Wednesday, 31 December 2008
हितचिन्तक ब्लॉग आपको कैसा लगा?
हितचिन्तक ब्लॉग आपको कैसा लगा? हमें जरूर बताएं। इससे हमारा हौसला बढ़ेगा। आपके सुझाव और शिकायत के बूते ही हम इसे वैचारिक रूप से और प्रखर तथा युगानुकूल बना सकेंगे। हमारा प्रयास केवल समाज की विद्रूप स्थितियों का वर्णन करना ही नहीं है अपितु एक वैकल्पिक सोच विकसित कर समाज को रचनात्मक योगदान देना भी है।
Tuesday, 30 December 2008
जश्न समारोह के दौरान सीपीएम नेता ने 3 अवयस्क लड़कियों के साथ यौन दुर्व्यवहार किया
औरत को मात्र देह मानने वाले मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता महिलाओं के साथ बलात्कार के जरिये नारी मुक्ति के सपने को साकार करने में जुटे हैं। अपने राजनीतिक विरोधी महिला कार्यकर्ताओं का बलात्कार के बाद उन्हें जिन्दा जला देना, माकपा नेताओं का चरित्र बन चुका हैं। शोषणमुक्त दुनिया बनाने का दावा करने वाले सीपीएम नेता मानसिक रूप से दिवालिएपन का शिकार हो गए हैं। माकपा शासित पश्चिम बंगाल और केरल में यह आम बात हो गयी है। विदित हो कि सिंगूर में एक युवती तापसी मलिक ने अपनी ज़मीन टाटा को देने से मना कर दिया। इस युवती के साथ एक रात इसकी ज़मीन पर ही सीपीएम के लोगों ने बलात्कार किया और ज़िंदा जला दिया।
अंग्रेजी समाचार पत्र द हिंदू के मुताबिक हालही में केरल के कोलियंडी (Koyilandy) पुलिस ने मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, चीनाचेरी (Cheenacheri) समिति कार्यालय के शाखा सचिव के के सुधाकरण (उम्र -55 साल) के खिलाफ स्थानीय स्कूल की तीन अवयस्क छात्राओं के साथ यौन दुर्व्यवहार के आरोप में कई मामले दर्ज किए हैं।
सीपीएम नेता सुधाकरण ने तीन अवयस्क छात्राओं, जिनमें से दो लड़कियां 9 साल की हैं और तीसरी 8 साल की हैं, को पार्टी के एक बालासंघोम (Balasanghom) कार्यक्रम में भाग लेने के लिए बुलाया और इसके पश्चात उनके साथ यौन दुर्व्यवहार किया। सुधाकरण पर पहले भी लड़कियों से यौन दुर्व्यवहार करने के आरोप लग चुके हैं।स्त्रीविरोधी मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी को सबक सिखाएं और महिला अस्मिता की रक्षा करें।
Monday, 29 December 2008
माकपा सांसद ने मोदी मॉडल की प्रशंसा की
सत्य को झूठ रूपी बादल चाहे जितना ढंकने की कोशिश करे, कुछ देर के लिए वह ओझल होता है किन्तु सत्य तो प्रकट होता ही हैं। गुजरात के मुख्यमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के व्यक्तित्व पर वामपंथियों ने जबरदस्त कीचड उछालने का षड्यंत्र रचा, लेकिन श्री मोदी तो सूर्य की तरह हमेशा चमकते रहे वहीं वामपंथियों के हाथ कीचड में जरूर सने रहे। जनता ने दो बार श्री मोदी को प्रचंड बहुमत से गुजरात के मुख्यमंत्री होने का जनादेश सुनाया लेकिन जनता के तथाकथित ठेकेदार श्री मोदी को पानी पी पीकर गरियाने में जुटे रहे, उन्हें जनतंत्र विरोधी करार देते रहे। अब श्री मोदी के विरोधी भी स्वीकार कर रहे हैं कि श्री मोदी ने अपनी मेहनत, ईमानदारी एवं सूझबूझ से गुजरात को देश का अग्रणी राज्य बना दिया है। उनका काम सिर्फ कागजों पर नहीं, बल्कि धरातल पर भी दिखता है।
गुजरात के मुख्यमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के प्रशंसकों की लंबी फेरहिस्त बन रही हैं। आज के दैनिक अंग्रेजी अखबार पायोनियर में एक खबर प्रकाशित हुई हैं, जिसके मुताबिक केरल के कन्नूर से माकपा सांसद श्री अब्दुल्लाकुटटी गुजरात के मुख्यमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी को विकास के मामले में मॉडल मानते हैं।
श्री अब्दुल्लाकुटटी का मानना है कि विकास के मामले में नरेन्द्र मोदी अपनी प्रभावी योजनाओं और उनके क्रियान्वयन के चलते अन्य राज्यों की तुलना में गुजरात को काफी आगे ले गए हैं।
श्री अब्दुल्लाकुटटी ने आगे कहा, "कैसे मोदी नैनो कार परियोजना को पश्चिम बंगाल (मार्क्सवादियों द्वारा शासित राज्य) से गुजरात वापस लाने में टाटा समूह को आकर्षित किया, यह इसका एक उत्कृष्ट उदाहरण है। इसलिये केरल को उनसे सबक लेना चाहिए।"
श्री अब्दुल्लाकुटटी ने केरल की दुर्दशा का जिक्र करते हुए कहा, "केरल निवेशकों को आकर्षित करने में अन्य राज्यों से काफी पीछे है। इसके पीछे बेवजह हडताल, बुनियादी सुविधाओं का अभाव, विकास की गलत नीतियों जैसे कुछ कारण हैं। पर नरेंद्र मोदी निवेशकों को आकर्षित करने और उन्हें आवश्यक सहायता उपलब्ध कराने में अन्य राज्यों से काफी आगे में है। "
Saturday, 27 December 2008
तुष्टिकरण और इसके नतीजे
लेखक- बलबीर के. पुंज
क्या मुस्लिम तुष्टिकरण संघ परिवार द्वारा अपने राजनीतिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए दशकों से गढ़ा एक तथ्य है या कल्पित शब्द? इस प्रसंग में तुष्टिकरण का अर्थ क्या है और क्या इससे आम मुस्लिम का भला हुआ है? और तुष्टिकरण की नीति से राष्ट्र के रूप में भारत तथा अन्य समुदायों पर क्या प्रभाव पड़ा?
सर विंस्टन चर्चिल ने कहा था, ‘एक तुष्टिकर्ता वह है जो मगरमच्छ को भोजन देता है और यह उम्मीद करता है कि वह उसे एक दिन निगल लेगा।’ मुस्लिम कट्टरपंथियों के साथ नरम रवैये के भारतीय अनुभवों पर यह एक पूर्णतया उचित कथन है। इसकी शुरूआत गांधीजी के उस समर्थन से हुई थी, जब उन्होंने 1920 में पूरे मन से सुदूर तुर्की में ‘खिलाफत’ की बहाली का समर्थन किया था। तुष्टिकरण की यह प्रक्रिया तीसरे और चौथे दशक में भी अबाधित रूप से जारी रही और 1947 में भारत के बंटवारे व पाकिस्तान के निर्माण के साथ शिखर पर पहुंची। तब से पाकिस्तान वैश्विक आतंकवाद के केंद्र के रूप में उभरा, जिसका मुख्य निशाना ‘शेष’ भारत को बनाया गया।
जनवरी 2004 और मार्च 2007 के बीच जम्मू-कश्मीर, पूर्वोत्तर भारत और वामपंथी आतंकवादी हिंसक घटनाओं में कुल 3,647 बेगुनाह लोग मारे गए, जिसके कारण भारत को इराक के बाद विश्व के दूसरे सबसे खतरनाक क्षेत्र के रूप में विशेष पहचान मिली। पिछले एक दशक में भारत में 53,000 से ज्यादा लोग आतंकवादी हिंसा के शिकार हुए, जबकि कारगिल समेत सभी युध्दों में महज 8,023 लोग मारे गए।
यह सिर्फ आंकड़ों की बात नहीं हैं, बल्कि उसके बाद की गई अथवा न की गई कार्यवाही से तुष्टिकरण की नीति और अधिक स्पष्ट हो जाती है। टाइम्स ऑफ इंडिया की जांच-पड़ताल (अगस्त 2007 के आखिरी सप्ताह में प्रकाशित हुई थी) जिस से पता चला कि अधिकांश जिहादी वारदातों में चाहे कितने ही बड़े पैमाने पर हिंसा क्यों न हुई हो और चाहे कितनी ही संपत्ति क्यों न नष्ट हुई हो-मामले दर्ज नहीं किए गए। अधिकांश मामलों की जांच किसी न किसी बहाने से रोक दी गई, क्योंकि खोज के सूत्र किसी खास समुदाय की ओर बढ़ रहे थे। यह तुष्टिकरण है। क्या यह किसी प्रकार राष्ट्रवादी मुस्लिमों की सहायता करता है, जो मुस्लिम समुदाय का एक बड़ा हिस्सा है।
हैदराबाद के लुंबिनी पार्क विस्फोट के तीन महीने पहले ठीक इसी तरह का विस्फोट मक्का मस्जिद में हुआ था। अभी तक इसकी जांच-पड़ताल एक इंच भी आगे नहीं बढ़ी। दरअसल, जैसा कि आडवाणीजी ने संसद में (मानसून सत्र 2007) उल्लेख किया था, तीन संदेहास्पद व्यक्तियों को गिरफ्तार किया गया था। बाद में उन्हें छोड़ दिया गया, वह इसलिए नहीं कि वे बेगुनाह थे, बल्कि ऐसा करने के लिए राजनैतिक दबाव पड़ा। अर्थशास्त्री विवेक राय ने उल्लेख किया कि हालिया हैदराबाद के विस्फोट से महज कुछ दिन पहले इस्लामिक चरमपंथी गुट एआईएमआईएम ने, जिसके पास महज एक संसद सदस्य एवं चार विधान सभा सदस्य हैं, मक्का मस्जिद विस्फोट की जांच तथा आतंकवादियों के खिलाफ आतंक निरोधी दस्ते की कठोर रवैये की निंदा की। तत्पश्चात् जांच सीबीआई के हवाले कर दी गई।
टाइम्स ऑफ इंडिया की खोजबीन से मालूम हुआ कि जांच का एक हिस्सा ही सीबीआई को सौंपा गया, इसलिए जांच आगे नहीं बढ़ सकी। परिणामस्वरूप संपूर्ण जांच ठंडी पड़ गई। यह भी उल्लेखनीय है कि गृह मंत्री शिवराज पाटिल, आडवाणीजी द्वारा लगाए गए आरोपों का उत्तर देने में असफल रहे कि मक्का मस्जिद मामले में संदेहास्पद राजनैतिक कारणों से छोड़े गए थे। न तो इस केस में और न ही मालेगांव विस्फोट में तथा न ही मुंबई टे्रन धमाके के अभियुक्तों की धर-पकड़ अभी तक हो सकी है। और असल में सभी पूर्व जांच को स्थगित कर दिया गया है। कारण बिल्कुल साफ है। जांच की सुई मुस्लिम समुदाय वाले इलाकों की ओर संकेत करती है। जाहिर है कि वोट बैंक के कारण वे आधिकारिक निगरानी से पूर्णतया सुरक्षित हैं कि उनके बीच कौन से संदेहास्पद व्यक्ति आते-जाते हैं।
टाइम्स ऑफ इंडिया अपने संपादकीय में कहता है कि आतंकवादियों के प्रति भारत की कमजोर व ढुलमुल (दफ्तरी) प्रतिक्रिया, ज्यादा आतंकी घटनाओं का प्रमुख कारण है और वास्तव में यह तुष्टिकरण नीति के स्वाभाविक नतीजे हैं। केंद्रीय गृह-मंत्री पोटा जैसे कठोर आतंकविरोधी कानून की मांग को इंकार करते हैं। जैसा कि हम जानते है कि पोटा को वर्तमान सरकार ने सत्ता में आते ही रद्द कर दिया था। उनकी प्रतिक्रिया थी कि इस तरह का कानून, राक्षसी कानून होगा। टाइम्स ऑफ इंडिया ने लोकतांत्रिक देशों की एक फेहरिस्त दी है, जिन्होंने कठोर आतंक विरोधी कानूनों का निर्माण किया है, जिसके जरिए जांच अधिकारी संदेहास्पद व्यक्तियों की धर-पकड़, उनके ठिकाने की जांच और साइबर आधारित प्रमाणों को हासिल करते हैं। अधिकांश मामलों में आतंकी गतिविधियों की सजा आजीवन कारावास से कम नहीं होती, वह भी इसलिए कि अधिकांश यूरोपियन देशों ने मौत की सजा रद्द कर दी है। यहां के सेक्युलर इस तरह के कानूनों को राक्षसी कानून कहकर खारिज करते हैं। इस प्रकार जेहादी आतंकी गुटों को पहले ही नोटिस भेज दी जाती है कि उनके साथ सहानुभूतिपूर्ण रवैया अपनाया जाएगा।
सत्ताधारी गठबंधन-
क्या इनकी गतिविधियों को देखकर हम इन्हें माफिया कहें?- ने आतंकवादी गतिविधियों पर आंखें मूंद ली हैं और इसे महज दिग्भ्रमित बच्चों का कारगुजारी बताया हैं। दरअसल, सत्ताधारी गठबंधन आतंक के खिलाफ युध्द छेड़ने से जानबूझकर अलग है। टाइम्स ऑफ इंडिया ने ठीक ही कहा कि बहुत लंबे समय से हम आतंक को राजद्रोह की तरह निपटने में असफल रहे। फिर कैसे हम आतंकवादियों के खिलाफ लोगों को एकजुट खड़े होने के लिए प्रेरित कर सकते हैं?
तुष्टिकरण नीति उस वक्त बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है, जब हम आतंकी घटनाओं से निपटने के वर्तमान सरकार के दृष्टिकोण की तुलना अंतराष्ट्रीय प्रयासों मसलन- अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन और आस्ट्रेलिया की नीतियों से करते हैं। यहां तक कि सऊदी अरब, मलेशिया और इंडोनेशिया जैसे मुस्लिम देश भी इसे अंतर्राष्ट्रीय समस्या मानते हैं। लेकिन भारत ऐसा नहीं मानता। पेट्रियाट एक्ट (जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट है) आतंकवादियों को आम आदमी से भिन्न व्यवहार करता है। यह कानून आतंकवादियों, उनको समर्थन देने वालों व उन्हें वित्तीय मदद मुहैया कराने वालों के साथ कठोर है। लगभग सभी देशों ने आतंकवादियों को वित्तीय मदद से रोकने के लिए कदम उठाए हैं, लेकिन हमारी सरकार सुस्त है। आखिर क्यों? माक्र्सवादियों द्वारा समर्थित जेहाद का भयानक चेहरा यूपीए सरकार व कांग्रेस के पीछे छिपा है।
आतंकवाद जैसे गंभीर मुद्दे पर कांग्रेस ने कैसे अपने आप को एआईएमआईएम के हवाले कर दिया। बांग्लादेश के सीमा पर पकड़े गए एक व्यक्ति से खुफिया एजेंसी को पहले ही सूचना प्राप्त हो चुकी है कि बांग्लादेश और पाकिस्तान से बड़े पैमाने पर आरडीएक्स न केवल पहुंच चुका है, बल्कि उसका वितरण भी हो चुका है। समाचार-पत्रों की रिपोर्ट के अनुसार वे इसकी जांच करना चाहते थे और ठिकानों का पता भी लगाना चाहते थे। लेकिन आश्चर्यजनक यह है कि आंध्र प्रदेश की कांग्रेसी सरकार ने अधिकारियों को ऐसा करने की अनुमति नहीं दी, क्योंकि उन्हें डर था कि इससे मुस्लिम भावनाएं भड़केगी। मुसलमानों की प्रतिक्रिया की डर से पकड़े गए इन लोगों को छोड़ दिया गया। आशंका के मुताबिक हैदराबाद का दूसरा विस्फोट इसी का नतीजा था।
ये तुष्टिकरण नीति के पुरूस्कार हैं। लेकिन मामला यहीं पर खत्म नहीं होता। अफजल गुरू की फांसी पर टाल-मटोल रवैये को देखें। एक कांग्रेसी मुख्यमंत्री खुले रूप से कहता है कि वह चाहता है कि सरकार फांसी की सजा को क्रियान्वित न करे। केंद्रीय गृह मंत्री यह बताने में असफल रहे हैं कि किस परिस्थिति बस संसद पर हमले की योजना में शामिल व्यक्ति की फांसी में देरी हो रही है। वामपंथी और स्वयंभू समाजवादी बड़े मसले को उठा रहे हैं कि एक समुदाय की भावना किस तरह प्रभावित होगी, यदि कोर्ट द्वारा दी गई फांसी के आदेश का क्रियान्वयन नहीं होता है। इसका अर्थ है कि इस देश में दो कानून हैं। एक गैर मुस्लिमों के लिए और दूसरा मुस्लिमों के लिए तथा अपराधियों मुस्लिम कानूनन मिलने वाले दण्ड से भी मुक्त रहते हैं मुस्लिम समुदाय के डर से आतंकी सौदागरों के प्रति अनिच्छुक कार्यवाही, धर्मनिरपेक्ष गुटों की एक रणनीति है, जो तुष्टिकरण नीति के रूप से लगातार जारी है। दूसरे अर्थों में इसका मतलब यह भी है कि मुस्लिम समुदाय का तथाकथित गुस्सा और इस गुस्से के कारण आतंक का सहारा लेने वालों के प्रति प्रदर्शित सहानुभूति को न्याय-संगत बनाता है।
अनेकमुंही शैतान
आतंकवाद के प्रति नरम रवैया दरअसल, तुष्टिकरण की सौ-मुंही नीति का महज एक भाग है। नेहरू की सेक्यूलर छूट जिसमें जम्मू-कश्मीर को धारा 370 व हिंदू कोड बिल कानून (लेकिन समान नागरिक संहिता नहीं) के जरिए स्वायत्तता दी गई। धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार के तहत धर्म-परिवर्तन व अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थान जारी रहे। गौ-हत्या प्रतिबंध मखौल की वस्तु बना और हज सब्सिडी दी गई। इनको आस्था की वस्तु के रूप में (राष्ट्र के राजनीतिक जीवन में) देखा गया और इन सेक्युलर प्रावधानों के बुरे नतीजे अब हमारे सामने स्पष्ट हैं।
समय के साथ, बीमारी बढ़ती ही गई। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने घोषणा की कि भारत के संसाधनों पर मुसलमानों का पहला हक है। 2001 की जनगणना के धर्म आधारित आंकड़ों की मनचाही व्याख्या, पोटा को निरस्त करना, मुस्लिमों की आर्थिक स्थिति में सुधार की सिफारिश के लिए सच्चर कमेटी की नियुक्ति, मुस्लिमों को 5 प्रतिशत आरक्षण देने की वकालत, अल्पसंख्यक संस्थाओं को अन्य पिछड़ा वर्ग आरक्षण से बाहर रखना, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को अल्पसंख्यक दर्जा, आईएमडीटी एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को पलटने की कोशिश, अल्पसंख्यकों के लिए एक अलग मंत्रालय का गठन, हज सब्सिडी में बढ़ोत्तरी, मदरसों को यूनिवर्सिटी से संबध्द करने के इरादे की घोषणा आदि तुष्टिकरण नीति के विविध रूप हैं।
छद्म-भावना, छद्म-सहानुभूति और पवित्र संवेदनशीलता ने सेक्युलरवाद के चारों तरफ एक तिलिस्म तैयार किया है। यह भी एक आकस्मिक घटना है कि पूरा विश्व अमेरिका से लेकर यूरोप और आस्ट्रेलिया तक एक ही समय में एक साथ एक ही समस्या से जूझ रहा है। भारत इससे केवल एक विचित्र संतुष्टि प्राप्त कर सकता है कि उत्तर औपनिवेशिक काल में समस्त विश्व की तुलना में भारत मुस्लिम समस्या को समझने में ज्यादा गलती नहीं की।
पश्चिम में पिछले कुछ समय में आतंकवाद पर तमाम पुस्तकें लिखी गई, जिसमें इस्लामिक आतंकवाद के उभार व उनके कारण पश्चिम में मडंराते खतरों पर चर्चा हुई। मुख्य प्रकाशक, यूनिवसिर्टी प्रेस व मुख्य मीडिया ने इस समस्या पर काफी गौर किया और काफी विवेचना की। उन्होंने इसका खुलासा किया कि पश्चिम के उदारवादी मूल्यों, मसलन बहु-सांस्कृतिकवाद, लोकतंत्र, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का इस्लामिक चरमपंथी उद्देश्यों के लिए किस तरह दुरूपयोग किया गया। वहीं भारत की मीडिया, शैक्षणिक समुदाय व राजनीतिज्ञों ने शायद ही इस प्रकार की खोजबीन की। ऐसे प्रश्नों पर चर्चा चलाने मात्र से ही, हालांकि अकादमिक तौर पर ही, उसे सांप्रदायिक घोषित कर दिया जाता है। ऐसा क्यों?
