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Tuesday, 20 January 2009

अर्थनीति और हम (२): दीनदयाल उपाध्याय

वर्तमान आर्थिक हालात ने देशवासियों के माथे पर चिंता की लकीरें खींच दी हैं। आजादी के बाद भारत ने स्वदेशी अर्थ-चिंतन को दरकिनार कर मिश्रित अर्थव्यवस्था को अपनाया। साम्यवाद और समाजवाद के कॉकटेल से उपजी इस अर्थव्यवस्था का परिणाम आज हमें स्पष्ट दिखाई दे रहा है। अमीरी और गरीबी के बीच फासला निरंतर गहराता जा रहा है। वहीं भूमंडलीकरण के बहाने तमाम बहुराष्ट्रीय कंपनियां गांवों तक पहुंच रही हैं और परंपरागत कृषि व्यवस्था पर चोट कर रही हैं। एकात्ममानव दर्शन के प्रणेता दीनदयालजी कहते थे, 'आर्थिक योजनाओं तथा आर्थिक प्रगति का माप समाज के ऊपर की सीढ़ी पर पहुंचे व्यक्ति से नहीं, बल्कि सबसे नीचे के स्तर पर विद्यमान व्यक्ति से होगा।'

भारत आखिर कैसे अठारहवीं शताब्दी तक विश्व का सर्वाधिक समृध्द देश था और आज क्यों आम जनता की आर्थिक स्थिति के मामले में संयुक्त राष्ट्र संघ के 54 सर्वाधिक गरीब देशों में गिना जाता है। हम यहां भारतीय अर्थ-चिंतन के बारे में देश के प्रख्यात चिंतकों के लेख प्रस्तुत करेंगे। प्रस्तुत है पं. दीनदयाल उपाध्याय के विचार-


अर्थनीति और हम(पहला भाग)
अर्थनीति और हम(तीसरा भाग)

समन्वय आवश्यक
आर्थिक कार्यक्रम का स्थान भारत के सम्पूर्ण कार्यक्रम में उतना ही है, जितना भारतीय संस्कृति में 'अर्थ' का है। पाश्चात्य संस्कृति भौतिकवादी होने के कारण अर्थ-प्रधान है।

भारतीय संस्कृति ने एक विचार किया कि मनुष्य विविधताओं का स्वाभाविक विकास करते हुए भी आंतरिक एकात्मता की अनुभूति करता चले। व्यक्ति की स्वतंत्रता सर्वप्रथम है। जब टाटा-बिरला, व्यक्ति-स्वातंत्र्य या मुक्त प्रेरणा की बात करते हैं तो उसका अभिप्राय होता है, उनकी अपनी स्वतंत्रता, उनके कारखानों में गुलाम बने हुए लाखों-करोड़ों मजदूरों की स्वतंत्रता नहीं। हमें तो लाखों-करोड़ों मानवों की स्वतंत्रता का विचार करना है। शक्ति चाहे वह राजनीतिक हो या आर्थिक। केन्द्रीकरण से व्यक्ति-स्वातंत्र्य समाप्त हो जाता है। पूंजीवाद और समाजवाद दोनों केन्द्रीकरण के हामी हैं।

हम भौतिकवाद तथा अध्यात्मवाद दोनों का समन्वय करके चलना चाहते हैं। अत: यह निश्चित है कि उन अर्थशास्त्रियों एवं दलों से जो अर्थ के सामने जीवन के प्रत्येक मूल्य की उपेक्षा करके चलना चाहते हैं, हम सहमत नहीं हैं। भारतीय मनीषा हृदय, मस्तिष्क और शरीर तीनों का सम्मिलित विचार करती है। कुछ लोग हम पर यह आरोप भी लगाते हैं कि हम आध्यात्मिकता की उपेक्षा करते हैं, महर्षि अरविंद आदि आध्यात्मिक महापुरुषों की भाषा नहीं बोल पाते हैं। हम दोनों ही प्रकार के आरोपों का स्वागत करते हैं और इतना ही कहना चाहते हैं कि जो अर्थ समाज की धारणा के लिए आवश्यक है, जितने से व्यक्ति अपना भरण-पोषण करके अन्य श्रेष्ठ मूल्यों की प्राप्ति के लिए प्रयास कर सके, उसको ही हम महत्व देते हैं।

आज विश्व में दो प्रकार के आर्थिक विचार चल रहे हैं- पूंजीवाद, समाजवाद अथवा साम्यवाद। यद्यपि हमारी विदेश-नीति तटस्थ है पर विदेश-नीति के समान ही हमें वैचारिक क्षेत्र में भी तटस्थ रहना चाहिए।

