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Friday 12 September, 2008

माओवाद के बुर्के में चर्च!!

लेखक- देवेन्द्र स्वरूप

चर्च की संगठन क्षमता एवं षडयंत्रकारी कार्यशैली के सूक्ष्म अध्येताओं को यह समझने में देर नहीं लगेगी कि माओवादियों के आधुनिक शस्त्र, वाहन, पैसा व प्रशिक्षण आदि साधन चर्च ही प्राप्त करा सकता है। माओवाद का बुर्का ओढ़ लेने पर चर्च को उन सब वामपंथी, प्रगतिवादी, मानवाधिकारवादी बुध्दिजीवियों, समाजसेवियों एवं संगठनों का रक्षा कवच सहज ही मिल जाता है जो माओवादी हिंसा को आर्थिक विषमता, शोषण और गरीबी का प्रस्फुटन मान बैठे हैं। छत्तीसगढ़ में डा.विनायक सेन की गिरफ्तारी के विरुध्द जो प्रचार अभियान भारत और विदेशों में चलाया जा रहा है वह केवल चर्च ही चला सकता है, माओवादी नहीं चला सकते।

13 अगस्त शनिवार को रात 9.15 बजे उड़ीसा के कंधमाल जिले के जलेसपट्टा कन्या आश्रम में कृष्ण जन्माष्टमी समारोह में व्यस्त 84 वर्षीय संत स्वामी लक्ष्मणानंद जी सरस्वती की चार शिष्यों के साथ हत्या की पाशविक घटना ने पूरे उड़ीसा को जनाक्रोश के दावानल में झोंक दिया है। एक दिन पहले ही स्वामी जी ने थाने को लिखित सूचना दी थी कि उन्हें जान से मारने की धमकी का गुमनाम पत्र मिला है अत: उन्हें समुचित सुरक्षा प्रदान की जाए। पर पुलिस अधिकारियों ने उनकी चेतावनी को अनसुना कर दिया। क्या वे सचमुच नहीं जानते थे कि 50 वर्षों से उड़ीसा के कंधमाल जिले के गरीब और पिछड़े वनवासियों की नि:स्वार्थ सेवा में जुटे स्वामी लक्ष्मणानंद जी का उड़ीसा वासियों के अंत:करणों में कितना ऊंचा स्थान है और ऐसे तपस्वी संत की पाशविक हत्या की प्रतिक्रिया कितनी तीव्र होगी? क्या उन्हें यह भी पता नहीं था कि 1924 में जन्मे स्वामी लक्ष्मणानंद का गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने और दो पुत्रों के पिता होने के बाद भी उनकी अध्यात्म-पिपासा उन्हें हिमालय की गुफाओं में खींच ले गयी थी और वहां से लौटकर उन्होंने गांधी जी के आध्यात्मिक उत्तराधिकारी संत विनोबा के गोरक्षा आंदोलन का व्रत धारण किया? 1966 में प्रयाग के कुंभ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरुजी एवं नवोदित विश्व हिन्दू परिषद् से प्रभावित होकर कंधमाल जिले को ही अपनी आजीवन तपोभूमि बनाने का संकल्प लिया। कंधमाल जिले के गरीब वनवासियों की शिक्षा, स्वास्थ्य और आर्थिक विकास की अनेकविध योजनाओं को प्रारंभ करते समय उन्हें माओवादी कहीं नहीं दिखायी दिये, पर पग-पग पर बड़े पैमाने पर वनवासियों के मतांतरण में जुटे ईसाई मिशनरियों ने उन्हें मार्ग की बाधा के रूप में देखा और उन्हें अपना शत्रु घोषित कर दिया।

तेजी से बढ़ा ईसाई प्रतिशत
कंधमाल जिले में ईसाई मिशनरियों के मतांतरण अभियान की विशालता और गति का अनुमान इसी से लग सकता है कि उस जिले में मतांतरित ईसाइयों का प्रतिशत 1971 के 6 प्रतिशत से बढ़कर 2001 में 27 प्रतिशत पहुंच गया। 1991 में वहां मतांतरितों की संख्या 75,571 थी तो 2001 में वह बढ़कर 11,79,500 पहुंच गयी। पानोस जाति के वनवासियों में 70 प्रतिशत मतांतरित ईसाई बन गए। इतने बड़े पैमाने पर मतांतरण में कितना विशाल संगठन तंत्र और साधन लगे होंगे इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।

