हितचिन्‍तक- लोकतंत्र एवं राष्‍ट्रवाद की रक्षा में। आपका हार्दिक अभिनन्‍दन है। राष्ट्रभक्ति का ज्वार न रुकता - आए जिस-जिस में हिम्मत हो

Friday, 30 January 2009

अब अच्युतानंदन की बेटी घोटाले में फंसी


भ्रष्‍टाचार और पुत्र-पुत्रीवाद मार्क्‍सवादी कम्‍युनिस्‍ट पार्टी में चरम पर हैं। माकपा भ्रष्‍टाचार के दलदल में डूबती जा रही हैं। पश्चिम बंगाल के मुख्‍यमंत्री ज्‍योति बसु द्वारा सारे नियमों को ताक पर रखते हुए अपने पुत्र चंदन बसु को पूंजीपति बनाने की भ्रष्‍ट-कथा तो जगजाहिर ही हैं अब केरल के मुख्‍यमंत्री अच्‍युतानंदन ने भी अनियमिता बरतते हुए अपनी पुत्री वी. वी. आशा को शोध अनुदान के नाम पर 35 लाख रुपए की धनराशि आवंटित कर दी। तथाकथित सर्वहारा की पार्टी माकपा के नेता स्‍वयं अय्याशीपूर्ण जीवन जीने में जुटे हैं।

हाल ही में एनएनसी लेवलिन मामले को लेकर विवाद में फंसी माकपा नई मुसीबत में घिरती नजर आ रही है। इस बार मुख्यमंत्री वी एस अच्युतानंदन की बेटी को शोध के लिए अनुदान देने का मामला माकपा के गले की फांस बनता दिख रहा है।

मीडिया रिपोर्ट में खुलासा किया गया है कि आशा को अकादमी प्रोजेक्ट आवंटित करने में अनियमितता और भाई-भतीजावाद का सहारा लिया गया। मीडिया रिपोर्ट में इस बात का जिक्र है कि यह धनराशि केरल बायोटेक्नोलोजी मिशन द्वारा मंजूर की गई जो केएससीएसटीई की शाखा है और बतौर मुख्यमंत्री अच्युतानंदन इसके प्रमुख हैं।

खबर है कि केरल स्टेट कौंसिल फार साइंस टेक्नोलाजी एंड एनवायर्नमेंट [केएससीएसटीई] ने मुख्यमंत्री अच्युतानंदन की बेटी वी. वी. आशा को शोध अनुदान के रूप में 35 लाख रुपये की धनराशि आवंटित की। मीडिया रिपोर्ट में खुलासा किया गया है कि आशा को अकादमी प्रोजेक्ट आवंटित करने में अनियमितता और भाई-भतीजावाद का सहारा लिया गया। मीडिया रिपोर्ट में इस बात का जिक्र है कि यह धनराशि केरल बायोटेक्नोलोजी मिशन द्वारा मंजूर की गई जो केएससीएसटीई की शाखा है और बतौर मुख्यमंत्री अच्युतानंदन इसके प्रमुख हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि प्रोजेक्ट का उचित तरीके से मूल्यांकन नहीं किया गया और अच्युतानंदन को खुश करने के लिए आशा को शोध राशि आवंटित कर दी गई। संदर्भ दैनिक जागरण

दैनिक जागरण
The Hindustan Times

यूपीए की असफलताएं (भाग-2) / बेलगाम महंगाई

यूपीए की असफलताएं (भाग-1)

कमरतोड़ महंगाई ने ठंड के मौसम में भी पसीना निकाल दिया है। रोज इस्तेमाल होने वाली वस्तुओं की कीमतों में तो मानो आग लग गई है। आम आदमी जहां रोटी दाल के लिए हलकान है तो सरकार कीमतों पर रोक लगाने में नाकाम साबित हो रही है।

सवाल उठता है कि किसी भी देश के लिए अर्थव्यवस्था की उस मजबूती के क्या मायने हैं जब आदमी को दो वक्त की रोटी भी नसीब न हो पाये? वर्तमान केन्द्र सरकार और अर्थशास्त्रियों के लिए महंगाई सिर्फ आंकड़ों का विषय हो सकता है। पर आम आदमी के लिए तो यह जीवन मरण का प्रश्न है। इस बेलगाम महंगाई ने आम आदमी का बजट ही नहीं जीवन का ढांचा ही चरमरा दिया है।

बढ़ती महंगाई ने पिछले कुछ वर्षों के सारे रिकार्ड तोड़ दिए हैं। चुनावी वर्ष में मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए सारी जुगत कर रही यूपीए सरकार को इस महंगाई ने धरातल पर ला खड़ा किया है। महंगाई ने आम आदमी के सस्ते कर्ज के सपने को तोड़ दिया है। साथ ही यूपीए का चुनावी खेल भी बिगाड़ दिया है। अब तो बड़ी बेशर्मी के साथ कांग्रेस ने भी मान लिया है कि महंगाई बेलगाम हुई है। इससे यूपीए के घटक दलों की नींद भी उड़ गयी है।

केन्द्र की यूपीए सरकार के पौन पांच वर्ष के कार्यकाल में मूल्यों में वृद्धि का सिलसिला लगातार जारी है। वर्ष 2004 में जब यूपीए सत्ता में आयी तभी आम जनता में यह चर्चा चल पड़ी थी कि कांग्रेस की सरकार आ गई है अब महंगाई भी बढ़ेगी। यह चर्चा हर गली चौराहे पर होती थी। लोगों की आशंका भी सच साबित हुई। सत्ता में आते ही मई 2004 में महंगाई जिस तेजी से बढ़ी तो फिर उसने पलट कर नहीं देखा। श्री अटल बिहारी वाजपेयी की नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने जिस तरह से महंगाई पर नियंत्रण लगाया हुआ था वह नियंत्रण यूपीए सरकार के कार्यकाल में हट गया और महंगाई तेजी से बढ़ने लगी आम जनता को फर्क साफ नजर आने लगा। 2004 से ही महंगाई का यह जो सिलसिला चला वह 2009 आते-आते सातवें आसमान पर जा पहुंचा है और मूल्यवृद्धि का यह क्रम अभी भी जारी है।

इस बीच कांग्रेस सुप्रीमो व कांग्रेस नीत यूपीए सरकार की चेयरपर्सन सोनिया गांधी सार्वजनिक तौर पर महंगाई पर चिंता जताने के साथ-साथ प्रधानमंत्री को पत्र लिखने का नाटक करती रही है। यही नहीं कांग्रेस की कार्यसमिति में चिंता व्यक्त करने के अलावा कांग्रेस शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों की विशेष बैठक भी इस मुद्दे में बुलायी जाती रही है पर नतीजा वही ''ढाक के तीन पात'' वाली कहावत सिध्द कर रही है। नतीजा ''सिफर''। महंगाई थमने के बजाय सुरसा के मुंह की तरह दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती जा रही है।

इसे देश का सौभाग्य कहें या दुर्भाग्य कि वर्तमान केन्द्र सरकार के शीर्ष पदों पर अर्थशास्त्र के ज्ञाता विराजमान हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह एक राजनेता के बजाय अर्थशास्त्री के रूप में ज्यादा पहचाने जाते हैं वहीं साढे चार वर्षों तक केन्द्रीय वित्तमंत्री रहे पी. चिदम्बरम भी अर्थ जगत के अच्छे जानकार माने जाते हैं यही बात योजना आयोग के उपाध्‍यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया के बारे में भी कही जा सकती है। फिर भी सरकार की इस ड्रीम टीम को महंगाई का भान तब होता है जब आंकड़े सामने आते हैं। आखिर ये कैसे अर्थशास्त्री हैं जो समय रहते आने वाले संकट के बारे में अनुमान भी नहीं लगा पाते। आर्थिक विकास दर और शेयर बाजार के आंकड़ों पर यह कथित अर्थशास्त्रियों की तिकड़ी अपनी पीठ चाहे जितनी थपथपा ले पर इन पौने पांच वर्षों में महंगाई के मोर्चे पर यह ड्रीम टीम पूरी तरह नाकाम साबित हुई है।

यूपीए सरकार में मुद्रास्फीति की दर का उच्चतम स्तर पर पहुंचना वर्तमान केन्द्र सरकार के मुंह पर एक करारा तमाचा है। आज यदि महंगाई चौतरफा मार करती दिख रही है तो इसलिए कि केंद्र सरकार न तो भावी अंतर्राष्ट्रीय माहौल का आकलन कर सकी और न ही घरेलू हालात का। यदि खाद्यान्न की कीमतें काबू में होतीं तो महंगाई के असर को कम किया जा सकता था। ऐसा इसलिए नहीं हो सका क्योंकि अर्थशास्त्रियों से लैस केंद्रीय सत्ता ने यह अनुमान लगाने की दिलचस्पी तक नहीं दिखाई कि आने वाले समय में खाद्यान्न की पर्याप्त उपज होगी या नहीं? समस्या इसलिए और अधिक बढ़ गई, क्योंकि खाद्यान्न आयात के फैसले लेने में अनावश्यक देर की गई। पिछले कुछ दिनों से महंगाई के पीछे जमाखोरों और बिचौलियों की भूमिका का जिस तरह जिक्र होने लगा है उससे तो यह लगता है कि हर कोई केंद्रीय सत्ता की कमजोरी का लाभ उठा रहा है। आठ फीसदी आर्थिक विकास दर का गुणगान करने वाली इस केन्द्र सरकार ने कृषि क्षेत्र को एकदम उपेक्षित छोड़ दिया है। गत पौने पांच वर्षों के कार्यकाल में देश के किसानों की पूरी तरह अनदेखी की गई है। किसानों के आत्महत्या का सिलसिला अभी भी जारी है। परन्तु इस कुम्भकर्णी सरकार की नींद अभी भी टूटी नहीं है। फिर कच्चे तेल की बढ़ती कीमतें और स्थिर अनाज पैदावार ने भारत को फिर खाद्य संकट के मुहाने पर ला खड़ा किया है।

यह सब केन्द्र की यूपीए सरकार की असफल नीतियों का ही परिचायक है। यही नहीं अब भारत की अर्थव्यवस्था अब एक ऐसे मुकाम पर आ खड़ी हुई है जिससे यूपीए सरकार और उसके घटक दलों के हाथ पांव भी फूलने लगे हैं। महंगाई के कारणों को लेकर सरकार द्वारा समय-समय पर की जाने वाली टिप्पणियां भी उसकी संवेदनशून्यता और दिशाहीनता को ही जाहिर करती हैं। खुद प्रधानमंत्री कभी महंगाई को अर्थव्यवस्था में मजबूती का स्वाभाविक परिणाम बताते हैं तो कभी अंतर्राष्ट्रीय मंदी का नतीजा। इसका मतलब तो यह हुआ कि यूपीए सरकार के बस में कुछ है ही नहीं और यदि वास्तव में ऐसा है तो उसके सत्ता में रहने का औचित्य क्या है? सवाल उठता है कि किसी भी देश के लिए अर्थव्यवस्था की उस मजबूती के क्या मायने हैं जब आदमी को दो वक्त की रोटी भी नसीब न हो पाये? वर्तमान केन्द्र सरकार और अर्थशास्त्रियों के लिए महंगाई सिर्फ आंकड़ों का विषय हो सकता है। पर आम आदमी के लिए तो यह जीवन मरण का प्रश्न है। इस बेलगाम महंगाई ने आम आदमी का बजट ही नहीं जीवन का ढांचा ही चरमरा दिया है।

