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Thursday, 10 January 2008

माओ के जुल्मों की कहानी


माओ-त्से तुंग को 20 वीं सदी का एक ऐसा निर्मम नेता माना जाता है जिसने अहम तथा सत्ता लिप्सा के चलते न केवल 7 करोड़ लोगों की हत्या करवाई बल्कि 'किसानों की क्रान्ति' के नाम पर चीन को दमन चक्र की चक्की में बुरी तरह से पीसा। वह विश्व राजनीति में एक ऐसे कुटिल नेता के रूप में छाया रहा जिसने 'पंचशील व हिन्दी-चीनी भाई-भाई' के नारे की आड़ में भारत की पीठ में छुरा घोंपा।

माओ के बारे में दो लेखकों, जुंग चांग तथा जॉन हालीडे, द्वारा लिखित पुस्तक 'माओ-दि अननोन स्टोरी' में जो तथ्य दिए गए हैं उन्होंने माओ के क्रान्तिकारी स्वरूप बारे व्याप्त मिथों को तोड़ा है। जुंग चांग 14 वर्ष की आयु से रैड ब्रिगेड के सदस्य रहे तथा उन्होंने माओ के बारे में काफी कुछ निकट से जाना था।

भारतीय राजनीतिक विश्लेषक ब्रह्म चेलानी ने माओ की इस जीवनी की समीक्षा करते हुए जो लिखा वह चौंकाने वाला है। हम पाठकों की जानकारी के लिए उसके कुछ प्रमुख अंशों को यहां प्रस्तुत कर रहे हैं :
''माओ-त्से तुंग द्वारा साम्राज्यवाद तथा पूंजीवाद के विरुध्द लड़ी गई लड़ाई और उसमें प्राप्त जीत ने उन्हें चीन में सर्वोच्च नेता बना दिया।''

माओ ने नरसंहार के मामले में इस सदी के हिटलर, स्टालिन और मुसोलिनी जैसे क्रूर तानाशाहों को बहुत पीछे छोड़ दिया। क्रान्ति के दौरान हुई हिंसा को छोड़ दें तो शांति काल में माओ ने 7 करोड़ लोगों की हत्याएं करवाईं। ये हत्याएं क्रान्ति विरोधी होने के आरोप में की गईं।

माओ के लिए मानवीय जीवन का कोई मूल्य नहीं था। 1959-61 के मध्य जो भीषण अकाल पड़ा उसे माओ निर्मित माना जाता है तथा इसमें 3.80 करोड़ लोग भूख से मरे। जब लोग भूख से मर रहे थे तब माओ कमसिन लड़कियों के साथ रंगरलियां मनाने में व्यस्त था।


माओ की कुटिलता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जिन लोगों ने क्रांति में और च्वांग काई शेक को सत्ता से हटाने में साथ दिया उन्हीं में से अनेक लोगों के विरुध्द माओ ने 1957 में 'सुधारवादी अभियान' चलाया। अभियान के अन्तर्गत कई लोगों पर मुकदमे चलाए गए व उन्हें दंडित किया गया। इसी 'विश्वासघाती' प्रवृत्तिा के कारण माओ ने अपनी चौथी पत्नी को विभिन्न आरोपों में जेल में डलवा दिया जहां 1991 में उसने आत्महत्या कर ली।

माओ ने सत्ता में आते ही 1950 में तिब्बत पर कब्जा करने की योजना बनाई और रूसी नेता स्टालिन से कहा कि चीनी सेनाएं तिब्बत पर हमला करने जा रही हैं, सोवियत वायुसेना उसके लिए वहां गोला-बारूद आदि पहुंचा कर सहायता करे। इस प्रकार माओ की इस युध्द में रूस को भी शामिल करने की योजना थी।

माओ ने 1962 में भारत पर हमला करने के लिए एक ऐसे समय को चुना जब विश्व का ध्यान अमेरिका व सोवियत संघ के मध्य आसन्न टकराव की ओर लगा था। उस समय सोवियत संघ ने क्यूबा में अमेरिका की ओर लक्ष्य करती हुई अपनी मधयम दूरी की मिसाइलें तैनात कर दी थीं। माओ को क्यूबा में मिसाइलें तैनात किए जाने की पूर्व सूचना ख्रुश्चेव से मिल गई थी, जिन्होंने युध्द छिड़ने की स्थिति में चीन से सहायता मांगी थी। माओ ने सूचना का लाभ उठाने के लिए तत्कालीन सोवियत राजदूत को बुलाकर कहा - चीन द्वारा भारत पर हमला किए जाने की स्थिति में मास्को को क्या रणनीति अपनानी चाहिए। बताया जाता है कि ख्रुश्चेव ने भी अपनी हितसाधक कूटनीति अपनाते हुए माओ को आश्वासन दिया कि वह भारत को मिग-21 लड़ाकू विमान देने के वायदे को पूरा करने में विलम्ब करेंगे और इस प्रकार युध्द में चीन का साथ देंगे।


