लेखक -स्वपन दासगुप्ता
नंदीग्राम में माकपा कार्यकर्ताओं के इशारे पर पुलिस ने बर्बरता की सारी सीमाएं लांघते हुए कम से कम 14 निर्दोष लोगों को मौत की नींद सुला दिया और सैकड़ों को घर छोड़कर भागने पर मजबूर कर दिया। इस घटना से पश्चिम बंगाल में तीन दशक से शासन कर रही माकपा के माथे पर कलंक लगने के साथ ही उसका दमनकारी चेहरा भी सामने आ गया है। इस भयानक हादसे से यह जाहिर हो गई है कि सत्ता के नशे में चूर दल न तो आलोचना बर्दाश्त कर सकते हैं और न ही विपक्ष की दलीलें। नंदीग्राम में जो हुआ उसकी वजह यह नहीं थी कि राज्य सरकार विकास के लिए कृतसंकल्प थी, बल्कि इसके पीछे बाहुबल का प्रदर्शन करने की सोच थी। पिछले तीस सालों में सूबे के ग्रामीण्ा इलाकों में माकपा का एकछत्र राज है। गांवों में माकपा की पैठ का मतलब यह नहीं कि लाल झंडा जनता के दिल में बसता है। माकपा ने अपनी पकड़ भोली-भाली जनता को डरा-धमका कर बनाई है।
1977 से बंगाल में सत्ता सुख भोग रही माकपा ने ग्रामीणों को दो वर्गों में विभाजित कर दिया है। एक तो वे जो उसके साथ हैं और दूसरे वे जो साथ नहीं है। सीमावर्ती जिलों को छोड़कर समूचे ग्रामीण बंगाल में माकपा की गहरी पकड़ का राज अब खुलने लगा है। माकपा ने क्रूरता और आतंक के बल पर गांवों में अपना जो साम्राज्य स्थापित किया है उससे मुक्ति के लिए अब बड़ी संख्या में स्थानीय समुदाय आवाज बुलंद करने लगा है। माकपा सरकार ने स्टालिनवाद पर न केवल उपदेश दिए बल्कि राज्य में पूरी निर्लज्जता के साथ उसे पाला पोसा। इसकी आड़ में माकपा रहनुमा की खाल ओढ़कर किसी क्रूर राजा की तरह तानाशाही का साम्राज्य फैलाती रही। नंदीग्राम को लेकर बौध्दिक किस्म के कुछ लोग वामपंथी सरकार की आलोचना करने का पाखंड कर रहे हैं। ऐसे लोग कपटी हैं। कई दशकों तक वामपंथियों ने जब अपने विरोधियों को कुचलने के लिए दमनकारी रवैया अपनाया तब यही बौध्दिक लोग उनके साथ थे और उनकी नीतियों का गुणगान करते थे। बंगाल को रक्तरंजित बनाने में इन लोगों का भी उतना ही दोष है जितना वामपंथियों का। ऐसे लोग वामपंथियों द्वारा रचे गए षडयंत्र का भी हिस्सा रहे हैं। अब वे अपना दामन पाक साफ दिखाने के लिए वाम सरकार को भला-बुरा कह रहे हैं। नंदीग्राम की हिंसा से माकपा के चेहरे से नकाब उतार गया है और उसकी असली सूरत पूरे देश के सामने आ गई है। अब जब भी सहमत द्वारा बनाई गई फिल्म को गुजरात में वितरक न मिलें और उसे लेकर वामपंथी न्याय की दुहाई दें या फिर जब भी संसद के बाहर बृंदा कारत आदिवासियों के साथ फोटो सेशन कराती दिखें या फिर बुध्ददेव भट्टाचार्य सूफियाना लहजे में नेरुदा या ब्रेख्त की कविताओं का पाठ करते दिखें तब उनके द्वारा ढहाए गए जुल्मों की याद दिलाने के लिए एक ही शब्द काफी होगा-नंदीग्राम। नंदीग्राम की हिंसा वाम आंदोलन के रक्तरंजित इतिहास की न तो पहली घटना है और न ही आखिरी। 