दरअसल थोक मूल्य सूचकांक की दर भी आम आदमी पर महंगाई की मार का पूरा सच बयान नहीं करती। आम उपभोक्ता वस्तुओं की कीमतों में फुटकर बाजार में हाल ही में छह से 25 प्रतिशत तक का उछाल आया है। जीवन-यापन के लिए अनिवार्य वस्तुओं की ही बात करें तो पिछले वर्ष अक्तूबर में सरसों का तेल 65 से 70 रूपये प्रति लीटर था, जो अब बढ़कर 82 से 85 रूपये हो गया है। इसी तरह सोयाबीन या रिफांइड तेल 55-65 रूपये से बढ़कर 96-100 रूपये पर पहुंच गया है। औसत चावल का दाम भी 14-18 रूपये प्रति किलो से उछलकर 18-25 रूपये पर पहुंच गया है तो उड़द दाल का दाम 38-40 रूपये से बढ़कर 46-58 रूपये पर। अरहर दाल 36-40 रूपये से बढ़कर 45-48 रूपये हो गयी है तो गेहूं 9-10 रूपये से बढ़कर 12-14 रूपये। सब्जियों और फलों के दामों में तो और भी ज्यादा उछाल आया है।

कांग्रेस का हाथ आम आदमी के साथ यह नारा देकर सत्ता में आई कांग्रेसनीत यूपीए सरकार की कलई खुल गई है। कांग्रेस (आई) के सत्ता में आते ही आम आदमी पर महंगाई शामत बनकर आई है। कमरतोड़ इस महंगाई से आम जनता को यह समझ आ गया है कि कांग्रेस का हाथ आम आदमी के साथ विश्वासघात है। अब तो आम आदमी भी बस यही दुहाई दे रहा है महंगाई... महंगाई... और बस महंगाई, अब कुछ तो रहम करो मनमोहन भाई।
यूपीए की असफलताएं (भाग-1)
क्रमश:

Thursday, 29 January 2009

यूपीए की असफलताएं (भाग-1)

चुनाव आयुक्‍त के अनुसार, लोकसभा चुनाव आगामी अप्रैल-मई में आसन्‍न है। संप्रग सरकार ने केन्द्र में पौने पांच साल पूरे कर लिये हैं। इस दौरान आम जनता की बुनियादी आवश्‍यकताओं की पूरी तरह से अनदेखी हुई हैं। आर्थिक कुप्रबंधन, संवैधानिक संस्थाओं का अवमूल्यन, किसानों की दुर्दशा, राष्‍ट्रीय आस्था पर आघात, देश के विभाजन का कुप्रयास, बाह्य एवं आंतरिक सुरक्षा के साथ खिलवाड़ और भ्रष्‍टाचार तो मानों इस सरकार की पहचान बन गई है। वहीं यूपीए सरकार के साथ चार वर्षों तक सत्ता की चाशनी में डूबे रहे वामपंथियों का जन-विरोधी चेहरा भी बेनकाब हो गया है।

हम यहां संप्रग सरकार की गाथा को सिलसिलेवार 20 भागों में प्रस्तुत कर रहे हैं:


यूपीए सरकार ने अपने शासनकाल के पौने पांच साल पूरे कर लिए है, अत: स्वाभाविक है कि इसकी तुलना पूर्ववर्ती श्री अटल बिहारी वाजपेयी की नेतृत्व वाली एनडीए सरकार से की जानी चाहिए। इन वर्षों में देश किस दिशा की तरफ बढ़ रहा है, यह हम सबके सामने है। एनडीए सरकार में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने वर्ष 2020 तक भारत को विकसित राष्ट्र एवं 21वीं शताब्दी की महाशक्ति बनाने का संकल्प लिया था। एनडीए सरकार ने उस दिशा में ठोस कदम भी उठाए, जिसके कारण विश्व क्षितिज पर भारत का एक नया स्वरूप उभरकर सामने आया। लेकिन इन पौने पांच वर्षों में यूपीए सरकार ने एक के बाद एक गलत और कमजोर निर्णय लिए, जिसके चलते 2020 तक भारत के विकसित राष्ट्र और महाशक्ति बनने का संकल्प और सपना बिखरता दिख रहा है।

खाद्यान्न सुरक्षा से लेकर आण्विक संप्रभुता तक और महंगाई से लेकर आतंकवाद के भंवर में देश को झोंकने वाली ऐसी सरकार जिसके विरूद्ध सर्वोच्च न्यायालय ही नहीं सेना के सर्वोच्च प्रमुख को भी अपना विरोध व्यक्त करने पर मजबूर होना पड़े, ऐसी सरकार के द्वारा क्या विकसित भारत का स्वप्न साकार हो सकता है? यह प्रश्न आम जनता के मन मस्तिष्क में उमड़ रहा है। अत: स्वाभाविक रूप से देश की जनता इसकी तुलना पूर्ववर्ती एनडीए सरकार से कर रही है।

संप्रभुता की दृष्टि से एनडीए सरकार ने जहां पोखरण विस्फोट करके भारत की संप्रभुता और सम्मान को नई ऊंचाइयां दी थी, वहीं यूपीए सरकार ने नाभिकीय समझौते में हमारी आण्विक संप्रभुता पर ही प्रश्न चिन्ह लगा दिया।

एनडीए सरकार में अटलजी एक सर्वमान्य लोकप्रिय राजनेता प्रधानमंत्री के रूप में थे। जिन्होंने प्रधानमंत्री पद की गरिमा को बढ़ाया। वहीं वर्तमान यूपीए सरकार ने प्रधानमंत्री पद की गरिमा को गिराया है। यह भविष्य के लिए चिंता का विषय है।

आर्थिक दृष्टि से एनडीए सरकार ने महंगाई पर पूर्ण नियंत्रण रखते हुए सुदृढ़ अर्थव्यवस्था के साथ-साथ विकास की तेजी का स्वर्णिम अध्‍याय रचा था। वहीं यूपीए सरकार के पौने पांच सालों में महंगाई के हाहाकार से लेकर किसानों की आत्महत्या और एसईजेड नीति के दुरूपयोग ने एक काला अध्‍याय लिख दिया। ''कांग्रेस का हाथ, आम आदमी के साथ'' का नारा देने वालों का नकाब उतर चुका है।

पूर्ववर्ती एनडीए शासनकाल में समाज के सभी वर्गों के मध्‍य समानता का भाव स्थापित करने का प्रयास किया गया था। वहीं यूपीए सरकार ने इन पौने पांच वर्षों में वोट बैंक के लिए मुस्लिमों को सरकारी नौकरियों, विश्वविद्यालय और बैंक के कर्जों तक में आरक्षण देने की पहल की। तुष्टिकरण यहां तक बढ़ा कि सेना में मुस्लिमों की गिनती करवाने की पहल प्रारंभ कर सामाजिक ताने बाने को तोड़ने का कुत्सित प्रयास किया गया।

सामरिक और कूटनीतिक दृष्टि से एनडीए सरकार ने कारगिल विजय से लेकर लाहौर घोषणा पत्र तक आतंकवाद और पाकिस्तानी घुसपैठ पर प्रभावी नियंत्रण स्थापित किया था। यूपीए सरकार कश्मीर में सेना हटाने से लेकर सियाचीन और सरक्रीक के मुद्दों पर कूटनीतिक तौर पर पूरी तरह विफल हो रही है। वहीं अन्य पड़ोसी देश जैसे नेपाल, श्रीलंका, बंग्लादेश और अफगानिस्तान में आतंकवादी एवं विध्‍वंसक गतिविधियों के कारण स्थितियां बेकाबू हो रही हैं। केन्द्र की यूपीए सरकार मूक-दर्शक बनी हुई है।

सरकार के समय महंगाई नियंत्रण से लेकर राशन, गैस, दूध, फल, सब्जी और नमक आदि तमाम दैनिक उपयोग की वस्तुओं के साथ-साथ आम आदमी का सपना कहे जाने वाला एक अदद मकान भी आम आदमी की पहुंच में था। आज बढ़ती हुई महंगाई और बढ़ती ब्याज दरों से सब कुछ आम आदमी की पहुंच से दूर होता चला जा रहा है। बेलगाम बढ़ती महंगाई से आम आदमी की कमर टूट गई है। लोग त्राहि-त्राहि कर रहे हैं।

एनडीए सरकार ने पूर्ववर्ती सरकारों से अलग हटकर कुछ एकदम नये प्रयोग किये थे जैसे राष्ट्रीय राजमार्ग परियोजना, प्रधानमंत्री ग्राम सड़क परियोजना, आई.टी सेक्टर का विकास, विनिवेश और परमाणु परीक्षण आदि। ये ऐसे अभिनव कार्य थे, जिन्होंने एक नये भारत के स्वरूप की आधारशिला रखी।

भाजपा नेतृत्व की एनडीए सरकार के पास भारत के समग्र विकास और एक वैश्विक महाशक्ति बनने की व्यापक दृष्टि थी। एनडीए सरकार भारत की राजनीति और अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति में एक युगांतर स्थापित किया था।

इस प्रकार अंतर्राष्ट्रीय जगत में भारत की एक नई स्थिति बनी। इस प्रक्रिया ने भारत की सामरिक शक्ति को ही विश्व में स्थापित नहीं किया बल्कि अप्रवासी भारतीयों की भारत के साथ भावनात्मक संबंधों को भी व्यावहारिक और देश के प्रगति के लिए एक आर्थिक माध्‍यम के रूप में स्थापित किया। इसके साथ एनडीए सरकार ने टेक्नालॉजी के क्षेत्र में अद्भुत प्रगति की, खाद्यान्न और कृषि के क्षेत्र में अग्रणी हो गये और सभी चुनौतियों को पार करके भारत एक आर्थिक महाशक्ति के रूप में विश्व के सामने आया। कोई भी देश केवल सामरिक शक्ति के द्वारा सैन्य महाशक्ति नहीं बन सकता। उसके लिए कूटनीतिक दक्षता भी परमआवश्यक है। एनडीए के शासनकाल में कूटनीति के धरातल पर हमारी सबसे बड़ी विशेषता यह रही कि हमने पाकिस्तान के साथ भारत की तुलना का युग समाप्त कर दिया।

एनडीए सरकार ने विश्व व्यापार संगठन की सिएटल (1999) और दोहा (2001) के माध्‍यम से संपूर्ण विश्व व्यापार पर पश्चिमी देशों और अमेरिका के वर्चस्व को समाप्त किया। विश्व व्यापार संगठन की आंतरिक व्यवस्था को अधिक लोकतांत्रिक बनाया। विश्व के इतिहास में पहली बार आर्थिक कूटनीति में भी भारत की विजय हुई। बेहतरीन कूटनीति के चलते भारत स्पष्ट रूप से विश्व की एक सैन्य-आर्थिक शक्ति के रूप में स्थापित हुआ।