इस सेक्युलर उद्योग में कुछ निहित स्वार्थ संलग्न हैं, जबकि सच्चाई यह है कि यह उद्योग जहरीले उत्पाद बना रहा है, जो आने वाले समय में सभ्यता का गला घोट देगी। धर्मनिरपेक्षवाद के ये झंडाबरदार सांप्रदायिकता के सबसे वीभत्स रूप को पोषित कर रहे हैं। हम नैतिक रूप से सही हैं या गलत, यह बहस अब काफी पीछे छूट चुकी है। अब हम एक ऐसे समय में हैं जब इसके द्वारा किए भयानक कृत्यों का उधार चुकाना है। केवल अच्छी-अच्छी बात करके हम राष्ट्रीय बैचेनी को नहीं ढक सकते। विस्फोटकों को ढेर किसी भी समय विस्फोट कर सकता है और इसके नतीजे बहुत ही भयानक होंगे।
स्वतंत्र भारत की नीतियों के अवलोकन से स्पष्ट हो जाता है कि धर्मनिरपेक्षवादी किस तरह मुस्लिम चरमपंथियों के जहरीले वृक्ष का पोषित किए। इस दोष का बहुत बड़ा हिस्सा निम्न कारणों से कांग्रेस के सिर पर है। गांधीयुग में हिंदू-मुस्लिम एकता के नाम पर धर्मनिरपेक्षता की मीठी-मीठी बातें हुईं, लेकिन अनैतिक बंटवारे के बाद भी कुछ भी बेहतर हाथ नहीं लगा। ब्रिटिश से सत्ता हासिल करने व अगले तीन दशकों तक शासन संभालने के कारण इसने (कांग्रेस) संवैधानिक प्रावधानों की नींव रखी। आजाद भारत के अधिकांश वर्षों में इसने ही शासन किया। भाजपा, शिवसेना और अकाली दल को छोड़कर दूसरी पार्टियों ने भी मुस्लिम चरमपंथियों की खुशामद करके कांग्रेस को बाहर करने की कोशिश की।
हिंदू-मुस्लिम संबंधों का इतिहास
यदि कोई 1300 वर्षों के हिंदू-मुस्लिम संबंधों की वस्तुपरक जानकारी लेने का इच्छुक है, तो उसे इतिहास के पन्नों में झांकना होगा। नौ-परिवहन (व्यापार) के जरिए दक्षिण भारत के तटों पर इस्लाम के पहुंचने की घटना कोई उल्लेखनीय बात नहीं थी। लेकिन जब वे मध्यकाल में आक्रमणकारी के रूप में उत्तर-भारत के रास्ते आए, तब उनका संघर्ष उस हिन्दू धर्म के साथ हुआ, जो कि धर्म का विरोध नहीं करता है। मुहम्मद बिन कासिम के नेतृत्व में अरबों ने 712 ईसवी में सिंध पर आक्रमण कर उस पर कब्जा कर लिया और हिंदू राजा दहीर 20 जून को मारा गया। राजा की मृत्यु के बाद रानी और दूसरी औरतों ने अपने सम्मान की रक्षा के लिए जौहर कर लिया। 17 वर्ष से ज्यादा के जिन पुरूषों ने इस्लाम स्वीकार करने से इनकार किया वे मौत के घाट उतार दिए गए।
बाद के सभी युध्दों में, जिसमें मुस्लिम विजेताओं ने गैर-मुस्लिमों को रौंदा, पराजितों को भयानक अपमान सहना पड़ा। सच तो यह है कि मध्यकाल का इतिहास निशंस हत्या, मारकाट, लूटपाट, जबरन धर्म-परिवर्तन, हिंदू महिलाओं के साथ बलात्कार से भरा पड़ा है, जैसा कि मुस्लिम इतिहासकारों ने भी उल्लेख किया है। मध्यकालीन भारत ने ऐसे सांस्कृतिक संघर्ष को देखा, जिसमें मुस्लिम काफी भारी पड़े। लेकिन शिवाजी और गुरू गोविंद के उदय के बाद (दोनों पंथ निरपेक्ष राजा थे) हिंदू अस्मिता को काफी बल मिला।
20 फरवरी 1707 को औरंगजेब की मृत्यु के बाद हिंदू-मुस्लिम संबंधों का एक युग खत्म हो गया। उस समय मुगल साम्राज्य अपने रक्तरंजित इतिहास के आधो-काल खंड से जब आगे बढ़ चुका था, तब इसका मुस्लिम वर्चस्व टूटने लगा था। औरंगजेब की मृत्यु से पहले के 180 सालों में में 6 मुगल शासक- बाबर, हुमायूं, अकबर, शाहजहां, जहांगीर और औरंगजेब ने शासन किया। सभी शासक शक्तिशाली थे। अकबर को छोड़कर शेष सभी बहुत हद तक इस्लामी धर्मान्धाता के शिकार थे। जबकि अगले 52 सालों में (1707 से लेकर 1759 तक) आठ मुगल शासक रहे, जिसमें से चार की हत्या कर दी गई, एक को अपदस्थ कर दिया और महज तीन ही शांतिपूर्ण मृत्यु हासिल कर सके। जून 1757 में प्लासी के युध्द में क्लायु के हाथों सिराजुद्दौला की हार के बाद मुगल साम्राज्य का पतन तेजी से होना शुरू हो गया।
भारतीय इस्लाम
18वीं शताब्दी में मराठा-सिख-जाट और राजपूतों के नेतृत्व में स्थानीय शक्तियों ने विदेशी शक्तियों पर अपना अधिकार (क्षेत्रीय-सांस्कृतिक दोनों) जमाना शुरू कर दिया। अंतिम मुगल बादशाह भारतीय मूल्यों से काफी प्रभावित थे। एक खास तरह के इस्लाम का तेजी से विकास हुआ, जिसने अन्य धर्मों के साथ सामंजस्य बैठाया। अवध का नबाव वाजिद अली शाह औरंगजेब से कोसों दूर था। भारत के 95 प्रतिशत से ज्यादा मुस्लिम धर्म-परिवर्तन (हिंदुओं) से बने हैं। मेरा विश्वास है कि यह आपसी आदान-प्रदान यदि अंग्रेजों द्वारा बाधित नहीं किया गया होता, तो यहां के मुस्लिम अपने धर्म पर विश्वास करते हुए भी देश की संस्कृति में रच-बस जाते। अंतिम मुगल शासक बहादुर शाह जफर मराठों का पेंशनर था। दूसरे आंग्ल-मराठा युध्द में पटपड़गंज की लड़ाई में मराठा, ब्रिटिश जनरल लेक के हाथों पराजित हो गए। युध्द की याद में पत्थर का एक छोटा सा स्मारक बना, जो दिल्ली के निकट नोयडा गोल्फ कोर्स के आज भी मौजूद है।
ब्रिटिश के साथ मुठभेड़ मुस्लिमों ने नहीं बल्कि हिंदुओं ने शुरू की। 1857 में पहली गोली बा्रहमण, मंगल पांडे ने चलाई। प्रथम स्वातंत्र्य संग्राम में शामिल अधिकांश शासक हिंदू ही थे, लेकिन उनका मकसद बहादुर शाह द्वितीय को बतौर बादशाह गद्दी पर बैठाना था। दिल्ली की गद्दी पर बैठते ही बहादुर शाह का प्रथम आदेश गौ-हत्या पर प्रतिबंध था और जिसके न होने पर फांसी की सजा का प्रावधान था।
बांटो और राज करो
1857 के विद्रोह को दबाने के बाद परिस्थितियों में भारी बदलाव आया। अपने साम्राज्यवादी हितों को सुरक्षित करने के लिए ब्रिटिश ने ‘बांटो और राज करो’ की नीति का अनुसरण किया और दो धाराओं की मिलन प्रक्रिया को उलट दिया। एक ब्रिटिश अफसर, कर्नाटिकश ने एशियाटिक रिव्यू में लिखा है कि भारतीय प्रशासन-राजनीतिक, नागरिक व सैनिक- का सिध्दांत Divide et impera होना चाहिए। लार्ड एलफिंस्टोन ने 1859 में एक आफिशियल रिकॉर्ड में दर्ज किया कि क्पअपकम मज पउचमतं रोमन का पुराना सिध्दांत है और यह हमारा भी होना चाहिए। (Lord Elphinstone, Governor of Bombay, Minute of May 14, 1859)। 1888 में सर जान स्ट्राचे लिखते हैं, ‘विशुध्द सत्य यह है कि दो विरोधी धर्मों का एक साथ अस्तित्व भारत में हमारी राजनीतिक स्थिति का एक मजबूत आधार है।’ (Sir John Strachey, India, 1888, p.255½
द्वि-राष्ट्रीय सिध्दांत व अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी
‘बांटो और राज्य करो’ की नीति के तहत अंगरेजों ने सर सैयद अहमद खान को प्रोत्साहित करना शुरू किया, जो 1857 की क्रांति से काफी पहले ही ईस्ट इंडिया कंपनी की सेवा में शामिल हो चुके थे। 1857 के गदर के दौरान वे अंग्रेजों के साथ रहे। बाद में चलकर वे अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की स्थापना की (1920), जो बाद में मुस्लिम राजनीति (पाकिस्तान मूवमेंट) का केंद्र बिंदु बना।
सर सैयद इस बात को बखूबी समझते थे कि ब्रिटिश मालिकों की सेवा करके वे मुस्लिमों के हितों की रक्षा बेहतर ढंग से कर सकते हैं। पिछले व वर्तमान शासकों के बीच की मैत्री हिंदुओं के खिलाफ थी। परंपरागत मुस्लिम समुदाय के लिए उन्होंने अपने विचारों को सैध्दांतिक जामा पहनाया। उन्होंने मुस्लिमों व ईसाइयों की मित्रता को इस्लामिक करार दिया। सर सैयद अहमद खान, मुहम्मद एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज फंड कमेटी के अवैतनिक आजीवन सचिव रहे और चंदे निश्चित तौर पर मुस्लिम व ईसाइयों से ही लिए गए न कि किसी अन्य से।
उन्होंने यह भगीरथ प्रयास किया कि मुसलमान व ब्रिटिश सबसे अच्छे मित्र हैं। मुस्लिम राजनीति में सर सैयद की परंपरा मुस्लिम लीग (1906 में स्थापित) के रूप में उभरी। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (1885 में स्थापित) के विरूध्द उनका प्रोपेगंडा था कि कांग्रेस हिंदू आधिापत्य पार्टी है और प्रोपेगंडा आजाद-पूर्व भारत के मुस्लिमों में जीवित रहा। कुछ अपवादों को छोड़कर वे कांग्रेस से दूर रहे और यहां तक कि वे आजादी की लड़ाई से भी हिस्सा नहीं लिया। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि ब्रिटिश-भारत के मुस्लिम बहुल राज्यों मसलन-बंगाल, पंजाब में लगभग सभी स्वतंत्रता सेनानी हिंदू या सिख थे।
सर सैयद अहमद की सफलता में अंगरेजों का अपना निहित स्वार्थ था, क्योंकि उन्हें कांग्रेस के प्रतिकार के रूप में देखा गया, क्योंकि ए ओ ह्यूम द्वारा स्थापना के तीन वर्षों के अंदर अंग्रेजों को इस बात का अंदेशा हो गया था कि यह सेटी वाल्व की जगह भस्मासुर साबित होगा। अलीगढ़ कालेज का प्रधानाचार्य अंगरेज, मसलन-थिओडोर बेक व मोरीसन बने, जो सर सैयद अहमद की नीतियों के सक्रिय प्रवक्ता बने। इंग्लैंड में अपने जीवन व कैरियर को त्याग चुके बेक ने भारत में मुसलमानों की सेवा में अपने आप को समर्पित कर दिया। वह अलीगढ़ कालेज की ‘इंस्टीटयूट गजेट’ के कार्यकारी संपादक बने और अपने अनेक संपादकीय और लेखों में कहा कि भारत द्वि-राष्ट्र या अनेक राष्ट्र हैं और इसलिए संसदीय सरकार भारत के लिए उपयुक्त नहीं है। यदि यह सौंपी जाती है तो बहुसंख्यक हिंदू ही शासक होंगे और कोई मुस्लिम शासक नहीं होगा।
बेक कहते हैं, ‘कांग्रेस का उद्देश्य यह है कि देश की राजनीतिक सत्ता को हस्तांतरण ब्रिटिश से हिंदुओं के हाथ में हो। यह आर्म्स एक्ट को रद्द करने की मांग करती है और सेना के खर्च में कटौती चाहती है। जिससे परिणामस्वरूप सीमाप्रांत की रक्षा कमजोर होगी। मुसलमानों की इस मांग से कोई भी सहानुभूति नहीं है। इसलिए मुसलमानों व अंगरेजों को एकजुट रहना जरूरी है ताकि इन आंदोलनकारियों से लड़ा जा सके और लोकतांत्रिक सरकार को आने से रोका जा सके। इसलिए हम सरकार के प्रति स्वामीभक्ति व एंग्लो-मुस्लिम मित्रता की वकालत करते हैं।’
यहां पर, मार्च 16, 1888 को मेरठ में दिए गए सर सैयद अहमद के भाषण का संक्षिप्त उल्लेख जरूरी है:
क्या इन परिस्थितियों में संभव है कि दो राष्ट्र-मुसलमान व हिंदू-एक ही गद्दी पर एक साथ बैठे और उनकी शक्तियां बराबर हों। ज्यादातर ऐसा नहीं। ऐसा होगा कि एक विजेता बन जाएगा और दूसरा नीचे फेंक दिया जाएगा। ऐसी उम्मीद रखना कि दोनों बराबर होंगे, असंभव और समझ से परे है। साथ ही इस बात को भी याद रखना चाहिए कि हिंदुओं की तुलना में मुसलमानों की संख्या कम है। हालांकि उनमें से काफी कम लोग उच्च अंग्रेजी शिक्षा हासिल किए हुए हैं, लेकिन उन्हें कमजोर व महत्वहीन नहीं समझना चाहिए। संभवत: वे अपने हालात स्वयं संभाल लेंगे। यदि नहीं, तो हमारे मुसलमान भाई, पठान, पहाड़ों से असंख्य संख्या में टूट पड़ेंगे और उत्तरी सीमा-प्रांत से बंगाल के आखिरी छोर तक खून की नदी बहा देंगे। अंग्रेजों के जाने के बाद कौन विजेता होगा, यह ईश्वर की इच्छा पर निर्भर करेगा। लेकिन जब तक एक राष्ट्र दूसरे को नहीं जीत लेगा और उसे आज्ञाकारी नहीं बना लेगा, तब तक शांति स्थापित नहीं हो सकेगी। यह निष्कर्ष ऐसे ठोस प्रमाणों पर आधारित है कि कोई इसे इनकार नहीं कर सकता।
आगा खां ने 1954 में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के छात्रों को निम्न शब्दों में भेंट दी:
‘प्राय: विश्वविद्यालय ने राष्ट्र के बौध्दिक व आध्यात्मिक पुनर्जागरण के लिए पृष्ठभूमि तैयार की है।…अलीगढ़ भी इससे भिन्न नहीं है। लेकिन हम गर्व के साथ दावा कर सकते हैं कि यह हमारे प्रयासों का फल है न कि किसी बाहरी उदारता का। निश्चित तौर यह माना जा सकता है कि स्वतंत्र, सार्वभौम पाकिस्तान का जन्म अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में ही हुआ था।’
फखरूद्दीन अली अहमद के जीवनीकार रहमानी बंटबारे में अलीगढ़ की भूमिका के बारे में कहते हैं, ‘… 1940 के बाद मुस्लिम लीग ने अपने राजनैतिक सिध्दांतों के प्रसार के लिए इस यूनिवर्सिटी को एक सुविधाजनक और उपयोगी मीडिया के रूप में इस्तेमाल किया और द्विराष्ट्र सिध्दांत का जहरीली बीज बोया।… यूनिवर्सिटी के अध्यापक व छात्र सारे देश में फैल गए और मुसलमानों को यह समझाने की कोशिश की कि पाकिस्तान बनने का उद्देश्य क्या है और उससे फायदे क्या हैं।
अक्टूबर 1947 में ऐसा पाया गया कि पाकिस्तानी सरकार ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से अपनी सेना के लिए अफसरों की नियुक्ति की। उस समय उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत को यूनिवर्सिटी के उप-कुलपति को आदेश देना पड़ा कि कोई पाकिस्तानी अफसर यूनिवर्सिटी न आने पाए। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के संदिग्ध इतिहास के बावजूद सेक्युलर गुट कानून बनवाने में व्यस्त हैं कि मुस्लिम यूनिवर्सिटी को अल्पसंख्यक का दर्जा दिया जाए। यह हास्यास्पद लगता है, क्योंकि अल्पसंख्यक दर्जा के बिना ही यूनिवर्सिटी के 90 प्रतिशत छात्र और शिक्षक मुस्लिम हैं। इलाहाबाद हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने इस सेक्युलर प्रयासों पर विराम लगा चुकी है।
मुस्लिम अलगाववाद का विस्तार
मुस्लिम समस्या (मुस्लिम अलगाववाद) प्रत्येक संवैधानिक सुधारों के बाद बढ़ती गई, जिसे ब्रिटिश सरकार ने उत्तरदायी सरकार बनाने के मकसद से किया। भारतीय परिषद् कानून (1892) ने पहली बार गवर्नर की विधान परिषद् में मुस्लिमों को अलग से प्रतिनिधिात्व मिला। मुसलमानों को ऐसे वर्ग के रूप में चिह्नित किया गया, जिसका प्रतिनिधित्व होना था। यह बात अलग है कि उनका प्रतिनिधि मुसलमानों के द्वारा नहीं, बल्कि गवर्नर जनरल के द्वारा चुना जाना था। मार्ले-मिंटो सुधार से पहले के बहस-मुबाहिसे के लिए 1906 में एच. एच. खान के नेतृत्व में विशिष्ट मुसलमानों का एक प्रतिनिधिमंडल लार्ड मिंटो से शिमला में मिला।
उसने मांग की नगरपालिका तथा जिला परिषदों में पृथक निर्वाचन मंडल द्वारा मुसलमानों की निश्चित भागीदारी सुनिश्चित की जाय। प्रांतीय परिषदों में मुस्लिम समुदाय के राजनीतिक महत्व के अनुरूप हिस्सेदारी सुनिश्चित की जाय। यह भागीदारी एक ऐसे निर्वाचक मंडल के द्वारा तय की जाय, जिसमें केवल मुसलमान हों। इसी तरह की व्यवस्था इंपीरियल लेजिस्लेटिव कौंसिल के लिए भी की जाय।
1909 का मार्ले-मिंटो सुधार, जिसने केंद्रीय व प्रांतीय विधान परिषदों का विस्तार किया, ने कुछ सदस्यों के चुनाव की व्यवस्था की। प्रत्येक परिषद् में अतिरिक्त मुस्लिम सदस्यों रखे गए। ये सदस्य पृथक मुस्लिम निर्वाचक मंडल से चुन कर आते थे। पृथक निर्वाचक मंडल मद्रास और असम प्रांतीय परिषद् के लिए छह, बांबे, बिहार, उड़ीसा और संयुक्त पांत के लिए चार और बंगाल के लिए पांच सदस्य चुनने का अधिकार था। साथ ही, मुस्लिमों को यह भी अधिकार था वे आम मतदाता के साथ चुनाव में हिस्सा ले सकें। वास्तव में अंग्रेजों द्वारा पृथक निर्वाचक मंडल की व्यवस्था पाकिस्तान के निर्माण की तरफ पहला कदम था। 1946 के प्रांतीय चुनावों में उत्तरी-पश्चिमी सीमा प्रांत को छोड़कर, मुस्लिम लीग ने मुस्लिम क्षेत्रों में कांग्रेस को रौंद दिया।
सिविल सोसाइटी मूवमेंट में मुस्लिम विरोध
मुस्लिमों की राष्ट्रीय राजनीति से जानबूझकर अलगाव बंगाल में पहली बार देखने को मिला। 1851 में बंगाल में ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन की स्थापना हुई, जिसके अध्यक्ष राजा राधाकांत देब और सचिव देवेंद्र नाथ टैगोर बने। धर्म, जाति व भाषा के भेदभाव के बिना कोई भी भारतीय इसका सदस्य बन सकता था। शुरूआत से ही अखिल भारतीय दृष्टिकोण रखा गया और मद्रास व पुणे में इसी तरह के संगठनों से सहयोग भी किया गया।
एसोसिएशन की मांगों में क्या सांप्रदायिक हो सकता था। देश के स्थानीय प्रशासन में सुधार, कानूनों व नागरिक प्रशासन में आवश्यक सुधार ताकि भारतीयों की भलाई सुनिश्चित हो सके, कर में कमी, जीवन और संपत्ति की सुरक्षा, ईस्ट इंडिया कंपनी के एकाधिकार से राहत, स्थानीय उद्योगों का विकास, लोगों की शिक्षा व उच्च प्रशासनिक सेवाओं में प्रवेश के लिए प्रोत्साहन या विधान सभा की दो-तिहाई सीटें भारतीयों के लिए सुरक्षित करना उनकी मांगें थीं।
लेकिन मुस्लिम इन आंदोलनों से यह बहाना बनाकर दूर रहे कि इसमें धनी जमीदारों का आधिपत्य है और यह वर्गीय हितों को देखता है। यह मुसलमानों के हितों का प्रतिनिधित्व नहीं करता, क्योंकि अधिकांश मुसलमान रैयत या किसान हैं। इसलिए मुसलमानों ने 1856 में मुहम्मडन एसोसिएशन की स्थापना की। संगठन का नाम समुदाय को दर्शाता है न कि किसी वर्ग को। लेकिन ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन ने यह कहकर मुहम्मडन एसोसिएशन की स्थापना का स्वागत किया कि यह राष्ट्रीय समस्या को हल करने में मदद करेगा। 1859 में ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन ने रैयत की मांगों का समर्थन किया और शोषक नील उत्पादकों के उस प्रयास में हिस्सा नहीं, जिसमें 1859 के एक्ट-ग् को रद्द कराने का प्रयास किया था। 1860 में इसने सरकार से अनुरोध किया कि इंडिगो प्लांटेशन संबंधी प्रश्नों को हल करने के लिए एक जांच कमेटी नियुक्ति की जाए। यह राष्ट्रीय हित में काम कर रही थी, हालांकि यह उसके वर्गीय हित के खिलाफ भी था। फिर भी मुहम्मडन एसोसिएशन की तरफ से कोई मदद नहीं मिली।
1867 में आनंदमोहन बोस और सुरेंद्र नाथ बनर्जी ने इंडियन एसोसिएशन की स्थापना की। ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन की तरह यह किसी उच्च वर्गों का प्रतिनिधित्व नहीं करता था, बल्कि इसका काम पढ़े-लिखे मध्यवर्गीय लोगों में राजनीतिक चेतना फैलाना था। इंडियन एसोसिएशन ने जनहित के लिए अनेक मुद्दों-जैसे आर्म्स एक्ट, वर्नाक्युलर प्रेस एक्ट, बंगाल टीनैंसी एक्ट 1885 के पक्ष या विरोध में आंदोलन किया। इसने अर्थव्यवस्था, स्थानीय स्वशासन, वैधानिक व्यवस्था तथा प्रेस की स्वतंत्रता जो सभी भारतीयों की हितों से संबंधित थे, के लिए जनमत तैयार किया। हिंदुओं तथा मुसलमानों के बीच दोस्ताना संबंध बनाना एसोसिएशन का एक प्रमुख उद्देश्य था।
परंतु, मुसलमानों की कृपा से यह केवल स्वप्न ही रह गया। 1877 में बंगाल का एक मुसलमान सैयद आमीर अली, जिसे अपने ईरानी वंशज होने का अभिमान था, ने सेंट्रल मुहम्मडन एसोसिएशन की स्थापना की। इसका घोषित लक्ष्य भारत पर मुसलमानों का सभी वैध और संवैधानिक तरीकों से कल्याण करने का था। उसने तर्क दिया कि मुसलमान शिक्षा और धन में पीछे हैं। इसलिए हिंदू-मुस्लिम भाई-चारा की बात करने के बावजूद कोई भी हिंदू वर्चस्व वाली संस्था मुस्लिम समाज के हितों को प्रतिबिंबित नहीं कर सकती। इसलिए मुसलमानों एक अलग मंच की जरूरत थी।
विचित्र बात यह थी कि जो मुसलमान सैयद आमीर अली का सेंट्रल मुहम्मडन एसोसिएशन से जुड़ रहे थे, उनकी सामाजिक आर्थिक स्थित उन हिंदुओं के समकक्ष थी, जो इंडियन एसोसिएशन के सदस्य थे। परंतु जब कि इंडियन एसोसिएशन समान भारतीय हितों का पहरेदार था, सेंट्रल मुहम्मडन एसोसिएशन केवल मुस्लिम हितों की बात करती है। पांच वर्षों के अंदर सेंट्रल मुहम्मडन एसोसिएशन की सदस्यता 100 से बढ़कर 500 हो गई। आमीर अली चतुराई से पचास शाखाओं का विस्तार बंगाल, बिहार, बांबे प्रेसीडेंसी, संयुक्त प्रांत, पंजाब से लेकर सुदूर लंदन तक किया। ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन अपना विलय भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में उसकी स्थापना के समय कर दिया। लेकिन सेंट्रल मुहम्मडन एसोसिएशन ने कांग्रेस से दूरी बनाए रखा।
कांग्रेस की भर्त्सना करते हुए इलाहाबाद, लखनऊ, मेरठ, लाहौर, मद्रास तथा अन्य शहरों के मुसलमानों ने प्रस्ताव पारित किए। द् मुहम्मडन आब्जर्वर, द् विक्टोरिया पेपर, द् मुस्लिम हेराल्ड, द् रफीक ए हिंद तथा द् इंपीरियल पेपर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की आलोचना करने में एकजुट थे। इन समाचार पत्रों की कतरनें उत्तर भारत की एक प्रतिष्ठित मुस्लिम प्रकाशन, अलीगढ़ इंस्टीटयूट गजट में लगातार प्रकाशित होती रही।
सर सैयद के समय से लेकर जिन्ना के समय तक मुसलमान भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को हिंदू पार्टी कहकर आलोचना करते रहे। क्रांग्रेस ने मुसलमानों की आम भागीदारी अल्प रही। 1946 का अंतरिम चुनाव ने मुस्लिम मतदाताओं का मुस्लिम लीग के प्रति भारी समर्थन दर्शाया। मुस्लिम लीग साधारणत: अग्रेजों का वफादार रहा। फिर भी क्या कारण है कि मुस्लिम लीग स्वतंत्र भारत में कई दशकों तक यह मुसलमानों का सर्वाधिक प्रिय पार्टी बनी रही। यह बात तय हैं कि स्वतंत्रता-सह-बंटवारा की सुबह मुसलमान हिंदुओं के प्रति कोई विशेष प्रेम विकसित नहीं कर पाए। कांग्रेस शासन के दौरान अनेक बड़े दंगे भारत को अपने चपेट में लेता रहा। इस विरोधाभास का उत्तर तब मिलता है, जब हम सुविधा के गठजोड़ की तरफ देखें।
युवराज कृष्ण (भारत-विद्या के महान विद्वान एवं सेवानिवृत्ता सिविल अधिकारी) ने अपनी पुस्तक ‘अण्डरस्टैण्डिंग पार्टिशन’ में कहा है: अपने प्रस्तावों में, मंचों पर और प्रेस में मुस्लिम लीग ने कांग्रेस, विशेष रूप से 8 प्रांतों में कांग्रेसी सरकार के खिलाफ जमकर प्रचार किया। कांग्रेस पर आरोप लगाया गया कि उसने हिन्दू राज्य की स्थापना और भारत के मुसलमानों की संस्कृति एवं धर्म तथा उनके राजनीतिक व आर्थिक अधिकारों को मिटा डालने का इरादा कर रखा है। आरोपकर्ताओं को बार-बार चुनौती दी गई कि वे साम्प्रदायिक अत्याचार और मुसलमानों पर प्रभुत्व जमाने के कुछ तो उदाहरण पेश करें। इस चुनौती के जवाब में उन्होंने बड़े अस्पष्ट और अनिश्चित प्रकार के आरोपों, एक-तरफा कहानियां बनाने, विकृत भ्रांतियां और अतिश्योक्तिपूर्ण बातें ही कहीं। उन्होंने मुस्लिम संस्कृति को कुचलने के प्रयासों के उदाहरण पेश किए, उनमें वन्देमातरम् गान, सार्वजनिक संस्थानों पर राष्ट्रीय ध्वज फहराने, हिन्दुस्तानी का प्रचार करने जैसी बातें शामिल है। इस प्रकार की गतिविधियां कोई नई नहीं थी। 1920 से ही राष्ट्रीय ध्वज विदेशी शासन के खिलाफ और राष्ट्रीय अखण्डता का प्रतीक रहा है। वर्तमान शताब्दी के आरम्भ से ही ऐतिहासिक एसोसिएशनों ने राष्ट्रीय गीत के रूप में वन्देमातरम् का गान करती रही है और विभाजन से पहले से ही चलता आ रहा था। इसके खिलाफ मुस्लिम आन्दोलन एक नई बात थी। यहां भी, कांग्रेस ने केवल इस गीत के उस अंश को गाने की अनुमति दी थी जिस पर किसी को कोई आपत्ति हो ही सकती थी। कांग्रेस ने जिस आम भाषा की वकालत की थी, वह हिन्दुस्तानी थी, जिसे उत्तरी भारत में बोला और नागरी अथवा देवनागरी लिपि में लिखा जाता था। ये सभी गतिविधियां बहुत पुरानी थीं परन्तु इनके बारे में लीग का विरोध नया था। फिर भी, हर जगह जहां भी विरोध हुआ, कांग्रेसजनों और कांग्रेस सरकार संघर्ष से बचती रही।
मुस्लिम लीग की परिषद ने कांग्रेसी सरकारों के खिलाफ ऐसे सभी तथा अन्य अस्पष्ट से आरोपों को इकट्ठा करने के लिए एक विशेष समिति बनाई। एक रिपोर्ट पेश हुई जो पीरपुर रिपोर्ट के नाम से विख्यात है। इसके शीघ्र बाद ही संसदीय उप-समिति के अध्यक्ष श्री वल्लभभाई पटेल ने कांग्रेसी मंत्रियों से प्रत्येक आरोप की जांच करने और रिपोर्ट देने को कहा। कांग्रेसी सरकारों ने इन सभी आरोपों का ब्यौरेवार उत्तार तैयार कर उन्हें बेबुनियाद बताते हुए विज्ञप्तियां जारी कीं। क्या आज भी ये परिचित सी नहीं लगती हैं? अब जरा कांग्रेस के स्थान पर भाजपा को और विभाजन पूर्व मुस्लिम लीग के स्थान पर कांग्रेस और अन्य सेक्युलर पार्टियों को रख कर देखें तो आपको महसूस होगा कि जैसे इतिहास फिर से दोहराया जा रहा है।
गांधी और मुस्लिम तुष्टीकरण
कांग्रेस के नेता सदा ही मुस्लिमों को अपने साथ जुटाने के लिए लालायित थे। कुछ मुस्लिम पुरुष जैसे बदरूद्दीन तैयबजी (1887), रहिमतुल्ला एम. सायानी (1896) और नवाब सैय्यद मौहम्मद बहादुर (1919) इसके अध्यक्ष भी बने। परन्तु एक समुदाय के रूप में मुस्लिम कांग्रेस से अलग ही रहे। सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी ने लिखा है: ”हम इस महान राष्ट्रीय कार्य में अपने मुसलमान देशवासियों का सहयोग प्राप्त करने के लिए जी-तोड़ प्रयास कर रहे हैं। कभी-कभी तो हमने मुसलमान प्रतिनिधियों को आने-जाने का किराया तथा अन्य सुविधाएं भी प्रदान कीं।”
