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Monday 18 August, 2008

आजादी एक चुनौती है, बीड़ा कौन उठाएगा

-संजीव कुमार सिन्हा

भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं। जवाहरलाल नेहरू ने 1947 में 14-15 अगस्त की मध्यरात्रि में 'भारत की नियति के साथ मिलन' का संदर्भ देते हुए कहा कि स्वाधीनता प्राप्ति के साथ ही हमें एक ऐसे राष्ट्र के निर्माण के लिए काम करना होगा, जहां प्रत्येक बच्चे, महिला और पुरूषों को बेहतर स्वास्थ्य, भोजन, शिक्षा और रोजगार के अवसर उपलब्ध हों।

भारत की आजादी के 61 वर्ष बीत गए। क्या पं नेहरू के उक्त संकल्प की दिशा में देश विकास की ओर अग्रसर है? आज विकास की दो दिशाएं दिखाई पड़ती है। एक है- इंडिया का विकास और दूसरा है- भारत का विकास। 'इंडिया' की अगुआई अंग्रेजियत में रंगे नौकरशाह, राजनेता, पूंजीपति और शहरी वर्ग के लोग कर रहे हैं, वहीं 'भारत' में समाज के अंतिम पंक्ति में खड़े देश के 75 फीसदी गरीब, जो गांवों में रहते हैं, शामिल है। 'इंडिया' में लगातार बढ़ रहे 36 अरबपतियों की संख्या समाहित हैं तो 'भारत' में 77 करोड़ लोग, जिनकी आमदनी प्रतिदिन 20 रुपए से भी कम है, शामिल है। असमानता की खाई इस कदर चौड़ी हो रही है कि भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर श्री विमल जालान कहते है कि भारत के 20 सबसे अधिक धनवानों की आय 30 करोड़ सबसे गरीब भारतीयों से अधिक है। यही विषमता आज भारत की मुख्य समस्या है।

आंकड़ों पर नजर दौड़ाएं तो देश के सामने अनेक चुनौतियां मुंह बाएं खड़ी हैं। दुनिया भर में सबसे अधिक अरबपतियों की संख्या के हिसाब से भारत चौथे स्थान पर है। वहीं ग्लोबल हंगर इंडेक्स में हम 94वें स्थान पर हैं। 11वीं पंचवर्षीय योजना के मुताबिक 2004-05 में गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों का प्रतिशत 27।8 अनुमानित था। लोगों की आय, स्वास्थ्य, शिक्षा के आधार पर तैयार किए जाने वाले मानव विकास सूचकांक में 2004 में 177 देशों की सूची में भारत का स्थान 126 वां था।

हमारी आबादी का दो-तिहाई हिस्सा अभी भी खेती पर ही आश्रित है लेकिन सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान 20 प्रतिशत से भी कम हो गया है। 38 मीलियन हेक्टेयर क्षेत्र पर हम आज भी खेती नहीं करते, जबकि इस जमीन पर जोत संभव है। गौरतलब है कि 38 मीलियन हेक्टेयर क्षेत्र पाकिस्तान, जापान, बांग्लादेश और नेपाल के कुल सिंचित क्षेत्र से भी ज्यादा है।

भारत सरकार का वर्ष 2007-2008 का आर्थिक सर्वेक्षण कहता है कि 1990 से 2007 के दौरान खाद्यान्न उत्पादन 1।2 प्रतिशत कम हुआ है, जो कि जनसंख्या की औसतन 1.9 प्रतिशत वार्षिक बढ़ोत्तरी की तुलना में कम है। इसके फलस्वरूप मांग और आपूर्ति में भारी अंतर है, जिसकी वजह से खाद्य संकट की आशंका बराबर बनी रहती है। 1990-91 में अनाजों की खपत प्रतिदिन प्रति व्यक्ति 468 ग्राम थी जो कि 2005-2006 में प्रतिदिन 412 ग्राम प्रति व्यक्ति हो गई है। केन्द्र सरकार यह बात स्वीकार कर चुकी है कि हर साल लगभग 55,600 करोड़ रुपये का खाद्यान्न उचित भंडारन आदि न होने के कारण नष्ट हो जाता है।

हालात ऐसे हो गए हैं कि कृषि प्रधान देश भारत में 40 प्रतिशत किसान, खेती छोड़ना चाहता है। पिछले 10 वर्षों में 80 लाख लोगों ने खेती-किसानी छोड़ी है। एक आकलन के अनुसार 85 प्रतिशत से अधिक ग्रामीण परिवार या तो भूमिहीन, उपसीमांत, सीमांत किसान है या छोटे किसान है। भारत की आजादी के 61 वर्षों बाद भी लगभग 50 प्रतिशत ग्रामीण परिवार अभी भी साहूकारों पर निर्भर रहते हैं। नेशनल सैम्पल सर्वे हमें बताता है कि किसानों की ऋणग्रस्तता पिछले एक दशक में लगभग दोगुनी हो गई है। देश के 48।60 फीसदी किसान कर्ज के तले दबे हुए हैं। हर किसान पर औसतन 12,585 रू. का कर्ज है। भारतीय किसान परिवार का औसत प्रति व्यक्ति मासिक खर्च 302 रुपए है। स्थिति की भयावहता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 1993 से अब तक करीब 1,12,000 किसान आत्महत्या कर चुके है।