भाजपा नेतृत्व की एनडीए सरकार के समय में आदरणीय अटल जी के नेतृत्व में भारत सिर्फ एक हार्ड पावर या सैन्य-आर्थिक शक्ति ही नहीं बल्कि एक सॉफ्ट पावर या सौम्य-सांस्कृतिक शक्ति के रूप में भी विश्व के सामने उभर कर आया। भारत की वास्तविक शक्ति का समग्र रूप से उदय प्रारंभ हुआ था। यह सच्चे अर्थों में ''भारत उदय'' हो रहा था।

कई बार राजनीति में जनमानस तक संदेश को पहुंचाने में वर्षों का समय लग जाता है। यूपीए के इस पौने पांच साल के कुशासन को अनुभव करने के बाद देश का जनमानस एनडीए के शासन द्वारा भारत के वास्तविक उदय के प्रयासों की सार्थकता को अब बेहतर तरह से समझ रहा है।

आम जनता अब यह समझने लगी है कि ''आम आदमी का हाथ कांग्रेस के साथ'' जैसा नारा आम आदमी के साथ विश्वासघात है। कांग्रेस ने आम जनता को धोखा दिया है। केन्द्र की यूपीए सरकार ने भारत की आत्मा की सदैव उपेक्षा की है। वोट बैंक की राजनीति का घिनौना खेल खेल रही है। यूपीए सरकार चार वर्षों तक वामपंथियों की ताल पर ''ता-ता, थैय्या'' करती रही है।

इस कांग्रेसनीत यूपीए सरकार ने कांग्रेस के चुनाव घोषणा पत्र में तथा निर्वाचन के बाद न्यूनतम साझा कार्यक्रम में किए गए किसी भी वादे को निभा नहीं पाई है।

आज यूपीए के शासन में यदि विकास की थोड़ी बहुत झलक कहीं दिखाई भी पड़ती है तो ये पूर्ववर्ती एनडीए सरकार की इसी आधारशिला का विस्तार मात्र है। आज की यूपीए सरकार से जनता पूछ रही है कि इन पौने पांच सालों में उसने एक भी नया प्रयोग विकास कार्य के लिए किया है? यदि किया है तो देश को बतायें। सच तो यह है कि उपलब्धियों के नाम पर वर्तमान केन्द्र की यूपीए सरकार की झोली खाली है इन साढ़े चार वर्षों में कांग्रेसनीत यूपीए सरकार चार उपलब्धियां भी गिना पाने में असमर्थ है।

क्रमश:

Friday, 23 January 2009

भ्रष्‍ट हुआ लाल खून


भारत की कम्‍युनिस्‍ट पार्टी (मार्क्‍सवादी) के खून में हैं भ्रष्‍टाचार। भ्रष्‍टाचार बन गया हैं माकपा का शिष्‍टाचार। परत दर परत माकपा के भ्रष्‍टाचार की पोल खुल रही हैं। माकपा शासित प्रदेशों में घोटालों का अंतहीन सिलसिला जारी हैं। सीबीआई ने भ्रष्टाचार के एक मामले में मार्क्‍सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) की केरल इकाई के राज्‍य सचिव व पूर्व मंत्री पिनारई विजयन के खिलाफ आरोप पत्र दायर करने की पूरी तैयारी कर ली है। विजयन पर आरोप है कि वर्ष 1997 में उन्होंने एक कनाडियाई कंपनी को ठेका देने के एवज में पैसे लिए थे। हम यहां आज 'नईदुनिया' में प्रकाशित संपादकीय को साभार प्रस्‍तुत कर रहे हैं-

भ्रष्‍ट हुआ लाल खून
नईदुनिया की संपादकीय टिप्‍पणी

मार्क्‍सवादी कम्‍युनिस्‍ट पार्टी (माकपा) के पोलित ब्‍यूरो सदस्‍य और केरल के महासचिव पी विजयन का 110 करोड रुपए के घोटाले में फंसा होना और उन पर कार्रवाई के लिए सीबीआई की पहल ने एक बार फिर कम्‍युनिस्‍ट नेत्रित्‍व की ईमानदारी पर सवालिया निशान लगा दिया है।

इस मामले ने इस बात को उजागर कर दिया है कि भ्रष्‍टाचार माकपा में गहरी जडें जमा चुका है।

मामला पुराना है और इसमें सीबीआई ने 1000 पेज की रिपोर्ट उच्‍च न्‍यायालय में सौंप दी और राज्‍यपाल से विजयन के खिलाफ कार्रवाई की अनुमति मांगी है। यह साफ है कि इस बार माकपा बहुत गहरे फंसी है। इसमें खुद को पाक-साफ साबित करने के लिए विजयन को पद से हटाने के बजाय माकपा बेशर्मी से इसे अपने राजनीतिक विरोधियों की साजिश बता रही है।

यूं तो केरल में माकपा और उसके वरिष्‍ठ नेताओं पर बडे पैमाने पर संपत्ति अर्जि‍त करने के मामले पहले भी आते रहे हैं लेकिन इतना बडा मामला और वह भी खुद पार्टी के राज्‍य महा‍सचिव पर, इस बात को उजागर करता है कि भ्रष्‍टाचार वहां माकपा में गहरी जडें जमा चुका है। मामला 1996 का है जब राज्‍य के उर्जा मंत्री पी विजयन ने कनाडा की कंपनी एसएनसी-लेवलिन को तीन हाइडिल प्रोजेक्‍ट दुरुस्‍त करने का ठेका दिया था। सौदे में राज्‍य के उर्जा सुधार पैनल की सिफारिशों का उल्‍लंघन किया गया। उस समय भी विरोध माकपा के भीतर से ही हुआ था और सौदे में दलाली की बात उठी। सौदे के तहत समझौते पत्र पर हस्‍ताक्षर किए गए थे उसके मुताबिक कंपनी को 89 करोड रुपए थेलसरी में एक कैंसर अस्‍पताल को दिए जाने थे। इन 89 करोड रुपयों में से सिर्फ 8.98 करोड रुपए ही अस्‍पताल तक पहुंचे। इसके अलावा खुद कैग की रिपोर्ट में भी उजागर हुआ कि हाइडिल प्रोजेक्‍ट के पुनरुद्धार से कोई फायदा नहीं हुआ। शुरू से संदेह के घेरे में रहे इस सौदे में माकपा के शीर्ष नेत्रित्‍व की जो भूमिका रही वह निंदनीय है। गरीबों के हक के लिए लाल झंडा पार्टी करोडों रुपए की दलाली में लिप्‍त मिलेगी तो बाकी भ्रष्‍टाचारों पर कौन आवाज उठाएगा।

Thursday, 22 January 2009

माकपा के राज्‍य सचिव आकंठ भ्रष्‍टाचार में डूबे

भारत की कम्‍युनिस्‍ट पार्टी (मार्क्‍सवादी) का चरित्र बन चुका हैं भ्रष्‍टाचार। भ्रष्‍टाचार बन गया हैं माकपा का शिष्‍टाचार। परत दर परत माकपा के भ्रष्‍टाचार की पोल खुल रही हैं। पश्चिम बंगाल, केरल, त्रिपुरा जहां माकपा सत्‍ता में हैं घोटालों का अंतहीन सिलसिला जारी हैं। आज के समाचार-पत्रों में यह खबर प्रमु‍खता से प्रकाशित हुई है कि सीबीआई ने भ्रष्टाचार के एक मामले में मार्क्‍सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) की केरल इकाई के राज्‍य सचिव व पूर्व मंत्री पिनारई विजयन के खिलाफ आरोप पत्र दायर करने की पूरी तैयारी कर ली है। विजयन पर आरोप है कि वर्ष 1997 में उन्होंने एक कनाडियाई कंपनी को ठेका देने के एवज में पैसे लिए थे।

उल्लेखनीय है कि गत वर्ष भी माकपा मुखपत्र देशाभिमानी पर एक फरार लाटरी माफिया सांतियागो मार्टिन से दो करोड़ रुपए लेने का खुलासा हुआ था। पिनरई गुट के वरिष्ठ नेता जयराजन देशाभिमानी के महाप्रबंधक हैं और पिनरई के पक्के अनुयायी हैं। इसके पहले केरल के कम्युनिस्ट नेताओं ने शराब माफिया से धन लिया। कुछ दिनों पहले कोलम और तिरुअनंतपुरम् में शराब से हुई मौतों के बारे में जांच कर रहे न्यायमूर्ति वी.पी. मोहनकुमार आयोग ने तीन प्रमुख कम्युनिस्ट नेताओं को इस कांड में आरोपी पाया। ये नेता हैं- श्रीमती भार्गवी थंकाप्पन (भाकपा), कड़कमपल्ली सुरेन्द्रम् और एम. सत्यनेसन (माकपा)। जांच आयोग की रपट के अनुसार इन तीनों ने शराब व्यापारी मणिकन से भारी मात्रा में धन लेकर उसे लाभ पहुंचाया।


माकपा नेता पर कसा सीबीआई का शिकंजा
By IANS on Wednesday, January 21, 2009

केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) ने 12 साल पुराने भ्रष्टाचार के एक मामले में मार्क्‍सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) की केरल इकाई के वरिष्ठ नेता व पूर्व मंत्री पिनारई विजयन के खिलाफ आरोप पत्र दायर करने की पूरी तैयारी कर ली है।

विजयन पर आरोप है कि वर्ष 1997 में उन्होंने एक कनाडियाई कंपनी को ठेका देने के एवज में पैसे लिए थे।

सीबीआई के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया, “राज्यपाल की संस्तुति के बाद केरल उच्च न्यायालय में आरोप पत्र दाखिल किए जाने की उम्मीद है।” उन्होंने कहा कि आरोपी यदि मंत्री या पूर्व मंत्री है तो नियमानुसार राज्यपाल की संस्तुति लेना अनिवार्य है।

सीबीआई ने बुधवार को उच्च न्यायालय में मामले की जांच से जुड़ी रिपोर्ट पेश की। इस रिपोर्ट को सीबीआई की अदालत में भी पेश किया गया। अदालत ने पिछले साल सितम्बर महीने में सीबीआई को चार महीने में जांच पूरी कर लेने का निर्देश दिया था।

http://sify.com/hindi

CBI finds Pinarayi guilty in Lavalin scam, moralistic CPM yet to act

22 Jan 2009, 0500 hrs IST, ET Bureau

NEW DELHI: CPM’s cultivated ‘holier than thou’ image was blown to smithereens on Wednesday when the CBI implicated polit bureau member and Kerala
unit secretary Pinarayi Vijayan in the multi-crore SNC Lavalin case. The CPM, which goes off the collective rocker and demand resignations when rival politicians are confronted with similar situations, was silent on the action it proposes against the powerful party leader.

The CBI, which filed a progress report on the investigations in the case in the Kerala high court, has named Mr Vijayan, who was the state’s power minister, as the ninth accused in the case. The CBI has sought the governor’s permission to file a chargesheet that accuses Mr Vijayan and 10 others, including some officials, of receiving kickbacks for allotting a contract to the Canadian firm in 1997.

The Comptroller and Auditor General of India had found irregularities in the contract with SNC Lavalin of Canada for renovation and modernisation of the Pallivassal, Chengulam and Panniyar hydro-electric projects in Idukki district. Mr Vijayan had played the lead role in reworking the deal signed between KSEB and SNC Lavalin.