स्वामी लक्ष्मणानंद जी ने अत्यंत सीमित साधनों के होते हुए भी अपनी नि:स्वार्थ सेवा भावना और पाण्डित्यपूर्ण तपोबल के भरोसे मतान्तरण की इस गति को न केवल कुंठित किया बल्कि प्रलोभन, छल और बल से मतान्तरित वंचित ईसाइयों को 'घर वापसी'की प्रेरणा भी दी। बड़ी संख्या में मतान्तरित ईसाई पुन: अपने पूर्वजों की श्रध्दा-धारा में वापस लौट आए। स्वामी जी के तपोबल के इस प्रभाव से मिशनरी तंत्र चिंतित हो गया। उन्हें अपने रास्ते से हटाने के लिये उन पर पहले भी 1971 और 1995 में प्राणघाती हमले किए गये, पर ईश्वरीय कृपा से वे हर बार बच गए। पिछले साल दिसंबर 2007 में कांग्रेस के राज्यसभा सांसद राधाकांत नाईक, जो स्वयं भी वंचित वर्ग के ईसाई हैं, के गांव ब्राह्मणी में स्वामी जी की कार पर पथराव हुआ, उत्तेजित ईसाई भीड़ ने वहां के पुलिस स्टेशन पर भी आधुनिक आग्नेयास्त्रों से हमला किया। इसके प्रतिक्रिया स्वरूप ईसाई और हिन्दू वनवासियों के बीच व्यापक हिंसक संघर्ष हुए। इस संघर्ष में कुछ ईसाई पादरी भी मारे गए। तभी से चर्च क्षेत्रों में स्वामी जी को रास्ते से हटाने के लिये तरह-तरह के षडयंत्र रचे जा रहे थे।

भ्रामक प्रचार उजागर
23 अगस्त की रात्रि के प्राणघाती हमले को इन्हीं षडयंत्रों की कड़ी के रूप में देखा जाना चाहिए। रात्रि में 9.15 बजे के लगभग 50 नकाबधारी लोग काले वस्त्र पहनकर आधुनिकतम स्वचालित शस्त्रों से लैस होकर कृष्ण जन्माष्टमी समारोह में तल्लीन कन्याश्रम में घुस आए। उनका एकमात्र लक्ष्य स्वामी जी एवं उनके शिष्य अरूपानंद, चिन्मयानंद, माता भक्तिमयी थे। स्वामी जी उस समय शौचालय में थे। पर उन दुष्टों ने शौचालय का दरवाजा तोड़कर नि:शस्त्र व असावधान स्वामी के शरीर को गोलियों से छेद डाला। इस दुर्घटना के एक घंटे के भीतर ही डी.जी.पी. गोपाल नंदा और राज्य के गृह सचिव टी.के.मिश्रा ने इस आक्रमण को माओवादियों की करतूत घोषित कर दिया। फलत: मीडिया ने देश भर में इसे माओवादी हमले के रूप में प्रस्तुत किया। इस भ्रामक प्रचार की पुष्टि के लिये किसी माओवादी संगठन दि पीपुल्स लिबरेशन रिवोल्यूशनरी ग्रुप ने इस हमले और स्वामी जी की हत्या की जिम्मेदारी भी ले ली। गृहसचिव तरुणकांत मिश्र ने कहा कि 'हथियारों के प्रकार और हमले की शैली से इस हमले में माओवादियों के हाथ को नकारा नहीं जा सकता।व् विश्व हिन्दू परिषद् की राज्य इकाई के सचिव गौरी प्रसाद रथ ने सवाल उठाया कि यदि यह माओवादी हमला था तो उन्होंने आश्रम के द्वार पर मौजूद चार होमगार्डों को अपना निशाना क्यों नहीं बनाया, क्यों सीधे स्वामी लक्ष्मणानंद जी और उनके संन्यासी शिष्यों को ही निशाना बनाया? यदि माओवादी गरीबों के हित चिंतक हैं तो स्वामी जी से उनकी क्या शत्रुता हो सकती है, क्योंकि स्वामी जी की तो 40 वर्ष लम्बी साधना तो गरीबों, वंचितों, पिछड़ों के उध्दार के लिए ही समर्पित थी? सरकारी तंत्र भले ही इस घटना को माओवादी हमले के रूप में देख रहा हो, पर उड़ीसा की जनता को तनिक भ्रम नहीं है कि इस घटना के पीछे चर्च का षडयंत्र है, क्योंकि चर्च ही स्वामी जी को अपने मतान्तरण के प्रयत्नों का शत्रु मान बैठा था।

