज करने की नीति को नही बल्कि हमारी टूटते जाने…बिखरकर कमजोर होते जाने और आखिर में घुटने टेक देने की रीति को जाता है।
चुप होकर एक ठंडी आह भरकर कहा ….स्साला…जब दुनिया भर में राजनैतिक सामाजिक चेतना का विकास हो रहा था तक हमारे यहां देश को अंग्रेजों के हाथों बेचने की तैयारी हो रही थी। प्लासी की लड़ाई से लेकर जिन्ना की अलग मुल्क की मांग और उसके लिए मचे खून खराबे तक हमारे इतिहास में जयचंदों की कहीं कोई कमी नहीं रही। इतिहास गवाह है कि समाज को तोड़ने वालों को बार बार विजय इसलिए मिलती रही क्योंकि हम कमजोर नहीं अपितु विभाजित थे। इसलिए अपने ही देश में हम शासक नहीं बल्कि शासित बने रहे।
हूं………मेरे मुहं से आवाज निकली। और उन्होंनें लपक ली। बोलते गए….
हम विभाजित थे इसलिए हमे हराना आसान था सो हम हारते गए और शत्रु जीतते गए…यही रंगभूमि में हुआ और यही मुल्क में।
लेकिन सुनों बाबू सिर्फ यही तस्वीर नहीं है….इसका भी दूसरा पहलू है जब हमने अपनी ताकत को पहचाना और हमारी खुली और बिखरी हथेली एकजुट होकर बंद मुठ्ठी बन गई तब हमें देश की आजादी भी मिल गई। ये एकता का ही प्रभाव है कि आजादी की लड़ाई लड़ने और जीतने का श्रेय हमें धर्म जाति के नाम पर तोड़ने वाली किसी मुस्लिम लीग या हिंदू महासभा को नहीं बल्कि महात्मा गांधी की राष्ट्रीय एकता को बल देने वाली शक्ति को जाता है। एकता की सफलता का ये इतिहास सिर्फ हमारा नहीं वरन दुनिया भर में एक झंडे के तले इकठ्ठा होकर अपना हक मांगने के लिए लडी लड़ाइयों का गर्वीला अतीत है। चाहें फ्रांसीसी क्रांति हो या रुस की बाल्शेविक क्रांति या फिर रंगभेद के खिलाफ दुनियाभर में चले आंदोलन।
पुरानी बातें कहते कहते अचानक उनका हाथ झोले में कुछ पुरानी आखबारी कतरनों की तरफ चला गया मुझे दिखाते हुए बोले और ये देखो हालिया ही..हमारे पड़ोसी नेपाल में जनता का राजशाही के खिलाफ चला जन आंदोलन …और ये देखो पाकिस्तान में लोग कैसे मुर्शरफ के पुतले जलाकर जस्टिस चौधरी जिंदाबाद के नारे लगा रहे हैं…देखो इन्हें सिया सुन्नी के नाम पर बंट जाने वाले लोग कैसे जस्टिस चौधरी यानि लोकतंत्रवाद के लिए निरंकुश ताकत के सामने कैसे खड़े हो गए हैं।
जान लो बेटा…दुनिया भर में किसी भी जनआंदोलन को तभी सफलता मिली जब पूरा जनसमुदाय पूरे मन से उसका हिस्सा रहा। सियासतदानों ने चाहे जितना कुचलने की कोशिश की हो लेकिन एक एक से ग्यारह होने वालों के सामने उनकी बारुदी तोपे भी ज्यादा टिक नहीं सकी।…
अब तक मैं भी प्रेमचंद जी के साथ फ्रेंक हो चुका था…लगा अपना भी साहित्य ज्ञान बघार लूं..तो मैंने भी बचपन से सुनी कहानी ठोंकते हुए बोला…सर आप ठीक कह रहे हैं…लेकिन परेशानी ये है कि हम कुछ याद नहीं रखते अब देखिये ये कहानी कितनी फेमस थी जिसमें एक किसान अपने लड़ते झगड़ते रहने वाले लड़को को एकता का सबक सिखाने के लिए उन्हें पहले एक एक लकड़ी को तोड़ने को देता है और फिर लकडियों को एक गठ्ठर में मजबूती से बांधकर उन्हें ये बताता है कि जब आप एक साथ हो तो इन लकडियों की तरह कोई आपको भी नहीं तोड़ पायेगा।और तो और पचतंत्र में भी कहा गया है कि एकता से कार्य सिध्द होते हैं। लेकिन अफसोस हमारी पुरानी पीढ़ी ने अपने वक्त की इन कहानियों से कुछ नहीं सीखा….मैंने कहा।
अचानक प्रेमबाबू को ताव आ गया…तुनक कर बोले ..बस कर दी ना हताशों वाली बात…पुरानों को गरियाकर अपना पल्ला झाड़ लिया ना। मैं तुमसे पूछता हूं। तुम्हारी पीढ़ी ने क्या सीखा..लगान देखकर..बहुत सीटियां बजाई थी सिनेमा हॉल में बैठकर। वाह, क्या चमत्कारिक कहानी थी…सिर्फ एकीकरण की ताकत के आधार पर दबे कुचले किसानों ने अंग्रेजो को उन्हीं के खेल में हरा दिया था। बोलो हीरो… क्या ये एकता की ताकत का उदाहरण नहीं है जो किसी को भी मजबूती से किसी के भी सामने खड़ा सिखा दे।
कहकर वो थोड़े नर्म हो गए….बेटा…पीढ़ी नई हो या पुरानी वो ना कहानियों से सीखती है और ना ही गलतियों से। इसी का नतीजा है कि तीन सौ सालों तक गुलाम रहने के बावजूद कभी द्रविड़ राज्यों में भाषा के नाम पर ,कभी दूसरे राज्यों में धर्म.जाति के नाम पर आपस में लड़ते रहते हो। हाल ही में उत्तर भारत को हिला कर रखने वाले गुर्जर मीणा आरक्षण विवाद और डेरा सच्चा सौदा -अकाल तख्त विवाद जैसी घटनाएं क्यूं सामने आई…क्या तुम्हारी धार्मिक भावनाएं,तुम्हारे विश्वास आस्था इतनी कमजोर हैं कि कोई भी अपने ढ़ंग से कोई बात कहें तो तुम्हें अपने धर्म समाज पर आंच नजर आने लगती हैं तुम लड़ने मरने को तैयार हो जाते हो…क्यूं आरक्षण जैसी व्यवस्थाएं देश के एकीकरण से ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाती है।
शायद इसलिए कि हमारे लिए तत्काल लाभ ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाते हैं…दूरगामी दृष्टि का पतन हो जाता है…मेरे मुंह से निकल गया।
ठीक कह रहे हो…इसी चक्कर में सब भूल जाते हैं, कि विकास, आधुनिकीकरण और आकांक्षाओं की अंधी उडान ने तुमसे तुम्हारे परिवार भी छीन लिए हैं। एकता की भावना हमारे समाज से ही नहीं हमारे परिवारों से भी लुप्त होती जा रही है…न्यूकिलीयर फैमिली…यही कहते हो ना तुम। हम दो हमारे दो…और मां-बाप को गोल कर दो। यही एजेंडा होता है ना तुम्हारा। अरे तम्हारी इसी सोच ने सब कुछ छीन लिया है तुमसे। बुर्जुगों का आशीर्वाद ,उनकी छाया,प्यार सब कुछ। और नतीजा सामाजिक पारिवारिक बिखराव के रुप में तुम्हें हर कहीं मिलेगा।क्या सचमुच ये विभाजन से जन्मा पतन नहीं है।क्या ये पतन हमें उन्ही पुरानी गलतियों की तरफ नहीं धकेल रहा जिनकी वजह से कभी हम गुलाम हुऐ थे…क्या समाज टूटने के कारण तब कुछ अलग थे …नहीं बिल्कुल नहीं सच बिल्कुल अलग है। दरअसल हम भूल गए थे कि जहां आपस में संघर्ष होने लगता है वहां समाज टिक नहीं पाता। इसलिए अपने विद्वान पूर्वजों ने भी भी चेतावनी दी है कि जिस प्रकार जंगल में हवा के प्रकोप से एक ही वृक्ष की शाखाएं आपस में रगड़ कर अग्नि पैदा करती है और उसमें वो वृक्ष ही नही वरन पूरा वन ही जलकर भस्म हो जाता है। उसी प्रकार समाज भी आपसी कलहाग्नि और द्वेषाग्नि से भस्म हो जाता है। जहां आपसी कलह है वहां शक्ति का क्षय अवश्यभामी है। क्या तुम अंदाजा भी लगा सकते हो आज तक देश में जितने दंगे और विवाद हुए हैं उनमें कितने रुपयों की हानि हुई होगी…उतने पैसे में जनकल्याण और तरक्की के कितने काम हो सकते थे…
ये सोचने से पहले ही मेरा दिमाग चकरा गया…
उन्होंनें फिर बोलना शुरु किया‘——
इन्ही सब वजहों से देश पहले कमजोर हुआ था और कमजोरों को दबाने लूटने की इच्छा सभी को होती है। पहले भी कोई राज्य अपने पड़ोसी पर आक्रमण होने पर मदद के लिए ना दौड़ता था…और ना ही आज हम दौडते हैं। और तुम अपनी क्यों नही कहते…सड़क चलते किसी ऑटो शिव खेड़ा का कथन देखते हो….यदि आपके पडोसी पर अत्याचार हो रहा है और आपको नींद आ जाती है तो अगला नंबर आपका है —पढ़ते ही कितना सोचते हो…कितना जोश में आ जाते हो…और कुछ मिनटों बाद जब बस में कोई कंडक्टर किसी मामूली से बात पर किसी सहयात्री को बेइज्जत करता है, मारपीट करता है या उसे बस से उतारने पर आमादा हो जाता है तो तुम्हें क्या हो जाता है…क्यूं तुम उसका साथ नहीं देते।
क्या ये नपुंसकता…ये एकता का अभाव ये सामाजिक बिखराव,अपनी और पराई पीर के बीच का ये विभाजन हमारे पतन के लिए जिम्मेदार नहीं है। खैर छोड़….वैसे एक बात और बताता हूं…आजकल तुम्हारे यहां ये सोशल इंजीनियरिंग बहुत पॉपुलर हो रहा है….उन्होंनें फिर गहरी सांस ली और अपने आप से बुदबुदाते हुए बोले …ठाकुर का कुआं लिखते वक्त मैने कुछ गलत नहीं सोचा था वाकई सोशल इंजीनियरिंग कमाल की चीज है।
ठाकुर का कुंआ से सोशल इंजीनियरिंग का क्या ताल्लुक् है… मैने पूछा ।
वो बोले मेरे लाल…ठाकुर के कुएं से दलितो और शाषितों ने स्वर्णो के साथ मिलकर पानी निकाला था…ठीक वैसे ही जैसे मायावती ने सरकार बना ली। जब उन्हें तिलक तराजू और तलवार को जूते मार कर कुछ नहीं मिला तो एकछत्र राज की खातिर सबको गले लगा लिया…सबको साथ लेकर चलने का फार्मूला अपना लिया।नतीजा सबके सामने है…आज वो अपनी पसंद का राष्ट्रपति बनाने की स्थिति में है…हो सकता है कल खुद प्रधानमंत्री बनने की हैसियत में हो।
मैंने सोचा सच है। वक्त बदला है ,समाज बदला है हम ना बदले तो मिट जायेंगे।
ठीक सोच रहे हो….. ऐं…..ये तो सोचते को भी पकड़ लेते हैं…
पर अब वो फिर बोलने के मूड़ में थे…बोले …बिन सहकार नहीं उध्दार,सब साथ नहीं चलेंगे तो भला कैसे होगा। तुलसीदास जी ने कहा था– गगन चढ़हि रज पवन प्रसंगा। यानि हवा का साथ पाकर घूल का कण भी आसमान छू लेता है। ना मालूम हम में से कौन कौन धूल का कण हो और कौन हवा का झोंका।अगर आसमान छूना है तो सबको एक दूसरे का साथ देकर आगे बढ़ना होगा।तभी सूरज उगेगा तभी उम्मीदों का सवेरा होगा।
सूरज के सातों रंग मिलते हैं एक साथ —तभी होता है प्रकाश।
इकाइयों से खिसककर दहाइयों, सैंकडो हजारों में ,जब होती है एकाकार, तभी तो होता है, राष्ट्रीय एकता का जीवंत प्रतिबिंब साकार।
ये कहते ही जोर की हवा चली और मुंशी जी साकार से निराकार हो गये…और रंगभूमि बुकशेल्फ से मेरे मुहं पर गिरकर मुझे जगा गया।
एक सार्थक वेबसाइट- http://pravakta.com
(लेखक एक इलेक्ट्रॉनिक न्यूज चैनल से जुडे है)
Friday, 17 October 2008
नरेंद्र मोदी का जीरो टालरेंस का फार्मूला और टाटा का नैनो प्रोजेक्ट
लेखक- बिनोद पांडेय
कामरेड ज्योति बसु की शासन परंपरा को संभालनेवाले बुध्ददेव भट्टाचार्य के लिए यह चौंकानेवाली खबर थी। नींद उडानेवाली घटना थी।
आखिर क्या बात हुई कि टाटा को अपना प्रोजेक्ट भारत के एक राज्य से स्थानांतरित कर अन्य राज्य में ले जाना पडा। यहां सवाल सिर्फ एक राज्य से स्थानांतरण का नहीं है। सवाल नरेंद्र मोदी से जुडा है। वही नरेंद्र मोदी जिन्होंने अभी इसी साल 26 जुलाई को आतंकवाद का भीषण कहर झेला। राज्य के 55 नागरिक मौत के ग्रास बन गये। देश भर में इस आतंकी घटना के लिए निंदा की गयी। लेकिन इस आपदा के समय में भी कांग्रेस के लोग राजनीति करने से बाज नहीं आये। लोगों ने इसके लिए गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को ही कसूरवार बताया। और खूब आरोप-प्रत्यारोप किये गये। देश की जनता आतंकवाद के इस घाव से कहीं अधिक नेताओं के बयानबाजी से आहत हुई। कांग्रेस ने नरेंद्र मोदी पर आरोप लगाया कि उन्होंने आतंकियों को ललकारा, इसके परिणामस्वरूप गुजरात में बम विस्फोट किये गये। लेकिन मोदी का कहना था, उनका आतंकवाद के प्रति जीरो टालरेंस की नीति है और वे आतंकवाद को किसी कीमत पर बर्दाश्त नहीं करेंगे। अपने जीरो टालरेंस की नीति को अमल में लाने के लिए उन्होंने गुजकोक जैसे कानून राज्य विधानसभा में पारित कर केंद्र के पास मंजूरी के लिए भेज रखा है। लेकिन केंद्र सरकार उसे मंजूरी नहीं दे रही है। कांग्रेस का कहना है कि आतंकवाद से निबटने के लिए देश में आइपीसी की धारा ही पर्याप्त है। लेकिन आतंकियों के हमले के नये-नये आइडियाज और तकनीक से निबटने के लिए क्या देश को कडे कानून की आवश्यकता नहीं है?
बहरहाल, यहां बात टाटा की नैनो प्रोजेक्ट की है। अंतराष्ट्रीय स्तर के इस कार के निर्माण के लिए देश के राज्य ही नहीं विदेशों से भी रतन टाटा को ऑफर मिले थे। सिंगुर के आंदोलन और पश्चिम बंगाल सरकार की अदूरदर्शिता की वजह से जनता और टाटा दोनों की ही उर्जा और धन-जन की हानि का सामना करना पडा। इतना धन और जन खोने के बाद भी पश्चिम बंगाल की जनता टाटा को अपने राज्य से दूर जाने पर कैसा महसूस कर रही होगी? निश्चित रूप से यह पश्चिम बंगाल सरकार की विफलता साबित करती है।
लेकिन देश का एक दूसरा राज्य जो कि पश्चिम बंगाल से तकरीबन ढाई हजार किलोमीटर से अधिक दूरी पर स्थित है, आखिर रतन टाटा को ऐसा क्या लगा कि उन्होंने झारखंड, बिहार, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ, कर्नाटक, महाराष्ट्र और कई अन्य राज्यों को छोड गुजरात में अपना प्रोजेक्ट लगाना अधिक सेफ समझा। जबकि इसके लिए रतन टाटा को तकरीबन 3 सौ करोड का नुकसान उठाना पडेगा। यह सवाल महत्व का है। क्योंकि इसे सिर्फ एक दिन की घटना या प्रयास का असर नहीं माना जा सकता है। टाटा जैसे अंतर्राष्ट्रीय व्यवसायी को अपने राज्य में अंतराष्ट्रीय स्तर का प्रोजेक्ट लाने के लिए प्रेरित करना सचमूच बडी घटना है।
मोदी ने सत्ता संभालने के पहले दिन से ही अपनी स्पष्ट नीति घोषित कर दी थी, कि मीडिया में जो चल रहा है, उससे उन्हें कुछ भी लेना-देना नहीं है। उनका मकसद साढे पांच करोड गुजरातियों के लिए सेवा और उनकी बेहतरी के लिए काम करना है। इसके लिए उन्होंने तमाम तरह के दुष्प्रचार से खुद को किनारा कर अपने काम से काम मतलब रखा। मीडिया के दुष्प्रचार को उन्होंने अपने कामों से जवाब दिया। जो मीडिया मोदी को खलनायक बनाने में लगा था, वहीं लोग 7 अक्तूबर को मोदी की यशगाथा गा रहे थे। मोदी के करिश्मे से लोग दांतों तले अंगुली दबाने को विवश हुए थे। लेकिन मीडिया के लोग यह भली-भांति समझ रहे थे कि यह मोदी का करिश्मा एक दिन के प्रयास का नतीजा नहीं हैं। जिसे लोग धन की बर्बादी और मोदी का तमाशा कह रहे थे, वह वाइब्रेंट गुजरात महोत्सव में टाटा को गुजरात लाने में अपनी भूमिका अदा कर गया।
वर्ष 2007 के वाइब्रेंट महोत्सव के समय ही रतन टाटा ने मोदी के कामों की सराहना करते हुए कहा था कि जो लोग मोदी के इस समारोह में शरीक नहीं हुए वे मूर्ख हैं। देश का ख्याति प्राप्त यह उद्योगपति यदि इस तरह का बयान देता है तो इसके मायने मोदी के कामों में साफ-साफ महसूस किये जा सकते हैं। बहरहाल टाटा को जमीन देने से लेकर जो-जो सरकारी औपचारिकताएं पूरी करनी थी, मोदी सरकार के अधिकारियों ने त्वरित गति प्रदान कर उन्हें सब सुविधा मुहैया कराया। लेकिन यहां यह उल्लेख करना जरूरी है कि यह सिर्फ टाटा जैसे उद्योगपति को खुश करने तक सीमित नहीं था। यह राज्य की साढे पांच करोड जनता को स्वर्णिम तोहफा देने की पहल थी। टाटा के गुजरात आने से राजकोट के मोटरपार्टस के व्यापारी खुश हैं। साणंद के किसान खुश है। साणंद के पास की जनता खुश है। अहमदाबाद सहित राज्य के युवा खुश है। सभी को राज्य में इस बडे प्रोजेक्ट आने से प्रसन्नता हुई है।
लेकिन कांग्रेस के लोग यहां भी राजनीति करने से बाज नहीं आये। उनके नेता और केंद्रीय कपडा मंत्री शंकर सिंह वाघेला ने अपने बयान में कहा कि यह नरेंद्र मोदी की उपलब्धि नहीं वरन रतन टाटा की मजबूरी थी, कि टाटा को गुजरात आना पडा। वाघेला ने यहां तक कहा कि अन्य राज्यों से रतन टाटा को अपेक्षित सहयोग नहीं मिल रहा था। यह कहकर उन्होंने अपने ही शासित कई राज्यों के मुख्यमंत्रियों को कटघरे में खडा कर दिया। साथ ही गुजरात सरकार की प्रशंसा ही प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष कर दी। श्री वाघेला के कहने का अर्थ यह हुआ कि गुजरात सरकार ने देश के अन्य कई राज्यों के मुख्यमंत्रियों जिसमें कांग्रेस के भी मुख्यमंत्री शामिल है, कही अधिक तत्परता और रतन टाटा के 2 हजार करोड के प्रोजेक्ट के प्रति दिलचस्पी दिखाई।
(लेखक हिंदुस्थान समाचार एजेंसी से जुडे हैं)
Thursday, 16 October 2008
हिंदुओं के दमन की विश्वव्यापी दास्तान
Wednesday, 15 October 2008
घुसपैठियों ने जलाया असम
उड़ीसा व कर्नाटक की हिंसा के नाम पर बजरंग दल को प्रतिबंधित करने के लिए बांहें चढ़ा रहे सत्तासीन संप्रग के घटक दलों के नेताओं का असम में हिंसा पर चुप्पी साधना आश्चर्यजनक है।
1979 से ही घुसपैठियों की समस्या से जूझते आ रहे असम और अब मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश तथा नागालैण्ड के लोग बंगलादेशी मुसलमानों की दादागिरी से तंग आ चुके हैं। ये अवैध बंगलादेशी न केवल उनकी भूमि, व्यवसाय और संसाधनों पर कब्जा कर रहे हैं बल्कि जिस भी क्षेत्र में उनकी संख्या 25 प्रतिशत से अधिक होती जा रही है वहां से हिन्दुओं को भगाने के लिए षडयंत्र रच रहे हैं। इसी कारण असम, मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश और नागालैण्ड के निवासी इन अवैध बंगलादेशियों को उनके राज्य से निकालने के लिए आंदोलित हैं। इस आंदोलन का नेतृत्व कर रहे हैं वहां के छात्र संगठन। इन छात्र संगठनों ने बंगलादेशियों को भारत छोड़ने का 'अल्टीमेटम' दे दिया है। इसके विरुध्द बंगलादेशी मुसलमानों ने आल असम माइनारिटी स्टूडेन्ट्स यूनियन (आमसू) के बैनर तले गत 14 सितम्बर को 'असम बंद' की घोषणा की। इस बंद के दौरान कट्टरपंथी मुस्लिम युवक हिंसक हो गए। उन्होंने अनेक वाहन फूंक दिए और 8 हिन्दुओं को मौत के घाट उतार दिया। हिंसा का सिलसिला यहीं नहीं थमा, ईद के अगले ही दिन यानी 3 सितम्बर को पूर्व योजना के तहत उदालगिरी जिले में बंगलादेशी मुसलमानों ने हिन्दुओं और उनके गांवों के विरुध्द हिंसक अभियान छेड़ दिया। बोडो, गारो, खासी, राभा, संथाल जनजातियों के साथ असमिया, बंगला और हिन्दी बोलने वाली जनजातियों के गांवों पर योजनाबध्द ढंग से हमला बोला गया। 40 से अधिक हिन्दू बहुल गांवों पर हमला कर उन्हें आग के हवाले करने का प्रयास किया गया। इसमें इकबारी, बाताबारी, फाकिडिया, नादिका, चाकुआपारा, पूनिया, झारगांव, जेरुआ, बोरबागीचा, आइठनबारी, राउताबागान और सिदिकुआ के सैकड़ों घर जल गए और हजारों हिन्दू पलायन कर गए। उन्हें उदालगिरी डिग्री कालेज, उदालगिरी गर्ल्स हाईस्कूल, नलबाड़ी के एल.पी. स्कूल और कैलाइबारी के स्कूल में शिविर बनाकर रखा गया है। यह हिंसा निकटवर्ती दर्रांग जिले में भी फैल गई है और वहां भी हजारों लोग जान बचाने के लिए शरणार्थी शिविरों में रहने को मजबूर हैं।
उदालगिरी के झाकुआपाड़ा में गांव बूढा (ग्राम प्रधान) को उसकी मां और बहन के साथ जिंदा जला देने की घटना ने सभी को हिला कर रख दिया। इसके बाद भड़के जनाक्रोश के कारण कांग्रेसी राज्य सरकार ने इस मामले पर मुंह खोला, वह भी अल्पसंख्यकों (अर्थात अवैध बंगलादेशी मुसलमानों) को मरहम लगाने के लिए। राज्य सरकार ने इसे बोडो और संथालों तथा मुसलमानों के बीच साम्प्रदायिक हिंसा के रूप में परिभाषित करने का प्रयास किया। यह भी कहा गया कि इसके लिए नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट आफ बोडोलैण्ड (एन.डी.एफ.बी.) दोषी है। जबकि सच्चाई यह है कि यह बंगलादेशी मुसलमानों और असमिया हिन्दुओं के बीच संघर्ष है। यह इससे भी साफ होता है कि दर्रांग जिले में जो हिंसा हुई उसमें ब्रह्मपुत्र नदी के पार मारीगांव के मुसलमानों ने भी साथ दिया, जो ब्रह्मपुत्र के छोटे-छोटे द्वीपों से नाव द्वारा दर्रांग जिले में घुसे थे। ये सब सेना की वर्दी पहने हुए थे। यह वही पध्दति है जो मुसलमानों ने 1983 के दंगों के समय अपनाई थी। सूत्रों के अनुसार इस बार की हिंसा के दौरान आल असम माइनारिटी स्टूडेन्ट्स यूनियन (आमसू), स्टूडेन्ट्स इस्लामिक मूवमेंट आफ इंडिया (सिमी), आल असम मुस्लिम छात्र परिषद् और मुस्लिम स्टूडेन्ट्स ऐसोशिएशन (मूसा) के नेता मुस्लिम बहुल गांवों का लगातार दौरा करते रहे और उन्हें हिन्दुओं पर हमला करने के लिए निर्देशित करते रहे तथा हथियार उपलब्ध कराते दिखे। दर्रांग जिले में जलाए गए हिन्दुओं के घरों पर मारीगांव से नाव द्वारा ब्रह्मपुत्र पार करके आए मुस्लिमों द्वारा कब्जा जमा लेने की भी खबर है। सूत्रों के अनुसार उदालगिरी, दर्रांग और बक्सा जिलों के मुस्लिमबहुल क्षेत्रों में रमजान के दौरान ही गुप्त बैठकें हुईं। कट्टरपंथियों को इससे भी संबल मिला कि बदरुद्दीन अजमल द्वारा गठित असम यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट के विधायक रसूल हक बहादुर तथा आमसू के अध्यक्ष अब्दुल अजीज ने निचले असम में अलग स्वायत्तशासी क्षेत्र की मांग की है और वहां से सभी असमिया लोगों को चले जाने की धमकी दी है।
इस संबंध में असम के एक वरिष्ठ पत्रकार, जो कि हिंसाग्रस्त क्षेत्रों का दौरा करके लौटे हैं, ने बताया कि 14 सितम्बर को आमसू द्वारा आहूत असम बंद के दौरान राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या-58 पर स्थित रौटा (उदालगिरी) कस्बे में जबरन दुकानें बंद करने की कोशिश की। इस दौरान हुई झड़प में बोडो समुदाय के दो युवक मारे गए। तभी से पूरे क्षेत्र में तनाव चला आ रहा था लेकिन राज्य सरकार और जिला प्रशासन ने घोर लापरवाही बरती जिसके कारण यह आग इतनी तेजी से भड़की। यह भी समझना होगा कि उदालगिरी एक नया बना जिला है जो अति संवेदनशील है, क्योंकि यह सीमावर्ती राज्य है जिसकी सीमाएं भूटान और अरुणाचल प्रदेश से सटी हुई है। इस संवेदनशील जिले को सिर्फ एक उपायुक्त (डी.सी.), एक अतिरिक्त उपायुक्त (ए.डी.सी.) एवं एक क्षेत्राधिकारी (सी.ओ.) के भरोसे छोड़ रखा है। दो प्रखण्ड (सबडिवीजन) होने के बावजूद वहां किसी उप जिलाधिकारी (एस.डी.एम.) की नियुक्ति नहीं की गई। एक संवदेनशील जिले में राज्य सरकार द्वारा इतना लचर प्रशासन रखने का क्या औचित्य है, यह समझ से परे है। सूत्रों के अनुसार जब उदालगिरी जिला नहीं बना था तब इस विस्तृत दर्रांग जिले में ही 1962 में चीनी आक्रमण के समय पाकिस्तानी झण्डे मिले थे। 1965 और 1971 में पाकिस्तान से युध्द के दौरान पाकिस्तानी झण्डे यहां लहराए गए थे और 1983 में दंगों के दौरान भी। इसलिए अब फिर पाकिस्तानी झण्डे फहाराने पर आश्चर्य नहीं। लेकिन बंगलादेशी या कहें पूर्वी पाकिस्तानी आतंकवादियों की संख्या इतनी बढ़ गई है कि वे खुलेआम 'पाकिस्तान जिंदाबाद' के नारे लगा रहे और हिंसक आक्रमण कर रहे हैं। इन हिंसक वारदातों के बाद असम के अन्य वरिष्ठ पत्रकार ने भी अपनी रपट में लिखा कि जो बंगलादेशी मुसलमान मारे गए हैं उनमें से अधिकांश पुलिस फायरिंग में मरे, क्योंकि वे सुरक्षा बलों पर हमला कर रहे थे। मुसलमानों को जान-माल की कम हानि हुई है, लेकिन इसके बावजूद वे जानबूझकर बड़ी संख्या में राहत शिविरों में भाग आए ताकि सरकार से मिलने वाली राहत सामग्री ले सकें। सरकार को भी यही दिखाई दे रहा है और वह बंगलादेशी घुसपैठियों को 'अल्पसंख्यकों पर अत्याचार' के रूप में प्रचारित कर रही है। बंगलादेशी घुसपैठियों के खिलाफ असम, मिजोरम और अरुणाचल प्रदेश में छात्र संगठनों द्वारा चलाए जा रहे आंदोलन के कारण पाकिस्तानी गुप्तचर संस्था आई.एस.आई. के इशारे पर ये हिंसक वारदातें हुई हैं। लेकिन घुसपैठियों को असमिया मुसलमान बताकर कांग्रेस अपना वोट बैंक बचा रही है। ये सारी कोशिश इसलिए चल रही है कि बोडो, संथाल, गारो तथा खासी जनजातियों को उनके गांवों से भगाकर वहां बंगलादेशी मुसलमानों को बसाया जा सके। हम देख रहे हैं कि बंगलादेशी मुस्लिम गांवों की सुरक्षा के लिए पुलिस तैनात है पर असमिया लोगों के गांवों की सुरक्षा के कोई उपाय नहीं किए गए हैं। सरकार कह रही है कि शरणार्थी शिविरों में लगभग 2 लाख मुस्लिम हैं। आखिर ये कहां से आए हैं? इनकी पहचान की जाए और जो असमिया मुस्लिम हैं उन्हें वापस उनके घरों में भेजकर बाकी सब को सीमा पार बंगलादेश में वापस भेज दिया जाए।
जेएनयू में जारी विद्यार्थी परिषद का पर्चा 13.10.2008
Tuesday, 14 October 2008
कम्युनिस्टों, शर्म तुमको मगर नहीं आती!
''अपनी सम्पूर्ण जटिलताओं में वास्तविक जीवन लेनिन के लिए अनजान है, वह आम जनता को नहीं जानते, वह उसके साथ कभी रहे नहीं हैं; पर उन्होंने-किताबों से-यह जरूर सीख लिया है कि लोगों को (जानवरों की तरह) पिछले पाँवों पर कैसे खड़ा कर दिया जाए और कैसे-जो कि सबसे आसान है-उनकी पाशविक प्रवृत्तियों को उभारा जाए। मजदूर वर्ग लेनिन के लिए वही है जो एक लोहार के लिए लौह-अयस्क होता है। वर्तमान परिस्थितियों में क्या यह सम्भव है कि इस अयस्क से समाजवादी राज्य बनाया जा सके? स्पष्टत: यह असम्भव लगता है; पर कोशिश क्यों न करें? लेनिन का क्या जाएगा यदि आखिरकार यह प्रयोग विफल होता है?
जेएनयू में जारी विद्यार्थी परिषद का पर्चा 11.10.2008
मित्रों,
'कम्युनिस्ट पार्टी का इतिहास गलतियों का इतिहास है।' ये शब्द किसी दक्षिणीपंथी के नहीं वरन् प्रख्यात् वामपंथी राहुल सांकृत्यायन के हैं। जो वामपंथ को ठीक से नहीं जानते उन्हें आश्चर्य होता है कि अमुक मुद्दे पर वामपंथ ने ऐसा स्टैण्ड क्यों लिया? लेकिन जो वामपंथ का इतिहास थोड़े भी ठीक ढंग से जानते हैं उन्हें तनिक भी आश्चर्य नहीं होता। केवल सहजबोध से भारतीय वामपंथ के स्टैण्ड की भविष्यवाणी की जा सकती है। यह बात कला, साहित्य और राजनीति तीनों के बारे में उतनी ही सच है। बस, राष्ट्रविरोध और हिन्दू-विरोध यही दोनों ऐसे प्रतिमान हैं जिन पर वामपंथ के सारे निर्णय और स्टैण्ड निर्भर करते हैं। कम-से-कम कम्युनिस्ट पार्टी का अब तक का इतिहास इसका गवाह है। आगे सद्बुध्दि आ जाए तो बात कुछ और है, लेकिन इसकी संभावना नहीं दिखती। लेकिन प्रश्न उठता है इसके कारण क्या हैं? वस्तुत: इसके कारण कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना में ही निहित हैं। जिस तरह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी आदि दल हैं उस तरह भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी नहीं है। यह 'भारत की कम्युनिस्ट पार्टी' (Communist Party of India) है। इसका मतलब है कि यह कम्युनिस्ट पार्टी की भारत स्थित शाखा है। अत: इसके निर्णय स्वतंत्र हो ही नहीं सकते। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट पार्टी का 30 दिसम्बर 1927 को लिखा गया गुप्त पत्र इसका प्रमाण है - ''कम्युनिस्ट पार्टी को असंदिग्ध रूप से कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल का एक अंग होना चाहिए, अन्यथा उसे अपने आप को कम्युनिस्ट कहने का अधिकार भी नहीं है। जिन लोगों को विश्व भर में निरन्तर संघर्ष करनेवाली एक संस्था के इस संगठन-सिध्दांत में विदेशी नियंत्रण की बू आती है, वे कम्युनिस्ट नहीं हैं।'' (एम.आर. मसानी, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया, पृ. 333)
लेकिन, कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल का अंग होते हुए भी रूस और चीन की कम्युनिस्ट पार्टियों ने अपने निर्णय स्वतंत्र रखे। और तमाम किसान मजदूरों के आन्दोलनों से सम्बध्द होते हुए भी राष्ट्रवाद का समर्थन किया। चीन और रूस दोनों में मगर आपसी तनातनी बनी रही, तो इसके पीछे यही कारण है। इन दोनों देशों का राष्ट्रवाद कहीं-न-कहीं साम्राज्यवाद की ओर पर्यवसित होता है, पर दोनों में से किसी देश की कम्युनिस्ट पार्टी ने इसका विरोध नहीं किया, राष्ट्र-राज्य का विरोध तो और बात है। कम्युनिस्ट सोवियत संघ और चीनी गणतंत्र का संविधान इसके प्रमाण हैं। सोवियत संघ के 1977 का अनुच्छेद 62 स्पष्ट कहता है - ''रूस के प्रत्येक नागरिक का यह पुनीत कर्तव्य है कि वह समाजवादी मातृभूमि की रक्षा करे। मातृभूमि के द्रोह से अधिक गंभीर कोई अपराध नहीं है।
''चीनी गणतंत्र के 1982 के संविधान के अनुच्छेद 55 में वर्णित हैं : ''प्रत्येक नागरिक का यह पावन कर्तव्य है कि वह मातृभूमि की रक्षा करे और आक्रमण का प्रतिकार करे।
''बावजूद इसके भारतीय कम्युनिस्टों ने देशभक्ति नहीं सीखी और लगातार इन दोनों देशों की कम्युनिस्ट पार्टियों द्वारा बेवकूफ बनाये जाते रहे तथा अमरबेल की तरह भारत को चूसते रहे। आइसा के ब्रांड एम्बेसडर और हिन्दी साहित्य के टुटपुँजिया कवि गोरख पाण्डेय उर्फ राम सजीवन जिस 'बिरटेन हाथ बिकानी' का जिक्र करते हैं उसके हाथों भी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी कई बार बिकी है। भारत में 'श्रमिक और कृषक दल' स्थापित करनेवाले लोगों में पर्सी ई. ग्लैडिंग्स, फिलिप स्प्रैट, बैंजामिन फ्रांसिस ब्रैडले और लेस्टर हुचिंसन आदि अंग्रेज थे। 'प्रगतिशील लेखक संघ' की स्थापना में भी सारा योगदान इंग्लैण्ड की कम्युनिस्ट पार्टी का ही था। जब-जब जरूरत पड़ी इन लोगों ने भारत की कम्युनिस्ट पार्टी को निर्देश दिया और स्वतंत्रता संग्राम को कमजोर किया। 1936 में स्थापित प्रगतिशील लेखक संघ के कितने कवियों-लेखकों ने सीधे-सीधे अंग्रेजी साम्राज्यवाद का विरोध किया? निस्संदेह ऐसा कोई कवि या लेखक शायद ही हो और कम-से-कम पार्टी या प्रलेस की अधिकारिक विचारधारा तो यह कदापि न थी। वास्तविकता तो यह है कि ब्रिटेन की साम्राज्यवादी नीति का विरोध करते हुए भी ब्रिटेन की कम्युनिस्ट पार्टी ब्रिटेन के हितों की सुरक्षा करती थी और इसीलिए उसने 'प्रलेस' और अन्य श्रमिक संगठनों की नींव भारत में डाली थी। भारत के प्रगतिवादी कवि जो बिना किसी लाग-डाँट के 'लुच्चे टुच्चे उल्लू के बच्चे पूँजीपति' जैसी कविता लिख सकते थे वे क्या सीधे-सीधे अंग्रेजों के खिलाफ नहीं बोल सकते थे। लेकिन ब्रिटेन की कम्युनिस्ट पार्टी के इशारों पर चलने के कारण वे अंतरराष्ट्रीय साम्राज्यवाद विरोध के भुलावे में फँसे रहे।
साम्राज्यवाद का विरोध उस समय कहाँ चला गया था जब 1939 में स्तालिन ने हिटलर से समझौता किया था। किसी लेखक-कवि ने इसका विरोध नहीं किया। गौरतलब है कि जापान, इटली और जर्मनी द्वितीय विश्वयुध्द में एक तरफ थे और इंग्लैण्ड, अमेरिका और फ्रांस दूसरी तरफ। जब जर्मनी के साथ सोवियत रूस का समझौता हो गया, तो सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी भारत की कम्युनिस्ट पार्टी को स्वतंत्रता-संघर्ष के निर्देश दे सकती थी। लेकिन ब्रिटेन की कम्युनिस्ट पार्टी के लिए यह नागवार था। भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ऐसे समय दो पाटों के बीच फँसी थी, वह स्वतंत्रता के लिए संघर्ष भी कर रही थी और ब्रिटेन का समर्थन भी कर रही थी। साँप-छछूँदर वाली स्थिति में वह क्या कर सकती थी? कम-से-कम इतना तो कर ही सकती थी कि ब्रिटिश 'फूट डालो और राज्य करो' की नीति के तहत पाकिस्तान का समर्थन कर सकती थी। 1940 में सज्जाद जहीर ने मुस्लिम लीग के पाकिस्तान की माँग का समर्थन करते हुए लिखा ''यह एक बड़ी अच्छी और बढ़िया बात हुई - भारतीय मुसलमानों के लिए, और कुल मिलाकर सम्पूर्ण भारत के लिए भी कि मुस्लिम लीग बढ़ती जा रही है और अपने साथ लाखों स्वाधीनता प्रेमी लोगों को एकत्र करती जा रही है।'' -कम्युनिज्म इन इंडिया, विंडमिलर, पृ. 214लेकिन अब जून 1941 में जर्मनी ने रूस पर आक्रमण किया तब रूस और इंग्लैण्ड दोनों एक ही खेमे में आ चुके थे और ऐसे में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी स्वाधीनता की बात नहीं कर सकती थी। ऐसे ही समय 1942 में 'भारत छोड़ो आन्दोलन' शुरू हुआ जिसका भारत की कम्युनिस्ट पार्टी केवल विरोध कर सकती थी और उसने ऐसा किया भी। इस पर विंडमिलर की टिप्पणी है ''यह कमाल था ब्रिटिश कम्युनिस्ट पार्टी के सचिव हैरी पोलिट के जोरदार पत्र का, जो भारत सरकार के ब्रिटिश गृहमंत्री मि. मैक्सवेल के सौजन्य से ठीक हाथों में पहुँचा दिया गया। बस, फिर क्या था, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने तुरन्त कलाबाजी खायी और मोहरा ठीक उल्टा पलटकर अब 'जनयुध्द' का नारा लगा दिया। दूसरे शब्दों में, अब भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी अंग्रेजी साम्राज्यवाद की सहयोगी और सहयात्री बन गयी थी।'' वही, पृ. 377
इसी भारत छोड़ो आन्दोलन में डाँगे, नम्बूदरीपाद और पी.सी. जोशी जैसे कॉमरेड ब्रिटिश साम्राज्य के साथ मिलकर गुप्तचरी कर रहे थे और कांग्रेस के कार्यकत्तर्ााओं का पता बता रहे थे। 1962 में यही कॉमरेड चीन के भारत पर आक्रमण को साम्यवाद की विजय के रूप में देख रहे थे। बावजूद इसके कम्युनिस्ट 'राष्ट्रभक्ति' जैसे शब्द का प्रयोग कर रहे हैं। कम-से-कम इतनी शर्म तो होनी चाहिए देशद्रोहियों को। बहरहाल ज्योति बाबू और बुध्दो बाबू के बाद कम्युनिस्ट पार्टी की नक्सल इकाई को भी अब सद्बुध्दि आ रही है। नक्सली आतंकी गिरोह के गाँजाधारी छात्र-संगठन आइसा ने अपनी कन्वेनर रिपोर्टों में इस बात से सहमति जताई है कि अब वह प्लेसमेंट सेल खोलेगी। लेकिन प्लेसमेंट सेल में नौकरी देगा कौन? इस पर वह मौन है। शायद कॉर्पोरेट के बदले आइसा अपने मातृसंगठन नक्सलवादी आन्दोलन के लिए 'एरिया कमाण्डर' की भर्ती करेगी। लेकिन अगर ऐसा नहीं है तो हम आइसा का स्वागत करते हैं क्योंकि वह भी पूँजीवाद के दौर में दाखिल हो गयी है और उसकी विचारधारा का अंत हो गया है। शायद मानवाधिकार आयोग की रिपोर्टों से उन्हें सद्बुध्दि आ गयी हो और अब और आदिवासियों की हत्या वे नहीं करना चाहते हों। हमें कॉमरेड से मनुष्य हुए आइसा वालों से पूरी हमदर्दी है, अगर सही में वे मनुष्यत्व की तरफ कदम बढ़ा चुके हों तो। अगर उसकी लाली में कमी आ गयी हो तो डिस्सू-पिस्सूवाले इसकी चिंता किया करें। वैसे, बुध्दो बाबू भी भीतर-भतर मुस्करा रहे होंगे। रतन टाटा ने अगर दुलत्ती न जमाई होती, तो वे भी खुलकर हँस रहे होते। टाटा का बंगाल छोड़कर गुजरात जाना कॉर्पोरेट और किसान-मजदूरों का नरेन्द्र मोदी के प्रति विश्वसनीयता का प्रमाण है। वहीं बंगाल और कम्युनिज्म ने किसानों मजदूरों तथा कॉर्पोरेट की विश्वसनीयता खोयी है। किसानों और मजदूरों की बात करनेवाली पार्टी ने किसानों-मजदूरों की जहाँ हत्या करके ऊपर से कंक्रीट बिछाया है वहीं 'हिन्दुत्व' की बात करनेवाली सरकार में किसान-मजदूर और कॉर्पोरेट सब खुश हैं। वर्ग-संघर्ष को आधार माननेवाली पार्टी ने संघर्ष का उदाहरण प्रस्तुत किया है तो सहयोग को आधार माननेवाली पार्टी ने सहयोग का उदाहरण रखा है। यह माक्र्सवाद पर राष्ट्रवाद की जीत है। माक्र्स पर हेडगेवार और लेनिन पर गोलवलकर की विचारों की जीत है। हिन्दू जीवन दृष्टि ही वह पध्दति निर्मित कर सकती है जिसमें पूँजीपति और मजदूर दोनों के हित सुरक्षित रह सकते हैं। गुरूजी की स्पष्ट मान्यता है कि 'व्यक्तिगत अभिरूचि की जीवंतता' और 'उत्पादित संपत्तिा का विकेन्द्रीकरण' दोनों की आवश्यकता है और ''हिन्दू जीवन दृष्टि की पृष्ठभूमि में ही यह संतुलन बनाया जा सकता है।'' (श्री गुरु जी समग्र, खण्ड-11, पृ. 37) इसके विपरीत ''समाजवादी पध्दति दुनिया में कभी भी कहीं भी सर्वोत्ताम प्रणाली नहीं हुई है। यदि समाजवाद एक ही देश की, सीमा में सीमित रहता है तो वह हिटलर या मुसोलिनी का समाजवाद हो जाता है और जब सीमाएँ लाँघता है तो रूसी अंतरराष्ट्रीय साम्राज्यवाद बनता है। ये दोनों प्रकार क्या कहर ढाते हैं, हम देख चुके हैं। समाजवाद की आड़ में सत्तारूढ़ दल या सत्तारूढ़ नेता तानाशाही की ओर बढ़ रहे हैं। उत्पादन के सारे साधन अपने हाथ में ले रहे हैं।'' (श्री गुरुजी समग्र, खण्ड-3, पृ. 228-229)
बुध्ददेव भट्टाचार्य ने अपने आका स्तलिन के लेबर कैंपों की राह पर चलते हुए जो तानाशाही दिखाई है और दलाली की है वे भूल गये थे कि यह रूस नहीं भारत है। भारत में कम्युनिस्ट पार्टी की दादागीरी नहीं चलती। तानाशाही और दादागीरी की मंशा रखनेवालों को बंगाल की जनता का यह करारा थप्पड़ है। इससे शायद बुध्दो बाबू और ज्योति बाबू को शर्म आ जाए। पर इनकी तो आदत है गलतियाँ करना और भूल जाना - शर्म मगर इनको नहीं आती! कम्युनिस्ट और आदमी में यही फर्क है कि आदमी अपने कुकर्म पर शर्माता है, कम्युनिस्ट अपनी शर्मिंदगी को भी बौध्दिकता का जामा पहना जस्टीफाई करता है।
साम्यवाद को आतंकवाद से प्रेम है
बेटा, कौन देश को बासी!
कौन बाप, कौन महतारी, कौन हौ तेरो धाय?
माओ को तू मातु कहत हौ, लेनिन बाबा लागत॥
लाल लाल जप गाल बजावत रार द्वन्द्व तुम ठानत।
भारत तेरो धाय सुनत मोहे पल-पल हांसी आवत॥
करतल ताल बजावत 'रसिया', तू मरकट ज्यौं नाचत।
कहत शूर सुन लाल मार्क्स के काहे न गांजा छाड़त॥
जेएनयू में जारी विद्यार्थी परिषद का पर्चा
दिनांक : 07।10।2008
मित्रों,
हमें यकीन था कि वो हमारे लिए जवाब लिखेंगे। आखिर कैसे हमारे लिखे को यूं ही भुला देते वो? परन्तु दिल की बात कहें तो हम बहुत नाउम्मीद हुए। मित्रो, अब आप से क्या छुपाना! हम 8 दिनों तक बेसब्री से इंतजार करें और जब जवाब आए तो नतीजा फिर वही ढाक के तीन पात? हद कर दी उन्होंने मासूमियत की! वो कहते हैं ''यानी कंधमाल से कर्नाटक तक, उसके पहले गुजरात में और एमपी समेत पूरे देश में 'दूसरी कौमों'' को मिटाने के लिए जो कुछ किया गया, वही आतंकवाद है।'' अब कोई ये कैसे बताए कि ये चीजें शुरू किसने की? गोधरा या फिर कंधमाल, हमेशा निर्दोष हिन्दुओं को क्यों निशाना बनया जाता है? क्या हम संख्या में कम हैं इसलिए क्रिश्चियनिटी या इस्लाम की आंखों में खटकते हैं। मित्रों एक सर्वविदित तथ्य है कि इस्लाम और क्रिश्यिनिटी के बीच वैश्विक स्तर पर चल रहे युध्द का अंतिम उद्देश्य संपूर्ण विश्व पर आधिपत्य स्थापित करना है। भूमंडलीकरण, साम्राज्यवाद और नवउपनिवेशवाद नामक विचारधाराओं और उपकरणों का प्रयोग अमरीका और उसके पिछलग्गू क्रिश्चियन विश्व द्वारा इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए किया जा रहा है। वहीं दूसरी तरफ इस्लाम आतंकवाद, मुस्लिम ब्रदरहुड, जेहाद जैसे अस्त्रों का प्रयोग ठीक इसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए कर रहा है। तो हे मार्क्सपुत्रों/पुत्रियों, भारत में गोधरा, कंधमाल जैसी जगहों पर जब निर्दोष हिन्दुओं को निशाना बनाया जाता है तो उसके पीछे यही साम्राज्यवादी, विस्तारवादी सोच काम करती है। और इसीलिए गोधरा में हिन्दुओं को सरेआम जला देना, कंधमाल में 82 वर्षीय वृध्द की बेशर्मी से हत्या करना इत्यादि घटनायें आतंकवाद की श्रेणी में आती हैं। रही बात अलकायदा और लश्कर को आतंकवादी संगठन कहने की, तो ऐसा कहना इसलिए उचित है क्योंकि ये संगठन अपनी कौम को नहीं मिटा रहे हैं, बल्कि ये तो अपनी कौम के उन लोगों को मिटा रहे हैं जो उनसे अलग विचार रखतें हैं या दूसरे शब्दों में कहें तो मॉडरेट हैं। अत: इसीलिए ग्राहम स्टेंस की हत्या वैश्विक अल्पसंख्यकों की वैश्विक बहुसंख्यकों के आतंकवाद का जबाव था, वहीं बेनजीर भुट्टो पर किया वार 'आतंकवाद' था। दूसरी कौम का बिल्ला सटीक बैठता है तो हम अल्पसंख्यक हिन्दुओं पर। क्यों हम निरीह प्राणी की तरह देखते रहते हैं जब अपने किसी पड़ोसी देश में हिन्दुओं, सिखों, बौध्दों का अपमान होता है, या फिर बड़ी क्रूरता से दमन किया जाता है।
मित्रों, आज जब वैश्विक न्याय, वैश्विक मानवाधिकार की बात हो रही है तो ऐसे में वैश्विक अल्पसंख्यकों को लगातार प्रताड़ित किये जाते रहने की घटना के खिलाफ कोई आवाज क्यों नहीं उठाई जाती? रही बात 'जार्ज बुश' की तो हे वयस्क नादानों, गोरी चमड़ी की गोरी विचारधारा तुम्हारा प्रेरणास्रोत हो सकती है, हमारा नहीं।
हमारे भारतवर्ष में प्राचीन काल से इतना सामर्थ्य रहा है कि हम सम्पूर्ण विश्व को मानवता की राह दिखा सकें। तुम्हारा सारा बैलिस्ट मैनिफेस्टो, तमाम मोटे ग्रंथों की विचार धारा हमारे बस एक लाइन में समा जाती है - सर्वे भवन्तु सुखिन:, सर्वे सन्तु निरामया। अब तुम्हें समझ में आ गया होगा कि परिभाषा का स्वघोषित निष्कर्ष क्या है। अब हम उम्मीद करते हैं कि तुम अपने कांव-कांव की रट लगाना छोड़कर कुछ अध्ययन करके ही पुन: लिखने बैठोगे।
मित्रों, इनका दूसरा प्रश्न था ''अब बताईये 'हिंसा, हत्या, घृणा और बर्बरियत को जो लोग 'विशिष्ट गुण' समझते हैं, उन लोगों को क्या समझा जाये ?'' मित्रो, हम इन वयस्क मासूमों को समझाना चाहेंगे कि 'विशिष्ट' शब्द का प्रयोग सिर्फ सकारात्मक परिप्रेक्ष्य में नहीं होता है। यह नकारात्मक परिप्रेक्ष्य में भी उतने ही सार्मथ्य के साथ अनुप्रयोगणीय है। हम जब कहते हैं कि 'विशिष्ट गुण' तो इसका मतलब नकारात्मक परिप्रेक्ष्य में लिया जाना चाहिए। पिछले 10 सालों से जो पर्चे आ रहे हैं उन्हें कट, कॉपी पेस्ट कर के कब तक काम चलाओगे? पिछले 10 सालों में न तो इनके मुद्दे बदले हैं ना ही चाल-ढ़ाल। वैसे सुना है कि हिंदी अध्ययन केंद्र इनका गढ़ रहा है। तो फिर क्यों एक जवाब लिखने में इनको 8 दिन लगता है और फिर जब जवाब आता है तो पुन: बचकाने प्रश्न, बचकानी लिखावट!
मित्रों, हम इन्हें 'शाखा ट्रेनिंग' के बारे में भी बताते/समझाते चलें। तो सुनो- शाखा में ट्रेनिंग दी जाती है ताकि हम गोवा पर आक्रमण, कश्मीर घाटी में विदेशी आक्रमण, इंदिरा गांधी की तानाशाही को रोकने के लिए संपूर्ण क्रांति जैसे आंदोलनों और प्राकृतिक आपदाओं के समय राष्ट्र के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल सकें। हमें ऊर्जावान, ओजवान और शक्तिशाली छात्र-छात्राओं की जरूरत है। ऐसे लोगों की नहीं जो अपने शरीर में घुन लगा चुके हैं। युवावस्था में ही 80 साल के वृध्द लगते हैं। हर बात में जिन्हें दो कश के सहारे की जरूरत पड़ती हो वो क्या सहारा देंगे हिन्दुस्तान को? रही बात एक विशिष्ट समुदाय के प्रति इनकी सहानुभूति की, तो हम इनसे जानना चाहेंगे कि रमजान के मौके पर चीन में जब सामूहिक प्रार्थना पर बैन लगाया गया या फिर जिस तरह से रूस और चीन अपने-अपने राज्यों में मुसलमानों का दमन करते रहते हें....... तो फिर इनकी सहानूभूति कहां चली जाती है?
मित्रों, एक और बात सुनिये इनकी ''सबूतों और तथ्यों'' के अभाव में, केवल आरोप के आधार पर हिरासत में लिये गए किसी संदिग्ध को आतंकवादी न कहा जाये'' हम इनसे पूछना चाहते हैं कि ये कौन से अखबार पढ़ते हैं ? हर अखबार में गिरफ्तार व्यक्ति के नाम के पहले 'आरोपित' संदिग्ध या Accused लिखा होता है। परन्तु इनकी नजरें इस शब्द पर नहीं पड़ती होंगी, क्योंकि इन्हें आतंकवाद से ज्यादा प्रेम है। साम्यवाद पर तो निराशा के बादल छा गये हैं, दूर-दूर तक साम्यवाद स्थापित होने के आसार भी नहीं नजर आ रहे हैं, तो क्यों न कुछ इधर-उधर की घटनाओं से खुद को व्यस्त रखा जाये और कुछ पृष्ठ भरे जायें।
ये ठीक कहते हैं कि हिन्दू होना गर्व की बात है परन्तु मित्रो, सोचिये हम किस प्रकार के हिन्दू हैं? जातिगत आधार पर बंटे हुए, धार्मिक आधार पर बंटे हुए, क्षेत्रीय आधार पर बंटे हुए। मित्रो, हिंदू होने के लिए आवश्यक है इन सभी संकीर्ण मानसिकताओं का त्याग करना। हिन्दू वे सभी हैं जो इस भारत भूमि को पितृभूमि तथा पुण्यभूमि मानते हैं, चाहें वो सिख हों, बौध्द हों, जैन हों या फिर मुसलमान भाई। हिन्दुत्व इसी हिन्दुइज्म का essence है। इनका सवाल है कि हिन्दू होना जितने गर्व का विषय है, मुसलमान होना भी ठीक वैसा ही, उतने ही गर्व की बात क्यों नहीं है? तो ऐसा इसलिए है कि जब हम ये कहते हैं कि हम हिन्दू हैं तो इसका मतलब हम धर्म-जाति की भावनाओं से ऊपर उठ रहे हैं तथा राष्ट्र के लिए एक सेवा-भाव का संकल्प ले रहे हैं। यह शंका योग्य बात नहीं है कि मुसलमान होना भी गर्व की बात है। परन्तु यह गर्व कहीं अभिमान में न बदल जाये इससे बचना होगा। वैश्विक इस्लामिक आतंकवाद इसी गर्व की अभिमान में परिणति हैं। यह अभिमान ही उत्साहित करता है दूसरे अल्पसंख्यक कौमों की हत्या करने को। यह अभिमान ही उत्साहित करता है संपूर्ण विश्व पर अधिपत्य स्थापित करने की, चाहे वह इस्लाम हो या ईसाई।
रही बात दलितों-आदिवासियों-पिछड़ों-मुसलमानों के निर्णायक राजनीतिक गठजोड़ की; तो मित्रों हम आपसे यह पूछना चाहेंगे- किसने हक दिया चीनी चम्पुओं को कि ये दलित, आदिवासी जैसे शब्दों का प्रयोग करें? क्यों अपने आपको ये 'आधुनिकतावासी' समझते हैं और दूसरों को 'आदिवासी'? क्यों ये खुद को मसीहा समझते हैं और दूसरों को दलित? हमारे लिये आदिवासी नहीं वनवासी उपयुक्त है। दलित नहीं वंचित। हमारे वनवासी भाईयों की भी अपनी एक विशिष्ट विभिन्न जीवनशैली है जिसमें वो संतुष्ट हैं। उन्हें जब जरूरत होगी वो खुद अपने आप को वर्तमान परिवेश में ढाल लेंगे। वंचित वर्ग को भी आवश्यकता है अपनी लड़ाई खुद लड़ने की। ब्राह्मण्ावादी वामपंथ ने आज तक किसी लड़ाई के राजनीतिक लाभ के अलावा कभी और कुछ नहीं किया।
आज हम इस पर्चे के माध्यम से अपने वंचित भाइयों से यह अपील करना चाहेंगे कि सामाजिक व्यवस्था में आमूल चूल परिवर्तन के लिए उनका आगे आना जरूरी है। हम सदैव उनके प्रयासों का समर्थन करेंगे। वैसे हम अपने लाल वामपंथी (असली लाल कौन है इन्हें खुद पता नहीं) मित्रों से पूछना चाहेंगे कि ये क्यों खुद को इस लायक समझते हैं कि सब की लड़ाई ये खुद लड़ेंगे? पहले साम्यवादी लक्ष्य किसी एक राज्य में पूरा करके दिखाओ। वैसे छोड़ो तुम्हारे बस का यह भी नहीं; अपने 4-5 विधायकों के साथ खुश रहो और आत्ममुग्ध थी।
मित्रों, आखिर भारत में बम विस्फोट होने से किसका फायदा है? अगर एक बम विस्फोट के बदले ही फिर से ढोल ढपली लेकर Protest Demo आयोजित करने का अवसर मिले तो बुराई क्या है। दो तीन बार किसी को condemn करने में बुराई क्या है? Condemn करो, गांजा फूंको और सो जाओ। बाकी कर भी क्या सकते हो तुम? गोरी चमड़ी की गोरी विचारधारा को बहुत दिनों से खींचते-खींचते ढोते-ढोते बेचारे बैल थक तो गये ही होंगे।
मित्रों, आज हम भारतवासी दिशाहीन, जीवन जी रहे हैं। कोई विस्फोट करता रहे परंतु हिंदू जन-मानस को आवाज उठाने का अधिकार नहीं है। ऐसा इसलिए है क्योंकि हम दो तरफ से पाटों में पिस रहे हैं। साम्राज्यवादी अमरीका और साम्राज्यवादी इस्लाम दो ऐसे दैत्य हैं जो सम्पूर्ण विश्व को अपने जबड़े में कसकर पकड़ना चाहते हैं। मित्रो, उठो ऐसे दोनों ताकतों का कस कर पूरी जीवन शक्ति के साथ विरोध करो। कहीं तुम्हारी सहनशीलता नपुंसकता में न तब्दील हो जाये और तुम्हें प्रार्थना करनी पड़े - वो बेदर्दी से सर काटें मेरा और मैं कहूं उनसे, हुजूर आहिस्ता, आहिस्ता, जनाब आहिस्ता!
मित्रों, राष्ट्रनिर्माण एक सतत् चलने वाली प्रक्रिया है। आतंकवाद इस प्रक्रिया को रोकने के लिए ही नहीं वरन् राष्ट्र को ही विखण्डित करने की दिशा में किया जा रहा प्रयास है। आज चाहे हमारे वनवासी बंधु हों, वंचित बंधु हों या पिछड़े बंधु हों, हम सभी से यह निवेदन करना चाहेंगे कि आगे बढ़कर राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में बढ़-चढ़ कर योगदान दें। हम ऐसे सभी वर्गों के स्वागत को तत्पर हैं तथा साथ ही हम उनसे इस राष्ट्रनिर्माण की दिशा को एक नयी उर्जा प्रदान करने की उम्मीद करते हैं। वे खुद हमारे अग्रसर नेता बनें तथा हमारे प्रयासों को सफल करें।
चलते चलते हम अपने वामपंथी भाइयों से एक बार पुन: अनुरोध करना चाहेंगे कि कुछ समय लाइब्रेरी में व्यतीत किया करें। शारीरिक घुन अगर कहीं मस्तिष्क में पहुंच गया तो बेचारे दिवालिये हो जायेंगे।
Monday, 13 October 2008
कम्युनिस्टों का मैं जानी दुश्मन हूं- डॉ. भीमराव अंबेडकर
कम्युनिस्टों ने अपने मकसद में डॉ अंबेडकर को अवरोध मानते हुए समय-समय पर उनके व्यक्तित्व पर तीखे प्रहार किए। पूना पैक्ट के बाद कम्युनिस्टों ने डा. अंबेडकर पर 'देशद्रोही', 'ब्रिटीश एजेंट', 'दलित हितों के प्रति गद्दारी करनेवाला', 'साम्राज्यवाद से गठजोड़ करनेवाला' आदि तर्कहीन तथा बेबुनियाद आक्षेप लगाए। इतना ही नहीं, डा. अंबेडकर को 'अवसरवादी', 'अलगाववादी' तथा 'ब्रिटीश समर्थक' बताया।
(गैइल ओंबवेडन, 'दलित एंड द डेमोक्रेटिक रिवोल्यूशन: डॉ अंबेडकर एंड दी दलित मूवमेंट इन कॉलोनियल इंडिया')
कम्युनिज्म पर डॉ अंबेडकर के विचार-
'मेरे कम्युनिस्टों से मिलने का प्रश्न ही नहीं उठता। अपने स्वार्थों के लिए मजदूरों का शोषण करनेवाले कम्युनिस्टों का मैं जानी दुश्मन हूं।'
'मार्क्सवाद तथा कम्युनिस्टों ने सभी देशों की धार्मिक व्यवस्थाओं को झकझोर दिया है।
मार्क्स और उसके कम्युनिस्ट का पूरा उत्तर बुध्द के विचारों में है। बौध्द धर्म को मानने वाले देश, जो कम्युनिज्म की बात कर रहे हैं, वे नहीं जानते कि कम्युनिज्म क्या है। रूस के प्रकार का जो कम्युनिज्म है, वह रक्त-क्रांति के बाद ही आता है। बुध्द का कम्युनिज्म रक्तहीन क्रांति से आता है। पूर्व के एशियाई देशों को रूस के जाल में फंसने से सावधान रहना चाहिए।'
'संविधान की भर्त्सना ज्यादातर दो हल्कों से है-कम्युनिस्ट पार्टी तथा समाजवादी पार्टी से। वे संविधान को क्यों बुरा कहते हैं। क्या इसलिए कि यह वास्तव में एक बुरा संविधान है। मैं कहना चाहता हूं-नहीं। कम्युनिस्ट चाहते है कि संविधान सर्वहारा की तानाशाही के सिध्दांतों पर आधारित होना चाहिए। वे संविधान की आलोचना इसलिए करते है कि क्योंकि यह संसदीय लोकतंत्र पर आधारित है। समाजवादी दो चीजें चाहते है। प्रथम- यदि वे सत्ता में आएं तो संविधान को बिना किसी क्षतिपूर्ति के व्यक्ति संपत्ति के राष्ट्रीयकरण या समाजीकरण की स्वतंत्रता होनी चाहिए। दूसरे- समाजवादी चाहते है कि संविधान में वर्जित मूल अधिकार पूर्ववत् हों और बिना किसी नियंत्रण के हों, क्योंकि यदि उनकी पार्टी सत्ता में नहीं आई तो उन्हें केवल आलोचनाओं की नहीं, बल्कि राज्य को पलटने की भी हो।'
कम्युनिस्ट, एकता को खंडित करनेवाली उस आग को हवा दे रहे हैं, जिन्हें अंग्रेज लगा गए थे।' - महात्मा गांधी
महात्मा गांधी ने आजादी के पश्चात् अपनी मृत्यु से तीन मास पूर्व (25 अक्टूबर, 1947) को कहा-
'कम्युनिस्ट समझते है कि उनका सबसे बड़ा कर्तव्य, सबसे बड़ी सेवा- मनमुटाव पैदा करना, असंतोष को जन्म देना और हड़ताल कराना है। वे यह नहीं देखते कि यह असंतोष, ये हड़तालें अंत में किसे हानि पहुंचाएगी। अधूरा ज्ञान सबसे बड़ी बुराइयों में से एक है। कुछ ज्ञान और निर्देश रूस से प्राप्त करते है। हमारे कम्युनिस्ट इसी दयनीय हालत में जान पड़ते है। मैं इसे शर्मनाक न कहकर दयनीय कहता हूं, क्योंकि मैं अनुभव करता हूं कि उन्हें दोष देने की बजाय उन पर तरस खाने की आवश्यकता है। ये लोग एकता को खंडित करनेवाली उस आग को हवा दे रहे हैं, जिन्हें अंग्रेज लगा गए थे।'
महात्मा गांधी का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ बारे में कहना था- 'आपके शिविर में अनुशासन, अस्पृश्यता का पूर्ण रूप से अभाव और कठोर, सादगीपूर्ण जीवन देखकर काफी प्रभावित हुआ' (16.09.1947, भंगी कॉलोनी, दिल्ली)।
Sunday, 12 October 2008
अलेक्जेंडर सोलझेनित्सिन: साम्यवाद का वह मुखर विरोधी
नि:संदेह 3 अगस्त, 2008 को नोबुल पुरस्कार विजेता अलक्जेण्डर सोलझेनित्सिन की मृत्यु विश्व के एक युग की समाप्ति की कहानी है।
वस्तुत: सोलझेनित्सिन विश्व में साम्यवादी अधिनायक से पीड़ित करोड़ों श्रमिकों के विद्रोही स्वर बने। वह जीवन भर मार्क्सवाद तथा उनके क्रूर अधिनायकों-लेनिन, स्टालिन व ब्रेझनेव से निरंतर संघर्ष करते रहे तथा उन्होंने साम्यवादी शासन के क्रूर कारनामों से विश्व को अवगत कराया।
रूस के काकेशस क्षेत्र के एक छोटे से कस्बे में दिसंबर 1918 में एक विधवा मां की कोख से वे जन्मे। सोलझेनित्सिन की उच्च शिक्षा नहीं हुई। उन्होंने 1930 के गृह युध्द में भाग लिया था तथा द्वितीय महायुध्द में सोवियत लिबरेशन आर्मी में एक कमांडर के रूप में हिस्सा लिया था। उन्होंने इस संघर्ष में दो बार सम्मानित भी किया गया था, परंतु 1945 में उनकी अचानक गिरफ्तारी एक महत्वपूर्ण मोड़ था। गिरफ्तारी का कारण अपने एक मित्र को पत्र में स्टालिन के प्रति एक घृणास्पद टिप्पणी थी। मामूली पूछताछ के पश्चात उन्हें पहले एक श्रमिक शिविर में तथा 1953 में आंतरिक देश निर्वासन की सजा दी गई थी। इस काल में उन्होंने गुप्त रूप से लेखन कार्य किया, जिस कारण 1970 में ब्रेझनेव ने उन्हें देश से निर्वासन का आदेश दिया था। उसी वर्ष उन्हें नोबुल पुरस्कार की घोषणा हुई थी। बाद में उन्होंने यह पुरस्कार 1974 में प्राप्त किया था।
सामान्यत: सोलझेनित्सिन ने अपनी रचनाओं में अपने जेल जीवन, व्यक्तिगत अनुभवों तथा कुछ अन्य कैदियों के अनुभवों के आधार पर सोवियत संघ की क्रूरताओं तथा वीभत्स यातनाओं का सजीव चित्रण किया है। उनकी सभी प्रमुख रचनाएं-ए डे इन दा लाइफ आफ इवान डिसाशोविच (1962), द फर्स्ट सर्किल (1968), द कैंसर वार्ड (1967), गुलग आर्चपेयलेगो (1970), तथा द रेड व्हील (1992) व्यक्तिगत कटु अनुभवों तथा सोवियत अत्याचारों की गाथा कहती है। 'गुलग आर्चपेयलेगो' जिस पर उन्हें नोबुल पुरस्कार मिला उसमें 227 अन्य कैदियों के अनुभवों को भी सम्मिलित किया है।
सोलझेनित्सिन ने मार्क्स की भौतिकवादी ऐतिहासिक क्रम की अवधारणा को अस्वीकार किया तथा कहा कि मार्क्स के ऐतिहासिक क्रम में केवल दासता के युग की अनुभूति होती है। उन्होंने बतलाया कि मार्क्सवाद अपने आप में हिंसात्मक है तथा साम्यवाद का स्वरूप अधिनायकवादी तथा हिंसात्मक है। उन्होंने विश्व के संदर्भ में कहा कि साम्यवादी चिंतन अन्तरराष्ट्रीय नहीं है तथा राष्ट्रीयता का उपयोग एक औजार के रूप में करता है, और वह भी तब तक जब तक उसके आदमी सत्ता न हथिया लें तथा इसके पश्चात् वह प्रत्येक राष्ट्र की संस्कृति को नष्ट करने के साथ वहां की जनता का शोषण करता है।
उन्होंने लेनिन के झूठे तथा मनगढंत इतिहास की कटु आलोचना की, जिस प्रकार इतिहासकारों ने उसके प्रजातंत्र को एक उपहासास्पद अभिनय बतलाया। लेनिन ने स्वयं स्वीकार किया था कि उसने 70 हजार व्यक्तियों को दंडित किया था। सोलझेनित्सिन ने लेनिन को साम्यवाद की इन कुरीतियों का प्रारंर्भकत्ता माना है। पूछताछ के क्रूर तरीके, जेल जीवन की यातनाएं, सामूहिक नरसंहार, पुरानी अर्थव्यवस्था को नष्ट करना आदि के लिए भी उत्तरदायी माना है।
यह सर्वविदित है कि सोवियत संघ में स्टालिन का काल (1924-1953) इतिहास का एक डरावना अध्याय है। उन्होंने इसके आतंक के शासन तथा अधिनायक तंत्र की कटु आलोचना की। वस्तुत: उनके सभी प्रमुख ग्रंथ स्टालिन के बर्बर अत्याचारों की गाथा कहते हैं।
संयोगवश यह उल्लेखनीय है कि स्टालिन का उत्तराधिकारी ख्रुश्चैव बना जो स्वयं स्टालिन का कटु आलोचक था। परंतु भारत के कम्युनिस्ट अब भी स्टालिन की आरती उतार रहे थे। कम्युनिस्ट नेता वी।टी.रणदिवे स्टालिन को क्रांतिकारी, साम्यवादी रूस का निर्माता तथा लेनिन का शानदार शागिर्द कह रहे थे। हरकिशन सिंह सुरजीत उसे अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन का महत्वपूर्ण नेता तथा वसवयुवैया उसे इंकलाबी सलाम दे रहे थे।
सोलझेनित्सिन ने जिस तरह खुलकर स्टालिन की कटु आलोचना की, वह विश्व में किसी भी राजनीतिज्ञ या अन्य विद्वान ने नहीं की। उन्होंने स्टालिन की सोवियत लिबरेटर आर्मी द्वारा नागरिकों की लूट तथा महिलाओं के सामूहिक बलात्कार का वर्णन किया है।
कुल मिलाकर साम्यवादी साम्राज्यवाद ने 75 वर्ष के शासनकाल में जो विश्व में नरसंहार तथा बर्बरतापूर्ण अत्याचार किए, उसकी मिसाल विश्व के इतिहास में कहीं भी नहीं है। अभिलेखागारों की सामग्री के आधार पर स्तेफानी कुचर्वा ने जो आंकड़े दिए हैं वह किसी देश या समाज को चौंकाने वाले हैं। उसके अनुसार इन सात दशकों में सोवियत संघ ने दो करोड़, चीन ने साढ़े 6 करोड़, वियतनाम में दस लाख, लैटिन अमरीका में पन्द्रह लाख, अफ्रीका में 17 लाख, अफगानिस्तान में पन्द्रह लाख, सत्ता विहीन कम्युनिस्ट आंदोलनों और दलों के द्वारा दस हजार मौतें हुई। अत: कुल मिलाकर लगभग दस करोड़ लोगों को साम्यवादी अधिनायकवाद का शिकार बनना पड़ा। (देखें स्तेफानी कुचर्वा, द ब्लैक बुक आफ कम्युनिज्म क्राइम, टेरर एंड रिप्रेशन, हावर्ड युनिवर्सिटी प्रेस, कैम्ब्रेज, 1999, पृष्ठ 4) इससे अधिक विश्व में क्रूरता की क्या सीमा हो सकती है। संक्षिप्त में सोलझेनित्सिन ने विश्व के सम्मुख साम्यवाद के सच को रखा तथा पोलैंड के वालेस, चेकोस्लावाकिया के दुश्चैक तथा युगोस्लाविया के मार्शल टीटो की भांति नास्तिक सोवियत संघ की घिनौनी परंतु सही तस्वीर विश्व के सामने रखी। लेखक - डा सतीश चन्द्र मित्तल, पांचजन्य से साभार
Saturday, 11 October 2008
धर्मविरोधी नीति के खिलाफ अब माकपा में उठने लगीं हैं आवाजें- सतीश पेडणेकर
नास्तिक मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के आस्तिक कामरेड अब पार्टी की धर्मविरोधी नीति के खिलाफ आवाज बुलंद करने लगे हैं। इनका कहना है कि अपने धर्मविरोधी चरित्र के कारण ही पार्टी केरल, बंगाल और त्रिपुरा जैसे परंपरागत दुर्गों से बाहर नहीं निकल पा रही है। इतना ही नहीं, पार्टी के धर्म प्रेमी कामरेड पार्टी में घुटन महसूस कर रहे हैं।
पिछले कुछ अर्से से किसी न किसी वजह से विवादों में रहे कन्नूर से माकपा सांसद केपी अब्दुल्लाकुट्टी ने मलयालम अखबार में लिखे लेख में यह कह कर बवाल खड़ा कर दिया है कि जिस तरह पार्टी ने संसदीय लोकतंत्र, निजी निवेश, विदेशी पूंजी और विशेष आर्थिक क्षेत्रों पर अपने रुख को बदला है उसी तरह उसे धर्म के बारे में भी अपनी सोच पर फिर से विचार करना चाहिए।
विवादों और अब्दुल्ला कुट्टी का चोली दामन का साथ रहा है। पिछले साल वे माकपा के सांसद होने के बावजूद हज यात्रा पर गए।
दरअसल माकपा अपने को भले ही धर्मनिरपेक्ष पार्टी कहती हो, मगर असल में वह धर्मविरोधी पार्टी है। माकपा में हालांकि आस्तिक भी सदस्य बन सकता है मगर वह सदस्यों से यह अपेक्षा करती है कि वे धर्मकर्म, पूजा-पाठ जैसे कर्मकांडों से दूर रहे क्योंकि मार्क्सवाद एक भौतिकवादी विचारधारा है। फिर मार्क्स ने कहा था कि धर्म जनता की अफीम है। लेकिन इस पार्टी के कई कामरेड न केवल धर्म-कर्म में विश्वास करने लगे हैं वरन् यह भी कहने लगे है कि उन्हें पार्टी धर्म नामक अफीम का सेवन करने दे। अब तो यह भी दलील दी जाने लगी है कि माकपा का प्रभाव इसलिए नहीं बढ़ रहा क्योंकि उसने संगठन में इस अफीम पर पाबंदी लगा रखी है।
माकपा में सैध्दांतिक भटकाव बढ़ने के साथ माकपा के कामरेड भी अपनी-अपनी आस्था का प्रदर्शन करने लगे हैं। केरल विधानसभा के दो माकपा विधायकों ने धर्म के नाम पर शपथ ली थी। कुछ समय पहले पश्चिम बंगाल के मार्क्सवादी मंत्री सुभाष चक्रवर्ती तारापीठ में काली के दर्शन करने गए थे। उन्होंने न केवल वहां पूजा की, बल्कि पूजा करते समय के फोटो भी खिंचवाए। जब उनसे पूछा गया तो उन्होंने अपने पूजा करने के अधिकार की दुहाई दी थी। उन्होंने यह भी कहा था-मैं जहां भी जाता हूं वहां मेरे नाम से यही संकेत मिलता है कि मैं पहले हिंदू हूं और फिर ब्राह्मण। यह भी कहा कि वे लाल सलाम के बजाय भारतीय परंपरा के प्रणाम या नमस्कार अभिवादन को ज्यादा पसंद करते हैं।
विवाद करने के लिए मशहूर सुभाष चक्रवर्ती ने अपने झमेले में ज्योति बसु को भी खींच लिया और कहा कि इंदिरा गांधी की हत्या के बाद ज्योति बसु भी अपना सिर ढंक कर एक गुरुद्वारे में गए थे। इसके बाद उन्होंने एक बार यह भी धमकी दी कि वे उन माकपा नेताओं का नाम उजागर कर सकते हैं। एक बार चक्रवर्ती ने ट्रांसपोर्ट सेक्टर के मजदूरों से अपील की थी वे विश्वकर्मा पूजा धूमधाम से मनाएं।
चक्रवर्ती की इन बातों से माकपा की काफी छीछालेदार हुई, मगर पार्टी ने उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की। शायद इसलिए क्योंकि इससे पार्टी के धर्मप्रेमी समर्थकों की भावनाएं आहत होंगी फिर चक्रवर्ती अपने खास लोकप्रिय भी हैं।
लेकिन केरल में माकपा का मुसलिम मुखौटा रहे अब्दुल्ला कुट्टी ने इन सबको काफी पीछे छोड़ दिया है। उनका कहना है कि हमारे समाज में आस्तिकों की संख्या बढ़ती जा रही है। इसलिए पार्टी को ज्यादा से ज्यादा लोगों को अपने साथ लाने के लिए अपने द्वंद्वात्मक भौतिकवाद में परिवर्तन करना होगा। माकपा अब भी धर्म के साथ अपने रिश्तों को लेकर भ्रम में है। मुझे सार्वजनिक रूप से धर्म में अपनी आस्था की घोषणा करने में इस कारण बहुत पीड़ा होती है। मैंने उन कई कम्युनिस्ट नेताओं की मानसिक पीड़ा को व्यक्त किया है जो सार्वजनिक तौर पर अपने धार्मिक आस्थाओं को व्यक्त नहीं कर पाते।
जनसत्ता (01 अक्टूबर, 2008) से साभार
Friday, 10 October 2008
क्या सेकुलरिज्म का अर्थ केवल हिंदू विरोध है!
साम्यवाद के प्रवर्तक कार्ल मार्क्स ने बड़े जोर देकर कहा था, 'धर्म लोगों के लिए अफीम के समान है (Religion as the opium of the people)। लेकिन मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी में बहुत सारे कामरेड घुटन महसूस कर रहे हैं और उन पर धर्म का नशा सिर चढ़कर बोलने लगा है।
पिछले दिनों कन्नूर (केरल) से माकपा सांसद केपी अब्दुल्लाकुट्टी हज यात्रा पर गए। जब बात फैली तो सफाई दी कि अकादमिक वजहों से गए थे।
केरल विधानसभा में माकपा के दो विधायकों ने ईश्वर के नाम पर शपथ ली थी। कोच्चि में माकपा की बैठक में अनोखा नजारा देखने को मिला। मौलवी ने नमाज की अजान दी तो धर्मविरोधी माकपा की बैठक में मध्यांतर की घोषणा कर दी गई। मुसलिम कार्यकर्ता बाहर निकले। उन्हें रोजा तोड़ने के लिए पार्टी की तरफ से नाश्ता परोसा गया। यह बैठक वहां के रिजेंट होटल हाल में हो रही थी।
लेकिन मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का कोई भी नेता केपी अब्दुल्लाकुट्टी के खिलाफ बोलने का साहस नहीं जुटा पा रहा है। वहीं, याद करिए जब सन् 2006 में वरिष्ठ माकपा नेता और पश्चिम बंगाल के खेल व परिवहन मंत्री सुभाष चक्रवर्ती ने बीरभूम जिले के मशहूर तारापीठ मंदिर में पूजा-अर्चना की और मंदिर से बाहर आकर कहा,'मैं पहले हिन्दू हूं, फिर ब्राह्मण और तब कम्युनिस्ट' तब इस घटना के बाद, हिन्दू धार्म के विरुध्द हमेशा षडयंत्र रचने वाली भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के अन्दर खलबली मच गई। माकपा के कई नेता सुभाष चक्रवर्ती के विरुध्द आवाज बुलंद करने लगे। राज्य सचिवालय के मंत्री और वाममोर्चा के अध्यक्ष बिमान बोस ने कहा कि पार्टी सचिवालय में इस पर विचार किया जाएगा। सबसे तीव्र प्रतिक्रिया दी पार्टी के वरिष्ठ नेता व पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु ने। उन्होंने तो यहां तक कह दिया, 'सुभाष चक्रवर्ती पागल हैं।' इसके प्रत्युत्तर में सुभाष ने सटीक जवाब दिया और सबको निरुत्तार करते हुए उन्होंने वामपंथियों से अनेक सवालों के जवाब मांगे। उन्होंने कहा कि जब मुसलमानों के धार्मिक स्थल अजमेर शरीफ की दरगाह पर गया या सिक्खों के गुरूद्वारे में गया, तब कोई आपत्ति क्यों नहीं की गई? उन्होंने यह भी पूछा कि जब पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु इस्राइल गए थे और वहां के धार्मिक स्थलों पर गए तब वामपंथियों ने क्यों आपत्ति प्रगट नहीं की।
संदर्भ- सतीश पेणडेकर की रिपोर्ट, जनसत्ता
Publication:Economic Times Mumbai
THE Communists here may be compulsive critics of George Bush but when it comes to holidaying, US is a preferred destination.
To be fair to Mr Karat, he is not the first Indian revolutionary to vacation in the US. Former chief minister of West Bengal Jyoti Basu had to write that he was a Communist when he filled in his visa application for the US when he visited over a decade ago. However, the US has done away with that column in its application forms, which now do not seek details about the applicant’s political affiliations.
Mr Karat’s politburo colleague, Buddhadeb Bhattacharjee, was planning a visit to the US. But for past several months, problems have been raining for the Bengal chief minister, demanding his presence in the state.
The CPM general secretary, who is learnt to have left for the US a day after the Manmohan Singh government announced the hike in fuel prices, is expected to return two days ahead of the meeting of the UPA-Left panel on the nuclear deal on June 18. The meeting is likely to witness the US-loathing Left rejecting the government’s plea to allow it to wrap up the India-specific safeguards agreement with the IAEA.
Soon after prices of petrol, diesel and LPG were increased, Left parties issued a statement criticising the government for the move and announcing a weeklong agitation. The CPM has been holding the US largely responsible for the global price rise situation and has not missed any opportunity to accuse the UPA government of succumbing to US pressure. The Left had protested president George Bush’s India visit, joint naval exercises and India’s vote against Iran.
http://epaper.timesofindia.com/Repository/ml.asp?Ref=RVRNLzIwMDgvMDYvMTEjQXIwMDIwMw==&Mode=HTML&Locale=english-skin-custom