स्वतंत्रता प्राप्त होने के बाद दशकों में शायद यह पहला दौर होगा जब हमारा देश महसूस कर रहा है कि शासन-तंत्र से आतंक की चपेट से उबरने की उम्मीद करना मूर्खता है। देश लगातार इस अन्दरूनी हमले को झेल रहा है, एक साधारण व्यक्ति भी भय और निराशा भरे वक्तव्य दे रहा है और स्पष्ट कह रहा है कि यदि इस मुद्दे पर अमेरिका जैसे मनोबल को हम नहीं दिखा पाएंगे तो राजनीतिक प्रपंचों से भरा राजनीतिक ढोंग हमें और प्रजातांत्रिक ढांचे को जल्दी ही निगल जाएगा। हम कितना ही ऊपरी दिखावा करें हिंसा और दहशत के हिमायतियों ने सामाजिक समरसता को तार-तार करने की कोशिश की है। हम एक बुनियादी अंतर्विरोध का सामना फिर कर रहे हैं जहाँ संविधान को न मानने वाले हिंसा, घृणा, दहशत और निर्बोध लोगों का संहार करने वालों को हमारे मीडिया का एक बड़ा वर्ग उनके शिकार हुए लोगों की अपेक्षा अधिक महत्व देता है। इस अनुत्तरदायी आचरण के लिए साक्ष्यों की जरूरत नहीं, यह लापरवाही और अराजकता, बौध्दिक विमर्श के चालू जन-संपर्कवाद, वृन्दवादन या आर्कस्ट्रेशन में लगभग प्रतिदिन अभिव्यक्त होता है। भूल जाइए कि आज की परिस्थिति में आतंकवाद के राक्षस पर नकेल लगाया जा सकता है। अनेक राजनीति के विश्लेषक इसे असुरक्षित, मनोबल हीन 'पिलपिला' राष्ट्र भी कहने लगे हैं जहाँ पिछले कई दशकों में मात्र निर्बोध जनता ही आतंकवादियों का निशाना बनी है, सुरक्षा-व्यूह में रहने वाले नेता नहीं।
अभी तक हर हादसे के तुरन्त बाद पाकिस्तानी जेहादी संगठनों के हाथ की चर्चा कर हमारे समाचार पत्र बहुधा देश के भीतर पनपते आतंकवादियों होमग्रोन टेरेरिस्टों-के अस्तित्वों को भी नकारते आए थे पर शायद पहली बार 'टाइम्स ऑफ इण्डिया' ने गुजरात के हादसे के तुरन्त बाद 7 जुलाई 2008 को एक अग्रलेख में स्वीकार किया कि जिहादियों का भारतीयकरण हो चुका है। अभी तक लगता है इस कड़वे सच को वे मानने में भी झिझकतेथे। एक साधारण नागरिक को वैश्विक आतंकवाद के नेटवर्क पर व्याख्याओं से कोई मतलब नहीं है। उसे तो सिर्फ अपनी जान की चिन्ता है जिसे भाषणाजी या संपादकीय सलाह नहीं सुलझा सकती । क्या आज बिना किसी कड़ी या दुस्साहस भरी सुनियोजित पहल क हम इस खतरे से उबर सकते हैं? क्या प्रभावित राज्यों या केन्द्रीय सरकार की रटी रटाई प्रतिक्रियायें हमें आश्वस्त कर सकती हैं? क्या अपराधियों को सजा दिलाने में वर्षों लगाने से ऐसे भयावह हादसों में भी हमने अपनी न्याय प्रक्रिया का स्वयं मखौल कर सकती है? हमारी सुरक्षा और जांच एजेन्सियों की अक्षमता से हर नागरिक परिचित हो चुका है और यह बार-बार सिध्द हो रहा है कि आतंकवाद विरोधी अभियान की असली प्रकृति की समझ भी हमें नहीं है। उनकी गतिविधियों, कार्यप्रणाली, प्रावधानों और मानवाधिकार के नाम पर प्रपंचों का फायदा मात्र आतंकवादी बखूबी से उठाते हैं। एक अक्षमता व असफलता से झूलते हुए हमउस निष्क्रियता के दौर में पहुंच जाते हैं जहाँ पर किसी हादसे की पुनरावृत्ति पर हम नये सिरे से आदर्शवादी वक्तव्यों व भाषणों के गोरखधंधे में अपने को फंसा लेते हैं।