इस हत्याकांड की पृष्ठभूमि और उसका स्वरूप इतना स्पष्ट है कि माओवादी हमले का भ्रामक प्रचार पूरी तरह ढह गया है। इस घटना के संबंध में जो व्यक्ति अब तक गिरफ्तार हुए हैं- गुंजीवाडी का विक्रम दिग्गल, विलियम दिग्गल और खड़कपुर का प्रकाश दास-वे तीनों ही वंचित ईसाई हैं और उन्होंने हमलावर गिरोह में सम्मिलित होने की बात कबूल कर ली है। इनके पास से प्रतिबंधित सीपीआई (माओ) की फ्रंट संस्था वंशधारा कमेटी का पेम्फ्लेट भी बरामद हुआ है। इन सब तथ्यों के कारण अब यह कहा जा रहा है कि शायद चर्च और माओवादियों के बीच गठबंधन हो गया है और दोनों एक दूसरे का इस्तेमाल कर रहे हैं। ग्राहम स्टींस की हत्या के आरोपी दारासिंह को गिरफ्तार करने वाले साहसी पुलिस महानिरीक्षक वाई.जी. खुरानियां ने दिसंबर 1994 में पुलिस थाने पर ईसाई भीड़ द्वारा इस्तेमाल किये गये आग्नेयास्त्रों और 23 अगस्त की घटना में समानता का उल्लेख करते हुए कहा कि ईसाई मिशनरियों व माओवादियों के बीच गठबंधन की आशंका की पुष्टि होती जा रही है। अब उड़ीसा का प्रशासन तंत्र कैथोलिक चर्च द्वारा दक्षिण अमरीका में आविष्कृत लिबरेशन थियोलॉजी का भी स्मरण करने लगा है।

वस्तुत: पिछले कई वर्षों से हमारी अन्तरात्मा कह रही थी कि उड़ीसा, झारखंड, छत्तीसगढ़ और आंध्र प्रदेश के सघन वनवासी क्षेत्रों में माओवादी हिंसा की बाढ़ के पीछे चर्च का हाथ होना चाहिए। यहां स्थिति माओवादियों और चर्च के बीच गठबंधन की नहीं है। न ही चर्च माओवादियों का इस्तेमाल कर रहा है। वस्तुत: चर्च स्वयं ही माओवाद के बुर्के को ओढ़कर इन वनवासी क्षेत्र में हिंसा के द्वारा भय और आतंक का वातावरण पैदा करके अपना प्रभाव बढ़ा रहा है। चर्च ने भोले, अशिक्षित, गरीब वनवासियों को ही अपनी धर्मांतरण योजना का लक्ष्य चुना है। 'लिबरेशन थियोलॉजीव् को भारतवर्ष में माओवाद के आवरण में क्रियान्वित किया जा रहा है। स्वामी लक्ष्मणानंद ने अपनी प्राणाहुति देकर चर्च के षडयंत्री चेहरे पर से माओवाद का बुर्का हटा दिया है। अब उड़ीसा, छत्तीसगढ़ की आंखें खुल जानी चाहिए और उन्हें माओवाद के भ्रमजाल से बाहर निकलकर चर्च की घेराबंदी करनी चाहिए।

