लेखक- हरिकृष्ण निगम
हाल में बाल दिवस पर श्रीनगर में आयोजित एक रैली में जिसमें मुख्यमंत्री गुलाम नबी आजाद उपस्थित थे, वन्दे मातरम के गान पर जो विवाद उठा उस पर किसी को भी लज्जा हो सकती है। मुफ्ती वशीरूद्दीन अहमद ने दावा किया कि वन्देमातरम हमारा राष्ट्रगीत नहीं हो सकता क्योंकि यह इस्लाम की मूल धारणा के विरूध्द हैं और इसने जम्मू-कश्मीर के लोगों की भावनाओं पर आघात पहुंचाया है। हुरियत कांफ्रेंस के अध्यक्ष मीरवायज़ उमर फारूख ने इस घटना की भर्त्सना की और कहा कि बच्चों से धर्म-विरोधी गीत-गवाना भारत सरकार द्वारा उनकी धार्मिक पहचान मिटाने की दूरगामी साजिश है। 14 नवंबर 2007 को नेहरू जी की 118वीं जन्मतिथि पर आयोजित एक समारोह में हजारों बच्चों की उपस्थित में वंदेमातरम गाया गया था। उन्हीं सारे तर्कों को कश्मीर में दोहराया गया जो देश के अनेक मुस्लिम नेता पिछले कई वर्षों से राष्ट्रीय गौरव के इस गान पर आपत्ति के रूप में बड़बोलेपन द्वारा व्यक्त करते रहे हैं।
यह समझ के बाहर की बात है कि आखिर किसी बुनियाद पर हमारी संविधान सभा द्वारा राष्ट्र के स्वीकृत प्रतीकों के विरूध्द ऐसी देश विरोधी दुस्साहसी टिप्पणियां खुल कर की जा रही हैं। शायद आज की सरकार देश की सुरक्षा के साथ-साथ राष्ट्रीय प्रतीकों को आदर दिलवाने के मामले में जितनी लापरवाह सिध्द हई उस पर विश्वास ही नहीं होता है। क्या उन्हें संविधान निर्मात्री सभा की अभिलेखित कार्रवाइयों के अभिलेखों को पढ़ने की फुरसत भी नहीं मिलती है। जिसमें 'जन गण मन' व 'वंदेमातरम' के बीच चुनाव करने पर बहस हुई थी। देश के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद ने 24 जनवरी 1950 को देश की संविधान सभा को संबोधित करते हुए कहा था कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में सुदृढ़ भूमिका निभाने वाले 'वंदेमातरम' गीत को 'जन गण मन अधिनायक' राष्ट्रगान के बराबर प्रतिष्ठा और बराबरी का दर्जा प्राप्त होगा। भारतीय संविधान सभा के आधिकारिक रूप में संकलित चर्चा के अभिलेखों के खण्ड-12 पर यदि दृष्टिपात किया जाए तो 'वंदेमातरम' का विरोध करने वाले या उनके समर्थक सेकुलर बुध्दिजीवियों को देशविरोधी कहने में किसी को संकोच न होगा।
बंकिमचन्द्र चटर्जी द्वारा रचित राष्ट्रीय पुकार का प्रतीक वन्दे मातरम गीत सबसे पहले 1896 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में गाया गया था। यह आश्चर्य की बात है कि स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान कांग्रेस के अधिवेशनों में स्वयं बड़े मुस्लिम नेता उन लोगों की भर्त्सना करते थे जो इस गीत के दौरान खड़े नहीं होते थे। तत्कालीन ब्रिटिश समाचार पत्र जैसे 'स्टेटसमैन' एवं 'पायनियर' में कई संदर्भ आये हैं, जब खिलाफत आंदोलनों की बैठकों में वंदेमातरम के गायन के समय हिन्दू मुस्लिम सभी आदर से खड़े हो जाते थे। एक-दो मुस्लिम नेता खड़े नहीं होते थे तो उनकी आलोचना भी की जाती थी। अंग्रेज वंदेमातरम से इस लिए चिढ़ते थे कि बंग-विभाजन के दौरान इस गीत ने सारे देश को अभूतपूर्व रूप से जोड़ दिया था। इसीलिए अंग्रेजों ने इसे प्रतिबंधित कर मुस्लिम लीग को इसके विरूध्द भड़काना शुरू किया था।