सभी को अज्ञात से डर लगता है; अगले मोड़ में छिपे अदृश्य शत्रु की आहट उसे सुनाई पड़ती है। मात्र वक्तव्यों से उसकी विवशता की सरहदें टूटती रहेंगी। वह सुझाव भी देने की स्थिति में है पर हो सकता है उनमें से कुछ आज के विषाक्त राजनीतिक माहौल में सही न लगती हों। उसकी स्पष्टता व निजी ईमानदारी फिर भी उसक आक्रोश में झलकती हैं। ऐसे ही कुछ सुझावों का संकलन निम्न पंक्तियों ने प्रस्तुत हैं।
जांच के लिए गुप्त कैमराओं का सार्वजनिक स्थलों पर अधिकाधिक प्रयोग के साथ-साथ न्यायालयिक कार्यशालाओं-फोरेन्सिक लैब की संख्या व गुणवत्ता भी बढ़ाई जाए जिससे साक्ष्यों की विश्वसनियता के अभाव में गंभीर आरोपी कानून की गिरफ्त से न बच पाएं, जैसा आज कल बहुधा होता है।
केन्द्रीय स्तर पर वाहनों के दुरूपयोग करने वालों को कानूनी पकड़ में लाने के लिए एक 'डेटाबेस' संकलित करना, आतंकवादियों की सतर्कता से जांच करने के लिए आवश्यक है। छोटे-छोटे रेस्टारेन्टों के मालिकों, क्लबों को चलाने वाले, दुकानदारों को, या विस्फोटकों के निर्माण में प्रयुक्त सामान का व्यापार करने वाले अथवा साइबर कैफे से जुड़े लोगों को समय-समय पर अवांछित काम में लिप्त लोगों की सूचना देने के लिए प्रेरित किया जाए। हर नागरिक के लिए एक समान राष्ट्रीय परिचय पत्र जारी किया जाए जो वोटर या दूसरे कार्डों से अलग हो। सीमा क्षेत्रों में इसे विशेषकर अनिवार्य बनाया जाए। आतंकवाद से जूझने के लिए सन् 2002 में बनाए 'पोटा' या उसके जैसे कानून बना कर हर नागरिक को स्पष्ट संकेत दिया जाए कि राष्ट्रद्रोह या हिंसा की नीतियों को सरकार समान रूप से कुचलने को कटिबध्द हैं।
एक सर्वोच्च राष्ट्रीय सुरक्षा संगठन सिर्फ आतंकवाद से निपटने के लिए केन्द्रीय स्तर की एजेन्सी के रूप में बनाया जाए जिसमें विशेषज्ञ हो, सैन्यबल हों, पूर्व सेनाधिकारी हों और राजनीतिक प्रभाव डालने वालों को बाहर रखा जाए। इन्टरपोल की तरह संदेह के घेरे में आए आरोपियों व दण्डित अधिकारियों और अपराधियों की केन्द्रीय नेटवर्क द्वारा सूचना उपलब्ध कराने की प्रणाली का विकास किया जाए। केन्द्रीय जांच ब्यूरो को आतंक से जुड़े हर प्रकरण सौंपे जाएं और उनका अधिकार क्षेत्र भी बढ़ाया जाए। निष्पक्ष, स्वतंत्र और सक्षम खुफिया तंत्र सरकार बनने, बिगड़ने या बदले से अप्रभावित रहे और वह मात्र अपने स्वयं के गठित चार्टर के लिए उत्तरदायी रहें।
चाहे विपक्ष हो या सत्तादल के राजनीतिबाज या मीडिया के स्वयंभू कर्णधार यदि वे न्यायिक या जांच प्रक्रिया को बरगलाने की कोशिश करते हैं या किसी भी बहाने भी आतंकवाद को समर्थन देते हैं उनकी भी बारीकी से जांच होनी चाहिए। इसी तरह न्याय प्रक्रिया में मानवाधिकार व गैरसरकारी संगठनों के आवश्कयता से अधिक रूचि लेने के मूल कारणों की जांच में राजनीतिक हस्तक्षेप की खुलकर भर्त्सना होनी चाहिए।
आतंकवाद के प्रच्छन्न समर्थकों के रूप में उन समाजकर्मियों एवं पत्रकारों पर निगरानी करना चाहिए जो उनसे व उनके परिवार पर नियमित रूप से सहानुभूति जताते हैं। इसी तरह आतंकवादी घटनाक्रम की जांच में कानूनी प्रक्रिया में तेजी लाई जाए। उसे वर्षों तक लटकाने व चलाने वालों पर भी प्रश्न चिन्ह लगाना अपेक्षित है। न्याय में देर करना न्याय न देने के बराबर है। या तो अपराधी को तुरन्त दण्डित किया जाए अथवा अपराध न सिध्द होने पर उसे छोड़ दिया जाए यह निष्पक्ष प्रक्रिया का तकाजा है।