मुस्लिम सहयोग पाने के लिए जरूरत से ज्यादा झुक जाने की परम्परा गांधीवादी कांग्रेस की विशेषता बन गई थी। गांधी ने मजहबी-नैतिक दृष्टि से ‘हिन्दू-मुस्ल्मि एकता’ मुद्दे को देखा। उन्होंने इसे अपने सिध्दांत हिंसा की तरह स्वतंत्रता आंदोलन के लिए अपनी आस्था का मुद्दा बना लिया, हालांकि उनके इस सम्पर्क प्रयास को बहुत कुछ सफलता नहीं मिली। सम्भवत:, शायद ही कुल चार प्रतिशत मुस्लिम जनसंख्या ही कांग्रेस की तरफ आकर्षित हो पाई।
वस्तुत: गांधी पहले ऐसे कांग्रेसी नेता थे जिन्होंने मुसलमानों को सुधारने की कोशिश की और उन्होंने निष्क्रिय पड़े खलीफाओं के संस्थानों को बचाने के लिए भी कट्टरवादियों के साथ हाथ मिलाया। मुस्लिम लीग (1906 में स्थापित) शिक्षित कंजर्वेटिव लोगों का केन्द्र थी, परन्तु ये ऐसे दकियानुसी मुस्लिम नहीं थे, जिन्होंने मुस्लिम हितों को आधुनिक आधार पर आगे न बढ़ाया हो। लीग बड़ी कड़ाई से खलीफा आन्दोलन से दूर रहे क्योंकि वे मानते थे कि इससे कट्टरवादियों को शह मिलेगी। परन्तु गांधीजी ने खिलाफत का चैम्पियन बनकर जबरदस्त परिवर्तन ला दिया। उनके सुप्रसिध्द असहयोग आन्दोलन 1 अगस्त 1920 (जैसा कि उसी दिन की तारीख के वाइसराय को लिखे उनके पत्र से स्पष्ट है) निजी स्तर पर शुरू हुआ, जो वास्तव में खिलाफत प्रश्न पर था, जिसका उल्लेख 4 सितम्बर 1920 के कांग्रेस प्रस्ताव में हुआ था। उक्त प्रस्ताव को पढ़ने से स्पष्ट है कि असहयोग आन्दोलन खिलाफत की बहाली के लिए शुरू किया गया और स्वराज की बात तो जैसे सरसरी तौर पर कही गई हो।
गांधी जी का खिलाफत आन्दोलन
खिलाफत तथा असहयोग आन्दोलन ने मुस्लिम दकियानूसी ताकतों को भारतीय राजनीति में फिर से ले आया जो 1857 के बाद से कभी संभव नहीं हो पा रहा था। बहुत से मुस्लिमों के लिए जो सामान्यतया अनपढ़ होते हैं, स्वराज भारत में मुस्लिम शासन की पुन: स्थापना का पर्याय बन गया। मालाबार (केरल) में भयावह माफला नरसंहार इसका उदाहरण है। खिलाफत आंदोलन से उपजी सर्व-इस्लामी सरगर्मी में हताश होने का आक्रोश हिन्दुओं पर उतरा। दंगों की लहर दौड़ गई जिसमें हिन्दुओं को भारी नुकसान उठाना पड़ा। फिर भी गांधी जी ने (6 दिसम्बर 1924 के) ‘यंग इण्डिया’ अंक में लिखा: ”हिन्दू-मुस्लिम एकता किसी भी तरह चरखा-कताई से कम महत्वपूर्ण नहीं है। यह हमारे जीवन की श्वास-रेखा है।”
गांधी जी ने भारतीय मानस को चकाचौंध कर दिया, परन्तु ये हिन्दू ही थे जिन्होंने गांधी को एक राजनीतिक नेता से कहीं अधिक उनका ‘ईश्वरीय रूप’ स्वीकार कर लिया। परन्तु गांधी में हिन्दुओं की इस आस्था का शोषण हुआ, क्योंकि उनकी यह आस्था अंध-विश्वासी थी। क्या हिन्दुओं को 23 मार्च 1940 के ‘हरिजन’ में गांधी जी ने जो कुछ कहा था, उसे मान लेना चाहिए था- ”यह मुस्लिम ही थे, जिन्होंने अकेले जोर-जबर्दस्ती से या अंग्रेजों की सहायता से अशांति भारत पर लाद दी थी।” यदि कांग्रेस को अपने पक्ष में कर सकता हूं तो मैं मुसलमानों को ताकत का उपयोग नहीं करने दूंगा। मैं उन्हें अपने ऊपर शासन करने दूंगा क्योंकि आखिर फिर भी यह भारतीय शासन ही होगा।” (देखिए कलेक्टेड वक्र्स आफ महात्मा गांधी, खण्ड 78, पृ. 66)।
गांधी जी ने बहुत पहले राष्ट्र के पीठ पीछे 1944 में विभाजन पर बातचीत की थी, जब वे जिन्ना से मालाबार हिल्स, बम्बई के निवास पर चौदह बार मिले थे। फिर भी, वे 1947 तक विभाजन की संभावना से इंकार करते रहे, परन्तु उन्होंने इसे रोकने के लिए जरा कुछ नहीं किया। गांधी जी ने ‘मुस्लिम प्रश्न’ पर सबसे बड़ा नुकसान किया जब उन्होंने यह कह कर इतिहास को झुठला दिया कि ब्रिटिश शासन से पहले हिन्दु-मुस्लिम वैर-भाव नहीं था और अंग्रेजों ने इसकी शुरूआत की। गांधी जी के हिन्दू-मुस्लिम एकता के सिध्दांत ने हिन्दुओं के साथ धोखा किया क्योंकि उनके शांतिवाद ने हिन्दुओं को कमजोर कर दिया।
कम्युनिस्ट और तुष्टिकरण
भारतीय राजनीति में सबसे अधिक पथ भ्रष्ट लोग कम्युनिस्ट हैं। 1943 तक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी मास्को-आधारित कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल का भारतीय अध्याय बनी रही।
एम.एन. राय की ‘दि हिस्टोरिकल रोल आफ इस्लाम’ (1937) में लिखा है कि कम्युनिस्टों का दृष्टिकोण इस्लाम को क्रांतिकारी और हिन्दू धर्म को पश्चगामी बताया गया है, जबकि अपने आवरण परिचय में राय ने लिखा है कि ‘इस्लाम की अपार सफलता के पीछे प्रमुख कारण यह रहा है कि इस्लाम ने ग्रीस, रोम, पर्शिया तथा चीन एवं भारत की प्राचीन सभ्यताओं के पतन से उत्पन्न अत्यंत निराशाजनक स्थितियों से लोगों को बाहर निकालने की क्रांतिकारी क्षमता रही है।”
राय का कहना है कि आज भारत, विशेष रूप से हिन्दुओं में मानव संस्कृति के अंशदान में इस्लाम की जो ऐतिहासिक भूमिका रही है, उसको समुचित ढंग से समझने का सर्वोच्च राजनीतिक महत्व बन गया है।” राय का मानना है कि मुस्लिमों के प्रति हिन्दुओं की पूर्वाग्रह की जड़ में इतिहास की गुलामी के संस्मरण पीड़ा पहुंचाते हैं।
राय मुस्लिम हमलावरों मंदिर-विध्वंस की कार्रवाई को न्यायसंगत मानते हैं। ”युगों से, थानेश्वर, मुत्तारा, सोमनाथ आदि प्रसिध्द मंदिरों की जा रही दैवीय चमत्कारिक शक्तियों से लाखों लोगों को राहत मिली। इन मन्दिरों के पुजारियों ने लोगों की भावना के आसरे पर विशाल धन-सम्पत्ति जमा कर ली थी। अचानक ही, इन कू्रर हमलावरों के आघात से कार्ड के पत्तो की तरह यह आस्था और परम्परा का सम्पूर्ण ढांचा टूट गया। जब मौहम्मद की सेना हमला करने आई तो पुजारियों ने लोगों को बताया कि हमलावर ईश्वर के भयानक आक्रोश का शिकार हो जाएंगे। लोगों को चमत्कार की आशा थी, जो पूरी नहीं हुई। बल्कि हमलावरों के ईश्वर ने चमत्कार कर दिखाया। चमत्कार पर आधारित होने के कारण आस्था भी उसी चमत्कारिक ढंग से बदल गई। मजहब के सभी पारम्परिक स्तरों की हिसाब से उस संकट के समय जिन लोगों ने इस्लाम कबूल कर लिया, उन्हें सबसे अधिक धार्मिक माना जाने लगा।” राय के अनुसार इस्लाम में आस्था मजहब है, परन्तु हिन्दू धर्म में आस्था मात्र अंधविश्वास बन कर रह गया।
बाद में उसी वर्ष मुस्लिम लीग ने लाहौर में (1940) के विभाजन या पाकिस्तान का प्रस्ताव पारित हुआ तो कम्युनिस्टों ने आल इण्डिया स्टूडेण्ट्स फेडरेशन के सम्मेलन में मल्टीपल विभाजन प्रस्ताव पेश कर दिया। वहां हिरेन मुकर्जी और के एस अशरफ ने पूरे भारत की ओर से कांग्रेस को चुनौती दे डाली। प्रस्ताव पारित किया गया कि ”भारत के भविष्य को पारस्परिक विश्वास के आधार पर क्षेत्रीय राज्यों का स्वैच्छिक परिसंघ होना चाहिए।” इस प्रकार कम्युनिस्टों ने भारत के आदर्शों को मल्टी नेशनल राज्यों के रूप में स्वीकार किया। जहां जिन्ना ने ‘द्विराष्ट्रीय सिध्दांत’ का प्रचार किया, वहीं कम्युनिस्टों ने ‘मल्टीनेशनल थियोरी’ का प्रतिपादन कर दिया।
कम्युनिस्टों ने इसी थियोरी पर चलते हुए पाकिस्तान के हितों का समर्थन किया। सच तो यह है कि कम्युनिस्टों ने जिन्ना के हाथों में ‘आत्म-निर्णय के उस अधिकार’ को सौंप कर जिन्ना की वह आवश्यकता पूरी कर दी जो उसे आधुनिक भाषा के रूप में पाकिस्तान बनाने की युक्तिपूर्ण ठहराने के लिए जरूरी थी। सितम्बर 1942 में सीपीआई के केन्द्रीय समिति ने प्रस्ताव पारित किया।
स्वतंत्रता के बाद की कम्युनिस्ट रणनीति
स्वतंत्र भारत में कम्युनिस्टों ने बुध्दिजीवियों (मीडिया) पर कब्जा कर लिया। नेहरू की कृपा से वे ऐसा करने में सफल रहे क्योंकि नेहरू का कम्युनिज्म के प्रति गहन आकर्षण था, नेहरू सोवियत संघ के प्रशंसक और चीन के मित्र थे। जबकि कम्युनिस्ट सभी धर्मों को खारिज करते हैं या उनसे बराबर की दूरी बनाकर रखते हैं, परन्तु वास्तव में उनका झुकाव मुस्लिमों के प्रति रहा। वामपंथियों ने मुस्लिमों के मूर्ति भंजन और मध्ययुग में उनके अत्याचारों को तो सराहा परन्तु मीडिया में हिन्दुओं के झगड़ों को बढ़ा-चढ़ा कर दिखाया और मुस्लिम कट्टरपंथियों पर ध्यान नहीं दिया और ‘हिन्दुओं की छवि फासीवाद’ बना डाली।
स्वतंत्र भारत के मुस्लिम कांग्रेसी की तरफ क्यों झुके?
भारत के विभाजन का मतलब था कि दो तिहाई मुस्लिम पाकिस्तान का हिस्सा बन गए। बाकी एक तिहाई मुस्लिम हिन्दु-बहुल भारत में जनसांख्यिकी रूप से कमजोर थे। पाकिस्तान से आने वाले हिन्दू और सिखों की दर्दनाक गाथा ने भारत में मुस्लिम विरोधी मिजाज तैयार कर दिया था। भारत के मुसलमान स्वयं को मुसीबत में महसूस कर रहे थे। ब्रिटिश शासन के स्वर्ण युग में उन्होंने जिस कांग्रेस की भर्त्सना की थी, अब वह कांग्रेस धोती-धारिया वाली, संघर्ष करने वाली पार्टी नहीं रह गई थी, अब तो वह सत्ता में थी और देश के शासन पर पूरा अधिकार था। इसके अलावा, सेना और पुलिस में, जहां ब्रिटिश शासन में मुस्लिमों का प्रभुत्व था, अब यहां हिन्दू विराजमान थे। अब इन मुस्लिमों ने खत्म हो जाने की बजाए घास खाना पसंद किया। उन्होंने कांग्रेस की छत्रछाया में जाना उचित समझा। यह सर सैयद अहमद खां की नीति जैसा था कि अगर आप शत्रु को हरा नहीं सकते तो उसके साथ जा मिलो। इस व्यक्ति ने 1857 से पहले ब्रिटिश और मुस्लिम, जो दोनों एक दूसरे के जानलेवा का दुश्मन थे, के बीच न केवल आपस में मेल मिलाप कर दिया, बल्कि, एक विशेष सम्बंध भी बनवा दिए। इस कारण यह था कि वे दोनों स्थितियों में जीत की हालत में थे।
यह पूछा जा सकता है कि स्वतंत्र भारत में कांग्रेस को मुस्लिमों से क्या लाभ हुआ? स्पष्ट है कि इसे चुनावी लोकतंत्र में उन्हें मत प्राप्त हुए। इसके अलावा, हालांकि मुस्लिमों ने सदा ही कांग्रेस को दुलारा है, फिर भी कांग्रेस उन्हें अपनी तरफ आकर्षित करने में लगी रहती है, चाहे इसके लिए उन्हें कितना ही झुकना न पड़े। कांग्रेस को विभाजन की प्रतिक्रिया स्वरूप हिन्दू राष्ट्रवादी पार्टियों से भय था कि कहीं वे उसे चुनौती देकर अपना एकाधिकार न कर लें। हिन्दू राष्ट्रवादी पार्टी जनसंघ ने भारत के प्रथम आम चुनाव में भाग लिया। नेहरू चुनाव परिणामों में असफल नहीं होना चाहते थे, इसीलिए वे मुस्लिम मतों की तरफ झुके। नेहरू मुस्लिम मतों के बिना भी जीत सकते थे। परन्तु पूरे के पूरे मुस्लिम मतों को अपनी तरफ आता देख कर वह उन मतों की तरफ झुक गए। चुनावों में मुस्लिम मतों से अतिरिक्त लाभ लेने के लिए ‘सेक्युलरिज्म’ की बात कही जाने लगी।
नेहरू हिन्दू धर्म को अवमानना की दृष्टि से देखते थे और मानते थे कि वह संयोग से ही हिन्दू हैं। उन्होंने एक थियोरी निकाली कि फासीवाद हिन्दू राष्ट्रवाद के माध्यम से आ सकता है। वह कांग्रेस में हिन्दू प्रवृत्ति की तरफ झुकने वाले लोगों से परेशान थे जैसे राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद, सरदार वल्लभभाई पटेल, पीडी टण्डन, केएम मुंशी आदि। नेहरू की मृत्यु पर सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने कहा था कि नेहरू जन्म से ब्राह्मण, शिक्षा में यूरोपीय और आस्था में मुसलमान थे। सरदार वल्लभ भाई पटेल ने नेहरू को भारत का राष्ट्रवादी मुसलमान बताया था। वे हिन्दू राष्ट्रवाद के खिलाफ इस लड़ाई में मुस्लिमों को स्वाभाविक विदेशी मानते थे। मुस्लिमों के लिए इसका अर्थ सर सैयद अहमद बनाम अंग्रेजों द्वारा इस्तेमाल की गई प्रतिकृति थी।
मदरसे
कांग्रेस एकाधिकार की कब्रगाह से निकली अन्य पार्टियों ने सेक्युलरिज्म को राजनीतिक अनिवार्यता बना दिया। हर पार्टी ने ‘सेक्युलर’ की गलत राह पर चलने के लिए कांग्रेस को मात देने की कोशिश की। इमाम, मौलाना और मौलवियों पर उनकी निर्भरता के कारण मदरसों, उर्दू आदि की प्रगति के लिए दी जाने वाली राशि ने एक विस्फोटक स्थिति पैदा कर दी है। आज भारत में स्वतंत्रता के बाद कुछ हजार मदरसों की तुलना में लाखों-लाखों मदरसे खड़े कर दिए हैं।
अच्छे से अच्छे वातावरण में भी मदरसों की पाठयचर्या में दीने-तालीम केन्द्रित रहता है अर्थात् यहां कुराने-पाक, अदीस, शरीयत लॉ, इस्लामिक धर्मशास्त्र, अरबी, फारसी और उर्दू की पढ़ाई की मजहबी शिक्षा दी जाती है। विद्यार्थियों को भारत में इस्लाम के आगमन और इसके अरबिया, पार्शिया, मिस्र और टर्की आदि में फैलाव का इतिहास पढ़ाया जाता है। मदरसे की पाठयचर्या से शायद ही आज के विश्व से कोई जुड़ाव रहता है और सच तो यह है कि इसके कारण उनके यहां जन्म लेने वाले देश तथा अन्य समुदायों की संस्कृति से उनका कोई नाता नहीं रहता है।
अलगाव की प्रक्रिया
इसमें कोई सन्देह नहीं कि मुस्लिम राष्ट्र की आकांक्षाओं तथा चिंताओं की मुख्यधारा से अलग-थलग पड़ गए हैं, जिसकी शुरूआत ब्रिटिश इण्डिया से हुई थी और अब उसकी गति ‘सेक्युलर षडयंत्र’ की सक्रिय मदद से स्वातंत्र्योत्तार युग में बढ़ गई है।
1969 में मुस्लिम लीग के दबाव में मालापुरम के मुस्लिम बहुल इलाकों को कुछ अन्य जिलों की भौगोलिक सीमाओं का पुनर्गठन कर बनाया गया। एक सेक्युलर राज्य द्वारा मजहबी आधार पर एक नया जिला बनाया गया ताकि मुस्लिम गैर मुस्लिम काफिरों के प्रभुत्व से मुक्त होकर रह सके।
तुष्टिकरण की कीमत चुकानी पड़ती है। कांग्रेस सरकार ने 1959 में मुस्लिमों की हज सब्सिडी शुरू की थी। 57 मुस्लिम देशों में से कोई भी ऐसी सब्सिडी नहीं देता है। तुष्टिकरण नीति के अन्तर्गत राजीव सरकार ने मुस्लिम महिला (तलाक के अधिकार का संरक्षण) अधिनियम 1986 पारित किया और शाहबानो जजमेंट को शून्यीकृत बना दिया। गांधीजी की कांग्रेस ने 1932 में ‘कम्युनल एवार्ड’ खारिज कर दिया था। परन्तु अब सोनिया गांधी की कांग्रेस ने सरकारी नौकरियों में मुस्लिम आरक्षण की शुरूआत कर दी है। कांग्रेस पार्टी उस मुस्लिम लीग के साथ सरकार बनाने पर खुश है, जिसने पाकिस्तान की मांग की और वह बन भी गया। ‘सेक्युलर षडयंत्र’ आतंक के प्रति नरम रूख अपनाए है और यूपीए सरकार ने 1995 में बने टाडा की तरह ही पोटा को भी निरस्त कर दिया है। युध्द में लिप्त कश्मीर से सुरक्षा बलों को हटाने की योजना बन रही है। सेक्युलर प्रचार की कृपा से देश ने जनसांख्यिकीय हमलों को भुला दिया है, जिससे देश की सुरक्षा और भविष्य को गम्भीर खतरा पैदा हो गया है।
द्वितीय विश्व युध्द के आरम्भ होने से पहले ब्रिटिश द्वारा अपनाई गई जर्मनी के बारे में तुष्टिकरण की नीति की आलोचना करते हुए सर विंस्टन चर्चिल ने कहा था- ”अब भी, अगर आप उन अधिकारों के लिए नहीं लड़ेंगे, जबकि आप बिना खून खराबे के जीत सकते हैं; यदि आप उस विजय के लिए नहीं लड़ेंगे जो निश्चित ही आपको मिलेगी और यह विजय महंगी भी नहीं रहेगी; तो फिर आप ऐसे क्षण पर पहुंच जाएंगे जब आपको अपने ही खिलाफ हर प्रकार की मुसीबत का सामना करना पड़ेगा और आपके लिए जिंदा रहने का बहुत कम अवसर रह जाएगा।” क्या यही कथन आज हमारे लिए भी प्रासंगिक नहीं है?
Friday, 26 December 2008
आतंकवाद के विरूध्द पूरा विपक्ष सरकार के साथ : लालकृष्ण आडवाणी
आतंकवाद भारत की प्रमुख समस्या हैं। भाजपा के नेतृत्ववाली राजग सरकार ने आतंकवाद को जड़ समेत खतम करने के लिए आतंकवाद विरोधी कानूनी 'पोटा' लागू किया था लेकिन संप्रग सरकार ने सत्तासीन होते ही सबसे पहले पोटा कानून को वापस ले लिया, जिसके चलते आतंकवादियों का दुस्साहस बढ़ता गया। आतंकवाद के मुद्दे पर केन्द्र सरकार पर भारी जनदबाव पड़ा और अंतत: उसने संसद में राष्ट्रीय जांच एजेंसी विधेयक-2008 तथा गैर कानूनी गतिविधियां रोकथाम संशोधान विधेयक-2008प्रस्तुत किया।
लोकसभा में विपक्ष के नेता श्री लालकृष्ण आडवाणी ने दोनों विधेयकों का सिध्दांतत: समर्थन करते हुए कहा कि संप्रग सरकार ने पोटा कानून का विरोध करने की अपनी आठ दस वर्ष पुरानी गलती सुधार ली है लेकिन इस दौरान देश की जनता को आतंकवादियों के हाथों जान-माल की भारी तबाही का सामना करना पड़ा। हम यहां राष्ट्रीय जांच एजेंसी विधेयक-2008 तथा गैर कानूनी गतिविधियां रोकथाम संशोधन विधेयक-2008 पर संसद के दोनों सदनों में हुई चर्चा के दौरान श्री लालकृष्ण आडवाणी द्वारा दिए गए भाषण का संपादित पाठ प्रकाशित कर रहे हैं।
इसके कारण भी और आज जो दो विधेयक पेश किये गये हैं, जिनमें जो कमियां मुझे दिखाई देती हैं, उनका उल्लेख मैं करुंगा, लेकिन मैं आरम्भ में ही कहना चाहूंगा कि मैं सिध्दांतत: इन दोनों विधेयकों का समर्थन करता हूं। अभी मैंने माननीय गृह मंत्री जी को यह कहते हुए सुना कि हमारा अगला सत्र फरवरी में होगा, मुझे लगा कि क्या यह सरकार के लिए भी अच्छा नहीं होता कि जो अलग-अलग व्यू-पाइंटस हैं जिनका उल्लेख करके आपने यह बनाया है तथा सदन और देश के लिए अगर इस विधेयक को भी हम स्टेंडिंग कमेटी को भेजते, यह निर्देश देते हुए कि उनको फरवरी महीने से पहले सारी चर्चा और विचार-विमर्श, जिन-जिन लोगों से सलाह करनी है, उसको लेकर हमारे पास आयें। आपने स्वयं कहा कि यह महत्वपूर्ण विधेयक है और हमने जो स्टेंडिंग कमेटीज बनाई हैं वे इस उद्देश्य से बनाई हैं कि महत्वपूर्ण विधेयक स्टेंडिंग कमेटी के पास जाकर, ठीक प्रकार से उनके सब पहलुओं पर विचार करके और खासकर ऐसा विधेयक जिसमें शासन और प्रमुख विरोधी दल, दोनों सिध्दांतत: एकमत हैं तो इसमें कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए थी। मैंने इसके बारे में पहले आग्रह नहीं किया क्योंकि मुझे कभी-कभी संदेह होता था कि यह सत्र अंतिम सत्र न हो जाए। लेकिन जब ऑफिशियली आज कहा गया कि नहीं फरवरी के माह में हम फिर मिलेंगे तो मुझे लगा कि अच्छा होगा अगर अभी भी शासन इस पर विचार कर सके और इस पूरे सदन को आज हम चार या छह घंटे में इसे पारित कर लें, उसकी बजाए स्थायी समिति के पास जाए और जिसमें अलग-अलग लोगों से विचार भी ले लें, चूंकि इस पर सिध्दांतत: हम सहमत हैं। एनडीए और आप सहमत हैं, कुछ रिजर्वेशन्स हो सकते हैं, उसके बारे में मुझे नहीं पता। मेरे जो रिजर्वेशन्स हैं मैं उनका उल्लेख करुंगा, वे इनएडीक्वेसीज के हैं, सिध्दांतत: आपत्ति नहीं है, न फैडरल एजेंसी पर और न ही आप जो एंटी टैरर कानून लाए हैं, उसके बारे में। लेकिन यह शासन का अधिकार है, शासन निर्णय करे, लेकिन मैं सुझाव के रूप में अपनी बात आपके सामने रखता हूं।
मुझे आज संतोष है और संतोष इस बात का है कि लगभग 10 साल तक जो स्टेंड सरकार ने लिया और जब विपक्ष में थे, तब भी उन्होंने वही स्टेंड लिया। यह आज की बात नहीं है। अचानक 10 साल के अंत में उन्होंने अपना स्टेंड मूलत: बदला है। मूलत: इस बात में बदला है कि जिस समय प्रीवेंशन ऑफ टैरेरिज्म एक्ट हम लाए थे, पहले आर्डिनेंस के रूप, फिर विधेयक के रूप में और जब विधेयक राज्य सभा में पास नहीं हुआ तो जाइंट सेशन के सामने, उस समय ऐसा नहीं है कि उस समय विपक्ष जो था वह आतंकवाद का मुकाबला करने के विरूध्द था। नहीं, हम आतंकवाद को खत्म करने के पक्ष में थे और आप पक्ष में नहीं थे, यह अंतर नहीं, दोनों आतंकवाद को समाप्त करना चाहते थे। लेकिन आपका मत था कि जो आज कानून है वह आतंकवाद का मुकाबला करने के लिए पर्याप्त हैए जबकि हम इस मत के थे कि यह पर्याप्त नहीं है। हमने यह बात न केवल देश के भीतर कही बल्कि हमारे उस समय के प्रधान मंत्री जी ने अमरीका में भी जाकर वह बात अमरीका को 9/11 से भी पहले कही कि आप अगर समझते हैं कि आतंकवाद की जो विभीषिका है और उनको बताया कि हमें कितनी तकलीफ हुई है और हमको तकलीफ इसलिए हुई है कि हमारे लिए आतंकवाद एक वार का सब्सीटयूट हमारे पड़ोसी देश ने बना दिया।
अध्यक्ष महोदय, पड़ोसी देश ने हमारे साथ तीन-तीन युध्द किए। जब इन युध्दों में उसे सफलता नहीं मिली, तब उसने वर्ष 1971 के युध्द के बाद, जब वहां सैनिक शासन हुआ, उसके बाद योजनापूर्वक प्रोक्सी वार की नीति आतंकवाद के माध्यम से अपनाई। इस प्रयोग में सबसे पहले पाकिस्तान ने पंजाब को चुना और फिर जम्मू-कश्मीर तथा फिर सारे देश में आतंकवाद फैलाया। अस्सी के दशक के शुरूआत से ही हम इस समस्या का सामना कर रहे हैं। अमरीका में आतंकी हमला वर्ष 2001 में हुआ। हमारे प्रधानमंत्री ने अमरीका में अमरीकी कांग्रेस के सामने यह बात कही कि अमरीका यह न समझे कि वे चाहे विश्व के दूसरे देशों से दूर हैए इसलिए शायद आतंकवाद से बचा रहेगा। 9/11 की घटना हुई और शायद आतंकवाद के इतिहास में इस प्रकार का भयंकर कांड कभी नहीं हुआ तथा भगवान न करे कि ऐसा कभी दोबारा हो। उस भयंकर कांड में आतंकवादियों ने चार हवाई जहाज हाईजैक करके उनका मिसाइल्स के रूप में प्रयोग किया। उसके कारण अमरीका हिला, दुनिया के दूसरे देश भी हिल गए। यहां तक कि यूनाइटेड नेशंस सिक्योरिटी काउंसिल ने 28 सितम्बर, 2001 को 1373 प्रस्ताव पारित किया, जिसमें उन्होंने दुनिया के सब देशों से कहा कि आतंकवाद भयंकर समस्या है और सामान्य अपराध के लिए जो कानून बने हुए हैं, वे उसके लिए पर्याप्त नहीं हैं, इसलिए आतंकवाद के लिए विशेष कानून बनाएंगे। मैं इस बात का जिक्र इसलिए कर रहा हूं, क्योंकि मुझे आपके द्वारा प्रस्तुत बिल, अन लॉ फुल एक्टीविटीज (प्रिवेंशन) अमेंडमेंट बिल, 2008 को देख कर आश्चर्य हुआ। वर्ष 2008 में आप अनलॉफुल एक्टीविटीज (प्रिवेंशन) बिल के एक्ट के प्रिएम्बल को अमेंड कर रहे हैं। मुझे याद नहीं कि पहले कभी किसी ने प्रिएम्बल को अमेंड किया हो। ऐसा हो भी सकता हैए लेकिन मुझे याद नहीं है। इतना मैं जरूर कहूंगा कि वर्ष 2001 में जो सलाह यूनाइटेड नेशंस सिक्योरिटी काउंसिल ने दुनिया को दी और जिसका पालन दुनिया के प्राय: सभी देशों ने अमरीका ने, इंग्लैंड ने, जर्मनी ने आदि देशों ने किया। मेरा बहुत से देशों में जाना हुआ और सभी देशों ने कोई न कोई कानून बनाया और अगर मैं गलत नहीं हूं तो पाकिस्तान ने भी कानून बनाया था। हमने जब बनाया, उस समय आप विपक्ष में थे और आपने इस प्रकार से हम पर हमला किया मानो हमने कोई अपराध कर दिया हो। हमने अगर प्रिवेंशन आफ टेरोरिज्म एक्ट बनाया, तो क्या हमने अपराध किया था। यह जो रेयर प्रावधान भारत के संविधान में है कि अगर लोक सभा और राज्य सभा के सदस्यों के मत में अंतर हो तो निर्णय ज्वायंट सैशन बुलाकर किया जाएगा। भारत के इतिहास में ज्वायंट सैशन शायद दो बार या तीन बार बुलाया गया है। आज मैं देखता हूं कि अचानक सरकार को लगता है कि एक विशेष नए कानून की जरूरत है, जबकि पिछले आठ-दस साल इस कानून को बनाने की बात नहीं सोची। मैंने कहा कि मुझे संतोष है, लेकिन मैं खुशी प्रस्तुत नहीं कर सकता हूं। आखिर एक कहावत है कि सुबह का भूला शाम को घर आ जाए, तो उसे भूला नहीं कह सकते। लेकिन अगर सुबह का भूला शाम को घर आ जाए और सुबह तथा शाम के समय के बीच में अनर्थ हो जाए, उस भूल के कारण बहुत ज्यादा नुकसान हो जाए, तो मैं उस व्यक्ति को भूला जरूर कहूंगा। आपने एक प्रकार से इस बिल को प्रस्तुत करके और उसकी वकालत करके तथा यह कह कर कि आज ही इसे पास करना है, एक प्रकार से आपने अपनी गलती स्वीकार की है और आपको करना भी चाहिए कि आप दस साल गलत थे। आपको गलती स्वीकार करनी भी चाहिए। स्वयं आपने अनलॉफुल एक्टीविटीज (प्रिवेंशन) अमेंडमेंट बिल के क्लाज़-2 में यूनाइटेड नेशंस सिक्योरिटी के बारे में लिखा है।
हमने नहीं किया था। हमने देश की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए पोटा पास किया था। आपने उसे मैंडेटिड माना। एक प्रकार से यूएन सिक्योरिटी काउंसिल का मैंडेट है।
“Whereas the Security Council of the United Nations in its 4,385th meeting adopted Resolution No…so and so, etc., etc.,.. and whereas.. so and so…and whereas the Central Government in exercise of its powers conferred by section 2 of the United Nations Security Council Act has made the prevention and suppression of terrorism implementation of Security Council Resolution Order.”