संलिप्तता के सबूत
चर्च की संगठन क्षमता एवं षडयंत्रकारी कार्यशैली के सूक्ष्म अध्येताओं को यह समझने में देर नहीं लगेगी कि माओवादियों के आधुनिक शस्त्र, वाहन, पैसा व प्रशिक्षण आदि साधन चर्च ही प्राप्त करा सकता है। माओवाद का बुर्का ओढ़ लेने पर चर्च को उन सब वामपंथी, प्रगतिवादी, मानवाधिकारवादी बुध्दिजीवियों, समाजसेवियों एवं संगठनों का रक्षा कवच सहज ही मिल जाता है जो माओवादी हिंसा को आर्थिक विषमता, शोषण और गरीबी का प्रस्फुटन मान बैठे हैं। छत्तीसगढ़ में डा.विनायक सेन की गिरफ्तारी के विरुध्द जो प्रचार अभियान भारत और विदेशों में चलाया जा रहा है वह केवल चर्च ही चला सकता है, माओवादी नहीं चला सकते। डा. विनायक सेन को जेल से बाहर लाने के लिये उनके लिए यूरोप में एक पुरस्कार की व्यवस्था की गयी, उनके पक्ष में दस यूरोपीय नोबल पुरस्कार विजेताओं का संयुक्त वक्तव्य जारी कराया गया। दस यूरोपीय नोबल पुरस्कार विजेताओं के हस्ताक्षर जुटाना भारतीय माओवादियों के बूते में नहीं है, यह चर्च ही कर सकता है। इस दृष्टि से चर्च की कार्यशैली का, उनके साहित्य का सूक्ष्म अध्ययन बहुत आवश्यक है। स्वामी लक्ष्मणानंद जी की हत्या की उग्र प्रतिक्रिया से चिंतित होकर वेटिकन तुरंत मैदान में कूद पड़ा। उसने चर्च द्वारा संचालित अनाथालय पर हमले की निंदा की। उसे विश्व प्रचार का मुद्दा बनाया। एक कार्दिनल जॉन लुईस तौरान ने भी अनाथालय पर हमले को ही उछाला। जिस प्रकार गुजरात के दंगों के समय दो चित्र पूरे विश्व में उछाले गए थे उसी प्रकार इस बार भी एक चित्र, जिसमें किसी चर्च के शिखर पर लगे क्रॉस पर किसी बजरंग दल के कार्यकर्ता को भगवा फहराते हुए दिखाया गया है, सब समाचार पत्रों में प्रकाशित किया जा रहा है। उसे भारत में ईसाई मत पर हमले के प्रतीक के रूप में प्रचारित किया जाएगा।

कितना दुर्भाग्य है कि चर्च अभी भी मतान्तरण को ही अपना एकमात्र एजेंडा बनाकर चल रहा है, जो समाजों के बीच वैमनस्य और संघर्ष का मुख्य कारण बन गया है। चर्च अपने आंतरिक पतन को दूर करने की कोशिश क्यों नहीं करता? यह प्रश्न उसकी रातों की नींद क्यों नहीं उड़ाता कि यूरोप और अमरीका के जो गोरी चमड़ी वाले हजार वर्ष पहले चर्च की शरण में आए, वे उसे छोड़कर क्यों जा रहे हैं? पश्चिम का मीडिया बड़े-बड़े पादरियों के यौनाचार की कथाओं से भरा पड़ा है। स्वयं चर्च के भीतर पादरियों में विवाह की भूख बढ़ती जा रही है। अब पश्चिमी देशों से मिशनरी कम संख्या से निकलते हैं। भारत जैसे गरीब देश से ईसाई मिशनरी विदेशों में भागे जा रहे हैं। स्वयं ईसाई समाज के भीतर चर्च के पतन और मतान्तरण की नीति की आलोचना व्यापक होती जा रही है। अनेक ईसाई विचारक चर्च द्वारा मतान्तरण के कार्यक्रम को इक्कीसवीं शताब्दी में पूरी तरह अप्रासंगिक एवं कालबाह्य मानते हैं। एक भारतीय वंचित ईसाई आर.एल.फ्रांसिस ने हाल ही में 'आस्था से विश्वासघातव् पुस्तक में वंचित ईसाइयों के प्रति भेदभाव की नीति के तथ्य प्रस्तुत किये हैं। इस पुस्तक के एक अध्याय का शीर्षक है, 'गरीबों से दूर होता चर्चव्, दूसरे का शीर्षक है, 'धर्मान्तरण से नहीं बदली जीवन की तस्वीरव्, तीसरे का शीर्षक है, 'दलित ईसाई-चर्च नेतृत्व से मुक्ति की जरूरतव्। ये शीर्षक चर्च की विफलता की बोलती कहानी हैं। पर चर्च अपनी विफलताओं को ढकने के लिए गरीब, भोले, अशिक्षित वनवासियों के धन, बल, छल से मतान्तरण में ही अपनी पूरी शक्ति लगा रहा है।

