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Monday, 5 January 2009

माकपा सांसद नीलोत्‍पल बसु के एनजीओ ने करोडों हडपे

सर्वहारा के अधिनायकवाद के माध्‍यम से समाज परिवर्तन की बात करने वाले कॉमरेड ग्रामीण विकास के नाम पर जनता को लूट रहे हैं। वे स्वयंसेवी संगठन बनाकर, भू-माफियाओं के साथ सांठ-गांठ कर और बड़े-बड़े ठेकों में पार्टी के नेता-कैडर ज्यादा रुचि ले रहे हैं। ऐसे कामकाज को मार्क्‍सवादी कम्‍युनिस्‍ट पार्टी के पूर्णकालिक कार्यकर्ता धंधा बनाने लगे हैं। कल(04 जनवरी) दैनिक समाचार-पत्र 'नई दुनिया' में प्रकाशित 'दीपक रस्‍तोगी' की रिपोर्ट के मुताबिक माकपा सांसद नीलोत्‍पल बसु के एनजीओ 'ग्रामीण संचार सोसाइटी (ग्रासो)' ने करोडों रूपए के घोटाले को अंजाम दिए हैं। हम यहां कॉमरेडों के काले कारनामें प्रस्‍तुत कर रहे हैं-

कोलकाता। चार करोड़ रुपए बैंक का कर्ज, लगभग ५० लाख रुपए कर्मचारियों और ग्राहकों के और पांच करोड़ रुपए से ज्यादा के उपकरण। पांच साल में लगभग १२ करोड़ रुपए की हेराफेरी और कहीं से कोई सुगबुगाहट नहीं। राज्य के हाईप्रोफाइल स्वयंसेवी संगठन ग्रामीण संचार सोसाइटी ने पहले खुद को कारपोरेट बनाया और फिर अपने साथ जुड़े २६ हजार से ज्यादा लोगों को ठेंगा दिखा दिया। मामला बढ़ने के बाद अब बैंक पर कर्ज के एवज में ५० लाख रुपए के एकमुश्त भुगतान का दबाव बनाया जा रहा है। जबकि, कर्मचारियों का बकाया चुकाने के लिए आईसीआईसीआई बैंक के साथ बातचीत अंतिम दौर में है। दोनों को लेकर कुछ "ऊपरी दबाव" बताया जाता है।

मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) सांसद नीलोत्पल बसु के इस संगठन के बारे में रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया, मुख्यमंत्री सचिवालय, माकपा कार्यालय के पास शिकायतें पहुंचने के बाद कार्रवाई की सुगबुगाहट नहीं है। अलबत्ता, अंदरखाने मामले को दबाने के प्रयास शुरू हो गए हैं। इस संगठन के ५३ कर्मचारियों ने जगह-जगह शिकायतें भेजी हैं। "नई दुनिया" के पास उपलब्ध दस्तावेजों के अनुसार, कर्मचारियों और ग्रामीणों से लंबे-चौड़े वादे किए गए। जीवन शैली बदल देने के सपने दिखाए गए। बदले में उनकी जेब हलकी हुई। संगठन के प्रबंधन से जुड़े आला अधिकारी नाम न छापने के अनुरोध के साथ कहते हैं, नुकसान हो गया। हमें तगड़ा कंपटीशन झेलना पड़ा।

कैसे हुआ यह सब?
माकपा सांसद नीलोत्पल बसु ने स्वयंसेवी संगठन ग्रामीण संचार सोसाइटी (ग्रासो) बनाई, जिसके अध्यक्ष वे खुद बने। हालांकि, एक दस्तावेज में उनका दावा है कि वे संस्था के गैर कार्यकारी अध्यक्ष हैं। कामकाज सीईओ और अन्य अधिकारी-कर्मचारियों के जिम्मे था। इस कारण उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं बनती। ग्रासो पर दो तरह से हेराफेरी के आरोप लग रहे हैं। एक तो ग्रामीण संचार योजना के लिए बैंक से बतौर कर्ज ली गई रकम न चुकाने और दूसरे ग्राहकों- कर्मचारियों की रकम हड़प लेने का। १० फरवरी, २००३ को पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने ग्रासो की ग्रामीण संचार योजना का उद्घाटन किया, जिसके लिए यूनियन बैंक ऑफ इंडिया से चार करोड़ रुपए कर्ज लिए गए। भारत संचार निगम लिमिटेड (बीएसएनएल) के साथ मिलकर पांच हजार डब्ल्यूएलएल तकनीक टेलीफोन गांवों में लगाने की स्कीम शुरू की गई। ऑपरेटरों ने १० हजार रुपए प्रति सेट के हिसाब से उपकरण खरीदे और किसानों, छोटे कारोबारी और रिक्शावालों में बांटे। नीलोत्पल बसु तब संसदीय स्थाई समिति (संचार) के सदस्य थे। यह योजना फेल हो गई। गौरतलब है कि पश्चिम बंगाल में तब इसके लिए घटिया ऑप्टिकल फाइबर केबल की सप्लाई के आरोप लगाए गए, जिसमें तत्कालीन संचार मंत्री तपन सिकदर की गद्दी गई थी।