आंकड़े बताते हैं कि प्रति व्यक्ति मिलने वाला अनाज घट गया है। इसका असर व्यक्ति के स्वास्थ्य पर भी दिखाई देता है। वर्ष 2005-2006 में कराए गए राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे में कहा गया है कि देश में 5 साल से कम उम्र के बच्चे शारीरिक रूप से अविकसित हैं और इसी उम्र के 43 फीसदी बच्चों का वजन (उम्र के हिसाब से) कम है। इनमें से 24 फीसदी शारीरिक रूप से काफी ज्यादा अविकसित हैं और 16 फीसदी का वजन बहुत ही ज्यादा कम है। देश में 15 से 49 साल की उम्र के बीच की महिलाओं का बॉडी मांस इंडेक्स (बीएमआई) 18।5 से कम है, जो उनमें पोषण की गंभीर कमी की ओर इशारा करता है और इन महिलाओं में से 16 फीसदी तो बेहद ही पतली हैं। इसी तरह देश में 15 से 49 साल की उम्र के 34 फीसदी पुरुषों का बीएमआई भी 18.5 से कम है और इनमें से आधे से ज्यादा पुरुष बेहद कुपोषित हैं। देश में कुपोषण के शिकार बच्चे की स्थिति के मामले में हमारा देश नीचे से 10 वें नंबर पर है।

सुगठित शिक्षा व्यवस्था राष्ट्रीय विकास की धुरी होती है लेकिन देश में शिक्षा-व्यवस्था की हालत अच्छी नहीं है। भारत में 300 से ज्यादा विश्वविद्यालय हैं पर उनमें से केवल दो ही हैं जो विश्व में पहले 100 में स्थान पा सकें। सन् 2005 में विश्वबैंक के अध्ययन में पता चला था कि हमारे देश में 25 प्रतिशत प्राइमरी स्कूल के अध्यापक तो काम पर जाते ही नहीं हैं। पिछले दिनों नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ एजुकेशनल प्लानिंग एंड एडमिनिस्ट्रेशन के एक सर्वेक्षण में यह पता चला कि इस देश के 42 हजार स्कूल ऐसे भी हैं, जिनका अपना कोई भवन ही नहीं है। देश के 32 हजार विद्यालयों में शिक्षक नहीं है। अमेरिका में कुल बजट का 19।9 प्रतिशत, जापान में 19.6 प्रतिशत, इंग्लैंड में 13.9 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च किया जाता है। जबकि भारत में शिक्षा पर बजट का मात्र 6 प्रतिशत भाग खर्च किया जाता है। शिक्षा पर केंद्र सरकार सकल घरेलू उत्पाद का 3.54 फीसद और कुल सकल उत्पाद का 0.79 फीसद खर्च करती है जबकि राज्य सरकारें 2.73 फीसद खर्च करती है। यूनिसेफ की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में स्कूल जाने वालों में 40 प्रतिशत बच्चे अंडरवेट होते हैं और 42 प्रतिशत कुपोषण के शिकार। देश के 63 प्रतिशत बच्चे 10वीं कक्षा से पहले ही स्कूल छोड़ देते हैं। एक आकलन के मुताबिक भारत के मात्र 10 फीसद युवाओं को उच्च शिक्षा मिलती है जबकि विकसित राष्ट्रों के 50 फीसद युवाओं को उच्च शिक्षा मिलती है। विदेशों में विज्ञान और तकनीकी शिक्षा ले रहे भारतीय छात्रों में से 85 फीसद वतन लौट कर नहीं आते।

इराक के बाद भारत सर्वाधिक आतंकवाद का दंश झेल रहा है। हाल ही में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने चिंता व्यक्त की कि देश में आतंकवादियों के 800 से ज्यादा ठिकाने है। भारत में अब तक हुए आतंकवादी हिंसा में 70,000 से अधिक बेगुनाहों के प्राण चले गए, जबकि पाकिस्तान तथा चीन के साथ जो युध्द हुए हैं, उनमें 8,023 लोगों की मौतें हुई। गृह मंत्रालय द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2007 में नवंबर के अंत तक नक्सली हिंसा की 1385 घटनाएं हुईं, जिसमें 214 पुलिस कार्मिक व 418 नागरिक मारे गए, वहीं 2006 में 1389 घटनाएं हुईं, जिसमें 133 पुलिस कार्मिक व 501 लोग मारे गए। इस समय माओवादियों का प्रभाव 16 राज्‍यों में है। देश के 604 जिलों में 160 जिले पर माओवादियों या नक्सलवादियों का कब्जा है। देश का 40 प्रतिशत भू-भाग नक्सलवादी हिंसा से प्रभावित है। पूर्वोत्तर की स्थिति चिंताजनक है। वर्ष 2007 में यहां 1489 हिंसक घटनाएं हुई, जिनमें 498 सामान्य नागरिक आंतकवादी हिंसा के शिकार हुए।

