हितचिन्‍तक- लोकतंत्र एवं राष्‍ट्रवाद की रक्षा में। आपका हार्दिक अभिनन्‍दन है। राष्ट्रभक्ति का ज्वार न रुकता - आए जिस-जिस में हिम्मत हो

Tuesday 5 August, 2008

पश्चिम बंगाल में खिसक रहा माकपा का जनाधार

लेखक-संतोष कुमार मधुप

पश्चिम बंगाल की सत्ताधारी मार्क्‍सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के लिए जमीन अधिग्रहण मुद्दा गले की फाँस बनता जा रहा है। जमीन अधिग्रहण से उपजे आक्रोश के कारण ग्रामीण इलाकों के साथ-साथ शहरी क्षेत्रों में भी माकपा की जमीन खिसकती नजर आ रही है। पंचायत चुनाव में मिली पराजय के बाद नगर निकाय चुनाव में भी पार्टी को मिली करारी शिकस्त से यह स्पष्ट हो चुका है कि पिछले 30 सालों से राज्य की सत्ता पर कब्जा जमाए बैठे माक्र्सवादियों के लिए आगे की राह बेहद कठिन है। 13 नगरपालिकाओं के लिए हुए चुनाव के परिणामों को देख कर पार्टी नेताओं की सिट्टी पिट्टी गुम है। अब तक इन 13 पालिकाओं में से 9 पर वाम मोर्चे का कब्जा था। लेकिन इस चुनाव में चार नगरपालिकाएँ माकपा और उसके सहयोगियों के हाथ से निकल गए। 13 में से आठ नगरपालिकाओं पर विपक्षी दलों ने बढत बना कर माकपा को करारा झटका दिया। पंचायत चुनाव में मिली पराजय के सदमे से उबरने के लिए माकपा ने नगर निकाय चुनाव के दौरान अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी। इसके बावजूद वे अपनी नाक नहीं बचा सके। इस चुनाव में भी जमीन अधिग्रहण मुद्दे का खासा असर देखा गया। वर्दवान नगरपालिका में माकपा भले ही अपना कब्जा बरकरार रखने में कामयाब रही हो लेकिन जमीन मुद्दे पर पार्टी को तीन वार्ड गँवाने पडे।

इसी जिले की गुसकरा नगरपालिका जो ''लाल दुर्ग'' के रूप में परिचित है, वहाँ भी माकपा को तृणमूल के हाथों शिकस्त झेलनी पडी। यह इलाका मुसलमान बहुल है। इसी तरह डायमण्ड हार्बर नगरपालिका के 15 नं। वार्ड में मुसलमान सबसे अधिक हैं। अब तक यह वार्ड माकपा के कब्जे में था लेकिन इस बार तृणमूल ने यह वार्ड माकपा से छीन लिया। भूमि अधिग्रहण के मुद्दे पर दक्षिण 24 परगना के मुसलमान माकपा से किस सदर नाराज है इसका प्रमाण नगर निकाय चुनाव में एक बार फिर देखने को मिला। जलपाईगुडी जिले के डालखोला में भी बडी तादात में मुसलमान रहते हैं। यहाँ भी माकपा विरोधी हवा चल रही है। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष प्रियरंजन दास मुंशी की पत्नी और कांग्रेस विधायक दीपा दास मुंशी के नेतृत्व में यहाँ कांग्रेस ने एकतरफा जीत हासिल की। माकपा के कई वरिष्ठ नेताओं ने स्वीकार किया है कि वे पंचायत चुनाव की क्षतिपूर्ति करने में नाकाम रहे। लेकिन पार्टी को सबसे अधिक चिंता मुसलिम मतदाताओं के विमुख होने की है। ग्राम पंचायत के बाद नगर निकाय चुनावों में भी विपक्ष ने शानदार प्रदर्शन कर माकपा को सकते में डाल दिया है। जहाँ दक्षिण बंगाल में तृणमूल कांग्रेस ने माकपा को कई झटके दिए वहीं उत्तरी हिस्सों में कांग्रेस की ताकत पहले से अधिक मजबूत हुई। उधर माकपा को विपक्ष के साथ-साथ अपने सहयोगियों की चुनौती का सामना भी करना पडा। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यदि विपक्ष के बीच बेहतर तालमेल होता और एक के खिलाफ एक उम्मीदवार खडा किया जाता तो नगर निकायों में माकपा का सफाया तय था। नतीजे घोषित होने के बाद तृणमूल कांग्रेस अध्यक्ष ममता बनर्जी और कांग्रेस अध्यक्ष प्रियरंजन दास मुंशी ने स्पष्ट कर दिया कि बोर्ड गठन में माकपा के लिए एक ईंच जमीन भी नहीं छोडी जाएगी। यानि जिन नगरपालिकाओं में बोर्ड गठन के लिए कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस को आपसी समझौते की जरूरत होगी, वहाँ माकपा को सबक सिखाने के लिए दोनों दल समझौता करने से नहीं हिचकिचाएंगे।

