नि:संदेह 3 अगस्त, 2008 को नोबुल पुरस्कार विजेता अलक्जेण्डर सोलझेनित्सिन की मृत्यु विश्व के एक युग की समाप्ति की कहानी है।
वस्तुत: सोलझेनित्सिन विश्व में साम्यवादी अधिनायक से पीड़ित करोड़ों श्रमिकों के विद्रोही स्वर बने। वह जीवन भर मार्क्सवाद तथा उनके क्रूर अधिनायकों-लेनिन, स्टालिन व ब्रेझनेव से निरंतर संघर्ष करते रहे तथा उन्होंने साम्यवादी शासन के क्रूर कारनामों से विश्व को अवगत कराया।
रूस के काकेशस क्षेत्र के एक छोटे से कस्बे में दिसंबर 1918 में एक विधवा मां की कोख से वे जन्मे। सोलझेनित्सिन की उच्च शिक्षा नहीं हुई। उन्होंने 1930 के गृह युध्द में भाग लिया था तथा द्वितीय महायुध्द में सोवियत लिबरेशन आर्मी में एक कमांडर के रूप में हिस्सा लिया था। उन्होंने इस संघर्ष में दो बार सम्मानित भी किया गया था, परंतु 1945 में उनकी अचानक गिरफ्तारी एक महत्वपूर्ण मोड़ था। गिरफ्तारी का कारण अपने एक मित्र को पत्र में स्टालिन के प्रति एक घृणास्पद टिप्पणी थी। मामूली पूछताछ के पश्चात उन्हें पहले एक श्रमिक शिविर में तथा 1953 में आंतरिक देश निर्वासन की सजा दी गई थी। इस काल में उन्होंने गुप्त रूप से लेखन कार्य किया, जिस कारण 1970 में ब्रेझनेव ने उन्हें देश से निर्वासन का आदेश दिया था। उसी वर्ष उन्हें नोबुल पुरस्कार की घोषणा हुई थी। बाद में उन्होंने यह पुरस्कार 1974 में प्राप्त किया था।
सामान्यत: सोलझेनित्सिन ने अपनी रचनाओं में अपने जेल जीवन, व्यक्तिगत अनुभवों तथा कुछ अन्य कैदियों के अनुभवों के आधार पर सोवियत संघ की क्रूरताओं तथा वीभत्स यातनाओं का सजीव चित्रण किया है। उनकी सभी प्रमुख रचनाएं-ए डे इन दा लाइफ आफ इवान डिसाशोविच (1962), द फर्स्ट सर्किल (1968), द कैंसर वार्ड (1967), गुलग आर्चपेयलेगो (1970), तथा द रेड व्हील (1992) व्यक्तिगत कटु अनुभवों तथा सोवियत अत्याचारों की गाथा कहती है। 'गुलग आर्चपेयलेगो' जिस पर उन्हें नोबुल पुरस्कार मिला उसमें 227 अन्य कैदियों के अनुभवों को भी सम्मिलित किया है।
सोलझेनित्सिन ने मार्क्स की भौतिकवादी ऐतिहासिक क्रम की अवधारणा को अस्वीकार किया तथा कहा कि मार्क्स के ऐतिहासिक क्रम में केवल दासता के युग की अनुभूति होती है। उन्होंने बतलाया कि मार्क्सवाद अपने आप में हिंसात्मक है तथा साम्यवाद का स्वरूप अधिनायकवादी तथा हिंसात्मक है। उन्होंने विश्व के संदर्भ में कहा कि साम्यवादी चिंतन अन्तरराष्ट्रीय नहीं है तथा राष्ट्रीयता का उपयोग एक औजार के रूप में करता है, और वह भी तब तक जब तक उसके आदमी सत्ता न हथिया लें तथा इसके पश्चात् वह प्रत्येक राष्ट्र की संस्कृति को नष्ट करने के साथ वहां की जनता का शोषण करता है।
उन्होंने लेनिन के झूठे तथा मनगढंत इतिहास की कटु आलोचना की, जिस प्रकार इतिहासकारों ने उसके प्रजातंत्र को एक उपहासास्पद अभिनय बतलाया। लेनिन ने स्वयं स्वीकार किया था कि उसने 70 हजार व्यक्तियों को दंडित किया था। सोलझेनित्सिन ने लेनिन को साम्यवाद की इन कुरीतियों का प्रारंर्भकत्ता माना है। पूछताछ के क्रूर तरीके, जेल जीवन की यातनाएं, सामूहिक नरसंहार, पुरानी अर्थव्यवस्था को नष्ट करना आदि के लिए भी उत्तरदायी माना है।