पुलिस और जांच एजेन्सियों को आरोपियों से पूछताछ करने में पूरी स्वतंत्रता दी जाए। 'ट्रायल बाई मीडिया'-विशेषकर दृश्य मीडिया की निर्णय पहुंचने की जल्दबाजी देश के लिए घातक सिध्द हो रही है।
संविधान को न मानने वाले या हिंसा में विश्वास करने वालों को न्यायिक प्रक्रिया की बारीकियों के बहाने या मानवाधिकार के नाम पर कोई छूट न दी जाए। राजनीतिक दलों के किसी भी वर्ग के तुष्टीकरण के एजेन्डा का पर्दाफाश भी अपेक्षित है। सारे अपराधी बिना झिझक के एक ही पलड़े में तौले जाएं।
मानवाधिकार हनन के सतहे आरोप या दुष्प्रचार के बल पर पुलिस अधिकारियों को दण्डित करना बंद किया जाए। किसी मंत्री के दबाव में नहीं बल्कि वैध जांच प्रक्रिया के बाद में प्राकृतिक न्याय देते हुए, यदि आरोप सिध्द होते है तभी दण्ड दिया जाए। पुलिस के मनोबल को गिराने वाले समाचारों की तरह में भी पहुंचना जरूरी है। भारत पाक शान्तिवार्ता के उत्साही समर्थकों पर भी कड़ी नजर रखना जरूरी हैं क्योंकि वे हर आतंकवादी हमले का उद्देश्य मात्र इस प्रक्रिया को हानि पहुंचना ही कहते हैं। उन्हें नरसंहार और खून खराबे के पीछे बस यही लक्ष्य दिखता है।
देश का हर कोना आज असुरक्षित ही नहीं जैसे किसी अनहोनी का इन्तजार कर रहा है। बंगलौर के हादसे के मात्र एक दिन बाद अहमदाबाद के विस्फोटों की श्रृंखला ने सिध्द कर दिया है कि आतंकवादी अपनी इच्छानुसार हमें जहां चाहें निशाना बना सकते है।ं चाहे मुम्बई ओ या वाराणसी, जयपुर हो या मालेगांव अथवा नागपुर अब तक हमारा बड्बोलापन हमारे प्रजातंत्र का सिर्फ मखौल उड़ाता रहा है। क्या यह शर्मनाक नहीं हैं जब देश के सबसे बड़े अंग्रेजी दैनिक कहलाने वालों ने अपने मुखपृष्ठ पर 6-कालम शीर्षक में लिखा यह हादसा 'मौदीलैण्ड' गुजरात में हुआ शायद मुख्यमंत्री को उसकी करनी पर सबक सिखाया गया है। निर्बोध जनता की इस त्रासदी के क्षण में भी यदि हमारा प्रबुध्द वर्ग अपनी घृणा न छिपा पाए तो देश कहां जा चुका है, हम समझ सकते हैं । यह भी लिखा गया है कि क्योंकि कर्नाटक और गुजरात दोनों भाजपा शासित प्रदेश हैं इसलिए अगला निशाना मध्यप्रदेश भी हो सकता है । कुछ पत्रकार यह भी कह रहे हैं शायद यह घटनाक्रम गुजरात में होना ही था। यह वहां के वर्षों पहले के दंगों का बदला हैं।
आज स्पष्ट है कि राष्ट्रविरोधी, सशक्त यद्यपि दिग्भ्रमित मीडिया के एक वर्ग ने आतंकवाद के दौर में एक नई पेंचीदगी को जन्म दिया है । इस नए शत्रु की पहचान और उससे निपटना एक नई मजबूरी है। फिलहाल स गंभीर मुद्दे पर हमारी नीतियाँ अपने ही पैरों के घाव चाट रही हैं। एक साधारण, सामान्य व्यक्ति के वर्तमान अविश्वास के कारण जल्दी दूर नहीं होने के। (नवोत्थान लेख सेवा हिन्दुस्थान समाचार)
1 comment:
आपको जन्माष्टमी की बधाई
दीपक भारतदीप
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