हमारी शासन प्रणाली मुकदमेबाजी को बढ़ावा दे रही है। भ्रष्टाचार का महारोग देश को आगे बढ़ने में बाधित कर रहा है। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल संस्था के अनुसार दुनिया के 172 देशों में भारत भ्रष्टाचार के 72वें पायदान पर है। अलगाववादी प्रवृतियां राष्ट्रीय एकता को चुनौती दे रहा हैं। अल्पसंख्यक तुष्टिकरण का विषवेल समाज को नुकसान पहुंचा रहा है। मीडिया के माध्यम से सहज ही पाश्चात्य संस्कृति का आक्रमण हो रहा है। जातिवाद, सामाजिक समरसता को छिन्न-भिन्न कर रहा है। घुसपैठ आंतरिक सुरक्षा को तार-तार कर रहा है। 2।5 करोड़ बंगलादेशी घुसपैठियों के कारण देश पर 90 करोड़ रुपए का अतिरिक्त बोझ पड़ रहा है। 13 प्रतिशत को छू रही महंगाई की दर लोगों का जीना मुहाल कर रही है। वहीं बेरोजगारों की संख्या लगभग 25 से 30 करोड़ है। हर साल 3.5 से 4 करोड़ नए रोजगार ढूढने वाले जुड़ रहे है। इस गंभीर समस्या का निदान होना अत्यंत जरूरी है।

हर देश की अपनी अलग समस्याएं होती है। पाश्चात्य विचार के अनुगामी बनकर तो इसका समाधान कतई नहीं होगा। इसका उत्तर स्थानीय परिवेश में ही ढूढा जाना चाहिए। और ऐसा तब होगा जब देशवासियों के मन में स्वदेशी भावना प्रबल हो, वे अपने कर्तव्य और अधिकार के प्रति सचेत हों। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने लोगों में सामाजिक एकता की भावना को प्रबल करने के लिए 'गणेश उत्सव' का शुभारंभ किया। महर्षि अरविंद ने सनातन धर्म को राष्ट्रवाद से जोड़ा। गांधीजी ने सदैव धर्म के महत्व को रेखांकित किया। श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन ने छद्म पंथनिरपेक्षता को धराशायी किया। इसी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की धारा का सहयात्री बनने से हम भारत को विश्व का सिरमौर बना सकेंगे। अजीब विडंबना है कि आज के समय में ऐसी पहल करने वालों पर साम्प्रदायिक होने का आरोप मढ़ दिया जाता है।

पूर्व राष्ट्रपति डॉ। एपीजे अब्दुल कलाम ने विजन 2020 की अवधारणा देश के सामने प्रस्तुत करते हुए कहा था कि वर्ष 2020 का भारत एक ऐसा देश हो, जिसमें ग्रामीण एवं शहरी जीवन के बीच कोई दरार न रहे। जहां सबके लिए बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध हो और देश का शासन जिम्मेदार, पारदर्शी और भ्रष्टाचारमुक्त हो। जहां गरीबी, अशिक्षा का कोई अस्तित्व न हो और देश महिलाओं एवं बच्चों के प्रति होनेवाले अपराधों से मुक्त हो।

राष्ट्रीय समृध्दि विरासत में नहीं मिलती, उसे बनाना पड़ता है। सिर्फ सरकार के भरोसे देश का विकास सुनिश्चित नहीं होगा। भारत आज एक युवा राष्ट्र है। इस समय 70 प्रतिशत से अधिक लोग 35 साल से कम उम्र के हैं। देश को समृध्दशाली बनाने की चुनौती युवाओं को स्वीकार करनी होगी, समस्याओं को कोसने के बजाए सार्थक हस्तक्षेप के लिए आगे आना होगा, तभी सही मायने में आजादी सार्थक होगी।

4 comments:

शोभा said...

आज देश की यही दशा है।
बहुत सुन्दर लिखा है। वाह

Udan Tashtari said...

बढ़िया आलेख..

Devdharmi said...

आज़ादी परमावश्यक है |लेकिन आज़ादी से पहले यह जानना ज़रूरी है कि इस का सदुपयोग कैसे किया जाए ? जो व्यक्ति हितकर नियमों का पालन करता है, वही सच्चे अर्थों में आज़ाद वा स्वतन्त्र है | अत: सबको उन नियमों को जानने की ज़रुरत है कि कौनसे नियम हितकर नियम हैं ?

Devdharmi said...

हितकर नियमों का पालन करने वाला हि सच्चे अर्थों में स्वतंत्र है | अत: सबको जानने की आवश्यकता है कि कौन कौन से नियम हितकर नियम हैं |