स्वतंत्रता से पहले कांग्रेस की लगभग हर बड़ी सभा में इसे नियमित रूप से गया जाता था। 1923 के कांग्रेस के काकीनाडा अधिवेशन में जब विष्णु दिगंबर पलुस्कर वंदेमातरम गाने के लिए खड़े हुए थे, तब कांग्रेस के एक मुस्लिम सदस्य मौलाना अहमद अली ने आपत्ति जताई थी । इसके पूर्व मुसलमानों को अपने खिलाफत आंदोलन तक में गांधी द्वारा इस गाने का अनुमोदन दिलवाया गया था।
एक और रोचक ऐतिहासिक सत्य 'वंदेमातरम' के संबंध में सामने आया जब कांग्रेस के अपराजेय चाणक्य कहलाने वाले पं. द्वारका प्रसाद मिश्र वंदेमातरम का विरोध करने वाले रऊफ अहमद और एस.डब्ल्यू.ए. रिजवी जैसे पुरानी सेन्ट्रल प्राविन्सेज़ और बरार की 1937 की पहली कांग्रेस सरकार के सदस्यों पर इस तरह वन्देमातरम की रक्षा व समर्थन पर टूट पड़े थे जो हर कांग्रेसी को जानना जरूरी है। उस सरकार के प्रमुख थे बी.एन. खरे और उस समय कुछ मुस्लिम सदस्यों की आपत्तियों पर डा. मिश्र के तर्क तमाचे का काम करते थे। तात्पर्य यह है कि कांग्रेस के राष्ट्रवादी नेता उस समय भी सेकुलरवादी कहलाने वाले लोगों के कुतर्कों का दो टूक जवाब दे सकते थे।
अभी अधिक दिन नहीं हुए जब हैदराबाद के मुस्लिम धार्मिक नेताओं ने फतवा जारी किया था कि जिन स्कूलों में वंदेमातरम सामूहिक रूप से गाया जाता है, वहां मुस्लिम बच्चों को न पढ़ाया जाए। उनके अनुसार वे 'हिन्दू मजहबी तराने' के खिलाफ है और इसके सामूहिक गायन पर प्रतिबंध की मांग करते है। छह दशकों में यह विवाद कई बार उठा पर आज तो इसके समर्थन में प्रबुध्द कहलाने वाले अंग्रेजी मीडिया का एक बड़ा वर्ग अगुवाई कर रहा है' जिससे स्थिति चिंताजनक बनती जा रही है। पिछली बार जून 2006 में जब आल इंडिया सुन्नी उलेमा बोर्ड के अध्यक्ष मौलाना सैय्यद शाह बदरूद्दीन कादरी अलजीलानी ने वंदेमातरम के विरूध्द फतवा जारी किया था उसके बावजूद कई प्रदेशों में इसका असर नहीं था पर सेकुलरवादियों के उन्हीं घिसेपिटे तर्कों के प्रयोग के कारण यह विवाद उठता ही रहता है।
कुछ दिनों पहले प्रसिध्द विधिवेत्ता राम जेठमलानी इस विवाद पर (13 सितंबर 2006)'ए ट्रिस्ट विद वंदेमातरम' शीर्षक एक भावपूर्ण लेख लिखा था। इसके प्रथम पैराग्राफ ने उन्होंने 14 अगस्त 1947 की उस सुबह की याद दिलाई है जब संविधान निर्मात्री सभा का पांचवा सत्र कान्स्टीटयूशन हाल में डा. राजेन्द्र प्रसाद की अध्यक्षता में हो रहा था और लगभग सभी सदस्य उपस्थित थे। उस दिन के एजेन्डा का पहला आइटम वन्देमातरम का गान सुचेता कृपलानी द्वारा होना था। गीत के गायन के दौरान सभी मंत्रमुग्ध होकर सुन रहे थे क्योंकि उन्होंने उसे अत्यंत सुरीली आवाज में गाया था। डा. राजेन्द्र प्रसाद का उसके बाद का भाषण ऐतिहासिक कहा जा सकता है क्योंकि उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन से सेनानियों की भारत व अण्डमान जैसी जगहों की जेल यातना के अनुभवों की याद कर उन्हें श्रध्दांजलि दी। उन्होंने देश के सभी नागरिकों के साथ-साथ सभी अल्पसंख्यकों की सुरक्षा व समृध्दि की गारंटी देते हुए उनके कल्याण की कामना की। उस समय उपस्थित सदस्यों में एक ने भी वंदे मातरम के गाने पर या उसके बाद भी टिप्पणी न की थी। यहाँ तक कि चौधरी खालिकुज्जमां ने नेहरू जी के प्रस्ताव का अनुमोदन किया जिसमें मध्यरात्रि को ली जाने वाली शपथ का प्रारूप था। जन गण मन और वंदे मातरम् के चुनाव के बीच प्रतिद्वंद्विता मात्र संगीत और धुन की लोकप्रियता के आधार पर थी। यह महसूस किया गया कि गाते समय जन गण गन की धुन ज्यादा अच्छी रहेगी इसलिए उसे राष्ट्र गान चुना गया। यह भी स्पष्ट किया गया कि वंदे मातरम का उतना ही महत्व राष्ट्रगीत के रूप में रहेगा।