You have quoted all the Resolutions of the United Nations Security Council adopted in respect of terrorism. बहुत अच्छा किया है। मैंने कहा कि मुझे इससे संतोष है लेकिन मैं कहूंगा जैसे कुम्भकरण को लंबी-लंबी नींद आती थी वैसे ही आप 7.8 साल की नींद के बाद जगे हैं। कृमैं चाहता हूं कि आप स्वीकार करते कि इस बात में गलत थे। मैं टाइम्स ऑफ इंडिया देख रहा था जिस की कटिंग मुझे किसी ने दी है। “This is old wine in new bottle.” “UPA has returned to POTA.” These are the headings. आप चाहे कुछ भी इन्कार करें। मैं उस समय मानता था कि हम बिना स्पैशल कानून के टैररिज्म का सामना नहीं कर सकते थे। मैं नहीं जानता कि मेरे वामपंथी साथी इस पर क्या कहने वाले हैं। उन्हें भी समझना चाहिए। मुझे स्वयं अनुभव है कि आपके मुख्यमंत्री कई बार मुझे कहते थे कि जब तक इस मामले में देश कठोर नहीं होगा, तब तक समस्या बड़ी भयंकर रहेगी।
आजकल के अखबारों में छपेगा कि Left and BJP vote together. लेकिन हम उसकी परवाह नहीं करते। Now I do not believe in political untouchability as you believe. I do not. आप अगर सही बात करेंगे तो मैं उसका समर्थन करूंगा। आप गलत बात करेंगे तो चाहे आप मेरे साथ होंगे तो भी मैं विरोध करूंगा।
यह बात बार-बार कही जाती है कि इसका इसलिए विरोध किया गया कि उसका दुरुपयोग हो सकता है। क्या कोई कानून बना है जिस का दुरुपयोग न हो सके। बहुत सारे साधारण कानून हैं जिनका बहुत दुरुपयोग होता है। इस बात को लॉ कमिशन ने बड़े प्रभावी रूप से लिखा है। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट की जजमेंट राजस्थान वर्सिज यूनियन ऑफ इंडिया को कोट किया है। The Mohely Commission had quoted that as part of a Law Commission Report. Law Commission’s Report is there on Prevention of Terrorism Bill. जिस में उन्होंने कहा है “It must be remembered that nearly because power may sometimes be abused, it is not ground for denying the existence of power. The wisdom of man has not yet been able to conceive of a Government with power sufficient to answer all the legitimate needs and at the same time incapable of mischief. मतलब लैजिटिमेट नीड है कि टैररिज्म पर विजय प्राप्त करनी चाहिए।
कोई ऐसी सरकार नहीं है और इसमें कोई बुध्दिमानी नहीं है कि सरकार को उसके खिलाफ अधिकार भी दे और साथ-साथ उसका दुरुपयोग न हो सके, इसका भी प्रबंधा करे। सेफगार्ड प्रोवाइड करने चाहिए। जब हमने प्रिवेंशन ऑफ टेरेरिज्म एक्ट बनाया था तब मैंने अपने सब अधिकारियों को कहा कि सुप्रीम कोर्ट में टाडा के बारे में जो आपत्तियां की गई हैं कि इस तरह से दुरुपयोग हो सकता है इसलिए सेफगार्ड इनकारपोरेट करो और वो किए गए क्योंकि यह टेरेरिज्म और डिसरप्टिव एक्टिविटी के खिलाफ था। आपने भी कुछ किए हैं, बहुत अच्छा किया है। मैं इससे इंकार नहीं करूंगा लेकिन बेसिकली यह सोचना कि क्योंकि किसी लॉ का दुरुपयोग हो सकता है इसलिए यह पास नहीं होना चाहिए, यह सरासर गलत है। आज आपने यह बिल लाकर स्वीकार किया है कि हां, हमसे यह गलती हुई है लेकिन कहने के लिए तैयार नहीं हैं। हिन्दुस्तान में टेरेरिज्म पर विजय प्राप्त करने के लिए स्पेशल लॉ जरूरी है। लेकिन स्पेशल लॉ में क्या होना चाहिए और क्या नहीं होना चाहिए, देखना होगा। आप जो बिल लाए हैं मैं उसमें इनएडीक्वेसिस और मेरी दृष्टि में जो होना चाहिए, बताऊंगा। उदाहरण के लिए मैं बताना चाहता हूं कि आपने कहा पुलिस अफसर के सामने कोई कन्फेशन हो तो उसे स्वीकार नहीं करना चाहिए। यह एडमिसिबल नहीं है क्योंकि स्वीकार तो होगा नहीं। कोई अपराधी स्वयं कन्फेस करता है और कहता है कि मैंने मर्डर किया है, It is not conclusive evidence. यह कोर्ट को डिसाइड करना है कि उसके साथ कोरोबोरेटिव एविडेंस कितना है। यह भी अधिकार है कि कोई कहे कि मैं कन्फेस करता हूं तो रिट्रेक्ट करने का भी अधिकार है। वह कोर्ट के सामने कहे कि मैं रिट्रेक्ट करता हूं। आप स्वयं वकील हैं और आप यही सब बातें ज्यादा जानते हैं। मैंने वकालत पढ़ी तो है लेकिन कभी प्रेक्टिस नहीं की लेकिन इतना मैं जानता हूं कि पुलिस अफसर के सामने कन्फेशन को क्यों एडमिसिबल एविडेंस किया। अभी एक आतंकवादी पकड़ा गया है, क्या उसके लिए और एविडेंस लाएंगे? उसकी एविडेंस एडमिसिबल नहीं होगी क्योंकि पुलिस अफसर या ज्यूडिशिएल अफसर या ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट के सामने नहीं किया गया है? हां, यह प्रेस्क्राइब करना चाहिए कि इस लैवल का पुलिस अफसर होना चाहिए जिसके सामने हो तो वह एडमिसिबल एविडेंस होगी, it does not become conclusive evidence. यह कन्क्रीट केस है जो अभी आया है कि एक आतंकवादी पकड़ा गया। तुका राम ने बहादुरी की और उसे पकड़ा। वह सब कुछ बताने के लिए तैयार होगा तो भी साधारण लॉ के तहत एविडेंस एडमिसिबल नहीं है। इसलिए मैं लॉ कमीशन की ऑब्जर्वेशन कोट करना चाहूंगा। मैं इसे बहुत महत्वपूर्ण मानता हूं जिसमें 73 रिपोर्ट में कहा है।
Mr. Home Minister, I am sure you have read it. But even then I would like to draw your attention to it.
“The act of terrorism by its very nature generates terror and a psychosis of fear among the populace. It is difficult to get any witnesses because people are afraid of their own safety and safety of their families. It is well known that during the worst days in Punjab even the judges and prosecutors were gripped with such fear and terror that they were not prepared either to try or to prosecute the cases against the terrorists. That is also stated to be the position today in Jammu and Kashmir and this is one reason which is contributing to the enormous delay in going on with the trials against the terrorists. In such a situation, insisting upon independent evidence or applying the normal peacetime standards of criminal prosecution may be impractical.”
These provisions have been included in most laws prepared all over the world to deal with terrorists. यह सोचना कि यह लॉ इतना स्ट्रिंजेंट इसलिए बना रहे हैं क्योंकि माइनोरिटी इसके खिलाफ है। आप इस प्रकार से कह कर माइनोरिटी को बदनाम कर रहे हैं। This is a law against terror; this is a law against terrorists that we enacted and which you are also enacting today.
You cannot now claim कि वह जो था, वह कम्युनल लॉ था और यह सेक्युलर लॉ है, यह तो नहीं कहोगे, उम्मीद करता हूं। आपने देश का बहुत नुकसान किया है by trying to see laws against terror through the prism of majority and minority. I said it that day and I repeat it today. मैं फिर से रिपीट करता हूं कि हिंदुस्तान में यहां की कांस्टिटुंट असैम्बली, जो उस समय अपने संविधान पर विचार करने बैठी, जब हिंदुस्तान का विभाजन हुआ था। यह विभाजन कांग्रेस नहीं चाहती थी, देश नहीं चाहता था और वह विभाजन इस आधार पर हुआ कि कहां हिन्दू बहुमत है और कहां मुसलमान बहुमत है और उन परिस्थितियों में पाकिस्तान ने अपने को थियोक्रेटिक स्टेट डिक्लेयर किया। हिन्दुस्तान ने अगर सेक्युलरवाद अपनाया तो यह स्वयं में एक ऐसी बात है कि जिसे दुनिया का कोई देश भूल नहीं सकता और हिन्दुस्तान भी नहीं भूल सकता और बहुत उचित किया, उसके आधार पर हमने साठ साल देश को चलाया। लेकिन फिर भी इतनी देर हर चीज को इस चश्मे से देखना, इससे न देश का भला है और न अल्पसंख्यकों का भला है। आप उनका भी बहुत नुकसान कर रहे हैं। इसलिए इस चश्मे से मत देखो। इस चश्मे को एक तरफ रखकर इन्डिपैंडैन्टली देखो कि टैररिज्म का मुकाबला करने के लिए कैसे-कैसे कानून जरूरी हैं। साधारणत: कोई इंटरसैप्शन ऑफ मैसेज, टेलिफोन टॉक वह एडमिसिबल एविडैन्स नहीं है। हमने प्रावधान बनाये, जिसमें Interception of telephonic talks and messages coming from, say, abroad to here, to the terrorist concerned, that became an admissible evidence. दे सकते हैं, मैं चाहूंगा कि गृह मंत्री, जो ढेर सारे प्रावधान थे relating to interception of messages. उन्हें भी इस नये कानून में समाविष्ट करें। उसकी एडिमिसिबिलिटी को स्वीकार करें। उसमें प्रावधान था कि वह एडमिसिबल होगा, इंटरसैप्शन ऑफ कम्युनिकेशन। मैं चाहूंगा कि जिस प्रकार से कंफैशन रिपोर्ट पुलिस ऑफिसर्स एडमिसिबल एविडैन्स होना चाहिए, वैसे एडमिसिबिलिटी ऑफ इंटरसैप्टिव इंफॉर्मेशन भी आनी चाहिए।
अध्यक्ष जी, मैं जानता हूं कि कानून का दुरुपयोग होता था, टाडा का भी दुरुपयोग होता था। मैं इनकार नहीं करूंगा और एक स्टेज पर मुझे याद है, इस समय चिदम्बरम जी चले गये, चिदम्बरम जी टाडा लाये थे। वह उस समय भी मिनिस्टर ऑफ स्टेट, होम थे, जब टाडा आया था और मुझे याद है कि उसका दुरुपयोग कैसे-कैसे होता था। पुलिस वाले को सुविधाजनक लगता था कि इस अपराधी को इस एजिटेशन को, चाहे वह ट्रेड यूनियन का एजिटेशन हो, मैं गुजरात में गया था, जहां पर फारमर्स एजिटेशन के खिलाफ, यहां हमारे दोनों साथी बैठे हैं और पहली बार अगर मैं टाडा के खिलाफ बोला तो उस फारमर्स कांफ्रैन्स में बोला, जहां फारमर्स के एक एजिटेशन को सप्रैस करने के लिए वहां पर टाडा का उपयोग किया गया। लेकिन किसी स्टेज पर तभी हमने यह नहीं कहा कि टाडा को स्क्रैप करो, कभी नहीं कहा। टाडा का दुरुपयोग हो रहा है, इसलिए हमेशा हम इसका विरोध करते थे। लेकिन किसी स्टेज पर टाडा खत्म करो, यह हमने नहीं कहा। मैं उम्मीद करता था कि आप भी हमें यह कहेंगे कि ठीक है, पोटा बनाओ, कोई बात नहीं, लेकिन दुरुपयोग मत करना, ऐसा कहते और अगर कहीं दुरुपयोग होता है तो आप उसे रोकते, उसकी आलोचना करते। लेकिन आपने लगातार अपनी एक थ्योरी बनाई कि terrorism is a law and order issue. स्टेट को करने दो, केन्द्र की जरूरत नहीं है। I can quote Shrimati Sonia Gandhi on this and I can also quote the Home Minister, Shri Shivraj Patil, who is no longer there as Home Minister, on this. But everyone from Prime Minister to Home Minister to the Congress Party President has taken the stand that the present set of laws is totally adequate to deal with terrorism.
And let them deal with it as law and order is a State issue. ge mls iwjk liksVZ djsaxsA This is the basic flaw that has been your thinking till today. Today, suddenly when you have staged a 'U’ turn, मैं तो बहुत खुश हूं। नेचुरली खुश हूं क्योंकि मैं लगातार आरग्यू करता था क्योंकि कानून हमने बनाया था और जिस कानून को समाप्त करना यूपीए के कार्यक्रम में in respect of Terrorism, लगभग एकमात्र चीज थी कि पोटा को हम खत्म करेंगे। It was the only thing that finds mention in the UPA’s Common Programme. In fact, I have with me a quotation from the Prime Minister. On September 3, 2005, Prime Minister Mr. Manmohan Singh at Chennai had said that :
“His Government had fulfilled its promise to repeal the Prevention of Terrorism Act, which has caused unnecessary harassment to every section. Our Government had made a commitment to repeal POTA, and we have faithfully fulfilled the promise made at the time of last Lok Sabha elections.”
होम मिनिस्टर साहब, आपने प्रधान मंत्री की इतनी बड़ी गर्वोक्ति को बिल्कुल नकार दिया।
हमने इतना बड़ा वचन पूरा किया और आपने उनको एक प्रकार से उस सारे को निरस्त कर दिया। क्यों? आप इस बात पर सोचिए। Mr. Home Minister, it is not easy just to nod your head and get away with it. It is not only because of Mumbai. मुम्बई से पहले जो घटना थी, वह इतनी बड़ी नहीं थी। मैं उस पर कहना चाहूंगा। मैं मन में सोचने लगता हूं कि क्यों, आखिर मुम्बई में ही दो साल पहले लोकल ट्रेन्स पर हमला हुआ था। वह हमला भी कोई कम भयंकर नहीं था और इसके बाद जो पहला वक्तव्य बाहर से निकला था, वह यह था कि इसमें पाकिस्तान का हाथ है और उसके थोड़े ही समय बाद अचानक प्रधान मंत्री जी कहते हैं कि पाकिस्तान तो स्वयं ही आतंकवाद का शिकार है, victim of terrorism. पाकिस्तान में भी कुछ हमले हुए हैं, वहां के राष्ट्रपति पर तथा दूसरे लोगों पर हमले हुए हैं। But to describe Pakistan as a victim of terrorism, and that too by the Prime Minister and two days later to announce that a joint-mechanism between India and Pakistan be set up to fight terrorism, I was shocked and amazed. हमने कहा कि इतने साल हमको दुनियाभर को विश्वास दिलाने में लगे कि हमारे यहां जो आतंकवाद है, वह कोई होमग्रोन नहीं है, It is cross-border terrorism. और वे मानने लगे थे कि हां, यह सही है। अभी-अभी आकर दो दिन पहले यह कहा गया कि “Pakistan is the epicentre of terrorism.” ये जो इतने सारे परिवर्तन हुए हैं, मैं मानता हूं कि कुछ तो सच्चाई है जो किसी को भी देखने में आएगी और दूसरी बात है कि देश में जैसा वातावरण मुम्बई पर उस हमले के बाद पैदा हुआ, फर्क यह है कि इससे पहले के जो विस्फोट होते थे, वे दो-चार घंटों के लिए होते थे। लेकिन इस बार तीन दिन तक यह सब लगातार चलता रहा और उसमें टेलीविजन चैनल्स ने जिस प्रकार से उसे दिखाया, हालांकि वह एक अलग बात है कि उसमें क्या दिखाना चाहिए और क्या नहीं दिखाना चाहिए या कोई उसका कोड बनना चाहिए, मैं इससे सहमत होते हुए भी समझता हूं कि टेलीविजन ने एक प्रकार से बहुत बड़ी देश की सेवा की कि उनको स्वयं लगा कि एक-एक व्यक्ति, एक-एक नागरिक जो टेलीविजन देख सकता था, He failed outraged कि हमारे यहां क्या हो रहा है? यह कैसे हो रहा है और क्यों हो रहा है? टेलीविजन ने वह चिंता पैदा की और इसी के परिणामस्वरूप लोगों में गुस्सा पैदा हुआ। लोगों ने जाकर किसी एक पार्टी के खिलाफ, एक सरकार के खिलाफ अपना गुस्सा ज़ाहिर नहीं किया बल्कि पूरी पोलिटिकल कम्युनिटी के खिलाफ अपना गुस्सा ज़ाहिर किया। यह इसीलिए क्योंकि आपने दस साल तक इस बात से इंकार किया कि कोई स्पेशल लॉ नहीं बनाएंगे।
और स्पेशल लॉ नहीं बनाना और अगर स्पेशल लॉ किसी ने बनाया है, तो उसे खत्म करना, एक प्रकार से सरकार ने आर्टिकल ऑफ फेथ बना दिया। इसका जो नुकसान हुआ, उसे हम लोगों को उस दिन भुगतना पड़ा। लोग यह समझने लगे कि ये सब लोग सुरक्षित हैं, किसी के साथ कमांडोज़ हैं, किसी के पास यह है, किसी के पास वह है, और आम नागरिक दुखी है। एक प्रकार से उनका गुस्सा जायज़ है। यह गुस्सा हमारी सरकार के स्टैंड के कारण है कि किसी कानून की जरूरत नहीं हैए आर्डिनरी लॉज़ पर्याप्त हैं, It is a State issue, essentially a law and order issue. It is not a law and order issue. it is a very special evil. और जिस इविल ने दुनिया भर को इफलिक्ट किया है और आज भी किया है। मैं आपको बताऊं कि कितने हमने कानून बनाने हैं? अमरीका ने कितने कानून बनाये हैं, अमरीकन पैट्रीयट एक्ट नहीं, अनेक बनाये हैं। होम सिक्यूरिटी डिपार्टमेंट बनाया है। मैं इन बातों में अभी नहीं जाना चाहता, जरूरत नहीं है कि जब हम बैठकर डिसकस करेंगे तो सोचेंगे कि क्या करना है? बेसिकली हम लोगों को इस बात को स्वीकार करना चाहिये कि आज अल कायदा जैसे टैरेरिस्ट आर्गनाइजेशन्स, उनका सब से बड़ा दुश्मन, अगर कोई है तो वह भारत नहीं है, उनकी नजरों में अमरीका है, दूसरे नम्बर का इजराइल है और शायद हमारा नम्बर तीन हो सकता है, बम नहीं जानते। उनकी नजरों में सब से बड़ा दुश्मन अमरीका है, भारत नहीं है। लेकिन अमरीका सब से बड़ा दुश्मन होते हुये भी 9/11 में उन्हें इतनी बड़ी सफलता मिली कि उसके बावजूद वहां कोई छोटी-मोटी घटना तक नहीं हुई जब कि यहां पर 2004 के बाद से न जाने कितनी ऐसी घटनायें हुई हैं। मैं अगर गिनाना चाहूं तो ढेर सारी गिना सकता हूं। मैं छोड़ देता हूं। I do not want to hammer the same point today.
I do not want to go into it. I would only like to say कि आतंकवाद का मुकाबला करने के लिये लीगल फ्रेमवर्क चाहिये जिसकी दिशा में एक कदम आज उठाया गया है। उसमें भी मैंने बताया कि इसमें मुझे जो इनएडीक्वेसीज़ लगती हैं, in respect of confession लगती हैं। मुझे यह लगता है कि इंटरसैप्टेड इनफार्मेशन के बारे में जो प्रावधान थे, पोटा में जो थे, आप देख लीजिये, वे अनेक और सब के सब हैं। और इसकी इंटरसैप्टेड इनफौर्मेशन एडमिजिब्लिटी और प्रीजम्पशन ऑफ आफिस के बारे में आपने जो कुछ कहा है ए मैं उससे ज्यादा डिसएग्री नहीं करता हूं। लेकिन मैं यह जरूर कहता हूं कि कुल मिलाकर अमरीका शासन और अमरीका समाज - दोनों का एटिटयूड बहुत इम्पार्टेंर्ट है। हिन्दुस्तान में भी सरकार और समाज तथा सरकार और देश के एटीटयूड की बहुत इम्पाटर्स है। मैं एटीटयूड की बात जब कहता हूं तो 2001 में जो घटना हुई थी लेकिन उसके परिणास्वरूप 2008 में आज भी अगर कोई अमरीका जाता है तो जो आदमी एअर ट्रेवल करता है, उसकी पूरी जांच होती है, अच्छी खासी जांच होती है कि जुर्राब खोलो, जूते खोलो, यह खोलो, वह खोलो। अगर ऐसी स्थिति यहां हो तो क्या हमारा देश इस बात को स्वीकार करेगा? दिक्कत करेगा, मैं देश की बात कर रहा हूं और मैं जानता हूं कि आज तक क्यों ऐसा हुआ? भारत की संसद पर 13 दिसम्बर, 2001 को हमला हुआ। मुकदमे का फैसला 2002.03 में पूरा हो गया। अपराधी पकड़े गये, सजा हो गई और जिसे फांसी की सजा हुई, उस ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की, एंडोर्स किया लेकिन इम्पलीमेंट नहीं हुआ। क्यों नहीं हुआ, कोई लौजिक नहीं, कोई बात समझ में नहीं आती है। कुल मिलाकर ये बातें एक संदेश भेजती हैं कि सारे आतंकवादी समूह के खिलाफ कार्यवाही करने में देश ढीला-ढाला है You can get away with it. मैं एक प्रावधान और भी कहूंगा।
जिस प्रावधान का रिकमेंडेशन नेवी कमीशन ने किया था, उसका जिक्र भी आपने किया है। नेवी कमीशन ने यह रिकमंड किया कि जो बैनड ऑरगेनाइजेशंस हैं, नेवी कमीशन में पैटीशन है, लेकिन यह लॉ कमीशन का है। The Law Commission in its 173rd Report also recommended that memberships of banned organisations should be construed as a terrorist act. This is a very serious matter. Therefore, in our Prevention of Terrorist Activities Act we had incorporated that. It is a recommendation of the Law Commission.
Today, particularly before this Bombay incident, with regard to the various incidents that took place in Jaipur, in Delhi, in Ahmedabad, it was said that it is home-grown terrorism now because it is SIMI mainly. This SIMI is a banned organisation, which in a way got away for a brief while because the Home Ministry failed to give the necessary evidence to the Tribunal. Subsequently the Home Ministry got it stayed and the ban was re-imposed. Today SIMI is a banned organisation even though Members of the Cabinet itself keep on defending it all the while. It is a very strange situation. Therefore, I would recommend that this recommendation of the Law Commission also should be reconsidered when you are thinking of all the inadequacies and shortcomings in the law.
By and large, I would once again say, it is no different from a war. It is a war that we are facing. To succeed in this war there has to be unity. Above all, there has to be a will to win this war. That will has been lacking. Today, if your two laws are an index to show that you have decided to turn a new leaf, to take a U-turn, I would be very happy.
I started thinking as to why the Government has changed its tune somewhat immediately after the Mumbai incidents. Some of the reactions that came immediately after Mumbai and then in the form of these two Bills, and the statements that have been made from the Government side, are different from what was being said earlier. First I am happy that no longer is it being said that an anti-terror law would be an anti-minority law. That is perhaps because you think that you are in power, therefore, it cannot be anti-minority.