व्यवस्था नहीं, मनुष्य का सुधार
कुछ लोग पश्चिमी विचारधाराओं में पले हैं और उन विचारधाराओं में प्रयुक्त शब्दावली के आधार पर ही दुनिया की सब चीजों को समझ सकते हैं। यदि हम सूक्ष्म विश्लेषण करें तो दिखाई पड़ेगा कि दोनों दोषों का मूल कारण एक है। उनकी जड़ें अलग-अलग नहीं हैं। अत: हम यह खोजें कि बुराई कहां हैं? बुराई का वास्तविक कारण व्यवस्था नहीं मनुष्य है। मनुष्य ही प्रथम आता है। बुरा व्यक्ति अच्छी से अच्छी व्यवस्था में घुसकर बुराई फैला देगा। समाज की प्रत्येक परम्परा और व्यवस्था किसी न किसी अच्छे व्यक्ति द्वारा प्रारम्भ की गयी। उसी अच्छी परम्परा पर जब बुरा व्यक्ति आ बैठा तो वहां बुराई आ गई। राज्य संस्था को ही लें। क्या रामचन्द्र जी राजा नहीं थे? जहां उन्होंने अपने श्रेष्ठ जीवन से राज्य संस्था के गौरव में वृध्दि की, वहां अनेकों ने दोषों से उसी को इतना अपवित्र कर दिया कि कई बार राज्य संस्था का नाम लेने से चिढ़ उत्पन्न होती है। इसी दृष्टि से निजी तथा सार्वजनिक क्षेत्र के संघर्ष की ओर देखें। यदि कोई व्यक्ति निजी क्षेत्र में स्वतंत्र रहकर बुराई करता है तो उसके स्थान पर राज्य का व्यक्ति बैठा देने पर भी बुराई फैलेगी। अत: हमारा ध्यान व्यक्ति की कर्तव्य भावना को जगाने पर केन्द्रित होना चाहिए।

'आर्थिक मनुष्य' की भ्रामक कल्पना
परन्तु हुआ क्या? व्यक्ति की ओर दुर्लक्ष्य हुआ और बाह्य व्यवस्था पर जोर दिया गया। निर्जीव व्यवस्था के सामने चेतन मनुष्य नगण्य माना गया। व्यक्ति के अंदर विद्यमान सद्गुणों के विकास करने के स्थान पर उनका ह्रास करने वाले उपायों का ही अवलम्बन किया गया। राष्ट्र-निर्माण की योजनाएं बनाने वालों ने इस तथ्य को सर्वदा भुला दिया कि प्रयास करने पर मनुष्य मानव से देवता बन सकता है। उन्होंने मानव का गर्हित स्वरूप ही सामने लाकर रखा है। वे पूंजीवाद के आधार में एक ऐसे मनुष्य की कल्पना करके चलते हैं जो विशुध्द 'आर्थिक मनुष्य'(Economic Man) है। यह केवल एक कल्पना है। ऐसा कोई व्यक्ति न कभी पैदा हुआ है और न होगा। ऐसा कभी नहीं हो सकता कि मनुष्य का, चाहे वह पूंजीपति हो या मजदूर, प्रत्येक कार्य अर्थ की दृष्टि से होता हो। वह 'अर्थ' का विचार भले ही करता होगा पर उसके कार्य का प्रेरक अर्थ ही नहीं हो सकता। अर्थ-शास्त्र के नियमों की कसौटी पर यदि मानवीय व्यवहार को कसा जाय तो आपको कहीं भी 'आर्थिक मनुष्य' के दर्शन नहीं होंगे, बल्कि उससे कहीं विशाल सम्पूर्ण मानव का अस्तित्व दिखाई देगा।

पूंजीवाद का आधार यदि आर्थिक मनुष्य माना गया तो उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप समाजवाद ने 'सामूहिक मनुष्य' (Mass Man) कल्पना की। मनुष्य को एक प्रकार (Type) मान लिया। उस सामूहिक मनुष्य की आर्थिक आवश्यकताओं को पूर्ण करने का लक्ष्य ही सामने रखा। उसके जीवन की अन्य आवश्यकताओं की पूरी उपेक्षा कर दी गयी। दोनों व्यवस्थाओं में मनुष्यता का विचार नहीं है।