जैसा ऊपर लिखा गया है 24 जनवरी 1950 को, हमारे गणतंत्र के जन्म के दो दिन पहले औपचारिक रूप से राष्ट्रपति का यह वक्तव्य स्वीकार किया गया था। 'जन गण मन जो अपने शब्दों व धुन वाली कृति से परिचित है, भारत का राष्ट्रगान होगा, जिसमें समयानुसार सरकार किसी शब्द के परिवर्तन के लिए अधिकृत की गई है तथा वंदे मातरम जिसने देश के स्वतंत्रता संग्राम में ऐतिहासिक भूमिका निभाई है, उसी जन गण मन जैसे गीत की बराबरी का हकदार और दर्जा दिया जाने वाला यह राष्ट्रगीत होगा। 'तालियों की गड़गड़ाहट के बाद राष्ट्रपति के वक्तव्य को वही आदर व मान्यता मिली जो संविधान की किसी अन्य धारा को।' यदि देश के मुस्लिम नागरिक 'जन गण मन' का आदर कर सकते हैं तब अचानक उसी संविधान के दूसरे प्रावधानों का उल्लंघन कैसे हो सकता है? मात्र गाना ही नहीं भावों और आदर सहित इसके प्रति रूख दिखाने की अपेक्षा है जो राष्ट्रीय एकता के लिए आवश्यक है, ऐसा राम जेठमलानी भी मानते हैं।
(नवोत्थान लेख सेवा हिन्दुस्थान समाचार)
हाल में बाल दिवस पर श्रीनगर में आयोजित एक रैली में जिसमें मुख्यमंत्री गुलाम नबी आजाद उपस्थित थे, वन्दे मातरम के गान पर जो विवाद उठा उस पर किसी को भी लज्जा हो सकती है। मुफ्ती वशीरूद्दीन अहमद ने दावा किया कि वन्देमातरम हमारा राष्ट्रगीत नहीं हो सकता क्योंकि यह इस्लाम की मूल धारणा के विरूध्द हैं और इसने जम्मू-कश्मीर के लोगों की भावनाओं पर आघात पहुंचाया है। हुरियत कांफ्रेंस के अध्यक्ष मीरवायज़ उमर फारूख ने इस घटना की भर्त्सना की और कहा कि बच्चों से धर्म-विरोधी गीत-गवाना भारत सरकार द्वारा उनकी धार्मिक पहचान मिटाने की दूरगामी साजिश है। 14 नवंबर 2007 को नेहरू जी की 118वीं जन्मतिथि पर आयोजित एक समारोह में हजारों बच्चों की उपस्थित में वंदेमातरम गाया गया था। उन्हीं सारे तर्कों को कश्मीर में दोहराया गया जो देश के अनेक मुस्लिम नेता पिछले कई वर्षों से राष्ट्रीय गौरव के इस गान पर आपत्ति के रूप में बड़बोलेपन द्वारा व्यक्त करते रहे हैं।
यह समझ के बाहर की बात है कि आखिर किसी बुनियाद पर हमारी संविधान सभा द्वारा राष्ट्र के स्वीकृत प्रतीकों के विरूध्द ऐसी देश विरोधी दुस्साहसी टिप्पणियां खुल कर की जा रही हैं। शायद आज की सरकार देश की सुरक्षा के साथ-साथ राष्ट्रीय प्रतीकों को आदर दिलवाने के मामले में जितनी लापरवाह सिध्द हई उस पर विश्वास ही नहीं होता है। क्या उन्हें संविधान निर्मात्री सभा की अभिलेखित कार्रवाइयों के अभिलेखों को पढ़ने की फुरसत भी नहीं मिलती है। जिसमें 'जन गण मन' व 'वंदेमातरम' के बीच चुनाव करने पर बहस हुई थी। देश के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद ने 24 जनवरी 1950 को देश की संविधान सभा को संबोधित करते हुए कहा था कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में सुदृढ़ भूमिका निभाने वाले 'वंदेमातरम' गीत को 'जन गण मन अधिनायक' राष्ट्रगान के बराबर प्रतिष्ठा और बराबरी का दर्जा प्राप्त होगा। भारतीय संविधान सभा के आधिकारिक रूप में संकलित चर्चा के अभिलेखों के खण्ड-12 पर यदि दृष्टिपात किया जाए तो 'वंदेमातरम' का विरोध करने वाले या उनके समर्थक सेकुलर बुध्दिजीवियों को देशविरोधी कहने में किसी को संकोच न होगा।