Secondly, these terrorists selected three places. Why did they do it? There is a dimension to the Bombay incidents which should be taken note of. The world must have taken note of it. They selected the Oberoi, they selected the Taj, they selected the Trident, which is adjoining the Oberoi. They were sure that in these five-star hotels there must be foreign nationals also. So, our attack should not be only on the Indians, it should identify foreign nationals also and attack them. Then they chose Nariman House. I do not know but I am told that one Minister of ours omitted to mention Nariman House. It was reported in the Press. I do not know. If it is so, it is unfortunate.
Nariman House was selected by them after having done surveillance that this is one place where people from Israel, or all Jews living in Bombay assemble. In fact, the Israeli Ambassador when he met me told me that it was a Wednesday; if it had been a Friday, on Friday night on the eve of Saturday, which is their Kosher Day, if all the families in Bombay had assembled there, the tragedy would have been much bigger, much larger.
Foreign nationals were being targeted; Indians, of course, were targeted. So many people on the Chhattrapati Shivaji Terminus, coming from trains from all parts of the country, two terrorists with AK47 in their hands, went on mowing them down, killing everyone. The whole thing was horrible. Is it that we have woken up because it is not merely the people in India who think that India has become unsafe because of this soft attitude to terrorism, but the whole world thinks that India is now unsafe to the attack of terrorists? Is it this that has made us react in the present manner? I would think that the Security Council Resolution of 2001 was a very sound Resolution and those who followed it, did something in the interests of their own country, in the interest of humanity and the right step against terrorism. I am sorry that we should have been criticized because of following this particular UN Security Council Resolution in letter and spirit and enacting a special law to deal with terrorism.
With these words, I am grateful to you, Sir, for allowing me to initiate this debate.
लोकसभा में विपक्ष के नेता श्री लालकृष्ण आडवाणी ने दोनों विधेयकों का सिध्दांतत: समर्थन करते हुए कहा कि संप्रग सरकार ने पोटा कानून का विरोध करने की अपनी आठ दस वर्ष पुरानी गलती सुधार ली है लेकिन इस दौरान देश की जनता को आतंकवादियों के हाथों जान-माल की भारी तबाही का सामना करना पड़ा। हम यहां राष्ट्रीय जांच एजेंसी विधेयक-2008 तथा गैर कानूनी गतिविधियां रोकथाम संशोधन विधेयक-2008 पर संसद के दोनों सदनों में हुई चर्चा के दौरान श्री लालकृष्ण आडवाणी द्वारा दिए गए भाषण का संपादित पाठ प्रकाशित कर रहे हैं।
मैंने अपनी पार्टी की ओर से और एनडीए की ओर से जो कुछ कहा, उसे दोहराते हुए मैं अपनी बात शुरू कर रहा हूं। जहां तक इस आतंकवाद की चिंता का सवाल है, सरकार इस चिंता पर विजय पाने के लिए जो भी कदम उठाएगी, जो हमें सही लगते हैं, आवश्यक लगते हैं, तो मेरा दल और एनडीए उसका समर्थन करेंगे।सभापति महोदय, इस बार का सत्र 10 दिसम्बर को शुरू हुआ। स्वाभाविक था कि 11 तारीख को सदन की कार्यवाही औपचारिक रूप से वास्तव में शुरू हुई, क्योंकि 10 तारीख को पूर्व प्रधान मंत्री को श्रध्दांजलि देने के बाद सदन स्थगित हो गया था। पहले दिन ही हमने मुम्बई की घटनाओं पर चर्चा की। पूरे सदन ने एक स्वर से सारी दुनिया को यह बताया कि जहां तक आतंकवाद की चिंता का सवाल है, यह सदन जो देश का प्रतिनिधि है, वह एक है। मैंने अपनी पार्टी की ओर से और एनडीए की ओर से जो कुछ कहा, उसे दोहराते हुए मैं अपनी बात शुरू कर रहा हूं। जहां तक इस आतंकवाद की चिंता का सवाल है, सरकार इस चिंता पर विजय पाने के लिए जो भी कदम उठाएगी, जो हमें सही लगते हैं, आवश्यक लगते हैं, तो मेरा दल और एनडीए उसका समर्थन करेंगे।
इसके कारण भी और आज जो दो विधेयक पेश किये गये हैं, जिनमें जो कमियां मुझे दिखाई देती हैं, उनका उल्लेख मैं करुंगा, लेकिन मैं आरम्भ में ही कहना चाहूंगा कि मैं सिध्दांतत: इन दोनों विधेयकों का समर्थन करता हूं। अभी मैंने माननीय गृह मंत्री जी को यह कहते हुए सुना कि हमारा अगला सत्र फरवरी में होगा, मुझे लगा कि क्या यह सरकार के लिए भी अच्छा नहीं होता कि जो अलग-अलग व्यू-पाइंटस हैं जिनका उल्लेख करके आपने यह बनाया है तथा सदन और देश के लिए अगर इस विधेयक को भी हम स्टेंडिंग कमेटी को भेजते, यह निर्देश देते हुए कि उनको फरवरी महीने से पहले सारी चर्चा और विचार-विमर्श, जिन-जिन लोगों से सलाह करनी है, उसको लेकर हमारे पास आयें। आपने स्वयं कहा कि यह महत्वपूर्ण विधेयक है और हमने जो स्टेंडिंग कमेटीज बनाई हैं वे इस उद्देश्य से बनाई हैं कि महत्वपूर्ण विधेयक स्टेंडिंग कमेटी के पास जाकर, ठीक प्रकार से उनके सब पहलुओं पर विचार करके और खासकर ऐसा विधेयक जिसमें शासन और प्रमुख विरोधी दल, दोनों सिध्दांतत: एकमत हैं तो इसमें कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए थी। मैंने इसके बारे में पहले आग्रह नहीं किया क्योंकि मुझे कभी-कभी संदेह होता था कि यह सत्र अंतिम सत्र न हो जाए। लेकिन जब ऑफिशियली आज कहा गया कि नहीं फरवरी के माह में हम फिर मिलेंगे तो मुझे लगा कि अच्छा होगा अगर अभी भी शासन इस पर विचार कर सके और इस पूरे सदन को आज हम चार या छह घंटे में इसे पारित कर लें, उसकी बजाए स्थायी समिति के पास जाए और जिसमें अलग-अलग लोगों से विचार भी ले लें, चूंकि इस पर सिध्दांतत: हम सहमत हैं। एनडीए और आप सहमत हैं, कुछ रिजर्वेशन्स हो सकते हैं, उसके बारे में मुझे नहीं पता। मेरे जो रिजर्वेशन्स हैं मैं उनका उल्लेख करुंगा, वे इनएडीक्वेसीज के हैं, सिध्दांतत: आपत्ति नहीं है, न फैडरल एजेंसी पर और न ही आप जो एंटी टैरर कानून लाए हैं, उसके बारे में। लेकिन यह शासन का अधिकार है, शासन निर्णय करे, लेकिन मैं सुझाव के रूप में अपनी बात आपके सामने रखता हूं।
मुझे आज संतोष है और संतोष इस बात का है कि लगभग 10 साल तक जो स्टेंड सरकार ने लिया और जब विपक्ष में थे, तब भी उन्होंने वही स्टेंड लिया। यह आज की बात नहीं है। अचानक 10 साल के अंत में उन्होंने अपना स्टेंड मूलत: बदला है। मूलत: इस बात में बदला है कि जिस समय प्रीवेंशन ऑफ टैरेरिज्म एक्ट हम लाए थे, पहले आर्डिनेंस के रूप, फिर विधेयक के रूप में और जब विधेयक राज्य सभा में पास नहीं हुआ तो जाइंट सेशन के सामने, उस समय ऐसा नहीं है कि उस समय विपक्ष जो था वह आतंकवाद का मुकाबला करने के विरूध्द था। नहीं, हम आतंकवाद को खत्म करने के पक्ष में थे और आप पक्ष में नहीं थे, यह अंतर नहीं, दोनों आतंकवाद को समाप्त करना चाहते थे। लेकिन आपका मत था कि जो आज कानून है वह आतंकवाद का मुकाबला करने के लिए पर्याप्त हैए जबकि हम इस मत के थे कि यह पर्याप्त नहीं है। हमने यह बात न केवल देश के भीतर कही बल्कि हमारे उस समय के प्रधान मंत्री जी ने अमरीका में भी जाकर वह बात अमरीका को 9/11 से भी पहले कही कि आप अगर समझते हैं कि आतंकवाद की जो विभीषिका है और उनको बताया कि हमें कितनी तकलीफ हुई है और हमको तकलीफ इसलिए हुई है कि हमारे लिए आतंकवाद एक वार का सब्सीटयूट हमारे पड़ोसी देश ने बना दिया।
अध्यक्ष महोदय, पड़ोसी देश ने हमारे साथ तीन-तीन युध्द किए। जब इन युध्दों में उसे सफलता नहीं मिली, तब उसने वर्ष 1971 के युध्द के बाद, जब वहां सैनिक शासन हुआ, उसके बाद योजनापूर्वक प्रोक्सी वार की नीति आतंकवाद के माध्यम से अपनाई। इस प्रयोग में सबसे पहले पाकिस्तान ने पंजाब को चुना और फिर जम्मू-कश्मीर तथा फिर सारे देश में आतंकवाद फैलाया। अस्सी के दशक के शुरूआत से ही हम इस समस्या का सामना कर रहे हैं। अमरीका में आतंकी हमला वर्ष 2001 में हुआ। हमारे प्रधानमंत्री ने अमरीका में अमरीकी कांग्रेस के सामने यह बात कही कि अमरीका यह न समझे कि वे चाहे विश्व के दूसरे देशों से दूर हैए इसलिए शायद आतंकवाद से बचा रहेगा। 9/11 की घटना हुई और शायद आतंकवाद के इतिहास में इस प्रकार का भयंकर कांड कभी नहीं हुआ तथा भगवान न करे कि ऐसा कभी दोबारा हो। उस भयंकर कांड में आतंकवादियों ने चार हवाई जहाज हाईजैक करके उनका मिसाइल्स के रूप में प्रयोग किया। उसके कारण अमरीका हिला, दुनिया के दूसरे देश भी हिल गए। यहां तक कि यूनाइटेड नेशंस सिक्योरिटी काउंसिल ने 28 सितम्बर, 2001 को 1373 प्रस्ताव पारित किया, जिसमें उन्होंने दुनिया के सब देशों से कहा कि आतंकवाद भयंकर समस्या है और सामान्य अपराध के लिए जो कानून बने हुए हैं, वे उसके लिए पर्याप्त नहीं हैं, इसलिए आतंकवाद के लिए विशेष कानून बनाएंगे। मैं इस बात का जिक्र इसलिए कर रहा हूं, क्योंकि मुझे आपके द्वारा प्रस्तुत बिल, अन लॉ फुल एक्टीविटीज (प्रिवेंशन) अमेंडमेंट बिल, 2008 को देख कर आश्चर्य हुआ। वर्ष 2008 में आप अनलॉफुल एक्टीविटीज (प्रिवेंशन) बिल के एक्ट के प्रिएम्बल को अमेंड कर रहे हैं। मुझे याद नहीं कि पहले कभी किसी ने प्रिएम्बल को अमेंड किया हो। ऐसा हो भी सकता हैए लेकिन मुझे याद नहीं है। इतना मैं जरूर कहूंगा कि वर्ष 2001 में जो सलाह यूनाइटेड नेशंस सिक्योरिटी काउंसिल ने दुनिया को दी और जिसका पालन दुनिया के प्राय: सभी देशों ने अमरीका ने, इंग्लैंड ने, जर्मनी ने आदि देशों ने किया। मेरा बहुत से देशों में जाना हुआ और सभी देशों ने कोई न कोई कानून बनाया और अगर मैं गलत नहीं हूं तो पाकिस्तान ने भी कानून बनाया था। हमने जब बनाया, उस समय आप विपक्ष में थे और आपने इस प्रकार से हम पर हमला किया मानो हमने कोई अपराध कर दिया हो। हमने अगर प्रिवेंशन आफ टेरोरिज्म एक्ट बनाया, तो क्या हमने अपराध किया था। यह जो रेयर प्रावधान भारत के संविधान में है कि अगर लोक सभा और राज्य सभा के सदस्यों के मत में अंतर हो तो निर्णय ज्वायंट सैशन बुलाकर किया जाएगा। भारत के इतिहास में ज्वायंट सैशन शायद दो बार या तीन बार बुलाया गया है। आज मैं देखता हूं कि अचानक सरकार को लगता है कि एक विशेष नए कानून की जरूरत है, जबकि पिछले आठ-दस साल इस कानून को बनाने की बात नहीं सोची। मैंने कहा कि मुझे संतोष है, लेकिन मैं खुशी प्रस्तुत नहीं कर सकता हूं। आखिर एक कहावत है कि सुबह का भूला शाम को घर आ जाए, तो उसे भूला नहीं कह सकते। लेकिन अगर सुबह का भूला शाम को घर आ जाए और सुबह तथा शाम के समय के बीच में अनर्थ हो जाए, उस भूल के कारण बहुत ज्यादा नुकसान हो जाए, तो मैं उस व्यक्ति को भूला जरूर कहूंगा। आपने एक प्रकार से इस बिल को प्रस्तुत करके और उसकी वकालत करके तथा यह कह कर कि आज ही इसे पास करना है, एक प्रकार से आपने अपनी गलती स्वीकार की है और आपको करना भी चाहिए कि आप दस साल गलत थे। आपको गलती स्वीकार करनी भी चाहिए। स्वयं आपने अनलॉफुल एक्टीविटीज (प्रिवेंशन) अमेंडमेंट बिल के क्लाज़-2 में यूनाइटेड नेशंस सिक्योरिटी के बारे में लिखा है।
हमने नहीं किया था। हमने देश की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए पोटा पास किया था। आपने उसे मैंडेटिड माना। एक प्रकार से यूएन सिक्योरिटी काउंसिल का मैंडेट है।
“Whereas the Security Council of the United Nations in its 4,385th meeting adopted Resolution No…so and so, etc., etc.,.. and whereas.. so and so…and whereas the Central Government in exercise of its powers conferred by section 2 of the United Nations Security Council Act has made the prevention and suppression of terrorism implementation of Security Council Resolution Order.”
You have quoted all the Resolutions of the United Nations Security Council adopted in respect of terrorism. बहुत अच्छा किया है। मैंने कहा कि मुझे इससे संतोष है लेकिन मैं कहूंगा जैसे कुम्भकरण को लंबी-लंबी नींद आती थी वैसे ही आप 7.8 साल की नींद के बाद जगे हैं। कृमैं चाहता हूं कि आप स्वीकार करते कि इस बात में गलत थे। मैं टाइम्स ऑफ इंडिया देख रहा था जिस की कटिंग मुझे किसी ने दी है। “This is old wine in new bottle.” “UPA has returned to POTA.” These are the headings. आप चाहे कुछ भी इन्कार करें। मैं उस समय मानता था कि हम बिना स्पैशल कानून के टैररिज्म का सामना नहीं कर सकते थे। मैं नहीं जानता कि मेरे वामपंथी साथी इस पर क्या कहने वाले हैं। उन्हें भी समझना चाहिए। मुझे स्वयं अनुभव है कि आपके मुख्यमंत्री कई बार मुझे कहते थे कि जब तक इस मामले में देश कठोर नहीं होगा, तब तक समस्या बड़ी भयंकर रहेगी।
आजकल के अखबारों में छपेगा कि Left and BJP vote together. लेकिन हम उसकी परवाह नहीं करते। Now I do not believe in political untouchability as you believe. I do not. आप अगर सही बात करेंगे तो मैं उसका समर्थन करूंगा। आप गलत बात करेंगे तो चाहे आप मेरे साथ होंगे तो भी मैं विरोध करूंगा।
यह बात बार-बार कही जाती है कि इसका इसलिए विरोध किया गया कि उसका दुरुपयोग हो सकता है। क्या कोई कानून बना है जिस का दुरुपयोग न हो सके। बहुत सारे साधारण कानून हैं जिनका बहुत दुरुपयोग होता है। इस बात को लॉ कमिशन ने बड़े प्रभावी रूप से लिखा है। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट की जजमेंट राजस्थान वर्सिज यूनियन ऑफ इंडिया को कोट किया है। The Mohely Commission had quoted that as part of a Law Commission Report. Law Commission’s Report is there on Prevention of Terrorism Bill. जिस में उन्होंने कहा है “It must be remembered that nearly because power may sometimes be abused, it is not ground for denying the existence of power. The wisdom of man has not yet been able to conceive of a Government with power sufficient to answer all the legitimate needs and at the same time incapable of mischief. मतलब लैजिटिमेट नीड है कि टैररिज्म पर विजय प्राप्त करनी चाहिए।
कोई ऐसी सरकार नहीं है और इसमें कोई बुध्दिमानी नहीं है कि सरकार को उसके खिलाफ अधिकार भी दे और साथ-साथ उसका दुरुपयोग न हो सके, इसका भी प्रबंधा करे। सेफगार्ड प्रोवाइड करने चाहिए। जब हमने प्रिवेंशन ऑफ टेरेरिज्म एक्ट बनाया था तब मैंने अपने सब अधिकारियों को कहा कि सुप्रीम कोर्ट में टाडा के बारे में जो आपत्तियां की गई हैं कि इस तरह से दुरुपयोग हो सकता है इसलिए सेफगार्ड इनकारपोरेट करो और वो किए गए क्योंकि यह टेरेरिज्म और डिसरप्टिव एक्टिविटी के खिलाफ था। आपने भी कुछ किए हैं, बहुत अच्छा किया है। मैं इससे इंकार नहीं करूंगा लेकिन बेसिकली यह सोचना कि क्योंकि किसी लॉ का दुरुपयोग हो सकता है इसलिए यह पास नहीं होना चाहिए, यह सरासर गलत है। आज आपने यह बिल लाकर स्वीकार किया है कि हां, हमसे यह गलती हुई है लेकिन कहने के लिए तैयार नहीं हैं। हिन्दुस्तान में टेरेरिज्म पर विजय प्राप्त करने के लिए स्पेशल लॉ जरूरी है। लेकिन स्पेशल लॉ में क्या होना चाहिए और क्या नहीं होना चाहिए, देखना होगा। आप जो बिल लाए हैं मैं उसमें इनएडीक्वेसिस और मेरी दृष्टि में जो होना चाहिए, बताऊंगा। उदाहरण के लिए मैं बताना चाहता हूं कि आपने कहा पुलिस अफसर के सामने कोई कन्फेशन हो तो उसे स्वीकार नहीं करना चाहिए। यह एडमिसिबल नहीं है क्योंकि स्वीकार तो होगा नहीं। कोई अपराधी स्वयं कन्फेस करता है और कहता है कि मैंने मर्डर किया है, It is not conclusive evidence. यह कोर्ट को डिसाइड करना है कि उसके साथ कोरोबोरेटिव एविडेंस कितना है। यह भी अधिकार है कि कोई कहे कि मैं कन्फेस करता हूं तो रिट्रेक्ट करने का भी अधिकार है। वह कोर्ट के सामने कहे कि मैं रिट्रेक्ट करता हूं। आप स्वयं वकील हैं और आप यही सब बातें ज्यादा जानते हैं। मैंने वकालत पढ़ी तो है लेकिन कभी प्रेक्टिस नहीं की लेकिन इतना मैं जानता हूं कि पुलिस अफसर के सामने कन्फेशन को क्यों एडमिसिबल एविडेंस किया। अभी एक आतंकवादी पकड़ा गया है, क्या उसके लिए और एविडेंस लाएंगे? उसकी एविडेंस एडमिसिबल नहीं होगी क्योंकि पुलिस अफसर या ज्यूडिशिएल अफसर या ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट के सामने नहीं किया गया है? हां, यह प्रेस्क्राइब करना चाहिए कि इस लैवल का पुलिस अफसर होना चाहिए जिसके सामने हो तो वह एडमिसिबल एविडेंस होगी, it does not become conclusive evidence. यह कन्क्रीट केस है जो अभी आया है कि एक आतंकवादी पकड़ा गया। तुका राम ने बहादुरी की और उसे पकड़ा। वह सब कुछ बताने के लिए तैयार होगा तो भी साधारण लॉ के तहत एविडेंस एडमिसिबल नहीं है। इसलिए मैं लॉ कमीशन की ऑब्जर्वेशन कोट करना चाहूंगा। मैं इसे बहुत महत्वपूर्ण मानता हूं जिसमें 73 रिपोर्ट में कहा है।
Mr. Home Minister, I am sure you have read it. But even then I would like to draw your attention to it.
“The act of terrorism by its very nature generates terror and a psychosis of fear among the populace. It is difficult to get any witnesses because people are afraid of their own safety and safety of their families. It is well known that during the worst days in Punjab even the judges and prosecutors were gripped with such fear and terror that they were not prepared either to try or to prosecute the cases against the terrorists. That is also stated to be the position today in Jammu and Kashmir and this is one reason which is contributing to the enormous delay in going on with the trials against the terrorists. In such a situation, insisting upon independent evidence or applying the normal peacetime standards of criminal prosecution may be impractical.”
These provisions have been included in most laws prepared all over the world to deal with terrorists. यह सोचना कि यह लॉ इतना स्ट्रिंजेंट इसलिए बना रहे हैं क्योंकि माइनोरिटी इसके खिलाफ है। आप इस प्रकार से कह कर माइनोरिटी को बदनाम कर रहे हैं। This is a law against terror; this is a law against terrorists that we enacted and which you are also enacting today.
You cannot now claim कि वह जो था, वह कम्युनल लॉ था और यह सेक्युलर लॉ है, यह तो नहीं कहोगे, उम्मीद करता हूं। आपने देश का बहुत नुकसान किया है by trying to see laws against terror through the prism of majority and minority. I said it that day and I repeat it today. मैं फिर से रिपीट करता हूं कि हिंदुस्तान में यहां की कांस्टिटुंट असैम्बली, जो उस समय अपने संविधान पर विचार करने बैठी, जब हिंदुस्तान का विभाजन हुआ था। यह विभाजन कांग्रेस नहीं चाहती थी, देश नहीं चाहता था और वह विभाजन इस आधार पर हुआ कि कहां हिन्दू बहुमत है और कहां मुसलमान बहुमत है और उन परिस्थितियों में पाकिस्तान ने अपने को थियोक्रेटिक स्टेट डिक्लेयर किया। हिन्दुस्तान ने अगर सेक्युलरवाद अपनाया तो यह स्वयं में एक ऐसी बात है कि जिसे दुनिया का कोई देश भूल नहीं सकता और हिन्दुस्तान भी नहीं भूल सकता और बहुत उचित किया, उसके आधार पर हमने साठ साल देश को चलाया। लेकिन फिर भी इतनी देर हर चीज को इस चश्मे से देखना, इससे न देश का भला है और न अल्पसंख्यकों का भला है। आप उनका भी बहुत नुकसान कर रहे हैं। इसलिए इस चश्मे से मत देखो। इस चश्मे को एक तरफ रखकर इन्डिपैंडैन्टली देखो कि टैररिज्म का मुकाबला करने के लिए कैसे-कैसे कानून जरूरी हैं। साधारणत: कोई इंटरसैप्शन ऑफ मैसेज, टेलिफोन टॉक वह एडमिसिबल एविडैन्स नहीं है। हमने प्रावधान बनाये, जिसमें Interception of telephonic talks and messages coming from, say, abroad to here, to the terrorist concerned, that became an admissible evidence. दे सकते हैं, मैं चाहूंगा कि गृह मंत्री, जो ढेर सारे प्रावधान थे relating to interception of messages. उन्हें भी इस नये कानून में समाविष्ट करें। उसकी एडिमिसिबिलिटी को स्वीकार करें। उसमें प्रावधान था कि वह एडमिसिबल होगा, इंटरसैप्शन ऑफ कम्युनिकेशन। मैं चाहूंगा कि जिस प्रकार से कंफैशन रिपोर्ट पुलिस ऑफिसर्स एडमिसिबल एविडैन्स होना चाहिए, वैसे एडमिसिबिलिटी ऑफ इंटरसैप्टिव इंफॉर्मेशन भी आनी चाहिए।
अध्यक्ष जी, मैं जानता हूं कि कानून का दुरुपयोग होता था, टाडा का भी दुरुपयोग होता था। मैं इनकार नहीं करूंगा और एक स्टेज पर मुझे याद है, इस समय चिदम्बरम जी चले गये, चिदम्बरम जी टाडा लाये थे। वह उस समय भी मिनिस्टर ऑफ स्टेट, होम थे, जब टाडा आया था और मुझे याद है कि उसका दुरुपयोग कैसे-कैसे होता था। पुलिस वाले को सुविधाजनक लगता था कि इस अपराधी को इस एजिटेशन को, चाहे वह ट्रेड यूनियन का एजिटेशन हो, मैं गुजरात में गया था, जहां पर फारमर्स एजिटेशन के खिलाफ, यहां हमारे दोनों साथी बैठे हैं और पहली बार अगर मैं टाडा के खिलाफ बोला तो उस फारमर्स कांफ्रैन्स में बोला, जहां फारमर्स के एक एजिटेशन को सप्रैस करने के लिए वहां पर टाडा का उपयोग किया गया। लेकिन किसी स्टेज पर तभी हमने यह नहीं कहा कि टाडा को स्क्रैप करो, कभी नहीं कहा। टाडा का दुरुपयोग हो रहा है, इसलिए हमेशा हम इसका विरोध करते थे। लेकिन किसी स्टेज पर टाडा खत्म करो, यह हमने नहीं कहा। मैं उम्मीद करता था कि आप भी हमें यह कहेंगे कि ठीक है, पोटा बनाओ, कोई बात नहीं, लेकिन दुरुपयोग मत करना, ऐसा कहते और अगर कहीं दुरुपयोग होता है तो आप उसे रोकते, उसकी आलोचना करते। लेकिन आपने लगातार अपनी एक थ्योरी बनाई कि terrorism is a law and order issue. स्टेट को करने दो, केन्द्र की जरूरत नहीं है। I can quote Shrimati Sonia Gandhi on this and I can also quote the Home Minister, Shri Shivraj Patil, who is no longer there as Home Minister, on this. But everyone from Prime Minister to Home Minister to the Congress Party President has taken the stand that the present set of laws is totally adequate to deal with terrorism.
And let them deal with it as law and order is a State issue. ge mls iwjk liksVZ djsaxsA This is the basic flaw that has been your thinking till today. Today, suddenly when you have staged a 'U’ turn, मैं तो बहुत खुश हूं। नेचुरली खुश हूं क्योंकि मैं लगातार आरग्यू करता था क्योंकि कानून हमने बनाया था और जिस कानून को समाप्त करना यूपीए के कार्यक्रम में in respect of Terrorism, लगभग एकमात्र चीज थी कि पोटा को हम खत्म करेंगे। It was the only thing that finds mention in the UPA’s Common Programme. In fact, I have with me a quotation from the Prime Minister. On September 3, 2005, Prime Minister Mr. Manmohan Singh at Chennai had said that :
“His Government had fulfilled its promise to repeal the Prevention of Terrorism Act, which has caused unnecessary harassment to every section. Our Government had made a commitment to repeal POTA, and we have faithfully fulfilled the promise made at the time of last Lok Sabha elections.”
