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Tuesday, 27 November 2007

माकपा के पतन के पहले का उन्माद -जय गोस्वामी

यह तो पतन के पहले का उन्माद है। ऐसा उन्माद, जिसने बंगाल की सत्ता पर 30 वर्षों से काबिज माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) को अंधा बना दिया है। इस उन्माद में मार्क्सवाद का ढोंग कर तीन दशकों से सत्ता का सुख भोग रही माकपा उस अवस्था को प्राप्त हुई है, जिसमें बुझने से पहले दीपक की लौ बार-बार उफनती है। अगर ऐसा नहीं होता, तो फिर सभ्यता, संस्कृति व शासन के नाम पर वह जो कर रही है, उसकी अपेक्षा तो उससे नहीं थी। सत्ता के मद में चूर बुध्ददेव भटृटाचार्य व विमान बसु की भाषा आज वैसी नहीं होती, जैसी हुई है। कवि, लेखक, कलाकार, होनहार युवक-युवती और निहत्थे नागरिकों को इस तथाकथित वामपंथी सरकार की लाठियों, गोलियों की बौछार झेलने को विवश नहीं होना पड़ता।

10 नवंबर को माकपा की स्वपोषित गुंडावाहिनी ने माकपा के मुख्यमंत्री की पुलिस के संरक्षण में दिनभर नंदीग्राम में गोलियां बरसा कर वहां के निहत्थे किसानों को मौत की नींद सुलाने का काम किया। शाम होते ही संस्कृति और संवेदनशीलता की चादर ओढ़ मुख्यमंत्री बुध्ददेव भट्टाचार्य फिल्मोत्सव की चिंता में डूब गए। संस्कृति के अतीत से लोगों को परिचित कराने लगे, भविष्य की रूपरेखा तय करने लगे। वे यहीं नहीं थमते। बार-बार नरसंहारों को अंजाम दिलाने के बाद भी वे लोगों को सभ्यता का पाठ पढ़ाने का दुस्साहस करने से भी बाज नहीं आतें। यह सवाल तो उठता ही है कि नंदीग्राम में निहत्थे लोगों को मौत के हवाले कर रही माकपा की गुंडावाहिनी को कौन संरक्षण दे रहा है? कौन उसे प्रश्रय दे रहा है? बेशक एक ऐसा व्यक्ति, जो तथाकथित संस्कृतिबोधा के अहंकार से फटा जा रहा है। एक ऐसा नेता, जिस अपने लेखक होने का भी दंभ है। पर किसी लेखक के जिद्दी स्वभाव, अड़ियल रवैये या कहें हठधार्मिता के चलते दुनिया में कहीं भी रक्तपात हो रहा हो, निहत्थे लोगों का कत्लेआम हो रहा हो, ऐसा कभी किसी ने सुना है? देखा है? वह भी किसी एक जगह नहीं, जगह-जगह पर। एक बार नहीं, बार-बार। कभी सिंगुर में तो कभी नंदीग्राम में 17 जनवरी को, 14 मार्च को। इतने से हिंसा की प्यास बुझी नहीं तो फिर 10 नवंबर को भी।

10 नवंबर की घटनाओं ने तो मुख्यमंत्री की संवेदनशीलता व संस्कृतिबोधा का मुखौटा उतार फेंका। मुख्यमंत्री की प्रशासनिक दक्षता व क्षमता की पोल खेलार रख दी। मालूम हो गया कि सूबे की सरकार कितनी डरपोक है। निहत्थे लोगों के तेज के सामने कैसे कांपने लगती है। उनकी पुलिस कविता पाठ करते, रवींद्र संगीत गाते नागरिकों को देख आंतकित हो जाती है। आंतक में बदहवास होकर लाठियों का सहारा लेती है। भद्दी गालियां बकती है। बुध्ददेव की पुलिस उनको व खुद को भयमुक्त करने के लिए लेखकों-कलाकारों को हवालात में भरने को आतुर हो उठती है। अगर यह बात नहीं होती, तो रवींद्र सदन के सामने सड़के के किनारे रवींद्र संगीत गाते शांतिप्रिय कलाकारों को जबरन वैन में भर कर लालबाजार लॉकअप में ठूंसने की आवश्यकता क्या थी।

दरअसल बुध्ददेव की पुलिस के सामने सवाल यह होता है कि वह अपना रणकौशल आखिर दिखायें कब? किसके सामने? नंदीग्राम में असलहे लहराते माकपा के नकाबपोश गुंडों की फौज के सामने तो इनकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाती है। यूं कहें कि माकपाई हमलावरों की छाया तक से भी बचने में ही इन्हें अपनी भलाई दिखती है। डयूटी के नाम पर बाहर होते भी हैं, तो पेड़ की छांव में कहीं ताश खेल रहे होते हैं। इनके सामने जब निहत्थे व शांतिप्रिय महिला, युवती लेखक-कवि, कलाकार वयोवृध्द नागरिक आते है, इनका जोश जब उठता है। तभी तो रवींद्र सदन के सामने डीसी जावेद शमीम प्रतिवादी कवियों, लेखकों व कलाकारों को देख गालियां बकने लगते हैं, 'सुबह से बहुत हो गया। उठा लो सालों को। ये हैं संस्कृति संपन्न व्यक्तित्व के मालिक कहलाने वाले बुध्ददेव की पुलिस व प्रशासन के कारनामों की चंद झलकियां।
(जय गोस्वामी साहित्य अकादमी से पुरस्कार प्राप्त बांग्ला कवि हैं)

2 comments:

Avinash Das said...

डियर संजीव, यही लेख हमने मोहल्‍ले में साभार लिया था। आपने देखा होगा। नहीं तो यहां देखिए।

संजीव कुमार सिन्‍हा said...

अविनाशजी, सही कहा आपने। दरअसल, हितचिंतक ब्‍लॉग पर मैं नंदीग्राम पर केन्द्रित लेखों को एकत्र कर रहा हूं। जय गोस्वामीजी का विचारशील और महत्‍वपूर्ण लेख है यह।