बंकिमचन्द्र चटर्जी द्वारा रचित राष्ट्रीय पुकार का प्रतीक वन्दे मातरम गीत सबसे पहले 1896 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में गाया गया था। यह आश्चर्य की बात है कि स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान कांग्रेस के अधिवेशनों में स्वयं बड़े मुस्लिम नेता उन लोगों की भर्त्सना करते थे जो इस गीत के दौरान खड़े नहीं होते थे। तत्कालीन ब्रिटिश समाचार पत्र जैसे 'स्टेटसमैन' एवं 'पायनियर' में कई संदर्भ आये हैं, जब खिलाफत आंदोलनों की बैठकों में वंदेमातरम के गायन के समय हिन्दू मुस्लिम सभी आदर से खड़े हो जाते थे। एक-दो मुस्लिम नेता खड़े नहीं होते थे तो उनकी आलोचना भी की जाती थी। अंग्रेज वंदेमातरम से इस लिए चिढ़ते थे कि बंग-विभाजन के दौरान इस गीत ने सारे देश को अभूतपूर्व रूप से जोड़ दिया था। इसीलिए अंग्रेजों ने इसे प्रतिबंधित कर मुस्लिम लीग को इसके विरूध्द भड़काना शुरू किया था।
स्वतंत्रता से पहले कांग्रेस की लगभग हर बड़ी सभा में इसे नियमित रूप से गया जाता था। 1923 के कांग्रेस के काकीनाडा अधिवेशन में जब विष्णु दिगंबर पलुस्कर वंदेमातरम गाने के लिए खड़े हुए थे, तब कांग्रेस के एक मुस्लिम सदस्य मौलाना अहमद अली ने आपत्ति जताई थी । इसके पूर्व मुसलमानों को अपने खिलाफत आंदोलन तक में गांधी द्वारा इस गाने का अनुमोदन दिलवाया गया था।
एक और रोचक ऐतिहासिक सत्य 'वंदेमातरम' के संबंध में सामने आया जब कांग्रेस के अपराजेय चाणक्य कहलाने वाले पं. द्वारका प्रसाद मिश्र वंदेमातरम का विरोध करने वाले रऊफ अहमद और एस.डब्ल्यू.ए. रिजवी जैसे पुरानी सेन्ट्रल प्राविन्सेज़ और बरार की 1937 की पहली कांग्रेस सरकार के सदस्यों पर इस तरह वन्देमातरम की रक्षा व समर्थन पर टूट पड़े थे जो हर कांग्रेसी को जानना जरूरी है। उस सरकार के प्रमुख थे बी.एन. खरे और उस समय कुछ मुस्लिम सदस्यों की आपत्तियों पर डा. मिश्र के तर्क तमाचे का काम करते थे। तात्पर्य यह है कि कांग्रेस के राष्ट्रवादी नेता उस समय भी सेकुलरवादी कहलाने वाले लोगों के कुतर्कों का दो टूक जवाब दे सकते थे।
अभी अधिक दिन नहीं हुए जब हैदराबाद के मुस्लिम धार्मिक नेताओं ने फतवा जारी किया था कि जिन स्कूलों में वंदेमातरम सामूहिक रूप से गाया जाता है, वहां मुस्लिम बच्चों को न पढ़ाया जाए। उनके अनुसार वे 'हिन्दू मजहबी तराने' के खिलाफ है और इसके सामूहिक गायन पर प्रतिबंध की मांग करते है। छह दशकों में यह विवाद कई बार उठा पर आज तो इसके समर्थन में प्रबुध्द कहलाने वाले अंग्रेजी मीडिया का एक बड़ा वर्ग अगुवाई कर रहा है' जिससे स्थिति चिंताजनक बनती जा रही है। पिछली बार जून 2006 में जब आल इंडिया सुन्नी उलेमा बोर्ड के अध्यक्ष मौलाना सैय्यद शाह बदरूद्दीन कादरी अलजीलानी ने वंदेमातरम के विरूध्द फतवा जारी किया था उसके बावजूद कई प्रदेशों में इसका असर नहीं था पर सेकुलरवादियों के उन्हीं घिसेपिटे तर्कों के प्रयोग के कारण यह विवाद उठता ही रहता है।