He had led a high-level official team to Montreal to revise the Lavalin contract. The consultancy contract was expanded to include a supply contract for procuring equipment. While the consultancy fee remained unaltered, the government committed an additional Rs 149.15 crore for buying equipment.

The Kerala government team had also negotiated a sub-deal with the company. Lavalin committed itself to mobilise Rs.98.3 crore for a party controlled cancer hospital in north Kerala. But the company paid only Rs 9 crore to the hospital.

CAG reported that the entire Rs 374.50 crore spent on the renewal projects went down the drain as the company did not complete the renewal process. Officials say that while replaced equipment have become unserviceable, not an extra megawatt of power is being generated from the three hydroelectric projects.

The timing of the chargesheet cannot but be discomforting for the Communists. While it will incapacitate it from taking up probity related issues, it has given the Congress a handle to beat the Left in Kerala.

But there will be one section in CPM rejoicing over the troubles confronting Mr Vijayan: The loyalists of chief minister V S Achuthanandan. The corruption case against Pinarayi will considerably demoralise his camp followers. Incidentally, the state Cabinet is dominated by Pinarayi’s men.

CPM will find it difficult to fend off demands for removing Vijayan from the top post. It was only last week that the party suspended one of its MPs for arguing the need for a robust development agenda and a hassle-free atmosphere. The MP had said the party should emulate Gujarat chief minister Narendra Modi’s development agenda.

http://economictimes.indiatimes.com/

Tuesday, 20 January 2009

अर्थनीति और हम (3) : दीनदयाल उपाध्याय

वर्तमान आर्थिक हालात ने देशवासियों के माथे पर चिंता की लकीरें खींच दी हैं। आजादी के बाद भारत ने स्वदेशी अर्थ-चिंतन को दरकिनार कर मिश्रित अर्थव्यवस्था को अपनाया। साम्यवाद और समाजवाद के कॉकटेल से उपजी इस अर्थव्यवस्था का परिणाम आज हमें स्पष्ट दिखाई दे रहा है। अमीरी और गरीबी के बीच फासला निरंतर गहराता जा रहा है। वहीं भूमंडलीकरण के बहाने तमाम बहुराष्ट्रीय कंपनियां गांवों तक पहुंच रही हैं और परंपरागत कृषि व्यवस्था पर चोट कर रही हैं। एकात्ममानव दर्शन के प्रणेता दीनदयालजी कहते थे, 'आर्थिक योजनाओं तथा आर्थिक प्रगति का माप समाज के ऊपर की सीढ़ी पर पहुंचे व्यक्ति से नहीं, बल्कि सबसे नीचे के स्तर पर विद्यमान व्यक्ति से होगा।'

भारत आखिर कैसे अठारहवीं शताब्दी तक विश्व का सर्वाधिक समृध्द देश था और आज क्यों आम जनता की आर्थिक स्थिति के मामले में संयुक्त राष्ट्र संघ के 54 सर्वाधिक गरीब देशों में गिना जाता है। हम यहां भारतीय अर्थ-चिंतन के बारे में देश के प्रख्यात चिंतकों के लेख प्रस्तुत करेंगे। प्रस्तुत है पं. दीनदयाल उपाध्याय के विचार-


अर्थनीति और हम (1)
अर्थनीति और हम (2)

विकेन्द्रित अर्थ-व्यवस्था
इसके लिए विकेन्द्रित अर्थ-व्यवस्था चाहिए। स्वयंसेवी क्षेत्र (Self Employed Sector) को खड़ा करना होगा। यह क्षेत्र जितना बड़ा होगा उतना ही मनुष्य आगे बढ़ सकेगा, मनुष्यता का विकास हो सकेगा, एक मनुष्य दूसरे मनुष्य का विचार कर सकेगा।

आजकल राष्ट्रीय आय का विचार 'औसत के सिध्दांत' (Law of Average) के आधार पर किया जाता है, पर यह बहुत बड़ा भ्रम है। राष्ट्रीय आय बढ़ती जाने के बाद भी देश की गरीबी बढ़ती जा रही है। यह क्यों? राष्ट्रीय आय के बढ़ने का अर्थ है प्रत्येक व्यक्ति की आय बढ़े। प्रत्येक को काम दिया जाय तो गरीबी घटेगी, प्रत्येक की आय में वृध्दि होगी। यह सत्य है कि कम मनुष्यों का उपयोग करने वाली बड़ी मशीनों के द्वारा भी उत्पादन बढ़ सकता है, पर वह हमारे देश के लिए उपयुक्त नहीं। गांधीजी कहा करते थे, ''मैं विशाल उत्पादन चाहता हूं परन्तु विशाल जनसमूह के द्वारा। (I want mass production by masses as well)

प्रत्येक मनुष्य की व्यक्तिश: आवश्यकताओं और विशेषताओं का विचार करके उसे काम देने पर उसके गुणों का विकास हो सकता है। यदि इसी चीज को खेती के क्षेत्र में लाकर देखें तो सहकारी खेती का अंतिम चित्र होगा। 'ग्राम-व्यवस्था' (Village Management) में किसान का स्वतंत्र अस्तित्व समाप्त हो जायेगा। अभी मैं उत्पादन के प्रश्न को नहीं उठाता, वह दूसरे नम्बर पर है। प्रथम बात तो यह है कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता छिन जाने के कारण सुख के स्थान पर दु:ख आता चला जायेगा। आर्थिक क्षेत्र में स्वतंत्रता समाप्त हुई तो राजनीतिक क्षेत्र में भी समाप्त हो जाती है। समाजवाद और प्रजातंत्र साथ-साथ नहीं चल सकते। सच्चे प्रजातंत्र का आधार आर्थिक विकेन्द्रीकरण ही हो सकता है, अत: सिध्दांतत: हमें छोटे-छोटे उद्योगों को ही अपनाना चाहिए।

बेकारी का प्रश्न
अब व्यावहारिक दृष्टि से देखें। हमारी योजनाएं श्रमप्रधान होनी चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को काम मिलना चाहिए। आज की योजनाओं की सबसे बड़ी खराबी यह है कि उनमें देश की स्थिति और आवश्यकताओं का विचार नहीं किया गया। पश्चिम हमें बड़ी-बड़ी मशीनें दे रहा है, हम लेते जा रहे हैं। एक ऐसी अर्थ-व्यवस्था लाई जा रही है जिसके कारण देश की बेकारी बढ़ती जा रही है। यदि बेकारी कम होने के स्थान पर बढ़ती ही गयी तो देश की प्रगति का आधार क्या है? यह मैं मान सकता हूं कि बेकारी एकदम दूर नहीं हो सकती, पर योजनाएं बनाने से पहले हमें 'प्रत्येक व्यक्ति को काम' के सिध्दांत को मान्यता देनी पड़ेगी। यदि इसे मान लिया गया तो योजनाओं की दिशा एवं स्वरूप बदल जायेगा भले ही बेकारी धीरे-धीरे दूर हो।

आजकल राष्ट्रीय आय का विचार 'औसत के सिध्दांत' (Law of Average) के आधार पर किया जाता है, पर यह बहुत बड़ा भ्रम है। राष्ट्रीय आय बढ़ती जाने के बाद भी देश की गरीबी बढ़ती जा रही है। यह क्यों? राष्ट्रीय आय के बढ़ने का अर्थ है प्रत्येक व्यक्ति की आय बढ़े। प्रत्येक को काम दिया जाय तो गरीबी घटेगी, प्रत्येक की आय में वृध्दि होगी। यह सत्य है कि कम मनुष्यों का उपयोग करने वाली बड़ी मशीनों के द्वारा भी उत्पादन बढ़ सकता है, पर वह हमारे देश के लिए उपयुक्त नहीं। गांधीजी कहा करते थे, ''मैं विशाल उत्पादन चाहता हूं परन्तु विशाल जनसमूह के द्वारा। (I want mass production by masses as well)

निर्यात का छलावा
अब बड़ी मशीनों के आधार पर जो उत्पादन बढ़ाने का प्रयास चल रहा है उससे देश में बेकारी तो बढ़ ही रही है, विदेशी ऋण भी बढ़ता जा रहा है। आज हमारे राष्ट्र की पूरी आय के 55 प्रतिशत से अधिक हम पर ऋण है। बढ़ते हुए विदेशी ऋण के कारण विदेशी मुद्रा विनिमय की समस्या खड़ी हो गयी है, अत: उसके कारण हमारा नारा 'उत्पादन करो या मर जाओ' के स्थान पर 'निर्यात करो या मर जाओ' हो गया है। हमारी भावी योजनाएं निर्यात पर आधारित होने के कारण जो चीज हम पैदा करते हैं उसका भी उपयोग नहीं कर पाते। उदाहरणार्थ, चीनी का हम स्वयंपूर्ण बाजार खड़ा कर सकते थे पर हमें विदेशी मुद्रा की प्राप्ति के लिए चीनी सस्ते मूल्य पर बेची जा रही है। अपनी गाय-भैसों को खली और भूसा न खिलाकर हम विदेशों को भेज रहे हैं और दूध के डिब्बों का आयात कर रहे हैं। वेजिटेबिल घी बनाने वाली मशीनों को मंगा रहे हैं।

आज हम देश की प्रगति का हिसाब मशीनों में लगाते हैं। एक सज्जन ने अमेरिका की तुलना में भारत के पिछड़ेपन का उल्लेख करते हुए इस्पात के उपभोग को मानदंड के रूप में प्रस्तुत किया। अत: उन्होंने कहा कि पूरी शक्ति लगाकर अमेरिका के बराबर पहुंचना चाहिए। पर वे यह भूल गये कि अब तो प्लास्टिक का युग प्रारंभ हो गया है। अगर पांच-दस साल में हम इस्पात के उत्पादन में अमेरिका के बराबर पहुंच भी गये तो आर्थिक प्रगति का मापदंड 'प्लास्टिक' का उपयोग हो जायेगा और हम पुन: पिछड़े के पिछड़े रह जायेंगे। अत: हम जीवनस्तर का ठीक निश्चय करें।

इसका विचार करके ही हम उत्पादन के साधनों का निश्चय करें। यदि अधिक आदमियों का उपयोग करने वाले छोटे-छोटे कुटीर उद्योग अपनाये गये तो कम पूंजी तथा मशीनों की आवश्यकता पड़ेगी जिससे नौकरशाही का बोझ कम होगा, विदेशी ऋण को भी नहीं लेना पड़ेगा, देश की सच्ची प्रगति होगी तथा प्रजातंत्र की नींव पक्की हो जायेगी।

अर्थनीति और हम (२): दीनदयाल उपाध्याय

वर्तमान आर्थिक हालात ने देशवासियों के माथे पर चिंता की लकीरें खींच दी हैं। आजादी के बाद भारत ने स्वदेशी अर्थ-चिंतन को दरकिनार कर मिश्रित अर्थव्यवस्था को अपनाया। साम्यवाद और समाजवाद के कॉकटेल से उपजी इस अर्थव्यवस्था का परिणाम आज हमें स्पष्ट दिखाई दे रहा है। अमीरी और गरीबी के बीच फासला निरंतर गहराता जा रहा है। वहीं भूमंडलीकरण के बहाने तमाम बहुराष्ट्रीय कंपनियां गांवों तक पहुंच रही हैं और परंपरागत कृषि व्यवस्था पर चोट कर रही हैं। एकात्ममानव दर्शन के प्रणेता दीनदयालजी कहते थे, 'आर्थिक योजनाओं तथा आर्थिक प्रगति का माप समाज के ऊपर की सीढ़ी पर पहुंचे व्यक्ति से नहीं, बल्कि सबसे नीचे के स्तर पर विद्यमान व्यक्ति से होगा।'