ग्रासो के सीईओ कल्याण दत्त के अनुसार, प्राइवेट पार्टियों के साथ कंपटीशन में हम फेल हुए। उनलोगों की सेवा अच्छी थी, कंपनियों ने सस्ते सेट दिए और कमीशन भी ज्यादा था। उनका कहना है कि बैंक लोन की रकम और डब्ल्यूएलएल सेट की बिक्री से जमा धन को ग्रासो की विस्तार योजनाओं पर खर्च किया गया- लगभग नौ करोड़ रुपए! विस्तार की योजना में ही धन की हेराफेरी का दूसरा अध्याय शुरू हुआ। ग्रासो ने २००६ में ग्रामीण बैंकिंग परियोजना शुरू कर दी। समूचे राज्य में ग्रासो की ५३ शाखाएं खोली गईं। आईसीआईसीआई बैंक के साथ करार किया गया और सभी केन्द्रों पर कम्युनिटी इंफार्मेशन सर्विस सेंटर ओनर्स/बिजनेस कॉरेस्पोंडेंट ऑपरेटर्स (सीआईएससी ओनर)/बीसी ऑपरेटर्स नियुक्त किए, जिनमें प्रत्येक से २५,५०० रुपए सिक्योरिटी डिपॉजिट लिए गए। कुल १३ लाख ५१ हजार ५०० रुपए। ग्रामीणों को आसान शर्तों पर कर्ज उपलब्ध कराने और मुफ्त में बीमा करने के वादे किए गए। ऑपरेटर्स ने कुल २६ हजार ग्राहक बनाए। हरेक से सौ रुपए सदस्यता शुल्क वसूल कर ग्रासो के पास जमा किए गए। इस कुल २६ लाख के अलावा किसानों से कुल ११ लाख रुपए और जमा कराए गए। यानी लगभग ५२ लाख रुपए ग्रासो के पास पहुंचे। यह रकम कमीशन काटकर आईसीआईसीआई बैंक में नहीं जमा कराई गई। न तो किसानों के स्मार्ट कार्ड जारी किए गए और न ही बैंक के दस्तावेज किसानों को दिए गए। किसानों ने जब कर्ज लेने के लिए ऑपरेटरों को पकड़ना चालू किया तो पूछताछ शुरू हुई और समूचे मामले की पोल खुली। शाखा केन्द्रों पर ढांचागत सुविधाएं जुटाने का जिम्मा ऑपरेटर्स का था, किराया और बिलों के भुगतान ग्रासो और आईसीआईसीआई को मिलकर करने थे। दस्तावेजों के अनुसार, अब एक-एक ऑपरेटर के सिर तीन-तीन लाख रुपए का बोझ है। ऑपरेटर्स एसोसिएशन के आशीष दास का दावा है कि सिर्फ चार महीनों तक हमें दो हजार रुपए प्रति महीने दिए गए, इसके बाद से चुप्पी है। आईसीआईसीआई बैंक का दावा है कि ग्रासो ने एक पैसा बैंक में नहीं जमा कराया। हालांकि, कुछ "ऊपरी दबाव" में आईसीआईसीआई बैंक ही ऑपरेटरों के बकाए का भुगतान करने वाली है।

रिपोर्ट तक नहीं आई हजारों करोड़ के घोटालों में
पन्नाकोलकाता (ब्यूरो)। अपने नेताओं के सादा जीवन और सार्वजनिक जीवन में शुचिता का दावा करने वाली राज्य की कम्युनिस्ट सरकार पर घपलों की सलीके से दबाने के आरोप लगते रहे हैं। साल्टलेक का जमीन आबंटन के कई घोटाले, बंगाल लैम्प घोटाला, अनाज घोटाला, वक्फ घोटाला, पीएल एकाउंट घोटाला और हाल का नरेगा मस्टर रोल घोटाला। किसी में अब तक कोई रिपोर्ट तक पेश नहीं की जा सकी है।