कुछ दिनों पहले प्रसिध्द विधिवेत्ता राम जेठमलानी इस विवाद पर (13 सितंबर 2006)'ए ट्रिस्ट विद वंदेमातरम' शीर्षक एक भावपूर्ण लेख लिखा था। इसके प्रथम पैराग्राफ ने उन्होंने 14 अगस्त 1947 की उस सुबह की याद दिलाई है जब संविधान निर्मात्री सभा का पांचवा सत्र कान्स्टीटयूशन हाल में डा. राजेन्द्र प्रसाद की अध्यक्षता में हो रहा था और लगभग सभी सदस्य उपस्थित थे। उस दिन के एजेन्डा का पहला आइटम वन्देमातरम का गान सुचेता कृपलानी द्वारा होना था। गीत के गायन के दौरान सभी मंत्रमुग्ध होकर सुन रहे थे क्योंकि उन्होंने उसे अत्यंत सुरीली आवाज में गाया था। डा. राजेन्द्र प्रसाद का उसके बाद का भाषण ऐतिहासिक कहा जा सकता है क्योंकि उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन से सेनानियों की भारत व अण्डमान जैसी जगहों की जेल यातना के अनुभवों की याद कर उन्हें श्रध्दांजलि दी। उन्होंने देश के सभी नागरिकों के साथ-साथ सभी अल्पसंख्यकों की सुरक्षा व समृध्दि की गारंटी देते हुए उनके कल्याण की कामना की। उस समय उपस्थित सदस्यों में एक ने भी वंदे मातरम के गाने पर या उसके बाद भी टिप्पणी न की थी। यहाँ तक कि चौधरी खालिकुज्जमां ने नेहरू जी के प्रस्ताव का अनुमोदन किया जिसमें मध्यरात्रि को ली जाने वाली शपथ का प्रारूप था। जन गण मन और वंदे मातरम् के चुनाव के बीच प्रतिद्वंद्विता मात्र संगीत और धुन की लोकप्रियता के आधार पर थी। यह महसूस किया गया कि गाते समय जन गण गन की धुन ज्यादा अच्छी रहेगी इसलिए उसे राष्ट्र गान चुना गया। यह भी स्पष्ट किया गया कि वंदे मातरम का उतना ही महत्व राष्ट्रगीत के रूप में रहेगा।
जैसा ऊपर लिखा गया है 24 जनवरी 1950 को, हमारे गणतंत्र के जन्म के दो दिन पहले औपचारिक रूप से राष्ट्रपति का यह वक्तव्य स्वीकार किया गया था। 'जन गण मन जो अपने शब्दों व धुन वाली कृति से परिचित है, भारत का राष्ट्रगान होगा, जिसमें समयानुसार सरकार किसी शब्द के परिवर्तन के लिए अधिकृत की गई है तथा वंदे मातरम जिसने देश के स्वतंत्रता संग्राम में ऐतिहासिक भूमिका निभाई है, उसी जन गण मन जैसे गीत की बराबरी का हकदार और दर्जा दिया जाने वाला यह राष्ट्रगीत होगा। 'तालियों की गड़गड़ाहट के बाद राष्ट्रपति के वक्तव्य को वही आदर व मान्यता मिली जो संविधान की किसी अन्य धारा को।' यदि देश के मुस्लिम नागरिक 'जन गण मन' का आदर कर सकते हैं तब अचानक उसी संविधान के दूसरे प्रावधानों का उल्लंघन कैसे हो सकता है? मात्र गाना ही नहीं भावों और आदर सहित इसके प्रति रूख दिखाने की अपेक्षा है जो राष्ट्रीय एकता के लिए आवश्यक है, ऐसा राम जेठमलानी भी मानते हैं।
(नवोत्थान लेख सेवा हिन्दुस्थान समाचार)
4 comments:
विचारों मे हलचल पैदा करता है लेख.
बहुत अच्छा लिखा आपने.
लेख अच्छा लगा ।
घुघूती बासूती
ऐसा ही है ! सेकुलर है भाई !
ji sanjev ji lekh achcha laga
par ananda matth me jis prakar musalmano k virudh zeher ugla gaya h use bhi to nakar nhi sakte!!! yani unki peeda bhi tarksangat hai
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