मनुष्य पुर्जा बन गया
मनुष्यता की व्याख्या कठिन है। अनेक बातें समान होते हुए भी प्रत्येक मनुष्य में कुछ न कुछ विशिष्टता है। उसकी विविधताओं का विचार आवश्यक है। भारतीय संस्कृति ने एक विचार किया कि मनुष्य विविधताओं का स्वाभाविक विकास करते हुए भी आंतरिक एकात्मता की अनुभूति करता चले। व्यक्ति की स्वतंत्रता सर्वप्रथम है। जब टाटा-बिरला, व्यक्ति-स्वातंत्र्य या मुक्त प्रेरणा की बात करते हैं तो उसका अभिप्राय होता है, उनकी अपनी स्वतंत्रता, उनके कारखानों में गुलाम बने हुए लाखों-करोड़ों मजदूरों की स्वतंत्रता नहीं। हमें तो लाखों-करोड़ों मानवों की स्वतंत्रता का विचार करना है। शक्ति चाहे वह राजनीतिक हो या आर्थिक। केन्द्रीकरण से व्यक्ति-स्वातंत्र्य समाप्त हो जाता है। पूंजीवाद और समाजवाद दोनों केन्द्रीकरण के हामी हैं। पूंजीवाद में धीरे-धीरे मुक्त प्रतियोगिता समाप्त होकर आर्थिक शक्ति पर कुछ व्यक्तियों का एकाधिकार स्थापित हो जाता है। अमेरिका और पूंजीवादी देशों में जो बड़े-बड़े औद्योगिक साम्राज्य बसे हुए हैं, उनकी क्या स्थिति है? आज जितने संस्थान-विरोधी कानून (Anti trust Laws) अमेरिका में बनाने पड़े हैं, उतने कहीं भी नहीं है। वहां व्यवहार व्यक्तियों के साथ नहीं, फाइलों के साथ होता है। आर्थिक शक्ति को राज्य के हाथों में सौंपने वाले समाजवाद में भी ऐसा ही होता है। राज्य नौकरशाही भी यही करती है। परिणाम हो रहा है कि जीवन यंत्रवत् होता जा रहा है। मनुष्य का स्थान फाइलें ले रही हैं। मानवता समाप्त होती जाती है। दोनों व्यवस्थाओं में मनुष्य का विचार होता है तो परिमाणात्मक (Quantitative) आधार पर, न कि गुणात्मक (Qualitative) आधार पर।

मानव यंत्र का पुर्जा बन गया
जब तक एक-एक व्यक्ति की विशिष्टता-विविधता को ध्यान में रखकर उसके विकास की चिन्ता नहीं करेंगे तब तक मानवता की सच्ची सेवा नहीं होगी। समाजवाद और पूंजीवाद ने मनुष्य को व्यवस्था के निर्जीव यंत्र का एक पुर्जा मात्र बना डाला। एक स्वतंत्र जुलाहे को समाप्त कर उसे विशाल कारखाने का मजदूर बना दिया गया। बजाज के स्थान पर एक विभागीय स्टोर्स बना दिया गया। दर्जी के स्थान पर रेडिमेड कपड़ा लाकर रख दिया गया। मनुष्य यानी एक जन्तु, जो आठ घंटे यंत्रवत् मजदूरी करें और 16 घंटे खाये। कार्य और जीवन के बीच एक दीवार खड़ी हो गयी। पश्चिम के कई देशों में कहा जाता है, पांच दिन काम के और दो दिन छुट्टी के। उन दो दिनों में केवल मस्ती, केवल खाना-पीना और मौज, काम की बात भी नहीं। अर्थात् वे पांच दिन कमाई करते हैं और दो दिन जीवित रहते हैं। अत: हमें मनुष्य-मनुष्य के कमाई के साधनों का इस प्रकार निर्धारण करना होगा कि उसके कार्य और वास्तविक जीवन के बीच कोई खाई न रहे। हाड़-मांस के मनुष्य, जिसके पास हृदय, मस्तिष्क और शरीर तीनों की भूख है, का विचार करना होगा। अन्यथा कार्य के 8 घंटों का जो अमानवीय (Dehumanising) प्रभाव होता है, उसे समाप्त करने में ही उसके शेष 16 घंटे व्यतीत हो जाते हैं, उनके समाप्त होते ही वह पुन: उन 8 घंटों के चक्र में फंस जाता है।

हम पूंजीवाद और समाजवाद के चक्कर से मुक्त होकर मानवता का विचार करें। मानव जीवन के समस्त पहलूओं का विचार कर आर्थिक क्षेत्र में उत्पादन, वितरण और उपभोग के साधन तथा व्यवस्था बनायें। फिर उसके लिए विज्ञान का उपयोग करें। यह आवश्यक नहीं कि हम विज्ञान के पुराने प्रयोगों को ज्यों-का-त्यों अपना लें। आज हम पश्चिम की टेक्नॉलॉजी की आंख मूंदकर नकल कर रहे हैं। इसे बंद करना होगा और टेक्नॉलॉजी का प्रयोग मानवता के विकास के लिए करना होगा।

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