होम मिनिस्टर साहब, आपने प्रधान मंत्री की इतनी बड़ी गर्वोक्ति को बिल्कुल नकार दिया।
हमने इतना बड़ा वचन पूरा किया और आपने उनको एक प्रकार से उस सारे को निरस्त कर दिया। क्यों? आप इस बात पर सोचिए। Mr. Home Minister, it is not easy just to nod your head and get away with it. It is not only because of Mumbai. मुम्बई से पहले जो घटना थी, वह इतनी बड़ी नहीं थी। मैं उस पर कहना चाहूंगा। मैं मन में सोचने लगता हूं कि क्यों, आखिर मुम्बई में ही दो साल पहले लोकल ट्रेन्स पर हमला हुआ था। वह हमला भी कोई कम भयंकर नहीं था और इसके बाद जो पहला वक्तव्य बाहर से निकला था, वह यह था कि इसमें पाकिस्तान का हाथ है और उसके थोड़े ही समय बाद अचानक प्रधान मंत्री जी कहते हैं कि पाकिस्तान तो स्वयं ही आतंकवाद का शिकार है, victim of terrorism. पाकिस्तान में भी कुछ हमले हुए हैं, वहां के राष्ट्रपति पर तथा दूसरे लोगों पर हमले हुए हैं। But to describe Pakistan as a victim of terrorism, and that too by the Prime Minister and two days later to announce that a joint-mechanism between India and Pakistan be set up to fight terrorism, I was shocked and amazed. हमने कहा कि इतने साल हमको दुनियाभर को विश्वास दिलाने में लगे कि हमारे यहां जो आतंकवाद है, वह कोई होमग्रोन नहीं है, It is cross-border terrorism. और वे मानने लगे थे कि हां, यह सही है। अभी-अभी आकर दो दिन पहले यह कहा गया कि “Pakistan is the epicentre of terrorism.” ये जो इतने सारे परिवर्तन हुए हैं, मैं मानता हूं कि कुछ तो सच्चाई है जो किसी को भी देखने में आएगी और दूसरी बात है कि देश में जैसा वातावरण मुम्बई पर उस हमले के बाद पैदा हुआ, फर्क यह है कि इससे पहले के जो विस्फोट होते थे, वे दो-चार घंटों के लिए होते थे। लेकिन इस बार तीन दिन तक यह सब लगातार चलता रहा और उसमें टेलीविजन चैनल्स ने जिस प्रकार से उसे दिखाया, हालांकि वह एक अलग बात है कि उसमें क्या दिखाना चाहिए और क्या नहीं दिखाना चाहिए या कोई उसका कोड बनना चाहिए, मैं इससे सहमत होते हुए भी समझता हूं कि टेलीविजन ने एक प्रकार से बहुत बड़ी देश की सेवा की कि उनको स्वयं लगा कि एक-एक व्यक्ति, एक-एक नागरिक जो टेलीविजन देख सकता था, He failed outraged कि हमारे यहां क्या हो रहा है? यह कैसे हो रहा है और क्यों हो रहा है? टेलीविजन ने वह चिंता पैदा की और इसी के परिणामस्वरूप लोगों में गुस्सा पैदा हुआ। लोगों ने जाकर किसी एक पार्टी के खिलाफ, एक सरकार के खिलाफ अपना गुस्सा ज़ाहिर नहीं किया बल्कि पूरी पोलिटिकल कम्युनिटी के खिलाफ अपना गुस्सा ज़ाहिर किया। यह इसीलिए क्योंकि आपने दस साल तक इस बात से इंकार किया कि कोई स्पेशल लॉ नहीं बनाएंगे।
और स्पेशल लॉ नहीं बनाना और अगर स्पेशल लॉ किसी ने बनाया है, तो उसे खत्म करना, एक प्रकार से सरकार ने आर्टिकल ऑफ फेथ बना दिया। इसका जो नुकसान हुआ, उसे हम लोगों को उस दिन भुगतना पड़ा। लोग यह समझने लगे कि ये सब लोग सुरक्षित हैं, किसी के साथ कमांडोज़ हैं, किसी के पास यह है, किसी के पास वह है, और आम नागरिक दुखी है। एक प्रकार से उनका गुस्सा जायज़ है। यह गुस्सा हमारी सरकार के स्टैंड के कारण है कि किसी कानून की जरूरत नहीं हैए आर्डिनरी लॉज़ पर्याप्त हैं, It is a State issue, essentially a law and order issue. It is not a law and order issue. it is a very special evil. और जिस इविल ने दुनिया भर को इफलिक्ट किया है और आज भी किया है। मैं आपको बताऊं कि कितने हमने कानून बनाने हैं? अमरीका ने कितने कानून बनाये हैं, अमरीकन पैट्रीयट एक्ट नहीं, अनेक बनाये हैं। होम सिक्यूरिटी डिपार्टमेंट बनाया है। मैं इन बातों में अभी नहीं जाना चाहता, जरूरत नहीं है कि जब हम बैठकर डिसकस करेंगे तो सोचेंगे कि क्या करना है? बेसिकली हम लोगों को इस बात को स्वीकार करना चाहिये कि आज अल कायदा जैसे टैरेरिस्ट आर्गनाइजेशन्स, उनका सब से बड़ा दुश्मन, अगर कोई है तो वह भारत नहीं है, उनकी नजरों में अमरीका है, दूसरे नम्बर का इजराइल है और शायद हमारा नम्बर तीन हो सकता है, बम नहीं जानते। उनकी नजरों में सब से बड़ा दुश्मन अमरीका है, भारत नहीं है। लेकिन अमरीका सब से बड़ा दुश्मन होते हुये भी 9/11 में उन्हें इतनी बड़ी सफलता मिली कि उसके बावजूद वहां कोई छोटी-मोटी घटना तक नहीं हुई जब कि यहां पर 2004 के बाद से न जाने कितनी ऐसी घटनायें हुई हैं। मैं अगर गिनाना चाहूं तो ढेर सारी गिना सकता हूं। मैं छोड़ देता हूं। I do not want to hammer the same point today.
I do not want to go into it. I would only like to say कि आतंकवाद का मुकाबला करने के लिये लीगल फ्रेमवर्क चाहिये जिसकी दिशा में एक कदम आज उठाया गया है। उसमें भी मैंने बताया कि इसमें मुझे जो इनएडीक्वेसीज़ लगती हैं, in respect of confession लगती हैं। मुझे यह लगता है कि इंटरसैप्टेड इनफार्मेशन के बारे में जो प्रावधान थे, पोटा में जो थे, आप देख लीजिये, वे अनेक और सब के सब हैं। और इसकी इंटरसैप्टेड इनफौर्मेशन एडमिजिब्लिटी और प्रीजम्पशन ऑफ आफिस के बारे में आपने जो कुछ कहा है ए मैं उससे ज्यादा डिसएग्री नहीं करता हूं। लेकिन मैं यह जरूर कहता हूं कि कुल मिलाकर अमरीका शासन और अमरीका समाज - दोनों का एटिटयूड बहुत इम्पार्टेंर्ट है। हिन्दुस्तान में भी सरकार और समाज तथा सरकार और देश के एटीटयूड की बहुत इम्पाटर्स है। मैं एटीटयूड की बात जब कहता हूं तो 2001 में जो घटना हुई थी लेकिन उसके परिणास्वरूप 2008 में आज भी अगर कोई अमरीका जाता है तो जो आदमी एअर ट्रेवल करता है, उसकी पूरी जांच होती है, अच्छी खासी जांच होती है कि जुर्राब खोलो, जूते खोलो, यह खोलो, वह खोलो। अगर ऐसी स्थिति यहां हो तो क्या हमारा देश इस बात को स्वीकार करेगा? दिक्कत करेगा, मैं देश की बात कर रहा हूं और मैं जानता हूं कि आज तक क्यों ऐसा हुआ? भारत की संसद पर 13 दिसम्बर, 2001 को हमला हुआ। मुकदमे का फैसला 2002.03 में पूरा हो गया। अपराधी पकड़े गये, सजा हो गई और जिसे फांसी की सजा हुई, उस ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की, एंडोर्स किया लेकिन इम्पलीमेंट नहीं हुआ। क्यों नहीं हुआ, कोई लौजिक नहीं, कोई बात समझ में नहीं आती है। कुल मिलाकर ये बातें एक संदेश भेजती हैं कि सारे आतंकवादी समूह के खिलाफ कार्यवाही करने में देश ढीला-ढाला है You can get away with it. मैं एक प्रावधान और भी कहूंगा।
जिस प्रावधान का रिकमेंडेशन नेवी कमीशन ने किया था, उसका जिक्र भी आपने किया है। नेवी कमीशन ने यह रिकमंड किया कि जो बैनड ऑरगेनाइजेशंस हैं, नेवी कमीशन में पैटीशन है, लेकिन यह लॉ कमीशन का है। The Law Commission in its 173rd Report also recommended that memberships of banned organisations should be construed as a terrorist act. This is a very serious matter. Therefore, in our Prevention of Terrorist Activities Act we had incorporated that. It is a recommendation of the Law Commission.
Today, particularly before this Bombay incident, with regard to the various incidents that took place in Jaipur, in Delhi, in Ahmedabad, it was said that it is home-grown terrorism now because it is SIMI mainly. This SIMI is a banned organisation, which in a way got away for a brief while because the Home Ministry failed to give the necessary evidence to the Tribunal. Subsequently the Home Ministry got it stayed and the ban was re-imposed. Today SIMI is a banned organisation even though Members of the Cabinet itself keep on defending it all the while. It is a very strange situation. Therefore, I would recommend that this recommendation of the Law Commission also should be reconsidered when you are thinking of all the inadequacies and shortcomings in the law.
By and large, I would once again say, it is no different from a war. It is a war that we are facing. To succeed in this war there has to be unity. Above all, there has to be a will to win this war. That will has been lacking. Today, if your two laws are an index to show that you have decided to turn a new leaf, to take a U-turn, I would be very happy.
I started thinking as to why the Government has changed its tune somewhat immediately after the Mumbai incidents. Some of the reactions that came immediately after Mumbai and then in the form of these two Bills, and the statements that have been made from the Government side, are different from what was being said earlier. First I am happy that no longer is it being said that an anti-terror law would be an anti-minority law. That is perhaps because you think that you are in power, therefore, it cannot be anti-minority.
Secondly, these terrorists selected three places. Why did they do it? There is a dimension to the Bombay incidents which should be taken note of. The world must have taken note of it. They selected the Oberoi, they selected the Taj, they selected the Trident, which is adjoining the Oberoi. They were sure that in these five-star hotels there must be foreign nationals also. So, our attack should not be only on the Indians, it should identify foreign nationals also and attack them. Then they chose Nariman House. I do not know but I am told that one Minister of ours omitted to mention Nariman House. It was reported in the Press. I do not know. If it is so, it is unfortunate.
Nariman House was selected by them after having done surveillance that this is one place where people from Israel, or all Jews living in Bombay assemble. In fact, the Israeli Ambassador when he met me told me that it was a Wednesday; if it had been a Friday, on Friday night on the eve of Saturday, which is their Kosher Day, if all the families in Bombay had assembled there, the tragedy would have been much bigger, much larger.
Foreign nationals were being targeted; Indians, of course, were targeted. So many people on the Chhattrapati Shivaji Terminus, coming from trains from all parts of the country, two terrorists with AK47 in their hands, went on mowing them down, killing everyone. The whole thing was horrible. Is it that we have woken up because it is not merely the people in India who think that India has become unsafe because of this soft attitude to terrorism, but the whole world thinks that India is now unsafe to the attack of terrorists? Is it this that has made us react in the present manner? I would think that the Security Council Resolution of 2001 was a very sound Resolution and those who followed it, did something in the interests of their own country, in the interest of humanity and the right step against terrorism. I am sorry that we should have been criticized because of following this particular UN Security Council Resolution in letter and spirit and enacting a special law to deal with terrorism.
With these words, I am grateful to you, Sir, for allowing me to initiate this debate.
लेबल:
भाजपा,
श्री लाल कृष्ण आडवाणी,
संसद में बहस
Thursday, 25 December 2008
भारतीय राजनीति के अटल गौरव
लेखक- प्रभात झा
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी आज 84 वर्ष के हो गये। वे अब प्रवास नहीं करते हैं पर जन-जन के मानस पटल पर उनके अतीत की स्मृतियों की मौजूदगी स्वत: देखी जा सकती हैं। कुछ वर्षों से अटलजी न सामान्य सभाओं में आते है न चुनावी सभाओं पर ऐसी कोई चुनावी सभाएं नहीं हो रही, जिसमें अटलजी की चर्चा न होती हो। राजनैतिक जीवन में व्यक्तित्व का यह श्रेष्ठतम स्वरूप किसी अन्य राजनीतिक दलों के नेताओं में देखने को नहीं मिल रहा है। अटलजी पर न केवल भाजपा, न केवल भारत की जनता अपितु विश्व के श्रेष्ठतम लोगों को भी अभिमान होता है। हाल ही में अटलजी से दो बार भेंट करने का मौका मिला। पहली बार जब मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज जी के साथ गए तो उन्होंने पहले शिवराजजी की सारी बातें सुनी। शिवराज जी ने मध्यप्रदेश की राजनैतिक स्थितियों का वर्णन उनके सामने रखा। अटलजी ने सबको सुना, सबको आशीर्वाद दिया। अटलजी ने शिवराजजी से कहा- ''जीतकर आइए लड्डू खिलाऊंगा।'' उनकी वाणी में ओज था। शब्द कंपित निकल रहे थे पर प्रेरणास्पद थे। शिवराजजी जब बाहर आए तो उन्होंने कहा, कि अब हम फिर अटलजी के पास आएंगे और सच में विजयी लड्डू खाएंगे। जब मैं अटलजी के पास बैठा था तो मैंने जो विज्ञान में पढ़ा था कि ऊर्जा संचरित होती है उसे मैं साफ महसूस कर रहा था। सभी अर्जित होकर वहां से बाहर निकले।
भारत में विरले ही व्यक्तित्व ऐसे होंगे, जो स्वत: सक्रिय राजनीति से दूर रहने की घोषणा के बाद भी लोगों के मन में इतनी जगह बनाए हुए हैं।
दूसरी बार जब 8 दिसंबर को विधानसभा चुनाव के परिणाम आए। उसके बाद शिवराजजी के साथ अटलजी से पुन: मिलने का अवसर प्राप्त हुआ। शिवराजजी ने हंसते हुए अटलजी से कहा, ''अटलजी हम नरेन्द्र सिंह जी, प्रभात जी झा आपसे विजयी लड्डू खाने आएं हैं।'' अटलजी ठहाका लगाकर हंसने लगे। उन्होंने कहा, ''लड्डू लाओ इनको खिलाओ।'' छोटे को बड़ा होते देख अटलजी के चेहरे पर जो खुशी छाई थी उसे कोई भी पढ़ सकता था। वे आह्लादित थे। शिवराजजी ने कहा कि जब मैं आधा लड्डू खिलाउंगा तो अटलजी ने कहा, ''मैं पूरा लड्डू खाऊंगा, आधा क्यों?'' अटलजी आज भी अपनी संरक्षक की भूमिका से लोगों के मनों पर अमिट छाप छोड़ रहे हैं।
गांव के चौपालों पर, देश के छोटे-बड़े सदनों में साथ ही भारत के सबसे बड़े पंचायत, संसद के सेंट्रल हॉल में समय-समय पर हर दल के नेता अटलजी की चर्चा करते हैं। चर्चा सकारात्मक संदर्भों में होती है। लोग गर्व से कहते हैं कि अटलजी एक अपराजेय राजनीतिज्ञ का जीवन जी रहे हैं। उन्होंने राजनीति में समय का सदैव ध्यान रखा। उनका बेमिसाल राजनीतिक जीवन, उनकी कार्यपध्दति, नैतिकता, प्रामाणिकता, वाक्पटुता, भाषण, ठहाके, उनके द्वारा ली गयी चुटकियां, कहीं न कहीं सभी की चर्चाओं में आता ही रहता है। वे विरोध में रहते हुए सत्ता पर भारी रहते थे। सदन में उनकी उपस्थिति बिना कुछ कहते सब कुछ कहती थी। आज अटलजी की मौजूदगी न केवल भाजपा बल्कि भारत के लिए गौरव की बात है। उनकी स्मरण शक्ति आज भी तीक्ष्ण है। देश की राजनीति पर उनकी पैनी निगाह बनी हुई है। वो हर खबरों से वाकिफ रहते हैं। वे राजनीति के प्रति सदैव ईमानदार रहे। वे दायित्वों के प्रति ईमानदार रहे। वे जीवन के प्रति ईमानदार रहे। पिछले विधानसभा चुनाव में 'एलईडी वेहिकल' पर अटलजी पर केन्द्रित पिक्चराइज्ड वीडियो फिल्म गांव-गांव में दिखाई गयी। इस तरह की गाड़ी जहां रुकती थी और जैसे ही एलईडी बाहर निकलता था और अटलजी अपनी भावभंगिमापूर्ण से ओत-प्रोत भाषण देते हुए दिखते थे लोग स्वत: ताली बजाते थे। अटलजी की वीडियो उपस्थिति भी लोगों के मन को झकझोर रही थी। जब उस पर बंबई अधिवेशन का चित्र आता है और अटल जी सन् 1980 में संपन्न हुये बंबई अधिवेशन में यह कहते हुए दिखते थे कि ''अंधियारा छंटेगा, सूरज निकलेगा, कमल खिलेगा'', लोग स्वत: बेतहाशा झूमने लगते थे। भारत में विरले ही व्यक्तित्व ऐसे होंगे, जो स्वत: सक्रिय राजनीति से दूर रहने की घोषणा के बाद भी लोगों के मन में इतनी जगह बनाए हुए हैं।
(लेखक भाजपा के राष्ट्रीय सचिव व सांसद हैं)
Wednesday, 24 December 2008
''आज सारा हिन्दुस्तान सहमा हुआ है''- प्रो. विजय कुमार मल्होत्रा
गत 26-29 नवंबर, 2008 को मुंबई में हुए अब तक के सबसे बड़े आतंकवादी हमले पर संसद के दोनों सदनों में चर्चा हुई। लोकसभा में भाजपा के तत्कालीन उपनेता प्रो. विजय कुमार मल्होत्रा ने आतंकवाद के प्रति संप्रग सरकार द्वारा नरम रूख अपनाने पर आक्रामक भाषण प्रस्तुत किया। हम यहां प्रो. विजय कुमार मल्होत्रा के भाषण का संपादित पाठ प्रस्तुत कर रहे हैं।
उपाध्यक्ष महोदय, जो भाषण अभी यहां चिदम्बरम साहब और प्रणव मुखर्जी साहब ने दिये थे, उन भाषणों को सुनकर मुझे काफी प्रसन्नता हुई। उन भाषणों में जिन बातों को उल्लेख किया गया, उसमें श्री प्रणव मुखर्जी साहब की भाषा काफी कठोर और सख्त थी और मुझे कई बार लग रहा था कि वह भाषण हमारी तरफ से दिया जा रहा है, इस प्रकार की बातें उसमें दिखाई देती थीं।
आप यहाँ पर आतंकवादियों को सजा दीजिए, हम आपके साथ हैं। आप पाकिस्तान के खिलाफ कड़ा कदम उठाइए, हम आपके साथ हैं, लेकिन हम आपका साथ इस बात पर नहीं दे सकते कि आप वोट बैंक पॉलिटिक्स के लिए किसी भी तरह आतंकवादियों को छोड़े रखें।
महोदय, मुम्बई में जो कांड हुआ, यह सारे देश के लिए एक शोक का विषय तो है ही, परंतु यह राष्ट्रीय शर्म की बात भी है। उसमें चिदम्बरम साहब ने माफी मांगी, श्री शिवराज पाटील का इस्तीफा हो गया, महाराष्ट्र के मुख्य मंत्री का इस्तीफा हो गया, महाराष्ट्र के उप-मुख्य मंत्री का इस्तीफा हो गया। यह कोई साधारण घटना नहीं हुई है। वहां पर लाखों लोग इकट्ठे हुए और उन्होंने इकट्ठे होकर, मोमबत्तियां जलाकर सारे राजनीतिज्ञों के बारे में एक तरह की अपमानजनक भाषा का भी प्रयोग किया। सारे देश में क्रोध है, इसमें कोई शक नहीं है, परंतु इस बारे में कुछ बातों का उल्लेख करना इसलिए भी जरूरी है कि क्या यह घटना एक आकस्मिक घटना थी। प्रणव जी ने कहा कि यह घटना एक सिस्टम के थ्रू, एक षडयंत्र के थ्रू हुई और यह बात भी कही गई कि पाकिस्तान चार युध्दों में जब हिन्दुस्तान को नहीं हरा सका, हमने उनके 91 हजार कैदियों को अपनी कैद में ले लिया था। उसके बाद उसने तय किया कि इसे बदला जाए और हिन्दुस्तान को थाउजैन्ड कटस, हजार जगहों पर घाव दिये जाएं, जिससे ब्लीड होकर हिन्दुस्तान एक तरह से खत्म हो जाए और इस पर बाद में एज ए स्टेट पालिसी वहां की सरकार की नीति के मुताबिक इस आतंकवाद को प्रश्रय दिया गया, आतंकवाद को पैसा दिया गया और आतंकवाद बढ़ाने के लिए वहां पर सारी घटनाएं की गईं। अब इस बात पर हाउस को डिवाइड नहीं होना चाहिए। हाउस को इस पर मिलकर काम करना चाहिए, यह बात ठीक है। परंतु मैं याद दिलाना चाहता हूं कि इस हाउस ने दो प्रस्ताव सामूहिक तौर पर पहले भी पास किये थे। जब चीन का आक्रमण हुआ, तब एक प्रस्ताव पास किया और चीन के आक्रमण के समय, जब आक्रमण चल रहा था तो श्री जवाहर लाल नेहरू ने हाउस में एक प्रस्ताव रखा था। वह इसी प्रकार का प्रस्ताव था और उसमें स्पष्ट रूप से यह कहा गया था कि अपनी एक इंच जमीन तक को छुड़ाये बिना हिंदुस्तान कभी चैन से नहीं बैठेगा। परंतु उस प्रस्ताव का क्या हुआ खड़े होकर यूनेनिमस रेजोल्यूशन दोनों हाउसेज में हुआ और उस प्रस्ताव का आज कोई नामो-निशान नहीं है। हमारी चालीस हजार मील जमीन चाइना के पास है। हम उससे बातचीत कर रहे हैं और बातचीत ऐसे ही जारी है।
दूसरा प्रस्ताव इस हाउस में पाकिस्तान के बारे में पास किया गया। जब इस प्रकार की घटना हुई थी तो पाकिस्तान के बारे में श्री नरसिंहराव जी ने यहां प्रस्ताव रखा था। उसमें यह कहा गया कि केवल एक काम बाकी है - पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर को वापस लेना। यही एक काम बाकी रह गया है और सारा हिन्दुस्तान इस बात का संकल्प करता है कि हम उस जमीन को वापस लेंगे। आज उस जमीन को वापस लेने की कोई बात नहीं की जा रही है। इसलिए मेरा कहना है कि हम जो प्रस्ताव यहां पारित कर रहे हैं, इस प्रस्ताव का हश्र क्या अभी मुम्बई कांड हुआ और उसके बाद गृह मंत्री का इस्तीफा हो गया। क्या इसके बाद कोई कांड नहीं होगा, क्या कोई इस बात का आश्वासन देगा कि पाकिस्तान फिर से ऐसी कार्रवाई नहीं करेगा और यदि वह ऐसी कार्रवाई फिर से करेगा तो क्या किया जायेगा, इसके बारे में न प्रस्ताव में कोई बात कही गई है और न सरकार की ओर से कोई बात कही गई है। मैं इन चीजों के बारे में इसलिए जिक्र कर रहा हूं कि आप देखें, यहां कितनी बार इसकी चेतावनी हुई, तीन या चार बार नहीं, बल्कि कई बार ऐसा हुआ। अभी हमारे मित्रों ने इसका जिक्र भी किया कि 26 नवम्बर को हमला होता है और 22 नवम्बर को श्री शिवराज पाटील कहते हैं -
"… to control terrorism in the hinterland, we have to see that infiltration of terrorists from other countries does not take place through the sea-routes and through the borders between India and friendly countries. The coast line also has to be guarded through Navy, Coast Guard and Coastal Police. The Special Force and CID should identify the persons, etc. …"
चार दिन पहले उन्होंने यह बात कही और चार दिन के बाद यह घटना हो गई। उससे पहले 13 नवम्बर, 2008 13 दिन पहले प्रधाान मंत्री जी कह रहे हैं, "Terrorism and threats from the sea continue to challenge the authority of the State." इससे पहले कम से कम 15 बार चेतावनी दी गई कि सी-रूट से यह होने वाला है। लक्षद्वीप के रास्ते से पाकिस्तान के लोग वहां आते हैं, आकर अपने अड्डे कायम करते हैं और फिर वहां से अपनी सारी कार्यवाहियां करते हैं। आपने सुरक्षा के नाम पर वहां केवल एक गार्ड और एक इंस्पैक्टर लगा रखा है।
उपाध्यक्ष महोदय, यह कहा गया कि ताज होटल के मालिक को इस हमले की चेतावनी दी गई थी कि ताज पर हमला होगा। हमारे दोस्त कह रहे थे कि रामपुर में जो व्यक्ति पकड़ा गया है, उसने कहा कि ताज होटल पर हमला होगा। ताज होटल के अंदर सात दिन तक सुरक्षा रखी गई, फिर उस सुरक्षा को हटा दिया गया। हमारे मित्र कह रहे थे, जिस पर मैं जाना नहीं चाहूंगा, जिन्होंने ए.टी.एफ के बारे में जिक्र किया या अन्य बातों के बारे में कहा। मेरा कहना है कि इन बातों की ओर धयान क्यों नहीं दिया गया, क्यों नहीं कार्यवाही की गई सन् 2005 से कोस्टल गार्ड की व्यवस्था को मजबूत किया जा रहा है लेकिन 2008 तक कोस्टल गार्ड पुलिस स्टेशन कायम नहीं किया गया। कोस्टल गार्ड पुलिस स्टेशन के लिये धानराशि रखी जानी चाहिये, जिसे सरकार ने नहीं रखी। कोस्टल गार्ड नौसेना पर इलजाम लगा रहे हैं, नौसेना के चीफ रॉ पर लगा रहे हैं, रॉ होम मिनिस्टर पर लगा रहा है। यह तो एक तरह से सिविल वॉर हो रहा है। इसके बारे में विचार करने की जरूरत है कि आखिर कहां गलती हुई है सरकार ने कहा कि इन सब बातों का विवेचन करेंगे। अभी तक किसी अधिाकारी के सामने बात नहीं आयी। रॉ कह रहे हैं कि होम मिनिस्टर को सूचना दी, होम मिनिस्टर कह रहे हैं कि हमने नौसेना को सूचना दी और नौसेना कह रही है कि हमने महाराष्ट्र सरकार को सूचना दी। इस तरह सभी एक दूसरे को सूचना देने की बात कह रहे हैं लेकिन यह कब से चल रहा है अगर आप देखेंगे तो मालूम होगा कि यह केवल एक दिन की बात नहीं है। ऐसा लगातार कई दिनों से चल रहा है। मैंने यह सब इसलिये कहा क्योंकि सारे देश में गुस्से की लहर है और इस लहर के कारण आपने यह प्रस्ताव रखा है। इस प्रस्ताव में आपने जिक्र किया है "India shall not cease her efforts until the terrorists and those who have trained, funded and abetted them are exposed and brought to justice. हमारे यहां लोग कह रहे थे कि आतंकवादियों के टुकड़े कर दिये जाने चाहिये परन्तु क्या मैं गृह मंत्री जी से पूछ सकता हूं कि आप जो कह रहे हैं कि "We will bring them to justice." जस्टिस होने के बाद, आज तक निचली कोर्ट से ऊपरी कोर्ट तक ने पार्लियामेंट पर हमला करने वाले अफजल के खिलाफ फांसी की सजा सुनाई, जिसे आपने चार साल से रोक रखा है, आखिर क्यों रोक रखा है यह घटना आज से सात साल पहले हुई और 2005 में सुप्रीम कोर्ट ने सजा-ए-मौत दी। अगर आतंकवादी को लगे कि पहले तो वह पकड़ा ही नहीं जायेगा, पहले उसकी सूचना ही नहीं मिलेगी, अगर सूचना मिल भी गई तो यहां आने के बाद मारा नहीं जायेगा, अगर पकड़ा भी जाता है तो सजा नहीं होगी और अगर सजा हो भी गई तो उसे एक्जीक्यूट नहीं किया जायेगा& Where is the will? आप कह रहे हैं कि आतंकवाद को कुचलने के लिये पाकिस्तान पर हमला करने से हल नहीं हो सकता है। अगर यह हल नहीं तो फिर क्या है आतंकवादी को पकड़ने के बाद, सजा-ए-मौत होने के बाद अभी उसे माफी देने के लिये फाईल 6 साल तक दबा कर रखी, क्या आतंकवाद से मुकाबला करने का यह तरीका है मैं इसका जिक इसलिये करना चाहता हूं कि अभी बाटला हाऊस में केस हुआ। उसके बारे में पुलिस को सारी सूचना थी और होम मिनिस्टर के यहां की पुलिस को थी। इंस्पैक्टर मूल चंद शर्मा की शहादत हो गई लेकिन उस पर भी सवाल खड़े किये जा रहे हैं। यह कोई गुजरात की पुलिस नहीं थी, आपके अपने यहां की पुलिस थी जिसने वहां रेड किया और इसमें मूल चंद शर्मा मारे गये। इस मुठभेड़ में दो आदमी पकड़े भी गये। उसका पता लगने के बाद अगले दिन महरौली में घटना हो गई। इस प्रकार की घटनायें कब तक चलती रहेंगी यहां जो भाषा कही गई है, वह आपके नेता ने कही है कि हम आपके साथ हैं, आखिर इस सवाल का कोई जवाब है जो आप कह रहे हैं कि "India shall firmly counter all evil designs against the unity, sovereignty and total integrity…" सारी दुनिया में ईराक को छोड़कर हिन्दुस्तान सब से ज्यादा आतंकवाद से प्रताड़ित है परन्तु इतना प्रताड़ित होने के बावजूद पाकिस्तान से लड़ाई करना मुनासिब नहीं होगा, यह आप कह रहे हैं। फिर आतंकवाद से आप कैसे मुकाबला करेंगे हिन्दुस्तान में कोई लॉ नहीं है, क्या इससे ज्यादा शर्मनाक बात और हो सकती?
