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Monday 15 September, 2008

आतंकवाद को इस्लाम से जोड़ने का जिम्मेदार कौन? -मुजफ्फर हुसैन

भारत में श्रृंखलाबध्द बम विस्फोटों की पहली घटना मुम्बई में 1993 में हुई। उन घटनाओं की न्यायिक जांच हो चुकी है। अदालत ने जो फैसला सुनाया है क्या उनमें अधिकांश मुसलमानों के नाम नहीं हैं? बम विस्फोट के मामले में बंगलादेशी पकड़े जाते हैं तो हमें उनसे सहानुभूति क्यों होनी चाहिए? क्या बंगलादेशी विदेशी नागरिक नहीं हैं? क्या वे घुसपैठिये नहीं हैं? चूंकि उनका मजहब इस्लाम है इसलिये हम मुसलमान होने के नाते उनके पक्षधर बनें और भारत के नागरिक होने के बावजूद उनका अपराध छिपाएं तो हमारा राष्ट्रधर्म कहां जाएगा? बंगलादेशियों का पाप हम अपने सर पर लेकर कहें कि हम यह सब इस्लामी भाईचारे के नाते करते हैं तब देश की रक्षा और वफादारी का अर्थ क्या रह जाएगा?
कोई समाज यह नहीं चाहेगा कि उसे कोई आतंकवादी कहे। जब उसके मजहब को 'दहशतगर्द' की संज्ञा दी जाएगी तो उसकी नाराजगी स्वाभाविक है। पिछले कुछ सालों से मुसलमान और इस्लाम के आगे-पीछे इसी प्रकार के शब्दों का उपयोग हो रहा है, इसलिए मुस्लिम समाज नाराज है।
आज दहशतगर्दी के साथ जो इस्लाम शब्द का उपयोग हो रहा है वह मुसलमानों की अदूरदर्शिता के कारण ही हो रहा है। जब वे 'इस्लामी जगत', 'इस्लामी सेना', 'इस्लामी बम' और 'इस्लामी बैंक' जैसे शब्दों का उपयोग कर सकते हैं तो उनकी देखादेखी इस्लामी आतंकवाद शब्द भी प्रचलित हो गया। यदि इस्लामी आतंकवाद शब्द पर आपत्ति है तो इस्लामी सेना और इस्लामी बम पर क्यों नहीं? बम और सेना की बात स्वयं मुसलमानों ने की, तब दुनिया ने आतंकवाद शब्द भी इस्लाम से जोड़ दिया।

कुछ समय तक तो यह नाराजगी केवल मीडिया और नमाज के खुत्बों में ही जताई जाती थी, लेकिन पिछले दिनों विशाल सम्मेलन और बड़ी रैलियां आयोजित करके मुसलमान दुनिया से कह रहे हैं कि उसके सम्पूर्ण समाज को इस प्रकार के शब्दों से अपमानित न किया जाए। उसकी भविष्य की पीढ़ी इस प्रकार की संज्ञाओं से हीन ग्रंथि की शिकार होती जा रही है, जो देश और दुनिया के लिए ठीक नहीं है। कुछ दिन पहले इसके विरोध में देवबंद में एक विशाल सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसमें मौलानाओं ने बुलंद आवाज में अपने पर लगे इस कलंक के प्रति विरोध प्रकट किया। अनेक नगरों में छोटे-बड़े सम्मेलनों के पश्चात दिल्ली की जामा मस्जिद के प्रमुख इमाम को भी इस प्रकार की रैली आयोजित करने का विचार आया। क्योंकि दिल्ली भारत की राजनीतिक गतिविधियों का केन्द्र है इसलिए मीडिया उनकी बात सुनेगा और उन्हें अपनी आवाज समस्त दुनिया तक पहुंचाने का अवसर मिलेगा। इस परिषद् को बहुचर्चित और बहुप्रचारित कराने के लिये दलाई लामा जैसे शांति दूत को बुलाया गया। अफगानिस्तान में रूस से लड़ने वाले दमदार नेता सिबगतुल्लाह मजाहिद को भी आमंत्रित किया गया। पाकिस्तान के पूर्व मंत्री बर्नी भी बुलाए गए, हालांकि विदेश यात्रा से संबंधित कुछ दस्तावेजों में तकनीकी कमी रह जाने के कारण वे सम्मेलन में नहीं पहुंच सके। भारत के मुस्लिम नेताओं ने एक ही बात को बार-बार दोहराया कि 'इस्लाम शांति और अमन का मजहब है, इसलिए उसे आतंकवाद प्रेरित मजहब कहना सरासर अन्याय है। मुसलमान इस्लाम का अनुयायी है इसलिए वह आतंकवादी नहीं बन सकता। आतंकवाद के नाम पर मुसलमान को न केवल बदनाम किया जा रहा है बल्कि उसे जेलों में ठूंसा जा रहा है और प्रशासन एवं पुलिस मिलकर उस पर मनचाहा आरोप लगा देती है। भारतीय मुसलमान सहमा और डरा हुआ है, इसलिए उसे किसी भी कीमत पर आतंकवादी न कहा जाए। कोई मजहब आतंकवादी नहीं होता। इस्लाम जो महान मजहब है और संख्या की दृष्टि से जिसके दुनिया में दूसरे नम्बर के अनुयायी हैं, भला वह किस प्रकार हिंसक और आतंकवादी हो सकता है? इस्लाम पर ऐसा आरोप लगाना सरासर अन्याय और अत्याचार है।'

लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं हो जाता कि केवल इस्लाम का अनुयायी हो जाने से कोई मुसलमान आतंकवादी नहीं हो सकता। आतंकवाद के साथ इस्लाम को जोड़ने का बड़ा पाप किसने किया है? मुसलमान स्वयं ही उसके प्रति कितना जिम्मेदार है? क्या इसका आत्ममंथन इस प्रकार की बैठक आयोजित करने वालों ने किया है?

भारत में पहली बार तो हिंसा अथवा आतंकवाद ने अपना दंश नहीं दिखाया है। समय-समय पर इस तरह की घटनाएं होती रही हैं। पिंडारियों का आतंक भारत ने देखा है। 50 और 60 के दशक में डाकुओं के उत्पात से कौन परिचित नहीं है। चम्बल घाटी में अनेक डाकू पले और परवान चढ़े। उनके उत्पात से उत्तरी भारत का बड़ा भू-भाग थर्राता था। भूपत से लेकर छविराम, मलखान और फूलन देवी का नाम आज भी लोगों को याद है। डाकू अनेक जातियों में बंटे हुए थे लेकिन उन्हें केवल डाकू कहा जाता था। उन्हें कोई ठाकुर, जाट या किसी अन्य जाति से नहीं जोड़ता था। सभी के अपराध एक समान थे इसलिए लोग केवल डाकू शब्द का उपयोग करते थे। एक समय देश में ऐसा आया कि तस्करों की टोलियों ने नाक में दम कर दिया। लोग उन्हें मस्तान और शुकर नारायण बखिया की टोली कहा करते थे। उनके नाम के साथ न तो कोई जाति और न ही किसी धर्म अथवा मजहब का उल्लेख होता था। 20वीं शताब्दी के आठवें और नौवें दशक के बाद माफियाओं का युग प्रारंभ हो गया। 'अंडर वर्ल्ड' शब्द सुनाई पड़ा, तब भी लोग दाऊद, सलेम और गवली का नाम लेने लगे। लेकिन उन्हें उनके मजहब या जाति से नहीं जोड़ा गया। सुपारी लेने वाले और देने वाले लोगों के गिरोह आज भी हैं लेकिन उसके साथ मजहब अथवा जाति या पंथ का उल्लेख नहीं होता। फिर आतंकवादियों के साथ इस्लाम का नाम क्यों जुड़ गया?

खालिस्तानी आंदोलन के समय सिखों को आतंकवादियों से जोड़ दिया गया था। अखबारों में 'सिख टेरेरिस्ट' शब्द का उपयोग होने लगा। जो लोग आज मजहब को आतंकवाद से नही जोड़ने की सीख दे रहे हैं, उन्होंने सिख आतंकवादी' शब्द का उपयोग करते समय यह बात नहीं सोची। उर्दू मीडिया भी अन्य मीडिया के साथ 'सिख दहशतगर्द' शब्द का ही धड़ल्ले से उपयोग करता था।

आज दहशतगर्दी के साथ जो इस्लाम शब्द का उपयोग हो रहा है वह मुसलमानों की अदूरदर्शिता के कारण ही हो रहा है। जब वे 'इस्लामी जगत', 'इस्लामी सेना', 'इस्लामी बम' और 'इस्लामी बैंक' जैसे शब्दों का उपयोग कर सकते हैं तो उनकी देखादेखी इस्लामी आतंकवाद शब्द भी प्रचलित हो गया। यदि इस्लामी आतंकवाद शब्द पर आपत्ति है तो इस्लामी सेना और इस्लामी बम पर क्यों नहीं? बम और सेना की बात स्वयं मुसलमानों ने की, तब दुनिया ने आतंकवाद शब्द भी इस्लाम से जोड़ दिया। क्या आतंकवाद विरोधी सम्मेलन करने वाले इस यथार्थ को स्वीकार करेंगे? दुनिया में जितने भी आतंकवादी संगठन हैं सभी के नाम अरबी भाषा में हैं। कोई जैश-ए-मोहम्मद तो कोई लश्कर-ए-तोयबा, कोई अल-जिहाद तो कोई अल्लाह टाइगर्स। पाकिस्तान से लेकर अल-कायदा और तालिबान किस भाषा के शब्द हैं? यानी इस्लाम जैसे शांति प्रिय मजहब को अरबी के जिहादी शब्द से जोड़ दिया गया। जब सारी शब्दावली इस्लामी और अरबी बहुल शब्दों की देन है तो फिर इस आतंकवाद को इस्लामी देशों की देन कहने में भारतीय मुसलमानों को हिचकिचाहट क्यों है?

