मैं पहले ही स्पष्ट कर दूं कि मैं भूत-प्रेत, अवतार-चमत्कार, गंडा-ताबीज, पोथी-पत्रा, आत्मा-परमात्मा आदि को नहीं मानता; पर कभी-कभी कुछ ऐसी घटनाएं (या दुर्घटनाएं) हो जाती हैं कि व्यक्ति को अपनी मान्यताओं पर पुनर्विचार करना पड़ जाता है। ऐसी ही एक घटना मेरे साथ कल हुई। इसे मैं आपके साथ साझा करना चाहता हूं। इसका क्या अर्थ है, मैं अभी तक समझ नहीं पाया हूं। तो साहब हुआ यों कि कल रात मेरे सपने में एक आत्मा आ गयी। आत्मा स्त्रीलिंग है या पुल्लिंग, यह मैंने कई विद्वानों से पूछा; पर कोई ठीक नहीं बता सका। तब से मैंने यह मान लिया कि स्त्री की आत्मा स्त्रीलिंग और पुरुष की पुल्लिंग होती है। यह आत्मा मेरे सपने में आयी, सो नि:संदेह यह एक स्त्री की आत्मा थी। आते ही उसने मुझे झकझोर दिया - तुम बड़े लेखक और पत्रकार बनते हो, यदि दम हो तो मेरी दुखद कहानी बड़े समाचार पत्रों और दूरदर्शन पर चलवा कर दिखाओ।
- इन दिनों उन्हें फुर्सत कहां है, वे तो नौएडा के आरुषि कांड में उलझे हैं।
- यही तो मेरा दर्द है। मेरी कहानी आरुषि से कम दुखद नहीं है; पर चूंकि यह झारखंड के जंगलों में घटी है, इसलिए इस ओर किसी का ध्यान नहीं है। काश, यही घटना दिल्ली के आसपास हुई होती, तो सारे पत्रकार दौड़ पड़ते।
- तुम्हारा इस तरह सब पत्रकारों पर आरोप लगाना ठीक नहीं है।
- मुझे क्षमा करें; पर क्या यह सच नहीं है कि अधिकांश पत्रकार दिल्ली या उसके आसपास की घटनाओं को प्रमुखता से स्थान देते हैं, जबकि दूरस्थ क्षेत्रों की ऐसी घटनाएं दबी ही रह जाती हैं।
- तुम्हारे पास इसका क्या प्रमाण है ? मैंने कुछ रोष से कहा।
- प्रमाण एक नहीं, सैकड़ों हैं। तुम्हें याद है, दो साल पूर्व मोदीनगर की एक लड़की ने वरमाला के समय दूल्हे के पिता के दुर्व्यवहार से नाराज होकर बारात लौटा दी थी।
- बिल्कुल याद है। मीडिया ने उस वीर कन्या को हीरोइन बना दिया था। शायद ही कोई पत्र या चैनल हो, जिसने उसका उत्साह न बढ़ाया हो। सबने ही उसका साक्षात्कार लिया था।
- ऐसे ही नौएडा के उस कांड को याद करो, जिसमें कुछ लोगों पर बच्चों के अपहरण और उनका मांस खाने के आरोप लगे थे।
- हां, वह भी याद है।
- और मुजफ्फरनगर का गुड़िया कांड, जिसमें उस गरीब को दो पतियों के बीच में खूब झुलाया गया। एक चैनल ने तो अपने स्टूडियो में पंचायत ही बैठा दी। इससे उसका इतना मानसिक उत्पीड़न हुआ कि बाद में वह बेचारी खुदा को ही प्यारी हो गयी।
- तुम कहना क्या चाहती हो, साफ बताओ।
- मैं केवल यही कहना चाहती हूं कि ऐसी दुर्घटनाएं यदि दिल्ली के आसपास होती हैं, तो इन पत्रकारों की आत्मा जाग जाती है; पर यदि वे किसी कठिन क्षेत्र में हों, तो--।
- मैं पूरी तरह सहमत नहीं हूं।
- मैं समझती हूं। अपनी बिरादरी पर लांछन लगते कोई नहीं देख सकता; पर क्या यह सत्य नहीं है कि दिल्ली के अधिकांश बड़े पत्रकार वहीं जाना पसंद करते हैं, जहां से वे रात तक लौटकर दिल्ली आ सकें। या फिर वे ऐसी जगह रात को रुकना पसंद करते हैं, जहां अच्छे होटल हों, उन्हें खाने को मुर्गा और पीने को दारू मिल सके।
- मैं इस बारे में कुछ टिप्पणी नहीं करूंगा।
- बस यही तो मेरा दर्द है। झारखंड के नक्सली कम्युनिस्टों ने मेरे पूरे परिवार की निर्ममता से हत्या की। मेरे पिताजी का अपराध यही था कि वे उस क्षेत्र के विकास के लिए शासन के आदेश पर सड़क बनवा रहे थे और नक्सली इसका विरोध कर रहे थे।
- अच्छा ?
- जी हां, और उन्होंने मेरे साथ तो बहुत बुरा किया। पहले अपहरण, फिर बलात्कार और हत्या; पर यह चर्चा स्थानीय पत्रों में होकर रह गयी। दिल्ली से न कोई पत्रकार आया न दूरदर्शन वाले। क्या दिल्ली वालों का दर्द ही दर्द होता है, हमारा नहीं। आत्मा के सिसकने की आवाज मुझे साफ सुनाई दे रही थी।
- मैं इसकी चर्चा अपने साथियों से करूंगा। मैंने उसे सांत्वना दी।
- आप चाहे जो करें; पर अब मेरी इच्छा तो यह है कि यदि मेरी फिर से मृत्यु हो, तो वह दिल्ली के आसपास हो। कम से कम मेरी दुखद कहानी मीडिया के माध्यम से जनता और शासन तक तो पहुंचेगी।
- यह तुम क्या कह रही हो, लोग तो पुनर्जन्म की बात सोचते हैं। तुमने एक बड़े कलाकार को कहते नहीं सुना कि 'पुनर्जन्म हो यदि मेरा, तो हो फिर गंगा के तट पर..।'
- मेरी फिल्मों, विज्ञापन और राजनीति में रुचि नहीं है। मैं तो सिर्फ इतना ही कहना चाहती हूं कि 'पुनर्मरण हो यदि मेरा, तो हो दिल्ली की चौखट पर--।'
मैं उसे कुछ और तर्क देना चाहता था; पर तब तक वह खिड़की से पार हो गयी। मेरे कानों में यही गूंजता रह गया - पुनर्मरण हो यदि मेरा, तो ...।
(नवोत्थान लेख सेवा हिन्दुस्थान समाचार)
2 comments:
बहरहाल घटना चाहे जो हो मगर आत्मा की बातें काफी हद तक सच हैं। तमाम चुतियों की जमात दिल्ली में ही बसती है।
आपके इस अनुभव ने पढ़ने वालों को भी आनन्द परोसा है। बधाई स्वीकारें।
Post a Comment