हिन्दुस्तान अकेला ऐसा बदकिस्मत देश है, जहां 80 हजार से ज्यादा लोग मारे गये हैं। हमारे चारों युध्दों में जितने सेना के जवान मारे गये, पाकिस्तान से हमारी चार लड़ाईयां हुई हैं, चारों लड़ाईयों में हमारे जितने सैनिक और अर्ध्दसैनिक बल के जवान मारे गये हैं, उससे दुगने से ज्यादा आतंकवादियों के हाथों मारे गये हैं। हमने बहुत जोर से इस बात को उठाया है। आतंकवादियों से मुकाबला करते हुए जिन शहीदों ने शहादत दी है, हम उनको नमन करते हैं। यह कहा गया कि हमारे जवान 303 रायफल के साथ लड़ रहे थे और वे ए.के.47 लेकर आये थे। हमने अपने जवानों को ए.के.47 क्यों नहीं दीं हमने अपने जवानों, कोस्ट गार्ड के जो जवान हैं और दूसरे हैं, उनको पूरी सुविधाएं, मुहैया क्यों नहीं करायी? आपने गृह मंत्रालय के बजट में ये बातें क्यों नहीं रखी? यह बात तीन साल से कही जा रही है कि सी-रूट से हमला होगा। अगर मैं तीन साल का सारा विवरण बताना चाहूँ तो कम से कम बीस बार वार्निंग दी गयी है कि सी-रूट से हमला होगा। अभी आडवाणी जी ने उसको पढ़कर सुनाया था। शिवराज पाटिल जी के 2006 के बयान में क्लियरली लिखा है कि हिन्दुस्तान पर सी-रूट से हमला होने वाला है। इसके लिए सावधानी क्यों नहीं बरती गयी अगर सावधानी बरती नहीं जानी है, केवल यह प्रस्ताव पारित कर देना है और यह केवल प्रस्ताव ही रह जाएगा, तो हम आपसे यह जरूर पूछना चाहते हैं कि क्या इसी प्रकार से आतंकवाद का मुकाबला होगा पोटा कानून नहीं होगा, पोटा कानून नहीं है, तो चिदम्बरम कानून बना दीजिए, राजीव गॉधी एन्टी टेरेरिज्म लॉ बना दीजिए। कोई एन्टी टेरेरिज्म लॉ हिन्दुस्तान में हो तो सही। इंग्लैंड के अंदर केवल एक लॉ है और उसका नाम उन्होंने पैट्रियाटिक लॉ रखा है। वह हमसे कहीं ज्यादा सख्त है।
मानवाधिकारों का हनन करने की बात यहाँ आती है। मानवाधिकारों के हनन की बातें मानवों के लिए होता है, शैतानों के लिए नहीं होता है। जो औरतों और बच्चों को मार डालें, यहाँ पर आकर लोगों को खत्म कर दें, उनके खिलाफ बहुत भावना व्यक्त की जा रही है, सारा हाउस भावना व्यक्त कर रहा है, परन्तु भावना व्यक्त करने के बाद भी, उसके खिलाफ कोई कानून कहाँ है इसमें लिखा हुआ है कि आतंकवादियों के पास अकूत धन है, अनलिमिटेड रिर्सोसेज हैं। उनके पास बेइंतहा पैसा है। उस पैसे से वे लोगों को खरीद भी सकते हैं, वैहिकल भी खरीद सकते हैं, सी-रूट से भी आ सकते हैं, नावें भी ला सकते हैं, सब कुछ कर सकते हैं। उनकी सरकार भी पीछे खड़ी है। प्रणव जी कहते हैं कि ये सरकार से बाहर के लोग है, बाहर के लोग कहाँ से आये हैं - कोई आसमान से तो नहीं टपके हैं, पाकिस्तान से नहीं आये हैं। पाकिस्तान को वार्निंग देते हैं तो वे एक जगह से दूसरी जगह बदल लेते हैं। एक जगह से हटकर दूसरी जगह चले जाते हैं, दूसरी से हटकर तीसरी जगह चले जाते हैं, इतना पैसा उनके पास है। उनको पकड़ने के लिए कौन सा कानून है आपके द्वारा कोई कानून न बनाना, मैं समझता हूँ कि इससे ज्यादा नाकामी, इससे ज्यादा गलत बात, इससे ज्यादा आतंकवादियों को प्रश्रय देना, आतंकवाद का समर्थन करना - यह नहीं हो सकता कि हिन्दुस्तान में उसके लिए कोई कानून न हो। आपने जिक्र नहीं किया कि हम कोई ऐसा हार्ड एन्टी टैरेरिज्म लॉ बनाएंगे, जिससे टेररिस्टो में कोई आतंक पैदा हो। आतंकवादियों में आतंक नहीं है और सारी जनता आतंकित है, सारा देश आतंकित है, सारा देश सहमा हुआ है। अभी कल परसों ही आया है कि दिल्ली निशाने पर है। कल रात को दिल्ली में एक छोटी सी घटना हुई, सारी दिल्ली सहम गयी, सब एक-दूसरे को फोन कर रहे थे। किसी ने वहाँ कोई सामग्री रख दी थी। इससे सारी दिल्ली दहली हुई है। लोग इस बार रामलीला, दुर्गा पूजा में नहीं गये। दिल्ली सहमी हुई है, सारा हिन्दुस्तान सहमा हुआ है। आप कहते हैं कि हम बड़े जोर से मुकाबला करेंगे। हमारे नेता ने आपसे कहा है कि आप कदम उठायें, हम आपके साथ हैं। आप कदम उठायें तो सही, आप पोटा बनाइए, हम आपके साथ हैं। आप यहाँ पर आतंकवादियों को सजा दीजिए, हम आपके साथ हैं। आप पाकिस्तान के खिलाफ कड़ा कदम उठाइए, हम आपके साथ हैं, लेकिन हम आपका साथ इस बात पर नहीं दे सकते कि आप वोट बैंक पॉलिटिक्स के लिए किसी भी तरह आतंकवादियों को छोड़े रखें, .आतंकवादियों के खिलाफ कदम न उठाएं, आतंकवाद को फैलने दे। आपके नारायणन साहब ने कहा कि - There are 800 modules in India being funded by ISI. उनको यह मालूम होगा तभी उन्होंने आपसे जिक्र किया है। आप उन 800 को स्मैश कीजिए। अगर आप उन 800 को स्मैश करेंगे तो हम आपके साथ खड़े हैं। पाकिस्तान के खिलाफ आप कोई भी जोरदार कदम उठाइए, हम आपके साथ हैं और पूरा देश आपका साथ देगा, किन्तु यह नहीं हो सकता है कि आप कोई कदम न उठाएं, अपने सी-कोस्ट को भी खुला छोड़ दें और बांग्लादेश के मार्फत आयें, असम के अंदर पाकिस्तानी झंडे लहरायें और काई कदम न उठाएं। क्या गृह मंत्री जी आपसे नहीं पूछा जाना चाहिए कि असम के अंदर जिन्होंने पाकिस्तानी झंडे लहराये, और झंडे लहराकर वहाँ डेढ सौ आदमी मार दिये, उन लोगों के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं हुयी।
उनको टीवी पर दिखाया गया। आखिर लोग देखते हैं लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई। कश्मीर में पाकिस्तानी झंडे लहराए जाएं, तो कोई कार्रवाई नहीं। अगर सरकार चाहे कि उनका इस बात पर समर्थन किया जाए कि बंग्लादेश हो या पाकिस्तान हो या कोई और सेन्टर हो, उनके खिलाफ किसी तरह की कार्रवाई न करें और केवल भाषा से, कागज़ की तलवारें चलाएं, उससे आतंकवाद मिटने वाला नहीं है। इसलिए हम आपसे कहना चाहते हैं कि सारा देश इस समय आपका साथ दे रहा है। यह समय है कि आप कठोर कार्रवाई करें। एक बात यही कही गयी कि ऐसा नहीं हो सकता। ईंट का जवाब पत्थर से नहीं देंगे तो कैसे होगा अगर वे एक ऑंख फोड़ते हैं तो उनकी दोनों ऑंखें नहीं फोड़नी, अगर उन्होंने एक दाँत तोड़ा है तो उनका जबड़ा नहीं तोड़ना, अगर इस प्रकार की बात नहीं करनी तो कोई घबराएगा कैसे कुछ तो करना पड़ेगा। इसका कोई ज़िक्र इसमें नहीं है। यह एक रिज़ॉल्यूशन है - हम रिज़ॉल्यूशन पास करते हैं कि आतंकवाद को कभी सफल नहीं होने देंगे। ऐसे रिज़ॉल्यूशन तो बीसियों बार पास हुए और मैंने आपको बताया कि चाइना के खिलाफ वार के समय का रिजॉल्यूशन हुआ, पाकिस्तान के संबंधा में रिजॉल्यूशन हुआ, उन सब रिजॉल्यूशन्स को बाद में सारी दुनिया भूल जाती है। अगली घटना कभी भी घटी तो क्या आप इसकी जिम्मेदारी लेने को तैयार हैंघ् क्या फिर यही होगा कि एक और गृह मंत्री को हटा दें और अगर एक और कांड हो गया तो फिर तीसरा बना दें। इसमें जॉइंट रिस्पान्सिबिलिटी होती है। गृह मंत्री की जिम्मेदारी सारी बातों की नहीं है। परंतु इस समय हमने कहा नहीं है, आडवाणी जी ने इसका उल्लेख नहीं किया कि जाना चाहिए था तो सारी सरकार को जाना चाहिए था। परंतु इस समय जिस तरह की स्थिति में आप काम कर रहे हैं, उसमें कम से कम रिजॉल्यूशन में तो पोटा को वापस लाने का, एंटी टैरर ला बनाने की बात होनी चाहिए थी। जो आप सेन्ट्रल जांच एजेन्सी बनाने की बात कर रहे हैं, हम भी चाहते हैं कि एक फैडरल जांच एजेन्सी होनी चाहिए, पर वह अगर बिना कानून के होगी तो क्या काम करेगी एक फैडरल एजेन्सी को अगर सिर्फ ला एंड आर्डर मेनटेन करना है, केवल उसने किसी चोर या डाकू को पकड़ना है, कोई कानून नहीं है तो फिर ला एंड आर्डर तो स्टेट सब्जैक्ट है। कोई स्टेट क्यों मानेगा आप फैडरल एजेन्सी बनाएं। उसके पीछे कोई ज़ोरदार पैट्रियॉटिक लॉ रखें। जैसा कानून इंग्लैंड में है, अमरीका में है, ऐसा कानून उसके साथ रखें तो हमें बड़ी खुशी होगी और हम भी उस फैडरल एजेन्सी का पूरा समर्थन करेंगे बशर्ते कि उसके हाथ में आतंकवाद को रोकने के लिए कोई कड़ा कानून हो। आज दुर्भाग्य से यह हो गया है कि पैट्रियॉटिज्म या पैट्रियाट या नेशनलिज्म माने गाली सी हो गई है। नेशनलिज्म की बात करना, पैट्रियाटिज्म की बात करने को कहा जाता है कि यह कम्यूनल है, इसे कम्यूनल बातें कहकर हटाया जाता है। मैं गृह मंत्री जी से अनुरोधा करूँगा कि हमने आपको पूरा समर्थन दिया है, सारा सदन और सारा देश समर्थन दे रहा है। उसको लेकर आप कोई कड़ी कार्रवाई करिये और वह कड़ी कार्रवाई ऐसी होनी चाहिए कि जिसके बाद आतंकवाद रुके। ऐसा न हो कि फिर कोई आकंतवादी घटना हो और हमें फिर ऐसा प्रस्ताव पास करना पड़े। इन्हीं शब्दों के साथ मैं इस प्रस्ताव का समर्थन करता हूँ।
Tuesday, 23 December 2008
आतंकवाद का केन्द्र है पाकिस्तान- लालकृष्ण आडवाणी
गत 26-29 नवंबर, 2008 को मुंबई में हुए अब तक के सबसे बड़े आतंकवादी हमले पर संसद के दोनों सदनों में चर्चा हुई। लोकसभा में विपक्ष के नेता श्री लालकृष्ण आडवाणी ने प्रथम वक्ता के तौर पर मुंबई हमले को आतंकवादी युध्द करार दिया और केन्द्र सरकार को विश्वास दिलाया कि आतंकवाद के खिलाफ जंग में विपक्ष उसके साथ है। हम यहां श्री लालकृष्ण आडवाणी के भाषण का संपादित पाठ प्रस्तुत कर रहे हैं-
अध्यक्ष महोदय, सारा देश इस बात को स्वाभाविक मानेगा कि जब 10 दिसम्बर को सदन की बैठक फिर से आरम्भ हुई तो सबसे पहले दिन कोई चर्चा हो सकती है, तो वह मुम्बई की भयंकर घटना के बारे में ही हो सकती है, जहां 26 नवम्बर को एक ऐसी घटना हुई, जिसने सारे देश को दहला दिया।
मैं पूरी दुनिया को और खास तौर से हमारे दुश्मन, जिन्होंने हमारे ऊपर आतंकवाद का युध्द छेड़ रखा है, उनको कहना चाहता हूं कि आज इस सदन का प्रस्ताव वास्तव में पूरे देश की दृढ़ता, निश्चय और संकल्प को प्रकट करेगा कि इस आतंकवाद के युध्द पर विजय पाने के लिए पूरा राष्ट्र एक साथ है, एक मत है। सरकार और विपक्ष में कोई मतभेद नहीं है। भाषाओं, मज़हबों और सप्रदायों के कारण कोई मतभेद नहीं है। यह हमारे अंदर की डेमोक्रेसी है, जिसमें हमारे मतभेदों पर हम गर्व करते हैं। यह युध्द की स्थिति है, इसमें हम सब एक हैं, इस बात पर मैं बल देना चाहूंगा।
सबसे पहले तो मैं कहना चाहूंगा कि यह घटना नहीं है, इस घटना ने इस बात को उजागर किया है कि कई वर्षों से यह देश एक युध्द का सामना कर रहा है। इसीलिए सचमुच में उसे टैरर-वार कहना उपयुक्त है। इसलिए पहली बार शायद यह हुआ होगा कि सरकार ने अपनी ओर से ही तय किया कि प्रश्नोत्तार-काल न करके माननीय गृह मंत्री जी अपना जो वक्तव्य देना चाहते हैं, वह शुरू में ही दें, जिससे अधिक से अधिक समय सदन में चर्चा करने को मिले। मैं इस बात के लिए भी आपका आभारी हूं कि आपने मुझे सबसे पहले बोलने का अवसर दिया और मैं समझता हूं कि अब मेरा कर्तव्य होगा कि मैं माननीय गृह मंत्री जी के साथ मिलकर सारे सदन की पीड़ा और शोक प्रकट करुं।
वहां पर इतना भयंकर कांड हुआ, जिसमें बहुत सारे लोग मारे गये, जिसमें भारतीयों के साथ-साथ विदेशी लोग भी थे। बहुत बहादुरी और वीरता से हमारे सुरक्षा-कर्मियों ने उनका सामना किया, जिसमें एनएसजी के कमांडोज भी थे, मुम्बई पुलिस के, आर्मी और नेवी के जवान भी थे, सभी ने मिलकर उनका सामना किया। मैं समझता हूं कि जब वर्णन आता है तो उसमें रेलवे स्टेशन पर जो घटना हुई, उसमें रेलवे के कर्मचारियों ने जिस वीरता का परिचय दिया, जिन दो-तीन होटल्स में घटना हुई, उसमें होटल्स के कर्मचारियों ने भी अपने प्राणों को संकट में डालकर लोगों की सहायता करने की कोशिश की, ये सारे लोग हमारे आदर के पात्र हैं, देश की ड्डतज्ञता के पात्र हैं। मैं सरकार और सदन के साथ मिलकर उनके प्रति अपनी विनम्र श्रध्दा प्रकट करता हूं, आभार प्रकट करता हूं। कुछ नामों की चर्चा तो देश भर में लगातार होती रही हैं, पत्र-पत्रिकाओं में होती रही है जिनमें हेमंत करकरे, अशोक काम्टे, विजय सालस्कर और संदीप उन्नीड्डष्णन का नाम कोई भूल नहीं सकता है। माननीय गृह मंत्री जी ने सही किया जब उन्होंने उस तुकाराम का नाम लिया, जिसने असीम वीरता का परिचय देते हुए एक टैरेरिस्ट को केवल लाठी के सहारे जीवित पकड़ा। केवल एक लाठी के सहारे उसने यह काम करके दिखाया।
मैं मानता हूं कि यह अवसर है कि विगत वर्षों में जिस आतंकवाद का यह देश सामना करता रहा है, उसका कुछ गहराई से विश्लेषण करें। मेरी मान्यता है और जैसा माननीय गृहमंत्री जी ने कहा है कि सारा South Asia is in the eye of the storm of terror."
This is the phrase that you have used. Let us realize and say it very candidly that if South Asia is in the eye of the storm of terror, the epicentre of this storm is Pakistan. Let us not hesitate in saying that. Though in the United Nations Security Council when we have moved, we have not mentioned Pakistan - I do not know why - but I am happy that in so far as the draft resolution we have prepared and which has been circulated to several Party leaders, I have seen that we are very categorical in saying that the terrorist attack in Mumbai has been by terrorist elements from Pakistan. It is a right thing. Not only that; we have specifically mentioned in the Resolution the name of Lashkar-e-Toiba, a banned organization but which continues to function under different names. It is a banned organization. It is banned even by Pakistan under pressure from the world, but it still continues to function. I will deal with it separately in my speech later.
महोदय, इन घटनाओं के बारे में जितनी जानकारी मिलती है, उसके आधार पर मैं कह सकता हूं कि किसी राष्ट्र या देश की परीक्षा संकट के समय में होती है। मुम्बई के साधारण लोगों ने संकट के समय असीम साहस का परिचय दिया है। कभी-कभी शिकायत होती है कि टेलीविजन के चैनल्स और अखबारों में बड़े होटलों की चर्चा होती है, लेकिन जितने लोग मरे हैं, उनमें से आधो या आधो से अधिक रेलवे स्टेशन पर मरे हैं, जो कि सामान्य लोग थे, जो रेल से उतरते ही इस प्रकार के अचानक हमले के शिकार बने। मैं कल रात्रि को एक टीवी चैनल देख रहा था और उसे देख कर मुझे सही लगा, क्योंकि उसमें साधारण लोगों की चर्चा थी, जिसमें कहा गया था कि 'हौंसला टूटे न'। शायद 'आज तक' चैनल था, बहुत अच्छा दिखाया था। पूरे का पूरा फोकस ऐसे लोगों पर था, जो सामान्य लोग थे और रेलवे स्टेशन पर आए थे या कहीं जा रहे थे। किस प्रकार से उन्हें अचानक हमले का सामना करना पड़ा। एक कपल था, जो मुम्बई में रहता है, लेकिन तमिलनाडु से बिलोंग करता था। उस व्यक्ति ने गोली लगी हुई लड़की से विवाह किया और बाद में उसका ऑपरेशन करवाया। कई घटनाएं ऐसी थीं, जिनके कारण सारे देश का आत्मविश्वास बढ़ता है कि संकट के समय जब देश इस प्रकार का प्रत्युत्तर देता है, तो वह राष्ट्र को उन्नात बनाता है। राष्ट्र में विश्वास पैदा करता है कि हम संकट का सामना कर सकते हैं। मुझे यह भी अच्छा लगा, जब यह घटना समाप्त हो गई, तब एक टीवी चैनल ने दिखाया कि सुरक्षाकर्मी जा रहे थे, तो एक साधारण जवान से किसी टीवी चैनल ने पूछा कि आपको कैसा लग रहा है। उस जवान का उत्तार था कि हमारे लिए कुछ भी मुश्किल नहीं है। मैं समझता हूं कि जब शाम को हम सदन की तरफ से प्रस्ताव पारित करेंगे, तब उसका भाव भी यही होना चाहिए कि वर्षों से हमारे खिलाफ चलाए जा रहे आतंक के युद्ध पर विजय पाना इस देश के लिए किसी भी प्रकार से मुश्किल नहीं है और हम इस पर विजय पा कर ही रहेंगे।
जैसा मैंने कहा कि इसका एपिसैंटर पाकिस्तान है, इसीलिए यह सिर्फ टैरेरिज्म मात्र नहीं है, यह क्रास बार्डर टैरेरिज्म है। इस शब्द का प्रयोग करने के लिए आगरा में जनरल मुशर्रफ तैयार नहीं थे। जनरल मुशर्रफ ने कहा कि मैं इसे क्रास बार्डर टैरेरिज्म के रूप में नहीं देखता हूं। खास कर उन्होंने जम्मू-कश्मीर का उल्लेख करके कहा कि यह तो आजादी की जंग है। इससे हम सहमत नहीं हुए और हमने कहा कि हम इसे क्रास बार्डर टैरेरिज्म मानते हैं और अगर आप इसे नहीं मानते हैं, तो किसी प्रकार का समझौता नहीं होगा। आपने सही कहा है और जितनी घटनाएं आपने गिनाई हैं एक्टस आफ टैरर कमिटेड इन जयपुर, बंगलौर, सब का उल्लेख किया है, यह बहुत अच्छी बात है और मुझे इस बात की भी खुशी है कि गृह मंत्री ने कहा है कि असम की चर्चा हम अलग करेंगे। उस पर पूरी चर्चा होनी चाहिए। हम इस बात को भूल नहीं सकते हैं। मैंने जब सुबह सदन के नेता से बात की थी, तब मैंने कहा था कि असम का उल्लेख होता, तो कोई गलत नहीं होता।
उसका कारण है और मुझे स्वयं को लगता है कि असम, बंगलादेश के माधयम से भी बहुत बार जो गतिविधियां होती हैं, आईएसआई उसकी तह में होता है और वे वहां माधयम ढूंढ़ लेते हैं लेकिन सदन के नेता का मत था कि शायद इससे हमारा फोकस मुम्बई के घटनाक्रम और लश्कर-ए-तोएबा से डाल्यूट हो जाएगा, मैंने कहा कि ठीक है, अलग बात हो जाए, उसमें भी कोई आपत्ति नहीं, लेकिन असम में जो कुछ हो रहा है, वह बहुत गम्भीर है और उसकी चर्चा अलग करने का जो निर्णय किया है, मुझे कोई आपत्तिा नहीं, यद्यपि मैं समझता हूं कि असम के साथियों को अपने मन की पीड़ा व्यक्त करने का अवसर था और उन्होंने किया।
मैंने एक बात और भी सुझायी थी और मैं विश्वास करता हूं कि हम शाम को जो प्रस्ताव सम्मिलित करेंगे, उसमें जरूर इस बात का उल्लेख होगा और वह यह है कि कुछ समय पहले इसी साल अगस्त के महीने में अफगानिस्तान में जो हमारा दूतावास काबुल में है, उस पर हमला हुआ था। सामान्यत: उसमें आईएसआई का नाम आया था कि उसे आईएसआई ने करवाया है। वह ऐसा संगठन है जो पता नहीं, जरदारी साहब ने इस बात को स्वीकार किया है कि हां, मैं मानता हूं कि मुम्बई में जो लोग गए थे, वे पाकिस्तान से गए थे, कराची से गए थे लेकिन उन्होंने कहा कि वे नॉन स्टेट एक्टर्स थे। उन्होंने यह शब्द प्रयोग किया। नॉन स्टेट एक्टर्स कौन होते हैं, नॉन स्टेट एक्टर्स इस प्रकार का जो ऑॅपरेशन वहां किया, ऐसा लगता था कि मानो आर्मी कमांडोज थे। जितने लोग वहां थे और जिन्होंने उनको देखा, जिन लोगों ने उनका मुकाबला किया, उन सब का यह मत है कि वे कोई साधाारण नागरिक नहीं थे, साधारण टैररिस्टस नहीं थे। They had undergone elaborate preparation. उनको कितना समय लगा होगा, सचमुच मेरा माथा उस समय ठनका जब दो होटल्स के अलावा नरीमन हाउस का नाम लिया गया। नरीमन हाउस का नाम लेते ही मुझे समझ आया कि वह काफी सर्वेलेंस करके किया गया है। साधारणतया किस को पता है कि नरीमन हाउस में ज्यूस रहते हैं, यहूदी रहते हैं, यहूदियों की फैमिलीज रहती हैं या इस्राइल से आकर लोग रहते हैं। मुझे यह जान कर एक प्रकार से संतोष हुआ और यह बात मुझे इस्राइल के अम्बेसैडर ने आकर कही कि अगर यह घटना बुधावार को न होकर शुक्रवार को होती तो भयंकर परिणाम होते, इस नाते कि हर शुक्रवार को which is the eve of Kosher Day for them वे शनिवार की पूर्व संधया को मिल कर प्रार्थना करते हैं। यहूदी परिवार के जितने लोग मुम्बई में होते हैं, वे सब आते हैं और साथ बैठकर भोजन करते हैं। इस प्रकार उनकी बहुत बड़ी संख्या हो जाती और उसके भयंकर परिणाम होते, लेकिन उनको इन सब बातों का पता था कि वे यहां रहते हैं। ताज होटल और ऑबराय होटल फाइव स्टार होटल और नोन हैं, कोई भी पहचान सकता है। मैं नहीं जानता लेकिन मुझे किसी मित्र ने कहा कि रामपुर में जो सीआरपीएफ कैम्प पर अटैक हुआ था, उसमें जो व्यक्ति पकड़ा गया था, उसने मुम्बई के ताज होटल का जिक्र किया था और कहा था कि उस पर हमला होगा। यह अगर सही बात है तो - this is an additional dimension, an additional bit of evidence or bit of information which should be probed thoroughly कि उसके बाद क्या हुआ। मैं यह बात मानता हूं कि आज का यह अवसर विश्लेषण करने का है और साथ-साथ दुनिया को भी संदेश देने का है। यह जो युध्द है जिस को हम कोई घटनाक्रम नहीं मानते, युध्द मानते हैं, इस युध्द में सरकार और विपक्ष एक साथ है, इस यध्द में सारा देश कोई भी जाति हो, कोई भी सप्रदाय हो, कोई भी भाषा हो, किसी भी क्षेत्र का हो, कोई भी हो, सब एक हैं, यह संदेश जाना चाहिए, यह प्रस्ताव का उद्देश्य होना चाहिए।
इसके साथ यह संकल्प भी प्रकट होना चाहिए कि हमारा यह युध्द आखिर तक चलेगा और हम इसे लॉजिकल परिणाम तक पहुंचाएंगे। गृह मंत्री जी के आखिरी वाक्य में उल्लेख आता है, जिसमें उन्होंने कहा है कि दो-चार महीने हैं, हमें हार्ड डिसीजन लेने होंगे। मैं अपनी पार्टी और एनडीए की ओर से विश्वास दिलाना चाहता हूं और कहना चाहता हूं कि चाहे सरकार कोई भी कठोर कदम उठाना चाहे, आप कोई भी हार्ड डिसीजन लें, जो डिसीजन इस युध्द में देश को विजय दिलाने वाला होगा, उसमें मेरी पार्टी और एनडीए आपका साथ देगी। मैं यह बात आज ही नहीं कह रहा हूं बल्कि जब मुंबई की घटना हुई थी, उसके चार दिन बाद हमारी पार्टी की कोर कमेटी की मीटिंग हुई थी, जिसमें हमने यह प्रस्ताव किया था, मैं इसमें से कोट करता हूं:
"The four-day long terrorist attack on Mumbai, India's commercial capital, is a challenge that must be rebutted fully, visibly and tellingly. Given that Pakistan has totally rejected all requests of the Government, we expect the Government is assessing stern steps that are required to ensure that Pakistan desists from pursuing Jihadi terrorism. As a nationalist party the BJP shall stand by the Government in the effective steps it takes in this regard."
