हितचिन्‍तक- लोकतंत्र एवं राष्‍ट्रवाद की रक्षा में। आपका हार्दिक अभिनन्‍दन है। राष्ट्रभक्ति का ज्वार न रुकता - आए जिस-जिस में हिम्मत हो

Monday 24 November, 2008

वामपंथी इतिहास चिन्तन के ये 'मार्गदर्शक'

लेखक- डा. सतीश चन्द्र मित्तल

वामपंथी लेखक तथा इतिहासकार सदैव इतिहास को एक राजनीतिक हथियार के रूप में प्रयोग में लाते रहे हैं। वे तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर अथवा गायब कर, अपने भविष्य की सोच के अनुकूल इतिहास गढ़ते तथा तराशते रहे हैं।
भारत में साम्यवाद एकमात्र राजनीतिक दल है जो एक आयातित विचारधारा पर आधारित है। इसका जन्म 1920 में ताशकन्द में सोवियत अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट दल के रूप में हुआ। अत: इसका नाम भी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी न होकर 'कम्युनिस्ट पार्टी आफ इंडिया' है। अपनी सदस्य संख्या बढ़ाने के लिए पार्टी ने समय-समय पर विभिन्न हथकण्डे अपनाये। कभी महात्मा गांधी का कटु विरोध किया तो कभी कांग्रेस से गठजोड़ किया। द्वितीय महायुध्द में उसकी भूमिका नकारात्मक रही। उन्होंने 1942के आन्दोलन में अंग्रेजों का साथ दिया। पाकिस्तान के लिए जिन्ना की वकालत की तथा भारत को 16-17 स्वायत्त इकाइयों में बांटने का प्रस्ताव भी रखा। आजादी के पश्चात् भी भारतीय कम्युनिस्टों ने 1962 ई. में चीन के भारत पर आक्रमण पर पहले तो अपने मुंह पर ताला लगाए रखा, पर चीन के आगे बढ़ने पर कलकत्ता में उसे लाल सलाम देने को आतुर दिखे।
मार्क्‍सवादियों ने पूर्व सोवियत संघ (रूस) तथा चीन में इतिहास का सरकारीकरण किया। पूर्व सोवियत संघ में लेनिन, स्टालिन तथा ब्रेझनेव ने इतिहास को मनमाने ढंग से लिखवाया तथा प्रमाणरहित परिस्थितयों का विश्लेषण किया। चीन भी इस दिशा में पीछे नहीं रहा।

स्टालिन-इतिहास पर निरंकुश अधिकार
सोवियत संघ में स्टालिन (1924-1953 ई.) अपने क्रूर तथा बर्बर कारनामों के लिए विश्व में जाना जाता है। वह विश्व में 20वीं शताब्दी के क्रूर हत्यारों में से एक माना गया है। इतिहास को मनमाने ढंग से बदलने तथा अपने नियन्त्रण में रखने में वह दक्ष था। उसे सोवियत संघ में इतिहास का जनक कहा जाता था। इसके निर्देशन में इतिहास की एक किताब छपी, जिसका नाम था सोवियत संघ की 'कम्युनिस्ट पार्टी का इतिहास-एक संक्षिप्त पाठयक्रम'। इसमें प्रतिवर्ष स्टालिन की आज्ञा से परिवर्तन तथा संशोधन होता था। 1928 ई. में एक कांफ्रेंस में स्टालिन को इतिहास पर पूर्ण निरंकुशता के अधिकार दे दिए गए थे। 1934 ई. में कम्युनिस्ट पार्टी की केन्द्रीय समिति ने एक आदेश द्वारा इतिहास को पार्टी की विचारधारा के अनुकूल बनाने तथा सभीपाठयपुस्तकों, स्कूलों, विश्वविद्यालयों तथा संस्थाओं को, इसके अनुसार कार्य करने का फरमान दिया। (देखें, डेविड रैमनिक, लेनिन' स टूम्ब, दा लास्ट डैज आफ दा सोवियत एम्पायर, न्यूयार्क, 1993, पृ. 17)

स्टालिन ने स्वयं 5 करोड़ पुस्तकों की प्रतियों के लेखन तथा प्रकाशन को जिम्मेदारी ली। इतिहासकार जेनरिख जोफी ने इस पर तीव्र प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए इसे प्रत्येक स्कूल के लड़के एवं लड़कियों के दिमाग को झूठी घटनाओं से भरने का षडयंत्र कहा। डेविड रैमानिक, जो स्वयं रूस के विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रहे थे, ने इस संक्षिप्त पाठयक्रम के बारे में लिखा, 'यह एक पूर्व निश्चित इतिहास की पाठय पुस्तक थी। जिसमें सभी प्रमुख घटनाओं, आवश्यक रूप से वर्तमान शासन के सच तथा शक्ति को, कठोरता से एक शानदार परिणाम बताती थी। (देखें, अध्याय-द रिटर्न आफ हिस्ट्री, पृ. 16-51)। ऐसी पाठय पुस्तक में इतिहास आन्तरिक संघर्षों, अनिश्चित व प्रतिइच्छा, निरर्थकता तथा दुखान्त से मुक्त रहा था, किसी प्रकार के प्रश्न या लेखन को अस्वीकार करना अपराध माना जाता था। अत: लिखित पाठयक्रम को नकारना, अपनी मौत को बुलाना था।