यह सर्वविदित है कि सोवियत संघ में स्टालिन का काल (1924-1953) इतिहास का एक डरावना अध्याय है। उन्होंने इसके आतंक के शासन तथा अधिनायक तंत्र की कटु आलोचना की। वस्तुत: उनके सभी प्रमुख ग्रंथ स्टालिन के बर्बर अत्याचारों की गाथा कहते हैं।
संयोगवश यह उल्लेखनीय है कि स्टालिन का उत्तराधिकारी ख्रुश्चैव बना जो स्वयं स्टालिन का कटु आलोचक था। परंतु भारत के कम्युनिस्ट अब भी स्टालिन की आरती उतार रहे थे। कम्युनिस्ट नेता वी।टी.रणदिवे स्टालिन को क्रांतिकारी, साम्यवादी रूस का निर्माता तथा लेनिन का शानदार शागिर्द कह रहे थे। हरकिशन सिंह सुरजीत उसे अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन का महत्वपूर्ण नेता तथा वसवयुवैया उसे इंकलाबी सलाम दे रहे थे।
सोलझेनित्सिन ने जिस तरह खुलकर स्टालिन की कटु आलोचना की, वह विश्व में किसी भी राजनीतिज्ञ या अन्य विद्वान ने नहीं की। उन्होंने स्टालिन की सोवियत लिबरेटर आर्मी द्वारा नागरिकों की लूट तथा महिलाओं के सामूहिक बलात्कार का वर्णन किया है।
कुल मिलाकर साम्यवादी साम्राज्यवाद ने 75 वर्ष के शासनकाल में जो विश्व में नरसंहार तथा बर्बरतापूर्ण अत्याचार किए, उसकी मिसाल विश्व के इतिहास में कहीं भी नहीं है। अभिलेखागारों की सामग्री के आधार पर स्तेफानी कुचर्वा ने जो आंकड़े दिए हैं वह किसी देश या समाज को चौंकाने वाले हैं। उसके अनुसार इन सात दशकों में सोवियत संघ ने दो करोड़, चीन ने साढ़े 6 करोड़, वियतनाम में दस लाख, लैटिन अमरीका में पन्द्रह लाख, अफ्रीका में 17 लाख, अफगानिस्तान में पन्द्रह लाख, सत्ता विहीन कम्युनिस्ट आंदोलनों और दलों के द्वारा दस हजार मौतें हुई। अत: कुल मिलाकर लगभग दस करोड़ लोगों को साम्यवादी अधिनायकवाद का शिकार बनना पड़ा। (देखें स्तेफानी कुचर्वा, द ब्लैक बुक आफ कम्युनिज्म क्राइम, टेरर एंड रिप्रेशन, हावर्ड युनिवर्सिटी प्रेस, कैम्ब्रेज, 1999, पृष्ठ 4) इससे अधिक विश्व में क्रूरता की क्या सीमा हो सकती है। संक्षिप्त में सोलझेनित्सिन ने विश्व के सम्मुख साम्यवाद के सच को रखा तथा पोलैंड के वालेस, चेकोस्लावाकिया के दुश्चैक तथा युगोस्लाविया के मार्शल टीटो की भांति नास्तिक सोवियत संघ की घिनौनी परंतु सही तस्वीर विश्व के सामने रखी। लेखक - डा सतीश चन्द्र मित्तल, पांचजन्य से साभार
1 comment:
साम्यवाद के काले कारनामो का अति सुंदर चित्रण. भारत के कम्युनिस्ट कभी रशिया के दलाल थे अब चाइना के हो गए है. मैं जवाहरलाल नेहरू विश्वविदयालय में नियमित रूप से जाता हूँ और वह मुझे कम्युनिस्ट के सही चरित्र दिखलाता है. गाली गलौज, भारत के सांस्कृतिक विरासत को गाली, शायद ही कोई भारत भक्त बर्दाश्त करेगा.
राम एन कुमार
ब्रांड कम्युनिकेटर & सामाजिक कार्यकर्ता
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