भारत आखिर कैसे अठारहवीं शताब्दी तक विश्व का सर्वाधिक समृध्द देश था और आज क्यों आम जनता की आर्थिक स्थिति के मामले में संयुक्त राष्ट्र संघ के 54 सर्वाधिक गरीब देशों में गिना जाता है। हम यहां भारतीय अर्थ-चिंतन के बारे में देश के प्रख्यात चिंतकों के लेख प्रस्तुत करेंगे। प्रस्तुत है पं. दीनदयाल उपाध्याय के विचार-


अर्थनीति और हम(पहला भाग)
अर्थनीति और हम(तीसरा भाग)

समन्वय आवश्यक
आर्थिक कार्यक्रम का स्थान भारत के सम्पूर्ण कार्यक्रम में उतना ही है, जितना भारतीय संस्कृति में 'अर्थ' का है। पाश्चात्य संस्कृति भौतिकवादी होने के कारण अर्थ-प्रधान है।

भारतीय संस्कृति ने एक विचार किया कि मनुष्य विविधताओं का स्वाभाविक विकास करते हुए भी आंतरिक एकात्मता की अनुभूति करता चले। व्यक्ति की स्वतंत्रता सर्वप्रथम है। जब टाटा-बिरला, व्यक्ति-स्वातंत्र्य या मुक्त प्रेरणा की बात करते हैं तो उसका अभिप्राय होता है, उनकी अपनी स्वतंत्रता, उनके कारखानों में गुलाम बने हुए लाखों-करोड़ों मजदूरों की स्वतंत्रता नहीं। हमें तो लाखों-करोड़ों मानवों की स्वतंत्रता का विचार करना है। शक्ति चाहे वह राजनीतिक हो या आर्थिक। केन्द्रीकरण से व्यक्ति-स्वातंत्र्य समाप्त हो जाता है। पूंजीवाद और समाजवाद दोनों केन्द्रीकरण के हामी हैं।

हम भौतिकवाद तथा अध्यात्मवाद दोनों का समन्वय करके चलना चाहते हैं। अत: यह निश्चित है कि उन अर्थशास्त्रियों एवं दलों से जो अर्थ के सामने जीवन के प्रत्येक मूल्य की उपेक्षा करके चलना चाहते हैं, हम सहमत नहीं हैं। भारतीय मनीषा हृदय, मस्तिष्क और शरीर तीनों का सम्मिलित विचार करती है। कुछ लोग हम पर यह आरोप भी लगाते हैं कि हम आध्यात्मिकता की उपेक्षा करते हैं, महर्षि अरविंद आदि आध्यात्मिक महापुरुषों की भाषा नहीं बोल पाते हैं। हम दोनों ही प्रकार के आरोपों का स्वागत करते हैं और इतना ही कहना चाहते हैं कि जो अर्थ समाज की धारणा के लिए आवश्यक है, जितने से व्यक्ति अपना भरण-पोषण करके अन्य श्रेष्ठ मूल्यों की प्राप्ति के लिए प्रयास कर सके, उसको ही हम महत्व देते हैं।

आज विश्व में दो प्रकार के आर्थिक विचार चल रहे हैं- पूंजीवाद, समाजवाद अथवा साम्यवाद। यद्यपि हमारी विदेश-नीति तटस्थ है पर विदेश-नीति के समान ही हमें वैचारिक क्षेत्र में भी तटस्थ रहना चाहिए।

व्यवस्था नहीं, मनुष्य का सुधार
कुछ लोग पश्चिमी विचारधाराओं में पले हैं और उन विचारधाराओं में प्रयुक्त शब्दावली के आधार पर ही दुनिया की सब चीजों को समझ सकते हैं। यदि हम सूक्ष्म विश्लेषण करें तो दिखाई पड़ेगा कि दोनों दोषों का मूल कारण एक है। उनकी जड़ें अलग-अलग नहीं हैं। अत: हम यह खोजें कि बुराई कहां हैं? बुराई का वास्तविक कारण व्यवस्था नहीं मनुष्य है। मनुष्य ही प्रथम आता है। बुरा व्यक्ति अच्छी से अच्छी व्यवस्था में घुसकर बुराई फैला देगा। समाज की प्रत्येक परम्परा और व्यवस्था किसी न किसी अच्छे व्यक्ति द्वारा प्रारम्भ की गयी। उसी अच्छी परम्परा पर जब बुरा व्यक्ति आ बैठा तो वहां बुराई आ गई। राज्य संस्था को ही लें। क्या रामचन्द्र जी राजा नहीं थे? जहां उन्होंने अपने श्रेष्ठ जीवन से राज्य संस्था के गौरव में वृध्दि की, वहां अनेकों ने दोषों से उसी को इतना अपवित्र कर दिया कि कई बार राज्य संस्था का नाम लेने से चिढ़ उत्पन्न होती है। इसी दृष्टि से निजी तथा सार्वजनिक क्षेत्र के संघर्ष की ओर देखें। यदि कोई व्यक्ति निजी क्षेत्र में स्वतंत्र रहकर बुराई करता है तो उसके स्थान पर राज्य का व्यक्ति बैठा देने पर भी बुराई फैलेगी। अत: हमारा ध्यान व्यक्ति की कर्तव्य भावना को जगाने पर केन्द्रित होना चाहिए।

'आर्थिक मनुष्य' की भ्रामक कल्पना
परन्तु हुआ क्या? व्यक्ति की ओर दुर्लक्ष्य हुआ और बाह्य व्यवस्था पर जोर दिया गया। निर्जीव व्यवस्था के सामने चेतन मनुष्य नगण्य माना गया। व्यक्ति के अंदर विद्यमान सद्गुणों के विकास करने के स्थान पर उनका ह्रास करने वाले उपायों का ही अवलम्बन किया गया। राष्ट्र-निर्माण की योजनाएं बनाने वालों ने इस तथ्य को सर्वदा भुला दिया कि प्रयास करने पर मनुष्य मानव से देवता बन सकता है। उन्होंने मानव का गर्हित स्वरूप ही सामने लाकर रखा है। वे पूंजीवाद के आधार में एक ऐसे मनुष्य की कल्पना करके चलते हैं जो विशुध्द 'आर्थिक मनुष्य'(Economic Man) है। यह केवल एक कल्पना है। ऐसा कोई व्यक्ति न कभी पैदा हुआ है और न होगा। ऐसा कभी नहीं हो सकता कि मनुष्य का, चाहे वह पूंजीपति हो या मजदूर, प्रत्येक कार्य अर्थ की दृष्टि से होता हो। वह 'अर्थ' का विचार भले ही करता होगा पर उसके कार्य का प्रेरक अर्थ ही नहीं हो सकता। अर्थ-शास्त्र के नियमों की कसौटी पर यदि मानवीय व्यवहार को कसा जाय तो आपको कहीं भी 'आर्थिक मनुष्य' के दर्शन नहीं होंगे, बल्कि उससे कहीं विशाल सम्पूर्ण मानव का अस्तित्व दिखाई देगा।

पूंजीवाद का आधार यदि आर्थिक मनुष्य माना गया तो उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप समाजवाद ने 'सामूहिक मनुष्य' (Mass Man) कल्पना की। मनुष्य को एक प्रकार (Type) मान लिया। उस सामूहिक मनुष्य की आर्थिक आवश्यकताओं को पूर्ण करने का लक्ष्य ही सामने रखा। उसके जीवन की अन्य आवश्यकताओं की पूरी उपेक्षा कर दी गयी। दोनों व्यवस्थाओं में मनुष्यता का विचार नहीं है।

मनुष्य पुर्जा बन गया
मनुष्यता की व्याख्या कठिन है। अनेक बातें समान होते हुए भी प्रत्येक मनुष्य में कुछ न कुछ विशिष्टता है। उसकी विविधताओं का विचार आवश्यक है। भारतीय संस्कृति ने एक विचार किया कि मनुष्य विविधताओं का स्वाभाविक विकास करते हुए भी आंतरिक एकात्मता की अनुभूति करता चले। व्यक्ति की स्वतंत्रता सर्वप्रथम है। जब टाटा-बिरला, व्यक्ति-स्वातंत्र्य या मुक्त प्रेरणा की बात करते हैं तो उसका अभिप्राय होता है, उनकी अपनी स्वतंत्रता, उनके कारखानों में गुलाम बने हुए लाखों-करोड़ों मजदूरों की स्वतंत्रता नहीं। हमें तो लाखों-करोड़ों मानवों की स्वतंत्रता का विचार करना है। शक्ति चाहे वह राजनीतिक हो या आर्थिक। केन्द्रीकरण से व्यक्ति-स्वातंत्र्य समाप्त हो जाता है। पूंजीवाद और समाजवाद दोनों केन्द्रीकरण के हामी हैं। पूंजीवाद में धीरे-धीरे मुक्त प्रतियोगिता समाप्त होकर आर्थिक शक्ति पर कुछ व्यक्तियों का एकाधिकार स्थापित हो जाता है। अमेरिका और पूंजीवादी देशों में जो बड़े-बड़े औद्योगिक साम्राज्य बसे हुए हैं, उनकी क्या स्थिति है? आज जितने संस्थान-विरोधी कानून (Anti trust Laws) अमेरिका में बनाने पड़े हैं, उतने कहीं भी नहीं है। वहां व्यवहार व्यक्तियों के साथ नहीं, फाइलों के साथ होता है। आर्थिक शक्ति को राज्य के हाथों में सौंपने वाले समाजवाद में भी ऐसा ही होता है। राज्य नौकरशाही भी यही करती है। परिणाम हो रहा है कि जीवन यंत्रवत् होता जा रहा है। मनुष्य का स्थान फाइलें ले रही हैं। मानवता समाप्त होती जाती है। दोनों व्यवस्थाओं में मनुष्य का विचार होता है तो परिमाणात्मक (Quantitative) आधार पर, न कि गुणात्मक (Qualitative) आधार पर।

मानव यंत्र का पुर्जा बन गया
जब तक एक-एक व्यक्ति की विशिष्टता-विविधता को ध्यान में रखकर उसके विकास की चिन्ता नहीं करेंगे तब तक मानवता की सच्ची सेवा नहीं होगी। समाजवाद और पूंजीवाद ने मनुष्य को व्यवस्था के निर्जीव यंत्र का एक पुर्जा मात्र बना डाला। एक स्वतंत्र जुलाहे को समाप्त कर उसे विशाल कारखाने का मजदूर बना दिया गया। बजाज के स्थान पर एक विभागीय स्टोर्स बना दिया गया। दर्जी के स्थान पर रेडिमेड कपड़ा लाकर रख दिया गया। मनुष्य यानी एक जन्तु, जो आठ घंटे यंत्रवत् मजदूरी करें और 16 घंटे खाये। कार्य और जीवन के बीच एक दीवार खड़ी हो गयी। पश्चिम के कई देशों में कहा जाता है, पांच दिन काम के और दो दिन छुट्टी के। उन दो दिनों में केवल मस्ती, केवल खाना-पीना और मौज, काम की बात भी नहीं। अर्थात् वे पांच दिन कमाई करते हैं और दो दिन जीवित रहते हैं। अत: हमें मनुष्य-मनुष्य के कमाई के साधनों का इस प्रकार निर्धारण करना होगा कि उसके कार्य और वास्तविक जीवन के बीच कोई खाई न रहे। हाड़-मांस के मनुष्य, जिसके पास हृदय, मस्तिष्क और शरीर तीनों की भूख है, का विचार करना होगा। अन्यथा कार्य के 8 घंटों का जो अमानवीय (Dehumanising) प्रभाव होता है, उसे समाप्त करने में ही उसके शेष 16 घंटे व्यतीत हो जाते हैं, उनके समाप्त होते ही वह पुन: उन 8 घंटों के चक्र में फंस जाता है।