निशाने पर बस हिन्दू समाज
उसने विविधताओं से परिपूर्ण हिन्दू समाज को ही अपना मुख्य निशाना बनाया है। इसके लिए वह सभी हिन्दूद्वेषी तत्वों से गठबंधन को तैयार है। 26 जुलाई के बम विस्फोटों की जांच में पता चला कि जिहादी सोभान या तौकीद ने जो ईमेल 5 मिनट पहले भेजी थी वह मुम्बई के केन हेवुड नामक अमरीकी के यहां से भेजी गयी थी। अब जांच से सामने आया है कि हेवुड मतान्तरण के लिये कुख्यात एक चर्च में अत्यधिक सक्रिय था और वह जांच के भय से रहस्यमय ढंग से अमरीका चला गया। अमदाबाद के फादर सेड्रिक प्रकाश की हिन्दू विरोधी गतिविधियों के तार अमरीका तक फैले हुए हैं। छत्तीसगढ़ और उड़ीसा की सरकारों ने यदि माओवादी हिंसा की गहरी छानबीन की तो माओवाद के बुर्के में छिपा चर्च का चेहरा बेनकाब हो जाएगा।

चर्च भारत के ईसाई समाज का प्रतिनिधित्व नहीं करता, बल्कि वह ईसाई समाज का सबसे बड़ा शत्रु है। उसकी एकमात्र चिंता अपने अस्तित्व की रक्षा और अपने साम्राज्य का विस्तार है। दिल्ली के श्रेष्ठ विद्यालय सेंट स्टीफेंस कालेज में पिछले दिनों प्राचार्य के चयन और स्टाफ व छात्रों में ईसाई कोटे को लेकर चर्च ने जो दबाव बनाया उससे इस कालेज की छवि को बहुत धक्का लगा। उदारवादी ईसाई बुध्दिजीवियों ने ही चर्च के हस्तक्षेप का विरोध किया। भारत का ईसाई समाज अधिकांशत: उदार, प्रगतिशील व देशभक्त है। इसी 27 अगस्त को बंगलूरू के कर्नल जोजन जोसेफ थामस (43) ने कश्मीर के मट्टन सेक्टर में जिहादी घुसपैठियों के विरुध्द वीरतापूर्ण संघर्ष में आत्मबलिदान किया, वह पूरे भारत के लिए गर्व का विषय है।

4 comments:

रंजना said...

बहुत सही लिखा है आपने.एक अत्यन्त ही सटीक ,समसामयिक ,वैचारिक प्रस्तुतीकरण के लिए बहुत बहुत आभार.

दीपान्शु गोयल said...

बहुत ही अच्छा लिखा है। समसामायिक और विचारोत्तेजक लेख है। आज हिन्दू हितों के लिए काम करने वाले हर व्यक्ति को निशाना बनाया जा रहा है। संघ तो सदा से ही इस विरोध का सामना करता रहा है। ईसाई मिशनरी भी इस विरोध में आगे रही हैं। अब अगर ये लोग माओवादियों के साथ गठजोड बना रहें हैं तो ये देश के लिए अच्छा नहीं है।

Anonymous said...

मुझे बेहद खुशी है की एक-आध बुद्धिजीवी अब ईस बात को भांपने लगे है। अन्यथा, कल तक लोग "माओवाद मतलब चीन" वाले पुर्वाग्रह से ग्रसित थें। नेपाल मे माओवाद को मैने नजदीक से अनुभव किया है, मै इस नतिजे पर पहुचा हु की निश्चित ही कोई राज्य ईनको धन एवम योजनाए उपलब्ध करा रहा है। चर्च नियंत्रित राष्ट्रो के अलावा और कौन और हो सकता है?

Anonymous said...

नेपाल मे संघ भी शंका के घेरे मे है। नेपाल मे संघ के कामो से ईसाईयो को सहयोग मिला है। यह गहरी बात है, समझने वालो की जरुरत है।