पश्चिम बंगाल का वक्फ घोटाला बहुत चर्चित नहीं रहा, लेकिन लगभग १६०० करोड़ रुपए की संपत्ति का हेरफेर था। राज्य के १६ हजार वक्फ बोर्ड ने १९८५ के बाद कभी कोई हिसाब नहीं दिया। साथ ही, १९८५ से १९९० के बीच वक्फ की ७३८६ परिसंपत्तियों में से १२६ को विकसित करने के नाम पर लीज आउट कर दिया गया। इसके जांच के लिए राज्य के वित्त सचिव की अगुवाई में पीके सेनगुप्त कमिटी बनाई गई, जिसकी रिपोर्ट को विधानसभा में पेश करने की इजाजत देने से इनकार कर दिया स्पीकर हाशिम अब्दुल हलीम ने। तब हलीम वक्फ बोर्ड के चेयरमैन भी थे। हलीम ने इस घोटाले की न्यायिक जांच की बात उठाई, लेकिन अभी तक राज्य सरकार को इसके लिए कोई वर्तमान या पूर्व जज नहीं मिल सका है।

पीएल (पर्सनल लेजर) एकाउंट घोटाला लगभग आठ सौ करोड़ का माना जाता है। इस घोटाले को लेकर किसी पार्टी के नेता ने आवाज नहीं उठाई है। क्योंकि, इसमें हर पार्टी पर थोड़ा-बहुत आरोप लगता रहा है। सूत्रों के अनुसार, पश्चिम बंगाल में विधायकों और मंत्रियों ने १९८० से १९९० के बीच अपने यात्रा और अन्य मदों में खर्च के एडवांस तो ले लिए, लेकिन कभी भी खर्च का ब्यौरा जमा नहीं किया। इस डूबंत रकम के ब्यौरे को लेकर राज्य सरकार ने पीएल एकाउंट बना डाला। राज्य के वित्त विभाग के सूत्रों के अनुसार, अब थोड़ा दबाव बनाया गया तो कुछ विधायकों ने पुराना हिसाब जमा किया। वह भी महज कुछ लाख रुपए क्लीयर हुए हैं।

सरकारी उपक्रम बंगाल लैम्प से बल्ब लेकर विभिन्‌न सरकारी विभागों में आपूर्ति का ठेका तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्योति बसु के बेटे चंदन बसु का मिला। उन्होंने न तो बंगाल लैम्प की २५-३० करोड़ की उधारी चुकाई, न ही सरकारी विभागों को आपूर्ति ही की। बाद में उन्होंने बिस्किट फैक्टरी डाली। उस वक्ता सीटू ने राज्य की सभी बेकरी में अनियतकालीन हड़ताल करा दी। चंदन बसु की फैक्टरी से एकतरफा सप्लाई। उन्होंने करोड़ो कमाए। फैक्टरी के लिए उन्हें दुर्गापुर में जमीन दी गई, जिसके लिए आज तक राज्य सरकार ने मुआवजा नहीं दिया। पीडीएस स्कीम के तहत अनाज घोटालों की खबरें ब्लाक स्तर तक से आती रहती हैं। जमीन अधिग्रहण को लेकर राज्य में नंदीग्राम और सिंगूर जैसे कांड हो चुके हैं। बीते साल नरेगा स्कीम में मस्टर रोल घोटाला सामने आया। सात दिन काम और दो दिन की मजदूरी। जितने मजदूर नहीं, उससे ज्यादा नाम। हालांकि, इसे उजागर करने वाले दासपुर (पश्चिम मिदनापुर) के बीडीओ को जान देनी पड़ी और मामला दब गया। आठ अप्रैल को कल्लोल सूर ने आत्महत्या कर ली थी। उन्होंने अफसरों, माकपा के जिला प्रधान और स्थानीय पंचायत प्रधानों के खिलाफ ग्रामीणों से मिली शिकायतों के आधार पर एफआईआर दर्ज कराई थी। सभी मिलकर नरेगा के तहत मिले धन की बंदरबांट कर रहे थे। बाद में धमकियों से परेशान सूर ने जान दे दी। उनके सूसाइड नोट को लेकर सूर के पिता दिलीप सूर जांच की मांग को लेकर दर-दर भटक रहे हैं। पुलिस की रिपोर्ट में उन्हें स्कीजोफ्रेनिया का मरीज बताया गया है और उनके वरिष्ठों ने पागलपन के दौरे पड़ते थे, जैसे बयान दिए हैं। एडीशन मजिस्ट्रेट की जांच अभी जारी है।

1 comment:

Anonymous said...

ऐसा ही है, कामरेड काम की रेढ़ मारते हैं, मजदूरों का साथ चिल्लाते हैं और करोड़ों पी जाते हैं. काश कि यह बात यहां के आम आदमी की समझ में आ पाती.
http://incitizen.blogspot.com