हम पूंजीवाद और समाजवाद के चक्कर से मुक्त होकर मानवता का विचार करें। मानव जीवन के समस्त पहलूओं का विचार कर आर्थिक क्षेत्र में उत्पादन, वितरण और उपभोग के साधन तथा व्यवस्था बनायें। फिर उसके लिए विज्ञान का उपयोग करें। यह आवश्यक नहीं कि हम विज्ञान के पुराने प्रयोगों को ज्यों-का-त्यों अपना लें। आज हम पश्चिम की टेक्नॉलॉजी की आंख मूंदकर नकल कर रहे हैं। इसे बंद करना होगा और टेक्नॉलॉजी का प्रयोग मानवता के विकास के लिए करना होगा।

Monday, 12 January 2009

कम्‍युनिस्‍टों के लिए मुस्लिम सांप्रदायिकता नाम की कोई चीज नहीं होती

मा‌र्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता को आप अकसर सांप्रदायिकता के विरूद्ध विषवमन करते हुए सुन सकते हैं। लेकिन माकपा को जब भी मौका मिला है अवसरवाद की पराकाष्‍ठा को पार करते हुए उसने मुस्लिम सांप्रदायिकता की गोद में बैठने से कभी परहेज नहीं किया। व्‍यवहारिक धरातल पर माकपा के लिए मुस्लिम सांप्रदायिकता नाम की कोई चीज नहीं है। सांप्रदायिक पार्टी मुस्लिम लीग के साथ माकपा का गठबंधन तो जगजाहिर ही हैं। इन दिनों माकपा सांप्रदायिक मुस्लिम नेताओं को अपना नेता घोषित कर रही हैं। करे भी क्‍यों नहीं उसे मुस्लिम मत जो हथियाने हैं। राज्‍य में लगभग 25 प्रतिशत मुस्लिम मतदाता हैं। इसे देखते हुए माकपा मार्क्‍स, लेनिन, स्‍टालिन को भूल गई हैं और यासर अराफात और सद्दाम हुसैन के पोस्‍टर अपने अधिवेशनों में सजा रही हैं।

हाल ही में माकपा ने मुस्लिम लीग के बागी व वाम समर्थित विधायक के टी जलील को अपने पांच प्रमुख नेताओं में शुमार किया है जो राज्‍य सचिव पिनरयी विजयन का 'केरल यात्रा' के दौरान सहयोग करेंगे। विदित हो कि जलील आतंकवादी संगठन सिमी के नेता और युथ लीग के अध्‍यक्ष रहे हैं। चुनाव पूर्व अभियान के तहत यह यात्रा फरवरी माह के प्रारंभ में निकलेगी और प्रदेश के सभी विधानसभा क्षेत्रों को कवर करेगी।


Former League man is CPM poster boy
Monday, January 12,2009
SHAJU PHILIP
THIRUVANANANTHAPURAM,

I NDICATING that the CPI(M) has deposited high stakes in the Muslim vote bank in the coming LS elections, the party has roped in Muslim League rebel and Leftbacked MLA K T Jaleel as one of the five to accompany state secretary Pinarayi Vijayan during his Kerala Yatra, a poll-eve state tour to rev up the party machinery. The journey will begin early February and cover all Assembly constituencies in the state.
Jaleel, who defeated League heavyweight P K Kunhalikkutty in the last Assembly election, is an obvious misfit in the Pinarayi team. While the Muslim leader is not even a primary member of CPI(M), others in the escort are party central committee members A Vijayaraghavan and E P Jayarajan, and state committee members M V Govindan and T N Seema.

The team was fixed during the state committee meeting held last month. Jaleel has been selected for the high profile campaign bypassing several party leaders, let alone those from the Muslim community.

Jaleel, a fire brand SIMI leader during his college days, had been president of the Youth League, the youth outfit of the Muslim League. He parted ways with the League before the last Assembly elections, mainly in protest against the growing clout of the rich in the party.

“I am a hardcore religious man. That CPI(M) has included such a person in the Kerala Yatra reflects upon the party’s changing attitude towards religion,” said Jaleel. CPI(M) central committee member and convener of the Left Democratic Front, Vaikkom Vishwan told The Indian Express that Jaleel is keen to “propagate CPI(M) policies”. Asked about the impropriety of a former SIMI leader emerging as a key figure in the party secretary’s campaign against “communal fascism”, Vishwan said Jaleel’s past has no relevance now. “Our concern is only whether he is ready to cooperate with the party and sail with it,” he said.

It sounds an irony that a League renegade, a proclaimed believer in God, is being given the assignment to make inroads into the Muslim community at a time when party MP A P Abdullakutty, who stood for more space for religion in the party, is being pushed to the Communist periphery.

Party sources said the strategy behind Jaleel’s inclusion was only to woo Muslim voters, especially by whipping up community sentiments on strong anti-US, anti-Israel campaigns. Jaleel’s oratory skills would stand the party in good stead in the campaign against imperialism, a regular election plank of the Left in Muslim pockets. The choice of Jaleel also tells upon the ideological bankruptcy of the CPI(M) and its lack of confidence to address the Muslim mass with its own time-tested leaders.
Courtsey-Indian Express

सांप्रदायिकता को शह देना माकपा का चरित्र बन चुका है। यह पार्टी केवल कागजों में ही सिद्धांत को जगह देती है और जब वक्‍त आता है तो मुस्लिम वोट हथियाने के लिए सारे सिद्धांतों को ताक पर रख देती हैं।

Saturday, 10 January 2009

विरोध करार का नहीं जल्‍दबाजी का : बुद्धदेव भट्टाचार्य


मार्क्‍सवादी कम्‍युनिस्‍ट पार्टी के केंद्रीय नेता भारत-अमेरिका परमाणु करार के विरोध में रैली निकाल रहे हैं, बंद का आयोजन कर रहे हैं, धरना दे रहे हैं, सेमिनार कर रहे हैं वहीं दूसरी ओर पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुध्ददेव भट्टाचार्य कह रहे है हमने करार का विरोध नहीं किया, बल्कि इस करार को लेकर की गयी जल्दबाजी का विरोध किया। मुख्‍यमंत्री ने कहा कि प्रधानमंत्री से करार को लेकर जल्दबाजी न करते हुए बुश प्रशासन के अवसान का इंतजार करने का आग्रह किया था। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं के मानसिक दिवालिएपन का एक नायाब उदाहरण नीचे प्रस्तुत है।

कोलकाता, दैनिक जागरण :(30 दिसंबर, 2008) प. बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव ने कहा है कि माकपा या वामदल परमाणु करार के खिलाफ नहीं, बल्कि इसको लेकर की गई जल्दबाजी का विरोध कर रहे थे। वह राज्य की बिजली जरूरतों को पूरा करने के लिए परमाणु बिजली के लिए मार्ग प्रशस्त करने में जुट गए हैं। इस प्रयास के बाद राज्य विद्युत बोर्ड की यूनियन सीटू ने भी अपने प्रस्ताव में परिवर्तन कर परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम का समर्थन किया है। यह प्रस्ताव हाल ही में उत्तर चौबीस परगना में हुए सीटू के सम्मेलन में पेश किया गया।

Friday, 9 January 2009

वाम मोर्चे सरकार के अंत की शुरुआत, नंदीग्राम विधानसभा उपचुनाव में तृणमूल कांग्रेस जीती

नंदीग्राम में एक बार फिर सत्‍तारुढ़ वाममोर्चा सरकार को गहरा तगड़ा झटका लगा है। तृणमूल कांग्रेस ने ग्राम पंचायत और पंचायत समिति के चुनाव के बाद नंदीग्राम विधानसभा सीट पर हुए उपचुनाव में वाममोर्चा सरकार को रौंद डाला है।

नंदीग्राम विधानसभा सीट पर हुए उपचुनाव में आज तृणमूल कांग्रेस की प्रत्याशी फिरोजा बीबी ने जबरदस्‍त जीत दर्ज की। डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट सीडी लामा ने बताया कि फिरोजा बीबी ने भाकपा प्रत्याशी परमानंद भारती को 39,551 मतों से हराया। नंदीग्राम विधानसभा सीट पर उपचुनाव पांच जनवरी को कराया गया था और 80 फीसदी मतदाताओं ने अपने मताधिकार का इस्तेमाल किया था।

वही नंदीग्राम, जो दो साल पहले जमीन अधिग्रहण के सवाल पर हुए हिंसक आंदोलन और पुलिस की फायरिंग के चलते लंबे अरसे तक सुर्खियों में रहा था। उस फायरिंग में 14 लोग मारे गए थे। विदित हो कि इस सीट पर शुरू से ही वाममोर्चा का कब्‍जा रहा है। स्थानीय भाकपा विधायक मोहम्‍मद इलियास ने एक निजी टीवी चैनल के स्टिंग आपरेशन में फंसने के बाद अपने पद से इस्तीफा दे दिया था। उस मामले की जांच के लिए विधानसभा की एक विशेष समिति ने भी अपनी जांच में इलियास को दोषी पाया था। उनके इस्तीफे से खाली हुई सीट के लिए ही उपचुनाव हुये थे।

बीते दिनों हुए पश्चिम बंगाल के पंचायत चुनाव में नंदीग्राम और सिंगूर सहित कुछ स्थानों पर वाममोर्चा को करारी हार का सामना करना पड़ा था। पूर्वी मिदनापुर जिले में 30 वर्षो में पहली बार वाममोर्चा को हार का मुंह देखना पड़ा।

Thursday, 8 January 2009

अर्थनीति और हम : दीनदयाल उपाध्याय

वर्तमान आर्थिक हालात ने देशवासियों के माथे पर चिंता की लकीरें खींच दी हैं। आजादी के बाद भारत ने स्वदेशी अर्थ-चिंतन को दरकिनार कर मिश्रित अर्थव्यवस्था को अपनाया। साम्यवाद और समाजवाद के कॉकटेल से उपजी इस अर्थव्यवस्था का परिणाम आज हमें स्पष्ट दिखाई दे रहा है। अमीरी और गरीबी के बीच फासला निरंतर गहराता जा रहा है। वहीं भूमंडलीकरण के बहाने तमाम बहुराष्ट्रीय कंपनियां गांवों तक पहुंच रही हैं और परंपरागत कृषि व्यवस्था पर चोट कर रही हैं। एकात्ममानव दर्शन के प्रणेता दीनदयालजी कहते थे, 'आर्थिक योजनाओं तथा आर्थिक प्रगति का माप समाज के ऊपर की सीढ़ी पर पहुंचे व्यक्ति से नहीं, बल्कि सबसे नीचे के स्तर पर विद्यमान व्यक्ति से होगा।'