इस सम्मेलन में यह भी आवाज उठी कि बम विस्फोट के तुरंत बाद केवल मुसलमानों का ही नाम क्यों लिया जाने लगता है। इसका कारण तलाश करें तब ज्ञात होगा कि भारत में श्रृंखलाबध्द बम विस्फोटों की पहली घटना मुम्बई में 1993 में हुई। उन घटनाओं की न्यायिक जांच हो चुकी है। अदालत ने जो फैसला सुनाया है क्या उनमें अधिकांश मुसलमानों के नाम नहीं हैं? बम विस्फोट के मामले में बंगलादेशी पकड़े जाते हैं तो हमें उनसे सहानुभूति क्यों होनी चाहिए? क्या बंगलादेशी विदेशी नागरिक नहीं हैं? क्या वे घुसपैठिये नहीं हैं? चूंकि उनका मजहब इस्लाम है इसलिये हम मुसलमान होने के नाते उनके पक्षधर बनें और भारत के नागरिक होने के बावजूद उनका अपराध छिपाएं तो हमारा राष्ट्रधर्म कहां जाएगा? बंगलादेशियों का पाप हम अपने सर पर लेकर कहें कि हम यह सब इस्लामी भाईचारे के नाते करते हैं तब देश की रक्षा और वफादारी का अर्थ क्या रह जाएगा?

4 comments:

MANVINDER BHIMBER said...

desh ki waafadaari ka prshan aapne sahi uthaya hai.....
jo log sansad mai baithe hai.....unhe bhi kuch sochna chaihye

संजय बेंगाणी said...

ठीक बात.

Anonymous said...

आतंकवाद के साथ इस्लाम का नाम जुड़ने की जिमेदारी मुसलमानों की ही है , आज जब किसी मुस्लमान आतंकवादी के खिलाफ पुलिस कोई कर्येवाही करती है तो आम मुस्लमान उसे मुसलमानों को फ़साने की कार्येवाही मानता है और उसे सिर्फ़ इसलिए बचाने को खड़ा हो जाता है कि वो मुस्लमान है इसी प्रवर्ती का आतंकवादी फायदा उठाते है आम मुस्लमान को पता ही नही चलता कि इस्लाम के नाम पर आतकंवादी उनका उपयोग कर रहे है ,आतकंवादी ही क्यों किसी भी मुस्लिम अपराधी के पक्ष में मेने कई बार मुसलमानों को सगठित हो सहयोग करते देखा है इस प्रवर्ती को हिन्दुस्थान के मुसलमानों को रोकना होगा
वरना बदनामी तो झेलनी ही पड़ेगी ,आज पाकिस्तानी मुस्लमान जो योरप में रहते है वे अपना परिचय एक भारतीय के तोर पर देते है क्योकि भारतीय मुस्लमान को आतंकवादी नही माना जाता ,यदि इंडियन मुजाहिदीन कि जड़ें ज्यादा फेलती है तो निश्चय ही भारतीय मुसलमानों कि भी छवि धूमिल ही होगी |

Unknown said...

इस्लाम एक शांतिप्रिय धर्म है, इस से कोई इनकार नहीं करता.

जब आतंकवादी अपने हमलों को इस्लाम से जोड़ते हैं तब कोई मुसलमान इस का विरोध नहीं करता. पर जैसे ही कोई गैर-मुस्लिम ऐसा कह देता है तो शोर मच जाता है. हर हमले के बाद कुरान की शिक्षा की बातें होने लगती हैं. कुरान के हवाले देकर यह साबित करने की कोशिश की जाती है कि मुसलमान आतंकी हो ही नहीं सकता. मैंने कहीं नहीं देखा कि किसी गैर-मुस्लिम ने कुरान की बुराई की हो, उसे ग़लत कहा हो. फ़िर बार-बार कुरान की बात करके जो हुआ है उसे नकारने की कोशिश क्यों की जाती है. कोई भी मुसलमान नेता दो शब्द सहानुभूति के नहीं कहता उन के बारे में जो मर गए और जिनके परिवार दुःख के समंदर में डूब गए. आज अगर इस्लाम को कोई खतरा है तो अपनों से. जब तक मुसलमान यह नहीं समझेंगे तब तक आतंकवाद उन के और उन के धर्म के साथ जुड़ा रहेगा.