माओ ने उस समय चतुर रणनीति अपनाते हुए अमेरिका से यह आश्वासन भी लिया था कि च्यांग काई शेक फार्मोसा (अब ताईवान) से चीन की मुख्य भूमि के विरुध्द कभी किसी प्रकार की आक्रामक कार्यवाही नहीं करेगा। माओ ने इस प्रकार प्रशांत क्षेत्र से कोई मोर्चा न खुलने को सुनिश्चित करते हुए भारत पर आक्रमण करने की ओर अपना पूरा ध्यान केन्द्रित किया। इस युध्द में भारत की बुरी तरह हार हुई तथा नेहरू को ऐसा सदमा पहुंचा जो उनके लिए जानलेवा सिध्द हुआ। नेहरू जिस तरह विकासशील देशों के नेता के रूप में उभर रहे थे वह माओ को पसंद नहीं था तथा वह इस क्षेत्र में नेतृत्व के लिए उन्हें अपना प्रतिद्वन्द्वी मानता था।

ख्रुश्चेव व माओ की दोस्ती भी लम्बे समय तक नहीं चली। अमेरिका व सोवियत संघ में समझौते के बाद ख्रुश्चेव ने क्यूबा से मिसाइलें हटा लीं और माओ से दोस्ती तोड़ ली, जिस पर माओ ने तिलमिलाते हुए कहा था ''ख्रुश्चेव अमेरिका के हाथों बिक गया।'' असल में माओ की इच्छा थी कि अमेरिका व सोवियत यूनियन परमाणु युध्द द्वारा नष्ट हो जाएं और चीन एकमात्र महाशक्ति के रूप में उभर कर दुनिया पर राज करे।

अमेरिका अच्छी तरह जानता था कि माओ का चीन किस प्रकार मानवाधिकारों के हनन व दमनचक्र में लगा हुआ है, इसके बावजूद वह उससे दोस्ती बढ़ाने के लिए विभिन्न हथकंडे अपनाने में लगा था। 1971 के बांग्लादेश युध्द के समय अमेरिका के तत्कालीन विदेश मंत्री हेनरी किसिंगर ने चीनी नेताओं से सम्पर्क कर कहा था कि वे उत्तार में भारत के विरुध्द मोर्चा खोल कर पाकिस्तान की सहायता करें, लेकिन सोवियत संघ की घुड़की के कारण चीन की तब ऐसा करने की हिम्मत न हुई।

निक्सन सरकार के लिए चीन के दरवाजे खोलने में किसिंगर की चीन दोस्ती व माओ तथा उनकी कम्युनिस्ट सरकार ने ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। यह बाहर से घृणा और भीतर से अपने हित साधने का कुटिल खेल था। माओ की 'ऊंची छलांग' व 'सांस्कृतिक क्रांति' के नाम पर हुई हिंसा तथा माओ के उत्ताराधिकारियों द्वारा व 'सांस्कृतिक क्रांति' के नाम पर हुई हिंसा तथा माओ के उत्ताराधिकारियों द्वारा तिनानमिन चौक में लोकतंत्र समर्थक छात्रों के नरसंहार के बाद आज चीन उसी अमेरिका के साथ पूंजीवादी मार्ग पर चल पड़ा है जिसका वह हमेशा विरोध करता था।

जुंग चांग और जॉन हालीडे की पुस्तक में माओ के चरित्र और जीवन बारे में जो तथ्य प्रकाशित किए गए हैं वह स्पष्ट करते हैं कि माओ जैसे नेता किस तरह पूरी कौम को अपनी सनक का शिकार बना देते हैं।

विश्व राजनीति में महत्वाकांक्षी नेताओं के लिए मित्रता व विश्वसनीयता का कोई मोल नहीं होता। भारत के प्रति मैत्री का राग अलापने वाले कई नेता अपने हित साधने के लिए भारत के विरुध्द माओ का साथ देने के लिए चल पड़े थे। आज यह नेता नहीं रहे, लेकिन इतिहास की यह कटु वास्तविकताएं दुनिया को काफी समय तक झकझोरती रहेंगी। (साभार : पंजाब केसरी)

1 comment:

संजय बेंगाणी said...

साम्यवादीयों को अब मोदी को "हिटलर" के स्थान पर "माओ" कहना शुरू कर देना चाहिए :)