भारत आखिर कैसे अठारहवीं शताब्दी तक विश्व का सर्वाधिक समृध्द देश था और आज क्यों आम जनता की आर्थिक स्थिति के मामले में संयुक्त राष्ट्र संघ के 54 सर्वाधिक गरीब देशों में गिना जाता है। हम यहां भारतीय अर्थ-चिंतन के बारे में देश के प्रख्यात चिंतकों के लेख प्रस्तुत करेंगे। प्रस्तुत है पं. दीनदयाल उपाध्याय के विचार-
वर्तमान युग में आर्थिक समस्‍या अत्यंत विषम हो उठी है। इस समस्या को हल करने के विविध प्रकार पश्चिम के विद्वानों ने रखे हैं, किन्तु इन सभी का दृष्टिकोण एकांगी हो रहा है।
जिस प्रकार राजनीतिक लोकतंत्र में ग्राम-पंचायत आदि इकाइयों से लोकतंत्र उठकर ऊपर की ओर चलता है, उसी प्रकार आर्थिक लोकतंत्र में ग्राम तथा कुटीर उद्योगों और इसी प्रकार विकेंद्रीकरण के अनुसार किये जाने वाले कृषि उत्पादन केन्द्रों से उठकर लोकतंत्र ऊपर जाना चाहिए। साम्यवाद केंद्रित अर्थनीति का ही एक अंग है, अत: उसकी जड़ें आसमान में हैं, जबकि इस अर्थव्यवस्था की जड़ें धरती के भीतर गहरी घुसी हुई हैं।
उत्पादन पर अधिक बल देने के कारण अमेरिका आदि देशों में पूंजीवाद का प्रसार हुआ। नवाविष्कृत-यंत्र इस वृध्दिंगत उत्पादन के कारण बने और इन यंत्रों के स्वामी ही उत्पादन के स्वामी भी बन गये। लाभ में जब श्रमिकों को भाग नहीं मिला तब उनमें प्रतिक्रिया उत्पन्न हुई और उन्होंने एक नयी प्रणाली समाजवाद या साम्यवाद का विकास किया, जिसमें पुन: वितरण पर ही अधिक बल दिया गया और इसके लिए राज्य द्वारा व्यक्ति को कुचल कर भी रख दिया गया।

लेकिन उपभोग की ओर पश्चिम के विद्वानों का ध्यान नहीं गया, यद्यपि उपभोग ही उत्पादन और वितरण दोनों की धुरी है। पश्चिम ने अधिकाधिक उपभोग के अपने पुराने सिध्दांत को ही चलने दिया और उसमें संशोधन की जरूरत नहीं समझी। वास्तविकता यह है कि अधिकाधिक उपभोग का सिध्दांत ही मनुष्य के दु:खों का कारण है। उपभोग की लालसा यदि पूरी की जाय तो वह बढ़ती चली जाती है। वर्ग-संघर्ष, जिसके ऊपर समूचा साम्यवाद खड़ा है, ऐसे उपभोग के कारण ही उत्पन्न होता है। भारतीय मतवाद जब वर्ग-संघर्ष का खण्डन करता है, तब उसका तात्पर्य यही होता है कि उसने उपभोग को नियंत्रित कर लिया है तथा अधिकाधिक उपभोग के बजाय न्यूनतम उपभोग को आदर्श बनाया है। मनुष्य की प्रकृत भावनाओं का संस्कार करके उसमें अधिकाधिक उत्पादन, समान वितरण तथा संयमित उपभोग की प्रवृति पैदा करना ही आर्थिक क्षेत्र में संस्कृति का कार्य है। इसमें ही तीनों का संतुलन है।

आर्थिक लोकतंत्र
भारतीय चेतना प्रकृति से प्रजातंत्रीय है और आज का युग भी प्रजातंत्र की ओर बढ़ रहा है। राजनीति के क्षेत्रों में यह प्रजातंत्र का भाव बहुत कुछ स्पष्ट होकर आया है तथा अब आर्थिक क्षेत्र में भी इसी प्रजातंत्र का उदय हो रहा है। राजनीतिक शक्ति का प्रजा में विकेंद्रीकरण करके जिस प्रकार शासन की संस्था का निर्माण किया जाता है, उसी प्रकार आर्थिक शक्ति का भी प्रजा में विकेंद्रीकरण करके अर्थव्यवस्था का निर्माण और संचालन होना चाहिए। राजनीतिक प्रजातंत्र में व्यक्ति की अपनी रचनात्मकता क्षमता को व्यक्त होने का पूरा अवसर मिलता है। ठीक इसी प्रकार आर्थिक प्रजातंत्र में भी व्यक्ति की क्षमता को कुचलकर रख देने का नहीं, अपितु उसको व्यक्त होने का पूरा अवसर प्रत्येक अवस्था में मिलना चाहिए। ऐसी अर्थव्यवस्था किसी भी दशा में स्वीकार्य नहीं, क्योंकि बाद में चलकर इस दमन के परिणाम प्रगट होते हैं और अंतत:, राजनीतिक तथा सामाजिक व्यवस्था पर ही नहीं, आर्थिक व्यवस्था पर भी उसका कुप्रभाव पड़ता है। यह निसर्ग का नियम है, तथा आरंभ से ही उसका ध्यान रखकर चलना बुध्दिमत्ता होगी।

राजनीति में व्यक्ति की रचनात्मक क्षमता को जिस प्रकार तानाशाही नष्ट करती है, उसी प्रकार अर्थनीति में व्यक्ति की रचनात्मक क्षमता को भारी पैमानों पर किया गया औद्योगीकरण नष्ट करता है। ऐसे उद्योगों में व्यक्ति स्वयं भी मशीन का एक पुर्जा बनकर रह जाता है। तानाशाही की भांति ऐसा औद्योगीकरण भी वर्जनीय है। आर्थिक क्षेत्र में व्यक्ति की यह रचनाशक्ति तभी प्रकट हो सकती है, जब विकेंद्रीकरण के आधार पर उद्योगों की व्यवस्था हो। विकेंद्रीकरण से मशीन का परित्याग नहीं समझना चाहिए, इसके लिए मशीनों को छोटा जरूर करना पड़ सकता है। बड़ी मशीनों का परित्याग इस अवस्था में आवश्यक है। कुछ ऐसे उद्योग भी हो सकते हैं, जो बड़ी मशीनों से ही चल सकते हों, तो उन पर व्यक्तिगत स्वामित्व के बजाय राजकीय स्वामित्व होना चाहिए। ऐसे उद्योग सुरक्षा उद्योगों में आते हैं।

विकेंद्रीकरण से वे समस्याएं हल होती हैं, जिनका कारण अतिकेंद्रीकरण है। पूंजीवाद भी अतिकेंद्रीकरण के कारण ही उत्पन्न होता है। जब लोगों को बड़े पैमाने पर उत्पादन करने का अवसर ही नहीं मिलेगा तो पूंजी इकट्ठी ही कैसे हो सकेगी? इसमें गांव तो अधिकाधिक स्वावलंबी होंगे ही, व्यक्ति को प्रेरणा मिलने के कारण वस्तु के गुण तथा उत्पादन दोनों ही बढेंग़े। पुरातनकाल के कुटीर उद्योग जितनी उत्तम श्रेणी की वस्तुएं तैयार करते थे, उतनी आज की मशीन नहीं तैयार कर पाती। कुटीर उद्योगों में हस्तकौशल और शिल्प को जो बहुत बड़ा क्षेत्र मिलता है, वह मशीन-उद्योगों में बिल्कुल नहीं मिल पाता। जिस प्रकार राजनीतिक लोकतंत्र में ग्राम-पंचायत आदि इकाइयों से लोकतंत्र उठकर ऊपर की ओर चलता है, उसी प्रकार आर्थिक लोकतंत्र में ग्राम तथा कुटीर उद्योगों और इसी प्रकार विकेंद्रीकरण के अनुसार किये जाने वाले कृषि उत्पादन केन्द्रों से उठकर लोकतंत्र ऊपर जाना चाहिए। साम्यवाद केंद्रित अर्थनीति का ही एक अंग है, अत: उसकी जड़ें आसमान में हैं, जबकि इस अर्थव्यवस्था की जड़ें धरती के भीतर गहरी घुसी हुई हैं।

आर्थिक क्षेत्र की तीन वस्तुएं हैं- मनुष्य, श्रम और मशीन। इन तीनों का समन्वय ही अर्थ-व्यवस्था में यह समन्वय नहीं, उसमें समन्वयहीनता के परिणामस्वरूप विषमताएं अवश्य होंगी। जो अर्थनीति इन परिणामों से ही अपने दर्शन का सूत्र चलाती हैं, वह तात्कालिक रूप में इन परिणामों को भले ही दूर कर दे, पर वह व्यवस्था का मौलिक शोधन नहीं कर सकती। मौलिक शोधन के लिए तो कारणों से ही चलकर आगे बढ़ना होगा तथा इन परिणामों को नष्ट करने का उपाय करना होगा।

क्रमश:

Monday, 5 January 2009

माकपा सांसद नीलोत्‍पल बसु के एनजीओ ने करोडों हडपे

सर्वहारा के अधिनायकवाद के माध्‍यम से समाज परिवर्तन की बात करने वाले कॉमरेड ग्रामीण विकास के नाम पर जनता को लूट रहे हैं। वे स्वयंसेवी संगठन बनाकर, भू-माफियाओं के साथ सांठ-गांठ कर और बड़े-बड़े ठेकों में पार्टी के नेता-कैडर ज्यादा रुचि ले रहे हैं। ऐसे कामकाज को मार्क्‍सवादी कम्‍युनिस्‍ट पार्टी के पूर्णकालिक कार्यकर्ता धंधा बनाने लगे हैं। कल(04 जनवरी) दैनिक समाचार-पत्र 'नई दुनिया' में प्रकाशित 'दीपक रस्‍तोगी' की रिपोर्ट के मुताबिक माकपा सांसद नीलोत्‍पल बसु के एनजीओ 'ग्रामीण संचार सोसाइटी (ग्रासो)' ने करोडों रूपए के घोटाले को अंजाम दिए हैं। हम यहां कॉमरेडों के काले कारनामें प्रस्‍तुत कर रहे हैं-

कोलकाता। चार करोड़ रुपए बैंक का कर्ज, लगभग ५० लाख रुपए कर्मचारियों और ग्राहकों के और पांच करोड़ रुपए से ज्यादा के उपकरण। पांच साल में लगभग १२ करोड़ रुपए की हेराफेरी और कहीं से कोई सुगबुगाहट नहीं। राज्य के हाईप्रोफाइल स्वयंसेवी संगठन ग्रामीण संचार सोसाइटी ने पहले खुद को कारपोरेट बनाया और फिर अपने साथ जुड़े २६ हजार से ज्यादा लोगों को ठेंगा दिखा दिया। मामला बढ़ने के बाद अब बैंक पर कर्ज के एवज में ५० लाख रुपए के एकमुश्त भुगतान का दबाव बनाया जा रहा है। जबकि, कर्मचारियों का बकाया चुकाने के लिए आईसीआईसीआई बैंक के साथ बातचीत अंतिम दौर में है। दोनों को लेकर कुछ "ऊपरी दबाव" बताया जाता है।

मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) सांसद नीलोत्पल बसु के इस संगठन के बारे में रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया, मुख्यमंत्री सचिवालय, माकपा कार्यालय के पास शिकायतें पहुंचने के बाद कार्रवाई की सुगबुगाहट नहीं है। अलबत्ता, अंदरखाने मामले को दबाने के प्रयास शुरू हो गए हैं। इस संगठन के ५३ कर्मचारियों ने जगह-जगह शिकायतें भेजी हैं। "नई दुनिया" के पास उपलब्ध दस्तावेजों के अनुसार, कर्मचारियों और ग्रामीणों से लंबे-चौड़े वादे किए गए। जीवन शैली बदल देने के सपने दिखाए गए। बदले में उनकी जेब हलकी हुई। संगठन के प्रबंधन से जुड़े आला अधिकारी नाम न छापने के अनुरोध के साथ कहते हैं, नुकसान हो गया। हमें तगड़ा कंपटीशन झेलना पड़ा।

कैसे हुआ यह सब?
माकपा सांसद नीलोत्पल बसु ने स्वयंसेवी संगठन ग्रामीण संचार सोसाइटी (ग्रासो) बनाई, जिसके अध्यक्ष वे खुद बने। हालांकि, एक दस्तावेज में उनका दावा है कि वे संस्था के गैर कार्यकारी अध्यक्ष हैं। कामकाज सीईओ और अन्य अधिकारी-कर्मचारियों के जिम्मे था। इस कारण उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं बनती। ग्रासो पर दो तरह से हेराफेरी के आरोप लग रहे हैं। एक तो ग्रामीण संचार योजना के लिए बैंक से बतौर कर्ज ली गई रकम न चुकाने और दूसरे ग्राहकों- कर्मचारियों की रकम हड़प लेने का। १० फरवरी, २००३ को पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने ग्रासो की ग्रामीण संचार योजना का उद्घाटन किया, जिसके लिए यूनियन बैंक ऑफ इंडिया से चार करोड़ रुपए कर्ज लिए गए। भारत संचार निगम लिमिटेड (बीएसएनएल) के साथ मिलकर पांच हजार डब्ल्यूएलएल तकनीक टेलीफोन गांवों में लगाने की स्कीम शुरू की गई। ऑपरेटरों ने १० हजार रुपए प्रति सेट के हिसाब से उपकरण खरीदे और किसानों, छोटे कारोबारी और रिक्शावालों में बांटे। नीलोत्पल बसु तब संसदीय स्थाई समिति (संचार) के सदस्य थे। यह योजना फेल हो गई। गौरतलब है कि पश्चिम बंगाल में तब इसके लिए घटिया ऑप्टिकल फाइबर केबल की सप्लाई के आरोप लगाए गए, जिसमें तत्कालीन संचार मंत्री तपन सिकदर की गद्दी गई थी।

ग्रासो के सीईओ कल्याण दत्त के अनुसार, प्राइवेट पार्टियों के साथ कंपटीशन में हम फेल हुए। उनलोगों की सेवा अच्छी थी, कंपनियों ने सस्ते सेट दिए और कमीशन भी ज्यादा था। उनका कहना है कि बैंक लोन की रकम और डब्ल्यूएलएल सेट की बिक्री से जमा धन को ग्रासो की विस्तार योजनाओं पर खर्च किया गया- लगभग नौ करोड़ रुपए! विस्तार की योजना में ही धन की हेराफेरी का दूसरा अध्याय शुरू हुआ। ग्रासो ने २००६ में ग्रामीण बैंकिंग परियोजना शुरू कर दी। समूचे राज्य में ग्रासो की ५३ शाखाएं खोली गईं। आईसीआईसीआई बैंक के साथ करार किया गया और सभी केन्द्रों पर कम्युनिटी इंफार्मेशन सर्विस सेंटर ओनर्स/बिजनेस कॉरेस्पोंडेंट ऑपरेटर्स (सीआईएससी ओनर)/बीसी ऑपरेटर्स नियुक्त किए, जिनमें प्रत्येक से २५,५०० रुपए सिक्योरिटी डिपॉजिट लिए गए। कुल १३ लाख ५१ हजार ५०० रुपए। ग्रामीणों को आसान शर्तों पर कर्ज उपलब्ध कराने और मुफ्त में बीमा करने के वादे किए गए। ऑपरेटर्स ने कुल २६ हजार ग्राहक बनाए। हरेक से सौ रुपए सदस्यता शुल्क वसूल कर ग्रासो के पास जमा किए गए। इस कुल २६ लाख के अलावा किसानों से कुल ११ लाख रुपए और जमा कराए गए। यानी लगभग ५२ लाख रुपए ग्रासो के पास पहुंचे। यह रकम कमीशन काटकर आईसीआईसीआई बैंक में नहीं जमा कराई गई। न तो किसानों के स्मार्ट कार्ड जारी किए गए और न ही बैंक के दस्तावेज किसानों को दिए गए। किसानों ने जब कर्ज लेने के लिए ऑपरेटरों को पकड़ना चालू किया तो पूछताछ शुरू हुई और समूचे मामले की पोल खुली। शाखा केन्द्रों पर ढांचागत सुविधाएं जुटाने का जिम्मा ऑपरेटर्स का था, किराया और बिलों के भुगतान ग्रासो और आईसीआईसीआई को मिलकर करने थे। दस्तावेजों के अनुसार, अब एक-एक ऑपरेटर के सिर तीन-तीन लाख रुपए का बोझ है। ऑपरेटर्स एसोसिएशन के आशीष दास का दावा है कि सिर्फ चार महीनों तक हमें दो हजार रुपए प्रति महीने दिए गए, इसके बाद से चुप्पी है। आईसीआईसीआई बैंक का दावा है कि ग्रासो ने एक पैसा बैंक में नहीं जमा कराया। हालांकि, कुछ "ऊपरी दबाव" में आईसीआईसीआई बैंक ही ऑपरेटरों के बकाए का भुगतान करने वाली है।

रिपोर्ट तक नहीं आई हजारों करोड़ के घोटालों में
पन्नाकोलकाता (ब्यूरो)। अपने नेताओं के सादा जीवन और सार्वजनिक जीवन में शुचिता का दावा करने वाली राज्य की कम्युनिस्ट सरकार पर घपलों की सलीके से दबाने के आरोप लगते रहे हैं। साल्टलेक का जमीन आबंटन के कई घोटाले, बंगाल लैम्प घोटाला, अनाज घोटाला, वक्फ घोटाला, पीएल एकाउंट घोटाला और हाल का नरेगा मस्टर रोल घोटाला। किसी में अब तक कोई रिपोर्ट तक पेश नहीं की जा सकी है।

पश्चिम बंगाल का वक्फ घोटाला बहुत चर्चित नहीं रहा, लेकिन लगभग १६०० करोड़ रुपए की संपत्ति का हेरफेर था। राज्य के १६ हजार वक्फ बोर्ड ने १९८५ के बाद कभी कोई हिसाब नहीं दिया। साथ ही, १९८५ से १९९० के बीच वक्फ की ७३८६ परिसंपत्तियों में से १२६ को विकसित करने के नाम पर लीज आउट कर दिया गया। इसके जांच के लिए राज्य के वित्त सचिव की अगुवाई में पीके सेनगुप्त कमिटी बनाई गई, जिसकी रिपोर्ट को विधानसभा में पेश करने की इजाजत देने से इनकार कर दिया स्पीकर हाशिम अब्दुल हलीम ने। तब हलीम वक्फ बोर्ड के चेयरमैन भी थे। हलीम ने इस घोटाले की न्यायिक जांच की बात उठाई, लेकिन अभी तक राज्य सरकार को इसके लिए कोई वर्तमान या पूर्व जज नहीं मिल सका है।

पीएल (पर्सनल लेजर) एकाउंट घोटाला लगभग आठ सौ करोड़ का माना जाता है। इस घोटाले को लेकर किसी पार्टी के नेता ने आवाज नहीं उठाई है। क्योंकि, इसमें हर पार्टी पर थोड़ा-बहुत आरोप लगता रहा है। सूत्रों के अनुसार, पश्चिम बंगाल में विधायकों और मंत्रियों ने १९८० से १९९० के बीच अपने यात्रा और अन्य मदों में खर्च के एडवांस तो ले लिए, लेकिन कभी भी खर्च का ब्यौरा जमा नहीं किया। इस डूबंत रकम के ब्यौरे को लेकर राज्य सरकार ने पीएल एकाउंट बना डाला। राज्य के वित्त विभाग के सूत्रों के अनुसार, अब थोड़ा दबाव बनाया गया तो कुछ विधायकों ने पुराना हिसाब जमा किया। वह भी महज कुछ लाख रुपए क्लीयर हुए हैं।

सरकारी उपक्रम बंगाल लैम्प से बल्ब लेकर विभिन्‌न सरकारी विभागों में आपूर्ति का ठेका तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्योति बसु के बेटे चंदन बसु का मिला। उन्होंने न तो बंगाल लैम्प की २५-३० करोड़ की उधारी चुकाई, न ही सरकारी विभागों को आपूर्ति ही की। बाद में उन्होंने बिस्किट फैक्टरी डाली। उस वक्ता सीटू ने राज्य की सभी बेकरी में अनियतकालीन हड़ताल करा दी। चंदन बसु की फैक्टरी से एकतरफा सप्लाई। उन्होंने करोड़ो कमाए। फैक्टरी के लिए उन्हें दुर्गापुर में जमीन दी गई, जिसके लिए आज तक राज्य सरकार ने मुआवजा नहीं दिया। पीडीएस स्कीम के तहत अनाज घोटालों की खबरें ब्लाक स्तर तक से आती रहती हैं। जमीन अधिग्रहण को लेकर राज्य में नंदीग्राम और सिंगूर जैसे कांड हो चुके हैं। बीते साल नरेगा स्कीम में मस्टर रोल घोटाला सामने आया। सात दिन काम और दो दिन की मजदूरी। जितने मजदूर नहीं, उससे ज्यादा नाम। हालांकि, इसे उजागर करने वाले दासपुर (पश्चिम मिदनापुर) के बीडीओ को जान देनी पड़ी और मामला दब गया। आठ अप्रैल को कल्लोल सूर ने आत्महत्या कर ली थी। उन्होंने अफसरों, माकपा के जिला प्रधान और स्थानीय पंचायत प्रधानों के खिलाफ ग्रामीणों से मिली शिकायतों के आधार पर एफआईआर दर्ज कराई थी। सभी मिलकर नरेगा के तहत मिले धन की बंदरबांट कर रहे थे। बाद में धमकियों से परेशान सूर ने जान दे दी। उनके सूसाइड नोट को लेकर सूर के पिता दिलीप सूर जांच की मांग को लेकर दर-दर भटक रहे हैं। पुलिस की रिपोर्ट में उन्हें स्कीजोफ्रेनिया का मरीज बताया गया है और उनके वरिष्ठों ने पागलपन के दौरे पड़ते थे, जैसे बयान दिए हैं। एडीशन मजिस्ट्रेट की जांच अभी जारी है।