1917 की बोलशेविक क्रांति के दौरान हुए खूनखराबे और वाम आंदोलनों में कई फर्क नहीं है। दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। भारत के संदर्भ में नंदीग्राम की घटना अहंकार में चूर ऐसे लोगों के लिए मील का पत्थर बन गई है जिन्होंने ताल ठोककर घोषित कर दिया है कि इतिहास ने एक बार फिर उनके पक्ष मे करवट ली है। नंदीग्राम की हिंसा के बाद माकपा जहां बचाव की मुद्रा में आ गई है वहीं कांग्रेस नेतृत्व का दोहरा चरित्र भी उजागर हो गया है। सोनिया गांधी की मजबूरी है कि वह भाजपा शासित छत्तीसगढ़ में नक्सलियों के हाथों मारे गए 55 जवानों की हत्या पर हायतौबा नहीं मचा सकतीं, क्योंकि फिर उन्हें नंदीग्राम पर भी कुछ बोलना पड़ेगा। नंदीग्राम को लेकर कांग्रेस आंख पर पट्टी बांधकार और कान में रुई डालकर बैठी है, क्योंकि संप्रग सरकार वामपंथियों की बैसाखी पर ही टिकी हुई है। वामपंथी विचारधारा का बौध्दिक समुदाय खामोश है। उनमें से बहुतों की आंखों का पानी मर चुका है। उनकी अंतरात्मा वामपंथी सत्ता तले मर चुकी है। देशभर में गंभीर होते जा रहे खाद्यान्न संकट को देखते हुए विशेष आर्थिक जोन पर चल रही बहस ने अब राष्ट्रीय रूप धारण कर लिया है। यह बहस आक्रामक नहीं है, लिहाजा संप्रग सरकार की सेहत पर कोई फर्क नहीं पडेग़ा। हालांकि राजग इस मामले को धार देने में जुटा है। मेधा पाटेकर और मुसलिम संगठनों के विरोध प्रदर्शन भले ही वक्त के साथ कमजोर पड़ जाएंए लेकिन पश्चिम बंगाल की राजनीति पर इनका दूरगामी प्रभाव पड़ेगा। यह साल पश्चिम बंगाल से नई दिल्ली के बीच उड़ान शुरू होने की 40वीं वर्षगांठ के रूप में मनाया जा रहा है। माकपा के समर्थन से सत्ता में आई यूनाइटेड फ्रंट सरकार ने खूनखराबे की शुरुआत की, जिसे नक्सली आंदोलन और कांग्रेस की गुंडागर्दी ने आगे बढ़ाया। इसमें कोई शक नहीं कि इस वजह से आर्थिक प्रगति की राह में पश्चिम बंगाल पिछड़ता गया।
क्या आपको 1967 का घेराव आंदोलन याद है? तब हुबली नदी के दोनों किनारों पर स्थित हजारों फैक्टि्रयां खाली हो गईं थीं। इस आंदोलन से वाम राजनीति पर प्रतिकूल असर पड़ा और उनकी बहुत आलोचना हुई थी। पश्चिम बंगाल का पतन केवल आर्थिक रूप से ही नहीं हो रहा। वामपंथियों के अजीबोगरीब राजनीतिक कदमों की वजह से इस राज्य ने सामाजिक रूप से भी बहुत कुछ खो दिया है। एक ब्रिटिश टिप्पणीकार ने किसी दूसरे संदर्भ में दुख और हताशा से भरे समुदाय का जिक्र किया थाए जो आज के परिप्रेक्ष्य में पश्चिम बंगाल पर बिल्कुल फिट बैठता है। अगर आपको यकीन न हो तो मृणाल सेन और रित्विक घटक की फिल्में देख लीजिएए आपकी आंखें और सोच दोनों खुल जाएंगे। अनाचार और कमियां अब सिर्फ वामदलों तक ही सीमित नहीं रह गई हैं, बल्कि गैर-वाम दल भी इसकी चपेट में आ गए हैं। नंदीग्राम की घटना को लेकर जारी विरोध प्रदर्शनों से यह बात जाहिर भी हो गई है।
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