ल्योनिद ब्रेझनेव: स्टालिन के अनुगामी
इतिहास चिन्तन की यह दिशा, स्टालिन के पश्चात् भी सोवियत अधिकनायकों का मार्गदर्शन करती रही। उदाहरण के लिए, ल्योनिद ब्रेझनेव (अक्तूबर 1964-नवम्बर 1982 ई.) ने विश्व तथा सोवियत इतिहास के विश्लेषण में स्टालिन का मार्ग अपनाया। उन्होंने सरगेई ट्रेपोजेवीकोव को विज्ञान तथा शिक्षा व्यवस्थाओं की केन्द्रीय समिति का अध्यक्ष बनाया, जिन्होंने किसी अन्य चिंतन या विरोधी मत को लिखने की स्वतंत्रता नहीं दी। सभी संस्थानों पर कठोरता से नियंत्रण किया। लेनिन द्वारा प्रथम संविधान सभा की समाप्ति से लेकर 1968 ई. तक चेकोस्लोवाकिया पर रूसी आक्रमण की सभी घटनाएं इतिहास से गायब कर दी गईं अथवा इन्हें विरोधी मत से अज्ञात रखा। यहां तक कि 1979 ई. को रूस के अफगानिस्तान पर आक्रमण को अन्तरराष्ट्रीय कर्तव्य या समाजवादी भाइयों का निमंत्रण बताया।

चीन में माओ त्सेतुंग तथा उनके उत्तराधिकारियों की इतिहास दृष्टि
सोवियत संघ की भांति चीन के माओ त्सेतुंग (1949-1976 ई.) ने भी चीनी इतिहास, संस्कृति तथा जीवन प्रणाली की मनमानी व्याख्या की। लगभग 28 वर्षों तक वह चीन के निरंकुश अधिनायक रहे। उन्होंने स्वयं अपने पहले तीन वर्षों के शासन काल के बारे में लिखा, 'पिछले तीन वर्षों में हमने 20 लाख से अधिक डाकुओं को खत्म कर दिया और क्रांतिकारियों और गुप्तचरों को बन्दीगृह के कठोर नियंत्रण में रख दिया।' (राहुल सांस्कृत्यायन, माओत्सेतुंग, इलाहाबाद, 1983, पृ. 266)। नौकरशाही का इतना दमन किया कि सभी कहने लगे कि माओ कभी गलती नहीं करते। माओ के बाद, पुन: पार्टी के उद्भव से लेकर 1976 ई. तक के इतिहास पर विचार किया गया और नवीन इतिहास रचा गया। माओ के विचारों को दफना दिया गया।

यहां एक उदाहरण देना उपयुक्त होगा। रौस टेररिल नामक एक आस्ट्रेलियाई पत्रकार ने चीन के इतिहास तथा जीवन को समझने का प्रयास किया। उन्होंने 1970 के दशक में चीन की 25 से अधिक यात्राएं कीं, माओ की पत्नी पर एक पुस्तक 'द व्हाइट बैनेड डैमन' लिखी। 1989 ई. में इसे उन्होंने चीन से छपवाया जिसमें पुस्तक का 20 प्रतिशत मुख्य भाग गायब था। अत: चीन में भ्रष्टाचार न केवल आर्थिक क्षेत्र में, बल्कि लेखन तथा प्रकाशन के क्षेत्र में भी व्याप्त था। (देखें, डेविड आइकमैन, पैसीफिक रोम, 1986, पृ.237)

भारत में वामपंथ का प्रवेश
भारत में साम्यवाद एकमात्र राजनीतिक दल है जो एक आयातित विचारधारा पर आधारित है। इसका जन्म 1920 में ताशकन्द में सोवियत अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट दल के रूप में हुआ। अत: इसका नाम भी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी न होकर 'कम्युनिस्ट पार्टी आफ इंडिया' है। अपनी सदस्य संख्या बढ़ाने के लिए पार्टी ने समय-समय पर विभिन्न हथकण्डे अपनाये। कभी महात्मा गांधी का कटु विरोध किया तो कभी कांग्रेस से गठजोड़ किया। द्वितीय महायुध्द में उसकी भूमिका नकारात्मक रही। उन्होंने 1942के आन्दोलन में अंग्रेजों का साथ दिया। पाकिस्तान के लिए जिन्ना की वकालत की तथा भारत को 16-17 स्वायत्त इकाइयों में बांटने का प्रस्ताव भी रखा। आजादी के पश्चात् भी भारतीय कम्युनिस्टों ने 1962 ई. में चीन के भारत पर आक्रमण पर पहले तो अपने मुंह पर ताला लगाए रखा, पर चीन के आगे बढ़ने पर कलकत्ता में उसे लाल सलाम देने को आतुर दिखे।

No comments: