Thursday 23 October, 2008
रंगभूमि का नायक
लेखक- विकास कौशिक
मैं मुन्ना भाई नहीं हूं…मुझे मेरे सामने जीते जागते महात्मा गांधी नजर नहीं आते…लेकिन सच कहूं…सपने में मुंशी प्रेमचंद से मेरी मुलाकात होती है। और सुनिये ये मामला किसी कैमीकल लोचे का नहीं मामला सचमुच इस वक्त के सबसे बड़े लोचे का है। बहरहाल आपको बताउं मुंशी जी ने मुझसे क्या कहा…वो मुझे रंगभूमि में ले गए…अरे वही रंगभूमि जिसे आप हम सभी कभी ना कभी पढ़ चुके हैं..सब कुछ याद नहीं रख सकते इसीलिए भूल भी चुके हैं। वैसे मुंशी जी अपने साथ पिछले कुछ दिनों की अखबारी कतरने लिए घूम रहे थे..बोले- यार हालात अब भी नहीं बदले…रंगभूमि में भी यही हुआ था। गरीबों की बस्ती में कई एकड़ जमीन पर मालिकाना हक रखने वाला अंधा भिखारी सूरदास अमीर पूंजीपति और स्थानीय प्रशासकों की मिलीभगत से अपनी ज़मीन गंवा देता है..सूरदास की जमीन हड़पने में मदद करने वाले सूरदास के वही पड़ोसी होते हैं जिनके भले के लिए ही सूरदास किसी भी कीमत पर अपनी जमीन देने के लिए राजी नही होता। सूरदास और उसके साथियों में फूट पड जाती है और फिर होता वही है जो किसी भी समाज में सर्वजन के हित में नहीं होना चाहिए। यानि लालच…राजनीति…क्षुद्र भावनाओं की चपेट में आकर समाज टूटता है…झूठ की जय जयकार होती है और सच अपना मुहं छिपाकर रोता है।
इसके बाद प्रेमचंद बाबू रोआंसे कम और आक्रामक ज्ञानी ज्यादा हो गए…बोले …ये सिर्फ इसी कहानी का नहीं पूरी दुनिया में होने वाली ज्यादातर ज्यादतियों का लब्बो-लुबाव है। जब आपस में प्यार से जुड़ी हुई कड़िया खुलने लगती है…जब हम एक दूसरे को खलने लगते हैं…स्वार्थों के लिए आपस में जलने लगते हैं। तब हमारा इतिहास हमारी बर्बादी की गवाही देने की तैयारी करने लगता है। हजारों साल से हिंदुस्तान के इतिहास में भी यही तो होता आया है। पहले शासक आपस में लड़कर रियासतों में बंट गए। अंग्रेज आए तो उन्हें पहले से बंटे इन रजवाड़ों को उखाड़ने में ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी फिर भी उन्होंने जो कोशिशें की उसे उनकी क््क्ष्ज्क्ष्क््क ॠक्् ङछक घ्क्ष्क् के रुप में प्रसिध्दि मिली। 300 सालों तक उनके शासन का इतिहास देखकर तो यही लगता है कि दुनिया में शायद ही राज करने की ऐसी कोई दूसरी नीति रही होगी।
मैंनें भी प्रेमचंद जी की हां में हां मिलाई। वो और एक्साइटिड होकर बोले….
लेकिन विकास जी मैं तो ये मानता हूं कि 300 साल तक रहे इस जुल्मी ब्रितानी शासन का श्रेय अंग्रेजो की तोड़कर राज करने की नीति को नही बल्कि हमारी टूटते जाने…बिखरकर कमजोर होते जाने और आखिर में घुटने टेक देने की रीति को जाता है।
चुप होकर एक ठंडी आह भरकर कहा ….स्साला…जब दुनिया भर में राजनैतिक सामाजिक चेतना का विकास हो रहा था तक हमारे यहां देश को अंग्रेजों के हाथों बेचने की तैयारी हो रही थी। प्लासी की लड़ाई से लेकर जिन्ना की अलग मुल्क की मांग और उसके लिए मचे खून खराबे तक हमारे इतिहास में जयचंदों की कहीं कोई कमी नहीं रही। इतिहास गवाह है कि समाज को तोड़ने वालों को बार बार विजय इसलिए मिलती रही क्योंकि हम कमजोर नहीं अपितु विभाजित थे। इसलिए अपने ही देश में हम शासक नहीं बल्कि शासित बने रहे।
हूं………मेरे मुहं से आवाज निकली। और उन्होंनें लपक ली। बोलते गए….
हम विभाजित थे इसलिए हमे हराना आसान था सो हम हारते गए और शत्रु जीतते गए…यही रंगभूमि में हुआ और यही मुल्क में।
लेकिन सुनों बाबू सिर्फ यही तस्वीर नहीं है….इसका भी दूसरा पहलू है जब हमने अपनी ताकत को पहचाना और हमारी खुली और बिखरी हथेली एकजुट होकर बंद मुठ्ठी बन गई तब हमें देश की आजादी भी मिल गई। ये एकता का ही प्रभाव है कि आजादी की लड़ाई लड़ने और जीतने का श्रेय हमें धर्म जाति के नाम पर तोड़ने वाली किसी मुस्लिम लीग या हिंदू महासभा को नहीं बल्कि महात्मा गांधी की राष्ट्रीय एकता को बल देने वाली शक्ति को जाता है। एकता की सफलता का ये इतिहास सिर्फ हमारा नहीं वरन दुनिया भर में एक झंडे के तले इकठ्ठा होकर अपना हक मांगने के लिए लडी लड़ाइयों का गर्वीला अतीत है। चाहें फ्रांसीसी क्रांति हो या रुस की बाल्शेविक क्रांति या फिर रंगभेद के खिलाफ दुनियाभर में चले आंदोलन।
पुरानी बातें कहते कहते अचानक उनका हाथ झोले में कुछ पुरानी आखबारी कतरनों की तरफ चला गया मुझे दिखाते हुए बोले और ये देखो हालिया ही..हमारे पड़ोसी नेपाल में जनता का राजशाही के खिलाफ चला जन आंदोलन …और ये देखो पाकिस्तान में लोग कैसे मुर्शरफ के पुतले जलाकर जस्टिस चौधरी जिंदाबाद के नारे लगा रहे हैं…देखो इन्हें सिया सुन्नी के नाम पर बंट जाने वाले लोग कैसे जस्टिस चौधरी यानि लोकतंत्रवाद के लिए निरंकुश ताकत के सामने कैसे खड़े हो गए हैं।
जान लो बेटा…दुनिया भर में किसी भी जनआंदोलन को तभी सफलता मिली जब पूरा जनसमुदाय पूरे मन से उसका हिस्सा रहा। सियासतदानों ने चाहे जितना कुचलने की कोशिश की हो लेकिन एक एक से ग्यारह होने वालों के सामने उनकी बारुदी तोपे भी ज्यादा टिक नहीं सकी।…
अब तक मैं भी प्रेमचंद जी के साथ फ्रेंक हो चुका था…लगा अपना भी साहित्य ज्ञान बघार लूं..तो मैंने भी बचपन से सुनी कहानी ठोंकते हुए बोला…सर आप ठीक कह रहे हैं…लेकिन परेशानी ये है कि हम कुछ याद नहीं रखते अब देखिये ये कहानी कितनी फेमस थी जिसमें एक किसान अपने लड़ते झगड़ते रहने वाले लड़को को एकता का सबक सिखाने के लिए उन्हें पहले एक एक लकड़ी को तोड़ने को देता है और फिर लकडियों को एक गठ्ठर में मजबूती से बांधकर उन्हें ये बताता है कि जब आप एक साथ हो तो इन लकडियों की तरह कोई आपको भी नहीं तोड़ पायेगा।और तो और पचतंत्र में भी कहा गया है कि एकता से कार्य सिध्द होते हैं। लेकिन अफसोस हमारी पुरानी पीढ़ी ने अपने वक्त की इन कहानियों से कुछ नहीं सीखा….मैंने कहा।
अचानक प्रेमबाबू को ताव आ गया…तुनक कर बोले ..बस कर दी ना हताशों वाली बात…पुरानों को गरियाकर अपना पल्ला झाड़ लिया ना। मैं तुमसे पूछता हूं। तुम्हारी पीढ़ी ने क्या सीखा..लगान देखकर..बहुत सीटियां बजाई थी सिनेमा हॉल में बैठकर। वाह, क्या चमत्कारिक कहानी थी…सिर्फ एकीकरण की ताकत के आधार पर दबे कुचले किसानों ने अंग्रेजो को उन्हीं के खेल में हरा दिया था। बोलो हीरो… क्या ये एकता की ताकत का उदाहरण नहीं है जो किसी को भी मजबूती से किसी के भी सामने खड़ा सिखा दे।
कहकर वो थोड़े नर्म हो गए….बेटा…पीढ़ी नई हो या पुरानी वो ना कहानियों से सीखती है और ना ही गलतियों से। इसी का नतीजा है कि तीन सौ सालों तक गुलाम रहने के बावजूद कभी द्रविड़ राज्यों में भाषा के नाम पर ,कभी दूसरे राज्यों में धर्म.जाति के नाम पर आपस में लड़ते रहते हो। हाल ही में उत्तर भारत को हिला कर रखने वाले गुर्जर मीणा आरक्षण विवाद और डेरा सच्चा सौदा -अकाल तख्त विवाद जैसी घटनाएं क्यूं सामने आई…क्या तुम्हारी धार्मिक भावनाएं,तुम्हारे विश्वास आस्था इतनी कमजोर हैं कि कोई भी अपने ढ़ंग से कोई बात कहें तो तुम्हें अपने धर्म समाज पर आंच नजर आने लगती हैं तुम लड़ने मरने को तैयार हो जाते हो…क्यूं आरक्षण जैसी व्यवस्थाएं देश के एकीकरण से ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाती है।
शायद इसलिए कि हमारे लिए तत्काल लाभ ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाते हैं…दूरगामी दृष्टि का पतन हो जाता है…मेरे मुंह से निकल गया।
ठीक कह रहे हो…इसी चक्कर में सब भूल जाते हैं, कि विकास, आधुनिकीकरण और आकांक्षाओं की अंधी उडान ने तुमसे तुम्हारे परिवार भी छीन लिए हैं। एकता की भावना हमारे समाज से ही नहीं हमारे परिवारों से भी लुप्त होती जा रही है…न्यूकिलीयर फैमिली…यही कहते हो ना तुम। हम दो हमारे दो…और मां-बाप को गोल कर दो। यही एजेंडा होता है ना तुम्हारा। अरे तम्हारी इसी सोच ने सब कुछ छीन लिया है तुमसे। बुर्जुगों का आशीर्वाद ,उनकी छाया,प्यार सब कुछ। और नतीजा सामाजिक पारिवारिक बिखराव के रुप में तुम्हें हर कहीं मिलेगा।क्या सचमुच ये विभाजन से जन्मा पतन नहीं है।क्या ये पतन हमें उन्ही पुरानी गलतियों की तरफ नहीं धकेल रहा जिनकी वजह से कभी हम गुलाम हुऐ थे…क्या समाज टूटने के कारण तब कुछ अलग थे …नहीं बिल्कुल नहीं सच बिल्कुल अलग है। दरअसल हम भूल गए थे कि जहां आपस में संघर्ष होने लगता है वहां समाज टिक नहीं पाता। इसलिए अपने विद्वान पूर्वजों ने भी भी चेतावनी दी है कि जिस प्रकार जंगल में हवा के प्रकोप से एक ही वृक्ष की शाखाएं आपस में रगड़ कर अग्नि पैदा करती है और उसमें वो वृक्ष ही नही वरन पूरा वन ही जलकर भस्म हो जाता है। उसी प्रकार समाज भी आपसी कलहाग्नि और द्वेषाग्नि से भस्म हो जाता है। जहां आपसी कलह है वहां शक्ति का क्षय अवश्यभामी है। क्या तुम अंदाजा भी लगा सकते हो आज तक देश में जितने दंगे और विवाद हुए हैं उनमें कितने रुपयों की हानि हुई होगी…उतने पैसे में जनकल्याण और तरक्की के कितने काम हो सकते थे…
ये सोचने से पहले ही मेरा दिमाग चकरा गया…
उन्होंनें फिर बोलना शुरु किया‘——
इन्ही सब वजहों से देश पहले कमजोर हुआ था और कमजोरों को दबाने लूटने की इच्छा सभी को होती है। पहले भी कोई राज्य अपने पड़ोसी पर आक्रमण होने पर मदद के लिए ना दौड़ता था…और ना ही आज हम दौडते हैं। और तुम अपनी क्यों नही कहते…सड़क चलते किसी ऑटो शिव खेड़ा का कथन देखते हो….यदि आपके पडोसी पर अत्याचार हो रहा है और आपको नींद आ जाती है तो अगला नंबर आपका है —पढ़ते ही कितना सोचते हो…कितना जोश में आ जाते हो…और कुछ मिनटों बाद जब बस में कोई कंडक्टर किसी मामूली से बात पर किसी सहयात्री को बेइज्जत करता है, मारपीट करता है या उसे बस से उतारने पर आमादा हो जाता है तो तुम्हें क्या हो जाता है…क्यूं तुम उसका साथ नहीं देते।
क्या ये नपुंसकता…ये एकता का अभाव ये सामाजिक बिखराव,अपनी और पराई पीर के बीच का ये विभाजन हमारे पतन के लिए जिम्मेदार नहीं है। खैर छोड़….वैसे एक बात और बताता हूं…आजकल तुम्हारे यहां ये सोशल इंजीनियरिंग बहुत पॉपुलर हो रहा है….उन्होंनें फिर गहरी सांस ली और अपने आप से बुदबुदाते हुए बोले …ठाकुर का कुआं लिखते वक्त मैने कुछ गलत नहीं सोचा था वाकई सोशल इंजीनियरिंग कमाल की चीज है।
ठाकुर का कुंआ से सोशल इंजीनियरिंग का क्या ताल्लुक् है… मैने पूछा ।
वो बोले मेरे लाल…ठाकुर के कुएं से दलितो और शाषितों ने स्वर्णो के साथ मिलकर पानी निकाला था…ठीक वैसे ही जैसे मायावती ने सरकार बना ली। जब उन्हें तिलक तराजू और तलवार को जूते मार कर कुछ नहीं मिला तो एकछत्र राज की खातिर सबको गले लगा लिया…सबको साथ लेकर चलने का फार्मूला अपना लिया।नतीजा सबके सामने है…आज वो अपनी पसंद का राष्ट्रपति बनाने की स्थिति में है…हो सकता है कल खुद प्रधानमंत्री बनने की हैसियत में हो।
मैंने सोचा सच है। वक्त बदला है ,समाज बदला है हम ना बदले तो मिट जायेंगे।
ठीक सोच रहे हो….. ऐं…..ये तो सोचते को भी पकड़ लेते हैं…
पर अब वो फिर बोलने के मूड़ में थे…बोले …बिन सहकार नहीं उध्दार,सब साथ नहीं चलेंगे तो भला कैसे होगा। तुलसीदास जी ने कहा था– गगन चढ़हि रज पवन प्रसंगा। यानि हवा का साथ पाकर घूल का कण भी आसमान छू लेता है। ना मालूम हम में से कौन कौन धूल का कण हो और कौन हवा का झोंका।अगर आसमान छूना है तो सबको एक दूसरे का साथ देकर आगे बढ़ना होगा।तभी सूरज उगेगा तभी उम्मीदों का सवेरा होगा।
सूरज के सातों रंग मिलते हैं एक साथ —तभी होता है प्रकाश।
इकाइयों से खिसककर दहाइयों, सैंकडो हजारों में ,जब होती है एकाकार, तभी तो होता है, राष्ट्रीय एकता का जीवंत प्रतिबिंब साकार।
ये कहते ही जोर की हवा चली और मुंशी जी साकार से निराकार हो गये…और रंगभूमि बुकशेल्फ से मेरे मुहं पर गिरकर मुझे जगा गया।
एक सार्थक वेबसाइट- http://pravakta.com
(लेखक एक इलेक्ट्रॉनिक न्यूज चैनल से जुडे है)
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5 comments:
वर्तमान परिस्थ्तिथियो पर कटाक्ष करता ,और "देशहित सर्वोपरी है" यह सन्देश देता यह लेख अत्यंत सुंदर है !आज मेरे साथ भी इक घटना हुई :मै अपने विद्यालय के बच्चो को "खेल प्रतियोगिता " से वापस ला रहा था !हम विद्यालय जाने के लिए बस मै चढे विद्यालय ३ स्टाप के बाद था, तो मैंने कंडेक्टर को १० टिकट देने को कहा ,इक टिकट ३ रुपए की थी ,कंडेक्टर मुझसे बोला आपको ये टिकट विद्यालय मै दिखानी होगी, नहीं तो आप टिकट न ले मै आपको १० रुपए लौटा देता हू "उसका सीधा -२ मतलब था की आप टिकट न ले और मै २० रुपए रखता हू और आप १० रुपए रखो !इक पल के लिए मै समझ नहीं पाया की मै उसके इस कथन पर गुस्सा करू या उसे बौद्धिक दू !उसके अकस्मात अनापेक्षित कथन का उत्तर, मैंने उसी की बात को सहारा बनाकर कहा, की हा "मुझे ये टिकट विद्यालय मै देने है !लेकिन यह प्रसंग,मेरे इस लेख को पढ़ने के बाद पुनः जीवंत हो उठा "की तात्कालिक लाभ की चाह मै हम देश-हित,सामाजिक नेतिकता, सब ताक पर पर रख देते है !लेकिन विचारणीय प्रश्न यह है की स्वयम के तात्कालिक हित से बढ़कर देश -हित को महत्व देने की दृष्टी कब देश के प्रत्येक जन मै आएगी ???????????
शानदार लेख. लिखने का अंदाज पसंद आया. आपने सहज ही अपनी बातें कह दी हैं.
अच्छा लेख है.
@बिन सहकार नहीं उध्दार,सब साथ नहीं चलेंगे तो भला कैसे होगा। तुलसीदास जी ने कहा था– गगन चढ़हि रज पवन प्रसंगा। यानि हवा का साथ पाकर घूल का कण भी आसमान छू लेता है। ना मालूम हम में से कौन कौन धूल का कण हो और कौन हवा का झोंका।अगर आसमान छूना है तो सबको एक दूसरे का साथ देकर आगे बढ़ना होगा।तभी सूरज उगेगा तभी उम्मीदों का सवेरा होगा।
आम आदमी हमेशा विभाजित रहा है. जब तक वह एक नहीं होगा ऐसे ही चलेगा. मुंशी जी बेकार ही परेशान होते हैं.
कभी-कभी पांचजन्य में छपे लेखोंको भी अपने ब्लाग पर छापिये। पांचजन्य के लेख अब भी पुराने फान्ट में हैं इसलिये कम लोग पढ पाते होंगे। इसके लेखों को यूनिकोड में बदलने का एक सॉफ्टवेयर यहाँ है जिसे ऑनलाइन या ऑफलाइन प्रयोग किया जा सकता है।
DVW-TTSurekh-Normal to-Unicode+converter02.htm
http://technical-hindi.googlegroups.com/web/DVW-TTSurekh-Normal+to-Unicode_converter02.htm?hl=en&gda=_NIQsmIAAAB5GQhwRali8B9ssXJex9cyVEShgA8lR2J6effM7qt6conB9Vl24JMj65qVl_YpH4PLdK6NAbA374csQzk_2onBZhhPFkoqSbOUevUckXQP9pI9X4wbe7beLF3K89HMjyj8TCKFIsZOOdZlXYRNEr4I&gsc=X5-lZwsAAADvwLuPKFLuTAaP3YLJQS9-
बाल की खाल निकालते हुए कहूं, अंग्रेज यहां 300 साल कब रहे थे? यदि प्लासी की लड़ाई, जो 1757 में हुई थी, से उनका राजकाल माना जाए, तो वे 190 साल यहां रहे।
लेकिन इसमें भी 1857 के दो-साल यहां से उनकी सत्ता गायब रही थी।
यदि 1857 से गिनें, तो वे यहां 90 साल रहे।
उसमें भी 1930 से प्रांतीय सरकारें बनने लगी थीं और देश के काफी भागों में देशी सरकारें प्रशासन चलाती थीं। रियासतों में भी देशी राजाओं का शासन था।
हमारे देश का 10,000 साल पुराना इतिहास है, उसमें 100-200 साल के अंग्रेजों की मौजूदगी को ज्यादा अहमियत देने की जरूरत नहीं है। उनका समय इतना बड़ा और महत्वपूर्ण इसलिए लगता है क्योंकि वे अभी हाल तक यहां रहे थे। पास की चीजें ज्यादा बड़ी लगती हैं।
वैसे लेख अच्छा बन पड़ा है। इसी बहाने लोग प्रेमचंद को याद तो करेंगे।
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