मेदिनिपुर, दुबराजपुर, हाबडा और आलीपुद्वार में दोनों दलों को बोर्ड गठन के लिए एक दूसरे के सहयोग की आवश्यकता है। इस चुनाव में विभिन्न नगरपालिकाओं के सात वार्डों में कामयाबी हासिल करने वाली भाजपा के प्रदेश महासचिव राहुल सिन्हा ने दावा किया कि यदि पंचायत और नगर निकाय चुनावों में विपक्षी दलों के बीच महाजोट होता तो माकपा का नामोनिशान मिट सकता था। ग्राम पंचायत के बाद नगर निकाय चुनावों में दयनीय प्रदर्शन से माकपा की स्थिति खासी कमजोर हुई है। खास कर लोक सभा चुनाव से पहले आठ जिलों की 13 नपाओं के मतदाताओं ने जिस प्रकार माकपा से मुँह फेर लिया उससे पार्टी नेतृत्व की चिंता बढ गई है। पार्टी नेताओं को शहरी इलाकों में भी जमीन खिसकने का अहसास हो चुका है। चुनाव नतीजों से पार्टी नेता इस कदर विचलित हैं कि उन्होंने इस पर कोई प्रतिक्रिया देने से भी इनकार कर दिया। ग्राम पंचायत चुनाव के बाद माकपा ने वाम मोर्चे के आंतरिक झगडे को काफी हद तक संयत करने की कोशिश की थी। इसके बावजूद प्रतिकूल चुनाव नतीजे आने से एक बात साफ हो गई है कि विभिन्न मुद्दों पर राज्य के अधिकांश मतदाता सरकार विरोधी रुख अख्तियार कर चुके हैं। लेकिन माकपा नेतृत्व सार्वजनिक तौर पर इस बात को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं। पार्टी नेतृत्व ने जिला इकाईयों से विस्तृत रिपोर्ट देने को कहा है। माकपा नेतृत्व को यह आशंका सता रही है कि आगामी नवम्बर माह में संभावित लोक सभा चुनाव में पार्टी की हालत और खराब होगी। पार्टी को लगता है कि वर्तमान परिस्थिति में लोकसभा चुनाव होने पर विपक्षी दल 20-22 सीटें जीतने में कामयाब हो सकते हैं।

पार्टी नेता यह भी मान कर चल रहे हैं जमीन अधिग्रहण मुद्दे पर राज्य की जनता में जो आक्रोश व्याप्त है उसे अगले कुछ महीनों में दूर करना संभव नहीं है। अलीमुद्दीन स्ट्रीट (माकपा मुख्यालय) के कर्ताधर्ता अब मुसलमान मतदाताओं को खुश करने के उपायों की तलाश में जुट गए हैं। साथ ही वे औद्योगीकरण के लिए जमीन अधिग्रहण की प्रक्रिया को फिलहाल स्थगित रखना चाहते हैं। क्योंकि वे समझ चुके हैं कि मुख्यमंत्री बुध्ददेव भट्टाचार्य और उद्योग मंत्री निरुपम सेन की जिद के अनुसार चले तो लोकसभा चुनाव में पार्टी को इसकी भारी कीमत चुकानी पडेगी। मोटे तौर पर देखा जाए तो औद्योगीकरण के लिए किसानो की उर्वर जमीन जबर्दस्ती हथियाए जाने के खिलाफ पूरे पश्चिम बंगाल में विरोध की जो हवा चली थी वह समय के साथ-साथ तूफान का रूप लेती जा रही है। अब यह स्पष्ट हो चुका है कि इस राज्य में माकपा के पैरों के नीचे से जमीन खिसकने लगी है। हालाँकि इस राज्य में सत्तधारी दल के प्रति लोगों का आक्रोश नया नहीं है। कई सालों से लोगों के दिलों में खिलाफत की चिंगारी सुलग रही थी। माकपा के जोर-जुल्म और अत्याचारों से बंगाल की ग्रामीण जनता बुरी तरह ऊब चुकी थी। लेकिन आक्रोश का तूफान कई कारणों से दबा हुआ था। बुध्ददेव भट्टाचार्य और उनके सहयोगियों ने नंदीग्राम और सिंगूर में निरीह लोगों पर हमले करवा कर आक्रोश को फूटने का अवसर प्रदान किया। माकपा के बुरे दिनों की शुरुआत इन्हीं दोनों स्थानों से हुई। नंदीग्राम और सिंगूर में माकपा के पाश्विक कृत्यों ने पश्चिम बंगाल की जनता को झकझोड कर जगाने का काम किया। पिछले साल कुछ नगरपालिकाओं और त्रिस्तरीय ग्राम पंचायत की कुछ सीटों के लिए हुए उपचुनाव में सर्वप्रथम माकपा को झटका लगा था।

उस वक्त माकपा की पराजय के लिए कई कारकों को जिम्मेदार माना गया था। पहला, उद्योगपतियों को खुश करने के लिए गरीब किसानों की ऊर्वर जमीन हथियाने की मुख्यमंत्री बुध्ददेव भट्टाचार्य की रणनीति को राज्य की जनता ने घृणा की नजर से देखा था। द्वितिय, पिछले 31 सालों से राज्य के मुसलमानों के प्रति सरकार की उपेक्षा पूर्ण नीति का जबाब देने के लिए अल्पसंख्यक समुदाय राह की तलाश कर रहे थे। और तृतीय, माकपा को जोर-जुल्म का मुकाबला करने के लिए स्थानीय स्तर पर लोग एकजुट हो रहे थे। बाद में स्कूल कमेटी के चुनावों में भी इन्हीं तीन कारणों से माकपा की हार हुई। उसके बाद पंचायत चुनाव में जनाक्रोश का ऐसा तूफान चला जिसमे माकपा का गुरुड पूरी तरह ढह गया। जनता ने बुलेट का जबाब बैलेट से दिया। परिणामस्वरूप तमाम तरह की रिगिंग और आतंक फैलाने के बावजूद माकपा अपना पतन नहीं रोक सकी। हालिया नगर निकाय चुनावों में भी यह सिलसिला जारी रहा। 13 में से आठ नगरपालिकाओं पर विरोधी दलों का कब्जा यह प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त है कि वामपंथियों के गढ पश्चिम बंगाल में अब माकपा का पतन शुरु हो चुका है।
(नवोत्थान लेख सेवा हिन्दुस्थान समाचार)

1 comment:

शोभा said...

बहुत सुन्दर लिखा है। बधाई स्वीकारें।