मैं हमेशा याद करता हूं कि चाहे हमारे बहुत मतभेद रहते हैं और हम बहुत आलोचना भी करते हैं, कोई कसर नहीं छोड़ते लेकिन हम महाभारत के प्रसिध्द कवि की बात को भूल नहीं सकते, जिसमें गंधर्व ने पाण्डवों और कौरवों पर हमला किया था और वे कौरवों को पराजित कर रहे थे, तब युधिष्ठिर ने अपने भाइयों को कहा कि जाकर कौरवों का साथ दो, उनकी सहायता करो। किसी ने कहा - आप क्यों उनकी सहायता करने के लिए कह रहे हैं तब उन्होंने कहा कि हमारे आपस में विवाद हैं लेकिन इस युध्द के समय हम सौ नहीं एक सौ पांच हैं, 'व्यम पंचाधिकरण शतम' अगर किसी दूसरे का सवाल आता है तो हम एक सौ पांच हैं। यह बात सबके लिए है। It applies to everyone. मैंने जिक्र किया जो इन्होंने कहा कि ये नान-स्टेट एक्टर हैं। ISI itself is a non-state actor in a way. After all it is not under the control of the elected Government of Pakistan. It is answerable only to the army.
I doubt it. I really doubt it. I am not only saying myself but even the spokesmen of the American Government, who are expected to know the functioning of Pakistan perhaps better, also admitted this fact to me. When she came here, I posed her this question. मैं एक मुख्य समस्या जो पाकिस्तान से संबंधित है, उसके बारे में कहना चाहता हूं कि मुझे समझ में नहीं आता कि वहां पर कौन अथौरिटी है डेमोक्रेटिक देशों में जैसे हमारा देश है, यहां हर एक जानता है कि कौन फाइनल अथौरिटी है। लेकिन पाकिस्तान जैसा देश, जहां बहुत बार 'कू 'हुए हैं और कितनी बार आर्मी रूल आया है, वहां अब इस समय एक नाम है, तथाकथित प्रधानमंत्री भी हैं और राष्ट्रपति भी हैं लेकिन कौन अथौरिटी है, यह निर्णय करना आसान नहीं है। उनका कहना था और लगता है कि जो आर्मी चीफ हैं, वही सर्वेसर्वा हैं। मुझे इस प्रसंग में एक बात और कहनी है कि पिछले दिनों विल्सन जॉन द्वारा लिखा गया एक बहुत परसेप्टिव लेख छपा था।
उसमें उन्होंने कहा है कि - There is evidence of a cabal within the ISI which noted Pakistani Scholar, Ahmed Rasheed - who is an outstanding scholar -जिन्होंने एक पुस्तक लिखी है 'डिसेन्डिड टू क्यास' Pakistan - How it has descended into chaos? He calls an ISI within an ISI. ;g tks dcky gS - this body may be primarily responsible for formulating and executing the Pakistani States - Jihadi strategy in Afghanistan and India while giving the cover of deniability to the army and civilian establishments. This is something which needs to be studied in-depth. कि किस प्रकार से डिनायबिलिटी के लिए, यह हमने नहीं किया है, एल.ई.टी. ने किया है, लश्कर-ए-तैय्यबा ने किया है और कुछ लोगों को जेल में डाल दिया, किसी को हाउस अरैस्ट में रख दिया, we should not be fooled by this kind of operation. हमें किसी धोखे में नहीं रहना चाहिए। यह कोई ऑपरेशन नहीं है, दिखावा है, छलावा है, धोखा है, प्रवंचना है और यह बात केवल मात्र इस पत्रकार ने नहीं लिखी है, जिसका मैंने नाम लिया -विल्सन जॉन, परंतु मैं देख रहा हूं कि इस समय यू.एस. में जो पाकिस्तान के एम्बैसेडर हैं, जिनका नाम हुसैन हक्कानी है, उन्होंने कुछ समय पहले यह लिखा था - the most significant Jihadi group is Lashkar-e-Toiba which is backed by Saudi money and protected by Pakistani Intelligence Services. This ISI is a Pakistani Intelligence Service. और फिर आगे यह भी लिखा कि- in 2005, the ISI gave money and direction to the Islamic group as it conducted attacks in India in the 1990s. After 9/11 आई.एस.आई. ने इसी ग्रुप लश्कर-ए-तैय्यबा को पैसे देकर कहा कि कुछ समय चुप रहो, 9/11 हुआ है, इसीलिए हमारे ऊपर दबाव है, इसलिए तुम चुप रहो। उन्होंने इसका पैसा भी उन्हें दिया। ये सारी बातें, जो आज अमेरिका में पाक एम्बैसेडर है, उसने तथ्य दिये हैं & so that no one can challenge it.
मैं इन बातों का जिक्र इसलिए कर रहा हूं क्योंकि इन दिनों में हम भी पाकिस्तान पर दबाव डालने की कोशिश कर रहे हैं और समझते हैं कि अगर यू.एन. सिक्युरिटी काउंसिल में जाकर हम उनके खिलाफ बोलेंगे तो और प्रभाव होगा। लेकिन मुझे यू.एन. सिक्युरिटी काउंसिल का नाम सुनकर डर लगता है। इस नाते डर लगता है, क्योंकि हमारा कश्मीर का जो अनुभव है, उसे हमें कभी भूलना नहीं चाहिए। हम अपनी डिप्लोमैटिक स्ट्रैंथ से, डिप्लोमैटिक कुशलता से जितना कुछ कर सकें, वह जरूर करना चाहिए। हम अपनी ताकत से जो कुछ भी इनके खिलाफ कर सकें, वह जरूर करना चाहिए, लेकिन हम उम्मीद करें कि यू.एन. सिक्युरिटी काउंसिल हमें बचायेगा, यह समस्या हमारी है और इस समस्या को हमें ही हल करना चाहिए। हमने जम्मू-कश्मीर की समस्या भी उस समय अगर हमने अपने बलबूते पर हल की होती तो हल हो गई होती। यू.एन. सिक्युरिटी काउंसिल में जाने का क्या परिणाम हुआ है, उसे हम काफी भुगत चुके हैं, दोबारा ऐसी गलती हमें नहीं करनी चाहिए। यह मेरा अनुरोध होगा।
हमें आश्चर्य नहीं होता है, जब ये ऐसा करते हैं। लश्कर-ए-तैय्यबा के लोग या उसके प्रमुख क्या बोलते हैं, क्या नहीं बोलते हैं, वह हमें ध्यान में रखकर चलना चाहिये। मैं इस बात को मानता हूं और कई बार इस बात को कह चुका हूं कि किसी आतंकवादी का कोई धर्म या मज़हब नहीं होता है। आतंकवाद एक अपना धर्म है लेकिन साथ ही साथ वास्तविकता यह है कि लश्कर-ए-तैय्यबा नाम की संस्थायें, जिन्हें पाकिस्तान ने प्रश्रय दे रखा है, उन पर बैन भी लगाती हैं तो दूसरे नाम से उन्हें चलने देती है। उनके नेता को गिरफ्तार भी करती हैं, तथाकथित गिरफ्तारी करती है और उन्हें हाउस अरैस्ट में रखती है, लेकिन जब यह मामला कुछ ठंडा हो जाये तो उन्हें सम्मान के साथ छोड़ देगी, प्रशंसा करेगी। लश्कर-ए-तैय्यबा का सुप्रीम धार्मिक और पॉलिटिकल हैड हाफिज़ मोहम्मद सैय्यद ने नवम्बर महीने में दिसम्बर की घटना के पहले कहा था :
''The only language India understands is that of force; and that is the language that it must be talked to. This is what the supreme religious and political head of LeT said.'' लश्कर-ए-तैय्यबा ने एक पैम्फलैट ईश्यू किया। ''While we are waging jihad'' उसमें आगे लिखा है : ''Its ideology goes beyond merely challenging India's sovereignty over the State of Jammu and Kashmir; it also affirms that its agenda includes 'restoration of Islamic rule over all parts of India''.
This is the thinking. यह चिन्तन है और इस चिन्तन की उपेक्षा नहीं करनी चाहिये। अगर हम इसके साथ लड़ना चाहते हैं, झगड़ना चाहते हैं तो हिन्दुस्तान के मुसलमानों को इस बात को समझाना चाहिये, उन्हें बताना चाहिये कि जिहाद के नाम पर इन लोगों के मंसूबे बड़े भंयकर हैं। Spiritual Islam is to be respected but political Islam of this kind has to be countered and combated. This has to be understood. टैरेरिज्म का इस्लाम से कोई ताल्लुक नहीं है। पिछले दिनों यू.एस.ए. की सैक्रेटरी ऑफ स्टेट, मिस कोंडालिसा राइस मुझे मिलने आयी थी जब वह मुझ से मिलने आयी तो मैंने उन्हें कहा कि आतंकवाद एक गम्भीर समस्या है, जिसमें हम चाहेंगे कि अमरीका जितना प्रभाव डाल सके, उतना डाले लेकिन मैंने उन्हें यह भी कहा कि बार बार आतंकवाद को जस्टिफाई करने के लिये पाकिस्तान में अलग अलग सैक्शन्स और विश्व में कई सैक्शन्स कश्मीर का उल्लेख करते हैं। इस बात को समझना चाहिये कि इस में भारत कश्मीर विवाद का विषय नहीं था। हिन्दुस्तान में 530 रजवाड़े थे। उन सब में उस समय जो व्यवस्था थी, उस व्यवस्था के अनुसार केवलमात्र वहां के महाराजा ने निर्णय नहीं किया लेकिन वहां की जो जनप्रतिनिधि संस्था थी, उसे भी कहा गया, उन्होंने निर्णय किया कि हम भारत के साथ जायेंगे। अगर कश्मीर का कुछ हिस्सा पाकिस्तान के कब्जे में है तो उसका कारण नेकड अग्रेशन और इनवेज़न है। इस अग्रेशन के बारे में संसद में कुछ साल पहले सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पारित हुआ था कि यह हिस्सा भारत का हिस्सा है, वह हिस्सा कोई पाकिस्तान का हिस्सा नहीं है, भले ही कब्जे में उसके होगा। इस तथ्य को दुनिया को पहचानना चाहिये और अमरीका को विशेष रूप से पहचानना चाहिये क्योंकि समय समय पर अमरीका में ऐसे ग्रुप खड़े होते हैं जो यह समझते हैं कि समस्या हिन्दुस्तान-पाकिस्तान की है, कश्मीर की है और अगर कश्मीर आजाद हो जाये तो समस्या हल हो जायेगी, वे इस गलतफहमी में न रहें। भारत किसी भी सूरत में जम्मू-कश्मीर के मामले में कोई समझौता नहीं करेगा क्योंकि यह भारत का अभिन्न अंग है।
यह हमारी संसद का सर्वसम्मत प्रस्ताव है। हां, लश्कर-ए-तोएबा ने अपने पैम्फलेट में यह बात डिकलेयर की कि हमारे तीन खास दुश्मन हैं और वे हैं - भारत, अमेरिका और इजरायल - as existential enemies of Islam. इसीलिए मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ कि उन्होंने केवल ताज और ऑबराय नहीं चुने, उन्होंने अपने इस टारगेट के लिए नरीमन हाउस को भी चुना। हमको इस आतंकवाद और इन आतंकवादी हमलों को पहचानना चाहिए। इसमें दो बातों के ऊपर टारगेट किया गया है, एक तो भारत की प्रगति होती गयी है और भारत आगे बढ़ता गया है, जिस प्रकार से यहाँ पर सब धार्म, सब मजहब, सब मत-मतान्तर एगजिस्ट करते हैं, यानी यहाँ पर सब आते हैं, यह देश ऐसा है जहाँ पर क्रिश्चियनिटी बहुत पहले आयी, सबसे पहली मस्जिद हिन्दुस्तान में केरल में बनी। उस समय भारत आजाद नहीं हुआ था। अविभाजित भारत में, मैं करांची में रहता था।
मैं केरल का जिक्र कर रहा था। जहाँ पर सबसे पहला एक चर्च बना। जो कोचीन जाता है तो वहाँ पर यहूदियों का भी सिनागॉग दिखाते हैं। मैं स्वयं करांची का निवासी हूँ। मेरा जन्म वहाँ हुआ। मैने अपने जीवन के पहले बीस वर्ष वहाँ पर बिताये। मेरे स्कूल में मेरे क्लासमेट कई ज्यूस थे। मैं जब 50 साल बाद इजरायल गया था तो मैंने उनमें से एक को ढूंढ निकाला। ये सारे अनुभव हैं, इसीलिए मैं इसको मानता हूँ। यह हिन्दुस्तान जिन परिस्थतियों में आजाद हुआ, भारत का विभाजन इस बात पर हुआ कि मुस्लिम बहुमत कहाँ पर है और हिन्दू बहुमत कहाँ पर है। पाकिस्तान ने भले ही अपने को इस्लामिक राज्य घोषित किया हो, थियोक्रैसी स्वीकार की होगी, हमने थियोक्रैसी स्वीकार नहीं की। हमने कहा कि हमारा राज्य सेकुलर राज्य होगा जिसमें सब धार्म, सब पंथ बराबर होंगे, चाहे वे किसी भी धार्म व मजहब के अनुयायी क्यों न हों
This is the civilizational ethos of India. यह सिविलाइजेशनल इथोस ऑॅफ इंडिया पर आक्रमण है। यह हमें पहचानना चाहिए। यह हमारी प्रगति पर आक्रमण है। यह सिविलाइजेशनल इथोस ऑॅफ इंडिया पर आक्रमण है। इसको पहचानकर हम इसका सही उत्तार उनको दे पायें और इस उत्तार को देते हुए हम भारत के मुसलमानों को भी उसमें समाविष्ट कर सकें। जितनी मात्रा में हम कर सकेंगे उतनी मात्रा में ही हमने सही उत्तार दिया, यह कहा जाएगा। अभी-अभी रिसेन्टली मैंने देखा कि मुंबई की घटना के बाद कई स्थानों पर मुस्लिम समाज में गुस्सा है कि यह क्या हो रहा है इनके कारण हम यहाँ पर बदनाम हो रहे हैं। इनके कारण यहाँ पर मतभेद पैदा होते हैं। अभी-अभी हैदराबाद में क्लेरिकसेज इकट्ठा हुए थे, जिन्होंने उसके खिलाफ प्रस्ताव पारित किया। कई लोग यहाँ आए और आतंकवाद के खिलाफ प्रदर्शन किया। मैं उसका स्वागत करता हूँ। प्रसिध्द पत्रकार एम.जे. अकबर मेरे मित्र हैं। वे रेगुलरली आजकल टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखते हैं। उन्होंने लिखा, वह मुझे बहुत अच्छा लगा। उन्होंने टोरंटो स्टार में एक लेख लिखा, जिसमें कहा कि "I am an Indian and a Muslim and proud to be both. Like any Indian, today I am angry, frustrated and depressed. I am angry at the manic dogs of war who have invaded Mumbai."
उन्होंने सही कहा और चिदम्बरम जी हाँ कह रहे हैं, लेकिन उसका जो फॉलोइंग सैन्टैन्स है, उसको भी हाँ कहेंगे। उन्होंने कहा कि :
"I am frustrated by the impotence of my Government in Mumbai and Delhi. Do not deaf to the anguish of my fellow citizens and I am depressed at the damage of the idea being done to India."
इसीलिए मैं कहना चाहूँगा कि It is not just a failure of intelligence. क्योंकि मैं गृह मंत्री की बात मानता हूँ कि मैं उन सवालों को जो सब अखबारों में छपे हैं, अभी नहीं उठाऊंगा क्योंकि जो ड्राफ्ट प्रस्ताव मुझे दिया गया, उसमें कहा है कि हम रिव्यू करेंगे कि क्या कुछ हुआ, क्या कुछ नहीं हुआ जिसके कारण मुम्बई की घटना हुई। इसीलिए मैं वे सारे सवाल नहीं उठाता हूँ लेकिन हाँ, पूछना ज़रूर चाहता हूँ जिससे वे परस्यू करें, मैं उसकी आलोचना नहीं कर रहा हूँ। I do not go by whatever has been published in the Press. आज सुबह के अखबार में केवल वैसल का नहीं बताया लेकिन वैसल के कोआर्डिनेट्स क्या हैं, यह भी बताया। गृह मंत्री ने अपने भाषण में कहा है कि नेवी को एलर्ट किया गया, नेवी को बताया गया। नेवी का कहना है कि वह उस समय हमारे टैरिटोरियल वाटर्स में नहीं था। लेकिन यह भी उन्होंने कहा है कि उन्होंने यहां से चोरी किया। वह कुबेर एक इंडियन शिप था जो गुजरात का था, जिसको उठाकर ये लोग ले गए। तो क्या हमें यह अधिकार नहीं कि इस प्रकार के जहाज़ को हम छुड़वाने के लिए कुछ करें I do not know. The simple fact that they are outside the territorial waters of India, do they prohibit us from taking back our own vessel? Then from that point to the point where they reached by a rubber dinghy वह कितना डिसटैन्स है और कितनी देर उनको आने में लगी होगी। पर उसमें कोई कमी रही क्या क्योंकि कुल मिलाकर अभी तक I do not know. It is not only that several seniors and veterans in the Government of India and the Government of Maharashtra have had to pay the price. But the Home Minister himself, the first thing he did and rightly so, was that he said, `I apologise to the people of Mumbai for whatever failure has happened.' Similarly, the Naval Chief has said something which has to be taken cognizance of and therefore it is that I feel that accountability in a democracy should not be confined only to the Home Minister or to the Chief Minister of a State. We have not placed that issue at all relating to the Prime Minister because we feel that within a short time the people of this country would have the opportunity to decide who should form the new Government. Therefore, formally we have not said that. But this must be understood tks लोग समझते हैं कि आज जनता में गुस्सा नहीं है, गुस्सा है, बहुत गुस्सा है, और जो लोग समझते हैं कि क्योंकि दिल्ली में या राजस्थान में बीजेपी नहीं जीती, इसलिए Terrorism is not an issue. We will be underestimating the wisdom of the Indian people if we think in those terms. हम अगर दिल्ली में या राजस्थान में सफल नहीं हुए तो मैं उसका क्रैडिट कोई कांग्रेस को नहीं देता हूँ, अपनी कमी मानता हूँ। We have lost rather than Congress has won. But it is a different matter. It would be wrong to infer from this that in the minds of the people terrorism is not an issue. Terrorism is an important issue.
पिछले दिनों मेरे साथी अरुण शौरी ने एक विस्तृत लेख इंडियन एक्सप्रैस में लिखा, जिसमें संसद के बहुत सारे सवालों का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि सरकार की ओर से बार-बार यह बताया गया कि आगामी हमला समुद्र से हो सकता है। यह प्रधाान मंत्री ने कहा, होम मिनिस्टर ने कहा, नेशनल सिक्यूरिटी एडवाइज़र ने कहा, सबने कहा, डिफैन्स मिनिस्टर ने कहा और उसके बाद भी यह हुआ है।
उसके बाद ऐसा क्यों हुआ इसे आप रिव्यू करेंगे, इसकी मुझे खुशी है।
The National Security Advisor, Shri M.K. Narayanan has warned saying:
"There are many new schools that are being established on the Pakistan-Afghanistan border which now specialize in the training of an international brigade of terrorists to fight in many climes. Training has become rigorous. It is almost frightening in nature. Studies are being carried out about important targets with regard to vulnerability, access to poor security, absence of poor counter-terrorism measures. The sea route in particular is becoming the chosen route for carrying out many attacks even on land."
This is what the National Security Advisor has said. I am simply quoting this in order to see that the review which the Government undertakes as per the proposed draft resolution should take into cognizance all these facts.
मैं यह भी जानना चाहूंगा कि एनएसजी के कमाण्डोज़ को मुम्बई पहुंचने में इतनी देर क्यों लगी उन्हें सूचना रात 11 बजे मिल गई थी, लेकिन वे सुबह पहुंचे थे, बहुत देर से। उसी प्रकार आईबी और रॉ के कोआर्डिनेशन के बारे में, इंटेलिजेंस एजेन्सीज़ की सिनर्जी के बारे में आपने कुछ बातें कही हैं। मैं आशा करता हूं कि उन सब बातों के बारे में आवश्यक करैक्टिव स्टैप्स उठाए जाएंगे।
मैं यह भी जानना चाहूंगा कि दाऊद इब्राहिम के बारे में मांग मुम्बई की इस घटना के बाद की गई या इससे पहले भी सरकार ने उसकी मांग पाकिस्तान सरकार से की है यह बात कई बार कही जाती है कि दाऊद इब्राहिम किसी समय इस सारे आतंकवाद के काण्ड में लिप्त नहीं था और जिस कार्य में लिप्त था, उस कार्य से परिचित होने के कारण समुद्र के सभी रास्तों से परिचित हो गया कि कहां-कहां समुद्र के ज़रिए सामान लैण्ड किया जा सकता है, सब कुछ किया जा सकता है। इससे भी मुम्बई के कई लोगों को लगा कि इन सारी घटनाओं के पीछे भी उनका योगदान हो सकता है, तो आश्चर्य की बात नहीं है। लेकिन वह न भी हो तो भी यह बात सही है कि मुम्बई के टाडा कोर्ट ने वर्ष 1993 के काण्ड के लिए बहुत सारे लोगों को दण्डित किया है, उसमें उन्होंने घोषित किया हुआ है कि प्रमुख अपराधी दाऊद इब्राहिम आज तक एबस्कौण्डिंग है, गिरफ्तार नहीं हुआ है, फरार है। उसके बारे में दुनिया जानती है कि वह एक अच्छे खासे बंगले में कराची में रहता है, पाकिस्तान ने उसको आश्रय दे रखा है। कोई कारण नहीं है, कोई जस्टिफिकेशन नहीं है, उसको हमें सुपुर्द करने में। इसके अलावा हमने बाकी 20 लोगों की मांग की है, उनको हमें सुपुर्द करना चाहिए। इस बारे में भी क्या कार्यवाही अभी तक हुई है, क्या होने वाली है और कब तक होने वाली है।
इन्हीं शब्दों के साथ एक बार फिर से मैं पूरी दुनिया को और खास तौर से हमारे दुश्मन, जिन्होंने हमारे ऊपर आतंकवाद का युध्द छेड़ रखा है, उनको कहना चाहता हूं कि आज इस सदन का प्रस्ताव वास्तव में पूरे देश की दृढ़ता, निश्चय और संकल्प को प्रकट करेगा कि इस आतंकवाद के युध्द पर विजय पाने के लिए पूरा राष्ट्र एक साथ है, एक मत है। सरकार और विपक्ष में कोई मतभेद नहीं है। भाषाओं, मज़हबों और सप्रदायों के कारण कोई मतभेद नहीं है। यह हमारे अंदर की डेमोक्रेसी है, जिसमें हमारे मतभेदों पर हम गर्व करते हैं। यह युध्द की स्थिति है, इसमें हम सब एक हैं, इस बात पर मैं बल देना चाहूंगा।
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